Wednesday, 22 August 2012

‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!’’



‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!’’ - नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हमारे देश के स्वाधीनता-संग्राम के अग्रणी, प्रभावशाली, लोकप्रिय और महान योद्धा थे। उनके प्रतिभावान व्यक्तित्व में जननेता, क्रान्तिकारी तथा सेनानायक के गुणों का अद्भुत संष्लेषण था। सतत सक्रियता, अदम्य साहस, प्रेरक वक्तृता, क्रान्तिकारी गोपनीयता, देदीप्यमान ओज, उत्कट बलिदान भाव, धारदार तर्क, प्रगतिशील वामपन्थी विचारों की वैज्ञानिक सोच, विलक्षण संगठन क्षमता तथा अपराजेयता उनके व्यक्तित्व को ऐसा आभामण्डल प्रदान करते हैं, जैसा कि विश्व-इतिहास में कम लोगों को ही प्राप्त रहा है। 
कटक और कलकत्ता में तेज़-तर्रार विद्यार्थी-जीवन। 1920 में इण्डियन सिविल सर्विस में चैथा स्थान प्राप्त कर के गाँधी के आह्वान पर 22 अप्रैल, 1921 को त्यागपत्र। 1925 तक देशबन्धु चितरंजन दास का राजनीतिक मार्गदर्शन मिला। नेशनल कालेज, कलकत्ता के प्रिंसिपल रहे। कलकत्ता-काॅरपोरेशन के मुख्य प्रशासक बने। असहयोग आन्दोलन वापस लेने पर गाँधी का विरोध किया। क्रान्तिकारियों से सम्पर्क के कारण अक्टूबर, 1924 में गिरफ़्तारी। बर्मा की मान्डले जेल में रखे गये। 1927 में मद्रास-अधिवेशन में कांग्रेस के महासचिव चुने गये। 1928 में नेहरू के साथ कांग्रेस के भीतर ही इण्डियन इण्डिपेन्डेन्स लीग नामक सशक्त वामपन्थी ग्रुप गठित किया। 1928 में कलकत्ता-अधिवेशन में कांग्रेस वालन्टियरों के जनरल कमान्डिंग अफ़सर बने। कांग्रेस से डोमिनियन दर्जा की जगह पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य की घोषणा करवाना चाहते थे। 1929 में लाहौर कांग्रेस में समाजवादी कार्यक्रम अपनाने पर ज़ोर दिया। 23 जनवरी, 1930 को फिर गिरफ़्तारी, एक वर्ष बाद रिहाई। 2 जनवरी, 1931 को कलकत्ता में प्रतिबन्ध तोड़कर जुलूस का नेतृत्व किया और खून-सने कपड़ों में अदालत में लाये गये। 
4 जुलाई, 1931 को अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के मंच से वक्तव्य - ‘‘संसार की मुक्ति की भाँति ही भारत की मुक्ति भी समाजवाद पर निर्भर है। भारत को अन्य देशों से शिक्षा ग्रहण करना चाहिये। भारत को अपने ही प्रकार के समाजवाद का विकास करना चाहिए। जब कि सारा संसार समाजवादी प्रयोगों में लीन है, तो भारत ऐसा क्यों न करे? यह हो सकता है कि भारत जिस प्रकार के समाजवाद को विकसित करे, उसमें नवीनता और मौलिकता हो और वह सारे संसार के लिए लाभदायी हो।’’ कराची-काँग्रेस में - ‘‘मैं चाहता हूँ कि स्वतन्त्र भारत समाजवादी गणतन्त्र बने।’’ जनवरी 1932 से 1933 तक नज़रबन्द। बीमार होने पर सशर्त रिहाई। यूरोप के वियेना सैनिटोरियम में स्वास्थ्य-लाभ। दूसरा असहयोग आन्दोलन वापस लेने पर 9 मई, 1933 को वियेना से सुभाष और बिट्ठल भाई पटेल का पत्र - ‘‘हम गत 13 वर्षों से अपने को अधिक से अधिक और शत्रु को कम से कम कष्ट देने की रणनीति से जो युद्ध चला रहे हैं, वह सफल नहीं हो सकता। यह आशा करना बेकार है कि कष्ट उठाकर या प्यार कर के हम अपने शासकों का हृदय-परिवर्तन कर सकते हैं। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन को स्थगित करने की ताज़ा कारर्वाई यह सिद्ध करती है कि कांग्रेस का वर्तमान तरीका असफल हो गया है। अब कांग्रेस का नये तरीके से नये सिद्धान्तों पर उग्रवादी पुनर्गठन करने का समय आ गया है। असहयोग को अधिक जुझारू तरीके में बदलना होगा और स्वाधीनता-संघर्ष हर मोर्चे पर शुरू करना होगा।’’ बिट्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में सुभाष के राजनीतिक कार्यों के लिए एक लाख रुपए दिये थे। उनके भाई सरदार बल्लभ भाई पटेल ने वसीयत को चुनौती दी और कोशिश की कि वह धन सुभाष को न मिले। 
10 जून, 1933 को इण्डियन पोलिटिकल काॅन्फ़रेन्स, लन्दन में अध्यक्षीय भाषण में 1931 के गाँधी-इरविन समझौते की आलोचना की और कहा - ‘‘19 वीं सदी में जर्मनी ने माक्र्सवादी दर्शन के रूप में विश्व को सबसे शानदार भेंट दी और 20 वीं सदी में रूस ने विश्व की सभ्यता और संस्कृति को मेहनतकश जनता की क्रान्ति और संस्कृति के जरिये समृद्ध किया। विश्व की सभ्यता और संस्कृति को अगली शानदार देन भारत से प्राप्त होगी। भारत पूँजीपतियों, ज़मींदारों और जातियों का देश नहीं रहेगा, अपितु वह सामाजिक और राजनीतिक लोकतन्त्र होगा। हम इस पार्टीं को ‘साम्यवादी संघ’ कह सकते हैं। ‘साम्यवादी संघ’ भारतीय जनता के हर भाग को न्याय दिलाने और उसकी चैतरफ़ा स्वतन्त्रा - सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक - के लिये कार्य करेगा।’’ फरवरी, 1935 में जेनेवा में ‘‘हमारी गृहनीति तै करते समय यह कहना घातक होगा कि भारत को साम्यवाद और फ़ासीवाद के बीच चयन करना है। हमारा विचार है कि विभिन्न आन्दोलनों में जो अच्छी चीजें हैं, उन्हें संष्लिष्ट करना होगा।’’ 
1934.35 में मास्को-सम्मेलन में सुभाष को जाने देने के सवाल पर सेन्ट्रल असेम्बली में होम मेम्बर ने कहा, ‘‘सुभाष कम्युनिस्ट हैं, इसलिये उन्हें रूस जाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।’’ 
1938 में हरिपुरा-कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाने पर चरणबद्ध योजना-निर्माण का कार्य किया। ‘‘भारत के लिये आर्थिक योजना से मेरा मतलब भारत के औद्योगीकरण की बड़े पैमाने की योजना’’ हमें सबसे पहले विज्ञान की सहायता लेनी पड़ेगी।’’ अब स्वराज्य सपना नहीं रहा, हम सत्ता के निकट पहुँच चुके हैं।’’ ‘‘राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद यदि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण समाजवादी पद्धति से होता है - जैसा कि मुझे बिलकुल सन्देह नहीं है कि होगा ही - तो सर्वहारा सम्पत्तिशाली वर्गों की कीमत पर लाभान्वित होगा और भारतीय जनता को सर्वहारा की कोटि में ही रखना पडे़गा।’’ ‘‘उपज बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक कृषि प्रणाली विकसित की जायेगी। राज्य के मालिकाने और राजकीय नियन्त्रण में औद्योगिक विकास की पूरी योजना बनाना अनिवार्य होगा। धीरे-धीरे राज्य द्वारा उद्योग और कृषि का भी समाजवादीकरण किया जायेगा।’’ ‘‘वस्तुओं का वैज्ञानिक उत्पादन और वितरण केवल समाजवादी पद्धति से कारगर ढंग से किया जा सकता है।’’ गाँधी ने सुभाष के उद्योगों और कृषि के समाजवादीकरण के विचार का विरोध किया। सुभाष ने जनसंख्या नियन्त्रण, भूमि-सुधार, ज़मींदारी-उन्मूलन की भी योजना बनायी। उन्होंने साम्प्रदायिक आधार पर देश को तीन टुकड़ों में बाँटने वाले 1935 के कानून में संघ-शासन के उल्लेख की निन्दा की। वे अंग्रेज़ों से कोई समझौता नहीं चाहते थे। उनका मत था कि कांग्रेस पर पूँजीपतियों की जकड़ है और वे कांग्रेस को उनकी पकड़ से मुक्त करा कर समाजवाद की ओर ले जाना चाहते थे।
1939 में दूसरी बार त्रिपुरी-कांगे्रस के अध्यक्ष चुने जाने की पूर्व-संध्या पर सुभाष ने एक वक्तव्य प्रकाशित किया - ‘‘कांग्रेस कार्यकारिणी के कुछ महत्वपूर्ण सदस्य मेरी जगह किसी को भी अध्यक्ष बना देने के लिये मेरे विरुद्ध मतदान का आदेश दे रहे हैं। वे मेरा विरोध क्या इसलिए कर रहे हैं कि मैं उनके हाथों का औजार नहीं बनूँगा या मेरे विचारों और सिद्धान्तों के कारण? कार्यकारिणी के इस ग्रुप का यह अतिरेक है कि वे हर बार अध्यक्ष के मनोनयन का आदेश दिया करेंगे। यह कांग्रेस के जनवादी संविधान के विरुद्ध है।’’ सुभाष को 1580 और डाॅ0 पट्टाभि सीतारमैया को 1375 वोट मिले। दो दिन बाद गाँधी का वक्तव्य आया - ‘‘श्री सुभाष बोस ने अपने प्रतिद्वन्द्वी डाॅ0 पट्टाभि सीतारमैया पर एक निर्णायक विजय हासिल की है। मुझे अवश्य स्वीकारना चाहिए कि बिलकुल शुरू से ही मैं उनके पुनर्निर्वाचन का निश्चित रूप से विरोधी था। इसके कारणों के विस्तार में जाने की मुझे आवश्यकता नहीं है। फिर भी मैं उनकी विजय से प्रसन्न हूँ और चूँकि पट्टाभि को उम्मीदवारी से अपना नाम वापस न लेने देने के लिये भी मैं ही ज़िम्मेदार था, उनकी तुलना में यह मेरी अधिक पराजय है। कांग्रेस तेज़ी से नकली सदस्यों वाली भ्रष्ट संस्था बनती जा रही है। सबके बाद, सुभाष बोस देश के शत्रु नहीं है।’’ और गाँधी ने उन लोगों के लिये, जो सुभाष की नीति और कार्यक्रम से तालमेल न कर सकें, कांग्रेस से बाहर आने का आम निर्देश भी जारी कर डाला। त्रिपुरी अधिवेशन के समय सुभाष बीमार थे। दक्षिण-पन्थी कांग्रेसियों नेे अभद्र व्यवहार किया। स्वयं गाँधी अधिवेशन में नहीं आये। वह राजकोट में अनशन पर बैठ गये और कहा, ‘‘कार्य-समिति में हमारा कोई आदमी नहीं रहेगा।’’ सुभाष ने कार्यकारिणी के जिन 14 सदस्यों को चुना, उनमें से 12 ने इस्तीफ़ा दे दिया और कहा, ‘‘आप समान विचारों वाली समिति चुन लें।’’ नेहरू ने अलग से अपना इस्तीफ़ा दिया। अन्ततः अप्रैल, 1939 में कलकत्ता में कांग्रेस-महासमिति की बैठक में सुभाष ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। पन्त-प्रस्ताव पर जयप्रकाश नारायण और उनकी कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने सुभाष के साथ विश्वासघात किया, किन्तु कम्युनिस्टों ने पन्त-प्रस्ताव का विरोध करने में सुभाष का साथ दिया। गाँधी ने सुभाष को कांग्रेस से निकालने के लिये साजिश की और अन्ततः सुभाष और उनके भाई शरद - दोनों ही कांग्रेस से निष्कासित कर दिये गये।
गाँधीवादी दर्शन का खण्डन करते हुए सुभाष ने अखिल भारतीय युवा सम्मेलन में कलकत्ता में कहा, ‘‘यह अनुभूति और मान्यता वाहियात है कि आधुनिकता बुरी है, बड़े पैमाने का उत्पादन पाप है, ज़रूरतें नहीं बढ़ायी जानी चाहिए और जीवन-स्तर नहीं उठाना चाहिए, कि आत्मा इतनी महत्वपूर्ण है कि भौतिक संस्कृति और सैनिक-शिक्षा को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है।’’ जेल से पत्र - ‘‘हमको अधिक से अधिक समय और ऊर्जा कांग्रेस हाई-कमान से लड़ने में लगानी होगी। यदि सत्ता ऐसे नीच, प्रतिशोधी और अनैतिक लोगों के हाथ में स्वराज जीतने के बाद चली गयी, तो देश का क्या होगा? यदि हम उनसे अभी संघर्ष नहीं करेंगे, तो उनके हाथ में सत्ता जाने से रोक नहीं पायेंगे। उनके पास राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की कोई सोच नहीं है। गाँधीवाद आज़ाद भारत को खाईं में उतार देगा। यदि गाँधीवादी सिद्धान्तों पर भारत का पुनर्गठन किया गया तो भारत सभी प्रभावी शक्तियों को अपने आप आमन्त्रित करता रहेगा। गाँधीवाद की चरम स्थिति जनतन्त्र पर पाखण्ड का प्रकोप है। यह आश्चर्य व्यक्त करने के लिए मैं विवश हूँ कि भारत के राजनीतिक भविष्य के लिए बड़ा ख़तरा क्या है - अंग्रेज़ नौकरशाही या गाँधीवादी ढोंग!’’
22 जून, 1939 को फ़ॅारवर्ड ब्लाक का गठन किया। मार्च, 1940 में रामगढ़ (बिहार) कांग्रेस-अधिवेशन के अवसर पर सुभाष ने 438 जनसभाएं, 21 हजार प्रतिनिधियों का समझौता विरोधी सम्मेलन और 80 हजार लोगों का जुलूस निकाला और फ़ासिज़्म तथा नाज़ीवाद की तीखी भत्र्सना की। कहा, ‘‘देश की आज़ादी के लिये हमें सोवियत संघ से मदद लेनी होगी।’’ कम्युनिस्ट नेता अछर सिंह चीमा से कहा, ‘‘‘कांग्रेस के अन्दर सक्रिय दक्षिण-पन्थी ताकतों ने मुझे अध्यक्ष पद से हटा दिया है। वामपन्थी शक्तियों को एक ओर गाँधीवादियों और दूसरी ओर अंग्रेजों के विरुद्ध लामबन्द नहीं किया जा सका। सशक्त विद्रोह के बिना अंग्रेजों को भारत से भगाया नहीं जा सकता। द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस प्रकार के विद्रोह के लिये सुअवसर प्रदान कर दिया है। मैंने साम्राज्यवाद विरोधी मित्र देश सोवियत संघ से शस्त्र आदि की मदद लेने का निर्णय कर लिया है। कम्युनिस्ट पार्टी ही मुझे सोवियत संघ पहुँचाने में मदद कर सकती है।’’ सुभाष के सोवियत संघ जाने की तैयारी शुरू कर दी गयी।
16 जनवरी, 1941 की रात अपने घर से निकल कर, दाढ़ी बढ़ाये, शेरवानी पहने मुसलमान बुद्धिजीवी लग रहे सुभाष जियाउद्दीन के नाम से गूँगे पठान के रूप में 27 जनवरी को काबुल पहुँचे। दस दिन बाद अंग्रेज़ों को उनकी फरारी का पता लगा। सोवियत राजदूत ने उनको पहिचानने से इनकार कर दिया। तब वह जर्मन दूतावास गये। वहाँ के मिनिस्टर ने उनको पहिचाना। जर्मनी, इटली और जापान की सरकारों के संयुक्त अनुरोध पर सोवियत संघ से ट्रान्ज़िट वीसा मिला। 18 मार्च को ओरलान्दो मदजोत्ता नाम से इटालियन पासपोर्ट और सोवियत वीसा के साथ रेल से सोवियत सीमा से मास्को गये। वहाँ दो दिन रुके और तब बर्लिन चले गये। मोलोतोब ने सुभाष को जर्मनी और इटली से मदद लेने की सलाह दी।
22 जून, 1941 को नाज़ी जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया। अब परिस्थिति बदल गयी। 20 मई, 1942 को एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद सुभाष-हिटलर वार्ता हुई। उसने सहायता से इनकार कर दिया। सुभाष चाहते थे कि हिटलर अपनी पुस्तक ‘मीन-काम्फ’ में भारतीयों के लिये लिखे अपमानजनक शब्दों को परिमार्जित करे। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। वह भारत की आज़ादी के लिए वक्तव्य देने को भी तैयार नहीं हुआ। प्रथम भेंट में ही दोनों में राजनीतिक मतभेद हो गया। सुभाष ने जर्मन विदेश मन्त्रालय में रिबेनट्राप की सहमति से फ्री इण्डिया सेन्टर और 7 जनवरी, 1942 से आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। 1942 के अन्त तक भारतीय छात्रों और युद्ध-बन्दियों को मिला कर 3000 का लीज़न (सैन्य-दल) बना। इसे नेताजी का स्पष्ट आदेश था, ‘‘भारतीय सैनिक केवल ब्रिटेन के विरुद्ध लड़ें।’’ हिटलर ने एक भारतीय टुकड़ी को ग्रीस के मोर्चें पर भेजने का प्रस्ताव रखा, तो सुभाष ने इसे रद्द कर दिया। 1944 में जब इनको सोवियत संघ से लड़ने का जर्मनों ने आदेश दिया, तो भारतीयों ने इनकार कर दिया। कोर्टमार्शल हुआ और जर्मन फ़ासिस्टों ने 10 भारतीय देशभक्तों को फाँसी दिया। 
मलाया में 14 पंजाब रेजीमेन्ट के जनरल मोहन सिंह ने जापानियों से मिलकर इण्डियन नेशनल आर्मी का गठन किया। कुआलालम्पुर में इसका मुख्यालय था। इसमें अधिकारियों के वर्ग समाप्त कर दिये गये और भोजनालय सामूहिक बनाये गये, ताकि जातीय और साम्प्रदायिक भेद समाप्त हो सकें। रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में टोकियो में प्रवासी भारतीयों का सम्मेलन 28.30 मार्च, 1942 को तथा बैंकाक में 15.28 जून तक हुआ। इन सम्मेलनों के प्रस्तावों को जापान ने स्वीकार नहीं किया और 8 दिसम्बर को आई.एन.ए. के कर्नल गिल को ब्रिटिश जासूस होने के आरोप में जापानियों ने गिरफ़्तार कर लिया तो मोहन सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया। रास बिहारी बोस ने इस्तीफ़ा स्वीकार किया। 14 दिसम्बर, 1942 को मोहन सिंह ने आई0 एन0 ए0 को विधिवत भंग कर दिया। वह जापानियों के अधीन मामूली काम नहीं करना चाहते थे। जापानियों ने मोहन सिंह को गिरफ़्तार कर कंटीले तारों से घिरी एक झोपड़ी में रखा। आई0 एन0 ए0 के 45 हजार लोगों ने अपने बिल्ले और रिकार्ड जला दिये, कार्यालय बन्द कर दिया। इनमंे से 4 हजार को जापानी फ़ासिस्टों ने यातनाएँ दीं।
सुभाष 8 फरवरी, 1943 को जर्मनी से चले। 16 मई को टोकियो पहुँचे। जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने पहले मिलने से इनकार कर दिया। उसने 10 जून को समय दिया। 18 जून को टोकियो रेडियो से सुभाड्ढ के वक्तव्य का प्रसारण। 4 जुलाई को सिंगापुर में नेतृत्व सम्भाला। 5 जुलाई को परेड को सम्बोधन - ‘‘भारत की मुक्ति-सेना का गठन हो गया है। यह सेना भारतीय नेतृत्व में मोर्चे पर जायेगी। हमारा जय-घोष ‘दिल्ली चलो’ होगा। हम लाल किला से ब्रिटिश साम्राज्य की कब्रगाह पर विजय की परेड करेंगे। भारत हर दृष्टि में आज़ादी के लिये तैयार है। केवल मुक्ति-वाहिनी नहीं है। आपने आज़ादी के मार्ग में खड़े अन्तिम अवरोध को भी हटा दिया है।’’ 
सिंगापुर से रंगून, बहादुर शाह ज़फर की कब्रगाह पर परेड। 26 अगस्त को आई0एन0ए0 के सुप्रीम कमाण्डर का पद सम्भाला और नया नाम ‘आज़ाद हिन्द फौज़ रखा। इण्डियन इन्डिपेन्डेन्स लीग की काॅन्फ़रेन्स में 24 अक्टूबर को स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार (आरज़ी हुकूमते आज़ाद हिन्द) के गठन की घोषणा की। इस सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की तत्काल घोषणा की। महत्वपूर्ण है कि सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं की। आज़ाद हिन्द सरकार का मुख्यालय रंगून लाया गया। सितम्बर, 43 में ‘सुभाष ब्रिगेड’ नामक गुरिल्ला ब्रिगेड बनायी गयी। इसके कमाण्डर शाहनवाज खाँ थे। इसे अराकान, इम्फाल और कोहिमा में सैनिक अभियान करना था। इसके पास टैंक, तोप, टेलीफोन, वायरलेस, दवायें, सर्जरी के औजार - यहाँ तक कि जूते तक नहीं थे। इम्फ़ाल अभियान असफल हुआ। यह सूचना नेता जी को 10 जुलाई, 1944 को मिली।
9 अक्टूबर को टोकियो गये। जापान के सम्राट हिरोहितो से वार्ता। टोकियो-विश्वविद्यालय में भाषण में स्वतन्त्र भारत की सरकार के बारे में कहा, ‘‘स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद तक भारत में प्रजातन्त्र का रास्ता साफ करने के लिए एक दल का अधिनायकत्व होना चाहिये।’’ इसे उन्होंने ‘‘अधिकार सम्पन्न शासन’’ कहा। जिससे भ्रष्ट और अराजक तत्वों के विरुद्ध सख़्ती हो सके और देश की प्रगति के लिये आवश्यक योजनाओं को आरम्भ किया जाय। एक लिपि, एक भाषा और राष्ट्रीय एकता के कार्यक्रम प्रस्तुत किये। 7 अगस्त, 1944 को काबुल में कीर्ति पार्टी के भगत राम को सन्देश मिला - ‘‘मेरा राजनीतिक आन्दोलन और सैनिक अभियान भारतीय धन से भारतीय ही चला रहे हैं। केवल हम ही भारत में ब्रिटिश सत्ता को तोड़ सकते हैं। अन्यथा हम हमेशा गुलाम बने रहेंगे। निस्सन्देह ब्रिटेन भारत में पाकिस्तान बनाने का प्रयास करेगा। यह भारतीय राष्ट्रवाद के विचार का अन्त होगा। कृपया एम0 गाँधी से स्वयं मिलकर विश्वास दिलायें कि मैं भारत की स्वतन्त्रता के लिये कार्य कर रहा हूँ। मैं ऐसा कोई कार्य नहीं करूँगा, जिससे मेरी मातृभूमि का अपमान व अहित होगा।’’
नेताजी 14 दिसम्बर, 1944 को सिंगापुर वापस लौटे और 18 फरवरी, 1945 को युद्ध-मोर्चे पर रंगून से गये। कर्नल सहगल ने अप्रैल में ओर ढिल्लो तथा शाहनवाज ने 16 मई, 1945 को बर्मा में आत्मसमर्पण कर दिया। झाँसी की रानी रेजीमेन्ट की लड़कियों और कार्यकर्ताओं के साथ नेता जी बैंकाक गये। सिंगापुर में आई0एन0ए0 के स्मारक की आधार शिला 8 जुलाई को रखी। मलाया का दौरा। रूस ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । अमेरिका ने 6 अगस्त को हिरोशिमा और 8 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिये। जापान ने 15 अगस्त को आत्मसमर्पण कर दिया। 16 अगस्त को नेता जी सिंगापुर से बैंकाक, फिर सैगोन गये। सैगोन से हबीब के साथ तोराने (हिन्दचीन) गये। वहाँ से सोवियत संघ जाने वाले जहाज के इन्जन में 100 फुट ऊपर उठते ही विस्फोट हुआ। विमान गिरा और जलने लगा। नेताजी विमान में थे। उनकी सूती वर्दी पेट्रोल से भींग गयी थी। जलते विमान से कुछ दूर जाते ही वर्दी जल उठी। नानमेन सैनिक अस्पताल, ताइपेह में 18 अगस्त, 1945 को शाम 8 बजे भारत माता के इस महान सपूत को वीर-गति प्राप्त हुई। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने गदर पार्टी के क्रान्तिकारियों की सेना समर्थित जनक्रान्ति की रणनीति कार्यान्वित की। अविस्मरणीय है कि उन्होंने आरम्भ में भी रूस जाने की असफल कोशिश की और जापान की पराजय के बाद भी वह रूस जाकर अपना मुक्ति संघर्ष जारी रखना चाहते थे। बन्दी मोहन सिंह से सुभाष की केवल एक मुलाकात हुई। कांग्रेस समाजवादी पार्टी के डाॅ0 लोहिया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के डाॅ0 हेडगेवार ने तथा कीर्ति पार्टी के नाम से पंजाब में सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा शेष कम्युनिस्ट पार्टी ने फ़ॅारवर्ड ब्लाक का साथ नहीं दिया। जेल से लिखे पत्रों में वह कहते हैं, ‘‘इस नश्वर संसार में हर चीज़ नष्ट होती है और नष्ट होगी। किन्तु विचार, आदर्श और स्वप्न नष्ट नहीं होंगे। एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है। किन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह विचार हजारों ज़िन्दगियों में स्वयं को साकार कर लेगा। विकास का चक्र इसी तरह आगे बढ़ता है और एक पीढ़ी के विचार और स्वप्न अगली पीढ़ी द्वारा अपनाये जाते हैं। संसार में यातना और बलिदान के बिना कोई भी विचार अपने को पूर्णता तक नहीं पहुँचा सकता। अपने देशवासियों से मैं कहता हूँ - 
‘‘मत भूलो कि किसी इंसान के लिये ग़ुलाम रहना सबसे बड़ा अभिशाप है। मत भूलो कि अन्याय और ग़लत से समझौता सबसे बड़ा अपराध है। शाश्वत नियम को याद करो - यदि तुम जीवन पाना चाहते हो तो तुम्हें अवश्य जीवन देना होगा। और याद रखो कि सबसे बड़ा पुण्य असमानता के विरुद्ध युद्ध है। इसका कोई महत्त्व नहीं है कि मूल्य क्या होगा?’’ बर्लिन रेडियो से आयी ललकार की गरज आज भी रोमांच उत्पन्न कर देती है - ‘‘प्यारे देशवासियों, आज हमारे देश की शान ख़तरे में है। प्रत्येक भारतवासी को, चाहे वह कोई भी हो और कहीं भी हो, अपनी भारत माता की करुणा भरी पुकार का यथोचित उत्तर देना है। हमें खू़न का आखि़री कतरा भी अपने देश के लिये बहाना होगा। अपने देश के लिये मर-मिटना ही हमारे जीवन का अन्तिम ध्येय होगा। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। जय हिन्द।’’
सुभाष ने गाँधी को कस्तूरबा की मृत्यु पर भेजे संदेश में ‘राष्ट्रपिता’ कहा और कहा, ‘‘गाँधी जी ने हमारे कदम आज़ादी की सीधी सड़क पर जमा दिये।’’ जब कि गाँधी ने - जिन्होंने दिसम्बर, 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में कहा था ‘‘यदि भारत के पास तलवार होती तो उसने तलवार उठा ली होती’’ - सुभाष की मृत्यु पर अमृत कौर को पत्र लिखा ‘‘सुभाष महान देशभक्त थे, किन्तु बहुत अधिक दिग्भ्रमित।’’ और न जाने किस उद्देश्य से जनवरी, 1946 में आसाम-दौरे में कई जनसभाओं में गाँधी ने कहा, ‘‘सुभाष जीवित हैं और यदि मैं उनका पता जानता तो उनको पत्र लिखता।’’ 
सुभाष क्रान्तिकारी थे। उनके बारे में भ्रामक प्रचारों का हम विरोध और पर्दाफ़ाश करना चाहते हैं और उनकी गौरव-गाथा को प्रचारित कर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से श्रद्धान्जलि देना चाहते हैं। आज, जब बीसवीं सदी के जयचन्द और मीर जाफ़र डंकल-प्रस्ताव के फन्दे में देश को जकड़ कर वित्तीय साम्राज्यवाद का गुलाम बना चुके हैं। आइये, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सपनों के महान, समृद्ध और समाजवादी भारत के नवनिर्माण को साकार करने के लिए सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के वाहक क्रान्तिकारी अभियानों का सूत्रपात करें। 

छोटे-बड़े सभी भ्रष्टाचारियों की जनविरोधी करनी-करतूत का सामाजिक तथा वैधानिक तरीकों से जन-बल के सहारे भण्डाफोड़ करने का संकल्प भारत रक्षा दल कर चुका है। गाँव-गाँव में उसके सदस्य अपनी क्रान्तिकारी इकाइयाँ गठित करने में लग चुके हैं। आने वाले कल का इतिहास इस बात का भी फैसला करता दिखायी देता है कि हमारी प्यारी भारत माता देशी-विदेशी जोंकों का शिकार बनी रहने, शोषित, उत्पीड़ित और अपमानित होते चले जाने की ख़ातिर अभिशप्त होेने को विवश रहेगी या इसके सपूत इसे एक बार फिर जन-जागरण के सहारे असली आज़ादी तक पहुँचा पायेंगे। ताकि आख़िरी आदमी की ज़िन्दगी को सुखी और खुशहाल बना पायें, जो आज महँगाई, बेरोज़गारी, धनतन्त्र के तिकड़मी पाँचसाला राजाओं के भ्रष्टाचार और अधिकारियों और कर्मचारियों की कामचोरी, घूसखोरी, दलाली और दबंगई के चलते नरक से भी बदतर बन चुकी है। 23.1.95

7 comments:

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  2. The Truth now comes out........ - (डॉ.) कविता वाचक्नवी
    नेता जी सुभाषचंद्र बोस [ जन्म 23 जनवरी1897 – विमानदुर्घटना तिथि 18 अगस्त, 1945] की विमान दुर्घटना में मृत्यु का अपवाद सच मानकर देश ने विश्वास कर लिया था। आज ही के दिन वर्ष 1945 में यह अपवाद फैलाया गया था। अब जबकि जाँचसमिति से लेकर विश्व के कई बड़े शोधकर्ताओं ने यह पुष्ट कर दिया है कि नेता जी विमानदुर्घटना में नहीं मारे गए थे तो ऐसे में इसके साथ ही देश की सत्ता व उसके स्वार्थी चेहरों का भी संसार में असली रूप उजागर हो गया है।
    नीचे, नेता जी से संबन्धित कई वीडियो व सच्चाईयों से परिचित करवाने वाले प्रमाणों का गंभीर ब्यौरा देने वाली डॉक्यूमेंट्री आदि प्रस्तुत की जा रही हैं।
    संभवतः आप न जानते हों कि नेता जी 70-80 के दशक में भारत में रह रहे थे। इसके लिए सबसे अंत में दिए पाँच वीडियो देखें।
    1 जुलाई 2010 को इसी ब्लॉग पर नेता जी से संबन्धित एक इंटरव्यू प्रस्तुत किया था, उसे आप यहाँ क्लिक कर सुनें -
    नेता जी को मैं कथित विमान दुर्घटना के बाद मिला : कैप्टन अब्बास अली
    जिन लोगों को यह सामग्री ईमेल से मिलेगी वे ईमेल में वीडियोज़ नहीं देख पाएँगे, अतः वे इस सारे संकलन को देखने सुनने के लिए इस लिंक को खोलें -
    नेताजी सुभाषचंद्र बोस : सच्चाई सिद्ध हो चुकी हैं
    स्वर-चित्रदीर्घा: नेताजी सुभाषचंद्र बोस : सच्चाई सिद्ध हो चुकी हैं
    http://photochain.blogspot.co.uk/2012/08/Subhash-Chandra-Bose-The-Truth-now-comes-out...html

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  3. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्र के बगल में उनके ड्राइवर और बॉडीगार्ड कर्नल निजामुद्दीन हैं. जो नेता जी की 12 सिलेंडर लगी गाड़ी चलाते थे। इतना ही नहीं नेताजी की सुरक्षा में हैवी गन भी चलाते थे। इनकी उम्र 114 वर्ष है, वहीं इनकी पत्नी की उम्र 103 साल है। 114 के इस योद्धा ने नेता जी के साथ कई युद्ध लड़े। आजमगढ़ के रहने वाले कर्नल निजामुद्दीन को 11 भाषाओं की जानकारी है। इसमें जापानी, बर्मी, जर्मन, तमिल, तेलगु, बंगाली, हिंदी और उर्दू शामिल हैं।
    पत्नी अंजबुन निशा से उनकी मुलाकात बर्मा में हुई थी। बुजुर्ग हो चले कर्नल निजामुद्दीन के चार पुत्रों में अख्तर अली 85 वर्ष, अनवर अली 82 वर्ष और मोहम्मद अकरम 52 वर्ष के हैं। सबसे छोटा पुत्र असरफ की बीमारी से पहले ही मौत हो चुकी है।
    उन्होंने बताया कि आज़ाद हिन्द फ़ौज में वह ख़ुफ़िया अधिकारी थे। शादी की बात पर कर्नल निजामुद्दीन ने बताया कि अंजुबन निशा से उनका निकाह बर्मा में हुआ था। उनकी शादी को लगभग 88 साल के ऊपर हो गए हैं। उन्होंने बताया कि जर्मनी में नेता जी और हिटलर की मुलाकात के दौरान वह उन्ही के साथ थे। आज़ादी के बाद पूरा परिवार बर्मा चला गया था, लेकिन पिता जी को गांव की याद बहुत आती थी, इसीलिए 5 जून 1969 को शिप से पूरा परिवार मद्रास आ गया। आज भी पूरे परिवार पर गरीबी हावी है, इसी कारण से कभी किसी की शिक्षा दीक्षा न हो सकी।
    निजामुद्दीन ने बताया कि बर्मा में छितांग नदी के पास अगस्त 1947 को नेता जी सुभाष चंद्र बोस को छोड़ा था। उसके बाद से उनसे आज तक मुलाकात नहीं हुई।
    कर्नल निजामुद्दीन नेता जी के खुफिया एजेंट के साथ-साथ उनके सबसे करीबी आज़ाद हिन्द फ़ौज के अधिकारी भी थे। मुखर्जी कमीशन, खोसला कमीशन से लेकर शहनवाज कमिटी तक नेता जी के रहस्यों के लिए बनाई गई, लेकिन बुजुर्ग हो चले निजामुद्दीन का बयान अभी तक नहीं दर्ज कराया गया। दुःख की बात यह है कि निजामुद्दीन के पास आज़ाद हिन्द फ़ौज का आई कार्ड और डीएल होते हुए भी सरकार उन्हें पेंशन और स्वतंत्रा संग्राम सेनानी नहीं मानती है।
    http://www.bhaskar.com/.../UP-VAR-netaji-subhash-chandra...

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  4. Mohan Shrotriya - ‪#‎नेताजी‬ सुभाषचंद्रबोस की ‪#‎बेटी‬ का यह करारा जवाब है उन सब लोगों को, जो उनके पिता की मृत्यु के इर्द-गिर्द अपना कार्यव्यापार चला रहे थे/हैं! अपने निजी राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि/पूर्ति में लगे हुए थे/हैं।
    उनकी बेटी को रत्ती भर संदेह नहीं है कि नेताजी की मृत्यु हवाई दुर्घटना में ही हुई थी।
    http://www.hindustantimes.com/india/netaji-s-daughter-convinced-he-died-in-crash-wants-dna-test-of-remains/story-uiezNpsv8ykT05CuqHj1IJ.html
    Netaji’s daughter convinced he died in crash, wants DNA test of remains

    Prasun Sonwalkar, Hindustan Times, Augsburg (Germany)
    |
    Updated: Jan 22, 2016 09:26 IST

    Anita Bose Pfaff, 73, was about a month old when Bose saw her for the last time in Vienna. (Prasun Sonwalkar/HT)
    Subhas Chandra Bose’s daughter is annoyed that, instead of accepting evidence, many continue to be obsessed with “asinine” theories that Netaji survived the plane crash in Taipei in 1945 and lived in the mountains as “Gumnami Baba”.

    Anita Bose Pfaff, 73, was about a month old when Bose saw her for the last time in Vienna. Based on available evidence, she is convinced he died in the crash on August 18, 1945, and has proposed a DNA test on his remains kept at Renkoji Temple in Japan to put the row to rest.

    Speaking to Hindustan Times shortly before the Narendra Modi government begins releasing declassified files related to Bose from Saturday – his 119th birth anniversary – Pfaff said she supported the move but doubted it would end the “fruitless” controversy over the crash.

    A former academic and economist, she spoke on a range of issues, including the relationship between her mother, Emily Schenkl, and her iconic father, who, she remarked, “must have been a disaster as a husband”.

    Netaji’s death in the plane crash, she said, is the “most likely thing to have happened” though she would be open to other possibilities supported by evidence. She added that she had not “seen any evidence which is more convincing”.

    Asked if it was time to put to rest the controversy regarding Netaji’s death in the crash, Pfaff replied: “I wish so, it is rather fruitless with all these rather asinine theories being advanced, including that he is still alive, God knows where, or that he lived in the mountains as ‘Gumnami Baba’, which is an insult to him...”

    She said it was doubtful anyone as dedicated to India as her father would “go and live in the mountains” and not get in touch with his family.

    Pfaff further said she doubted the secret files to be released by the Indian government would contain anything “about the plane crash not having happened”.

    Read: I would like to sleep a while: Netaji’s last words on Aug 18, 1945

    She suggested the Indian and Japanese governments should work together to facilitate a DNA test on Bose’s ashes at Renkoji Temple in Tokyo. A joint approach alone could convince the temple’s priest to hand over the material for a test, she added.

    Pfaff said she was earlier hesitant about seeking such a test “because I felt the Japanese would feel very insulted”, but the move could help address the “whole rather undignified discussion which has been going on over decades”.

    “...I think rational people would at least accept the outcome of that, whichever way it were to go,” she said.


    Pfaff said if the DNA test shows the ashes are of Bose and if the Japanese are amenable, it would be better for the remains to be taken to India.

    She said there would have been “a number of consequences” if her father had returned to India after World War II. He would have “involved himself in the politics of the time” and there “would have been a prominent alternative to (Jawaharlal) Nehru”, she said.

    Though Bose and Nehru agreed on some issues such as industrialisation, Netaji “would have a different view towards Pakistan”, she said.

    “If he could not prevent Partition – both he and (Mahatma) Gandhi wanted to prevent it – I think he probably would have tried and succeeded in having better relations with Pakistan,” Pfaff said.

    Read the full interview with Anita Bose Pfaff here

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  5. 1. My father would’ve been prominent alternative to Nehru: Bose’s daughter
    Prasun Sonwalkar, Hindustan Times, Ausburg, Germany | Updated: Jan 22, 2016

    Anita Bose Pfaff with a photo of her father, Subhash Chandra Bose, in her residence in Augsburg, Germany.
    Netaji Subhas Chandra Bose’s daughter is annoyed that instead of accepting evidence, many continue to be excited with “asinine” theories that he survived the plane crash in Taipei in 1945 and lived in the mountains as “Gumnami Baba”.
    Anita Bose Pfaff, 73, was about a month old when Bose saw her for the last time in Vienna. She is convinced Bose died in the crash on August 18, 1945, and has proposed a DNA test on his remains kept at Renkoji Temple in Japan. Speaking to Hindustan Times shortly before the Narendra Modi government begins releasing declassified files related to Bose, Pfaff said she supported the move but doubted if it would end the “fruitless” controversy.
    A former academic and economist, she spoke on a range of issues, including the relationship between her mother, Emily Schenkl, and her iconic father.
    Excerpts:
    Q: Are you convinced that your father died in the air crash?
    A: I think that is the most likely thing to have happened. If we get evidence that supports something else, I am open to that but so far I have not seen any evidence which is more convincing. In the beginning we all doubted that he died in the plane crash but as time passed some things came out and I was also present in the interview of some people who were survivors of that plane crash. It sounded very convincing.
    Q: Since there is so much evidence about the crash and witness statements, do you think it is time to put this controversy to rest?
    A: I wish so, it is rather fruitless with all these rather asinine theories being advanced, including that he is still alive, god knows where, or that he lived in the mountains as ‘Gumnami Baba’, which is an insult to him, because how can anyone believe that a person who was so dedicated to his country would then go and live in the mountains and not involve himself at all and not get in touch with any member of his family?
    Ultimately, it is a very uninteresting controversy. Sometimes I am really annoyed. My father gave so much of his life to his country and then he is remembered by some people as , ‘Oh, he is that chap about whose death there is a controversy’. Is that the only claim to fame that he has? It’s really not a very fair reflection on his life and his contribution to the independence struggle.
    Q: Do you think the files being declassified from Saturday will help put the controversy to rest?
    A: I doubt it very much because these files will cover any number of interesting details, maybe interesting to historians, corroborate something, contradict other things, some of them new, some of them not really new, but I doubt very much that the convincing story about the plane crash not having happened, which some expect, is going to come out of that.
    http://www.hindustantimes.com/india/theories-that-he-survived-the-plane-crash-are-asinine-bose-s-daughter/story-9EP1GPyVptPsJBobAO30sM.html

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  6. 2. Q: You mentioned the idea of a DNA test on the remains in the Renkoji temple in Japan.
    A: Yes. The two governments – India and Japan – need to be involved, they need to agree, because without that the priest of the temple will not agree to hand over the material. There are bones but if the bones are charred very badly you cannot extract the DNA. Some specialists in the field have looked at the pictures of the bones and they say it’s quite conceivable that one could (extract DNA) because there are larger parts of the jaw and so on and that the DNA could be extracted from the centre of the bones. I think one should try. Originally, I was a bit hesitant because I felt the Japanese would feel very insulted but this whole rather undignified discussion which has been going on over decades can possibly be, well not put to rest, because there will be some people who will not take DNA proof as proof either. But I think rational people would at least accept the outcome of that, whichever way it were to go. The danger is that maybe the Japanese government feels that, well, what if they are not his remains - then they will sort of feel embarrassed. That is an issue where they may dilly-dally around it.
    Q: Would you like the ashes to go to India?
    A: If the proof of the DNA test shows that and the Japanese would be amenable to that, I think it would be better (if they are taken to India). If we cannot have a DNA test I personally would not mind if they came to India but if we were to face a very ugly controversy – from including members of my family – I think we could save ourselves that trouble (laughs).

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  7. 3. Read | I would like to sleep a while: Netaji’s last words on Aug 18, 1945
    Q: Do you think India would be different if your father were alive?
    A: First, I am convinced that if he were alive he would have involved himself in the politics of the time. That might have had a number of consequences. There would have been a prominent alternative to Nehru. Of course we must consider that on some issues they had very similar views. They were both in essence in favour of a political system which was not dominated by communal controversies. They were both modern in the sense that they wanted industrialisation. But on the other hand, there would have been differences; for example, I imagine his position vis-à-vis Pakistan would have been different. Nobody really wanted or expected what happened after Partition. The amount of genocide left wounds on both sides which were difficult to overcome but I imagine he would have a different view towards Pakistan. If he could not prevent Partition – both he and Gandhi wanted to prevent it – I think he probably would have tried and succeeded in having better relations with Pakistan…India has been suffering less from the controversies (since independence) because with all the problems India faces, it is a functioning state, and from that point of view Pakistan is in a much worse position.
    Q: What is your memory of your father, your assessment of him as a person; what did your mother say to you about him?
    A: I have no recollection of him at all. He was a person very dedicated to the cause of fighting for India’s independence. Of course, my mother told me a number of things about him. Well, she was certainly a biased person in that matter, of course. Given the circumstances, one has to be surprised that she was willing to share her life with a person who was so dedicated to a cause which took him away. Looking at this as an adult it is really more surprising that she always spoke well of him and did not criticise him because he really must have been a disaster of a husband…She was better at maintaining correspondence with members of my family than I am.
    Q: Prime Minister Narendra Modi was in Berlin last year, but you did not meet him.
    A: I was invited to the reception in Berlin but I decided not to go because I felt he is so busy with any number of topical issues on the Indo-German relations, so certainly talking to him about anything pertaining to my father would have just added a totally different issue which in essence would have been a burden on him I felt. And just to go and say Namashkar (laughs)…I am sure he would have met me for a few minutes but I felt this would have been more symbolic than anything else. His office has been in touch; they asked several times if I would be coming for the 23 January event (declassification of files) but few days ago I told them I won’t be able to make it; they even told me that he would meet me privately, but maybe I will go later in the year. The embassy told me that they would make an appointment for me to see him.

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