Tuesday 31 March 2015

#_समाज_में_सक्रिय_धाराएँ_एवं_मानव_मन_की_विसंगतियाँ_


प्रिय मित्र, मानव-मन विचित्र है और मानव-जीवन विविधता पूर्ण. मानव-समाज पीढ़ियों से समाज में उपस्थित विविध धाराओं के प्रवर्तकों, अनुयायियों और समर्थकों के सतत सजग और सक्रिय चिन्तन, विश्लेषण और मार्गदर्शन के साथ कदम मिलाते दिन-प्रति दिन गतिमान है. इनमें से कुछ धाराएँ समाज की व्यवस्था को आगे ले जाना चाहती हैं, तो कुछ यथा-स्थिति को बनाये रखना चाहती हैं, वहीं कुछ ऐसी भी धाराएँ हैं जो न तो वर्तमान से संतुष्ट हैं और न ही वे भविष्य के बेहतर समाज-व्यवस्था की कल्पना ही कर सकती हैं. वे केवल अतीत को ही गरिमा-मण्डित कर के अपने दम्भ को तृप्त और तुष्ट कर लेती हैं.


ऐसी अलग-अलग धाराओं को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. जहाँ भविष्य के बेहतर समाज-व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न साकार करने के प्रयास और प्रयोग करने वाली धारा का नाम प्रयोगधर्मी, परिवर्तनवादी, प्रगतिशील, वैज्ञानिक, तर्कसम्मत, वामपन्थी और क्रान्तिकारी है, वहीं यथास्थिति से संतुष्ट धारा को यथास्थितिवादी कहते हैं और तीसरी धारा को प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी, अतीतजीवी, साम्प्रदायिक, दक्षिणपन्थी, परम्परावादी और अन्धविश्वासी धारा कहते हैं.

इनमें प्रगतिशील धारा के लोग समाज की वेदना को दूर करने के लिये ज़िम्मेदार कारण इसी समाज-व्यवस्था के भीतर निहित मानते और जानते हैं. वे उन कारणों को दूर करके नया समाज गढ़ने का प्रयास करते रहते हैं. उनके इन प्रयासों और प्रयोगों से समाज का वर्तमान ढाँचा प्रभावित होता रहता है. इसलिये जिन वर्गों और शक्तियों का निहित लाभ इस व्यवस्था में न केवल पूरा होता रहता है, बल्कि जिनकी स्थिति और भी सुदृढ़ होती रहती है, वे सभी क्रान्तिकारी धारा के लोगों का विरोध हर तरह से करते हैं.

वे उनको कानूनी और गैरकानूनी - हर तरीके से मिटाने का षड्यन्त्र करते हैं. इस षड्यन्त्र में दोनों ही धाराओं के — यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी — दिमाग और ताकतें परस्पर संयुक्त हो कर जन-सामान्य का दमन, उत्पीड़न और शोषण करती हैं और प्रतिवाद या प्रतिरोध करने वालों को पुलिस, अदालत, गुण्डों और पत्रकारों की मदद से अलगाव में डालने के लिये उनके विरुद्ध कुत्सा-प्रचार करती हैं. परिवर्तनकामी लोगों को हर तरह से अपमानित करने की व्यवस्थावादी धाराओं की कायराना हरकत अन्तिम नीचतापूर्ण हथियार के तौर पर उनकी हत्या करने तक चली जाती है. ऐसे शहीदों के नाम स्वर्णाक्षरों में सम्मान के साथ इतिहास लिखता है. परन्तु जीवन भर उनको इस जनविरोधी तन्त्र के चलते अमानुषिक यन्त्रणा और मार्मिक त्रासदी में जीना पड़ता है.

यथास्थितिवादी धारा को वर्तमान व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं दिखती. अगर उत्पीड़न और शोषण से त्रस्त लोगों के आन्दोलनों के दबाव में उनके कुकर्मों की कुछ-कुछ सच्चाई सामने आने लगती है, तो वे सीमा-युद्ध करवा कर जनता का ध्यान बाँट देते हैं. इस तरह ही परम्परावादी धारा भी गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी को समाज की समस्या ही नहीं मानती. वह इन सबको छिपाने के लिये केवल भक्त, सन्त, भाग्य और भगवान् को ही सामने लाती है. उनका स्पष्ट कथन है कि हिन्दुस्तान का दुश्मन पाकिस्तान है और पाकिस्तान का दुश्मन हिन्दुस्तान और दोनों का दोस्त दुनिया का दुश्मन अतिमहाबली अमेरिका है. वे गरीबों का नाम तो लेते हैं, मगर काम अमीरों की सेवा का ही करते हैं. वे स्वघोषित 'देशभक्त' होते हैं.

अब यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी धाराओं की आपसी एकता लूट के माल के बँटवारे में टूटती है. दोनों अपने लिये दूसरी से अधिक बड़े हिस्से के दावे करती हैं. दोनों ही जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये एक से बढ़ कर एक शिगूफे लगातार छोड़ती रहती हैं. दोनों ही कोशिश करती हैं कि वे चुनावी समर में विजेता बन सकें और कम से कम पाँच साल तक निर्विरोध लूट-पाट करती रह सकें. उनके बीच हर समय हर तरह के हथकण्डे और कुचक्र जारी रहते ही हैं.

उनके बीच एक दूसरे के नेताओं और अधिकारियों को अपने कब्ज़े में करने या उनको हटाने और बदलने की चाल शतरंज की चाल की तरह हर-हमेशा चलती ही रहती हैं. व्यवस्था के शिखर से ले कर गाँव-गिराँव के सबसे निचले धरातल तक उनके लोग उनके लिये तो काम करते ही हैं और अपने लिये भी और बेहतर हैसियत और अधिक दौलत बटोरते रहते हैं. वे भी आपस में एक दूसरे के खिलाफ़ तरह-तरह के हथकण्डे जारी रखती हैं.

व्यवस्था इन्ही दोनों के बीच पक्ष-विपक्ष का 'नागनाथ बनाम साँपनाथ' नामक संसदीय नाटक खेलती रहती है. जब भी यथास्थितिवादी लुटेरे मासूम मेहनतकश लोगों को इतना परेशान कर देते हैं कि अब वे पूरी तरह से अझेल हो जाते हैं, तो लोग बदलाव चाहते हैं. अब बदलाव के नाम पर या तो आन्दोलन होते हैं या चुनाव. और दोनों ही में से कोई भी खड़ा करने में या हो जाने की स्थिति में साम्प्रदायिक धारा मासूम लोगों को झूठे वायदों में फँसाती है, उनकी धार्मिक भावनाओं को भड़काती है, उनके बीच साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करती है और उसे खूब योजनाबद्ध ढंग से फैलाती है. और अंततः दंगे करवा कर वोटों का ध्रुवीकरण मासूमों की लाशों पर खड़ा करती है और अपने खून सने हाथों से तथाकथित 'पवित्र संविधान' की शपथ लेकर देश लूटने और बेचने के लिये और देशी पूँजी की सेवा करने और विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिये सत्ता-प्रतिष्ठान पर आरूढ़ करवा दी जाती है.

उनके बीच परस्पर सत्ताहस्तान्तरण के लिये होने वाले जनतन्त्र के चुनाव नामक उत्सव की तैयारी की कोशिश में जहाँ एक तरफ उनके ही आकाओं के कब्ज़े में साँस लेने वाला प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी पूरी ताकत से अपने आका का नमक का क़र्ज़ उतारने की कोशिश करता है, वहीं समान्तर मीडिया पर भी उनके अन्ध भक्त और वेतनभोगी प्रचारक और समाचार-कर्मी धुवांधार प्रचार करते हैं. और सबसे मज़ेदार खुला सच तो यह है कि उनके इस प्रचार में सच होता ही नहीं. उसमें अधिक से अधिक हिस्सा सफ़ेद झूठ का ही होता है.

अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाली साम्प्रदायिक धारा का ज़ोर अतीत की चीर-फाड़ करने में नहीं उसे यथावत पुनर्स्थापित करने में रहता है. उनके पास अपनी अवस्थिति के समर्थन के लिये कोई तर्क नहीं रहता. इसीलिये वे केवल आस्था के सहारे लोगों को प्रभावित करती हैं. उनकी शक्ति भावनाओं में निहित होती है. वे तर्क के नाम पर केवल भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हैं और साथ ही अपने से भिन्न धाराओं के लोगों की भावनाओं को बेतहाशा आहत करने पर ख़ुद तो आमादा रहते हैं, मगर अपनी भावनाओं के आहत होने की लगातार धमकी भी देते हैं और अपनी आहत भावनाओं का रोना रोते हुए व्यवस्था के रक्षकों तक गुहार लगाते रहते हैं.

अब व्यवस्था तो उनके चाकरों की है ही, तो इस व्यवस्था का हर नौकर-चाकर उनके पीछे ही सलाम ठोंक कर खड़ा होने को मजबूर है. ऐसे में साफ़-सुथरा आम इन्सान उनकी गीदड़-धमकियों से आतंकित हो जाता है और पीछे हट जाता है. मगर जिद्दी लोग उनकी बन्दर-घुड़की के झाँसे में नहीं आते, वे अपना काम जारी रखते हैं. वे अपने लक्ष्य को अपने जीवन से अधिक महत्त्व देते हैं और किसी भी सम्भावना के लिये मन बनाकर तैयार रहते हैं. उनके लिये ही दुष्यन्त लिखते हैं —

"कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।"


इतिहास के रथ-चक्र को साज़िशों के सहारे पीछे नहीं घुमाया जा सकता है. वह आगे ही जाने के लिये गतिशील है. मानव-समाज अब दुबारा सामन्तशाही समाज-व्यवस्था में नहीं जी सकता और न ही वापस जंगल में रहने वाले आदिमानव की ज़िन्दगी जी जा सकती है. जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे तकनीक हमारे समाज की 'उत्पादन की शक्तियों' को मुक्त करती जाती है और वैसे-वैसे ही समाज-व्यवस्था को परिचालित करने वाले 'उत्पादन-सम्बन्ध' विकसित होते जाते हैं.

निरन्तर विकसित हो रहे समाज में विज्ञान द्वारा आविष्कृत, उत्पादन-तन्त्र द्वारा उत्पादित, प्रचार-तन्त्र द्वारा विज्ञापित और बाज़ार द्वारा वितरित तरह-तरह के नित-नूतन विकसित उत्पादों का हमारी पूरी जीवन-शैली पर अनवरत व्यापक और हर तरह से परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता ही है. ऐसे में जीवन की विविधता में सबसे महत्वपूर्ण है कि हम सभी अपने-अपने हिस्से के काम को पूरी ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ायें. जब हम अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं और उसमें दत्तचित्त हो जाते हैं, तो दूसरे लोगों के व्यक्तिगत मामलों में ताक-झाँक करने का समय ही हमारे पास नहीं बचता.

और फिर क्या हम किसी की भी निजी जिन्दगी में ताक-झाँक कर सकते हैं ! यह काम नितान्त अनुचित है और समाज में व्यापक तौर पर ऐसे हास्यास्पद और विकृत काम करने वालों का विरोध होता रहा है. सामान्य मनुष्य तो सामान्य मनुष्य ही है, महापुरुष भी मनुष्य ही होते रहे हैं. अपने व्यक्तित्व में मानवीय दुर्बलताओं के होने से कोई भी सहज व्यक्ति इनकार नहीं करता. सभी बड़े और कद्दावर लोगों ने तो अपनी ऐसी विसंगतियों का स्वयं ही अपनी आत्मकथा में विस्तार से वर्णन किया है. ईसामसीह के अनुयायी चर्च में 'पाप-स्वीकृति' करते आये हैं. ईमानदार क्रान्तिकारी कार्यकर्ता खुले मन से सार्वजनिक तौर पर अपनी कमजोरियों को स्वीकार ही नहीं करता, उनके कारणों की पड़ताल भी करता है और स्वस्थ मन से आत्मालोचना करता है और इस विधा के सहारे सतत ही अपना परिष्कार भी करता जाता है. और इतिहास भी महापुरुषों की इतिहास-निर्माण में भागीदारी और उनके सकारात्मक योगदान को याद करता है. वह महापुरुषों का मैला अपने सर पर उठा कर नहीं ढोता फिरता.

समाज में प्रचलित तरह-तरह की वर्जनाओं के बारे में अनावश्यक रूप से कुत्सित चर्चा स्वस्थ मन का कोई भी आदमी नहीं करता. मात्र मनोरोगी और कुण्ठित लोग ही सबसे अधिक वर्जनाओं का ढोल पीटते हैं. वे ही सबसे बढ़-चढ़ कर उपदेशों और सूक्तियों का प्रवचन-लेखन-प्रचार करते हैं. परन्तु अपनी ख़ुद की मानसिक विकृति को तृप्त करने के लिये वे जगह-जगह तरह-तरह से हथलपाकी करने से भी बाज़ नहीं आते. किसी भी ग्रुप में वे ही सबसे अधिक मसालेदार और चटपटे पोस्ट भी लगाते हैं. उनकी फालतू की पोस्ट पर गम्भीर और ज़िम्मेदार लोगों को भी ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ चर्चा व्यर्थ ही सही मगर करनी तो पड़ती ही है. और अगर किसी तरह हर चर्चा में आमन्त्रित किये जाने पर भी उस चर्चा में भागीदारी करने से बचने की भी कोशिश की जाये, तो उसे कम से कम एक बार पढ़ना तो पड़ता ही है.

वे अपनी या अपने दूसरे साथियों-दोस्तों की समझ को सुधारने, विकसित करने या बदलने के लिये न तो ख़ुद ही लिखते हैं और न ही दूसरे लोगों की पोस्ट्स को शेयर करते हैं. वे तो केवल अपना 'टाइम पास' करने और दूसरे लोगों का समय बर्बाद करने का मन बना कर केवल लासा लगा कर तमाशा देखने और अपनी बात का बतंगड़ बनते देख कर मज़ा लेने के लिये ही ग्रुप के पटल पर अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही सक्रिय रहते हैं. उनके ग्रुप में बने रहने से न केवल ग्रुप का माहौल खराब होता है, लोगों के बीच दुराग्रह फैलता है, परस्पर सन्देह का बीज पनपने लगता है, बल्कि किसी भी स्वस्थ और सार्थक चर्चा की रही-सही सम्भावना भी मर जाती है.

दुष्टों और काँटों के लिये दो ही उपाय हमारे बुजुर्गों ने सुझाये हैं. उनका शिकार बनते रहने से कहीं बेहतर है कि या तो चाणक्य की तरह कुश में मट्ठा डाल कर उनका समूल नाश कर दिया जाये, या उनको ग्रुप से अलग कर दिया जाये. कम से कम उनके होने की तुलना में उनको दूर कर देने से नकारात्मक सोच का प्रचार-प्रसार थम जाता है और फालतू बतकुच्चन पर समय नष्ट करने की जगह कुछ सार्थक चर्चा के लिये माहौल और समय उपलब्ध होने लगता है.

अपने इस लेख को मैं रहीम के इस दोहे से समाप्त करना चाहूँगा.
"कह रहीम कैसे निभै, केर-बेर को संग;
ते डोलत रस आपने, तिनके फाटत अंग."


ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (18.2.15. -12.45.A.M.)
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परिंदा किंशुक शिव — "मलंग आदम के लिये..."





मानो तुमने अपनी गठरी में... ज़िद रखी हो कोई...
और ज़िद की जिल्द के नीचे एक किताब से... तुम...
ज़िद की जिल्द को कुतरना आसान नहीं...
नाखूनों-सी खुरच पर और कठोर हो जाये जो...
उन्हें कुतरने से समझना सम्भव नहीं...

तुम अपनी जिल्द से...
बीते समय का सबसे बेशकीमती इत्र निकालते हो...
इत्र... वह रस...
जिसमें कुचली, मसली, हल्की, सीली, उधड़ी पंखुरियों के उत्सर्ग सहेज रखने की तासीर है...
तासीर है सहेजने की... विद्रूपता से परे... उनके ख़त्म होने के बाद भी...
मगर सौरभ...!
निश्चित ही सौरभ... जैसे किसी शव पर रखा फूल...
फूल के शव से उठता सौरभ... तुम्हारा इत्र...

फूल तो मसला जा चुका...
फूल तो कुचला जा चुका...
फूल तो देह था खो चुका...
तुमने सहेज रखा है, बिल्कुल अन्तिम तक जाकर...
हर फूल का सौरभ...

वह इत्र तुम छिड़कते हो...
प्रेम पर...
ईश्वर पर...
सुन्दरता के हर आभास पर...
कतरा भर...
अँजुरी भर...

विस्मित ईश्वर ही रोयेगा...
बाकी सारे नाक-भौंह सिकोडेंगे...
ईश्वर माने सत्व...
सत्व जानता है उस सौरभ का रहस्य...
फूल के शव से उठता सौरभ...
शौकिया तोड़े, मरोड़े, कुचले फूल का सौरभ...

आदम तुमने क्या सबसे अलग महसूसा है...
जो परिपक्व हो इस अनुसन्धान में...
बताओ...
कैसे कुचल पाते हो मरे को...
निकाल लाते हो गन्ध...
नाक ढापने पर भी मस्तिष्क पर जम जाये...
और नमकीन बूँदों से गला भर आये, रुँध जाये...

मैं तुम्हें सोचता हूँ...
तो पाता हूँ सदैव बनारस का कोई अपरिचित घाट...
घाट पर...
अमावस्या की कोई रात...
भभूत-तिलक...
हाथ में रूद्राक्ष...
शिवस्त्रोत जैसे मन्त्र में गालियों की आवाज़...
और भीतर कोई विराट शव...
सुलगता हुआ...
जिसके रक्त-मांस की पकती गन्ध नथुनों में आती है...

किसी ज़िद की जिल्द में ढँकी किताब से...
सुलगते प्रेम की वेदी...
हवन-सी गन्ध...
और हाथों में हर कुचले, मैले, उधड़े फूल का इत्र...

इत्र जिससे सराबोर करोगे अपने भीतर के शव का कोई हिस्सा...
और तर्पण करोगे उसे उस घाट से...
देखता हूँ...
वह तर्पण तुम्हारी रोशनाई-सा होकर..
शब्द बन जाता है...
और हर सत्व पर जम जाता है...
यूँ तुम्हारा शव...
इत्र-सा महकता है बहुत-सी आत्माओं पर...
तुम हौले-हौले सिद्ध हो रहे हो...
अपने तर्पण से...
हम हौले-हौले शव होते जा रहे हैं...
सुलगते तुम्हारे इत्र से... महक कर...

WAR OR PEACE !



O MY DEAR INNOCENT PATRIOT BROTHERS AND SISTERS !
O HONOURABLE SOLDIER ALWAYS READY TO DIE FOR THE MOTHERLAND !
WHY IS THERE A WAR BETWEEN INDIA AND PAKISTAN AGAIN AND AGAIN !!
WHY IS A BORDER ZONE TURNED INTO A WAR ZONE !!
WHO WANTS ALL THE NEIGHBORS TO FIGHT LIKE WOLVES !!
WHO EARNS THE PROFIT OF ALL THESE BLOODY WARS !!
IS IT NOT UNITED STATES OF AMERICA - THE SO CALLED SUPER POWER!!
IS THERE A WAR ZONE ON THE BORDER BETWEEN AMERICA AND CANADA !!
JUST THINK WHY NOT !!
PLEASE THINK AND FEEL THE REALITY BEHIND THE UGLY BUSINESS OF WAR!!

___सहनशील आस्तिक : मूर्ख नास्तिक___



प्रिय मित्र, जीवन-दर्शन का यह अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं विचारणीय मुद्दा है. क्रान्तिकारी धारा के लगभग सभी कार्यकर्ताओं के सामने परम्परागत दृष्टिकोण से मुक्त होने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आत्मसात करने की अपनी विकास-यात्रा में ऐसा एक चरण आता ही है, जब वे अपने को ऐसा आस्तिक घोषित करते हैं, जो परम्परागत रूप से सामान्य आस्तिकों से भिन्न अपेक्षाकृत अधिक आदर्शवादी अवस्थिति पर पहुँच चुका है. ऐसे में वे अपने से कम उदार आस्तिक मनोदशा के लोगों को अपने से कम समझदार महसूस करते हैं.

साथ ही एक ऐसा चरण भी इसके तुरन्त बाद आता है, जब वे अपने निकटस्थ शुभचिन्तकों, मित्रों, परिजनों, सहकर्मियों के साथ आस्तिक बनाम नास्तिक की बहस पूरे जोश से चलाते हैं और अपनी दृढ़ता को असह्य कट्टरता के चरम बिन्दु तक ले जाकर शेष सब के लिये अझेल हो जाते हैं. उनकी इस दृढ़ता के चलते उनकी अभिव्यक्ति की कटुता और आचरण की असहनशीलता तथा अव्यावहारिकता उनको असामाजिक और अलगावग्रस्त बना देती है. विकास-यात्रा का यह चरण व्यक्ति को अनेक 'नेगेटिव लेसन' से लैस करता है. इस चरण में हुई क्षति का आकलन करने का प्रयास करने वाला ही इससे उबरने के बारे में भी विचार करना आरम्भ करता है. और फिर यात्रा आगे बढ़ती है.

इसके बाद ही सन्तुलन का वह चरण आता है, जब वे मतभेदों का सम्मान करना तथा विनम्रता के साथ अपने तर्क प्रस्तुत करना सीख पाते हैं. साथ ही वे दर्शन के इस प्रश्न को जीवन-संग्राम के लिये चल रहे क्रान्तिकारी वर्ग-संघर्ष के साथ जोड़ने की कला में लचीलेपन की दक्षता भी सीखने का प्रयास करते हैं और तब जाकर ही आस्था के प्रश्न को वैयक्तिक अस्मिता से सन्नद्ध बिन्दु के रूप में देख सकने का बोध विकसित हो पाता है. इस स्तर तक का विकास हो जाने से पूर्व आस्था के प्रश्न पर वे अनेक कटु और तिक्त टक्करों में अपनी अनेक सम्भावित उपलब्धियों से चूक चुके होते हैं और अनेक अन्तरंग एवं प्रिय सम्बन्धों को प्रभावित कर चुके होते हैं.

जो अभी तक एक परम्परागत नास्तिक का मत होता रहा है, वही मेरा मत है और ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों में मेरे सीमित बोध के चलते वही हो भी सकता है. थोड़ा तर्क, थोड़ा विज्ञान, थोड़ा जीवन का विद्रूप यथार्थ और थोड़ा उस यथार्थ को बदल देने की अदम्य कामना.

पंकज कुमार मुझे प्रिय हैं. उनका ज्ञान मुझसे अधिक है. वह सापेक्षतः अधिक सहजता के साथ आस्था के उस बिन्दु पर दृढ़तापूर्वक खड़े हैं, जिसके चलते हमारे समाज के सामान्य-जन की परस्पर सहनशीलता तथा परम्परागत भाई-चारे की गंगा-जमुनी संस्कृति दोनों ही प्रमुख सम्प्रदायों के अतिवादियों के प्रबल प्रभाव को पराभूत करती चली आयी है और आज भी साम्प्रदायिकता के उन्माद के बार-बार जगह-जगह उबल पड़ने वाले एक-एक हमले को मुंहतोड़ टक्कर देने में सफल है.

पंकज कुमार की अवस्थिति पर खड़े अनेक ऐसे क्षमतावान व्यक्तियों में मैं तीन नामों का यहाँ उल्लेख करना समीचीन समझता हूँ क्योंकि वे उन अनेक मेधाओं का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ हैं जिनके बिना मैं अपने जीवन-संघर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकता.
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश

पंकज कुमार — "हसीम अमला मुसलमान ही है ना !! लम्बी दाढ़ी भी रखता है , नमाज भी पढता है , सुना है कुरान भी पढ़ रखी है उसने। काफी शांत चित्त बंदा है , अपने आदर्शों पर अटल रहने वाला। तो ऐसा कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि धर्म इंसान को उन्मादी ही बनता है। आप पर निर्भर करता है , धर्म से आपको क्या चाहिये। अरे भाई, अपने बिहार और उत्तर प्रदेश के मित्रों को बच्चों के नैतिक शिक्षा के कहानियों में डबल मीनिंग ढूंढते देखा है , आप भी अपना मतलब निकाल रहे हैं , नास्तिक भी अपना मतलब निकाल रहे हैं जिहादी भी अपना मतलब निकाल रहा है। 

लम्बी दाढ़ियों ने धर्म का अच्छा खासा नुक्सान किया है। नुक्सान भारत के दोनों मुख्य धर्म का हुआ है , लेकिन फिर भी ये बात हिन्दू और मुस्लिम के लिए सामान रूप से सही नहीं है। यही कारण है मुस्लिम दाढ़ियाँ एक वक़्त संदेह और डर का कारण भी बनी। ऐसे में हसीम अमला ने भी ढाढी रखी और मायने बदल गए। एक ही धर्म , दो अलग अलग इंसान के लिए अलग अलग हो सकता है। 

और . . . मेरे जैसा धार्मिक भी हो सकता है जो मंदिर मस्जिद चर्च जाना पसंद नहीं करता ,सारे कुरीतियों का पुरजोर विरोध करता है। किसी संगठित धर्म में विश्वास नहीं , खुद को हिन्दू ,मुसलमान , सिख , ईसाई मानने की बाध्यता नहीं , जाति की बाध्यता नहीं। लेकिन ईश्वर में विश्वास है , वो मेरे साथ होता है , जब कोई साथ नहीं होता। 

आस्तिक और नास्तिक की गुटबंदी बेकार का काम है। जो इंसान को केवल इस आधार पर आंकते हैं कि वो आस्तिक है या नास्तिक , वो मूर्ख है। और जो इस स्थिति तक पहुँच गया है कि आस्तिकों को या नास्तिकों को ब्लॉक/अमित्र करने लगा है , वो बौद्धिक आतंकवादी बन चुका है , उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त समझिये।
बाँकी आपकी मर्जी !!"

___साहित्य-सृजन तथा वीभत्स-चित्रण____


____अनुवाद का एक प्रयोग___
प्रिय मित्र, भाषा केवल सम्प्रेषण का एक साधन ही तो है. मगर हमारे समाज में अंग्रेज़ी के प्रति अतिशय आग्रह और आकर्षण ने नयी पीढ़ी के कलमकारों को हिन्दी से दूर करने के कुचक्र का जाने-अनजाने साथ दिया है. मेरा प्रस्तुत लेख आपके सामने है. युवा कलमकारों से इस लेख का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का अनुरोध कर रहा हूँ. अगर कोई दिक्कत होगी, तो मैं आपकी इनबॉक्स मदद भी कर देने का आश्वासन देता हूँ. अगर यह प्रयोग विफल नहीं हुआ, तो हम अनुवाद के लिये कुछ और बेहतर गद्य या पद्य के अंशों को हाथ में लेंगे, ताकि आपकी भाषा पर पकड़ और मजबूत हो.
ढेर सारी शुभकामना के साथ - आपका गिरिजेश ...

___साहित्य-सृजन तथा वीभत्स-चित्रण____
अन्य विधाओं की ही तरह साहित्य-सृजन भी एक विशेष विधा का सृजन-कर्म है. यदि इसकी अपनी सीमाएँ हैं, तो इसकी अपनी उपयोगिता भी है ही. वीभत्स पक्ष जीवन का अंग है तो, किन्तु यह वह पक्ष है जिसके निवारण के प्रयास अगणित कलमकारों ने असंख्य बार अपनी-अपनी शैली में भिन्न-भिन्न देश-काल-परिस्थिति में किया है. निवारण करने तक न सफल हो पाने पर भी इसकी विद्रूपता की त्रासद अनुभूति, जो संवेदना को मथती रहती है, उसे न्यूनतम करने का प्रत्येक प्रयास अनुकरणीय रहा है और जन उस प्रयास की प्रशंसा कर-कर के मुग्ध होता रहा है.

सृजन 'स्व' का विस्तार ही होता है और रचनाकार के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक भी. इसीलिये कलम से झूठ नहीं बोला जाता, बोला जा सकता भी नहीं. और अगर किसी के जीवन और कथन में, आचरण और अभिव्यक्ति में द्वैत शेष रह जाता है, तो सभ्यता को ढोंग करना पड़ता है. सभ्यता को इस ढोंग से बचने के लिये भी और सकारात्मक प्रेरणा का अधिकतम सम्भव सम्प्रेषण करने के लिये तो अनिवार्यतः ही जीवन-सौन्दर्य के स्वस्थ मूल्यों को बिखेरना होता है. स्वस्थ मूल्यों का विस्तार ही मानव-मुक्ति का और जीवन के विद्रूप से दो-दो हाथ कर ले जाने के हौसले का प्रेरक कारक तथा प्रमाण बनता है.

हाँ, लोक और स्व के बीच चीन की दीवार नहीं होती, हो ही नहीं सकती. दोनों परस्पर नाभिनालबद्ध होते हैं. तुलसी की 'रघुनाथ-गाथा' भी लोक-हित का कारक बन कर ही चेतना के उत्स से फूटती है. वह मात्र तुलसी तक ही सिमट कर नहीं रह सकती. लोक-हितकारी होना जीवन और जगत के स्व और पर के सकारात्मक पक्षों के साथ खड़े होना है. वहीं लोक-लुभावन होना लोक को छलने के लिये किया जाने वाला स्वांग है. अन्ततः तथ्य का बोध होने पर लोक स्वांग की भर्त्सना करता है. परन्तु वीभत्स की मार्मिक यन्त्रणा से मुक्ति के प्रयास का परिणाम और पुरस्कार ही जीवन का मूल-स्वर है और वह है आनन्द की अनुभूति.

जीवन और जगत के सौन्दर्य से उपजने वाला आनन्द सहज ही उपलब्ध हो सकता है. परन्तु मानवमात्र को उसकी गरिमा से वंचित कर देने के लिये ही अमानुषीकरण करने वाला प्रचार-साहित्य शासक वर्ग के चारणों द्वारा रचा जाता है. शोषण-उत्पीड़न-अन्याय पर टिकी वर्तमान वर्गीय समाजव्यवस्था अमानवीय, अपमानजनक और अवसादकारिणी है. निहित स्वार्थों का कुत्साप्रचार मानवीय दृष्टि को बाधित कर देने वाली धुन्ध है. और उस धुन्ध के पीछे है शासक-शोषक वर्गों का कुटिल प्रयास.

यह प्रयास जीवन के सम्मान और आनन्द को छिपाने और यन्त्रणा को उत्पीड़ित वर्ग के जीवन का मूलस्वर बना देने के लिये होता है क्योंकि तब शासक वर्गों की कुटिलता का प्रतिवाद और प्रतिरोध करने की सामर्थ्य से सामान्य-जन वंचित रह जाने के लिये अभिशप्त हो जाता है. अतएव यह प्रगतिशील और परिवर्तनकामी साहित्य की जाज्वल्यमान मशाल ही है, जिसकी ज्वाला की दीप्ति से वह धुन्ध छाँट देना सम्भव होता है. स्वस्थ बोध का विस्तार ही जन-साहित्य के सृजन का मूल प्रेरक कारक भी है. वीभत्स के चित्रण की सीमा लेखक और पाठक दोनों को ही अवसादग्रस्त कर सकती है. कलमकार द्वारा स्वयं को इस परिणति से बचने और जन को बचा लेने की कोशिश की जानी चाहिए.
सामर्थ्यवान कलमकारों से भरपूर उम्मीद के साथ — आपका गिरिजेश (23.2.15)



Babu Shandilya इतनी अंग्रेजी नहीं आती बाबा।
February 23 at 9:05pm · Unlike · 1


Girijesh Tiwari मेरी बेटी, सीखने की न कोई उम्र होती है और न ही कोई सीमा. कोशिश करो और सबसे खराब अनुवाद करने का मन बना कर कलम उठाओ. शायद कल तुम वह कर ले जा सको, जो जीवन भर हाथ-पैर चलाने के बाद भी मैं आज तक नहीं कर सका और न ही दूसरा कोई कर सका. न भूतो न भविष्यति...
February 23 at 9:10pm · Like · 1


निधि जैन सामर्थ्यवान
February 23 at 9:33pm · Unlike · 1


Girijesh Tiwari निधि जैन जी, यह शब्द 'सामर्थ्य' हमारी सीमा नहीं विकास-यात्रा के अगले चरण की सम्भावना मात्र है. और सामर्थ्य प्रयास के साथ ही विकसित होती रहती है. मेरी अपनी सीमाएँ मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं. मगर हम सब मिलकर ही तो सीख रहे हैं और दिन प्रतिदिन आगे और आगे बढ़ रहे हैं.
February 23 at 9:52pm · Like · 1


Pravahan Pandey Sir I will try may be wrong but I will do it
February 23 at 11:40pm · Unlike · 1


Girijesh Tiwari very good Pravahan Pandey. We must try our best to hit all of the available options.
February 24 at 9:37am · Like

Balkrishna Tripathi · 17 mutual friends
Hello sir..
Good afternoon..
Your statement is too good.
it is the best advice for learning everyone...
I agree with this..

___ ‘बर्थ-स्कार’ ___ — अवधेश ___


शिक्षा-रोज़गार-विज्ञापन...
चलचित्र-नाट्य-कला-प्रतिस्पर्धा...
साधन-प्रसाधन-संचार-यातायात...
जाति-धर्म हिन्दू-मुसलमान...
गाँव-शहर देश-विदेश...
अमीर-ग़रीब...
इन सब में कहाँ हूँ मैं ?

मुझे बताओ, बताओ मुझे...
मैं हैरान और परेशान हूँ...
यह सब देख कर और सुन कर
और जान कर और जी कर
कि यह सब कुछ
हमारे रोटी-कपड़ा-मकान के जुगाड़ में
बनवा दिया गया...

मगर क्यों आज तक भी...
रोटी-कपड़ा-मकान ही...
मयस्सर नहीं हो पाया...

माँ की गोद में जन्म लेता है इन्सान...
रोटी की तलाश में भटकता है...
और तोड़ देता है दम...
किसी वीरान फुटपाथ पर...

ख़ूब समझता हूँ मैं...
यह व्यवस्था पूरी की पूरी...
सिर्फ़ इसी लिये बनायी गयी...

कि जो भी हैं हमारे अन्दर...
अभी भी बच गयी...
आदि-मानव से मिली...
मौलिकताएँ, बर्थ-स्कार...
उन सब को कर देना है ख़त्म...
और झोंक देना है...

हमें बेबस कर व्यवस्था की सेवा में...
मगर फिर भी एक अगर...
और एक मगर अभी भी है...
क्योंकि अगर में मगर है...
और मगर में अगर है...
वह क्या है कि...
अपने लोगों का ही...
अपने ही लोगों से...
मर्डर करवाना है...

यही वह मगर है जो अगर में है...
इन्सानियत के लिये...
लिखने वाले, बोलने वाले...
और तो और...
मर-मिट जाने की ज़िद पालने वाले...
ज़िन्दा लोग हैं...
जब तक तब तक...
क्या है मुमकिन यह... !!!

Babu Shandilya — "एक सवाल है - क्या तुम जिन्दा हो !



Babu Shandilya
"एक सवाल है -
क्या तुम जिन्दा हो !


रुको पलट कर मत देखो
डायरी के पन्नें...

साँसों की गिनतियाँ
कोई नही लिखता...

अतीत की घुमावदार पगडंडियाँ
भविष्य के किसी शहर नहीं जाती...

वर्तमान एक अखबार है
सुबह का
जिसमें दर्ज पल-पल की खबर
बासी पड़ती जाती है आने वाले घन्टों में...

तुम्हारी प्रतीक्षा
एक प्रतिप्रश्न है प्रश्न से
उत्तर लम्बी यात्रा पर है...

समय की वीथियों में
तुम भ्रमित हो...

सब शाश्वत चिरन्तन है
नश्वरता में समाहित है
नवीन रचनाओं का उत्स...

महाकाव्य फिर लिखे जाएँगे!!"


(अभी तक मैंने जितने भी कविता-पोस्टर बनाये, उन सबमें मेरी दृष्टि में यह उत्कृष्टतम है. बनाने के बाद आप तक पहुँचाने में हुए विलम्ब के लिये मुझे खेद है.)

शमशेर बहादुर सिंह — "वाम वाम वाम दिशा, समय : साम्‍यवादी।


शमशेर बहादुर सिंह —
"वाम वाम वाम दिशा,
समय : साम्‍यवादी।
पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार-लीन। व्‍यक्ति —
कुहास्‍पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।
हीनभाव, हीनभाव
मध्‍यवर्ग का समाज, दीन।

किंतु उधर
पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की मुट्ठी में — किंतु उधर :
आगे-आगे जलती चलती है
लाल-लाल
वज्र-कठिन कमकर की मुट्ठी में
पथ-प्रदर्शिका मशाल।

भारत का
भूत-वर्तमान औ' भविष्‍य का वितान लिये
काल-मान-विज्ञ मार्क्‍स-मान में तुला हुआ

वाम वाम वाम दिशा,
समय : साम्‍यवादी।
अंग-अंग एकनिष्‍ठ
ध्‍येय-धीर

सेनानी :
वीर युवक
अति बलिष्‍ठ
वामपंथगामी वह —
समय : साम्‍यवादी।

लोकतंत्र-पूत वह
दूत, मौन, कर्मनिष्‍ठ
जनता का :
एकता-समन्‍वय वह —
मुक्ति का धनंजय वह
चिरविजयी वय में वह
ध्‍येय-धीर
सेनानी
अविराम
वाम-पक्षवादी है —

वाम वाम वाम दिशा,
समय : साम्‍यवादी।"

(1945)
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx…

____घरड़ घरड़ – सुरजीत पातर____


"प्रेत बंदूकों से नहीं मरते
मेरी हर कविता प्रेतों को मारने का मंत्र है"
____घरड़ घरड़ – सुरजीत पातर____
मैं छाते जितना आकाश हूँ गूंजता हुआ
हवा की सांय सांय का पंजाबी में अनुवाद करता
अजीबोगरीब दरख्त हूँ
हजारों रंग बिरंगे फिक्रों से बिंधा
भीष्म पितामह हूँ छोटा सा
मैं तुम्हारे सवालों का क्या जवाब दूं

महात्मा गाँधी और गुरु गोबिंद सिंह की मुलाकात की
`वेन्यू` के लिए
मैं बहुत गलत शहर हूँ
मेरे लिए तो बीवी की गलबहियां भी कटघरा है
क्लासरूम का लेक्चर स्टैंड भी .
चौराहे की रेलिंग भी .
मैं तुम्हारे सवालों का क्या जवाब दूं

मुझ में से नेहरु भी बोलता है माओ भी
कृष्ण भी बोलता है कामू भी
वायस ऑफ़ अमेरिका भी , बी बी सी भी
मुझमें से बहुत कुछ बोलता है
नहीं बोलता तो बस मैं नहीं बोलता .

मैं आठ बैंड का शक्तिशाली बुद्धिजीवी
मेरी नाड़ियों की घरड घरड शायद मेरी है
मेरी हड्डियों की ताप संताप शायद मौलिक है
मेरा इतिहास वर्षों में बहुत लम्बा है
कर्मो में बहुत छोटा .

जब माँ को खून की जरूरत थी
मैं किताब बन गया
जब पिता को लाठी चाहिये थी
मैं बिजली की लकीर की तरह चमका और बोला
कपिलवस्तु के शुद्धोदन का ध्यान करो
माछीवाड़े की नज़र करो
गीता पढ़ी है तो विचारो भी :
``..कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा ..``
ऐसा ही बहुत जो मेरी समझ से परे था
मैंने कहा और निकल पड़ा .

रास्ते में भूमिगत साथी मिले
उन्होंने पूछा :
चलोगे हमारे साथ सलीब तक
कातिलों के क़त्ल की अहिंसा समझोगे ?
गुमनाम पेड़ से लटक कर
मसीही अंदाज़ में
सरकंडों को भाषण दोगे ?

जवाब में मेरे अन्दर कई तस्वीरें उलझ गईं
मैं अनेक फलसफों का कोलाज़ सा बन गया
आजकल कहता फिरता हूँ :

सही दुश्मन की तलाश करो
हरेक आलमगीर औरंगजेब नहीं होता

जंगल सूख रहे हैं
बांसुरी पर मल्हार बजायो
प्रेत बंदूकों से नहीं मरते
मेरी हर कविता प्रेतों को मारने का मंत्र है
मसलन ये भी
जिसमें मुहब्बत कहती है :
मैं दुर्घटनाग्रस्त गाडी का अगला स्टेशन हूँ
मैं रेगिस्तान पर बना हुआ पुल हूँ
मैं मर चुके बच्चों की तोतली हथेली पर
उम्र की लंबी रेखा हूँ
मैं मर चुकी औरत की रिकॉर्ड की हुई
हँसीभरी आवाज़ हूँ !

हम कल मिलेंगे !"
साथी Adnan Kafeel Ayyubi जी की वाल पर श्री Surendra Mohan Sharma की कलम से.


Surendra Mohan Sharma Thanks for this wonderful imprint !
March 14 at 8:45am · Unlike · 2


Girijesh Tiwari मित्र, यह कविता अद्भुत है. कल शाम से अभी तक मैं इसके सम्मोहन से बाहर नहीं निकल सका. लगता है यह मेरी अपनी ही कहानी है.
March 14 at 8:49am · Like · 2


Surendra Mohan Sharma ये उन सब की कहानी है जिन्होंने एक `स्वप्न `देखा था कोशिश की थी कि वो सच हो जाये . नहीं हो सका तो कही कोई कोर कसर रह गयी और कुछ गलत मलत हो गया सच नहीं हो सका .. उनमे मैं भी शामिल था गिरीश जी ..
March 14 at 8:57am · Unlike · 2


Girijesh Tiwari साथी, हम सभी अभी ज़िन्दा हैं और आज का माहौल भी हमारे सपने को साकार करने के लिये सबसे सटीक माहौल है. ऐसे में हम अपने स्तर पर हर मुमकिन कोशिश करना जारी रखेंगे और मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले कल का इतिहास एक बार फिर युवा भारतीयों की चेतना और कामना के अनुरूप पलटेगा.
March 14 at 9:32am · Like · 1


Surendra Mohan Sharma देखें !
March 14 at 12:50pm · Unlike · 2


Murli Chotia Bhai me speech less hu
March 14 at 7:08pm · Unlike · 3


Alam Khan · Friends with Shahbaz Ali Khan and 10 others
भाइ क्या बात हैं आपकी कल्पना कहू या आपबिती बस ये कविता शानदार है
March 20 at 11:11am · Unlike · 4


Awadhesh Yadav दोस्तों कविता अच्छी है.लेकिन प्रेत भी कविता लिखते है, प्रेत पैदा करने के लिएे.
लेकिन जीत हर हालत में इन्सानियत की ही होगी, क्योंकि प्रेत डरपोक होते है.
March 20 at 1:53pm · Unlike · 3

___सजग रहिए, हौसला बनाये रखिए ! ___


प्रिय मित्र,
मानवता की सेवा हमारा लक्ष्य है.
और वे मानवता के ही सजग शत्रु हैं.
मानवता की मुक्ति के संघर्ष के अभियान में अनेक विकट दौर आये हैं.
आज का दौर हमारे लिये तरह-तरह की मुश्किलों का दौर है.
हर तरह की मुश्किलों से दो-दो हाथ करना ही हमारे लिये आज के दौर की चुनौती है.
हिम्मत रखिये, साथी! हौसले के आलावा हमारे पास कुछ नहीं है.
वे चाहते हैं कि हम अपना हौसला छोड़ दें, पस्त हो जायें और उनके सामने आत्म-समर्पण कर दें.
ताकि वे हमें पट्टा पहिना कर अपना गुलाम बना सकें.
वे हमें हर क़दम पर हर तरह से ज़लील करके ठहाका लगाते हैं.

उनके पास दौलत है. उनकी दौलत अनेक तरह के ताल-तिकड़म से ग़रीबों की मेहनत-मशक्कत को निचोड़ कर ही जमा होती है.
उनके पास विशेषज्ञता है. अपनी विशेषज्ञता के सहारे वे और भी खूँख्वार हो जाते हैं.
उनके पास यश है. यश उनको अभामंडित करता है.
उनके पास लोक-लुभावन मधुर वाणी है. मधुर वाणी के पीछे वे अपने शकुनि को छिपाते हैं.

वे हमारे शुभ-चिन्तक होने का ढोंग करते हैं.
हमारी ज़िन्दगी की ढेर सारी छोटी-बड़ी परेशानियों में वे मदद करने का बार-बार वायदा करते हैं और जब हम अपने कर्तव्यों के निर्वाह के लिये अपनी छोटी-सी कूबत को नाकाफ़ी पाते हैं और उनके वायदे के सहारे थोड़ी-सी राहत की कल्पना कर रहे होते हैं, तो वे धीरे से अपने वचन से पीछे हट जाते हैं.
वे ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार करते हैं.
वे हर क़दम पर अपने कथन से मुकरते रहते हैं और आगे-पीछे होते रहने को ही अपनी चालाकी समझते हैं.
ऐसा करते समय वे सामने वालों को बेवकूफ़ समझ रहे होते हैं.
यही उनकी फ़ितरत है.
इसे वे चालाकी का नाम देते हैं और हम अमानुषिकता का.
इस तरह हर बार मासूम लोगों को धोखा देने के बाद वे एक बार और मुस्कुराते हैं.
अपनी पाशविक ख़ुशी के लिये वे हर मुमकिन झूठ और झपसटई का ढोंग करते हैं.
इस हरकत में हर तरह से पहिचान लिये जाने के बावज़ूद वे अपनी धूर्तता और ढोंग को छोड़ नहीं पाते.
अन्ततःऐसा करके वे हमारे क्षोभ के नहीं करुणा के पात्र बन जाते हैं.

उनके स्वांग को पहिचान लेना और उनको उनकी औकात में रखना ही उनके साथ हमारे मनोवैज्ञानिक संघर्ष में हमको विजय और उनको पराजय दे सकता है.
इस द्वंद्व में हमारे काम को नुकसान पहुँच सकता है.
हम अपनी सीमाओं के चलते अपने काम को उस स्तर तक नहीं कर पा सकते हैं, जिस तक थोड़ी-सी मदद मिल जाने से कर ले जाना मुमकिन हो सकता है.
हमको उनको पहिचानना चाहिए और उनके कोरे वायदों को धता बता कर अपने संकटों का अपने धैर्य और अपने मुट्ठी-भर दोस्तों के सहारे मुकाबला करना चाहिए.
हमको अपनी विनम्रता और दृढ़ता को बनाये रखना है.
हमको उनकी धूर्तता पर मुस्कुराते हुए अपने दम पर आगे बढ़ना है.
भले ही कितना भी कम हो, मगर हमारा हर अगला क़दम हमारे लिये एक और सफलता लाता है और हमारी सफलता ही उनके षड्यन्त्र का माकूल जवाब है.
हमको ख़ुद का और अपने सारे साथियों का मनोबल बनाये रखना है.
दोस्ती ज़िन्दाबाद !!
"वह सुबह हमीं से आयेगी..."
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10204043023103690&set=a.2043969386669.2098291.1467398103&type=1

साथी Harmandeep Singh Khalsha के लिये


दूर - देश से बहुत दूर हैं, परदेशी कहलाते हैं;
दूर देश में रहते हैं, पर काम देश के आते हैं.

मेहनत करते हैं, खटते हैं, तब रोटियाँ जुटाते हैं;
अपनी रोटी में से एक-एक टुकड़ा रोज़ बचाते हैं.

धीरे-धीरे कर के जितने भी पैसे जुट पाते हैं,
मानवता की सेवा में चुपके से उन्हें लगाते हैं;

कितने ऐसे साथी हैं जो यह कर्तव्य निभाते हैं,
उनके होने भर से कितने ही आगे बढ़ जाते हैं.

अपना सब कुछ अर्पित करने जो धरती पर आते हैं,
उनकी करनी देख-समझ कर सभी प्रेरणा पाते हैं.
गर्व के साथ — गिरिजेश 15.3.15. (8:00 a.m.)

    Harmandeep Singh Khalsha Thanks ji
    लेकिन आप के मार्ग दर्शन के बिना ये सभ संभव ना था ,हम से!
    March 15 at 11:11am ·

    Girijesh Tiwari इस क्रम में सम्मानित मित्र Neelam Prinja जी का उल्लेख भी प्रेरक है.
____________________________

प्रिय मित्र, HUMANITY FIRST नामक यह पेज मानवता की सेवा के प्रति प्रतिबद्ध मेरे सम्मानित मित्र Harmandeep Singh Khalsha जी ने सुझाया है. उनकी निःस्वार्थ सेवा-भावना प्रशंसनीय है. आज ही उन्होंने मेरे बच्चों के लिये रु.15000/- भेजा है. उसके बाद उनसे मेरी फोन पर लम्बी वार्ता हुई. उनके सेवा-अभियान की शक्ति और सूत्रधार उनकी पत्नी श्रीमती Channy Butter जी हैं. उनसे भी उन्होंने मेरी बात करवाई. बात करके मुझे प्रसन्नता और संतुष्टि मिली. हरमनदीप सिंह जी सपरिवार आस्ट्रेलिया में रहते हैं. पति-पत्नी दोनों श्रमिक हैं. और चुपचाप अनजान और ज़रूरतमन्द लोगों की सहायता के लिये अपनी कड़ी मेहनत और ईमान से कमाये गये पारिश्रमिक में से बचत की राशि में से भेजते रहते हैं. उन्होंने एक ग़रीब बच्चे की चिकित्सा के लिये भी आज ही रु. 15000/- भेजा. अनेक ज़मीनी कार्यकर्ताओं को उनसे लगातार आर्थिक सहयोग मिल रहा है. दूर परदेस में पड़े हुए ऐसे विनम्र साथी का त्याग हम सबके लिये प्रेरक है. मैं अपनी ज़िन्दगी के अलग-अलग दौर में आने वाले ऐसे अनेक साथी दोस्तों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा हूँ.
https://www.facebook.com/pages/Humanity-First/448388128663622?ref=notif&notif_t=fbpage_fan_invite


Rajat Khanna MAIN ESAA KYUN NAHI KAR PAA RAHAA HUN
March 23 at 11:07pm · Unlike · 2


Rajat Khanna SIR MERI AARTHIK HAALAT THIIK NAHI HAI MAAFI CHAAHTAA HUN JIS DIN THIIK HONGE MAIN KHUD BACHCHO KI MADAD KARUNGAA
March 23 at 11:09pm · Unlike · 2


Girijesh Tiwari साथी Rajat Khanna जी, आपकी सम्वेदना, स्नेह और समर्थन मेरी अनमोल निधि है. आप जिस मजबूती के साथ खड़े हैं, मैं उसको समझ रहा हूँ. भविष्य संघर्षों में गढ़ा जाता है और आप मेरे लिये संघर्षों मेंललकारने वाले साथी हैं.
March 23 at 11:42pm · Like · 2


Trilochan Shastri Harmandeep भाई ख़ुद संपर्क करते हैं। बनारस में चल रहे गंगा आंदोलन में भी इन्होंने सहयोग दिया है। सद्भावनापूर्ण समाज के लिए तड़प है इनके अंदर।
March 26 at 1:09am · Unlike · 3


Harmandeep Singh Khalsha Mukesh Sharma ji
March 29 at 10:50am · Like · 1


Harmandeep Singh Khalsha Gurpreet Singh
March 29 at 10:52am · Like · 1


Mukesh Sharma · 2 mutual friends
इस जज्बे को मेरा सलाम।।।
March 29 at 10:54am · Unlike · 1


Mukesh Sharma · 2 mutual friends
सही को सही कहता हु भाई।
March 29 at 10:56am · Unlike · 2


Harmandeep Singh Khalsha तो अाप कह रहे थे मै नफरत करता हूं हिन्दूओं को, एस लिए बुलाया था, बस एस पोसट पर, ओर कोई मतलब ना था
March 29 at 11:10am · Unlike · 1


Trilochan Shastri ??
March 29 at 1:19pm · Like · 1


Harmandeep Singh Khalsha Trilochan Shastri JI Mukesh. भाई कह रहे थे मेरी किसी ओर पोसट पे कहते हैकि मै हिन्दू ओर बृहामन से नफरत करता हूं ,वो तो एस बात पे जिद कर रहे हैं कि जो बी जे पी को पसन्द नही करता वो एक तरह का हिन्दू का दुशमन है शायद, बस य्ही था कि मै किसी को नफरत नही करता, बस झूठ पसन्द नहीं मुझे एक
March 29 at 3:32pm · Edited · Unlike · 2


Trilochan Shastri ग़लतफ़हमी हो जाती है।
March 29 at 4:20pm · Like · 1

__नास्तिक बनने के फायदे___ केशव आक्रोशित मन -


मेरे नास्तिक बनने के फायदे और नुकसान
नास्तिक बनने के फायदे -
1- ईश्वर / अल्लाह / गॉड आदि किसी भी काल्पनिक चीज से नहीं डरता।

2- मार्ग में बिल्ली रास्ता काट जाये , किसी को छींक आ जाए , खाली बर्तन देख के , काणे वयक्ति की शक्ल देखलेने के बाद भी वापस नहीं आता हूँ बल्कि सामान्य रूप से मार्ग में आगे बढ़ता रहता हूँ।
3- धन प्राप्त करने के लिए किसी लक्ष्मी कुबेर या अल्लाह गॉड से मदद नहीं मांगता हूँ बल्कि अपने परिश्रम पर विश्वास कर के धन कमाता हूँ ।
4- जागरण , हवन -यज्ञ, पूजा पाठ ,मजार आदि पर एक रुपया भी नहीं खर्च करता हूँ ,यह मेरी एक्स्ट्रा बचत है ।
5- एक भी व्रत , उपवास , रोजे आदि नहीं रखता और फिर बाद में बुरी तरह खाने पर नहीं
टूटता , न ही फल ,दूध ,मेवे खा के झूठा उपवास रखने का दिखावा करता हूँ ।
6- आत्मा पुनर्जन्म के अस्त्तिव को नहीं मानता और न ही श्राद आदि कर्म कर के पंडो धूर्तो की जेब भरता हूँ ।
7- जादू मन्त्र , टोटके , श्राप, जिन्न , भूत , प्रेत , नजर लगना आदि अंधविश्वासों से परे हूँ , बल्कि दावा करता हूँ की कोई मुझ पर भूत छोड़ के दिखाए ।
8- अमावस्या , एकादशी आदि के दिन गंदगी भरे गंगा या और नदी नालो में नहाने की मज़बूरी से मुक्त हूँ।
9- अनिष्ट के डर के कारण शनि देव को तेल लगाने या टीन के डिब्बे में पैसा डालने से मुक्त हूँ ।
10- किसी भी मुफ्तखोर साधू संत को दक्षिणा देने और उसके पैर छूने से मुक्त हूँ। किसी मौलवी पादरी के कहने पर चलने से मुक्त हूँ ।
11-राशि फल, ज्योतिष , बाबाओ के चक्कर में फंस के अपना धन और समय दोनों बर्बाद करने से मुक्त हूँ , अपने हिसाब से अपने कार्य करता हूँ दिन महूर्त देख के नहीं ।
12-मंदिर मस्जिद चर्च आदि ईश्वर के अडडों को एक रुपया भी दान नहीं देता बल्कि जब पैसे होते हैं किसी गरीब को भोजन करवा देता हूँ । या जब ज्यादा पैसा होता है तब अनाथालय की पेटी में चुप चाप डाल देता हूँ ।
13- अपनी सफलताओं का आनंद लेता हूँ और असफलताओ को स्वयं सुलझता हूँ। जीवन में समस्याएं आती हैं तो स्वयं हल करता हूँ किसी भगवान या अल्लाह के सामने नाक नहीं रगड़ता हूँ ।
14- मानवता और नैतिकता में विश्वास करता हूँ , लिंग , धर्म , देश ,राज्य या जाति के आधार पर किसी से भेद नहीं करता ।
15- किसी भी तथाकथित ईश्वरीय ग्रन्थ को मानने से मुक्त हूँ ।
16- प्रश्न पूछने और तर्क करने की हिम्मत आ गई है
नास्तिक बनने की हानि-
1-स्वर्ग में अप्सराओं और जन्नत की हूरो से मुलाकात अब मुमकिन नहीं ।
2- सबकी नजरो में अधर्मी और काफ़िर बन गया हूँ
3- साथी बहुत कम हैं ।
-केशव



पंकज कुमार और ये सब नफ़ा नुक्सान मुझे नास्तिक बने बिना ही प्राप्त है। बस तीसरे नम्बर की हानि से मुक्त हूँ।
March 16 at 8:36pm · Unlike · 1


Utkarsh Sharma I think u need introspection and self actualization to know God.......u take god as a material which is sold by the agents of religion......God is in me and you, do good God will get its publicity in positive way.
March 16 at 8:58pm · Unlike · 1


Vijay Pal Singh Sangwan Kaabiletaareef
March 16 at 10:25pm · Unlike · 1


Karamvir Shastri · 9 mutual friends
Achchhi soch
March 17 at 6:46am · Unlike · 1


Umashankar Sahu मुझे लगता है आपने कभी भी अन्तरिक्ष की तरफ नहीं देखा ........... कभी उस अनंत अन्तरिक्ष के बारे में नहीं सोचा .........
.
गंजेपन के तीन नफा ....
शीशा कंघा तेल बचा ........
March 17 at 8:30am · Unlike · 1


Harishchandra Zagade भवास्तिक - एक सकारात्मक शब्द है. ईसका प्रयोग हो.
March 17 at 8:31am · Unlike · 1


Umashankar Sahu भवास्तिक का आशय क्या है मित्र
March 17 at 8:32am · Unlike · 1


Harishchandra Zagade जो सच में अस्तित्व में है, अपने आजूूबाजू, भवताल, भव, दुनिया, धरती, विश्व इन सब ठोस चीजों के अनादी-अनंत अपितु निरंतर परिवर्तनशील अस्तित्वमें, द्रव्य-उर्जा के अस्तित्वमें, जिसका मानवसमाज एक परिवर्तनशील उमदा हिस्सा है, उसमें आस्था रखने वाला भवास्तिक. आस्तिक विचार इसको माया बताकर सर्वशक्तीमान ईश्वर की कल्पना को ही सच बताते है. देवास्तिक के विरुद्ध है भवास्तिक..
March 17 at 8:49am · Unlike · 1


Aziz Parwez इधर भी वही हाल है केशव भाई।
March 17 at 10:40am · Unlike · 1


Khemraj Choudhary आप चिंता मत करे आप की जमात के बहुत सारे लोग है ईस धरती पर !
March 17 at 7:30pm · Unlike · 1


Raj Singh Aap sabse bade astik hai kyonki sare dharm manavata aur naitikta ki or le jate hai.

___ THE WORKSHOP CONTINUES ___



कक्षा 9 से 12 तक निःशुल्क शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये
'व्यक्तित्व विकास परियोजना' का पाँचवाँ सत्र
ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण-कार्यशाला (Summer workshop) जून अन्त तक
प्रतिदिन प्रातः 10 बजे से सायं 6 बजे तक
वर्कशॉप की दैनिक कार्य-योजना : –
10 से 12 बजे तक – 
 


12 से 2 बजे तक – 
तैयारी तथा1. स्पोकेन इंग्लिश, 2. हैण्ड-राइटिंग इम्प्रूवमेन्ट, 3. बुक रीडिंग इम्प्रूवमेन्ट, 4. लाइब्रेरी से किताब ले कर पढ़ना, 5. चित्र बनाना सीखना, 6. यू-ट्यूब के व्यक्तित्व-विकास सम्बन्धी लेक्चर सुनना, 7. ड्राफ्टिंग सीखना (कविता, कहानी, निबन्ध), 8. ट्रान्सलेशन, 9. कम्प्यूटर-प्रशिक्षण, 10. संगीत, 11. स्पीच, 12. उर्दू,
2 से 5 बजे तक – अगली कक्षा की अंग्रेज़ी, गणित, विज्ञान के कोर्स पर काम
5 से 6 बजे तक – विशेषज्ञ-सम्बोधन, जनरल मीटिंग, खेल, सफाई, प्रतियोगिता,

छात्र-छात्राओं को बेहतर तैयारी में सहयोग देने के लिये चलायी जा रही इस परियोजना में निम्न नौ बिन्दु हैं : –
1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, 2. सामाजिक जागरूकता, 3. अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास, 4. शुद्ध एवं धाराप्रवाह अंग्रेज़ी व हिन्दी की वक्तृता एवं लेखन-क्षमता, 5. इण्टर की फिजिक्स, केमेस्ट्री, गणित, अंग्रेज़ी और हिन्दी, 6. कम्प्यूटर प्रशिक्षण, 7. वन-डे इक्जामिनेशन की कम्पटीशन की क्लास, 8. जिम द्वारा स्वास्थ्य-सुधार और शरीर-सौष्ठव का विकास, 9. प्रचण्ड आत्मविश्वास,

युवा जागरण का यह प्रकल्प सेवाभाव से चलाया जा रहा है। इसके लिये कोई भी शुल्क नहीं लिया जा रहा है। कक्षा नौ तथा उससे ऊपर की कक्षाओं के छात्र एवं छात्राएँ व्यक्तित्वान्तरण के इस अभियान में भाग लेने के लिये आमन्त्रित हैं। किसी भी समस्या का समाधान खोजने में यदि आपको कठिनाई महसूस हो रही हो, तो समुचित सलाह एवं मार्गदर्शन हेतु सम्पर्क करें।
लाइफ़-लाइन अस्पताल की गली के सामने, मड़या. सम्पर्क – 09450735496

कृषिप्रधान देश या किसानों की कब्रगाह? – कृष्णकांत



Ashok Kumar Pandey – पढ़िए किसानों की आत्महत्या और सरकारी नीति पर Krishna Kant का विचारोत्तेजक लेख
कृषिप्रधान देश या किसानों की कब्रगाह? – कृष्णकांत
सरकार ने 13 मार्च को संसद में जानकारी दी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद डिवीजन में 2015 के शुरुआती 58 दिनों के भीतर 135 किसानों ने आत्महत्या कर ली. कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंडारिया ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 और 2013 में क्रमश: 13,754 और 11,772 किसानों ने आत्महत्या की. भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, फसल की लागत बढ़ने, सिंचाई की सुविधा न होने, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. 1995 से लेकर अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

महाराष्ट्र लगातार 12वें साल महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में अव्वल है. यहां का सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र किसानों की कब्रगाह है. अकेले महाराष्ट्र में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बीती फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती में शरद पवार के किसी ड्रीम प्रोजेक्ट कृषि विज्ञान केंद्र का उद्घाटन किया और दोनों नेताओं ने एक दूसरे को किसानों का हितैषी बताया. यह गौर करने की बात है कि 1995 से अब तक बीस साल में शरद पवार दस साल कृषि मंत्री रहे और सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट्र में मरे. जब शरद पवार के कथित ड्रीम प्रोजेक्ट का उद्घाटन हो रहा था, तब किसानों की इन मौतों का तो कोई जिक्र नहीं हुआ, कृषि को वैश्विक बाजार में तब्दील करने की घोषणा जरूर हुई. नई सरकार आने के बाद से अब तक इस सरकार ने एक बार भी किसानों को कोई सांत्वना नहीं दी है कि वे कर्ज और गरीबी के चलते आत्महत्या न करें, सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के कुछ उपाय करेगी.

चुनाव प्रचार के मोदी हर सभा में कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही अडाणी को छह हजार करोड़ का सरकारी कर्ज दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी. तब से वे दुनिया भर में घूम घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी. अमेरिका से परमाणु समझौते के तहत आनन फानन में भारत सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को दुर्घटना संबंधी जवाबदेही से मुक्त कर दिया और देश के खजाने से 1500 करोड़ का मुआवजा पूल गठित कर दिया. यदि पूंजीपतियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है तो क्या कर्ज से मरते किसानों की जान बचाने के लिए कुछ सौ करोड़ रुपए की योजनाएं नहीं शुरू की जा सकतीं?

जब संसद में सरकार किसान आत्महत्यों की जानकारी दे रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्रा पर जा चुके थे. उन्होंने जाफना में श्रीलंकाई तमिलों को भारत की मदद से बने 27 हजार मकान सौंपे और इस परियोजना के दूसरे चरण में भारत के सहयोग से और 45 हजार मकान बनाए जाने की घोषणा की. मॉरीशस को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए 50 करोड़ डॉलर का रियायती कर्ज देने की पेशकश की. इसी तरह अनुदान और कर्ज के रूप में सेशेल्स को भी 7.50 करोड़ डालर की राशि दी गई. काश प्रधानमंत्री अपने देश में मर रहे किसानों पर कुछ करते नहीं तो कोई घोषणा ही करते. 

मोदी एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जहां पांच करोड़ लोग बेघर हैं. इन बेघर लोगों के लिए मोदी सरकार ने कोई पहल की हो, ऐसा अभी सुनने में नहीं आया है. सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूर पूरा जोर लगा चुकी है जिसके तहत किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीनें लेकर कारपोरेट को सस्ते दाम में देने की योजना है. 

यह वही देश है जो स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात करता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता कि पहले से चल रही खटारा ट्रेनों में पानी नहीं होते. इस पर बात नहीं होती कि ज्यादातर जनसंख्या को पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं है. यहां इस पर कोई बात नहीं होती कि हर साल करीब साढ़े तेरह लाख बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं. इसका कारण डायरिया और निमोनिया जैसी साधारण बीमारियां हैं. हम इन शर्मनाक आंकड़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होते.

जब प्रधानमंत्री उद्योगपतियों को विश्वास में लेने के लिए ताबड़तोड़ कॉरपोरेट हितैषी घोषणाएं कर रहे हैं और दुनिया भर में घूम घूम कर आर्थिक मदद बांट रहे हैं, उसी समय में स्वाइन फ्लू से अबतक 1600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और करीब 50 हजार पर यह खतरा बना हुआ है. यदि स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से इतनी मौतें अमेरिका या यूरोपीय देशों में होतीं तो क्या वहां ऐसी ही चैन की बंसी बज रही होती?

चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों को लेकर बहुत बड़ी बड़ी बातें की थीं लेकिन अब किसान उनकी चिंताओं में नहीं हैं. भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा. लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी एंड टीम का पूरा जोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है. उनकी प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं. सरकार मेक इन इंडिया के लिए तो मशक्कत कर रही है लेकिन कृषि के लिए उसके पास कोई योजना या सोच नहीं है. देश की करीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है. 



लेकिन इस क्षेत्र को लेकर सरकार ने अब तक किसी बड़े नीतिगत बदलाव या घोषणा से परहेज ही किया है. जबकि कृषि पर गंभीर संकट मंडरा रहे हैं. चालू वित्त वर्ष (2014-15) में कृषि विकास दर सिर्फ़ 1.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है.

कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में मोदी सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी.बजट में किसानों के लिए बजट में कुछ खास नहीं रहा. सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है, उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है. हालिया बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐलान किया कि कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी किया जाएगा.

मोदी सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का साफ संदेश है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं. यह कृषिप्रधान फिलहाल किसानों का कब्रगाह बना रहेगा.
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