Wednesday 27 June 2012

मानवाधिकार क्या मात्र एक छलावा ही नहीं है? - गिरिजेश

सभ्यता के बढ़ते कदमों के साथ-साथ मानवता के स्वर की गूँज भी लहरों के घेरों की तरह धरती के कोने-कोने तक हर बार और भी उद्दाम होकर पसरती चली जा रही है। हमारी सभ्यता अपने पहले चरण - आदिम कबीलाई मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था तक ही समता तथा न्याय पर टिकी रही। उसके बाद से आज तक के सभी चरणों में शोषण, दमन, अन्याय, अत्याचार का ही बोलबाला रहा है क्योंकि समाज की रचना वर्गीय होती चली गयी और इतिहास के हर शासक वर्ग ने अपने शासित जन-सामान्य पर बार-बार कहर बरपाया है। चाहे वह दास-व्यवस्था का मालिक रहा हो या राजाशाही का सामन्त - शासित जनों के प्रति सबका रुख मूलतः क्रूरता का ही रहा। आज का पूँजीवादी समाज अरबों जन-गण पर मुट्ठी भर थैलीशाहों के मालिकाने का ही नाम है। ऐसे में हक़, इन्साफ़ और इन्सानियत के लिये महासमर के जिस बिगुल को आदि विद्रोही स्पार्टकस ने रोमन साम्राज्य के विरुद्ध बजाया था, उसी को माटी के बेटों ने शासक वर्गों के विरुद्ध समूचे इतिहास में अगणित बार फूँका है।

युद्ध की दो परिस्थितियाँ होती हैं - ऊपर से शान्त लगने वाले समाज में अन्दर-अन्दर वर्गीय अन्तर्विरोधों का ज्वार-भाटा सामान्य परिस्थिति में हिलोरें मारता रहता है। न तो शासक वर्ग ही अपनी रामनामी चादर उतारता है और न मेहनतकश ही अपनी आँखें और कान खुले रखने के बावज़ूद अपनी ज़ुबान खोलता है। परस्पर एक दूसरे को जाँचने-परखने और तौलने की सतर्क और चुस्त कोशिशें और साज़िशें दोनों प्रतिभट अनवरत चलाते रहते हैं। ऐसे में भी घात-प्रतिघात के इक्का-दुक्का झपट्टे लगते ही रहते हैं। किन्तु कोई भी शासक वर्ग अपनी राजसत्ता के अधीन किसी भी तरह की तखड़-बखड़ होने देना न तो पसन्द ही करता है और न बर्दाश्त ही। वह कानून के नाम पर तीखे तेवर वाले विरोधियों की धर-पकड़ करता रहता है और यह कोशिश भी इसके साथ-साथ करता चलता है कि उसके जन-विरोधी चरित्र पर चढ़ी हुई चमचमाती कलई खुल न जाये। प्रेशर कुकर के सेफ़्टी-वाल्व की तरह वह असन्तोष की भाप निकलने तक का रास्ता बनाये रखने की कोशिश करता चलता है। उसके इसी सेफ़्टी-वाल्व का नाम है - मानवाधिकार आयोग।

समाज में जारी संघर्ष युद्ध की पहली दशा में ही रुका नहीं रह सकता। शोषण की चक्की की रफ़्तार जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसमें से निकलने वाले विरोध के स्वर की धार भी तीखी और पैनी होती जाती है। और फिर वह क्षण अचानक आ जाता है जब ‘महा विस्फोट’ (Big Bang)घटित हो जाता है। सुलगती हुई आग से लपलपाती हुई ज्वालाएँ फूटने लगती हैं। आर-पार का भीषण रण अब रुक ही नहीं सकता और सशस्त्र संग्राम छिड़ जाता है। भीषण रण के इस महायज्ञ के हवन-कुण्ड में पड़ने वाली प्राणों की आहुतियों की संख्या कैसे कम की जाये - इस चक्कर में दलित जन के पक्ष में खड़े प्रगतिशील बुद्धिजीवी जब शासक वर्ग के अत्याचार के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करते हैं तो उसका नाम पड़ जाता है - Peoples’ Union For Civil Liberties तथा Peoples’ Union For Democratic Rights. 

जनवाद के नाम पर यह कहा-सुनी इतिहास के हर काल में होती चली आयी है। तब जब सर्वहारा की क्रान्तिकारी सत्ता का अस्तित्व था, तो प्रतिक्रान्तिकारी तत्व जनवाद तथा मानवाधिकार का नाम ले-ले कर उछल-कूद मचाते रहते थे। जैसा कि स्टालिन के रूस तथा माओ के चीन में उनके जीवनकाल तक हुआ। और अब जब धरती पर केवल क्यूबा ही फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्रान्तिकारी सत्ता तथा समाजवादी व्यवस्था के रूप में खड़ा है, तो डंकल के आज के युग में जनाधिकार एवं मानवाधिकार केवल खोखले शब्दों के अलावा - वस्तुतः मासूम जन-गण को भुलावे में रखने वाले एक छलावे के अलावा और कुछ नहीं है।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं, समय कहेगा उनका भी अपराध।।

प्रिय मित्र, कल अपराह्न आज़मगढ़ के नेहरू हाल में एक विचार-गोष्ठी में मुझे अपनी बात रखने का अवसर मिला. विषय था –
“पुलिस, पत्रकार और मानवाधिकार”.
उस गोष्ठी में मेरे वक्तव्य का हिस्सा मेरा लेख और डॉ.मयंक त्रिपाठी की कविता भी थी. एक बार फिर यह लेख और कविता पढ़िए और अगर मन करे तो इस लिंक पर जा कर व्याख्यान की ऑडियो रिकॉर्डिंग भी सुनिए. 
यह 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' द्वारा अपलोड की जाने वाली श्रृंखला का चौबीसवाँ व्याख्यान है.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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