तूफ़ानों से कह दो कि गुज़र जायें अदब से,
ये शम्म-ए-बग़ावत है बुझाना नहीं आसाँ...
है कौन-सी औकात, जो आ पाये मुख़ालिफ़,
हर शै को चुनौती है जरा आजमा के देख!
है साथ में इन्सानियत की सारी विरासत,
ये मौत से टकराने के अरमान की ज़िद है;
हम ख़ून बेचकर भी हैं रोटी नहीं पाते,
तुम खू़न पिया करते हो और सुर्खरू भी हो!
है ख़ून सुर्ख़, सुर्ख़ ही परचम है हमारा,
अब फिर से ‘सुर्ख़ दौर’ दिखाने की ही ज़िद है;
हम कब्र तुम्हारे ही लिए खोद रहे हैं,
अब वक्त को बीमार बनाना नहीं आसाँ...
अब और तंग-हाल नहीं जीयेगा इन्साँ...
खुशहाल ज़माने को बनाने की ही ज़िद है।
वह दौर अब करीब है जब सारे जहाँ में,
दौलत को हुकूमत की जगह नहीं मिलेगी ।
ज़िद ने अगर हर बार ही इतिहास बनाया,
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