मुक्तिबोध डी.जे. पर कर रहा है डान्स आज!
आज कोई कालिया-दह तो नहीं है कि जिसमें जा कूदे अपना नन्हा कान्हा
उछल कर डूब चुकी गेंद को उबारने को, हिम्मत से पहल करे, जान पर खेल जाये।
कान्हा का दुःसाहस ही तो है जिसने इतिहास रच दिखा डाला,
सहस्त्र फणधर के हर फण को नाथ, जूझते हुए उसकी कुण्डली की मारक जकड़ से,
विषदाता दाँतों को तोड़-ताड़ उसके आतंक के काले अन्धेरे को चीर कर निकल आया श्यामा यमुना में से।
डान्स ही तो करता रहा सहस्त्र फणों पर, हर एक को नाथे,
कन्दुक उछालते, उछलते-कूदते, मुरली की मीठी तान मस्त हो गुँजाते, जीवन भर सबको नचाता रहा।
तिरछी नज़रों के तीर, भीनी-झीनी मुसकान के वार, बहुतों के दिल जीते, जादू किया, कई कलेजे चीर डाले।
विषपायी नीलकण्ठ नटराज शंकर के डमरू की डिम-डिम के साथ छूम-छन-नन, छूम-छन-नन की गूँज,
ताण्डव का नर्तक भी जन की पीड़ा से कसमसा-तिलमिला, क्रोध से उन्मत्त हो जगत को नयी गति देने की आतुरता में
चारों ओर लाल-लाल लपटें बिखेरता, क्षार करता अहंकार भोगी शासक-गण का, डान्स ही तो करता था!
तभी उसकी तीसरी आँख तमतमा कर खुल बैठी, काँप उठा बौना भैंगा स्वार्थी सत्ताधारी।
ज्ञान का उजाला तीसरी आँख से बिखेरता डान्स कर रहा था वह।
डान्स ही तो तब भी किया, डान्स ही अभी भी करता चला जा रहा है आत्म-विश्वास से लबरेज़ नट
धरती से दसियों फीट ऊँची अन्तर्विरोधों की तनी हुई रस्सी पर बाँस के सहारे
बिना परवाह किये, गिरने पर कोई भी हड्डी टूट सकती है, और फिर शायद कभी सीधा चल भी न सके।
अपने सुबक गोल लट्टू रस्सी से कस, बाँध, फेंका फिर डान्स करते लट्टू को देखता
अपना प्यारा सोनू ता-ता थैया, ता-ता थैया करता उछल-उछल उसके करीब लगातार डान्स करता है।
आसमान के नीले विस्तार में तैरते बादलों की रुई के बीच उड़ती है, नाचती है सोनू की पतंग,
खर-खर-खर-खर डोरी खींचते, ढील देते, खचाक से काटते, नाचता है उमगता है सोनू का मन।
अम्मा के हाथ का बेलन, रग्घू कुम्हार का चाक डान्स करता है, स्नेह गढ़ता है।
ऐटम का एलेक्ट्रान, साइकिल का चक्का, फूल के आस-पास की तितली, उठता-गिरता फौव्वारा करते हैं डान्स,
रचते हैं हमको, तुमको, जीवन के सौन्दर्य को।
जंगल में मोर डान्स करता विभोर हो, मस्ती से फैलाये अपना सतरंगा पंख।
हिमालय से उतरती गंगा की कल-कल, छल-छल करती लहरें करती हैं डान्स, देती हैं जीवन, पीती हैं प्रदूषण।
अपनी धरती माँ भी नाच रही गोल-गोल, सूरज के चारों ओर सब खगोल जन्म से अब तक हैं अनवरत नाच रहे।
माटी का पुतला प्रकृति की विराटता को पछाड़ कर सृजन करता है
और विजय की सम्वेदना में डूब कर करता है डान्स।
अपनी फटीचरी में भी ऐट टेन डान्स करता है बेचारा टीचर, मार खाता है, ज़लील होता है,
फिर भी बनाता है नया इन्सान।
मेहनत की लूट की चाकी के डान्स कर रहे दोनो पाट, पीस रहे हड्डी कंगाल की कड़र-कड़र कुचलते,
चलती चाकी के चारों ओर बढ़ता चला जा रहा पूँजी के मुनाफे का बदसूरत ढेर,
चाकी की तेज़ चाल देख रहा है कबीर, टपक रहा लाल ख़ून रोती हुई आँखों से।
स्वार्थों के बन्धन में बँधे सभी छोटे-बड़े धन-पशु पापी पेट की ख़ातिर
सिक्के की परिक्रमा में बिना रुके डान्स करते जा रहे।
अधम कापालिक-सा उनका पैशाचिक डान्स है कितना वीभत्स,
है उनका कुटिल अट्टहास डान्स में ही डूबा हुआ।
दुनिया का दुश्मन अमेरिका रिरियाता है, लगते ही तमाचे मन्दी के चटाचट,
ह्वाइट हाउस का ब्लैक चैकीदार ओबामा करता है डान्स, कसता है नकेल मनमोहन के डान्स की।
बन्दूकें चूम-चूम, मस्ती में झूम-झूम, झण्डे लहरा कर के, नारे लगा कर के,
दुश्मन को दे शिकस्त, छापामार दस्ता भी ख़ूब डान्स करता है।
मीरा का डान्स हो या डान्स हो विदूषक का, डान्स फिर भी मुक्ति का ही बोध हमें देता है।
बन्धन का बोध हमें बाँधे फिरता रहता, चक्कर पर चक्कर घनचक्कर बना करके
रात-दिन लगातार ज़बरन हमसे भी तो डान्स ही कराता है।
बन्धन की अनुभूति गहराने लगती, तब मुक्ति की जुगत में गु़लाम डान्स करता है।
मगर बोध एक बार मुक्ति का हुआ, फिर तो अनहद के नाद में कबीर नाच उठता है।
आने वाले कल का, देखो ज़रा तुम भी तो, मुक्तिबोध डी.जे. के साथ डान्स करता है!
एक उपहास भरी टिप्पणी का उत्तर - गिरिजेश
मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के एवरेस्ट हैं. उनकी ऊँचाई तक पहुँचना क्या नितान्त असंभव ही नहीं है ? मेरे सबसे प्रिय साहित्यकार हैं मुक्तिबोध. उनके अनूठे प्रतीक और बिम्ब जीवन और प्रकृति के विराट फलक पर एक के बाद एक अनवरत उगते चले आते हैं. और आप से कहते रहते हैं - मेरे जैसा बनो. मैं हूँ बबूल. अनन्यता ही मेरी पहिचान है और असंग ही मेरी पीड़ा. उनका समूचा जीवन, चिन्तन, कृतित्व और आचरण हम सब से अनुकरण की अपेक्षा करता है. क्या आने वाले कल का मुक्तिबोध आज तैयार किया जा रहा है! आज के साहित्यिक पुरोधाओं के कंधे पर भारी ज़िम्मेदारी है.
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