"ए.बी. बर्धन जैसे ईमानदार कम्युनिस्ट नेता जब आउटलुक के साथ साक्षात्कार में कहते हैं कि मार्क्सवाद बहुत कठिन है, इसलिये दलितों को समझ में नहीं आता, तो फिर कहना पड़ेगा कि भारत के परिप्रेक्ष्य में कम्युनिस्ट पार्टी की आम समझ पर नये सिरे से चिंतन और उस पर अमल की बेहद ज़रूरत है." - उज्ज्वल भट्टाचार्य
मित्रो, मैं एक बहुत ही छोटा कार्यकर्ता हूँ. छोटी जगह में रहता हूँ. कम पढ़ा-लिखा हूँ. मैं भी मानता हूँ कि
मार्क्सवाद की किताबें, खासकर लेनिन की किताबें (हिन्दी अनुवाद) कठिन भाषा में लिखे गये हैं. मैंने कुछ कोशिश किया है सरलीकरण और संक्षेपीकरण की. किशोरों और तरुणों के बीच कुछ अध्ययन-चक्र और परिचर्चा चलाने की भी कोशिश की है. राहुल और भगत सिंह के ही लेख अभी नौजवानों को समझने में दिक्कत हो रही है. उनको शब्दों और सीधे-सीधे वाक्य के मतलब का बोध कराने के लिये रुक रुक कर समझाना पड़ता है. एक पैराग्राफ पढकर उसका अर्थ बताने में उन नौजवानों को भी दिक्कत आती है, जो कई-कई वर्ष से आंदोलनकर्मी क्रान्तिकारी लोगों के सम्पर्क में रहे हैं. राहुल के लेखन का देश-काल-सन्दर्भ सब बदल चुका है. शिव वर्मा की परिचयमाला और सव्यसाची की पुस्तिकाओं के सन्दर्भ पुराने पड़ चुके हैं. नये दौर के लिये नये सिरे से लिखे जाने की ज़रूरत है. इस दिशा में प्रो. लाल बहादुर वर्मा और अशोक कुमार पाण्डेय जैसे बहुत से समझदार लोगों ने बहुत काम भी किया है. मगर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. रोज-रोज विकसित होने वाले घटनाक्रम पर भी प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत ही कम और आधी-अधूरी जानकारी ही दे पाता है. मेरा तो विकसित साथियों से निवेदन है कि अगर उनके द्वारा थोड़ी मेहनत की जाये और किसी भी मामले पर पूरी जानकारी और थोड़ा कायदे का विश्लेषण दे दिया जाये, तो मुझ जैसे कार्यकर्ताओं और गाँवों में पड़े हमारे सम्पर्क के नौजवानों को, जिन तक लेखों के फोटोस्टेट कर के पहुँचाने की कोशिश जारी है, किसी भी मामले पर अपनी समझ बनाने में भारी मदद मिल जायेगी. मार्क्सवाद के शास्त्रीय ग्रंथो को भी संक्षिप्त कर के मूल प्रस्थापनाओं को समेटते हुए छोटे पर्चे लिखे जाने चाहिये. मूल ग्रन्थ जिसे पढ़ना हो, पढ़ता रहे. मगर सामान्य समझ बनाने भर को संक्षिप्त सामग्री अलग से सरल भाषा में तैयार करनी ही होगी. इस कार्यभार से हमारे लेखक साथी मुँह नहीं चुरा सकते. और बिना इसके किये अगली पीढ़ी को क्रान्तिकारी चेतना से लैस नहीं किया जा सकेगा. आशा है मेरे निवेदन को अन्यथा नहीं लेंगे और इस पर ध्यान देकर कुछ ऐसा लिखना शुरू कर देंगे,जो इस चुनौती का उत्तर होगा.
----------------------------------------------------------------------------------------------और अब बम्बई में भी फिर से एक बार धर्मान्धता की वही नफरत, वही आग, वही दंगाई मानसिकता का पागलपन! क्यों आदमी खुद को केवल इन्सान कह कर संतुष्ट नहीं रह पा रहा? क्यों वह मुसलमान या हिन्दू बन कर या बनाया जा कर बार-बार नफरत के ज़हर के असर में पागल हो कर इन्सानियत पर ही वार कर बैठता है? कितना आसान है किसी को बरगला कर उससे विध्वंस करवाना और कितना मुश्किल है उसी को उसकी खुद की रोजमर्रा की जिन्दगी के कड़वे सच क
ा साक्षात्कार करवाना! आइये मित्रो, नफरत की जगह प्यार का सन्देश फैलायें और नफरत फैलाने वाले पोस्ट्स को लाइक या शेयर करने से बचें. केवल ऐसी ही हर सकारात्मक प्रतिक्रिया से हम इस ज़हर का इलाज कर सकेंगे. वरना यह ज़हर देश के पूरे शरीर में एक बार फिर फैलता चला जायेगा और हर पिछली बार की तरह इस बार भी न जाने कितने मासूमों की बलि लेकर इसकी दानवी भूख तृप्त हो सकेगी - यह कहना मुश्किल है.
क्या आजमगढ़ आतंकवाद की नर्सरी है! नहीं, कदापि नहीं.
जिन लोगों ने आज़मगढ़ को आतंकगढ़ कह कर बदनाम किया, उनको करारा जवाब देने का वक्त यही है. पिछले दिनों जब देश और प्रदेश के अलग-अलग शहरों में दंगाई मुस्लिम साम्प्रदायिकता का ताण्डव कर रहे थे, तो लोगों की नज़र आज़मगढ़ पर लगी थी. मगर मुझे अपने आज़मगढ़िया होने पर गर्व है और मैं आज़मगढ़ के लोगों को उनकी सूझ-बूझ के लिये बधाई देना चाहता हूँ कि यहाँ शान्ति और सौहार्द ब
-------------------------------------------------------------------------जिन लोगों ने आज़मगढ़ को आतंकगढ़ कह कर बदनाम किया, उनको करारा जवाब देने का वक्त यही है. पिछले दिनों जब देश और प्रदेश के अलग-अलग शहरों में दंगाई मुस्लिम साम्प्रदायिकता का ताण्डव कर रहे थे, तो लोगों की नज़र आज़मगढ़ पर लगी थी. मगर मुझे अपने आज़मगढ़िया होने पर गर्व है और मैं आज़मगढ़ के लोगों को उनकी सूझ-बूझ के लिये बधाई देना चाहता हूँ कि यहाँ शान्ति और सौहार्द ब
नाये रखने में सबने मिलजुल कर समझदारी दिखायी. कामना करता हूँ कि यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब इसी तरह बरकरार रहे. बताते हैं कि इस शहर की स्थापना शाहजहां के शासनकाल के दौरान 1665 ई. में विक्रमजीत के पुत्र आजम खान ने, जो एक शक्तिशाली जमींदार थे, की थी. आजम खान के नाम पर ही इसका नाम आजमगढ़ पड़ा. तमसा नदी के तट पर स्थित आजमगढ़ देवल, दत्तात्रेय और दुर्वासा जैसे अनेक ऋषियों-मुनियों की साधना-स्थली है. प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के वीर कुंवर सिंह के विजय अभियान से लेकर सन बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन तक स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसकी महत्वपूर्ण भागीदारी थी. इसकी माटी से राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिऔध', मौलाना शिबली नोमानी और कैफी आज़मी जैसे दिग्गज साहित्यकारों के नाम जुड़े हैं. आजमगढ़ का परिचय अकबाल सुहेल के इस शेर से दिया जाता रहा है -
"यह खित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ;
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है."
"यह खित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ;
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है."
मित्र, जन लोकपाल आन्दोलन भारत के इतिहास के बड़े जन-उभारों की श्रृंखला का अंतिम हिस्सा तो है, मगर यह कत्तई क्रान्तिकारी जन-उभार नहीं है. इसके उलट यह आन्दोलन क्रान्ति न होने पाये और यही व्यवस्था और बेहतर तरीके से चलती रहे और इस जनविरोधी व्यवस्था द्वारा जन सामान्य का शोषण, उत्पीडन और अन्याय बदस्तूर होता रहे - इसको सुनिश्चित करने का प्रयास है. यह केवल साफ़-सुथरे धन-तन्त्र के लिये प्रयास तो है, मगर धन-तन
्त्र को असली जन-तन्त्र में बदलने का प्रयास नहीं है. फिर भी कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है ही. इस तौर पर ही इसके बारे में बिना किसी भ्रम के मैं इस आन्दोलन के साथ हूँ. जनलोकपाल और क्रान्ति का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है. जन-लोकपाल इसी तन्त्र के भीतर एक सरकारी अधिकारी और उसका लम्बा चौड़ा विभाग होगा. बस और कुछ नहीं. और क्रान्ति क्रान्तिकारी जनचेतना के विस्तार से सम्भव होती है.--------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्रिय मित्र, नाथू राम गोडसे ने तो केवल गाँधी के शरीर की हत्या की थी. मगर इस बार तो गान्धीवाद का ही वध कर दिया गया है. अब अगर सार-संकलन कर लिया गया, तो अनशन की राजनीति पर पूर्णविराम लग जाना चाहिये. एक बार फिर से साबित हो गया है कि विचारधारा के स्तर पर गांधीवाद की वर्गसहयोग पर आधारित हृदय-परिवर्तन की विचारधारा शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जन-दिशा पर आधारित क्रान्तिकारी विचारधारा के सामने परास्त हो चुकी है
. अब तो केवल क्रान्तिकारी विचारधारा का जन-सामान्य के बीच प्रचार-प्रसार करने का, उनकी मासूमियत से भरी परम्परागत सोच-समझ और अन्ध-विश्वास से भरे उनके दिन-प्रतिदिन के आचरण को बदलने की कोशिशों का, उनको एकजुट करके उनके लिये वैचारिक अध्ययन-चक्रों की श्रृंखलाएं चला कर उनके वैचारिक क्षितिज को और भी विस्तृत करने का और उनके साथ विचारधारात्मक धरातल के डिबेट में उनको धैर्य के साथ सहमति तक पहुँचा कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का और इस तरह जन-जागरण करके जन-संगठन बनाने का, धीरे-धीरे कर के ही सही जन-आन्दोलन और फिर अंततः जन-संघर्ष खड़ा करने का काम ही व्यवस्था-परिवर्तन का एक मात्र सही रास्ता है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
---------------------------------------------------------------------------------------इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
इतिहास गवाह है कि घायल शेर और अपमानित योद्धा कितना खतरनाक हो जाता है. वीरता अपने शत्रु को भी रणभूमि में शहीद होते या परास्त होते देख कर उपहास करने में नहीं, उसे सैलूट करने में है. अन्ना आन्दोलन के पहले तिरंगे कन्धों पर रखे नौजवान सडकों पर न
हीं दिखाई देते थे. याद रखना होगा किसी छोटी-सी पीछे हटने की घटना के सहारे युद्ध का मूल्यांकन नहीं होता. अन्ना ने बैटिल हारा है. वार नहीं. अभी लड़ाई बाकी है. 'सर्दियाँ तुम्हारी हैं, वसंत हमारा होगा." पोलैंड की क्रान्ति का लेख वालेसा का नारा बहुत कुछ कहता है. मित्रो, हौसला रखो, तैयारी करते रहो, कौन जानता है कि हमले की घड़ी कब और किस रूप में आ जायगी.
प्रिय मित्र, अनशन समाप्त करने, आन्दोलन वापस लेने और राजनीतिक विकल्प देने के प्रश्न पर विचार करने की अन्ना की आज की घोषणा के बाद से अन्ना आन्दोलन का मज़ाक उड़ाने वाले मित्रों से मेरा अनुरोध है कि इतिहास के मूल्यांकन में बच्चों की तरह इतनी जल्दीबाज़ी न करें.
हर आन्दोलन में उतार-चढ़ाव के तरह-तरह के दौर बार-बार आते ही हैं. जन-ज्वार के समय नेतृत्व की प्रशंसा के पुल बांधने वाले कमज़ोर समर्थक और व्यक्तिपरक च
र्चा करने वाले हलके आलोचक भीड़ के घटते ही और आन्दोलन के पीछे हटने पर उपहास करने तक जा पहुँचते हैं. मेरी समझ से यह नितान्त अनुचित और अशोभनीय है.
"एक कदम आगे, दो कदम पीछे" का नारा देने वाले महान क्रान्तिकारी लेनिन भी इससे कम बुरी परिस्थितियों से नहीं जूझे थे.
यह आन्दोलन है, आप उसके नेतृत्व के विचारों से अपनी असहमति व्यक्त करें. वैचारिक संघर्ष चलायें. उसकी कार्यप्रणाली से मतभेद व्यक्त करें. मगर उपहास तो कदापि न करें.
इतिहास का अन्त नहीं होता. जो भी मित्र हताश होकर यह सोचने लगे हैं कि अब कोई आन्दोलन नहीं होने वाला, उनके लिये भी विचार करने का अधिक महत्वपूर्ण विषय यह है कि कोई भी आन्दोलन होता ही क्यों है. क्योंकि जन-समस्याओं का समाधान दे पाना जनविरोधी तन्त्र के बूते की बात है ही नहीं. और जन-असंतोष ही परिवर्तन की आकांक्षा को आन्दोलन में रूपायित करता है. तो अगर जनाक्रोश समाप्त नहीं हुआ है, उसे संतोषजनक समाधान नहीं मिला है, तो यह स्पष्ट तौर पर इंगित कर रहा है कि देश में अगले जन-आन्दोलन का भविष्य पर्याप्त उज्जवल है.
निराशा का कोई आधार है ही नहीं. अपितु और भी प्रबल संकल्प के साथ अगली लड़ाई की तैयारी में लगने की आवश्यकता है. मेरा निवेदन है कि आन्दोलन से जुड़े सभी जनसंगठनों के हर स्तर के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को नये साथियों को जोडने और पुराने साथियों को वैचारिक तौर पर अधिक सक्षम बनाने के अभियान में जुट जाना होगा. अपने अपने स्तर पर तरह तरह के प्रयोग आरम्भ कर के और भी सघन जनसमर्थन जुटाने का मन बना कर और भी सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने के लिये कटिबद्ध हो जाना होगा. व्यवस्था के आमूल परिवर्तन के बिना किसी भी समस्या का समाधान असंभव है. और व्यवस्था बिना क्रान्ति के नहीं बदलने वाली है. शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के सपनों की शोषणमुक्त समाजव्यवस्था की रचना करना ही अब राष्ट्र के नौजवानों का अगला सामाजिक कार्यभार है. और आने वाला कल इसका साक्षी होने जा रहा है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
भ्रष्टाचार मुर्दाबाद!!
"एक कदम आगे, दो कदम पीछे" का नारा देने वाले महान क्रान्तिकारी लेनिन भी इससे कम बुरी परिस्थितियों से नहीं जूझे थे.
यह आन्दोलन है, आप उसके नेतृत्व के विचारों से अपनी असहमति व्यक्त करें. वैचारिक संघर्ष चलायें. उसकी कार्यप्रणाली से मतभेद व्यक्त करें. मगर उपहास तो कदापि न करें.
इतिहास का अन्त नहीं होता. जो भी मित्र हताश होकर यह सोचने लगे हैं कि अब कोई आन्दोलन नहीं होने वाला, उनके लिये भी विचार करने का अधिक महत्वपूर्ण विषय यह है कि कोई भी आन्दोलन होता ही क्यों है. क्योंकि जन-समस्याओं का समाधान दे पाना जनविरोधी तन्त्र के बूते की बात है ही नहीं. और जन-असंतोष ही परिवर्तन की आकांक्षा को आन्दोलन में रूपायित करता है. तो अगर जनाक्रोश समाप्त नहीं हुआ है, उसे संतोषजनक समाधान नहीं मिला है, तो यह स्पष्ट तौर पर इंगित कर रहा है कि देश में अगले जन-आन्दोलन का भविष्य पर्याप्त उज्जवल है.
निराशा का कोई आधार है ही नहीं. अपितु और भी प्रबल संकल्प के साथ अगली लड़ाई की तैयारी में लगने की आवश्यकता है. मेरा निवेदन है कि आन्दोलन से जुड़े सभी जनसंगठनों के हर स्तर के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को नये साथियों को जोडने और पुराने साथियों को वैचारिक तौर पर अधिक सक्षम बनाने के अभियान में जुट जाना होगा. अपने अपने स्तर पर तरह तरह के प्रयोग आरम्भ कर के और भी सघन जनसमर्थन जुटाने का मन बना कर और भी सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने के लिये कटिबद्ध हो जाना होगा. व्यवस्था के आमूल परिवर्तन के बिना किसी भी समस्या का समाधान असंभव है. और व्यवस्था बिना क्रान्ति के नहीं बदलने वाली है. शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के सपनों की शोषणमुक्त समाजव्यवस्था की रचना करना ही अब राष्ट्र के नौजवानों का अगला सामाजिक कार्यभार है. और आने वाला कल इसका साक्षी होने जा रहा है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
भ्रष्टाचार मुर्दाबाद!!
आज की दुनिया पर अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है. मैं एक छोटी जगह में पिछड़े लोगों के बीच रहता हूँ. यहाँ से नौजवान जब भी बाहर महानगरों में पढ़ने जाते हैं, तो उनके सामने आने वाले संकटों में से भाषा का भी भीषण संकट होता है. अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों के छात्र और हिन्दी माध्यम विद्यालयों के छात्रों के स्तर में अन्तर होता है. उनकी किताबें, फीस, तौर-तरीके, पृष्ठभूमि - सब अलग-अलग हैं. मुझे महान माओ की यह उक्ति समझ में आती है - "खुद को जानो और अपने दुश्मन को भी जानो!" अंग्रेज़ी शासक वर्ग की भाषा है. बिना शत्रु की भाषा जाने हम कैसे उसके बारे में जान सकते हैं? हमारे देश में अभी भी अंग्रेज़ी उच्चशिक्षा की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम उच्चशिक्षा प्राप्त कर सकते हैं? अंग्रेज़ी सम्पर्क की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम अपने ही देश के दूसरे प्रान्तों के लोगों से सम्वाद कर सकते है? मेरे दक्षिण भारतीय और विदेशी मित्र अक्सर कहते हैं कि आपका लिखा हम कैसे पढ़ें? मुझे उनको समझाना पड़ता है कि गूगल के सहारे ट्रांसलेट कर लीजिए. खुद मुझे हिन्दी में ही अधिकांशतः लिखना पड़ता है, क्योंकि मेरे इलाके के अधिकतर लोग केवल हिन्दी ही अच्छी तरह से पढ़-समझ सकते हैं. मैं हिन्दी-भाषी होने में गर्व महसूस करता हूँ. मगर अंग्रेज़ी की जानकारी आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि आज की दुनिया में अंग्रेजीदां लोगों से टक्कर लेकर अपने लिये बेहतर जगह बनाने में अंग्रेज़ी की जानकारी आजमगढ़ के नौजवानों के लिये सहायक है. अपने देश में आज भाषा के ज्ञान का ही संकट है. नयी पीढ़ी को हिन्दी भी कायदे से नहीं सिखाई जा रही है. एक अलग ही तरह की पौध उगायी जा रही है, जिसे न तो हिन्दी आती है और न ही अंग्रेज़ी. बच्चे हिंग्लिश बोलते हैं. तीन आइसक्रीम नहीं समझते, थ्री आइसक्रीम समझते हैं. पहाड़ा नहीं जानते, टेबल जानते हैं. हिन्दी की गिनती - उनचास, उनहत्तर - नहीं समझते, अंग्रेज़ी में बताना पड़ता है. गुलामी का आलम यह है कि गाँव गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के नाम पर खुली शिक्षा बेचने वाली छोटी बड़ी दूकानों में धड़ल्ले से चाल्क, टाल्क पढ़ाया जा रहा है. ऐसे में व्यक्तित्व विकास प्रोजेक्ट के कामो में एक महत्वपूर्ण काम नौजवानों को अंग्रेज़ी की जानकारी देना भी है. उनको हिन्दी भी सिखाना ही पड़ता है. हम सब के सामने भाषा की चुनौती एक कठिन चुनौती है.
मैं गाँधीवाद का विरोधी हूँ. मगर मैं खुले तौर पर स्वीकारता हूँ कि गाँधी युगपुरुष थे. व्यक्ति और विचारधारा के तौर पर अपनी सीमाओं के बावज़ूद गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में जो झेला और किया, उसने उनके व्यक्तित्व को वह धार दिया कि १९१६ में भारत वापस आने के बाद उन्होंने तिलक के गरम दल और गोखले के नरम दल दोनों को पी कर पचा लिया और फिर भारतीय इतिहास में गाँधी युग का आरम्भ हुआ. शेष धाराओं ने अपनी भूमिका का निर्
वाह किया तो, मगर भारतीय पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी ने ही स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया. स्वतन्त्र भारत के पूँजीवादी विकास को गांधीवाद की ज़रूरत नहीं थी. उसने नेहरू के सपनों के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास किया. देश की सत्ता के द्वारा पूँजीवादी जनतन्त्र की स्थापना और विकास किया गया और पंचशील और पंचवर्षीय योजनाओं का दौर आरम्भ हुआ. साठ के दशक को नेहरू का दशक कहा गया. नेहरू और टीटो ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ज़मीन दे कर साम्राज्यवाद के सामने एक अवरोध खड़ा करने की कोशिश की. इतिहास का मूल्यांकन तथ्यों की रौशनी में करने से हम चूक से बच सकते हैं. वहाँ हमारी सदिच्छाओं की कोई जगह नहीं होती.
जीवन-संघर्ष में जूझ रहे नौजवानों द्वारा अपने समय का सही तरीके से प्रबंधन कर ले जाना और मिले हुए अवसर पर चूक न जाना गलाकाटू प्रतियोगिता के आज के भीषण दौर में सफलता के लिये मूल मन्त्र है. राष्ट्र कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहा है. सत्ता देश के संसाधनों को बेशर्मी के साथ देशी-विदेशी थैलीशाहों को बेच रही है. विद्वेष के ज़हर से जन की एकता को विखण्डित करने का कुचक्र साम्प्रदायिकतावादी शक्तियों द्वारा चलाया जा रहा है, जो फ़ासिज़्म के बढ़ते खतरे की ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है. ऐसे में यक्ष-प्रश्न है - "कौन बचायेगा देश?" और एक मात्र उत्तर है - "केवल समर्थ और समर्पित नौजवान!"
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प्रिय मित्र, आज़ाद की शहादत का दिन और उनसे नेहरू की मुलाकात का दिन एक ही बताने वाले और आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क जाने की सूचना पुलिस तक पहुँचाने का नेहरू पर आरोप लगा कर नेहरू को पुलिस का मुखबिर बताने वाले लोगों के षड्यंत्र की सच्चाई की जानकारी आप सब को देने के लिये पेश है यशपाल द्वारा लिखित सिंहावलोकन के पृष्ठ 392 से 402 तक. इसे अवश्य देखने का कष्ट करें.
इस आरोप को इन लिंक्स पर देखिये.
कहता है उसी तारीख को मिले थे (See the second Paragraph)
"Chandra Shekhar Azad met Pandit Nehru on 27 February 1931 early morning and asked help to stop capital punishment of these three Krantikari(Bhagat Singh,Rajguru and Shukhdev). Pandit Nehru did not agree with him on some points and told him to leave immediately.So,Azad had to return back with an empty hand.
On the same day, Azad went to the Alfred Park . He sat under a
tree of Jamun.... "
Chandra Shekhar Azad - Wikipedia, the free encyclopedia
अब यह लिंक देखिये -
Thalua Club - "चंद्रशेखर आज़ाद की मौत से जुडी फ़ाइल आज भी लखनऊ के सीआइडी ऑफिस १- गोखले मार्ग मे रखी है .. उस फ़ाइल को नेहरु ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया .. इतना ही नही नेहरु ने यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को उस फ़ाइल को नष्ट करने का आदेश दिया था .. लेकिन चूँकि पन्त जी खुद एक महान क्रांतिकारी रहे थे इसलिए उन्होंने नेहरु को झूठी सुचना दी की उस फ़ाइल को नष्ट कर दिया गया है ..
उस फ़ाइल मे इलाहब...ाद के तत्कालीन पुलिस सुपरिटेंडेंट मिस्टर नॉट वावर के बयान दर्ज है जिसने अगुवाई मे ही पुलिस ने अल्फ्रेड पार्क मे बैठे आजाद को घेर लिया था और एक भीषण गोलीबारी के बाद आज़ाद शहीद हुए |...नॉट वावर ने अपने बयान मे कहा है कि " मै खाना खा रहा था तभी नेहरु का एक संदेशवाहक आया उसने कहा कि नेहरु जी ने एक संदेश दिया है कि आपका शिकार अल्फ्रेड पार्क मे है और तीन बजे तक रहेगा .. मै कुछ समझा नही फिर मैं तुरंत आनंद भवन भागा और नेहरु ने बताया कि अभी आज़ाद अपने साथियो के साथ आया था वो रूस भागने के लिए बारह सौ रूपये मांग रहा था मैंने उसे अल्फ्रेड पार्क मे बैठने को कहा है "
फिर मै बिना देरी किये पुलिस बल लेकर अल्फ्रेड पार्क को चारो ओर घेर लिया और आजाद को आत्मसमर्पण करने को कहा लेकिन उसने अपना माउजर निकालकर हमारे एक इंस्पेक्टर को मार दिया फिर मैंने भी गोली चलाने का हुकम दिया .. पांच गोली से आजाद ने हमारे पांच लोगो को मारा फिर छठी गोली अपने कनपटी पर मार दी |"
27 फरवरी 1931, सुबह आजाद नेहरु से आनंद भवन में उनसे भगत सिंह की फांसी की सजा को उम्र केद में बदलवाने के लिए मिलने गये, क्यों की वायसराय लार्ड इरविन से नेहरु के अच्छे ''सम्बन्ध'' थे, पर नेहरु ने आजाद की बात नही मानी,दोनों में आपस में तीखी बहस हुयी, और नेहरु ने तुरंत आजाद को आनंद भवन से निकल जाने को कहा । आनंद भवन से निकल कर आजाद सीधे अपनी साइकिल से अल्फ्रेड पार्क गये । इसी पार्क में नाट बाबर के साथ मुठभेड़ में वो शहीद हुए थे ।अब आप अंदाजा लगा लीजिये की उनकी मुखबरी किसने की ? आजाद के लाहोर में होने की जानकारी सिर्फ नेहरु को थी । अंग्रेजो को उनके बारे में जानकारी किसने दी ? जिसे अंग्रेज शासन इतने सालो तक पकड़ नही सका,तलाश नही सका था, उसे अंग्रेजो ने 40 मिनट में तलाश कर, अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया । वो भी पूरी पुलिस फ़ोर्स और तेयारी के साथ ?
आज़ाद पहले कानपूर गणेश शंकर विद्यार्थी जी के पास गए फिर वहाँ तय हुआ की स्टालिन की मदद ली जाये क्योकि स्टालिन ने खुद ही आजाद को रूस बुलाया था . सभी साथियो को रूस जाने के लिए बारह सौ रूपये की जरूरत थी .जो उनके पास नही था इसलिए आजाद ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नेहरु से पैसे माँगा जाये .लेकिन इस प्रस्ताव का सभी ने विरोध किया और कहा कि नेहरु तो अंग्रेजो का दलाल है लेकिन आजाद ने कहा कुछ भी हो आखिर उसके सीने मे भी तो एक भारतीय दिल है वो मना नही करेगा |
फिर आज़ाद अकेले ही कानपूर से इलाहबाद रवाना हो गए और आनंद भवन गए उनको सामने देखकर नेहरु चौक उठा | आजाद ने उसे बताया कि हम सब स्टालिन के पास रूस जाना चाहते है क्योकि उन्होंने हमे बुलाया है और मदद करने का प्रस्ताव भेजा है .पहले तो नेहरु काफी गुस्सा हुआ फिर तुरंत ही मान गया और कहा कि तुम अल्फ्रेड पार्क बैठो मेरा आदमी तीन बजे तुम्हे वहाँ ही पैसे दे देगा |"
अब यशपाल के सिंहावलोकन से पढ़िए - "1931 के शुरू की बात कह रहा था. एक दिन आज़ाद ..... प. नेहरू से बात करने आनंद भवन गये.... आज़ाद एक बार मोतीलाल जी से मिल चुके थे...प.नेहरू ने आज़ाद से मुलाकात का अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है - (मेरी कहानी- नेहरू पृष्ठ 269)...आज़ाद ने नेहरू जी से मुलाकात के बाद जब इस घटना की बात हम लोगों को कटरे के मकान में सुनायी, तो उनके होंठ खिन्नता से फडक रहे थे और उन्होंने कहा था, "साला हमें फासिस्ट कहता है."....आज़ाद को इस बात का बहुत कलख था कि नेहरू जी ने उन्हें फासिस्ट कहा. उन्होंने कहा, "सोहन,(यशपाल) एक दिन तुम जाकर प. नेहरू से मिलो." मैंने प्रायः फरवरी के दूसरे-तीसरे सप्ताह में शिवमूर्ति जी से कह कर नेहरू जी से मिलने का समय तय किया और संध्या समय आनंद भवन गया.....मैंने... रूस जाने और ... आर्थिक सहायता का अनुरोध भी किया. ...मैंने अनुमान से पाँच-छः हज़ार की रकम बता दी. नेहरू जी ने कहा, "इतना तो बहुत है पर मैं जो कुछ हो सकेगा, करूँगा." लौटने के बाद मैंने बातचीत का ब्यौरा आज़ाद को बताया तो उन्हें काफी सन्तोष हुआ.....लगभग तीसरे दिन शिवमूर्ति जी ने मुझे पन्द्रह सौ रुपये देकर कहा कि शेष के लिये नेहरू जी प्रबन्ध कर रहे हैं....कटरे के मकान में लौट कर मैंने यह रूपया आज़ाद को सौंप देना चाह तो उन्होंने कहा, "तुम्हीं रखो." इस विचार से कि किसी दुर्घटना में सभी रुपया एक साथ न चला जाये, पाँच सौ उनकी जेब में डाल दिया. ...दूसरे दिन २७ फरवरी को सुरेन्द्र पाण्डेय और मैं स्वेटरों के लिये चौक जाने के लिये तैयार हुए तो आज़ाद ने कहा, "मुझे अल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलने जाना है. साथ ही चलते हैं. तुम लोग आगे निकल जाना." हम तीनो साईकिलों से अल्फ्रेड पार्क के सामने से जा रहे थे एक साइकिल पर सुखदेव राज पार्क में जाता दिखाई दिया. मैं समझ गया कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना है.... भैया पार्क में चले गये और पाण्डेय और मैं सीधे चौक की ओर."
और अब यह नया शिगूफा! धन्य हैं चरित्रहनन की राजनीति करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और
सही समय आते ही तुमको तुम्हारे कुत्सप्रचार के अपराध की सज़ा भी ज़रूर देगा. सजग रहो. जन की नज़र और समझ को धोखा देना और वह भी आज के इन्टरनेट के युग में आसान नहीं रहा है अब. संभल कर लिखो. पकडे जाने पर जवाब देते नहीं बनेगा.
चमन लाल , प्रोफ़ेसर भारतीय भाषा केंद्र जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय , नई दिल्ली
संपादक शहीद भगत सिंह;दस्तावेजों के आईने में-भारत सरकार प्रकाशन
और अब भगत सिंह के नाम पर यह नया शिगूफा!
-:Negi Revo - "BHagat Singh ka Bhagwakaran ki ek or koshish.. RAAMDEV DWARA...":-
धन्य हैं इतिहास की मन-गढन्त रचना करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब
देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और सही समय आते ही तुमको तुम्हारे कुत्सा प्रचार के अपराध की सज़ा भी ज़रूर देगा. सजग रहो. जन की नज़र और समझ को धोखा देना और वह भी आज के इन्टरनेट के युग में आसान नहीं रहा है अब. संभल कर लिखो. पकडे जाने पर जवाब देते नहीं बनेगा....
भगत सिंह भारतीय क्रान्ति के प्रतीक-पुरुष हैं. उनके जीवन का हर घटनाक्रम और उनके सारे लेख और बयान इतिहास के पन्नों के अन्दर सुरक्षित हैं. सारे लिंक उपलब्ध हैं. यह सब उलटा-पलटा जो आप कह रहे है, यह सब किस किताब में लिखा है? वह कौन-सा मुकदमा है जिसे आप भगत सिंह के नाम से जोड़ रहे है और क्यों जोड़ रहे हैं? किस पत्रकार से भगत सिंह ने अपनी 'यह' अंतिम इच्छा बतायी थी? कोई स्रोत है आपके पास? अगर नहीं है तो कृपया इतिहास के साथ मज़ाक मत कीजिए. ज़रा यह देखिए आप क्या लिख रहे हैं -
"अब सांड्र्स को सज़ा मिलनी चाहिए इसके लिये शहीदेआजम भगत सिंह ने आदलत में मुकद्दमा कर दिया । सुनवाई हुई । अदालत ने फैसला दिया कि लाला पर जी जो लाठिया मारी गई है वो कानून के आधार पर मारी गई है अब इसमे उनकी मौत हो गई तो हम क्या करे इसमे कुछ भी गलत नहीं है ।नतीजा सांड्र्स को बाईजत बरी किया जाता है ।
तब भगत सिंह को गुस्सा आया उसने कहा जिस अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने लालाजी के हथियारे को बाईज्जत बरी कर दिया । उसको सज़ा मैं दुंगा । और इसे वहीं पहुँचाउगा जहाँ इसने लाला जी पहुँचाया है । और जैसा आप जानते फ़िर भगत सिंह ने सांड्र्स को गोली से उड़ा दिया । और फ़िर भगत सिंह को इसके लिये फ़ांसी की सज़ा हुई ।
जिंदगी के अंतिम दिनो जब भगत सिंह लाहौर जेल में बंद थे तो बहुत से पत्रकार उनसे मिलने जाया करते थे । और भगत सिंह से पुछा उनकी कोई आखिरी इच्छा और देश के युवाओ के लिये कोई संदेश ?
शहीदेआजम भगत सिंह ने कहा कि मैं देश के नौजवानो से उम्मीद करता हूँ । कि जिस indian police act के कारण लाला जी जान गई । जिस indian police act के आधार मैं फ़ांसी चढ़ रहा हूँ । मै आशा करता हुं इस देश के नौजवान आजादी मिलने से पहले पहले इस indian police act खत्म करवां देगें ।ये मेरी भावना है | यही मेरे दिल की इच्छा है ।"
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=284106648370522&set=a.245940215520499.54820.245770815537439&type=
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और अब भगत सिंह के नाम पर यह नया शिगूफा!
-:Negi Revo - "BHagat Singh ka Bhagwakaran ki ek or koshish.. RAAMDEV DWARA...":-
धन्य हैं इतिहास की मन-गढन्त रचना करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब
देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और सही समय आते ही तुमको तुम्हारे कुत्सा प्रचार के अपराध की सज़ा भी ज़रूर देगा. सजग रहो. जन की नज़र और समझ को धोखा देना और वह भी आज के इन्टरनेट के युग में आसान नहीं रहा है अब. संभल कर लिखो. पकडे जाने पर जवाब देते नहीं बनेगा....
भगत सिंह भारतीय क्रान्ति के प्रतीक-पुरुष हैं. उनके जीवन का हर घटनाक्रम और उनके सारे लेख और बयान इतिहास के पन्नों के अन्दर सुरक्षित हैं. सारे लिंक उपलब्ध हैं. यह सब उलटा-पलटा जो आप कह रहे है, यह सब किस किताब में लिखा है? वह कौन-सा मुकदमा है जिसे आप भगत सिंह के नाम से जोड़ रहे है और क्यों जोड़ रहे हैं? किस पत्रकार से भगत सिंह ने अपनी 'यह' अंतिम इच्छा बतायी थी? कोई स्रोत है आपके पास? अगर नहीं है तो कृपया इतिहास के साथ मज़ाक मत कीजिए. ज़रा यह देखिए आप क्या लिख रहे हैं -
"अब सांड्र्स को सज़ा मिलनी चाहिए इसके लिये शहीदेआजम भगत सिंह ने आदलत में मुकद्दमा कर दिया । सुनवाई हुई । अदालत ने फैसला दिया कि लाला पर जी जो लाठिया मारी गई है वो कानून के आधार पर मारी गई है अब इसमे उनकी मौत हो गई तो हम क्या करे इसमे कुछ भी गलत नहीं है ।नतीजा सांड्र्स को बाईजत बरी किया जाता है ।
तब भगत सिंह को गुस्सा आया उसने कहा जिस अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने लालाजी के हथियारे को बाईज्जत बरी कर दिया । उसको सज़ा मैं दुंगा । और इसे वहीं पहुँचाउगा जहाँ इसने लाला जी पहुँचाया है । और जैसा आप जानते फ़िर भगत सिंह ने सांड्र्स को गोली से उड़ा दिया । और फ़िर भगत सिंह को इसके लिये फ़ांसी की सज़ा हुई ।
जिंदगी के अंतिम दिनो जब भगत सिंह लाहौर जेल में बंद थे तो बहुत से पत्रकार उनसे मिलने जाया करते थे । और भगत सिंह से पुछा उनकी कोई आखिरी इच्छा और देश के युवाओ के लिये कोई संदेश ?
शहीदेआजम भगत सिंह ने कहा कि मैं देश के नौजवानो से उम्मीद करता हूँ । कि जिस indian police act के कारण लाला जी जान गई । जिस indian police act के आधार मैं फ़ांसी चढ़ रहा हूँ । मै आशा करता हुं इस देश के नौजवान आजादी मिलने से पहले पहले इस indian police act खत्म करवां देगें ।ये मेरी भावना है | यही मेरे दिल की इच्छा है ।"
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=284106648370522&set=a.245940215520499.54820.245770815537439&type=
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प्रिय मित्र, मुसहर हमारे इलाके के आदिवासी हैं. उनको परम्परा ने अंतिम पायदान पर जिन्दा रहने को विवश किया है. पेश है उनके बारे में मेरा एक निवेदन.
"भाइयो और बहनो,
आज भी अपने देश में रहने वाले अधिकतर लोग ग़रीब हैं। ग़रीबों में भी सबसे ग़रीब हैं आदिवासी। हमारे इलाके में आदिवासी समाज की मुसहर बिरादरी रहती है। मुसहरों की ज़िन्दगी पहले भी आसान नहीं थी और आज भी मुश्किल ही है। पहले भी मुसहर गाँव से बाहर भीटे
पर मँड़ई-टाटी डाल कर रहते थे। आज भी वैसे ही रहते हैं। जाड़ा, गरमी, बरसात हमेशा मौसम का कोप इनको नंगे सिर-नंगे बदन झेलना पड़ता है।
पहले मुसहरों का ख़ानदानी धन्धा था जंगल से पत्ते तोड़ कर पत्तल-दोना बनाना। अब ये सामान कारखानों में प्लास्टिक से बनने लगे हैं। पहले मुसहर जंगल से लकड़ी काट कर, पत्ते तोड़ कर, शहद उतार कर, जड़ी-बूटियाँ बटोर कर बेचते थे। अब जंगलों पर वन-विभाग का कब्ज़ा हो चुका है। शादी-विवाह के मौके पर मुसहर बहँगी-पालकी ढोया करते थे। उनकी जगह मोटर-गाड़ियों ने ले ली है। तब मुसहर खेती-बाड़ी में भी मेहनत-मज़दूरी करके अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट पालते थे। अब ये सारे काम मशीनों से करा लिये जाते हैं।
आज इनके पास ज़िन्दा रहने का कोई भी पुश्तैनी धन्धा नहीं बचा है। ऐसे में मजबूरन पेट की रोटी के लिये इनको दर-दर भटकना पड़ रहा है। इस समय मुसहर बिरादरी के अधिकतर लोग ईंट-भट्टों पर काम कर रहे हैं। हाड़-तोड़ मेहनत करने पर भी भट्टा-मालिक इनको बेतहाशा सताते रहते हैं। गाँवों के दबंग भी इनको नहीं छोड़ते, ज़बरदस्ती बेगारी खटाते हैं और मज़दूरी माँगने पर थोड़ा-बहुत दे-दिला कर, डाँट-फटकार कर, गाली-गुप्ता देकर, मारने-पीटने की धमकी देकर भगा देते हैं।
पुलिस वालों का तो कहना ही क्या है ! वे आते-जाते इनके मुर्गे-मुर्गियाँ छीन-झपट लेते हैं। चोरी-चकारी का जब भी कोई मामला सामने आता है, सबसे पहले इन पर ही पुलिसिया कहर टूट पड़ता है। पुलिस वाले इनको इनके घर से, रास्ते से, बाज़ार से पकड़ कर ले जा कर बन्द कर देते हैं और इन पर फ़र्ज़ी मुकदमे मढ़ देते हैं। सैकड़ों बेगुनाह मुसहर जेलों में कैद हैं और दर्जनों मुसहरों की पुलिस ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हत्या कर डाली है।
मुसहर समाज लगभग पूरी तरह अनपढ़ है। इनमें तरह-तरह की बुराइयाँ फैली हैं। इनके दिमाग में तरह-तरह की ग़लत बातें भरी हुई हैं। ये भूत-प्रेत, जादू-टोना, जन्तर-मन्तर, ओझा-सोखा, झाड़-फूँक के चक्कर में फँसे हुए हैं। इनके ख़ून-पसीने की गाढ़ी कमाई का अच्छा ख़ासा हिस्सा नशे की आदत के चलते रोज़-रोज़ बर्बाद होता रहता है। इनकी ज़िन्दगी में सुख-चैन की कोई गुन्जाइश नहीं है। किसी तरह गुज़र-बसर करने से अधिक ये सोच भी नहीं पाते।
संख्या में कम होने के चलते मुसहर वोट-बैंक नहीं बन सके और नतीज़ा यह है कि इनको सबसे ग़रीब होने के बावज़ूद सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। न तो इनके पास लाल कार्ड है और न ही मनरेगा का जाॅब कार्ड। इनका नाम बी.पी.एल. सूची में भी नहीं है। इनके घर तक जाने के रास्ते की हालत जैसी थी, वैसी ही है। इनकी बस्तियों में साफ पानी के लिये सरकारी नल भी नहीं लग सके हैं। इनके घरों तक अभी भी न तो बिजली की रोशनी ही पहुँच पायी है और न ही पढ़ाई-सफाई-दवाई की सुविधा। ज़मीन का पट्टा अगर किसी मुसहर के नाम से हो भी गया है, तो उस पर कब्ज़ा किसी न किसी दबंग का बना हुआ है। कोर्ट-कचहरी और सरकारी आफ़िसों में भी इनकी कोई सुनवाई नहीं हो पाती है।
ऐसे में सबसे ग़रीब होने के चलते मुसहरों की ज़िन्दगी आज तक नरक से भी बदतर है। ज़रूरत है मुसहरों का विकास करने की, इनकी मुश्किलों का हल खोजने की, इनकी परेशानियों को दूर करने की, मुसीबत में इनके साथ खड़ा होने की, दुःख-तकलीफ़ में इनके आँसू पोंछने की, इनके भीतर अपने ऊपर भरोसा भरने की, इनको इज्ज़त के साथ जीना सिखाने की और ज़िन्दगी की दौड़ में सारे समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के काबिल बनाने की। मुसहर इस देश के आदिवासी हैं। आदिवासी होने के चलते इनका विकास हम सभी लोगों का फ़र्ज़ है।"
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पहले मुसहरों का ख़ानदानी धन्धा था जंगल से पत्ते तोड़ कर पत्तल-दोना बनाना। अब ये सामान कारखानों में प्लास्टिक से बनने लगे हैं। पहले मुसहर जंगल से लकड़ी काट कर, पत्ते तोड़ कर, शहद उतार कर, जड़ी-बूटियाँ बटोर कर बेचते थे। अब जंगलों पर वन-विभाग का कब्ज़ा हो चुका है। शादी-विवाह के मौके पर मुसहर बहँगी-पालकी ढोया करते थे। उनकी जगह मोटर-गाड़ियों ने ले ली है। तब मुसहर खेती-बाड़ी में भी मेहनत-मज़दूरी करके अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट पालते थे। अब ये सारे काम मशीनों से करा लिये जाते हैं।
आज इनके पास ज़िन्दा रहने का कोई भी पुश्तैनी धन्धा नहीं बचा है। ऐसे में मजबूरन पेट की रोटी के लिये इनको दर-दर भटकना पड़ रहा है। इस समय मुसहर बिरादरी के अधिकतर लोग ईंट-भट्टों पर काम कर रहे हैं। हाड़-तोड़ मेहनत करने पर भी भट्टा-मालिक इनको बेतहाशा सताते रहते हैं। गाँवों के दबंग भी इनको नहीं छोड़ते, ज़बरदस्ती बेगारी खटाते हैं और मज़दूरी माँगने पर थोड़ा-बहुत दे-दिला कर, डाँट-फटकार कर, गाली-गुप्ता देकर, मारने-पीटने की धमकी देकर भगा देते हैं।
पुलिस वालों का तो कहना ही क्या है ! वे आते-जाते इनके मुर्गे-मुर्गियाँ छीन-झपट लेते हैं। चोरी-चकारी का जब भी कोई मामला सामने आता है, सबसे पहले इन पर ही पुलिसिया कहर टूट पड़ता है। पुलिस वाले इनको इनके घर से, रास्ते से, बाज़ार से पकड़ कर ले जा कर बन्द कर देते हैं और इन पर फ़र्ज़ी मुकदमे मढ़ देते हैं। सैकड़ों बेगुनाह मुसहर जेलों में कैद हैं और दर्जनों मुसहरों की पुलिस ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हत्या कर डाली है।
मुसहर समाज लगभग पूरी तरह अनपढ़ है। इनमें तरह-तरह की बुराइयाँ फैली हैं। इनके दिमाग में तरह-तरह की ग़लत बातें भरी हुई हैं। ये भूत-प्रेत, जादू-टोना, जन्तर-मन्तर, ओझा-सोखा, झाड़-फूँक के चक्कर में फँसे हुए हैं। इनके ख़ून-पसीने की गाढ़ी कमाई का अच्छा ख़ासा हिस्सा नशे की आदत के चलते रोज़-रोज़ बर्बाद होता रहता है। इनकी ज़िन्दगी में सुख-चैन की कोई गुन्जाइश नहीं है। किसी तरह गुज़र-बसर करने से अधिक ये सोच भी नहीं पाते।
संख्या में कम होने के चलते मुसहर वोट-बैंक नहीं बन सके और नतीज़ा यह है कि इनको सबसे ग़रीब होने के बावज़ूद सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। न तो इनके पास लाल कार्ड है और न ही मनरेगा का जाॅब कार्ड। इनका नाम बी.पी.एल. सूची में भी नहीं है। इनके घर तक जाने के रास्ते की हालत जैसी थी, वैसी ही है। इनकी बस्तियों में साफ पानी के लिये सरकारी नल भी नहीं लग सके हैं। इनके घरों तक अभी भी न तो बिजली की रोशनी ही पहुँच पायी है और न ही पढ़ाई-सफाई-दवाई की सुविधा। ज़मीन का पट्टा अगर किसी मुसहर के नाम से हो भी गया है, तो उस पर कब्ज़ा किसी न किसी दबंग का बना हुआ है। कोर्ट-कचहरी और सरकारी आफ़िसों में भी इनकी कोई सुनवाई नहीं हो पाती है।
ऐसे में सबसे ग़रीब होने के चलते मुसहरों की ज़िन्दगी आज तक नरक से भी बदतर है। ज़रूरत है मुसहरों का विकास करने की, इनकी मुश्किलों का हल खोजने की, इनकी परेशानियों को दूर करने की, मुसीबत में इनके साथ खड़ा होने की, दुःख-तकलीफ़ में इनके आँसू पोंछने की, इनके भीतर अपने ऊपर भरोसा भरने की, इनको इज्ज़त के साथ जीना सिखाने की और ज़िन्दगी की दौड़ में सारे समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के काबिल बनाने की। मुसहर इस देश के आदिवासी हैं। आदिवासी होने के चलते इनका विकास हम सभी लोगों का फ़र्ज़ है।"
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प्रिय मित्र, मैं जब कभी अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर भी मासूम धर्मान्ध कट्टरपन्थियों के दिल में इन्सानियत के लिये कूट-कूट कर भरी हुई बेतहाशा शक और नफरत की बदबू की जगह किसी भी तरह से समझाने के बावज़ूद तनिक भी यकीन और मोहब्बत का जज़्बा नहीं उगा पाता, तो मेरा खुद का मन बुरी तरह बिलबिला जाता है.
और जब धूर्त दुनियादार मक्कारों को अपनी पूरी ईमानदारी से कोशिश करने के बावज़ूद सच और इन्साफ के साथ टुच्ची चालाकी
से भरी अमानुषिक ठगी करने से नहीं रोक पाता, तो मेरा खुद का दिमाग भीषण क्षोभ से झनझना उठता है.
कम से कम मुझे तो मेरी इस लाइलाज बीमारी का कोई हल नहीं अभी तक मिल सका है. क्या कोई रास्ता है इस से पैदा होने वाले जानलेवा तनाव की यंत्रणा से अपनी मानसिक शान्ति और सन्तुलन को बचा कर बेहतर इन्सान तैयार करने के सकारात्मक प्रयासों को नये सिरे से एक बार फिर शुरू करने लायक खुद को बचा पाने और और मज़बूत बना पाने का!
इन पंक्तियों के सहारे अपनी वेदना आप तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूँ. जिसके लिये लिखा था, उसने तो अनसुनी कर ही दिया था.
चिकित्सक को सलाह -
मैं अकेला लड़ रहा हूँ इस ज़माने से, ज़नाब!
आप बस देखें तमाशा ज़िन्दगी का - मौत का ।
यह अकेलापन मुझे भी तोड़ता है, जंग भी,
आप देते साथ फिर तो मज़ा ही कुछ और था ।
मेरा चलना, मेरा थमना, मेरा मुड़ना देख कर,
वाह कर लें - आह भर लें, फ़र्क क्या मुझ पर पड़ा ?
है अगर दम, साथ चल कर चख़ें चलने का नशा,
यह नशा पागल बना कर छोड़ देगा आपको ।
मेरी जु़र्रत देख कर भी आप ग़ुर्राते नहीं,
या तो हैं मासूम बेहद या बहुत चालाक हैं ।
आप कहते हैं मुझे पागल, दीवाना, जंगली,
मेरी फ़ितरत है कि मेरा हमसफ़र ख़ुदगर्ज़ है ।
आप मेरा मर्ज़ पहिचानें, सुझायें तब दवा,
मेरी नज़रों में ज़माना ला-इलाज-ए-मर्ज़ है ।
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कम से कम मुझे तो मेरी इस लाइलाज बीमारी का कोई हल नहीं अभी तक मिल सका है. क्या कोई रास्ता है इस से पैदा होने वाले जानलेवा तनाव की यंत्रणा से अपनी मानसिक शान्ति और सन्तुलन को बचा कर बेहतर इन्सान तैयार करने के सकारात्मक प्रयासों को नये सिरे से एक बार फिर शुरू करने लायक खुद को बचा पाने और और मज़बूत बना पाने का!
इन पंक्तियों के सहारे अपनी वेदना आप तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूँ. जिसके लिये लिखा था, उसने तो अनसुनी कर ही दिया था.
चिकित्सक को सलाह -
मैं अकेला लड़ रहा हूँ इस ज़माने से, ज़नाब!
आप बस देखें तमाशा ज़िन्दगी का - मौत का ।
यह अकेलापन मुझे भी तोड़ता है, जंग भी,
आप देते साथ फिर तो मज़ा ही कुछ और था ।
मेरा चलना, मेरा थमना, मेरा मुड़ना देख कर,
वाह कर लें - आह भर लें, फ़र्क क्या मुझ पर पड़ा ?
है अगर दम, साथ चल कर चख़ें चलने का नशा,
यह नशा पागल बना कर छोड़ देगा आपको ।
मेरी जु़र्रत देख कर भी आप ग़ुर्राते नहीं,
या तो हैं मासूम बेहद या बहुत चालाक हैं ।
आप कहते हैं मुझे पागल, दीवाना, जंगली,
मेरी फ़ितरत है कि मेरा हमसफ़र ख़ुदगर्ज़ है ।
आप मेरा मर्ज़ पहिचानें, सुझायें तब दवा,
मेरी नज़रों में ज़माना ला-इलाज-ए-मर्ज़ है ।
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प्रिय मित्र, मुझे आज मैत्री-दिवस पर याद आ रही है मार्क्स और एंगेल्स की दोस्ती, फिदेल और चे की दोस्ती, आज़ाद और भगत सिंह की दोस्ती की.
और अपने न जाने कितने दोस्तों की, जिनकी वजह से ही मैं आज जो हूँ वह बन सका, जो कुछ करना चाहा वह कर सका, जिन्होंने चुपचाप मेरी छोटी-बड़ी योजनाओं को मूर्तमान करने में अपनी अपनी भूमिकाएँ निष्काम भाव से निभायी हैं. मैं अपने उन सभी और आप सभी मित्रों के प्रति स्वयं को ऋणी पाता हूँ. आप सबके स्नेह के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ. मिसिर अरुण का यह उद्धरण बहुत कुछ कह रहा है. इसे विनम्रता से आप तक प्रेषित कर रहा हूँ.
Misir Arun - मैत्री सभी रिश्तों का अंतर्निहित भाव है ! मैत्री के बिना कोई रिश्ता अर्थ नहीं पा सकता लेकिन मैत्री बिना किसी रिश्ते के भी रह सकती है !
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Misir Arun - मैत्री सभी रिश्तों का अंतर्निहित भाव है ! मैत्री के बिना कोई रिश्ता अर्थ नहीं पा सकता लेकिन मैत्री बिना किसी रिश्ते के भी रह सकती है !
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प्रिय मित्र, आज मुझसे एक नौजवान ने कहा - "गुरु जी, सरकार छात्रवृत्ति नहीं दे रही है, विभिन्न जातियों के छात्रों को जातिवृत्ति दे रही है. छात्रवृत्ति पाने का अधिकारी तो प्रतिभाशाली छात्र होना चाहिए. मगर जातिवृत्ति पाने के लिये केवल जातिविशेष में जन्म लेकर जाति प्रमाण पत्र बनवाना होता है." उसने मुझसे यह भी पूछा - "मुझे किस कटेगरी में रखा जायेगा? मैं तो अनाथालय में पला-बढ़ा हूँ. मुझे न तो मेरे पिता का
पता है और न ही मेरी माता का. मेरी अर्थव्यवस्था से भी सब लोग परिचित ही हैं. मैं न तो हिंदुओं की किसी कटेगरी में अपना नाम देखना चाहता हूँ और न ही मुसलमानों की किसी कटेगरी में. न तो एस.सी. बनना चाहता हूँ और न ही बैकवर्ड. और फिर मुझे अगर साल भर में दो हज़ार रुपये मिल ही जायेंगे, तो मैं उनसे अपनी पढ़ाई में कितनी मदद पा लूँगा!"
वह ट्यूशन पढ़ा कर अपना गुज़र करता है और कांसीराम आवास में आबंटित अपने आवास में रहता है. वह एल.एल.बी. करना चाहता है, जिलाधिकारी बनने का सपना देखता है और अपने खाली समय में अपनी कॉलोनी में बच्चों को मुफ्त सिखाता-पढाता है.
वह मुझे बहुत प्यार करता है.
क्या आपके पास उसके प्रश्नों का उत्तर है?
मेरे पास तो नहीं है. कृपया मेरी मदद करें.
विनम्रता के साथ आपका गिरिजेश.
वह ट्यूशन पढ़ा कर अपना गुज़र करता है और कांसीराम आवास में आबंटित अपने आवास में रहता है. वह एल.एल.बी. करना चाहता है, जिलाधिकारी बनने का सपना देखता है और अपने खाली समय में अपनी कॉलोनी में बच्चों को मुफ्त सिखाता-पढाता है.
वह मुझे बहुत प्यार करता है.
क्या आपके पास उसके प्रश्नों का उत्तर है?
मेरे पास तो नहीं है. कृपया मेरी मदद करें.
विनम्रता के साथ आपका गिरिजेश.
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