Tuesday, 28 August 2012

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ -अमित पाठक



अमित पाठक मेरी साधना के प्रतिनिधि पुष्प हैं. मेरे विचारों के समर्थ वाहक अमित बहुत ही संवेदनशील इन्सान हैं. दुबले-पतले, लम्बे, सुन्दर, सक्रिय और सतर्क अमित अपने दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. वह बी.एससी. (गणित) द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. इस गर्मी की छुट्टी में उन्होंने मेरे संग्रह से लगभग पचास पुस्तकें पढ़ डाली हैं और मेरे पूरे पुस्तकालय पर अपना अधिकार जीत चुके हैं. वह अनेक युवकों को व्यक्तित्व व विकास परियोजना से जोडते चले जा रहे हैं. उनकी प्रतिभा और कलम पर उनकी पकड़ का एक नमूना आप तक पहुँचाने के लोभ से खुद को मैं बचा नहीं पा रहा हूँ.

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ,
कुछ अधूरे ख़्वाब हैं, थोड़ी-सी फ़ुर्सत माँग लूँ.
यूँ बहुत ही दूर तो मंज़िल नहीं अपनी मगर,
अपनी भी कोशिश में लेकिन रह गयी थी कुछ कसर;      
उस कसर के नाम पर कुछ छटपटाहट माँग लूँ,

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.
ख़्वाब चुभ जाते हैं इन आँखों को अक्सर रात में,
आँख है कुछ गमज़दा लेकिन हँसी है बात में; 
जो नहीं पूरी हुई अब तक व' हसरत माँग लूँ,
सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.


फासलों के नाम पर पैगाम मिलते ही रहे,
दोस्ती के नाम पर इलज़ाम मिलते ही रहे; 
सामने आ जायें, तो थोड़ी नसीहत माँग लूँ,
सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.

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