Wednesday 19 December 2012

अपठित काव्यांश का सन्दर्भ, प्रसंग एवं व्याख्या




एक अपठित काव्यांश का सन्दर्भ, प्रसंग एवं व्याख्या देखिए।
‘‘राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताज़ों पर आसीन कलम,
जिसने तलवार शिवा को दी, रोशनी उधार दिवा को दी,
पतवार थमा दी लहरों को, खंजर की धार हवा को दी,
अग-जग के उसी विधाता ने कर दी मेरे आधीन कलम।

तुझ-सा लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेता,
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता,
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम,
मेरा धन है स्वाधीन कलम...........।’’ - गोपाल सिंह ‘नेपाली’


सन्दर्भः- यह काव्यांश प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद के बीच के काल-खण्ड में छन्दबद्ध परम्परा को नकारे बिना जन-जागरण के विद्रोही गीत रचने वाले हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर गोपाल सिंह ‘नेपाली’ द्वारा कलमबद्ध किया गया है।

प्रसंगः- प्रस्तुत दो खण्डों में व्यक्त किये गये विचार अभिव्यक्ति के उद्देश्य के आधार पर चार टुकड़ों में विभाजित किये जा सकते हैं। प्रथम पंक्ति एक टुकड़ा बनाती है, अगली तीन पंक्तियाँ दूसरा, दूसरे खण्ड की पहली दो पंक्तियाँ तीसरा और अन्तिम दो पंक्तियाँ चौथे टुकड़े का रूप धारण कर लेती हैं।

व्याख्याः- कवि ने सिंहासन शब्द में काव्य-चमत्कार उत्पन्न कर के राजा को अपनी प्रजा का भरण-पोषण करने वाले रक्षक की अपेक्षा वनराज सिंह की तरह दमन, उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले राज-सिंह के रूप में चित्रित किया है। कवि के अनुसार राजा का आभा-मण्डल उसके रत्नमण्डित स्वर्णमुकुट में निहित है। परन्तु यह कलम है, जिसने मुकुट बदले, उछाले और उन्हें धूलि-धूसरित कर दिया। उदाहरण के लिये उर्दू के सशक्त गज़ल-गो फैज़ अहमद फैज़ की निम्न पंक्तियाँ समीचीन हैं -
‘‘ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुँचा है,
जब तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज़ उछाले जायेंगे।’’

आदिकवि वाल्मीकि से प्रथम जन-कवि तुलसी तक ने कलम का ही कमाल किया और त्रेता के राम को आज तक जन-जन का महानायक बनाये हुए हैं। जहाँ कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान की लेखनी हमें महारानी लक्ष्मी बाई की शौर्य-गाथा सुना कर रोमांचित कर देती है, वहीं चारण भूषण की कलम छत्रपति शिवाजी की वीरता के कारनामों को जन-जन तक सम्प्रेषित कर ले जाती है। युग-पुरुष चाणक्य चन्द्रगुप्त को सम्राट तो बनाते ही हैं, साथ ही ‘चाणक्य नीति’ तथा ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ की रचना करके मानवता के इतिहास में प्रेरणा के अमर स्रोत बन जाते हैं। फिरदौसी का ‘शाहनामा’ कुटिल बादशाह द्वारा कवि के अपमान के प्रतिशोध में लिखा गया विश्व-साहित्य का इतिहास-प्रसिद्ध अद्वितीय ग्रन्थ है।
जीवन और विज्ञान जब एक साथ मिलते हैं, तो जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आविर्भाव होता है। प्रस्तुत कविता की अगली तीन पंक्तियाँ अपनी व्याख्या हेतु हमसे इसी दृष्टिकोण की कसौटी पर कसे जाने की अपेक्षा करती हैं। छत्रपति शिवाजी की भवानी तलवार के विषय में जन-श्रुति है कि स्वयं माँ भवानी ने साक्षात् प्रकट होकर अपनी तलवार उनको प्रदान की थी। परन्तु जीवन का विज्ञान हमें बताता है कि अपने पिता से दूर अपनी माँ के साथ उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य बालक जैसे-जैसे सचेत होता गया, वह अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न और अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये अपने हमजोली मित्रों के समुदाय को एकजुट करके तलवार उठाने का संकल्प कर बैठा और अन्ततः मराठा साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ। परम्परा सूर्य को जीवन का मूल स्रोत मानती है। विज्ञान सूर्य में अनवरत जारी संलयन की प्रक्रिया को सूर्य के प्रकाश का आधार कहता है। संलयन की प्रक्रिया में भागीदार परमाणु के प्रोटियम नामक खण्ड प्रकाश, ऊष्मा, ऊर्जा, जल-चक्र, ऋतु-चक्र, जीवन-चक्र - सभी के लिये ज़िम्मेदार हैं। नाविक को जब प्रगति करनी होती है, तो ‘क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया’ के नियम के अनुसार वह अपनी पतवार को अगाध जल-राशि में डुबाकर उससे जल के भीतर प्रतिगति उत्पन्न करता है। किसी कलमकार द्वारा यह कहा भी गया है -
‘‘नाविक की धैर्य-परीक्षा क्या, जब धाराएँ प्रतिकूल न हों!’’
कवि खंजर की धार की बात करता है और धारदार हवा की बात भी करता है। दुश्मन के किले पर धावा बोलने को आतुर शस्त्र-सन्नद्ध घुड़़सवार सैनिकों के दल का नेतृत्व करने वाला सेनानायक तूफ़ानी पहाड़ी हवा के थपेड़ों के बीच फड़फड़ाते हुए अपने ध्वज को ले कर आगे-आगे चलने वाले पुरोधा सैनिक को कूच का संकेत करता है और तूफ़ान के सनसनाते थपेड़े भी घुड़सवारों के सधे हुए घोड़ों की टापों को पहाड़ी की चोटी पर निर्मित दुर्ग के परकोटे तक आ धमकने से नहीं रोक पाते। जीवन का यह उत्साह ही तो है कि मनुष्य ने प्रकृति की गति में हस्तक्षेप करके अपना विजय-अभियान अभी तक सतत जारी रखा है। इस छन्द की अन्तिम पंक्ति की व्याख्या में निम्न उद्धरण सहायक सिद्ध होंगे -
‘‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।’’
तथा
‘‘अस्मिन् काव्य-संसारे कविरेव स्वयं प्रजापतिः।’’
उक्त दोनों उद्धरणों की सहायता से हम इस पंक्ति में आये विधाता शब्द की व्याख्या कर सकते हैं। विद्यारम्भ भारतीय षोडश संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में गुरु अपने शिष्य के हाथों में अपनी विरासत के प्रतीक के तौर पर अपना कलम हस्तान्तरित कर उसकी बौद्धिक विकास-यात्रा को सुनिश्चित करने के लिये वचनबद्ध होता है। द्वितीय छन्द की प्रथम दो पंक्तियाँ कवि के प्रतिवाद को स्वर देती हैं। इनमें वह उन गर्हित साहित्यकारों को सम्बोधित कर रहा है, जिन्हें मुक्तिबोध ‘साहित्य के हम्माल’ की संज्ञा देते हैं, जो अपने आत्मा को कुचल कर सुविधाओं को जुटाने का जुगाड़ भिड़ाने की जुगत लगाने के लिये शासन की चाटुकारिता की सीढ़ियाँ चढ़ने के चक्कर में अपना कलम धन की देवी के पुजारियों के हाथों बेच बैठते हैं। ऐसे साहित्यकार वाग्मिता पर कलंक के अतिरिक्त और क्या हैं! कवि इनकी तुलना में स्वयं को अधिक सम्पन्न समझता है, क्योंकि उसकी लेखनी पराधीन नहीं है। यहाँ हमें बरबस तुलसी याद आते हैं -
‘‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’’
कवि अपना पक्ष चुन चुका है और वह है जन का पक्ष। इस चयन पर उसे अफ़सोस नहीं, अपितु गर्व है क्योंकि जन-सामान्य की यन्त्रणा, व्यथा, पीड़ा तथा क्षोभजन्य आह को जल-तरंग की भाँति स्वरित करने वाली उसकी लेखनी साधारण स्याही से नहीं, बल्कि आँसुओं के लावण्य से परिचालित होती है। जन को जगाना उसका कार्य है, जन-गीत रचना उसकी फ़ितरत और विद्रोह तो उसका स्वभाव ही बन चुका है।


Tuesday 18 December 2012

खट्टर काका - हरि मोहन झा

अन्धविश्वास और कूपमंडूकता के विरुद्ध क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिये ज़बरदस्त हथियार बन चुकी हरि मोहन झा की बहुचर्चित कृति "खट्टर काका" के पृष्ठ 164 तक इस लिंक पर उपलब्ध हैं. अगर आपने अभी तक यह कृति नहीं पढ़ी है, तो मेरा निवेदन है कि इसे अवश्य पढ़ें.http://books.google.co.in/books?id=psrNs-9NVvsC&pg=PA161&lpg=PA161&dq=%E0%A4%96%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0+%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE+%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95&source=bl&ots=NkHK2j1kG_&sig=wymxVqBCq2kIdAXyUu9NUs2rKDQ&hl=en&sa=X&ei=ld7JUJPICMXyrQeqmIC4Dg&sqi=2&ved=0CCsQ6AEwAA#v=onepage&q=%E0%A4%96%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95&f=false
"कबीर दास की तरह खट्टर काका भी उलटी गंगा बहा देते हैं। उनकी बातें एक-से-एक अनूठी, निराली और चौंकानेवाली होती हैं।....
खट्टर काका हँसी-हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं, उसे प्रमाणित किये बिना नहीं छोड़ते। श्रोता को अपने तर्क-जाल में उलझाकर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौतुक है। वह तसवीर का रुख यों पलट देते हैं कि सारे परिप्रेक्ष्य ही बदल जाते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, वेदांत, वेद, पुराण, सभी उलट जाते हैं। बड़े-बड़े दिग्गज चरित्र बौने –विद्रूप बन जाते हैं। सिद्धांतवादी सनकी सिद्ध होते हैं, और जीवन्मुक्त मि्ट्टी के लोंदे ! देवतागण गोबर-गणेश प्रतीत होते हैं। धर्मराज अधर्मराज, और सत्यनारायण असत्यनारायण भासित होते हैं ! आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं। वह ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उलटी नजर आती है ! वह अपनी बातों के जादू से बुद्धि को सम्मोहित कर उसे शीर्षासन करा देते हैं।

कट्टर पंडितों को खंडित करने में खट्टर काका बेजोड़ हैं। पाखंड-खंडन में वह प्रमाणों और व्यंग्य-बाणों की ऐसी झड़ियाँ लगा देते हैं, जिनका जवाब नहीं। कः समः करिवर्यस्य मालती-पुष्प-मर्दने ! उनके लिए सभी शास्त्र पुराण हस्तामलकवत् हैं। वह शास्त्रों को गेंद की तरह उछालकर खेलते हैं। और, खेल-ही-खेल में फलित ज्योतिष, मुहूर्त-विद्या को धूर्त-विद्या, तंत्र-मंत्र को षड्यंत्र और धर्मशास्त्र को स्वार्थशास्त्र प्रमाणित कर देते हैं। इसी तरह वह आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, मोक्ष और ब्रह्म की धज्जियाँ उड़ाकर रख देते हैं।

खट्टर काका को कोई ‘चार्वाक’ (नास्तिक) कहते हैं, कोई ‘पक्षधर’ (तार्किक), कोई ‘गोनू झा’ (विदूषक) ! कोई उनके विनोद को तर्कपूर्ण मानते हैं, कोई उनके तर्क को विनोदपूर्ण मानते हैं। खट्टर काका वस्तुतः क्या हैं, यह एक पहेली है। पर वह जो भी हों, वह शुद्ध विनोद-भाव से मनोरंजन का प्रसाद वितरण करते हैं, इसलिए लोगों के प्रिय पात्र हैं। उनकी बातों में कुछ ऐसा रस है, जो प्रतिपक्षियों को भी आकृष्ट कर लेता है।

आज से लगभग पचीस वर्ष पहले खट्टर काका मैथिली भाषा में प्रकट हुए। जन्म लेते ही वह प्रसिद्ध हो उठे। मिथिला के घर-घर में उनका नाम खिर गया। जब उनकी कुछ विनोद-वार्त्ताएँ ‘कहानी’, ‘धर्मयुग’ आदि में छपीं तो हिंदी पाठकों को भी एक नया स्वाद मिला। गुजराती पाठकों ने भी उनकी चाशनी चखी। उन्हें कई भाषाओं ने अपनाया। वह इतने बहुचर्चित और लोकप्रिय हुए कि दूर-दूर से चिट्ठियाँ आने लगीं—‘‘यह खट्टर काका कौन हैं, कहाँ रहते हैं, उनकी और-और वार्ताएँ कहाँ मिलेंगी ?’’
http://pustak.org/home.php?bookid=6863

Sunday 16 December 2012

वसन्त का पतझड़ - गिरिजेश


ठण्डक ने फिर आज पलट कर वार कर दिया;
दुविधाओं ने जीवन ही दुश्वार कर दिया।

नहीं किसी से मिलने की इच्छा ही होती;
रोज़ सुबह से शाम ज़िन्दगी केवल रोती।

अविरल पछतावों की लहरों पर उतराता;
नहीं घूमने ही मैं कभी कहीं भी जाता।

दर्द और बीमारी की लहरों पर लहरें;
सम्भावना नहीं कुछ उतरूँ फिर से गहरे।

क्यों ऐसे जीते जाने पर आमादा हूँ?
बार-बार निस्सार हो चुकी परिभाषा हूँ।

सहज विकास-प्रवाह प्रभावित क्यों हो बैठा?
टूटी अकड़ मगर बैठा मैं अब भी ऐंठा!

किसकी ख़ातिर अब भी कुछ भी कर पाऊँगा?
या बोझा बन बैठ महज जीता जाऊँगा?

रोना, हँसना, बातें करना भूल चुका हूँ।
सूखी डाली हूँ, एकाकी झूल चुका हूँ।

कई थपेड़े तूफ़ानों के झेल चुका हूँ।
ख़ूनी संघर्षों में खुल कर खेल चुका हूँ।

अपनी छवि पर अपने मुँह से थूक चुका हूँ।
मैं वसन्त का पतझड़ हूँ, मैं चूक चुका हूँ।

मैं अतीत का गीत बन चुका हूँ जीते-जी।
क्या फिर से आ पायेगी जीवन में तेजी?

टूट चुके संकल्पों की बातें क्या करना?
छूट चुके सम्बन्धों के पचड़े में मरना!

यह अवसाद, प्रमाद, मोह, यन्त्रणा कठिन है।
क्या अवसान कथानक का अब यहीं कहीं है?

Saturday 15 December 2012

सच तो सच है! - गिरिजेश

प्रिय मित्र, अपने विद्रोही तेवर के चलते अपनी पूरी जिन्दगी मैंने शून्य से शुरू करके बार-बार नया प्रयोग खड़ा करने की कोशिश की है और इस जद्दोजहद में सफलता और विफलता दोनों का स्वाद चखा है. 
मेरी तरह जब भी हम में से कुछ लोग कुछ भी लीक से हट कर नया करने की कोशिश करते हैं, तो वर्तमान की विसंगति से तीखी नफ़रत और उस नफ़रत के प्रतिकार के प्रयास के पीछे प्रेरक घटक के रूप में एक ओर जहाँ कुछ बेहतर कर गुजरने की अकुलाहट होती है. वहीँ असफल हो जाने के अतीत के ढेरों और 
और भी कड़वे अनुभवों से जन्मी आशंकाएँ भी हमारे फैसले की मजबूती को डगमगाती रहती हैं.
फिर भी हम खुद को पिछली हर बार की तरह ही एक बार फिर से हिम्मत बटोर कर अनजान भवितव्य के अंधे कुएँ में झोंक देते हैं और पूरी कूबत से एक बार फिर एक और नया प्रयोग करते ही हैं. 
हर बार की तरह इस बार भी समाज के गिने-चुने लोग ही हमारी सम्वेदना को महसूस करते हैं और हर तरह से हमारा साथ देते हैं. ढेरों लोग हमारी ईमानदारी और समर्पण से प्रभावित होते हैं और हमारा समर्थन करते हैं. इनके अलावा बहुत से दूसरे लोग हमारे अतीत के सारे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं से परिचित होते हैं और हमारे प्रति शुभकामना व्यक्त करते हैं. 
कई चालाक लोग हमारी गतिविधियों को अपने लिये परेशानी की वजह मानते हैं और हमको सनकी समझते हैं और हम से सतर्क दूरी बना कर रखना पसन्द करते हैं, ताकि उनके अपने ताम-झाम और तथाकथित सुरक्षित दिनचर्या में हमारी वजह से कोई अनचाहा व्यवधान न पैदा हो. 
इन सबसे अलग कुछ मुट्ठी भर मक्कार लोग हमारे सामने चापलूसी करते हैं मगर पीठ पीछे हमेशा हमारा मज़ाक उड़ाते हैं या विरोध करते हैं और दिल से चाहते हैं और हर तरह से साज़िश करते रहते हैं कि हम किसी भी तरह फिर से असफल हो कर पिछली हर बार की तरह ही उपहास के पात्र बन जायें. ताकि वे अपनी टुच्ची दुनियादारी भरी सूझ-बूझ की एक बार फिर अपने चमचों के सामने डींग हांक सकें. 
मैंने ऐसे सभी अलग-अलग तरह के लोगों को इस चित्र में एक साथ पिरोने की कोशिश की है. अपने जीवन में छलाँग लेने के लिये आतुर एक और निर्णय की ऐसी ही परिस्थिति से जूझ रहे अपने युवा दोस्तों को सचेत करने की इच्छा से आज मैं खुद को रोक नही पा रहा हूँ और उनके सामने यह चित्र पेश करते हुए उनको एक बार आगाह करने की ज़ुर्रत कर रहा हूँ. 
मेरी कामना है कि वे अपने सपनों को साकार करने के लिये हर मुमकिन खतरा बेधड़क उठायें. अन्जाम चाहे जो भी हो. कम से कम वर्तमान की घुटन से तो मुक्ति ही होगी. हर हाल में हर तरह से हर स्तर पर मैं अपनी समूची कूबत भर उनके साथ उनके पीछे चट्टान की तरह हर कदम पर ताज़िन्दगी डटा मिलूँगा. 

जो मुझको बेवकूफ़ समझते हैं, कितने क़ाबिल हैं!
मैं जानता हूँ कि क्यों करते हैं उलटी करनी।
कई तरह के हैं ये लोग मेरे चारों तरफ़,
कई तरह की हैं सीमाएँ इनके जे़हन की।

कोई तो दिल से चाहता है, मानता है मुझे,
मुझे बचाने को ख़तरे हज़ार सहता है।
पर अपनी ज़िन्दगी के बोझ से ख़ुद बोझिल है,
इसी के चलते है रफ़्तार उसकी धीमी तो,
तुम्हीं बताओ कि उसका कुसूर इसमें कहाँ?

अगर तुरन्त कोई काम नहीं हो पाया,
अगर हुआ भी तो फिर देर से या आधा ही,
अगर खिलौने के लिये मचल रहा बच्चा
इन्तेज़ार करते-करते ही हो गया बूढ़ा!
व’ कौन है कि जो सपनों का कत्ल करता है?

कोई चमचागिरी में जीता है,ज़ुबान शहद से भी मीठी है, 
शहद लपेट कर गोली चलाता रहता है।
मग़र करतूत उसकी, उसके दिल-सी काली है।
व’ भी इन्सान है या इन्सानियत प’ गाली है?

सीखते-सीखते बुढ़ा गया कोई फिर भी
किसी भी काम को अन्ज़ाम तक पहुँचा न सका।
पलट क’ वक़्त को गुज़ार लिया तब बोला,
‘‘फलाँ वज़ह से मैं ये काम नहीं कर पाया।’’

य’ बात एक बार, कई बार, सौ-सौ बार,
जो बोलता है, उसका दिमाग़ कैसा है!
उम्र के इस मुकाम प’ खड़े हैं हम दोनों,
हक़ीकत की समझ अभी भी है मुश्किल क्या?

किसी ने ज़िन्दगी में कभी भी ‘नो सर’ न कहा,
मग़र दोहरी ज़ुबान, दोहरा मग़ज़, दोहरी समझ,
बनी-बनाई आस्तीन में घुस कर डँसता,
व’ समझता ही नहीं है कि उसे भी समझ रहा हूँ मैं।

कोई चालाक है मक्कार लोमड़ी की तरह,
लगा-बझा क’ तरह-तरह से मज़ा लेता है।
चिढ़ा-चिढ़ा क’ कुढ़ाता रहा है मुझको जो,
वही तो है जो मेरे काम को, सेहत को तोड़ता आया।

कोई शरीफ़ है मेहनत ही करना जानता है,
किसी भी दन्द-फन्द में कभी नहीं फँसता,
मुकाम जो भी मिला टीम को पसीने से,
अग़र ईमान रहेगा, तो मिलेगा ही मुकाम। - गिरिजेश

Sunday 9 December 2012

WHAT A MAN HAS DONE, A MAN CAN DO!



प्रिय मित्र, आजमगढ़ में 9 दिसम्बर (रविवार) को तरुणों के सर्वांगीण विकास के लिये चल रहे शुल्कमुक्त सेवा-प्रकल्प 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की छठवीं मासिक गोष्ठी में परियोजना द्वारा आयोजित प्रथम मासिक प्रतियोगिता ‘अधिकतम दैनिक अध्ययन के घण्टे’ में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करके मानदण्ड स्थापित करने पर गवर्नमेण्ट गर्ल्स इण्टर कालेज, आज़मगढ़ की कक्षा 12 की छात्रा नीतू यादव को प्रथम पुरस्कार स्वरूप फादर कामिल बुल्के का ‘अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोष’ प्रदान किया गया।
नीतू यादव ने 12 नवम्बर से 8 दिसम्बर तक के कुल 27 दिनों के पूरे प्रतियोगिता-काल में से 20 दिनों तक 10 घण्टे से अधिक और 5 दिनों तक 15 घण्टों से अधिक समय तक अध्ययन किया. उनका अधिकतम अध्ययन-काल 15 घण्टे 55 मिनट का रहा. 


पुरस्कार जनपद के लब्ध-प्रतिष्ठ कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट 'एन.आई.एस.टी.' के डाइरेक्टर इंजीनियर अमित गुप्त के हाथों से प्रदान किया गया.


प्रिय मित्र, 

"ज़िद ने अगर हर बार ही इतिहास बनाया;
फिर से नया इतिहास बनाने की ही ज़िद है!"
आजमगढ़ जनपद के सभी विद्यालय पिछले चार दिनों से शीतावकाश के चलते बन्द हैं. इस समय मैं यहाँ 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' में ग्यारहवीं और बारहवीं के लगभग पच्चीस छात्रों और छात्राओं को प्रतिदिन प्रातः नौ बजे से सायं चार बजे तक सात घण्टे लगातार अंग्रेज़ी की यू.पी. बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करवा रहा हूँ. 
उनको मात्र पिछले तीन दिनों में हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद के सभी टेंस सिखा कर आज समाप्त कर दिया. कल से इण्टरमीडिएट की पोएट्री पढ़ाना चाहता हूँ.
शिक्षण-प्रशिक्षण की साधना के इस कठोर परिश्रम के बीच में दस-दस मिनट के दो टुकड़ों में उनको पैर सीधा करने भर को अवकाश मिल रहा है और लगभग दो बजे थोड़ा-सा गरम-गरम नाश्ता. सभी के सभी खूब खुश हैं. पूरी तल्लीनता से सीख रहे हैं. उन सबके बीच एक दूसरे से बढ़ कर पढ़ने की होड़ लगी है.
'चौबीस घण्टों में अध्ययन के अधिकतम घण्टों' का नीतू यादव का 'पन्द्रह घण्टे पचपन मिनट' का अब तक का रिकार्ड उसी के विद्यालय की ग्यारहवीं की एक दूसरी छात्रा प्रतीक्षा पाण्डेय ने आज तोड़ दिया. आज का प्रतीक्षा का अध्ययन का रिकार्ड था 'सत्रह घण्टे पच्चीस मिनटों' का. 
मैं इन सभी छात्रों और छात्राओं के व्यक्तित्वान्तरण की इस आवेगमयी परिघटना का साक्षी और सहभागी होकर अपने अब तक बच गये जीवन की इस रूप में सार्थकता की अनुभूति और मानसिक सन्तुष्टि से अतिशय आह्लादित हूँ.
इस सन्दर्भ में अपने सभी युवा मित्रों से मैं विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहता हूँ कि वे भी कुछ ऐसा करें कि वे, मैं और हम सब उनके शानदार कृतित्व से गौरवान्वित हो सकें.
"हमें पता है कि मुश्किल है रास्ता अपना;
हमारी ज़िद को तोड़ना भी तो आसान नहीं."

ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारे प्यार के साथ - आपका अपना गिरिजेश




समय-प्रबन्धन की वैज्ञानिक पद्धति - गिरिजेश

प्रिय मित्र, और अब अचानक प्रतीक्षा पाण्डेय के 'सत्रह घण्टे पच्चीस मिनट' के इस रिकार्ड को भी कल मेरे खूब समझाने और कड़ाई से मना करने के बावज़ूद चुपचाप मेरी बात सुन रहे दसवीं के जनार्दन यादव और बारहवीं के ऋषभ श्रीवास्तव नामक दो छात्रों ने तीन दिनों से बिजली न रहने पर भी लालटेन की रोशनी में 'इक्कीस घण्टे और पन्द्रह मिनट' तक पढ़ कर तोड़ दिया.

अपनी पढ़ाई के घण्टे बढ़ाने में समय-प्रबन्धन के मकसद से डेली डायरी बनाना छात्रों-छात्राओं की मदद करता है. इसमें भागीदार सभी छात्रों-छात्राओं को उनके दैनिक अध्ययन-काल का सटीक रिकार्ड प्रतिदिन बनाने का हम निर्देश देते हैं.

किसी भी व्यक्ति को एक दिन में केवल चौबीस घण्टे मिलते हैं. यह समय तीन खंडों में विभाजित किया जा सकता है – उत्पादन-काल, तैयारी का काल और मनोरंजन का काल. हम में से ज्यादातर लोग अपने जीवन के लक्ष्य के बारे में गंभीरता से विचार किये बिना अथवा अपने कार्य-दायित्व पर अच्छी तरह ध्यान दिये बिना अपने महत्वपूर्ण समय को निरर्थक कामों में ही बर्बाद करते रहते हैं.

समय-प्रबन्धन की इस पद्धति में जब भी कोई व्यक्ति व्यवस्थित तरीके से अध्ययन आरम्भ करता है, तो अपनी डेली डायरी में एक सेंटीमीटर चौड़े चार खाने और पाँचवां खूब चौड़ा खाना खींच कर पहले खाने में ‘दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.)’ लिख देता है, दूसरे खाने में ‘बजे से’, तीसरे में ‘बजे तक’ और चौथे में ‘घंटा-मिनट’ लिख कर अंतिम सबसे चौड़े खाने में ‘किये गये कार्य का विस्तृत विवरण’ लिखता है. 

अब वह पहले खाने में प्रतिदिन दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.) अंकित करके ‘बजे से’ नामक दूसरे खाने में पढ़ाई शुरू करने का सही-सही समय और ‘बजे तक’ वाले तीसरे खाने में पढ़ाई खत्म करके अपनी पढ़ाई की मेज छोड़ने का सही-सही समय तुरन्त-तुरन्त लिखता है. क्योंकि इन दोनों प्रविष्टियों को बाद में लिख लेने के आलस्य के चक्कर में सही समय दिमाग से उतर जाता है और अनुमान से लिखा गया समय गलत हो सकता है. चौथे ‘घंटा-मिनट’ वाले खाने में उस एक बार के बैठने में किये गये काम का अध्ययन-काल घंटा-मिनट में तीसरे खाने की प्रविष्टि में से दूसरे खाने की प्रविष्टि को घटा कर लिख देता है. और सबसे चौड़े खाने में पढ़े गये विषय और पाठ का नाम, किस प्रश्न से किस प्रश्न तक हल किया या पढ़ा गया या याद किया, उनका क्रमांक और हल किये गये कुल प्रश्नों की पूरी संख्या अच्छी तरह विस्तार में लिखी जाती है.

इस तरह दिन भर का रिकार्ड बना कर अन्त में पूरे अध्ययन-काल के योग को जोड़ने के बाद अगले दिन सभी छात्र-छात्राएँ अपनी डायरी अपने अभिभावक से हस्ताक्षर करवा कर मुझसे चेक करवाने और मेरे हस्ताक्षर के लिये मेरे सामने प्रस्तुत करते हैं और अपने उपस्थिति-रजिस्टर में P/A की जगह अपने पढ़ने का समय लिखते हैं.

इस प्रकार समय-प्रबंधन की प्रतिदिन की डायरी उनकी इच्छा-शक्ति को बढ़ा देती है और उनके तैयारी और मनोरंजन में लगने वाले समय को नियंत्रित कर के उनके उत्पादन-काल में भरपूर वृद्धि करती जाती है. इस पद्धति से प्रत्येक छात्र-छात्रा केवल दो या तीन घंटे के अध्ययन के साथ अपनी दैनिक डायरी बनाने की शुरुवात करता है और देखते-देखते धीरे-धीरे आसानी से दस या उससे अधिक घंटे तक जा पहुँचता है और अपने अध्ययन के उस स्तर को बनाये रखने के लिये और उसके रिकॉर्ड में पिछले दिन की तुलना में और भी अधिक वृद्धि करने की कोशिश करता चला जाता है.

अब वह अपने प्रदर्शन पर स्वयं तो गर्व महसूस करता ही है, अपने दोस्तों को भी इस प्रणाली का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है. उसके परिजन भी उसके व्यक्तित्वान्तरण से गौरवान्वित होकर उसे प्रोत्साहित करते हैं. समय की सटीकता के प्रति उनकी दृष्टि में सुधार के लिये हम उन के बीच सच्चाई के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की कोशिश करते हैं और उनमें से ज्यादातर गलत प्रविष्टियों से बचते हैं. मेरे बच्चे मुझसे झूठ नहीं बोलते, क्योंकि मैं भी उनसे झूठ नहीं बोलता. हम परस्पर एक दूसरे का विश्वास करते हैं.

मैं अपने सभी युवा मित्रों से समय-प्रबंधन की इस प्रणाली का अनुसरण करने के लिये और इसके ज़रिये उनकी अपनी मनोदशा में होने वाले सकरात्मक परिवर्तन को खुद ही महसूस करने का अनुरोध करता हूँ. यह चिंता, अवसाद और अलगाव की भावना की सबसे अच्छी दवा है, जो आज के अनिश्चय, आपाधापी और भागमभाग के पूँजीवादी दौर में व्यापक रूप से पूरी दुनिया में अधिक से अधिक युवाओं का बुरी तरह पीछा करते हुए उन्हें हर-हमेशा व्यथित और बीमार बना रही है.

इस सिलसिले में अपने सभी ‘अतिवादी’ अति उत्साही युवा मित्रों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि हर हालत में प्रतिदिन कम से कम छः घण्टे अवश्य सोयें. और सत्रह घंटों से अधिक किसी भी परिस्थिति में न पढ़ें. पूरी नींद दिमाग को ताजगी देगी और इससे कम सोने पर आपके स्वास्थ्य और स्वाध्याय दोनों पर बुरा असर पड़ेगा.

अब हम आजमगढ़ की टोली के युवाओं की पढ़ाई के घण्टे इससे अधिक बढ़ाने के बजाय प्रतिदिन पिछले वर्षों के बोर्ड के एक विषय के चारों सेट के परचे हल करने और उसके बाद उनके द्वारा लिखे गये उत्तरों को याद करके दो-दो की टोली में छात्रों-छात्राओं को तोड़ कर एक दूसरे से पूछने की योजना पर काम करने जा रहे हैं.



A SYSTEM FOR TIME MANAGEMENT - girijesh

the individualistic mentality and feeling of personal property and getting success by hook or crook is dominating in the society even now. 


the sense of collective working is yet to be developed among the masses of our people. of course it is our own task and we have been trying and failing again and again in most of our experiments to promote the sense of team-work of collective responsibility since decades. i myself am completely destroyed in this struggle, but have never surrendered, nor going to change my style of action both in the fields of creation and struggle. in this experiment of personality cultivation project the work here is in its very initial phase. 

the competition of this month was based on a system of daily diary maintenance. it is a system for time management. we provide the guidelines to the students to maintain exact record of his or her study period. 

any person has got only twenty four hours in a day. this time is divided in three parts - time of preparation, time of entertainment and time of production. most of us waste our time without taking care of our assignments or thinking seriously about the goal of our life. 

in this system when a person starts his or her study, he or she records the exact initial time in hours and minutes in one column and again records the time in the next column when he finishes one work. the total time period of the work done is maintained in a third column by subtracting the entry of the first column from that of the second column. and in one more large column the detailed description of the work done is written. at the end of the day they add the whole period of their study and bring their diaries to me to check and sign. 

thus daily recording of time of production boosts their will-power to increase their time of production by controlling the time of preparation and entertainment. in this way each and every student, who starts maintaining his diary with only two or three hours of study daily, slowly reaches easily up to ten hours or more and tries to maintain and increase his record even more than the previous day. 

now he feels proud of his performance and encourages his or her friends to follow the system. to improve the sense of accuracy we try to develop among them the sense of respect for the truth and most of them don't pen down false entries. 

i request all my young friends to follow this system of time management and feel the change in their own mentality. it is the best medicine of anxiety, depression and alienation, which is widely chasing the youth all over the world today.

Friday 7 December 2012

मक्कार और ग़द्दार - गिरिजेश


कफ़न खसोट कर लाशों को बेच देते हैं,
बडे़ ज़हीन हो चले हैं मेरे देश के लोग।
रहे महान तो अंग्रेज को भगा डाला,
पर अब महीन हो चले हैं मेरे देश के लोग।


किसे पड़ी है वतन पर सितम की जो सोचे, 
मज़े से ज़िन्दगी कटने की फ़िक्र क्या कम है?
विदेशी पूँजी रहे, लूट रहे, ऐश रहे,
वतन ग़ुलाम अगर होता है, तो क्या गम है?

जो बातें मुल्क-ओ-इंकलाब की, इन्सान की हैं,
हकूक-ओ-अम्न की, एखलाक-ओ-ईमान की हैं।
महज सुनते हैं, सुना करते हैं, सुन लेते हैं,
बड़े करीने से अपने को बचा लेते हैं।

क्या बेवकूफ हैं - टकरायें और मिट जायें?
ये ‘होशियार’ हैं, झुक जाते और जीते हैं,
इन्हें तमीज़ कहाँ, फर्क करे, देख सकें?
बुतों को दूध पिलाते हैं, लहू पीते हैं।

Tuesday 4 December 2012

संक्रमण - गिरिजेश


देखिए, बदल गया!
टकसाली सिक्के-सा पूँजी के साँचे में
पिघल कर फिसल गया।
काल के प्रवाह में अटल कहाँ? 
बदल गया! 
हाँ, समाज ढल गया।


भालू की तरह छमा-छम जो करती आयीं, 
लम्बे घूँघट वाली नारियाँ कहाँ गयीं?
तेली का कोल्हू, धुनिया की लम्बी धुनकी,
भाथी लोहार की क्यों अपना ही सिर धुनती?
टाटा बनाता है नमक से कुदाल तक,
बनिया तो बेच रहा सील-बन्द दाल तक!


कपड़ों के थान कबीरों के करघों से
अब क्यों नहीं उतरते हैं?
राम-नाम छोड़-छाड़ पण्डित जी क्यों आप
रात-ओ-दिन नोट गिना करते हैं?

तलवार-लाठी-तीर-चाकू कहाँ गये?
उनकी जगह गोली और गोले आ गये!

गली-गली घूम-घूम, गा-गा कर झूम-झूम
बच्चे बहलाते थे, बाइस्कोप लाते थे।
रोज शाम आते थे, वे कहाँ चले गये?
गलियों के बच्चे उन्हें भूलते चले गये!

चरर-मरर, चर-मर, चूँ-चूँ करती जाती थी,
बैलों की गाड़ी तो झुनझुना बजाती थी।
दूर-दूर तक कहीं नहीं दर्शन देती है,
इंजन की गरज, धुआँ, धूल प्राण लेती है।

उषा के धुँधलके से रात के अन्धेरे तक 
बाबू के खेतों पर जो खटते रहते थे,
मार-पीट सहते थे, कुछ भी नहीं कहते थे,
गाँवों से बाहर जो हलवाहे रहते थे,
वे भी तो आस-पास कहीं नहीं दिखते हैं,
जादू क्या हो गया कि अब घण्टे बिकते हैं?

गुस्से से पगला कर घोड़े पर हो सवार 
खेतों के बेटों को दौड़ा-दौड़ा कर के जो पीटा करता था,
वह मुच्छड़ जमींदार, कहो, कहाँ चला गया?
क्रूर काल के कराल गाल में समा गया!

पूत की करतूत देख माँ-बाप हारे हैं, 
सुबह-शाम बिकते हैं, गुरु जी बेचारे हैं।
झिल्ली चढ़ा कर के अपनी बेकारी का लाचार गुस्सा क्यों 
बीवी के मत्थे पतिदेव जी उतारे हैं? 

बुढ़ापे की पगड़ी जो पाली थी सहेज कर 
बेटी तो जला दी गयी कहीं दहेज पर।

दमकती दूकान में सामानों की बाढ़ है,
सुविधा और सम्पदा की मित्रता प्रगाढ़ है।
घर-घर में टी.वी. का आज राज छाया है, 
साइन्स पर सवार देवी ‘पूँजी’ की माया है।

पण्डित जी, खुली पोल आप के खुदा की भी,
फिर भी हठधर्मी क्यों आप बने रहते हैं ?

आप कैसे कहते हैं ?
‘‘कुछ भी नहीं बदला है, कुछ भी नहीं बदलेगा।
ढाँचा लुटेरा सदा-सर्वदा ही टहला है, 
धरती की छाती पर लूट-लूट टहलेगा।’’

राजा जी जहाँ गये, 
उसी कूड़ेदान में इतिहास फेंक आयेगा,
आपको भी, उनको भी

श्रम का उपहास-अट्टहास जो करते हैं, 
तनिक नहीं डरते हैं -
लौह भुज-दण्डों की तनी हुई मुट्ठी से,
चट्टानी छाती, इस्पाती इरादों से;
भोले-भाले जन को धोखा दे जाते हैं,
जो हरदम वादों से। 


श्रमिकों के प्रतिशोध का ज्वालामुखी तप्त होने दो, फूटेगा! 
जोंकों का राज आज है, सच है!
मगर कल भी था टूटा, आगे भी टूटेगा!...




Wednesday 28 November 2012

घुमक्कड़-शास्त्र - राहुल सांकृत्यायन

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की रचना घुमक्कड़-शास्त्र इस लिंक पर पढ़िए. "....संक्षेप में हम यह कह सकते हैं, कि यदि कोई तरुण-तरुणी घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है - यह मैं अवश्य कहूँगा, कि यह दीक्षा वही ले सकता है, जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है - तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, न माता के आँसू बहने की परवाह करनी चाहिए, न पिता के भय और उदास होने की, न भूल से विवाह लाई अपनी पत्‍नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिए और न किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की। बस शंकराचार्य के शब्‍दों में यही समझना चाहिए - ''निस्‍त्रैगुण्‍ये पथि विचरत: को विधि: को निषेधा:'' और मेरे गुरु कपोतराज के बचन को अपना पथप्रदर्शक बनाना चाहिए -
''सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?''
दुनिया में मनुष्‍य-जन्‍म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए। कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ो! संसार तुम्‍हारे स्वागत के लिए बेकरार है।...."
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1171&pageno=1

Monday 26 November 2012

'दास-व्यवस्था 3'

प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की व्याख्यान-माला का यह छठवाँ व्याख्यान है. इसमें आदिम कबीलाई व्यवस्था से दास व्यवस्था का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है.
दृष्टिकोण ही चिन्तन, अभिव्यक्ति तथा आचरण को आधार प्रदान करता है. जगत को समझने एवं समस्याओं के सफल समाधान में केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही विश्वसनीय तौर पर सहायक साबित हुआ है. व्यक्तित्वान्तरण का यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
http://www.youtube.com/watch?v=t-e7GrkKfjQ&feature=youtu.be

Sunday 18 November 2012

‘दास-व्यवस्था 2’




प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की व्याख्यान-माला का यह पाँचवां व्याख्यान है. इसमें ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ के अनुसार मानवता की विकास-यात्रा के दूसरे चरण ‘दास-व्यवस्था’ का विश्लेषण जारी है. दृष्टिकोण ही चिन्तन, अभिव्यक्ति तथा आचरण को आधार प्रदान करता है. जगत को समझने एवं समस्याओं के सफल समाधान में केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही विश्वसनीय तौर पर सहायक साबित हुआ है. व्यक्तित्वान्तरण का यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
http://www.youtube.com/watch?v=CyQDGH0L5RI

Friday 16 November 2012

सामाजिक स्वामित्व - गिरिजेश


सामाजिक स्वामित्व मनुजता का अगला सपना है;
अभी दम्भ के चलते सीमित लक्ष्य ‘स्वार्थ सधना’ है।

कठिन बहुत है नीच स्वार्थ की कालिख को धो पाना;

काम नहीं जो करना चाहें, उनसे कुछ करवाना।

कठिन बहुत है व्यक्तिवाद के चिन्तन से उठ पाना;
अलग-अलग बजती ढपली से एक राग बजवाना।

कठिन बहुत है जन के बल को एकत्रित कर लाना;
महाविराट शक्ति को जागृत पुंजीभूत बनाना ।

संकेन्द्रित जन-बल ही सारा जादू कर सकता है;
व्यक्तिवाद में निहित स्वार्थ के पंख कतर सकता है।

जब तक व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं होगा चिन्तन के भ्रम से;
नहीं गुलामी की बेड़ी को काटेगा निज श्रम से।

तब तक नारे बड़बोलेपन का आभास भरेंगे;
कोरे आदर्शों का तो सब ही उपहास करेंगे।

लाल लहू है गिरा ज़मीं पर, जब-जब छिड़ी लड़ाई;
बल था फिर भी हारा ज़ालिम, युग ने ली अँगड़ाई।

नहीं कहानी ख़त्म हो रही है डंकल के साथ;
पूँजी की देवी के सिर से भी उतरेगा ताज।

धरती फिर करवट बदलेगी, फिर इतिहास बढे़गा;
माटी का बेटा जल्दी ही हक के लिए लड़ेगा।

आगे बढ़ कर बलिदानों के जो आदर्श दिखाते;
जो समूह को साथ उड़ाते, चमत्कार कर जाते।

हार गये तो बुझी राख हैं, जीवित हैं अंगारे;
अपने को दहकाने वाले ही रोशनी पसारें।

दूर क्षितिज पर देख रहा हूँ मैं कुछ लाल सितारे;
पंखों को फैलाओ, यारो, फिर तूफान पुकारे।

आगे आओ, साथ निभाओ, दिल है तो धड़केगा;
जोश अगर है नस-नस में, रेशा-रेशा फड़केगा।

अँखुआयी कोंपल के कोमल पत्तों जैसे लाल;
नन्हे हाथ सदा ही काटे हैं शोषण के जाल ।

धरती के गोले पर फिर लहरेगा लाल निशान;
गीत क्रान्ति के गायेंगे मिल कर मजदूर-किसान।

Wednesday 14 November 2012

‘दास-व्यवस्था 1’

प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की व्याख्यान-माला का यह चौथा व्याख्यान है. इसमें ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ के अनुसार मानवता की विकास-यात्रा के दूसरे चरण ‘दास-व्यवस्था’ का विश्लेषण आरम्भ किया गया है. दृष्टिकोण ही चिन्तन, अभिव्यक्ति तथा आचरण को आधार प्रदान करता है. जगत को समझने एवं समस्याओं के सफल समाधान में केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही विश्वसनीय तौर पर सहायक साबित हुआ है. व्यक्तित्वान्तरण का यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बारे में नेहरू के विचार




"पुलिस और भीड़ों के बीच कभी-कभार ही छोटे-मोटे झगड़े होते थे. लाहौर ने मामलों को शीर्ष पर ला दिया और अचानक देश भर में रोषपूर्ण उत्तेजना की लहर फैला दिया. वहाँ लाला लाजपत राय साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे और जब वह हजारों प्रदर्शनकारियों के सम्मुख सड़क की पटरी पर खड़े थे, तो एक युवा अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी द्वारा उन पर हमला किया गया और एक डंडे से उनकी छाती पर मारा गया. हिंसा के किसी भी तरीके में संलग्न होने की कोई भी चेष्टा भीड़ की ओर से नहीं की गयी, लाला जी की तो बात ही दूर है. यहाँ तक कि ऐसी हालत में भी जब वे शांतिपूर्वक खड़े रहे, तो उनको तथा उनके साथियों में से अनेक को पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटा गया. जो कोई भी सड़क के प्रदर्शनों में भाग लेता है, वह पुलिस के साथ टकराव का खतरा उठाता है, और यद्यपि हमारे प्रदर्शन लगभग हमेश ही पूरी तरह से शान्तिपूर्ण थे, लाला जी अवश्य ही इस खतरे को जानते रहे होंगे और उन्होंने इसे सचेत तौर पर उठाया होगा. परन्तु तो भी प्रहार का तरीका, उसकी अनावश्यक बर्बरता भारत में भारी संख्या में लोगों के लिये सदमे के रूप में आयी. ये वे दिन थे, जब हम पुलिस द्वारा लाठी-चार्ज के अभ्यस्त नहीं हुए थे; हमारी सम्वेदना बर्बरता की पुनरावृत्ति द्वारा भोथरी नहीं हो पायी थी. यह देखना कि हमारे नेताओं में से महानतम, पंजाब में अग्रतम तथा सर्वाधिक लोकप्रिय  व्यक्ति के साथ भी ऐसा बर्ताव किया जा सकता था, कुछ-कुछ विकराल जैसा था, और एक और धूमिल क्रोध सम्पूर्ण देश में, विशेष तौर पर उत्तर भारत में फ़ैल गया. जब हम अपने चुनिन्दा नेताओं के भी सम्मान की सुरक्षा नहीं कर सके, तो हम कितने असहाय और कितने तिरस्करणीय थे!

लाला जी के लिये शारीरिक चोट पर्याप्त गम्भीर हो चुकी थी, क्योंकि उन्हें छाती पर मारा गया था और वे लम्बे समय से हृदय रोग से पीड़ित थे. सम्भवतः किसी स्वस्थ नौजवान के मामले में यह चोट गहरी नहीं होती, परन्तु लाला जी न तो नौजवान थे और न ही स्वस्थ. यह निशित रूप से कहना मुश्किल से ही सम्भव है कि कुछ सप्ताहों बाद उनकी मृत्यु पर इस शारीरिक चोट का क्या असर हुआ; हालाँकि उनके चिकित्सकों का मत था कि उस चोट ने उनके अन्त को और करीब ला दिया. परन्तु मैं सोचता हूँ कि इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि शारीरिक चोट के साथ जुड़ गये मानसिक सदमे ने लाला जी पर भयंकर असर डाला. अपने ऊपर हुए प्रहार में निहित व्यक्तिगत अपमान से उतना अधिक नहीं जितना अधिक राष्ट्रीय अपमान से उन्हें क्रोध व कटुता की अनुभूति हुई.

राष्ट्रीय अपमान की यही भावना भारत के मन पर भार बनी हुई थी और जब उसके बाद शीघ्र ही लाला जी की मौत हो गयी, जो कि उस प्रहार से अवश्यम्भावी तौर पर जुड़ी हुई थी, तो वेदना ने स्वयमेव गौरव का स्थान क्रोध तथा रोष को दे दिया. यह उल्लेख उचित है, क्योंकि केवल तभी हम तदनन्तर घटित घटनाओं, भगत सिंह की परिघटना तथा उत्तरी भारत में उनकी अकस्मात तथा विस्मयकारिणी लोकप्रियता के बारे में कुछ समझ बना सकते हैं. किसी भी कृत्य के स्रोत, उसके पीछे निहित कारणों को समझने का प्रयास किये बिना व्यक्तियों तथा कृत्यों की भर्त्सना करना बहुत ही आसान तथा ऊटपटांग है. भगतसिंह पहले विख्यात नहीं थे और न ही वे हिंसा की कार्यवाही, आतंकवाद की कार्यवाही के चलते ही लोकप्रिय हुए. लगभग तीस वर्षों में भारत में बार-बार आतंकवादी पनपते रहे हैं और बंगाल में आरम्भिक दिनों के अलावा उनमें से किसी को भी कभी भी उस लोकप्रियता का टुकड़ा भी नहीं हासिल हो पाया, जो भगतसिंह को मिली. यह एक खुला तथ्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता; इसे स्वीकारना ही पड़ा है. और उतना ही स्पष्ट तथ्य एक और है कि अपने इक्का-दुक्का प्रसार के बावजूद भारत के नौजवानों के लिये आतंकवाद में अब कोई असली आकर्षण नहीं बचा है. अहिंसा पर पन्द्रह वर्षों के जोर ने भारत की समूची पृष्ठभूमि को बदल दिया है और जनसमुदाय को राजनीतिक कार्यवाही की पद्धति के तौर पर आतंकवाद के विचार के प्रति अन्यमनस्क यहाँ तक कि विरोधी भी बना दिया है. यहाँ तक कि वे वर्ग, जिनमें से आमतौर पर आतंकवादी पैदा होते हैं - निम्न-मध्यम वर्ग तथा बुद्धिजीवी कांग्रेस के हिंसक तरीकों के विरुद्ध प्रचार से सशक्त रूप से प्रभावित हुए हैं. उनके सक्रिय और अधीर तत्व भी, जो क्रांतिकारी कार्यवाही की पदावली में सोचते हैं, अब पूरी तरह से महसूस करते हैं कि आतंकवाद के ज़रिये क्रान्ति नहीं आती, और कि आतंकवाद एक पिछड़ा हुआ और लाभरहित तरीका है, जो असली क्रन्तिकारी कार्यवाही के रास्ते में बाधा बनता है. भारत तथा दूसरी जगहों पर आतंकवाद एक मर रही वस्तु है, सरकारी बल-प्रयोग के चलते नहीं, जो केवल दमन कर सकता है और जकड़ सकता है, उन्मूलन नहीं कर सकता, अपितु अपने कारणों तथा विश्व-घटनाक्रम के चलते. आमतौर से आतंकवाद किसी देश में क्रांतिकारी ललक की शैशवावस्था का प्रतिनिधित्व करता है. 

वह अवस्था गुजरती है और उसी के साथ एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में आतंकवाद गुजर जाता है. आकस्मिक विस्फोट धीरे-धीरे बुझ जायेंगे. परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारत में सभी लोग बहुत बड़े स्तर पर व्यक्तिगत हिंसा तथा आतंकवाद में आस्था रखना बन्द कर चुके हैं, वरन निस्संदेह अनेक अभी भी सोचते हैं कि एक समय आ सकता है, जब स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये संगठित हिंसक तरीकों की आवश्यकता पड़ सकती है, जैसा कि दूसरे देशों में अक्सर उनकी आवश्यकता पड़ती रही है. वह आज एक बहस का मुद्दा है, जिसकी परीक्षा केवल समय ले सकता है; उसका आतंकवादी तरीकों से कुछ भी लेना-देना नहीं है. 

इस तरह भगत सिंह अपने आतंकवादी कारनामे के चलते लोकप्रिय नहीं हुए. अपितु इसलिये हुए कि वह उस क्षण लाला लाजपत राय के सम्मान की और उनके ज़रिये राष्ट्र की प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए प्रतीत हुए. वह एक प्रतीक बन गये; कारनामा भुला दिया गया; प्रतीक बचा रह गया, और कुछ ही महीनों के अन्दर पंजाब का प्रत्येक नगर और गाँव और थोड़ी-सी ही कम मात्रा में शेष समूचा उत्तरी भारत उनके नाम से गूँज उठा. उनके बारे में अगणित गीत उभर आये और जो लोकप्रियता इस व्यक्ति को प्राप्त हुई, वह आश्चर्यचकित कर देने वाली चीज़ थी....

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है संसद ऊँघने का मामला बन चली थी और कुछ ही लोग उसकी नीरस कार्यवाही में दिलचस्पी लेते थे. एक दिन एक अशिष्ट जागृति उसमें तब आयी, जब भगत सिंह और बी. के. दत्त ने दर्शक-दीर्घा से सदन के फर्श पर दो बम फेंके. कोई भी गम्भीरता से घायल नहीं हुआ और शायद बमों को धमाका और खलबली पैदा करने की ही मंशा से बनाया गया था, न कि घायल करने के लिये, जैसा कि अभियुक्तों ने बाद में वक्तव्य भी दिया. उन्होंने संसद के अन्दर और बाहर दोनों जगहों पर खलबली मचा दी. आतंकवादियों की अन्य कार्यवाहियाँ उतनी अहानिकर नहीं थीं. एक युवा अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी, जिस पर लाला लाजपत राय पर प्रहार करने का आरोप था, लाहौर में गोलियों से उड़ा दिया गया. बंगाल और दूसरी जगहों में आतंकवादी गतिविधि पुनः फैलती प्रतीत हुई. अनेक षड्यंत्रों के मुक़दमे शुरू किये गये और नज़रबन्द लोगों – ऐसे लोग जिन्हें बिना अपराध-स्वीकृति के या बिना मुकदमा के ही जेल में या दूसरी तरह से कैद कर लिया जाता है – की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई.

लाहौर षड्यन्त्र मुक़दमे में अदालत में पुलिस द्वारा कुछ असाधारण दृश्यों का अभिनय किया गया और इसके चलते जनता का ध्यान बड़े पैमाने पर मुकदमे की ओर खिंच गया. अदालत में और जेल में अपने साथियों के साथ किये गये दुर्व्यवहार के विरुद्ध प्रतिवाद स्वरूप अधिकतर बन्दियों की ओर से भूख-हड़ताल की गयी. मुझे भूल गया है कि ठीक-ठीक किस कारण से वह शुरू हुई, परन्तु अन्ततः कैदियों के साथ – विशेषकर राजनीतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार ही उसमें निहित मुख्य प्रश्न बन गया. यह भूख-हड़ताल एक हफ्ते से दूसरे हफ्ते तक चलती रही और सारे देश में इसने एक हलचल पैदा कर दिया. अभियुक्तों की शारीरिक कमजोरी के कारण वे अदालत तक नहीं लाये जा सकते थे और अदालत की कार्यवाही को बार-बार स्थगित करना पड़ा. इस पर भारत सरकार ने अदालत को अभियुक्तों या उनके वकील की अनुपस्थिति में भी अपनी कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने के लिये क़ानून शुरू किया. उन्हीं के द्वारा जेल के व्यवहार के प्रश्न पर भी विचार किया जाना था. मैं लाहौर में ही था, जब भूख-हड़ताल एक महीने की हो चुकी थी. मुझे जेल में कुछ बन्दियों से मुलाकात की अनुमति दी गयी और मैं मिलने गया. मैंने पहली बार भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ दास तथा कुछ दूसरे लोगों को देखा. वे सभी के सभी कमजोर थे और बिस्तर पकड़ चुके थे और उनसे अधिक बात करना मुश्किल से ही सम्भव था. भगत सिंह का चेहरा आकर्षक और बुद्धिजीवियों जैसा था - खूब शान्त. उसमें कोई क्रोध प्रतीत नहीं हुआ. उन्होंने अतीव सज्जनतापूर्वक निहारा तथा बातें की. परन्तु तब मैंने माना कि जो भी एक महीने तक अनशन करता रहा है, वह अध्यात्मिक और सज्जन तो दिखेगा ही. यतीन्द्र दास और भी कोमल किसी युवती की तरह कोमल और भले दिखे. जब मैंने उन्हें देखा तो वे भयानक दर्द झेल रहे थे. बाद में भूख-हड़ताल के परिणाम-स्वरूप वह भूख-हड़ताल के इकसठवें दिन मर गये.

भगतसिंह की मुख्य इच्छा अपने चाचा सरदार अजीत सिंह को देखना या कम से कम उनका समाचार जान लेना प्रतीत हुई, जिनको 1907 में लाला लाजपत राय के साथ देश-निकाला दिया गया था. अनेक वर्षों तक वह विदेशों में निर्वासित रहे थे. कुछ अनिश्चित रिपोर्टें थीं कि वह दक्षिणी अमेरिका में बस गये थे, मगर मैं नहीं सोचता कि उनके बारे में कोई निश्चित जानकारी है. मैं यह भी नहीं जानता कि वह जीवित हैं या मर गये. यतीन्द्र दास की मृत्यु ने देश भर में सनसनी फैला दी. इसने राजनीतिक बन्दियों के साथ व्यवहार के प्रश्न को सामने ला दिया, और सरकार ने इस विषय पर एक समिति नियुक्त कर दिया. इस समिति के विमर्शों के परिणामस्वरूप बंदियों की तीन श्रेणियाँ बनाने वाले नये नियम जारी किये गये. राजनीतिक बन्दियों की कोई विशेष श्रेणी नहीं बनाई गयी. ये नये नियम, जो बेहतरी के बदलाव का आश्वासन देते हुए प्रतीत हुए, दरअसल बहुत कम अन्तर बना पाये और परिस्थिति अतीव असंतोषजनक रही और अभी भी वैसी ही बनी हुई है....

समझौते से पहले और उसके बाद लार्ड इरविन से वार्ताओं के दौरान गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बन्दियों के अतिरिक्त अन्य राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति के लिये चिरौरी की थी. सविनय अवज्ञा वाले स्वयं समझौते के हिस्से के तौर पर छूटने वाले थे. परन्तु हज़ारों दूसरे मुकदमे के दौरान के बन्दी और बिना किसी आरोप में या दोष सिद्ध किये बिना बन्द किये गये नज़रबन्द लोग थे. इन नज़रबन्द लोगों में से अनेकों को उसी तरह वर्षों तक कैद रखा जाता था और सदैव ही सारे भारत में विशेष कर बंगाल में बिना मुकदमे के इस तरह बन्द रखने के तरीके पर बहुत असंतोष व्याप्त रहता था जो इससे सर्वाधिक प्रभावित था. पेंगुइन द्वीप के प्रधान शासक की तरह (अथवा क्या जैसा ड्रेइफस मुकदमे में था?) भारत-सरकार की मान्यता थी कि कोई सबूत न होना ही सबसे अच्छा सबूत है. सबूत न होने पर उनको गलत साबित नहीं किया जा सकता. नज़रबन्द लोगों पर सरकार का आरोप था कि वे वस्तुतः या सम्भवतः हिंसक प्रकार के क्रांतिकारी थे. गाँधी जी ने उनकी मुक्ति के लिये चिरौरी समझौते के शर्त के रूप में अनिवार्य रूप से नहीं की थी, अपितु राजनीतिक तनाव कम करने तथा बंगाल में अधिक सामान्य माहौल स्थापित करने के क्रम में बहुत ही अधिक चाहा जाने लायक होने के कारण की थी. मगर सरकार इससे सहमत होने लायक थी ही नहीं. न ही सरकार ने भगत सिंह की फाँसी की सज़ा रद्द करने के लिये गाँधी जी की कड़ी चिरौरी को ही माना. इसका भी समझौते से कुछ लेना-देना नहीं था और गाँधी जी ने इसके लिये अलग से भी दबाव बनाया था क्योंकि इस विषय पर देश भर में बहुत ज़बरदस्त भावना थी. उनकी चिरौरी बेकार गयी.

कराची भारत के सुदूर पश्चिमोत्तर में देश के शेष हिस्सों से रेगिस्तानी क्षेत्रों द्वारा अंशतः कटा हुआ स्थित है और वहाँ पहुँचना भी कठिन है. परन्तु उसने दूरस्थ भागों से एक विशाल जमावड़े को आकृष्ट किया और उस क्षण की देश की तपिश का वस्तुतः प्रतिनिधित्व किया. भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन की बढ़ती हुई शक्ति को लेकर एक शान्त, परन्तु गहन सन्तोष की अनुभूति कांग्रेस संगठन में व्याप्त थी, जिसने तब तक के आह्वानों का कुशलतापूर्वक प्रत्युत्तर दिया था और अपने अनुशासित बलिदान से हमारे जन-गण में आत्मविश्वास तथा संयमित उत्साह से स्वयं को पूरी तरह से न्यायोचित सिद्ध किया था. उसी के साथ ही आने वाले संकटों तथा भारी समस्याओं के प्रति ज़िम्मेदारी का गहरा भाव था; हमारे शब्द एवं प्रस्ताव अब राष्ट्रीय पैमाने पर कार्यवाही की पूर्व-घोषणा थे और उन्हें हल्के ढंग से न तो बड़बड़ाया जा सकता था और न ही पारित किया जा सकता था. दिल्ली समझौता भले ही भारी बहुमत द्वारा स्वीकार लिया गया था, तो भी वह लोकप्रिय नहीं हुआ था और न उसे पसन्द ही किया गया था, तथा यह भय था कि वह हमें हर तरह की समझौताकारिणी परिस्थितियों तक पहुँचा सकता था. किसी न किसी तरह से यह देश के सम्मुख उपस्थित मुद्दों की स्पष्टता से ध्यान बँटाता प्रतीत होता था. कांग्रेस की ठीक पूर्व-संध्या पर ही रोष का एक नया तत्व रेंगता हुआ आ चुका था – भगत सिंह की फाँसी. यह भावना उत्तर भारत में विशेष तौर पर चिह्नित की गयी थी और उत्तर में स्थित होने के चलते कराची ने पंजाब से भारी संख्या में लोगों को आकृष्ट किया था. 

किसी भी अन्य पिछली कांग्रेस की तुलना में कराची कांग्रेस गाँधी जी के लिये और भी बड़ी व्यक्तिगत सफलता थी. अध्यक्ष, सरदार वल्लभ भाई पटेल गुजरात में विजेता नेतृत्व के सम्मान वाले तथा भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सशक्त व्यक्तियों में से एक थे, परन्तु यह महात्मा ही थे, जो दृश्य-पटल पर छाये थे. अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में सीमान्त प्रांत की सशक्त ‘लालकुर्ती’ टोली भी कांग्रेस में थी. ये लालकुर्ती वाले जहाँ भी जाते थे, लोकप्रियता तथा वाहवाही जीत लेते थे, क्योंकि अप्रैल 1930 के बाद से ही जबर्दस्त उकसावे के मुकाबले में उनके असाधारण तथा शान्तिपूर्ण साहस के द्वारा भारत प्रभावित हो चुका था. ‘लालकुर्ती’ नाम कई लोगों को बिल्कुल गलत तौर पर यह सोचने तक पहुँचा देता था कि वे कम्युनिस्ट हैं या वामपंथी मज़दूरवादी हैं. दरअसल उनका नाम ‘खुदाई-खिदमतगार’ था और इस संगठन का कांग्रेस से गठजोड़ था (बाद में 1931 में वे कांग्रेस संगठन के घटक हिस्से बन गये). वे अपनी कबायली पोशाक के कारण ही लालकुर्ती कहे जाते थे, जो कि लाल थी. उनके कार्यक्रम में ऐसी कोई आर्थिक नीति नहीं थी, जो राष्ट्रीय भी हो और सामाजिक सुधार भी कर सके.

कराची में प्रमुख प्रस्ताव दिल्ली समझौते और गोलमेज कान्फ्रेंस से जुड़ा था. निश्चय ही मैंने उसे स्वीकारा, क्योंकि वह कार्यकारिणी में से उभरा था, परन्तु जब मुझे गाँधी जी द्वारा उसे खुली कांग्रेस में पेश करने के लिये कहा गया, मैं हिचकिचा गया. वह मेरे स्वभाव के खिलाफ गया और मैंने पहले तो इन्कार कर दिया और तब वह ली जाने के लिये एक कमजोर और असंतोषजनक अवस्थिति प्रतीत हुई. या तो मैं उसके पक्ष में था या उसके विरुद्ध था और टाल-मटोल करना या लोगों को उस मामले में अनुमान लगाते हुए छोड़ना उचित नहीं था. लगभग आखिरी क्षण में, खुली कांग्रेस में प्रस्ताव ले जाने के कुछ ही मिनटों पूर्व, मैंने विराट जमावड़े के सम्मुख खुलेआम अपनी भावनाओं को खोल देने का और क्यों मैंने उस प्रस्ताव को पूरे दिल से स्वीकारा था और उनसे भी स्वीकारने की अपील की थी - का निर्णय किया. उस पल की प्रेरणा पर रचे गये और सीधे दिल से आने वाले उस वक्तव्य में अलंकार तथा सुन्दर वाक्यविन्यास कम ही थे और सम्भवतः वह अनेक अन्य प्रयासों की अपेक्षा अधिक सफल था, जिनके पीछे अपेक्षाकृत अधिक सतर्कतापूर्वक तैयारी की गयी थी.

मैं दूसरे प्रस्तावों पर भी बोला, खासकर भगत सिंह प्रस्ताव तथा मूलभूत अधिकारों तथा आर्थिक नीति सम्बन्धी प्रस्ताव पर. बाद वाले प्रस्ताव ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया, एक तो अपनी अन्तर्वस्तु के चलते तथा दूसरे और भी अधिक क्योंकि वह कांग्रेस में एक नये दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता था. तब तक कांग्रेस ने शुद्ध रूप से राष्ट्रवादी कार्यदिशाओं के इर्द-गिर्द सोचा था, और आर्थिक मुद्दों का सामना करने से बचती रही थी, सिवाय उसके कि उसने तब तक कुटीर उद्योगों और आम तौर से स्वदेशी को प्रोत्साहित किया था. कराची प्रस्ताव में उसने मुख्य उद्योगों तथा सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की वकालत तथा दूसरे विभिन्न क़दमों द्वारा गरीबों पर बोझ घटाने और अमीरों पर उसे बढ़ाने के माध्यम से समाजवादी दिशा में एक कदम, एक छोटा-सा कदम बढ़ाया था. वह बिलकुल ही समाजवाद नहीं था, और कोई भी पूँजीवादी राजसत्ता उस प्रस्ताव में निहित लगभग प्रत्येक चीज़ को आसानी से स्वीकार सकती थी.

इस बहुत ही हल्के और फीके प्रस्ताव ने भी स्पष्ट रूप से भारत सरकार के बड़े लोगों को कुपित होकर सोचने तक पहुँचा दिया. सम्भवतः उन्होंने अपनी सामान्य कुशाग्रता द्वारा यहाँ तक चित्रांकन कर डाला कि कराची में बोल्शेविकों का लाल सोना चोरी-चोरी घुस आया है और कांग्रेस के नेताओं को भ्रष्ट बना रहा है. बाहरी संसार से कट कर एक तरह के राजनीतिक हरम में रहते हुए और गोपनीयता के माहौल से घिरे हुए उनके दिमाग रहस्य और कल्पना की कहानियाँ सुनना पसन्द करते हैं और फिर ये कहानियाँ थोड़ा-थोड़ा करके रहस्यात्मक तरीके से उनके पसन्दीदा अखबारों द्वारा पेश की जाती हैं और यह संकेत कर दिया जाता है कि यदि केवल पर्दा उठा दिया जाये, तो बहुत कुछ देखा जा सकता है. कहानी कही जाती है कि किसी कम्युनिस्ट जुड़ाव वाले रहस्यमय व्यक्ति ने इस प्रस्ताव को या इसके भारी हिस्से को लिखा और कराची में इसे मेरे ऊपर थोप दिया, ताकि उसके ज़रिये मैं मिस्टर गाँधी को चुनौती दे पाया कि या तो इसे स्वीकार करें या दिल्ली समझौते पर मेरे विरोध का मुकाबला करें और मिस्टर गाँधी ने इसे निगल लिया और थकी हुई कांग्रेस कमेटी के सामने आख़िरी दिन ला पटका, यह मेरे लिये मिस्टर गाँधी का एक घूस है....”
(जवाहर लाल नेहरू, आत्मकथा, एलाइव प्रकाशन, 1962, पृष्ठ 1/ 4-76, 192-94, 260-61, 265-67 से ली गयी यह सामग्री bhagat singh - patriot and martyr - s.r. bakhshi, anmol publications, new delhi - 1990 में प्रदत्त सन्दर्भ खण्ड से मेरे द्वारा अनूदित ‘गाँधी-इरविन-भगत सिंह’ में मुद्रित रूप में मेरे पास उपलब्ध है.http://www.biblio.com/9788170412588)  


Monday 12 November 2012

इक्कीसवीं शताब्दी का भारत : समस्याएँ और समाधान - डॉ. मयंक त्रिपाठी



प्रत्येक व्यक्ति अपने अतीत की त्रुटियों से शिक्षा ग्रहण करके वर्तमान को बेहतर बनाने के प्रयास करता है और उन्हीं प्रयासों के आधार पर उज्जवल भविष्य की रचना का स्वप्न देखता है। इस तथ्य पर यदि किसी राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करें, तो व्यक्तियों का समूह होने के कारण उस पर भी यह बात अक्षरशः लागू होती है। भारत गौरवशाली परम्पराओं का देश है, जिसने वर्षों से विदेशी आततायियों के आक्रमणों को झेलने के बाद यदि अपने अस्तित्व को कायम रखा है, तो निःसन्देह इसकी सभ्यता और संस्कृति सराहनीय है। लगभग दो सौ वर्षों की लम्बी और नारकीय ब्रिटिश गुलामी झेलने के बाद और लाखों बलिदानियों का रक्त-स्नान करने के बाद भारत अपनी खोयी हुई सम्प्रभुता को पुनः प्राप्त करने में सफल रहा। किन्तु ज्वलन्त प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी खोई हुई सम्प्रभुता और अखण्डता को कायम रख सकेगा? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिये हमें अपनी वर्तमान दशा और दिशा पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा। 

भारत लगभग एक अरब आबादी वाला राष्ट्र है। जिसकी 40 प्रतिशत से भी अधिक जनता गरीबी-रेखा के नीचे जीवन यापन करती है अर्थात अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्णतः अक्षम है। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के बाद से ही उत्पादन के साधनों पर मुट्ठी भर थैलीशाहों के कब्जे की व्यवस्था लागू की गयी। आज भी 80 प्रतिशत भूमि पर 20 प्रतिशत भूस्वामी काबिज़ है और 80 प्रतिशत किसान 20 प्रतिशत भूमि जोत रहे हैं। इस आर्थिक असमानता को बदस्तूर बनाये रखते हुए सभी सरकारों ने लोकतन्त्र के नाम पर चुनाव का धोखा-धड़ी पर टिका घिनौना खेल खेला, जिसका शिकार भारत का गरीब तबका हुआ। 

आज जब हम इक्कीसवीं शताब्दी से मात्र 13 महीनों की दूरी पर खड़े हैं, भारत की दुर्दशा के लिये यदि कोई सर्वाधिक दोषी है, तो वह है यहाँ की राजनीति। हमारा लोकतन्त्र वस्तुतः धनतन्त्र है और नीति केवल वोट की राजनीति बन चुकी है। नेता जी के दर्शन केवल चुनाव के मौसम में ही होते हैं। इधर चुनाव समाप्त, उधर नेता जी दीन-दुनिया से बेखबर अपनी धन-पिपासा मिटाने और अपनी अगली कई पीढ़ियों के लिये सम्पत्ति संचित करने के एक-सूत्री कार्यक्रम के क्रियान्वयन में लीन हो जाते हैं। आज तक सभी सरकारों ने देश को भरपूर लूटा और देश की जनता की खून-पसीने की कमाई राजनेताओं के स्विस बैंकों के गुप्त खातों में जमा होती रही। भारत अन्दर से खोखला होता रहा और बाहर से ऐसी चमक-दमक प्रदर्शित की गयी कि आम आदमी चकाचैंध हो गया। क्या कारण है कि इतने विशाल प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार के बावजूद और साथ ही साथ तमाम देशी-विदेशी कर्ज़ों और अनुदानों के बाद भी भारत विकसित नहीं हो सका? क्या इसका एक मात्र कारण बढ़ती जनसंख्या है? नहीं, कत्तई नहीं। क्योंकि देश की सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा असमान वितरण के कारण चन्द औद्योगिक घरानों के शिकन्जों में कैद है। यदि सम्पत्ति का समान वितरण किया जाय, तो देश में प्रति व्यक्ति आय कई गुना बढ़ सकती है। हमारी पंचवर्षीय योजनाएँ पाँच तो क्या दस वर्षों में भी पूरी नहीं होती। हाँ, कागज़ी खानापूर्ति ज़रूर कर दी जाती है। इन सब की दोषी यहाँ की भ्रष्ट नौकरशाही है। 

दुनिया 1990 में प्रारम्भ हुई आर्थिक मन्दी की चपेट में है। दक्षिण कोरिया और इण्डोनेशिया इसके ताज़ा-तरीन शिकार हैं। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की त्रुटिपूर्ण आर्थिक नीतियों का ही कमाल है, जो भारत पर विकसित पूँजीवादी राष्ट्रों का शिकंजा कसता जा रहा है और यहाँ की अर्थ-व्यवस्था तेजी़ से ऋण-जाल में फँसती जा रही है। भारत प्रति वर्ष जितना कर्ज़ लेता है, उससे कहीं ज़्यादा पुराने कर्ज़ों का ब्याज चुकता करता है। परिणाम सामने है। आज देश पर 1 लाख 61 हजार 427 करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज़ तथा 7 लाख 18 हजार 299 करोड़ रुपये का घरेलू कर्ज़ है और विदेशी कर्ज़ पर ब्याज 4150 करोड़ रुपये तथा घरेलू कर्ज़ पर ब्याज 61550 करोड़ रुपये का अदा किया जा रहा है। यह बयान 1 दिसम्बर 98 को राज्य सभा में वित्तमन्त्री यशवन्त सिनहा ने दिया। 

सत्तर के दशक में विकसित राष्ट्रों की ओर पूँजी का जो बहाव 5 बिलियन डालर प्रति वर्ष था, वह वर्तमान समय में 36 गुना बढ़ कर 175 बिलियन डालर प्रति वर्ष हो गया। भारत की उदारीकरण नीति तेजी से भारत को आर्थिक गुलामी की ओर ढकेल रही है। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण वास्तव में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की ज़बरदस्त साजिश है, जिससे वह विश्व को नयी बेड़ियों में बाँध लेना चाहता है। एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की जगह अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और शेयर-मार्केट द्वारा त्वरित विदेशी मुद्रा के हमले के लिये देश के दरवाजे़ खोल दिये हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा-कोष तथा विश्व-बैंक के अधिकारियों के लिये बन रही कोठियाँ एक दिन रेजीडेन्सी का काम करेंगी। नयी आर्थिक नीतियों में निजीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त खतरनाक है, किन्तु वैश्वीकरण इससे कहीं ज़्यादा खतरनाक है। क्योंकि प्रत्येक विदेशी कम्पनी कम से कम 10.15 देशी कम्पनियों का भक्षण अवश्य करेगी, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारम्भिक दिनों में हुआ था। वास्तव में पूँजी का बढ़ता कसाव और केन्द्रीकरण ही गरीबी का सबसे बड़ा कारण है। अपनी इन्हीं आर्थिक नीतियों का कुपरिणाम दक्षिण कोरिया और इण्डोनेशिया जैसे देश भुगत रहे है। निःसन्देह अब बारी भारत की है।                                      

प्रतिद्वन्द्वी सोवियत-संघ के खण्डित हो जाने के कारण अमेरिका एक ध्रुवीय विश्व बनाने के चक्कर में है। उसे रंच-मात्र विरोध भी असह्य है और किसी प्रकार का विरोध निकट भविष्य में पुंजीभूत होता नहीं दिखता है। यूरोपीय देश ‘यूरो’ मुद्रा चलाने के चक्कर में हैं। अभी तक विश्व पूँजीवाद की उत्पादन-पद्धति को आर्थिक मन्दी से मुक्ति दो बार हुए विश्व-युद्धों ने दिलायी है। भारत और पाकिस्तान सहित सभी राष्ट्र अन्धराष्ट्रवाद और बहुसंख्यक आबादी के युद्धोन्माद अर्थात् फासिज्म की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाले 13 महीनों में फासिस्ट प्रवृत्तियों का नंगा नाच और बढ़ेगा। अभी तक मुसलमानों को अपना शत्रु नम्बर एक घोषित करने वाले संघ-परिवार ने अब ईसाइयों को विदेशी कह कर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया है। वे साम्प्रदायिकता की अपनी आँधी और बढ़ाते जायेंगे। आर्थिक मन्दी के चलते अमीरों के इस्तेमाल में आनेवाली उपभोक्ता सामग्रियों - कार, फ्रीज, एयरकण्डीशन, वाशिंग मशीन, टी0वी0, कम्प्यूटर आदि के दाम निरन्तर गिर रहे हैं. वहीं नब्बे प्रतिशत जनता की आबादी के लिये किसी तरह जीने-खाने के लिये आवश्यक सामग्रियों आलू, प्याज, नमक, तेल आदि के दाम जमाखोरी के कुचक्र के चलते अकस्मात ही आसमान चूमने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भी आगामी शताब्दी में गरीबों की हड्डी निचोड़ लेने वाला वर्ग जारी रखेगा। निजीकरण के परिणाम-स्वरूप प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स की कल्याणकारी राज्य के जन-संघर्षों के दबाव के परिणामस्वरूप जो भी अंशतः जन-हित में लागू किया जा रहा था, वह भी नेस्तनाबूद किया जा चुका है। 

चिकित्सा तथा शिक्षा मध्यम वर्ग के नीचे की आम जनता के लिये अनुपलब्ध होती जा रही है। यह प्रवृत्ति आम जनता को कीड़े-मकोडे़ की तरह मरने और पशुओं की तरह निरक्षर जीवन जीने के लिये आने वाले वर्षों में भी बाध्य करती रहेगी। पुलिस-प्रशासन और न्याय-व्यवस्था के चक्के रिश्वत और सिफारिश पहुँचा सकने में सक्षम लोगों की स्वार्थ-सेवा में आज भी हिल रहे हैं, कल भी इनकी गति बदस्तूर न्याय की देवी की बार-बार हत्या करती रहेगी। आने वाला कल का भारत गुण्डो, स्मगलरों, जातिवादी नेताओं, कमीशनखोर अफसरों की राज-सत्ता अर्थात् मुनाफाखोरों के ताण्डव में झुलसने वाला भारत ही होगा। किसान कर्ज के फन्दे में जकड़ कर और बड़ी संख्या में आत्महत्याएँ करेंगे। नारी बार-बार अपमानित की जायेगी तथा कंगालों की टोलियाँ नमक-रोटी की तलाश में दर-दर भटकती रहेंगी। 

भारत इस उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा भू-भाग है। कई राष्ट्रीयताएँ (कश्मीर और पूर्वोत्तर के सातों राज्य) मुक्ति के लिये संघर्षरत हैं। केन्द्र सरकार नेहरू-काल से ही राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का दमन ही करती आयी है। यह समस्या भी आतंकवाद के रूप में पड़ोसियों की कृपा से जटिलतर होती जा रही है। इसका समाधान भी वर्तमान सत्ता के अन्धराष्ट्रवादी दृष्टिकोण से असम्भव है। ऐटम बम ने भारत को सैनिक रूप से सक्षम किया है तो आर्थिक रूप से कमज़ोर। समस्या समाज की चेतना की क्षितिज के विस्तार की भी है। गत पचास वर्षों में धीरे-धीरे करके परम्परागत संयुक्त परिवार नष्ट हो चुका है। परिवार के मुखिया के स्थान का स्वामित्व अधिक कमाने वाले के हाथों में खिसक चुका है। संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर इस संक्रमण ने समाज की सामूहिकता की चेतना को क्षरित किया है। व्यक्ति अधिक स्वार्थी होता चला जा रहा है। ऐसे में सामाजिक संगठन, वर्गीय संगठन तथा परस्पर सरोकार के विनाश से व्यक्तिवाद पनप चुका है। जब तक व्यक्ति अपने दायित्व-बोध की अनुभूति के अनुरूप आचरण आरम्भ नहीं करेगा, मनोरथ मात्र कल्पना ही रहेंगी। सामूहिक हितों के लिये सक्रियता की भावना निकट भविष्य में भी क्षीण ही दिखायी देती है। संक्षेप में कहें, तो आज की सारी समस्याएँ और घनीभूत होकर आने वाले दशक में भारतीय समाज के ताने-बाने को और भी जर्जर करती चली जायेंगी। व्यक्ति अलगाव का शिकार होकर और भी असहाय महसूस करता जायेगा। 

समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने वाली शक्तियाँ देश के कोने-कोने में विभिन्न नामों से सक्रिय तो हैं, किन्तु उनके बीच एकजुटता की प्रक्रिया अभी आरम्भ भी नहीं हो सकी है। क्रान्तिकारी नेतृत्व विचारधारात्मक प्रश्नों से लेकर गतिविधियों तक के धरातल पर दूर-दूर तक जन-सामान्य से एकरूप नहीं हो सका है। जिसके चलते भारतीय क्रान्ति की सम्भावना आगामी कई वर्षों तक घूमित ही दिखायी देती है। आने वाला कल सूर्योदय के पूर्व के सघन अन्धकार की तरह अत्यन्त विषाक्त होगा। इसके पश्चात ही इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग तीसरे दशक तक आर्थिक मन्दी का संकट हल हो सकेगा। तब तक या तो तीसरा विश्वयुद्ध विश्व-क्रान्ति की श्रृंखला-अभिक्रिया को प्रारम्भ कर चुकेगा अथवा स्वतः-स्फूर्त विद्रोह संगठित होते-होते जन-विरोधी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का समाजवादी काया-कल्प कर डालेंगे। अन्धेरा घना होना अपने-आप में सूर्योदय की तैयारी है। प्रसव की वेदना नवीन शिशु की किलकारियों की पूर्वानुभूति है। समाज संक्रमण की छटपटाहट झेल रहा है। आसुरी शक्तियों का नंगा नाच अनन्त काल तक चलना असम्भव है। 

इतिहास का अन्त नहीं होता। अगली पीढ़ी अपने से पिछली पीढ़ी की तुलना में अधिक प्रबल, सक्षम तथा मेधावी होती है। मनुष्य बर्बर कबीलाई समाज से सतत युद्धरत सामन्ती समाज की घृणित विलासिता और जंजीरों से जकड़े गुलाम से, बसाये गये भूदासों तक का सफर करता हुआ बीसवीं सदी के अन्त तक पूँजी और श्रम के महाभारत की तैयारी तक आ पहुँचा है। डंकल का डंक कभी तो चूर-चूर किया ही जायेगा। 

धरती फिर करवट बदलेगी, फिर इतिहास बढ़ेगा। 
माटी का बेटा जल्दी ही, हक के लिए लड़ेगा।। 
नहीं कहानी खत्म हो रही है डंकल के साथ। 
पूँजी की देवी के सिर से भी उतरेगा ताज।। 

महाबली मानव ने अपने इरादों के सहारे चाँद-सितारों को फ़तह किया है। जब तक अन्याय, अत्याचार, जुल्म व शोषण जारी रहेगा, जीवन के द्वन्द्व का दूसरा पक्ष - प्रतिरोध भी निरन्तर चलता रहेगा - कभी तेज, कभी मद्धिम। वर्ग-युद्ध तब तक जारी रहेगा, जब तक शोषणकारी शक्तियाँ नेस्तनाबूद नहीं कर दी जाती। अन्तिम विजय श्रम की, न्याय की, सामूहिकता की, संवेदना की, रचना की, विकास की होगी। प्रतिगामी पक्ष की पराजय इतिहास का बार-बार दुहराया गया तथ्य है। आने वाला कल भी इसका अपवाद नहीं होगा। 

नूर की एक किरण जुल्म प’ भारी होगी।
रात उनकी ही सही सुबह हमारी होगी।। 

इंकलाब-ज़िन्दाबाद!
 (नवम्बर 98)



Sunday 11 November 2012

अन्दर का सच, बाहर का सच - गिरिजेश




अन्दर का सच :-

हँसता-रोता हूँ, गीत गाता हूँ; मैं अकेले ही गुनगुनाता हूँ।
साथ में कोई भी नहीं होता, मैं ख़ुद अपने पे मुस्कुराता हूँ।।


सामने लाना कितना मुश्किल है? सामने ला भी कहाँ पाता हूँ?
मैं किसी से क्या कहूँ दर्द-ए-ज़िगर? जिसको पाता हूँ, दूर पाता हूँ।

बिजलियाँ क्यों वहीं गिराते हो? मैं जहाँ घोंसला बनाता हूँ।
भागता ही रहा हूँ आजीवन, अब कहाँ भाग भी मैं पाता हूँ?

रात में जागता हूँ मैं जब भी, गीत कोई नया बनाता हूँ।
उनकी यादों के पाक़ पैरों तले, अपने आँसू ही मैं बिछाता हूँ।।

बाहर का सच :- 


जब भी अन्धेरा सिर पे चढ़ता है, मैं तुरत रोशनी जलाता हूँ;
जिन्दगी सिलसिला ही है ऐसा, जब भी तोड़ा तो जोड़ पाता हूँ.

सच को स्वीकारना नहीं आसाँ... झूठ बोला तो दरक जाता हूँ;
क्यों तुम इतना अधिक उछलते हो? आइना जब भी मैं दिखाता हूँ.

दोस्ती है कहाँ मुझे हासिल? दुश्मनी की फसल उगाता हूँ;
तुम चुनौती भी ले नहीं पाते, जब भी ताकत को आजमाता हूँ.

जंग क्यों आर-पार होती नहीं? कसमसाता हूँ, तिलमिलाता हूँ;
अपनी इज्ज़त भी क्या, ज़लालत क्या? नेक इंसान जो बनाता हूँ.

Saturday 10 November 2012

मार्क्स के संस्मरण पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट

संस्मरण
मार्क्स के संस्मरण
पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट 


मार्क्‍स के संस्‍‍मरण
(जीवन काल 1818-1883) 
लेखक
पॉल लाफार्ज
विलहेम लीबनेख्‍ट 
अनुवादक
हरिश्‍चन्‍द्र 
जन-प्रकाशन गृह,
राजभवन, सैण्‍डहर्स्‍ट रोड,
बम्‍बई 4

दो शब्‍द 
दुनिया में बिरले ही ऐसे व्‍यक्ति हुए हैं जिन्‍होंने मानव-समाज के इतिहास की धारा को इतना प्रभावित किया है जितना कार्ल मार्क्‍स ने।
कार्ल मार्क्‍स का जन्‍म 1818 में जर्मनी के राइन जिले के एक खाते-पीते यहूदी परिवार में हुआ था। बाद में मार्क्‍स के घर वाले ईसाई हो गये। जर्मनी के बॉन और बर्लिन विश्‍वविद्यालय में उनकी शिक्षा हुई। पहले उन्‍होंने वकालत पढ़ी। फिर वकालत छोड़कर इतिहास और दर्शन के अध्‍ययन में लग लये। युनीवर्सिटी (विश्‍व-विद्यालय) में उनका विषय 'सामाजिक न्‍याय के सिद्धान्‍त' थे। परन्‍तु उन्‍हीं के शब्‍दों में सामाजिक न्‍याय के सिद्धान्‍तों का विषय उन्‍होंने ''दर्शन और इतिहास का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्‍त करने के उद्देश्‍य से चुना था।'' इस प्रकार आरम्‍भ से ही उनकी रुचि गंभीर विषयों की ओर थी। 1941 में उन्‍हें जेन विश्वविद्यालय से डॉक्‍टर की उपाधि मिली। उनकी थीसिस (लेख) का विषय यूनानी दर्शन था। मार्क्‍स इस समय तक भौतिकवादी नहीं थे। वह हीगेल के शिष्‍य और उसके आदर्शवादी दर्शन के अनन्‍य उपासक थे। पर इसी समय से हीगेलवादी दर्शन के साथ उनका मतभेद आरम्‍भ हुआ।
मार्क्‍स के ऊपर हीगेल का बहुत प्रभाव था। हीगेल ने जर्मनी की दार्शनिक विचार धारा में क्रान्ति ला दी थी। वह पहला दर्शनिक है जिसने जर्मनी की पुरानी आत्‍मवादी दार्शनिक परम्‍परा से नाता तोड़कर विकास की पद्धति का अनुसरण किया और द्वंद्वात्‍मक गतिशीलता का सिद्धान्‍त स्थिर किया। मार्क्‍स ने हीगेल की द्वंद्वात्‍मक तर्क-प‍द्धति को अपनाते हुए उसी आधार पर बहुत क्रान्तिकारी परिणाम निकाले। और बाद में जब उन्‍होंने द्वंद्वात्‍मक भौतिकवाद की दार्शनिक प्रणाली की स्‍थापना की तब हीगेल के दर्शन को जो अब तक ''सिर'' के बल खड़ा हुआ था, उन्‍होंने सीधा करके ''पैरों पर'' खड़ा कर दिया। हीगेल कहता था कि भौतिक विकास का स्रोत विचार है। मार्क्‍स ने बताया कि वास्‍तविकता इसके विपरीत है। विचार भौतिक विकास के ऊपर आधारित है। वे भौतिक विकास के साथ बनते-बिगड़ते हैं। मूल वस्‍तु भौतिक विकास है। इस प्रकार हीगेल के आदर्शवाद के स्‍थान पर मार्क्‍सवादी भौतिकवाद की स्‍थापना हुई। मनुष्‍य के मानसिक विकास में यह बहुत बड़ी मंजिल थी। मंजिल क्‍यों-एक मोड़ थी, जहाँ पहुँचकर मानवी प्रगति का अतीत और भविष्‍य पथ एक साथ अलोकित हो उठा।
मार्क्‍स ने अपने विद्यार्थी जीवन से राजनीति में हिस्‍सा लेना शुरू कर दिया था। बॉन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संघ के वह प्रमुख कार्यकर्ता थे। शिक्षा समाप्‍त करने के बाद राजनीतिक जीवन ही उनका प्रमुख जीवन हो गया। 1841 में वह बॉन विश्‍वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर होने जा रहे थे। उन्‍हें पता चला कि वहाँ जाने के माने अपने स्‍वतंत्र विचारों को तिलांजलि देना होगा। बॉन विश्‍वविद्यालय में उनके गुरु-भाई ब्रूनो बेयर को अपने उग्र विचारों के कारण भाषण देने से रोक दिया था। मार्क्‍स ने उसी समय प्रोफेसरी के जीवन को नमस्‍कार किया और जी जान से राजनीतिक आंदोलन में लग गये।
अपने विद्यार्थी जीवन में मार्क्‍स ''राइन गजट'' नाम के एक पत्र के सम्‍पादक बना दिये गये। यह पत्र राइन जिले के उग्रवादी पूंजीपतियों का था जो जर्मनी के प्रशियन बादशाह विल्‍हेल्‍म की (तृतीय और बाद में चतुर्थ की भी) सामन्‍तशाही के कट्टर विरोधी थे।
योरप में यह युग पूंजीवाद के उभार का था। इंग्‍लैण्‍ड की औद्योगिक क्रान्ति पिछली शताब्‍दी में पूरी हो चुकी थी और 1789 की फ्रांसीसी राज्‍य-क्रान्ति ने योरप में सामंतशाही श्रृंखलाओं को तोड़कर पूंजीवादी विकास का मार्ग खोल दिया था। उद्योग-धन्‍धों के विकास के साथ मजदूर वर्ग मैदान में आया और मजदूरों और पूंजीपतियों के तीव्र संघर्ष का सूत्रपात हुआ। जगह-जगह मजदूर संघ बनने लगे। 1831 और 1834 में फ्रांस में विद्रोह हुए। 1833 में इंगलैण्‍ड में मजदूर सभाओं का एक अखिल इंगलैण्‍ड मजदूर संघ बना। 1836 में वहीं एक प्रसिद्ध चार्टिस्‍ट पार्टी की नींव पड़ी जो इंगलैण्‍ड की पहली क्रान्तिकारी मजदूर-पार्टी थी। इसी वर्ष जर्मनी में मजदूरों का एक गुप्‍त संगठन बना जिसका नाम था ''ईमानदारों का संघ''। इसके प्रमुख नेताओं में एक मोची, एक कम्‍पोजीटर और एक दर्जी था।
ये संघ बन रहे थे। मजदूरों में वर्ग-चेतना आ रही थी। अब वह युग बीत चुका था जब शोषण का विरोध करने के लिए मजदूर मशीनों को तोड़ डालते थे। लेकिन इन संघों के सामने कोई पूरा प्रोग्राम नहीं था, उनका पथ प्रदर्शित करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी। पिछली (अर्थात अठारहवीं) शताब्‍दी में भी कई सोशलिस्‍ट नेता हुए थे। फूरिये (1772-1837), सेंट साइमन (1771-1858) और ओवेन (1771-1830) इनमें प्रमुख थे। किन्‍तु ये कल्‍पनावादी सुधारक थे। उन्‍होंने पूंजीवादी व्‍यवस्‍था और शोषण की कटुतम आलोचना की और पूंजीपतियों को आड़े हाथों लिया। पर शोषण का अन्‍त करने का मार्ग वे हृदय-परिवर्तन बतलाते थे। इसलिए बिचारे अपनी ही असफलताओं के गर्त में विलीन हो गये। मजदूर आन्‍दोलन अन्‍धकूप से बाहर न निकल सका। तभी मार्क्‍स आये। उन्‍होंने सामाजिक विश्‍लेषण के आधार पर सामाजिक विकास के नियमों की व्‍याख्‍या की और मजदूर वर्ग को एक विचारधारा और एक कार्यक्रम दिया।
मार्क्‍स का ध्‍यान इस ओर राइन गजट का सम्‍पादक करते समय गया था। योरप में इस समय मुख्‍य कार्य मजदूर-क्रान्ति नहीं, बल्कि सामंतशाही की बची-खुची रुकावटों को दूर करके पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति करना था जिससे कि पूंजीवाद के (और उसके साथ-साथ मजदूर वर्ग के भी) पूर्ण विकास रास्‍ता खुल जाय। जर्मनी का राइन जिला औद्योगिक और क्रांतिकारी दोनों दृष्टियों से सबसे आगे था। वहाँ के पूंजीपति अपने वर्ग के अगुआ थे। इसीलिए मार्क्‍स ने उनके पत्र ''राइन गजट'' का सम्‍पादन-कार्य स्‍वीकार किया था। मार्क्‍स के लेखों ने प्रशियन सरकार के कोटरों में तहलका मचा दिया।  मार्क्‍स के लेखों पर डबल सेन्‍सर लगाया गया। फिर भी मार्क्‍स के वीरों को न रोका जा सका तो 1843 में सरकार ने पत्र को ही जब्‍त कर लिया।
जून 1843 में मार्क्‍स अपनी प्रेयसी जेनी से मिले और प्रणय-सूत्र में बंध गये। जेनी फॉन वेस्‍टफालेन शाही खानदान की सुन्‍दर लड़की थी। मार्क्‍स से उसका परिचय कुछ वर्ष पहले हुआ था जब वे पड़ोस में रहते थे। विवाह के बाद जेनी सदा अपने पति के साथ रही। मार्ग की कठिनाइयाँ, गरीबी, देशनिकाला, प्रियजनों की मृत्‍यु, कोई भी चीज फिर उस पति-परायणा वीरांगना को विचलित न कर सकी।
विवाह के बाद मार्क्‍स जर्मनी से पैरिस चले गये। पैरिस से उन्‍होंने एक दूसरी पत्रिका, ''फ्रेंको-जर्मन एनुअल'' निकाली। वहीं पर उन‍की मुलाकात एंगेल्‍स से हुई। श्रमजीवी वर्ग के ये महान नेता दो वर्ष पहले भी जर्मनी में मिल चुके थे। किन्‍तु इस बार मिलने पर वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो गये। एक प्राण दो शरीरों की तरह अन्तिम समय तक वे साथ रहे। ऐसी मित्रता का विश्‍व-इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

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पैरिस में आकर भी मार्क्‍स ने प्रशियन सरकारी टीका-टिप्‍पणी बंद नहीं की। और अब केवल प्रशियन सरकार का सवाल नहीं र‍ह गया था। अब योरोप की दूसरी सरकारें भी मार्क्‍स के नाम से डरने लगीं। उनका व्‍यक्तित्‍व इतना बड़ा हो गया था कि कोई भी सरकार उन्हें अपने यहाँ रहने देने से डरती थी। 1845 में मार्क्‍स को पैरिस से देश-निकाला कर दिया गया। फ्रांस से निकाले जाने पर वह बेल्जियम (ब्रूसेल्‍स) गये। वहाँ भी उनका रहना कठिन हो गया। बेल्जियम सरकार ने भी उन्‍हें देश छोड़ने की आज्ञा दी। इसलिए बेल्जियम छोड़कर वह लंदन चले गये।
यह समय मार्क्‍स ने अधिकांश अध्‍ययन में लगाया। 1945-46 में उनकी प्रसिद्ध पुस्‍तक ''जर्मन विचारधारा'' निकली। और उन्‍होंने दर्शन, अर्थशास्‍त्र और क्रांतियों के इतिहास के अध्‍ययन को परिपक्‍व बनाया। 1847 में उनकी दूसरी बड़ी पुस्‍तक ''दर्शन की दरिद्रता'' फ्रांसीसी भाषा में निकली। किन्‍तु मार्क्‍स लेखन या विचार से भी अधिक क्रान्तिकारी थे। इस काल में उन्‍होंने जो सबसे बड़ा काम किया था वह था ''कम्‍युनिस्‍ट संघ'' का संगठन। ''कम्‍युनिस्‍ट संघ'' दुनिया का प्रथम क्रांतिकारी अन्‍तरराष्‍ट्रीय मजदूर संघ था। वही दुनिया की पहली कम्‍युनिस्‍ट पार्टी थी। उसकी 1846 में लंदन में स्‍थापना हुई थी। 1847 में उसकी पहली कांग्रेस हुई। उसकी तरफ से एक पत्र निकाला गया। इस पत्र का नाम ''कम्‍युनिस्‍ट जर्नल'' था। यही दुनिया का पहला कम्‍युनिस्‍ट पत्र था। ''दुनिया के मजदूरो एक हो'' का नारा सर्वप्रथम इसी पत्रिका के मुख्‍य पृष्‍ठ पर बुलन्‍द किया गया था। 1847 में इस संघ की दूसरी कांग्रेस हुई। इसी कांग्रेस के निश्‍चयानुसार मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने ''कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र'' लिखा था जो आज भी दुनिया भर के श्रमजीवियों का पथ-प्रदर्शन कर रहा है।
घोषणापत्र के प्रकाशित होते न होते योरोप में क्रांति के बादल गड़गड़ा उठे। फ्रांस, आस्ट्रिया, जर्मनी, आदि तमाम औद्योगिक रूप से उन्‍नत देश क्रांति की चपेट में आ गये। इस क्रांतिकारी लहर के दो उद्देश्‍य थे - जूने-पुराने सामन्‍तशाही बंधनों को तोड़ फेंकना, जिससे पूँजीवादी विकास का मार्ग निष्‍कंटक हो जाय, और इटली, हंगेरी, पोलैण्‍ड आदि गुलाम देशों को आस्ट्रिया और रूस (जारकालीन रूस) के साम्राज्‍यवादी शोषण से मुक्ति दिलाना। 1848-49 की ये क्रांतियाँ पूंजीवादी समाज के विकास के इतिहास में बहुत महत्‍व रखती थीं। किन्‍तु पूँजीपति वर्ग ने गद्दारी की। उसके लिए देर हो गयी थी। मजदूर वर्ग मजबूत हो गया था। पूँजीवादी डरे कि कहीं शक्ति उनके हाथ से छिनकर मजदूरों के अधिकार में न चली जाय। इसलिए वे सामन्‍तवादी क्रांति-विरोधियों से मिल गये। और मजदूर वर्ग के लिए सत्ता पर अधिकार करने का समय भी आया नहीं था। क्रांति को मजदूरों-किसानों के लहू में डुबो दिया गया।
इस क्रांति की तैयारी मार्क्‍स ने एक-एक ईंट रखकर की थी। इसलिए जहाँ एक तरफ क्रान्ति विरोधी सरकारें उन्‍हें निकालती थीं, वहीं दूसरी तरफ उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। फ्रांस में क्रांति के होते ही जनता के दबाव से 8 मार्च 1848 को फ्रांस की अस्‍थायी सरकार ने मार्क्‍स का अभिनंदन किया और उनसे फ्रांस में आने की प्रार्थना की। 10 मार्च 1848 को पैरिस पहुँच कर मार्क्‍स ने कम्‍युनिस्‍ट संघ की केंद्रीय समिति का फिर से संगठन किया और पूरे कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन का नेतृत्‍व करने के लिए एक नया केन्‍द्र बनाया। एंगेल्‍स मार्क्‍स के साथ थे। मार्च 1848 के मध्‍य में जर्मनी में भी क्रांति हो गयी। मार्क्‍स फौरन जर्मनी के लिए चल दिये। एंगेल्‍स तथा दूसरे साथी भी उनके साथ थे। कोलोन से उन्‍होंने एक पत्र निकालना शुरू किया, जिसका नाम रखा ''नया राइन गजट''। इस पत्र ने खुलकर योरप की क्रांतिकारी शक्तियों का नेतृत्‍व करना आरम्‍भ कर दिया। जून 1848 में पूंजीपतियों ने गद्दारी की और सामन्‍तशाही के साथ सांठ-गांठ करके क्रान्ति को दबा दिया। मार्क्‍स को कोलोन से पैरिस और पेरिस से भी निकाले जाने के बाद लंदन जाना पड़ा।
उनका बाकी जीवन लंदन में ही बीता।

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इन क्रांतियों के बाद का समय बहुत ही कठिन था। पस्‍तहिम्‍मती ने लोगों के दिल तोड़ दिये थे। विजयोल्‍लास के समय साहस और दृढ़ता बनाये रखना कठिन नहीं होता। पर असली क्रांतिकारी की परीक्षा होती है पराजय के समय, पराजय के बाद आने वाली मूर्छना और निराशा के समय। इस समय मार्क्‍स के सामने सबसे बड़ा प्रश्‍न था क्रांतिकारियों के मनोबल को बनाये रखना, पार्टी (कम्‍युनिस्‍ट संघ) को फिर से संगठित करना, और मजदूर वर्ग और पार्टी को इन क्रान्तियों की असफलता से निकलने वाले निष्‍कर्षों से शिक्षित करना।
मार्क्‍स विचलित नहीं हुए। क्रांतियों की शिक्षाओं का विश्‍लेषण करते हुए उन्‍होंने कई पुस्तिकाएँ लिखीं जो आज भी हमें रास्‍ता दिखाती हैं। ''फ्रांस में श्रेणी संघर्ष'' (1848-1850), ''लुइ बोनापार्ट का अठारहवां ब्रूमेयर'' (1852), ''जर्मनी में क्रांति और क्रांति-विरोध''(1851-1853), ''कोलोन का कम्‍युनिस्‍ट'' (1853), आदि उनकी इसी काल की रचनाएँ हैं। 1851 से 1862 तक वह अमरीकन पत्र ''न्‍यूयार्क ट्रिब्यून'' में अन्‍तरराष्‍ट्रीय विषयों पर लेख लिखकर दुनिया में क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते रहे। भारत के ऊपर उनकी प्रसिद्ध लेख-माला इसी पत्र में प्रकाशित हुई थी।
इसी समय उन्‍होंने अपने ग्रंथ ''पूंजी'' के प्रथम भाग को पूरा किया जो 1867 में प्रकाशित हुआ।
1860 के लगभग फिर मजदूर आंदोलन उठा। मार्क्‍स इसके लिए तैयार थे। 1864 में उन्‍होंने तमाम संगठनों को एक करके अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर संघ की स्‍थापना की। इस संघ को अब प्रथम इंटरनेशनल (अन्तरराष्‍ट्रीय) कहा जाता है। मार्क्‍स के नेतृत्‍व में इस संघ ने मुख्‍य पूंजीवादी देशों के मजदूरों को फिर एक मोर्चे में संगठित कर दिया। 1848 की विफलता से मार्क्‍स ने बहुत कड़वी शिक्षा पायी थी। इसलिए पहली इंटरनेशनल का प्रथम सिद्धान्‍त था : मजदूर वर्ग का उद्धार स्वयं मजदूर ही कर सकते हैं।
1871 में फ्रांस में पैरिस कम्‍यून हुआ। मजदूरों ने गद्दार पूंजीपतियों को खदेड़कर, जो मजदूरों के डर से अपना देश जर्मनी की गुलामी में दे देना चाहते थे, अपना कम्‍यून (मजदूर शासन) कायम किया। मार्क्‍स ने उसकी सहायता के लिए तमाम दुनिया के मजदूरों में जबरदस्‍त आंदोलन किया। जब पैरिस कम्‍यून भी दबा दिया गया तब मार्क्‍स ने एक दूसरी पुस्‍तक लिखी ''फ्रांस में गृहयुद्ध'' जिसमें उन्‍होंने कम्‍यून के संपूर्ण अनुभवों की व्‍याख्‍या की और कहा, पेरिस के मजदूरों के कम्‍यून की याद हमेशा नये समाज के गौरवशाली अग्रदूत के रूप में की जयगी।... उसके दुश्‍मनों को कोई नहीं बचा सकेगा... इतिहास ने अपना फैसला कर दिया है...
इस प्रकार कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी योरप के तरंगित सागर में अपने हाथ में दीप-शिखा लिये मार्क्‍स एक चट्टान की तरह अविजित खड़े रहे। दुनिया के संपूर्ण दर्शन, इतिहास और अनुभवों को मथ कर उन्होंने भविष्‍य के निर्माता मजदूर-वर्ग और श्रमजीवी जनता को मार्क्‍सवाद के रूप में एक अमोघ अस्‍त्र दिया। पद-पद पर उन्‍होंने क्रांतियों और क्रांतिकारियों का नेतृत्‍व किया। जब क्रांतियों का ज्‍वार उठा तो उन्‍होंने अपनी कलम को छोड़कर तलवार ली और रणक्षेत्र में पहुँच गये। ब्रिटेन के प्रसिद्ध नाटककार शॉ के शब्‍दों में, उन्‍होंने अपना सर हमेशा खुदा की तरह ऊँचा रखा।
लगभग आधी शताब्‍दी बाद मार्क्‍स की भविष्‍यवाणी रूस में चरितार्थ हुई। सोवियत रूस का जन्‍म हुआ। आज सोवियत संघ मार्क्‍स के बतलाये रास्‍ते पर चल रहा है। और सोवियत संघ ही क्‍यों-आज तो तमाम दुनिया उसी रास्‍ते पर चल रही है। हमारे देश के सामने भी दूसरा कोई रास्‍ता नहीं। अगर हम आज दुनिया को समझना चाहते हैं, अगर आज हम शोषण और गुलामी को खदेड़कर अपनी मातृभूमि को आजाद करना चाहते हैं, अगर हम जीना और उन्‍नति करना चाहते हैं, तो हमें भी उसी अमर ज्‍योति का सहारा लेना पड़ेगा जो मार्क्‍स ने जलायी थी और जो आज देश में वहाँ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के रूप में प्रज्‍वलित हैं।
इसीलिए इस पुस्तिका का प्रकाशन आवश्‍यक समझा गया। इसमें मार्क्‍स की जीवनी नहीं बल्कि उनसे बहुत निकट रूप से संबंधित दो व्‍यक्तियों के संस्‍मरण हैं। इनसे हमें मार्क्‍स के व्‍यक्तित्‍व का परिचय मिलता है। उनकी पूरी जीवनी आगे कभी प्रकाशित की जाएगी।
मार्क्स की मृत्‍यु 1883 में हुई थी। पर वह मरे कहाँ-उनकी तो बूंद-बूंद से आज मार्क्‍सवादियों की सेनाएँ तैयार हो गयी हैं जो उनके बतलाये हुए मार्ग पर मानवी स्‍वतत्रंता और सुख की खोज में आगे बढ़ रही हैं।
- रमेश चंद्र सिन्हा
 
अंग्रेजी संस्‍करण के प्रकाशक का वक्‍तव्‍य
17 मार्च सन 1883 को जब कार्ल मार्क्स लंदन के हाईगेट कब्रिस्‍तान में दफनाये गये तो उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये केवल थोड़े से मित्रगण जमा थे। मार्क्‍स का नाम लंदन के मजदूर-वर्ग को अज्ञात था। उनका स्‍थापित किया हुआ 'विश्‍व-मजदूर-संघ' ग्‍यारह साल पहले खत्‍म हो चुका था और जिन ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों ने एक समय उसका साथ दिया था वे भी उसे भूल चुकी थीं। केवल एक अंग्रेजी दल ऐसा था जिस पर किसी हद तक उनकी शिक्षा का असर था और वह भी अभी तक अपने को समाजवादी नहीं कहता था। एक साल और बीतने के बाद ही उसने अपना नाम 'समाजिक-जनवादी संघ' रखा। मार्क्‍स की सर्वोत्‍कृष्‍ट रचना ''कैपिटल'' का पहला भाग खत्‍म हुआ था और उनकी मृत्‍यु से सोलह बरस पहले छप चुका था परंतु उसका अंग्रेजी में अभी अनुवाद नहीं हुआ था।
परंतु कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्‍स को ये शब्‍द कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं था कि ''14 मार्च को दोपहर के पौने तीन बजे दुनिया के सबसे बड़े विचारक ने सोचना बंद कर दिया।'' ''उनका नाम सदियों बाद भी जीवित रहेगा, और उसका कार्य भी''।
एंगेल्‍स ने चालीस बरस की गाढ़ी मित्रता और बौद्धिक घनिष्ठता द्वारा उत्‍पन्‍न होने वाले विश्‍वास के साथ ये शब्‍द कहे थे, क्‍योंकि उस समय अन्‍य आदमियों से कहीं ज्‍यादा अच्‍छी तरह से उन्‍होंने मार्क्‍स की शिक्षा का पूरा महत्‍व समझ लिया था। उन्‍होंने एक साथी वैज्ञानिक और एक साथ लड़ने वाले क्रांतिकारी योद्धा के नाते ही मार्क्‍स की शिक्षा के महत्‍व को आँका था। और इतिहास ने यह दिखा दिया है कि उनका कहना सच था।
आज मार्क्‍स का आदर करने वाले केवल मुट्ठीभर आदमी नहीं हैं। मजदूर वर्ग के गद्दारों और मध्‍य वर्ग के बुद्धिजीवियों के बिगाड़ने और बुराई करने की हर एक कोशिश के बावजूद प्रत्‍येक देश में ऐसे लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है जो मार्क्‍सवाद को वर्तमान और भविष्‍य का विज्ञान मानते हैं। यह स्‍वीकृति आसानी से प्राप्‍त नहीं हुई। प्रत्‍येक पग पर इसके लिए मजदूर-आन्‍दोलन के सबसे योग्‍य और साहसी पुरुष और स्त्रियाँ लड़े हैं किन्‍तु प्रत्‍येक देश के इतिहास में ऐसा समय आ चुका है जब मार्क्‍स की शिक्षा के क्रांतिकारी रूप का दीपक बुझनेवाला ही था।
आज वह दीप उज्ज्‍वल और अजेय रूप से जल रहा है। सोवियत संघ का विशाल ज्‍योति पुंज सारी दुनिया का ध्‍यान आकर्षित करता है और प्रत्‍येक दिन, हाथ या दिमाग से काम करने वाले इस बात को समझते जा रहे हैं कि सोवियत जनता की वीरता केवल जाति के अथवा ऐतिहासिक संयोग का फल नहीं है, बल्कि मार्क्‍स की क्रांतिकारी शिक्षा की सच्‍चाई और शक्ति का परिणाम है। क्‍योंकि वह रूसी जनता ही नहीं थी जिसने लेनिन और उनकी बनाई हुई बोल्‍शेविक पार्टी के नेतृत्‍व में मार्क्‍स के क्रांतिकारी सिद्धान्‍त को सफलतापूर्वक कार्य रूप में परिणत किया। लगभग 25 बरस से, यानी 7 नवम्‍बर सन 1917 से 22 जून 1941 तक वे इतिहास के सबसे बड़े रचनात्‍मक कार्य में लगे रहे हैं। लेनिन के सबसे बड़े शिष्‍य स्‍तालिन ने साम्‍यवाद तक पहुँचने में रूसी मजदूर और किसानों का नेतृत्‍व किया। यह कम्‍युनिज्‍म की पहली मंजिल है और कम्‍युनिज्‍म भविष्‍य का वह विश्‍वव्‍यापी समाज है जिसके बारे में मार्क्‍स ने एक वैज्ञानिक के विश्‍वास से भविष्‍यवाणी की थी और जिसके लिए वह एक महान क्रांतिकारी की भाँति अथक उत्‍साह से कोशिश करते रहे। आज जब कि पूरी दुनिया की साधारण जनता के साथ-साथ सोवियत जनता के सामने भी फासिज्‍म का खतरा है, तो स्‍तालिन और समाजवादी राज्‍य की फौज ही मानवता के भविष्‍य की इस लड़ाई में स्‍वतंत्रता की सेना का नेतृत्‍व कर रही है।

मार्क्‍स की स्‍मृतियाँ
पॉल लाफार्ज

1

मैंने सबसे पहली बार कार्ल मार्क्‍स को फरवरी सन 1865 में देखा। 28 सितम्‍बर सन 1864 को सैण्‍ट मार्टिन हॉल की मीटिंग में इंटरनेशनल की स्‍थापना हो चुकी थी। मैं उनको पेरिस से इस नन्‍ही संस्‍था की प्रगति का समाचार देने आया था। मोशिये तोलाँ ने, जो अब फ्रांस के पूंजीवादी प्रजातंत्र के एक मंत्री हैं और जो बर्लिन की कान्‍फ्रेन्‍स में उसके एक प्रतिनिधि थे, मुझे एक परिचय-पत्र दिया था।
मेरी उम्र 24 बरस की थी। उस पहली भेंट का मुझ पर जो असर पड़ा उसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूलूंगा। उस समय मार्क्‍स का स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा नहीं था और वह 'कैपीटल' के पहले भाग के लिखने में कड़ी मेहनत कर रहे थे। (वह दो साल बाद सन 1867 में प्रकाशित हुआ)। उन्‍हें यह डर था कि शायद वह उसे समाप्‍त न कर सकें। और वह युवकों से बड़ी खुशी से मिलते थे क्‍योंकि वह कहा करते थे कि ''मुझे ऐसे आदमियों को सिखाना चाहिये जो मेरे बाद कम्युनिज्म के प्रचार का काम जारी रखें।''
कार्ल मार्क्‍स उन अनमोल आदमियों में थे जो विज्ञान और सार्वजनिक जीवन दोनों में प्रथम श्रेणी के योग्‍य हों। ये दोनों पहलू उनमें इतनी अच्‍छी तरह मिले हुए थे कि जब तक हम उन्‍हें एक साथ ही वैज्ञानिक और समाजवादी योद्धा के रूप में न जान लें, तब तक हम उन्‍हें नहीं समझ सकते। उनका यह विचार था। कि प्रत्‍येक विज्ञान का स्‍वयं विज्ञान के लिये अध्‍ययन करना चाहिये और जब हम वैज्ञानिक अनुसंधान का काम शुरू करें तो फल का विचार छोड़ देना चाहिये। फिर भी वह यह विश्‍वास करते थे कि अगर विद्वान मनुष्‍य अपनी अवनति न चाहता हो तो उसे सार्वजनिक कार्यों में हमेशा भाग लेते रहना चाहिये - अपनी प्रयोगशाला या अध्ययनशाला में अपने को बन्‍द करके, पनीर के कीड़े की तरह, अपने सहजीवियों के जीवन और सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। ''वैज्ञानिक को स्‍वार्थी नहीं होना चाहिय। जो लोग इतने भाग्‍यवान हैं कि वैज्ञानिक अध्‍ययन में समय बिता सकें उन्‍हें, सबसे पहले अपने ज्ञान को मनुष्‍य की सेवा में लगाना चाहिये।'' उनका एक प्रिय कथन यह था कि ''संसार के लिये परिश्रम करो।''
मजदूर-वर्ग की विपदाओं से उन्‍हें हार्दिक सहानुभूति थी। किन्‍तु केवल भावुक कारणों से नहीं बल्कि इतिहास तथा अर्थशास्‍त्र के अध्‍ययन के उनका दृष्टिकोण समाजवादी (कम्‍युनिस्ट) बना था। उनका यह कहना था कि जिस आदमी पर निजी स्‍वार्थों का प्रभाव न हो और जो वर्ग-पक्षपात से अंधा न हो, वह अवश्‍य इसी निष्‍कर्ष पर पहुँचेगा। मार्क्‍स ने निष्‍पक्ष भाव से मानव समाज के राजनीतिक और आर्थिक विकास का अध्‍ययन किया, किन्‍तु उन्‍होंने अपने अध्‍ययन के फल को लिखा केवल प्रचार के पक्‍के इरादे से, और अपने समय तक आदर्शवादी कुहरे में खोये हुए साम्‍यवादी आन्‍दोलन के लिये वैज्ञानिक नींव जमाने के दृढ़ निश्चय से। जहाँ तक सार्वजनिक कार्यों का संबंध है, उन्‍होंने उसमें केवल मजूदर-वर्ग की विजय के लिये काम करने के विचार से भाग लिया। उस वर्ग का ऐतिहासिक कर्तव्‍य है कि समाज का राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्‍व प्राप्‍त करने के बाद कम्युनिज्म की स्‍थापना करे। इसी तरह से, शक्तिशाली होते ही पूंजीपति वर्ग का यह कर्तव्‍य था कि वह उन सामंती बंधनों को तोड़ दे जो खेती तथा तथा उद्योग-धन्‍धों के विकास में बाधा डाल रहे थे, मनुष्‍य और माल के लिये बेरोकटोक व्‍यापार और मालिकों और मजदूरों के बीच स्वतंत्र संबंध आरंभ कर दे, उत्‍पादन और विनिमय के साधनों को केन्‍द्रीभूत करे और कम्युनिस्ट समाज के लिये बौद्धिक और भौतिक सामग्री तैयार कर दे।
मार्क्‍स ने अपनी कार्यशीलता को अपनी जन्‍मभूमि तक ही सीमित नहीं रखा। वह कहते थे कि, ''मैं संसार का नागरिक हूँ और जहाँ कहीं होता हूँ वहीं काम करता हूँ।'' वास्‍तव में जिन देशों में (फ्रांस, बेल्जियम, इंग्‍लैण्‍ड) उन्‍हें घटनावश या राजनीतिक दमन के कारण जाना पड़ा वहाँ के विकसित होते हुए क्रांतिकारी आन्‍दोलन में उन्‍होंने प्रमुख भाग लिया।
परन्‍तु अपनी पहली भेंट में जब मैं उनसे मेटलैण्‍ड पार्क रोड वाले घर के पढ़ने के कमरे में मिला तो वह मुझे साम्‍यवादी आंदोलन के अथक और अद्वितीय योद्धा नहीं, बल्कि एक अध्‍ययनशील पुरुष जान पड़े। सभ्‍य संसार के प्रत्‍येक कोने से पार्टी के साथी कमरे में साम्‍यवादी दर्शन के उस पंडित की सलाह लेने के लिये इकट्ठे होते थे। वह कमरा ऐतिहासिक हो गया है। यदि कोई मार्क्‍स के बौद्धिक जीवन को घनिष्‍ठता से समझना चाहता है, तो उसे इस कमरे के बारे में जरूर जानना चाहिये। वह दुमंजिले पर था और पार्क की तरफ की चौड़ी खिड़की से उसमें खूब रोशनी आती थी। अँगीठी के दोनों तरफ और खिड़की के सामने किताबों से लदी हुई अलमारियाँ थीं जिनके ऊपर छत तक अखबारों की गड्डियाँ और हाथ की लिखी किताबें रखी हुई थीं। खिड़की की एक तरफ दो मेजें थीं जो उसी तरह विविध अखबारों, कागजों तथा किताबों से भरी हुई थीं। कमरे के बीचोबीच जहाँ रोशनी सबसे अच्‍छी थी, एक छोटी-सी लिखने की मेज थी-तीन फिट लम्‍बी और दो फिट चौड़ी, और एक लकड़ी की आरामकुर्सी थी। इस कुर्सी और एक अलमारी के बीच में, खिड़की की तरह मुँह किये हुए, एक चमड़े से ढँका हुआ सोफा था जिस पर मार्क्‍स कभी-कभी आराम करने के लिये लेटा करते थे। ताक पर कुछ और किताबें थी, उनके बीच में सिगार, दियासलाई की डिबिया, तम्‍बाकू का डब्‍बा, और उनकी लड़कियों, स्‍त्री, एंगेल्‍स और विलेहम वूल्‍फ की तस्‍वीरें थीं। मार्क्‍स को तम्‍बाकू का बड़ा शौक था। उन्‍होंने मुझसे कहा कि ''कैपीटल'' से मुझे इतना रुपया भी नहीं मिलेगा कि उसे लिखते समय मैंने जो सिगार पिये हैं उनका दाम भी निकल आये।'' दियासलाई के इस्‍तेमाल में तो वह और भी ज्‍यादा फिजूलखर्च थे। वह इतनी बार अपने पाइप या सिगार को भूल जाते थे कि उन्‍हें उसे बार-बार जलाना पड़ता था और वह दियासलाई की डिबिया बहुत ही जल्‍दी खत्‍म कर देते थे।
वह कभी भी किसी को अपनी किताबें और कागज ठीक तरह से लगाने (वास्‍तव में बिगाड़ने) नहीं देते थे। उनके कमरे की बेतरतीबी सिर्फ देखने भर की थी। वास्‍तव में हरएक चीज अपने उचित स्‍थान पर थी और वह जिस किताब या हस्‍तलेख को चाहते उसे बिना ढूंढ़े निकाल सकते थे। बातचीत करते-करते भी वह बहुधा रुक जाते और किसी अंश या आँकड़े को पुस्‍तक में से दिखाते। वह अपने कमरे की आत्‍मा को जैसे पहचानते थे और उनके कागज और किताबें उसी तरह उनकी इच्‍छा के पालक थे जिस तरह उनके अंग।
अपनी किताबों को सजाते वक्‍त वह उनकी छोटाई-बड़ाई का खयाल नहीं करते थे, बड़ी-बड़ी किताबें तथा छोटी-सी पुस्तिकाएँ बराबर-बराबर रखीं रहती थीं। वह अपनी पुस्‍तकों को आकार के अनुसार नहीं बल्कि विषय के अनुसार लगाते थे। उनके लिये पुस्‍तकें सुख का साधन नहीं, बौद्धिक यन्‍त्र थीं। वह कहते थे कि, ''ये मेरी गुलाम हैं और उनको मेरी इच्‍छा पूरी करनी पड़ती है''। उन्‍हें किताब के रूप-रंग, जिल्‍द, कागज की सुन्‍दरता या छपाई की परवाह नहीं थी। वह पन्‍नों के कोने मोड़ देते थे, कुछ हिस्‍सों के नीचे पेन्सिल से लाइन खींच देते थे और दोनों तरफ की खाली जगह को पेन्सिल के निशाने से भर देते थे। वह किताबों में लिखते नहीं थे, पर जब लेखक उल्‍टी सीधी हाँकने लगता था तो प्रश्‍न या आश्‍चर्य का चिह्न लगाये बिना नहीं रह सकते थे। पेन्सिल से लाइन खींचने का उनका ऐसा तरीका था कि वह बड़ी आसानी से किसी भी हिस्‍से को ढूँढ़ लेते थे। उन्‍हें यह आदत थी कि कुछ साल बाद अपनी कापियों और किताबों में निशाने लगाये हुए भागों को फिर पढ़ते थे ताकि उनकी स्‍मृति फिर ताजी हो जाय। उनकी स्‍मरणशक्ति असाधारण रूप में प्रबल थी। अपरिचित भाषा के पद्य याद करने की हेगल की सलाह के अनुसार बचपन से ही उन्‍होंने अपनी स्‍मरण शक्ति का विकास किया था।
उन्‍हें हाइने और गेटे कंठस्‍थ थे और बातचीत में बहुधा उन्‍हें वह उद्धृत किया करते थे। यूरोप की सब भाषाओं के प्रमुख कवियों की कविताएँ वह बराबर पढ़ा करते थे। प्रत्‍येक वर्ष वह फिर ग्रीक भाषा में एसकाइलस के नाटकों को पढ़ते थे और उसको तथा शेक्‍सपियर को दुनिया के सर्वोत्‍कृष्‍ट नाट्यकार मानते थे। उन्‍होंने शेक्‍सपियर का पूरा अध्‍ययन किया था। उसके लिये उनके मन में अगाध श्रद्धा थी और उसके सबसे साधारण पात्रों को भी वे जानते थे। मार्क्‍स का परिवार शेक्‍सपियर का भक्‍त था और उनकी तीनों लड़कियों को भी शेक्‍सपियर का बहुत सा अंश जबानी याद था। सन 1848 के कुछ दिन बाद जब मार्क्‍स अपने अंग्रेजी के ज्ञान को पूरा करना चाहते थे (उस समय भी वह अंग्रेजी अच्‍छी तरह पढ़ सकते थे) उन्‍होंने शेक्‍सपियर के सब खास-खास मुहावरों को ढूँढ़ा और उनका वर्गीकरण किया। यही उन्होंने विलियम कौबेट के वाद-विवादपूर्ण लेखों के साथ किया। कौबेट का वह बड़ा सम्‍मान करते थे। दान्‍ते तथा बर्न्‍स उनके प्रिय कवि थे और अपनी लड़कियों को बर्न्‍स की व्‍यंगात्‍मक कविता या बर्न्‍स के प्रेम के गीत गाते सुन कर उन्‍हें हमेशा आनंद आता था।
विज्ञान का प्रसिद्ध ज्ञाता, अथक परिश्रमी, कूविये जब पेरिस के म्‍यूजियम का संरक्षक था तो उसने अपने बरतने के लिये कई कमरे अलग तैयार करा लिये थे। इनमें से प्रत्‍येक कमरा अध्‍ययन की एक शाखा विशेष के लिये नियुक्‍त था। और उस विषय के लिये आवश्‍यक पुस्‍तकों, यन्‍त्रों आदि से सुसज्जित था। जब कूविये एक काम से थक जाता तो वह दूसरे कमरे में चला जाता था और बौद्धिक काम के बदल देने को आराम करने के बराबर मानता था। मार्क्‍स भी कूविये के समान अथक परिश्रमी थे परन्‍तु उसकी तरह कई कमरे रखने की उनकी सामर्थ्‍य नहीं थी। वह कमरे में इधर से उधर टहलकर आराम करते थे और दरवाजे और खिड़की के बीच में दरी पर घिसते-घिसते मैदान की पगडंडी की तरह कए साफ रास्‍ता बन गया। कभी-कभी वह सोफे पर लेट कर उपन्‍यास पढ़ते थे। बहुधा वह एक साथ कई उपन्‍यास शुरू कर देते थे जिन्‍हें वह बारी-बारी से पढ़ते थे क्‍योंकि डार्विन की तरह वह भी बड़े उपन्‍यास प्रेमी थे। उन्‍हें 18वीं सदी के उपन्‍यास पसन्‍द थे। फील्डिंग का लिख हुआ ''टॉम जोन्‍स'' उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगता था। आधुनिक उपन्‍यासकरों में उनके सर्वप्रिय थे पैल डि कौक, चार्ल्‍स लीवर, ड्यूमा और सर वाल्‍टर स्‍कॉट। स्‍कॉट के 'ओल्‍ड मॉर्टेलिटी' नामक उपन्‍यास को वह उत्‍कृष्‍ट रचना मानते थे। उन्‍हें साहस के कामों वाली और मजाकिया कहानियाँ पसन्‍द थीं। उनके लिए श्रृंगार रस के सर्वोत्‍कृष्‍ट लेखक सरवेंटीज और बाल्‍जाक थे। उनके विचार से ''डॉन क्विक्‍सोट'' ठाकुरशाही के विनाशकाल का एक महान ग्रंथ था जब कि नये विकसित होने वाले पूँजीवादी संसार में उस युग के गुणों को केवल मूर्खता और बौड़मपन समझा जाने लगा था। बाल्‍जाक के लिए उनकी श्रद्धा बहुत गहरी थी। उन्‍होंने निश्‍चय किया था कि अर्थशास्‍त्र का अध्‍ययन समाप्‍त करने के बाद बाल्‍जाक की 'ह्यूमैन कॉमेडी' की आलोचना लिखेंगे। मार्क्‍स बाल्‍जाक को समकालीन सामाजिक जीवन का इतिहासकार ही नहीं बल्कि ऐसे पात्रों का भविष्‍यदर्शी रचयिता समझते थे जो लुई फिलिप के राज्‍य में केवल अधूरे रूप में थे और बाल्‍जाक की मृत्‍यु के बाद तीसरे नेपोलियन के समय में पूर्ण रूप से विकसित हुए।
मार्क्‍स योरप की सब प्रमुख भाषाओं को पढ़ सकते थे और तीन भाषाओं में (जर्मन, अंग्रेजी तथा फ्रेंच में) ऐसा लिख सकते थे कि उस भाषा को अच्‍छी तरह जानने वाले भी उसकी तारीफ करते थे। वह बहुधा कह सकते थे कि ''जीवन के संग्राम में विदेशी भाषा एक हथियार होती है''। उनमें भाषाएँ सीखने की बड़ी योग्यता थी और इसको उनकी लड़कियों ने भी उनसे प्राप्‍त किया था। जब उन्‍होंने रूसी भाषा सीखनी शुरू की तो वह पचास बरस के हो चुके थे। यद्यपि जो मृत तथा जीवित भाषाएँ वह जानते थे उनका रूसी से कोई भी निकट का संबंध नहीं था, तब भी छ: महीने में उन्‍होंने इतनी प्रगति कर ली थी कि जो लेखक और कवि उन्‍हें पसन्‍द थे (अर्थात् पुश्किन, गोगोल और श्‍चेडरिन) उनकी रचनाएँ वह मूल में पढ़ सकते थे। रूसी सीखने का कारण यह था कि वह कुछ छानबीनों का सरकारी ब्‍यौरा पढ़ना चाहते थे। उन छानबीनों के निष्‍कर्ष इतने भयानक थे कि सरकार ने उन्‍हें दबा दिया था। मार्क्‍स के कुछ भक्‍तों ने मार्क्‍स के लिए उनकी प्रतियाँ मँगा दी थीं और पश्चिमी योरप में केवल मार्क्‍स ही ऐसे अर्थशास्‍त्री थे जिन्‍हें उनका ज्ञान था।
कविता तथा उपन्‍यास पढ़ने के अलावा मानसिक विश्राम के लिए मार्क्‍स का एक और अद्भुत तरीका था। गणित के वह बड़े प्रेमी थे। बीजगणित से उनको नैतिक सान्‍त्‍वना तक मिलती थी और अपने तूफानी जीवन की सबसे दु:खपूर्ण घड़ियों में वे उसका आसरा लिया करते थे। उनकी पत्‍नी की अन्तिम बीमारी में अपने वैज्ञानिक काम को हमेशा की तरह चलाना उनके लिए मुश्किल हो गया था और उसकी बीमारी और कष्‍ट के बारे में सोचने से बचने का उपाय केवल यही था कि अपने को गणित में डुबो दें। मानसिक कष्‍ट के इस समय में उन्‍होंने गणित पर एक निबन्‍ध लिखा। जो गणितशास्‍त्री इसे जानते हैं उनका कहना है कि यह रचना बड़ी महत्‍वपूर्ण है और मार्क्‍स की ग्रन्‍थावली में छपेगी। उच्‍च गणित में वह द्वंद्वात्‍मक गति का सबसे सादा और तर्कपूर्ण रूप निकाल सकते थे। उनकी विचारधारा के अनुसार विज्ञान की कोई शाखा तभी सचमुच विकसित कही जा सकती है जब उसका रूप ऐसा हो जाय कि वह गणित का प्रयोग कर सके।
मार्क्‍स का पुस्‍तकालय, जिसमें जीवन भर की खोज के परिश्रम से एक हजार से ज्‍यादा किताबें जमा थीं, उनकी आवश्‍यकताओं के लिए काफी नहीं था। इसलिए वह ब्रिटिश म्‍यूजियम के वाचनालय में नियम से जाते थे और वहाँ की सूची को बहुत मूल्‍यवान समझते थे। उनके विपक्षियों को भी यह स्‍वीकार करना पड़ता था कि वह प्रकाण्‍ड विद्वान थे। और केवल अपने प्रिय विषय अर्थशास्‍त्र में ही नहीं बल्कि सब देशों के इतिहास, दर्शन और साहित्‍य में भी उनका ज्ञान अगाध था।
यद्यपि वह हमेशा देर से सोते थे तब भी वह हमेशा आठ और नौ बजे के बीच में उठ जाते थे। काली कॉफी का प्‍याला पीकर और अखबारों को पढ़कर वह अपने पढ़ने के कमरे में चले जाते, और दूसरे दिन सबेरे के दो-तीन बजे तक काम करते रहते थे। बीच में वह सिर्फ खाने के लिए, और - अच्‍छे मौसम में - हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में टहलने के लिए उठते थे। दिन में वह एक या दो घंटे सोफे पर सो लेते थे। युवावस्‍था में उन्‍हें सारी रात काम करते हुए बिताने की आदत थी। मार्क्‍स के लिए काम करना तो एक व्‍यसन हो गया था और वह भी ऐसा तल्‍लीन करने वाला कि वह खाना तक भूल जाते थे। बहुधा उन्‍हें कई बार बुलाना पड़ता था; तब वह खाने के कमरे में आते थे और अन्तिम कौर मुश्किल से खत्‍म होता था कि वह उठ कर वापिस अपनी मेज पर जा बैठते थे। वह खाते कम थे और उन्‍हें भूख न लगने की शिकायत तक रहा करती थी। सुअर का गोश्‍त, धुँए पर पकी मछली और अचार जैसे चटपटे खानों से वह वह इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते थे। उनके मस्तिष्‍क की अपूर्व कार्यशीलता का दण्‍ड उनके पेट को भरना पड़ता था; दिमाग के लिए वास्‍तव में उन्‍होंने अपने पूरे शरीर को बलिदान कर दिया था। विचार करना उनके लिए सबसे बड़ा सुख था। मैंने बहुधा उनको अपनी युवास्‍था के गुरु हेगेल का यह कथन उद्धृत करते हुए सुना है कि, ''किसी धूर्त का एक पापपूर्ण विचार भी किसी दैवी चमत्‍कार से उच्‍च और पवित्र है।''
उनका शरीर निश्‍चय ही बड़ा बलवान रहा होगा, नहीं तो वह कभी इतने असाधारण जीवन और ऐसी थकाने वाली दिमागी मेहनत को नहीं सह सकते। औसत से कुछ ज्‍यादा लम्‍बे, चौड़े कन्‍धे, चौड़ी छाती-कुल मिलाकर उनके अंग सुडौल थे, यद्यपि उनके पैर शरीर की तुलना में छोटे थे (जैसा कि यहूदी जाति में अकसर होता है)। अगर अपनी जवानी में वह व्‍यायाम का अभ्‍यास करते तो अत्‍यन्‍त बलवान आदमी बन जाते। उनका एकमात्र शारीरिक व्‍यायाम था हवाखोरी। लगातार सिगार पीते और बातचीत करते हुए और थकान की कोई भी निशानी दिखाये बिना यह घन्‍टों चल सकते थे और पहाड़ों पर चढ़ सकते थे। यह कहा जा सकता है कि वह अपना काम कमरे में टहलते हुए करते थे। केवल थोड़ी देर के लिये वह डेस्‍क के सामने बैठ जाते ताकि फर्श पर टहलते हुए उन्‍होंने जो सोचा है उसे लिख डालें। इस तरह टहलते-टहलते बातचीत करने का भी उन्‍हें शौक था। हाँ, जब तर्क-वितर्क गरमागरम होता या बात विशेष महत्‍वपूर्ण होती तो वे बीच-बीच में जरा रुक जाते थे।
बहुत साल तक हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में उनके साथ शाम को हवाखोरी करने मैं भी जाया करता था। और मैदानों के बीच इन्‍हीं हवाखोरियों में मैंने उनसे अर्थशास्‍त्र की शिक्षा पायी। मेरे साथ इस बातचीत में उन्‍होंने ''कैपीटल'' के पहले भाग को, जिस वे उस समय लिख रहे थे, मेरे सामने विकसित किया। जैसे ही मैं घर पहुँचता वैसे ही अपनी योग्‍यतानुसार जो कुछ मैंने सुना था उसका सार लिख लेता था। परन्‍तु शुरू में मार्क्‍स की तीक्ष्‍ण और जटिल विचारधारा को समझने में बड़ी मुश्किल हुई। दुर्भाग्‍यवश मेरे ये अमूल्‍य कागज खो गये हैं क्‍योंकि कम्‍यून के बाद पैरिस और बोरदों में पुलिस ने मेरे कागज हथिया लिये और जला डाले। एक दिन मार्क्‍स ने अपने स्‍वभावानुसार बहुत से प्रमाणों और विचारों के साथ मानव समाज के विकास के अपने अद्भुत सिद्धांत का बखान किया था। वह मैंने लिख लिया था। पर अन्‍य कागजों के साथ वे भी पुलिस के हाथों पड़ गये। मुझे उन कागजों के खो जाने का विशेष दु:ख है। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आँखों के सामने से पर्दा हट गया हो। पहली बार मैंने विश्‍व-इतिहास के तर्क को समझा और समाज और विचारों के विकास के भौतिक कारणों को ढूँढ़ निकालने लायक हो गया-वह विकास जो बाहर से देखने से इतना तर्कहीन जान पड़ता है। इस सिद्धांत से मैं चकित हो गया और यह प्रभाव बरसों तक रहा। अपनी मामूली योग्‍यता से जब मैंने यह सिद्धांत मैड्रिड के साम्‍यवादियों को समझाया तो उन पर भी यही प्रभाव हुआ। मार्क्‍स के सिद्धांतों में यह सबसे महान है और निस्‍संदेह आदमी के दिमाग से निकला हुआ सर्वोत्‍कृष्‍ट सिद्धांत है।
मार्क्‍स का दिमाग ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्‍यों तथा दार्शनिक सिद्धांतों से अकल्‍पनीय मात्रा में सुसज्जित था और कड़े बौद्धिक परिश्रम से इकट्ठे किये हुए अपने ज्ञान और अनुभव का प्रयोग करने में उन्‍हें आश्‍चर्यजनक निपुणता प्राप्‍त थी। चाहे जिस समय और चाहे जिस विषय पर वह किसी भी प्रश्‍न का ऐसा जवाब दे सकते थे जो हर एक के लिये पूरी तरह संतोषजनक होता था। उनके उत्तर के पीछे हमेशा महत्‍वपूर्ण दार्शनिक विचार भी होते थे। उनका दिमाग उस लड़ाई के जहाज के समान था जो पूरी तैयारी से बन्‍दरगाह में खड़ा रहता है और इस बात के लिये तैयार रहता है कि किसी भी क्षण विचार के किसी भी सागर में चले पड़े। निस्‍संदेह ''कैपीटल'' ऐसे दिमाग की देन है जिसकी शक्ति अद्भुत आर ज्ञान अगाध है। परन्‍तु मेरे लिये और उन सबके लिये जो मार्क्‍स को अच्‍छी तरह जान चुके हैं, न तो ''कैपीटल'' और न उनकी अन्‍य कोई रचना उनके ज्ञान की पूरी मात्रा को, या उनकी योग्‍यता और अध्‍ययन की महानता को पूरी तरह प्रदर्शित करती है। वह स्‍वयं अपनी रचनाओं से कहीं महान थे।
मैंने मार्क्स के साथ काम किया है। यद्यपि मैं मार्क्‍स का केवल मुंशी था तो भी उनके लिखते समय मुझे यह देखने का अवसर मिला कि वह सोचते और लिखते किस प्रकार थे। उनके लिये उनका काम मुश्किल और साथ ही साथ आसान भी था। आसान इसलिये कि चाहे जो विषय हो, उसके संबंध में तथ्‍य और विचार प्रथम प्रयास में ही बहुतायत से उनके दिमाग में उठ खड़े होते थे। परन्‍तु इसी बाहुल्‍य से उनके विचारों की पूर्ण अभिव्‍यक्ति कठिन हो जाती थी और उन्‍हें परिश्रम अधिक करना पड़ता था।
बीको ने लिखा है, ''केवल सर्वज्ञ ईश्‍वर ही वस्‍तु की वास्‍तविकता को जान सकता है। मनुष्‍य वस्‍तु के बाहरी रूप से अधिक कुछ नहीं जानता!'' मार्क्‍स बीको के ईश्‍वर की भाँति वस्‍तुओं को देखते थे। वह केवल ऊपरी सतह को नहीं देखते थे बल्कि गहराई में जाकर प्रत्‍येक भाग के परस्‍पर संबंधों का निरीक्षण करते, प्रत्‍येक भाग को अलग-अलग करते और उसके विकास के इतिहास का अनुसंधान करते। फिर वस्‍तु के बाद वह उसके वातावरण को लेते और एक दूसरे पर दोनों के असर को देखते। अपने अध्‍ययन के विषय का पहले वह उद्गम देखते, उसमें जो परिवर्तन, विकास और क्रांति हुई है उस पर विचार करते। वह किसी वस्‍तु को अपने ही अस्तित्‍व में पूर्ण अपने वातावरण से अलग नहीं समझते थे, बल्कि संसार को अत्‍यंत जटिल और सदैव गतिशील मानते थे। उसकी विभिन्‍न तथा निरन्‍तर परिवर्तनशील क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के साथ संसार के पूर्ण जीवन की व्‍याख्‍या करना उनका ध्‍येय था। फ्लॉबेअर और डी गॉन्‍क्‍वा के मत के लेखक यह शिकायत करते हैं कि जो कुछ हम देखते हैं उसका सच्‍चा वर्णन करना मुश्किल है। परंतु वे जिसका वर्णन करना चाहते थे वह तो वीको का बताया हुआ बाहरी रूप मात्र है, उस वस्‍तु द्वारा उनके अपने मन पर पड़ी हुई छाप से अधिक किसी बात का वर्णन वे लोग नहीं करना चाहते थे। जिस काम का बीड़ा मार्क्‍स ने उठाया उसके मुकाबले में उनका साहित्यिक काम तो बच्‍चों का खेल था। वास्‍तविक सत्‍य को जानने के लिये, और उसकी इस भाँति व्‍याख्‍या करने के लिये कि दूसरे उसे समझ सकें, असाधारण विचारशक्ति और योग्‍यता की आवश्‍यकता है। मार्क्‍स अपनी रचनाओं में बराबर परिवर्तन करते रहते और सदा यही समझते थे कि व्‍याख्‍या विचार के अनुकूल नहीं हुई। बाल्जाक की एक मनोवैज्ञानिक रचना, ''अज्ञात महान रचना'' का, जिसमें से जोला ने बहुत कुछ चुरा लिया था, उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा क्‍योंकि कुछ हद तक उसमें उनके भावों का वर्णन था। योग्‍य चित्रकार अपने दिमाग में बने हुए चित्र को ठीक वैसा ही बनाने की इच्छा से इतना पागल बना रहता है कि वह तूलिका से बार-बार कपड़े पर रंग लगाता है। यहां तक कि अंत में वह चित्र केवल रंगों का एक रूपहीन मिश्रण बन जाता है। परन्‍तु तब भी चित्रकार की पक्षपातपूर्ण आँखों को वह वास्‍तविकता का निर्दोष चित्र जान पड़ता है।
कुशल विचारक (दार्शनिक) होने के दोनों आवश्‍यक गुण मार्क्‍स में थे। उनमें किसी वस्‍तु को उसके विभिन्‍न अंगों में विभाजित करने की अनुपम शक्ति थी, और वह वस्‍तु को उसके सब अवयवों और विकास के रूपान्‍तरों के साथ पुननिर्माण करने में और उसके आन्‍तरिक संबंधों को खोज निकालने में भी निपुण थे। कुछ अर्थशास्त्रियों ने, जो विचार करने में असमर्थ है, उन पर आरोप किया है कि किसी बात को समझाते समय मार्क्‍स अमूर्त सिद्धांतों से उलझते रहते हैं, ठोस वस्‍तुओं की बात नहीं करते। किन्‍तु यह आरोप सही नहीं है। मार्क्‍स रेखागणित के विद्वानों की विधि का व्‍यवहार नहीं करते, जो अपनी परिभाषा को चारों ओर के संसार से अलग करके असलियत से दूर किसी जगत में अपने निष्‍कर्ष निकालने बैठते हैं। ''कैपीटल'' की विशेषता इस बात में नहीं है कि उसमें विलक्षण परिभाषाएँ अथवा चीजों को समझाने के विलक्षण गुर दिये हुए हैं। ये चीजें हम उस ग्रंथ में नहीं पाते। किन्‍तु उसमें अत्‍यंत सूक्ष्‍म विश्‍लेषणों की लड़ी-सी मिलती है। इन विश्‍लेषणों के द्वारा मार्क्‍स वस्‍तु के क्षणिक से क्षणिक रूप, और मात्रा में होने वाले छोटे से छोटे अंतर अथवा हरेफेर को भी सूक्ष्‍मता से प्रगट कर देते हैं। वह रूप में इस बात को देखते हैं कि जिन समाजों में उत्‍पादन की प्रणाली पूंजीवादी है उनकी संपत्ति माल के विशाल संग्रह के रूप में होती है। माल, यानी स्‍थूल वस्‍तुएँ ही वे अवयव हैं जिनसे पूंजीवादी संपत्ति बनती है, गणित के निर्जीव तथ्‍य नहीं। मार्क्‍स फिर माल की अच्‍छी तरह जाँच-पड़ताल करते हैं। उसे प्रत्‍येक दिशा में घुमाते फिराते है, उलटते पलटते हैं और उसमें से एक के बाद दूसरा भेद निकालते हैं-वे भेद जिनका सरकारी अर्थशास्त्रियों को कभी पता भी नहीं लगा और जो कैथोलिक धर्म के रहस्‍यों से संख्‍या में ज्‍यादा और अधिक गूढ़ हैं। माल का हर ओर से अध्‍ययन करने के बाद वह उसके अन्‍य मालों के साथ संबंध, यानी विनिमय को देखते हैं, फिर उसके उत्‍पादन और उत्‍पादन के लिये आवश्‍यक ऐतिहासिक परिस्थिति को देखते हैं। वह माल के विभिन्‍न रूपों का निरीक्षण करते हैं और यह दिखाते हैं कि एक रूप कैसे दूसरे में बदल जाता है और किस प्रकार एक रूप अवश्‍यमेव दूसरे रूप का जन्‍मदाता होता है। इस क्रिया के विकास का तर्कपूर्ण चित्र इस अपूर्व क्षमता के द्वारा दिखाया गया है कि हम शायद यह समझें कि मार्क्‍स ने उसे गढ़ लिया है। परंतु वह वास्‍तव है और माल की असली गति की ही अभिव्‍यक्ति है।
मार्क्‍स हमेशा बड़ी ईमानदारी से काम करते थे। वह कोई ऐसी बात नहीं लिखते थे जिसे वह प्रमाणित न कर सकें। इस मामले में उन्‍हें उद्धृत कथन से संतोष नहीं होता था। वह सदैव मौलिक स्रोत खोज निकालते थे, उसके लिये चाहे जितना कष्‍ट उठाना पड़े। किसी साधारण-सी चीज की सच्‍चाई की खोज में वह बहुधा ब्रिटिश म्‍यूजिअम जाते थे। इसलिये उनके आलोचक कोई ऐसी त्रुटि नहीं निकाल सके जो लापरवाही के कारण हुई हो, न वे यह दिखा सके कि मार्क्‍स के कोई निष्‍कर्ष ऐसे तथ्‍यों पर आधारित हैं जो जाँच करने से सही न निकलें। मौलिक लेखकों को पढ़ने की उनकी आदत के कारण उन्‍होंने बहुत से ऐसे लेखकों को पढ़ा जो लगभग अज्ञात थे और जिनको केवल मार्क्‍स ने ही उद्धृत किया है। ''कैपीटल'' में अज्ञात लेखकों के इतने उद्धरण हैं कि यह समझा जा सकता है कि उन्‍हें ज्ञान का दिखावा करने के लिये रखा गया है। परन्‍तु मार्क्‍स को बिल्‍कुल दूसरी भावना प्रेरित कर रही थी। वह कहते थे कि ''मैं ऐतिहासिक न्‍याय करता हूँ और प्रत्‍येक मनुष्‍य को जो उचित होता है, दूता हूँ।'' जिसने सबसे पहले एक विचार की अभिव्‍यक्ति की थी अथवा औरों से अधिक सच्‍चाई से अभिव्‍यंजना की थी, उस लेखक का नाम लिखना वह अपना कर्त्तव्‍य समझते थे, चाहे वह कितना ही साधारण और अज्ञात क्‍यों न हो।
उनका साहित्यिक अन्‍त:करण उनके वैज्ञानिक अन्‍त:करण से कम न्‍यायप्रिय नहीं था। जिस तथ्‍य की सत्‍यता का उन्‍हें पूरा भरोसा नहीं होता था उसका वह कभी विश्‍वास नहीं करते थे, बल्कि जब तक किसी विषय का पूरा अध्‍ययन न कर लें तब तक वह उसके बारे में बोलते ही न थे। जब तक वह अपना लेख बार-बार पढ़ नहीं लेते थे और जब तक उसका रूप संतोषजनक नहीं हो जाता था, तब तक वह कुछ भी नहीं छपवाते थे। पाठकों के सामने अपने अधूरे विचार रखना उनके लिये असह्य था। पूरी तरह दुहराये बिना अपनी पुस्‍तक दिखाने में उनको अत्‍यन्‍त कष्‍ट होता। उनकी यह भावना इतनी प्रबल थी कि उन्‍होंने मुझसे कहा कि अधूरा छोड़ने की अपेक्षा मैं अपनी पुस्‍तकों को जला देना पसन्‍द करूँगा। उनके काम करने के तरीके की वजह से उन्‍हें बहुत बार ऐसी मेहनत करनी पड़ती जिसका अनुभव उनकी पुस्‍तकों के पाठकों को मुश्किल से हो सकता है। जैसे इंग्‍लैण्‍ड के कारखानों के संबंध में पार्लियामेंट के बनाये हुए नियमों के बारे में ''कैपीटल'' में लगभग बीस पन्‍ने लिखने के लिये उन्‍होंने जाँच की समितियों तथा अंग्रेजी और स्‍कॉटलैण्‍ड की मिलों के इन्‍सपेक्‍टरों की लिखी हुई सरकारी रिपोर्टों का एक पूरा पुस्‍तकालय पढ़ डाला। पेन्सिल के निशानों से मालूम होता है कि उन्‍होंने इन्‍हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ा था। उनका विचार था कि ये पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली के विषय में सबसे महत्‍वपूर्ण और उपयोगी कागजों में से थे। जिन आदमियों ने इन्‍हें तैयार किया था उनके बारे में मार्क्‍स की बहुत अच्‍छी राय थी। मार्क्‍स कहते थे कि अन्‍य देशों में ऐसे आदमी शायद ही मिल सकेंगे जो, ''इतने योग्‍य, इतने पक्षपात रहित और बड़े आदमियों के डर से इतने मुक्‍त हों, जितने कारखानों के अंग्रेज इन्‍सपेक्‍टर होते हैं''। ''कैपीटल'' के पहले भाग की भूमिका में यह असाधारण प्रशंसा लिखी मिलेगी।
मार्क्‍स ने इन सरकारी पुस्तिकाओं में से अनेक तथ्‍य निकाले। ये पुस्तिकाएँ हाउस ऑफ कामन्‍स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्‍यों को बाँटी जाती थीं। वे लोग इनको निशाना बना कर इस बात से अपने हथियारों की शक्ति का अनुमान किया करते थे कि गोली ने कितने पन्‍नों को पार किया। कुछ लोग तोल के हिसाब से इन्‍हें रद्दी कागजों में बेच देते थे। यह उपयोग सबसे अच्‍छा था क्‍योंकि इसके कारण मार्क्‍स को अपने लिये लौंग एकर के एक रद्दी बेचने वाले कबाड़ी से ये पुस्तिकाएँ सस्‍ते दामों में मिल गयीं। प्रोफेसर बीजले का कहना है कि मार्क्‍स ही एक ऐसा आदमी था जो इन सरकारी छानबीनों की ज्‍यादा कदर करता था और उसी ने दुनिया में इनकी जानकारी फैलायी। परन्‍तु बीजले को यह नहीं मालूम था कि सन 1845 में एगेल्‍स ने इन अंग्रेजी सरकारी पुस्‍तकाओं में से अपने लेख ''सन 1844 में इंग्‍लैण्‍ड में मजूदर-वर्ग की दशा'' के लिये बहुत से अंश लिये थे।

2
जो मार्क्‍स के मानव हृदय को जानता चाहते है, उस हृदय को जो विद्वत्ता के बाहरी आचरण के भीतर भी इतना स्निग्‍ध था, उन्‍हें मार्क्‍स को उस समय देखना चाहिये जब उनकी पुस्‍तकें और लेख अलग रख दिये जाते थे, जब वह अपने परिवार के साथ होते थे और जब वह रविवार की शाम को अपनी मित्र मंडली में रहते थे। ऐसे समय में वह बड़े अच्‍छे साथी साबित होते थे। हँसी मजाक तो जैसे उमड़ा पड़ता था। उनकी हँसी दिखावटी नहीं होती थी। कोई मौके का जवाब या चुटीला वाक्‍य सुनकर घनी भौहों वाली उनकी काली आँखें खुशी से चमकने लगती थीं।
वह बड़े स्‍नेहपूर्ण, दयालु और उदार पिता थे। वह बहुधा कहते थे कि ''माँ-बाप को अपने बच्‍चों से शिक्षा लेनी चाहिये''। उनकी लड़कियाँ उनसे बड़ा स्‍नेह करती थी और उनके आपस के संबंध में पैतृक शासन लेशमात्र भी नहीं था। वह उन्‍हें कभी कुछ करने की आज्ञा नहीं देते थे। केवल उनसे अपने लिये कोई काम करने का अनुरोध करते या जो उन्‍हें नापसन्‍द होता वह न करने की उनसे प्रार्थना करते। परन्‍तु फिर भी शायद ही कभी किसी पिता की सलाह उनसे अधिक मानी गयी होगी। उनकी लड़कियाँ उन्‍हें अपना मित्र समझती थीं और उनके साथ अपने साथी के समान बर्ताव करती थी। वह उन्‍हें पिताजी नहीं बल्कि 'मूर' कहती थीं। उनके साँवले रंग, काले बाल और काली दाढ़ी के कारण उन्‍हें यह उपनाम दिया गया था। परन्‍तु इसके विपरीत सन 1848 तक में, जब वह तीस बरस के भी नहीं थे, कम्युनिस्ट लीग के अपने साथी सदस्‍यों के लिये वह 'बाबा मार्क्‍स' थे।
अपने बच्‍चों के साथ खोलते हुए वह घंटों बिता देते थे। बच्‍चों को अभी तक वह समुद्री लड़ाइयाँ और कागजी नावों के उस पूरे बेड़े का जलाना याद है जिसे मार्क्‍स बच्‍चों के लिए बनाते थे और पानी की बाल्‍टी में छोड़कर उसमें आग लगा देते थे। इतवार को लड़कियाँ उन्‍हें काम नहीं करने देती थीं। उस रोज वह दिन भर के लिये बच्‍चों के हो जाते थे। जब मौसम अच्‍छा होता था तो पूरा कुटुम्‍ब देहात की ओर घूमने जाता था। रास्‍ते के किसी होटल में रुककर पनीर, रोटी और जिंजर बीअर का साधारण भोजन होता। जब बच्‍चे बहुत छोटे थे तो वह रास्‍ते भर उन्‍हें कहानियाँ सुनाते रहते जिससे वे थकें नहीं। वह उन्‍हें कभी न खत्‍म होने वाली कल्‍पनापूर्ण परियों की कहानियाँ सुनाते थे, जिन्‍हें वह चलते-चलते गढ़ते जाते थे। और रास्‍ते की लम्‍बाई के अनुसार उन्‍हें घटाते-बढ़ाते रहते थे ताकि सुनने वाले अपनी थकान भूल जायें। मार्क्‍स की कल्‍पना शक्ति बड़ी समृद्ध और काव्‍यपूर्ण थी और अपने प्रथम साहित्यिक प्रयास में उन्‍होंने कविताएँ लिखी थीं। उनकी स्‍त्री इन युवावस्‍था की कविताओं का बड़ा आदर करती थीं परन्‍तु किसी को देखने नहीं देती थीं। मार्क्‍स के माँ-बाप अपने लड़के को साहित्यिक या विश्‍वविद्यालय का अध्‍यापक बनाना चाहते थे। उनके विचार से अपने को साम्‍यवादी आन्‍दोलन में लगाकर और अर्थशास्‍त्र के अध्‍ययन में लगकर (इस विषय का उस समय जर्मनी में बहुत कम आदर किया जाता था) मार्क्‍स अपने को नीचा कर रहे थे।
मार्क्‍स ने एक बार अपनी लड़कियों से ग्राची के बारे में नाटक लिखने का वादा किया था। दुर्भाग्‍यवश यह इरादा कभी पूरा नहीं हुआ। यह देखना बड़ा मनोरंजक होता कि 'वर्ग-संघर्ष का योद्धा' (मार्क्‍स को यही कहा जाता था) प्राचीन संसार के वर्ग-संघर्षों की इस भयानक और उज्‍ज्वल घटना को कैसे दिखाता। यह अनेक योजनाओं में से केवल एक थी जो कभी पूरी नहीं हो सकी। उदाहरणार्थ वह तर्कशास्‍त्र पर एक पुस्‍तक लिखना चाहते थे और एक दर्शनशास्‍त्र के इतिहास पर। दर्शन युवाकाल में उनके अध्‍ययन का प्रिय विषय था। अपनी योजना की हुई सब किताबों को लिखने का अवसर पाने और संसार को अपने दिमाग में भरे हुए खजाने का एक अंश दिखाने के लिये उन्‍हें कम से कम सौ बरस तक जीने की जरूरत होती।
उनके जीवन भर उनकी स्‍त्री उनकी सच्ची और वास्‍तविक साथी रही। वे एक दूसरे को बचपन से जानते थे और साथ-साथ बड़े हुए थे। जब उनकी सगाई हुई तो मार्क्‍स केवल सत्रह बरस के थे। सन 1843 में उनकी शादी हुई। किन्‍तु उसके पहले उन्‍हें नौ बरस तक इंतजार करना पड़ा था। पर उसके बाद श्रीमती मार्क्‍स के देहान्‍त तक-जो उनके पति से कुछ ही समय पहले हुआ- वे कभी अलग नहीं हुए। यद्यपि उनका जन्‍म और पालन पोषण एक अमीर जर्मन घराने में हुआ था, तो भी उनकी सी समता की प्रबल भावना होना कठिन है। उनके लिये सामाजिक अंतर और विभाजन थे ही नहीं। उनके घर में खाने के लिये अपने काम के कपड़े पहने हुए एक मजदूर का उतनी ही नम्रता और आदर से स्‍वागत होता था जितना किसी राजकुमार या नवाब का होता। अनेक देश के मजूदरों ने उनके आतिथ्‍य का सुख पाया। मुझे विश्‍वास है कि जिनका उन्‍होंने इतनी सादगी और सच्‍ची उदारता से सत्‍कार किया उनमें से किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका सत्‍कार करने वाले की ननसाल आरगाइल के ड्यूकों के वंश में थी और उसका भाई प्रशा के राजा का राजमंत्री रह चुका था। किंतु इन सब चीजों का श्रीमती मार्क्‍स के लिये कोई महत्‍व भी नहीं था। अपने कार्ल का अनुसरण करने के लिये उन्‍होंने इन सब चीजों को छोड़ दिया था और उन्‍होंने अपने किये पर कभी पछतावा नहीं किया, अपनी दरिद्रता के सबसे बुरे दिनों में भी नहीं।
उनका स्‍वभाव धैर्यवान और हंसमुख था। मित्रों को लिखे हुए उनके पत्र उनकी सरल लेखनी के अकृत्रिम उद्गारों में भरे होते थे और उनमें एक मौलिक और सजीव व्‍यक्तित्‍व की झाँकी मिलती है। जिस दिन उनका पत्र आता था उस दिन उनके मित्र खुशी मनाते थे। जोहान फिलिप बेकर ने उनमें से बहुतों को छापा है। निष्‍ठुर व्‍यंग लेखक, हाइने मार्क्‍स की खिल्‍ली उड़ाने की आदत से डरता था। परन्‍तु श्रीमती मार्क्‍स की पैनी बुद्धि की वह बड़ी तारीफ करता था। जब मार्क्‍स दम्‍पत्ति पैरिस में ठहरे तो वह बहुत बार उनके यहाँ आता। मार्क्‍स अपनी स्‍त्री की बुद्धि व आलोचना-शक्ति का इतना आदर करते थे कि (जैसा उन्‍होंने मुझे सन 1866 में बताया) अपने सब लेखों को वह उन्‍हें दिखाते थे और उनके विचारों को बहुमूल्‍य समझते थे। छापेखाने में जाने से पहले वही उनके लेखों की नकल कर दिया करती थीं।
श्रीमती मार्क्‍स के बहुत से बच्‍चे हुए। उनके तीन बच्‍चे उनकी दरिद्रता के उस जमाने में बचपन में ही मर गये जिसका उनके कुटुम्‍ब को सन 1848 की क्रांति के बाद सामना करना पड़ा। उस समय वे भागकर लंदन में सोहो स्‍क्‍वेअर की डीन स्‍ट्रीट पर दो कमरों में रहते थे। मेरी उनकी केवल तीन लड़कियों से जान-पहचान हुई। सन 1868 में जब मार्क्‍स से मेरा परिचय हुआ तो उनमें से सबसे छोटी, जो अब श्रीमती एवलिंग हैं, बड़ी प्‍यारी बच्‍ची थी और लड़की से ज्‍यादा लड़का मालूम होती थी। मार्क्‍स बहुधा हँसी में कहा करते थे कि इलीनोर को दुनिया को भेंट करते समय उनकी स्‍त्री ने उसके लिंग के बारे में गलती कर दी है। बाकी दोनों लड़कियाँ एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी बड़ी सुन्‍दर और आकर्षक थीं। उनमें से बड़ी, जो अब श्रीमती लौंगुए हैं, अपने बाप की तरह पक्‍के रंग की थी औ उसकी आँखें और बाल काले थे। छोटी, जो अब श्रीमती लाफार्ज हैं, अपनी मां के ऊपर थी। उसका रंग गोरा और गाल गुलाबी थे और सिर पर घुंघराले बालों की घनी लट थी जिसकी सुनहरी चमक से मालूम होता था कि उसमें डूबता सूरज छिपा हो।
इसके अलावा मार्क्‍स-परिवार में एक और महत्‍वपूर्ण प्राणी था जिसका नाम हेलेन डेमुथ था। वह किसान परिवार में जन्‍मी थी और काफी छोटी उम्र में ही, जेनी फौन वेस्‍टफेलन की कार्ल मार्क्‍स के साथ शादी होने के बहुत पहले ही, वह वेस्‍टफेलन परिवार में नौकर हो गयी थी। जब जेनी की शादी हुई तो हेलेन उसने मार्क्‍स परिवार के भाग्‍य का अनुसरण किया। यूरोप-भर में यात्राओं में वह मार्क्‍स और उनकी स्‍त्री के साथ गयी और उनके सब देश निकालों में उनके साथ रही। वह घर की कार्यशीलता की मूर्तिमान भावना थी और यह जानती थी कि मुश्किल से मुश्किल हालत में किस तरह काम चलाना चाहिये। उसकी किफायत, सफाई और चतुराई के ही कारण परिवार को दरिद्रता की सबसे बुरी दशा नहीं भोगनी पड़ी। वह घरेलू कामों में निपुण थी। वह रसोई बनाने वाली और नौकरानी का काम करती थी, बच्‍चों को कपड़े पहनाती थी, बच्‍चों के लिये कपड़े काटती थी और श्रीमती मार्क्‍स की मदद से उन्‍हें सीती भी थी। वह घर चलाती थी और साथ ही साथ मुख्‍य नौकरानी भी थी। बच्‍चे उसे अपनी माँ के समान प्‍यार करते थे। वह भी उसी तरह उन्‍हें प्‍यार करती थी और उनपर उसका माँ जैसा ही असर था। मार्क्‍स तथा उनकी स्‍त्री दोनों उसे एक प्रिय मित्र मानते थे। मार्क्‍स उसके साथ शतरंज खेला करते थे और बहुत बार हार जाते थे। मार्क्‍स-परिवार के लिये हेलेन का प्रेम आलोचनात्‍मक नहीं था। जो कोई मार्क्‍स की बुराई करता उसकी हेलेन के हाथों खैर न थी। जिसका भी कुटुम्‍ब से घना संबंध हो जाता था उसकी वह माँ की तरह देखभाल करने लगती थी। यह कहना चाहिये कि उसने पूरे परिवार को गोद ले लिया था। मार्क्‍स और उनकी स्‍त्री के बाद जीवित रहकर अब उसने अपना ध्‍यान और देखभाल एंगेल्‍स के ऊपर लगा दी है। उसका युवावस्‍था में एंगेल्‍स से परिचय हुआ था और उनसे भी वह उतना ही स्‍नेह करती थी। जितना मार्क्‍स के परिवार से।
इसके अलावा यह कहना चाहिये कि एंगेल्‍स भी मार्क्‍स के कुनबे का ही एक आदमी था। मार्क्‍स की लड़कियाँ उन्‍हें अपना दूसरा पिता कहती थीं। वह और मार्क्‍स एक प्राण दो काया के समान थे। जर्मनी में बरसों तक उनका नाम साथ-साथ लिया जाता था और इतिहास के पन्‍नों में उनका सदा साथ-साथ लिखा जायगा। मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने प्राचीन काल के लेखकों द्वारा चित्रित मित्रता के आदर्श को आधुनिक युग में पूरा कर दिखाया। उनकी युवावस्‍था में भेंट हुई, उनका साथ ही साथ विकास हुआ, उनके विचारों और भावों में सदैव बड़ी घनिष्‍ठता रही, दोनों ने एक ही क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया और जब तक वे साथ रह सके दोनों साथ-साथ काम करते रहे। यदि परिस्थिति ने उन्‍हें अलग न कर दिया होता तो संभवत: वे जीवन भर साथ रहते।
सन 1848 की क्रांति के दमन के बाद एंगेल्‍स को मेंचेस्‍टर जाना पड़ा और मार्क्‍स को लंदन में रहना पड़ा। फिर भी चिट्ठी-पत्री द्वारा अपने बौद्धिक जीवन की घनिष्‍ठता उन्‍होंने बनाये रखी। लगभग हर रोज वे एक दूसरे को राजनीतिक और वैज्ञानिक घटनाओं, और जिस काम में वे लगे थे उसके बारे में लिखते रहते थे। जैसे ही एंगेल्‍स को मेंचेस्‍टर से अपने काम से फुरसत मिली उन्‍होंने लंदन में अपने प्रिय मार्क्‍स से केवल दस मिनिट के रास्‍ते की दूरी पर अपना घर बनाया। सन 1870 से सन 1883 में मार्क्‍स की मृत्‍यु तक मुश्किल से कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब वे दोनों घरों में से एक घर में आपस में न मिलते हों।
जब कभी एंगेल्‍स मेंचेस्‍टर से आने का इरादा प्रकट करते थे, तो मार्क्‍स के परिवार में बड़ी खुशी मनायी जाती थी। बहुत दिन पहले ही उनके आने के बारे में बातचीत होने लगती थी। और आने के दिन तो मार्क्‍स इतने अधीर हो जाते थे कि वह काम नहीं कर सकते थे। अंत में भेंट का समय आता था और दोनों मित्र सिगरेट और शराब पीते और पिछली भेंट के बाद जो कुछ हुआ उसकी बातें करते हुए सारी रात बिता देते थे।
एंगेल्‍स की राय को मार्क्‍स और सब की सम्‍मति से ज्‍यादा मानते थे। एंगेल्‍स को वह अपने सहयोगी होने के योग्‍य समझते थे। सच तो यह है कि एंगेल्‍स उनके लिये पूरी पाठक-मंडली के बराबर थे। एंगेल्‍स को समझाने के लिये या किसी विषय पर उनकी राय बदलने के लिये मार्क्‍स किसी भी परिश्रम को अधिक नहीं समझते थे। उदाहरणार्थ, मुझे मालूम है कि एल्बिजेन्सिज की राजनीतिक और धार्मिक लड़ाई के बारे में किसी साधारण बात पर (मुझे अब याद नहीं आता कि वह क्‍या बात थी) एंगेल्‍स का विचार बदलने के उद्देश्‍य से तथ्‍य ढूंढ़ने के लिये उन्‍होंने कई बार पूरी पुस्‍तकें पढ़ीं। एंगेल्‍स का मत परिवर्तन कर लेना उनके लिये एक बड़ी विजय होती थी।
मार्क्‍स को एंगेल्‍स पर गर्व था। उन्‍होंने बड़ी खुशी के साथ मुझे अपने मित्र के नैतिक व बौद्धिक गुण गिनाये और, केवल उनसे मेरी भेंट कराने के लिये, उन्‍होंने मेंचेस्‍टर तक यात्रा की। वह एंगेल्‍स के ज्ञान की बहुमुखता की बड़ी तारीफ करते थे और उन्‍हें इसकी चिंता रहती थी कि कहीं उनके साथ कोई दुर्घटना न हो जाय। मुझसे मार्क्‍स ने कहा कि मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि खेतों में से पागलों की तरह तेज घोड़ा दौड़ाने में वह कहीं गिर न जाये।
मार्क्‍स जैसे स्‍नेही पति व पिता थे वैसे ही अच्‍छे मित्र भी थे। उनकी स्‍त्री, उनकी लड़कियाँ, हेलेन डेमुथ और फ्रेडरिक एंगेल्‍स उन जैसे आदमी के स्‍नेह के योग्‍य थे।
3
मार्क्‍स ने अपना जीवन उग्र पूंजीवादी दल के नेता के रूप में शुरू किया था परन्‍तु जब उनके विचार बहुत साफ हो गये तो उन्‍होंने देखा कि उनके पुराने साथियों ने उनको छोड़ दिया और उनके समाजवादी होते ही उनके साथ दुश्‍मन जैसा बर्ताव करने लगे। उनके विरुद्ध बड़ा शोर मचाया गया, उनकी बुराई की गयी और उनपर अनेक आक्षेप किये गये, और फिर उन्‍हें जर्मनी से निकाल दिया गया। इसके बाद उनके और उनकी रचनाओं के विरुद्ध मौन रहने का षडयंत्र रचा गया। उनकी पुस्‍तक ''लुई नैपोलियन की 18वीं ब्रमेअर'' का पूरा बहिष्‍कार कर दिया गया। उस पुस्‍तक ने यह सिद्ध कर दिया कि सन 1848 के सब इतिहासकारों और लेखकों में एक मार्क्‍स ही थे जिन्‍होंने दूसरी दिसम्‍बर सन 1851 की राजनीतिक क्रांति के कारणों और परिणामों की असलियत को समझा और उसका वर्णन किया था। उसकी सच्‍चाई के बावजूद एक भी पूंजीवादी पत्रिका ने इस रचना का उल्‍लेख तक नहीं किया। ''दर्शनशास्‍त्र की दरिद्रता'' (जो प्रूधों की पुस्‍तक ''दरिद्रता का दर्शनशास्‍त्र'' का उत्तर थी) और ''अर्थशास्‍त्र की आलोचना'' का भी बहिष्‍कार किया गया। विश्‍व मजदूर संघ की (पहले इंटरनेशनल की) स्‍थापना और ''कैपीटल'' के पहले भाग के छपने से पंद्रह बरस से चलने वाले इस षड्यंत्र को तोड़ दिया था। मार्क्‍स की अब अवहेलना नहीं की जा सकती थी। विश्‍व संघ बढ़ा और अपने कामों की बड़ाई से उसने दुनिया को भर दिया। यद्यपि अपने को पीछे रखकर मार्क्‍स ने दूसरों को प्रमुख कार्यकर्त्ता होने दिया पर संचालक का पता जल्‍दी ही लग गया। जर्मनी में सामाजिक जनवादी दल की स्‍थापना हुई और वह जल्‍दी ही इतना बलवान हो गया कि उस पर हमला करने के पहले बिस्‍मार्क ने उसकी खुशामद की। लास्‍साल के एक चेले श्‍वीट्जर ने एक लेखमाला लिखी, (जिसे मार्क्‍स ने भी उल्‍लेखनीय समझा) जिसने मजदूर वर्ग के नेताओं को 'कैपीटल' का ज्ञान कराया। इंटरनेशनल कांग्रेस ने जोहान फिलिप बेकर का प्रस्‍ताव पास किया कि इस किताब को अंतरराष्‍ट्रीय सोशलिस्‍टों को मजदूर वर्ग का धर्म- ग्रंथ समझना चाहिये।
18 मार्च सन 1871 के विद्रोह के बाद जिसने विश्‍व संघ के आदेशानुसार चलने की कोशिश की थी और कम्‍यून की पराजय के बाद, (जिसको विश्‍व संघ की सार्वजनिक सभा ने सब देशों के पूँजीवादी अखबारों के आक्षेपों से बचाया) मार्क्‍स का नाम दुनिया भर में विख्‍यात हो गया। अब सारे संसार में उनको वैज्ञानिक समाजवाद का अज्ञेय सिद्धांतेवत्ता और प्रथम अंतरराष्‍ट्रीय मजूदर आंदोलन का नेता मान लिया गया। हर देश में ''कैपीटल'' समाजवादियों की मुख्‍य पुस्‍तक हो गयी। सब समाजवादी और मजदूर पत्रिकाओं ने उनके सिद्धांतों को फैलाया और न्‍यूयार्क की एक बड़ी हड़ताल में मजूदरों को दृढ़ रहने की प्रेरणा देने के लिये और उनको अपनी माँगों की न्‍यायपूर्णता दिखाने के लिये मार्क्‍स के लेखों के उद्धरण इश्तिहारों के रूप में छापे गये। ''कैपीटल'' का जर्मन से और प्रमुख यूरोपीय भाषाओं (रूसी, फ्रेंच व अंग्रेजी में) अनुवाद किया गया। किताब के उद्धरण जर्मन, इटालियन, फ्रेंच, स्‍पैनिश और डच भाषा में छपे। जब कभी भी यूरोप या अमरीका में विरोधियों ने मार्क्‍स के सिद्धांतों का खंडन करने की कोशिश की है, तो समाजवादी अर्थशास्‍त्री उसका उपयुक्‍त उत्तर दे सके हैं। आज तो वास्‍तव में जैसा विश्‍व संघ के उपरोक्‍त अधिवेशन ने कहा था, ''कैपीटल'' सर्वहारा वर्ग का धर्म-ग्रंथ हो गया है।
परन्‍तु अंतरराष्‍ट्रीय समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लेने से मार्क्‍स को अपने वैज्ञानिक अध्‍ययन के लिये बहुत कम समय बचता था। और उनकी स्‍त्री तथा बड़ी लड़की, श्रीमती लौंगुएँ, की मृत्‍यु ने इस काम में और भी घातक विघ्न डाला।
मार्क्‍स तथा उनकी स्‍त्री का संबंध अत्‍यंत घनिष्‍ठ और परस्‍पर निर्भरता का था। उसकी सुंदरता पर मार्क्‍स को खुशी और अभिमान था और उसकी भक्ति ने उनके लिये उस गरीबी को सहना आसान कर दिया था जो उनके क्रांतिकारी समाजवादी के तरह-तरह के जीवन का आवश्‍यक अंग थी। जिस बीमारी ने श्रीमती मार्क्‍स को कब्र तक पहुंचाया उसने उनके पति के जीवन को भी कम क‍र दिया। उनकी लंबी और दुखदायी बीमारी में मार्क्‍स थक गये-दुख से मानसिक रूप में, और न सोने से और हवा और कसरत की कमी से शारीरिक रूप में। इन्‍हीं कारणों से उनके फेफड़ों में आसानी से वह सूजन हो गयी जो कि उनकी भी मृत्‍यु का कारण हुई।
श्रीमती मार्क्‍स का दूसरी दिसम्‍बर सन 1881 को देहांत हुआ। मरते दम तक वह कम्‍युनिस्‍ट और भौतिकतावादी रहीं। उन्‍हें मृत्‍यु से कोई डर नहीं लगता था। जब उन्‍हें अंत समय निकट जान पड़ा तो उन्‍होंने कहा, ''कार्ल, मेरी ताकत खत्‍म हो गयी''। यही उनके अंतिम शब्‍द थे जो सुने जा सके। पाँचवी दिसम्‍बर को हाईगेट के कब्रिस्‍तान की अधार्मिक भूमि में उनको दफनाया गया। जीवन भर के उनके विचारों और उनके पति की सम्‍‍मति के अनुसार जनाजे को सार्वजनिक नहीं बनाया गया और शव के अंतिम निवास-स्‍थान तक केवल थोड़े से घनिष्‍ठ मित्र साथ गये। कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्‍स ने कहा :
''मित्रो! जिस ऊँचे विचार वाली स्‍त्री को हम यहाँ दफना रहे हैं वह सन 1814 में साब्‍जवीडल में पैदा हुई थी। कुछ ही दिन बाद इनके पिता बैरन फौन वेस्‍टफेलन राज्‍य के मंत्री नियुक्‍त हुए और उनकी ट्रेव्‍स को बदली हो गयी और वहाँ वे मार्क्‍स के परिवार के गाढ़े दोस्‍त हो गये। बच्‍चे साथ-साथ बड़े हुए। दोनों प्रतिभाशाली स्‍वभावों ने एक दूसरे को पाया। जब मार्क्‍स विश्‍वविद्यालय में गये तब इन दोनों ने अपने जीवन को एक सूत्र में बांधने का निश्‍चय कर लिया था।
''पहले राइनिश जाइटुंग के दमन के बाद, जिसके कुछ समय तक मार्क्‍स सम्‍पादक थे, सन 1843 में उनका विवाह हो गया। तब से जेनी मार्क्‍स ने अपने पति के भाग्‍य, परिश्रम और संघर्ष में हिस्‍सा ही नहीं लिया बल्कि अच्‍छी तरह समझकर और बड़े जोश से उनमें हाथ बँटाया।
"तरुण दम्‍पति पैरिस गये क्‍योंकि उनको देश निकाला, जो पहले उनकी अपनी इच्‍छा के कारण था, अब वास्‍तव में मिल गया। प्रशा की सरकार ने मार्क्‍स का वहाँ भी पीछा न छोड़ा। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अलैक्‍जेंडर फौन हमबोल्‍ड्ट जैसे आदमी ने भी मार्क्‍स के निर्वासन की आज्ञा जारी करने में सक्रिय भाग लिया। मार्क्‍स के कुटुम्‍ब को ब्रूसेल्‍स भागना पड़ा। इसके बाद फरवरी की क्रान्ति हुई। उसके बाद जो गड़बड़ फैली उससे ब्रूसेल्‍स भी अछूता न बचा और बेल्जियम की सरकार सिर्फ मार्क्‍स को कैद करने से संतुष्‍ट नहीं हुई बल्कि उसने उनकी पत्‍नी को भी बिना कारण जेल में डालना उचित समझा।
''जो क्रान्तिकारी प्रगति सन 1848 के आरम्‍भ में शुरू हुई थी वह अगले साल ही खत्‍म हो गयी। निर्वासन फिर शुरू हुआ-पहले तो पैरिस में और फिर फ्रांस की सरकारी दुबारा कोशिश से लन्‍दन में। इस बार तो जेनी मार्क्‍स के लिए यह सचमुच का निर्वासन था और उन्‍हें निर्वासन के सब दु:ख झेलने पड़े। फिर भी उन्‍होंने भौतिक कठिनाइयों को शांति से सहा यद्यपि इसके कारण उनको अपने दो लड़कों व एक लड़की की मौत के मुँह में जाते हुए देखना पड़ा। उनको इससे घोर दु:ख इस बात का हुआ कि सरकार और पूँजीवादी विरोधी दल, झूठे उदारपंथियों से लेकर जनवादियों तक, सब उनके पति के विरुद्ध एक बड़े भारी षड्यंत्र में मिल गये थे। उन लोगों ने मार्क्‍स पर अत्‍यन्‍त घृणित और नीच दोष लगाये थे। सब अखबारों ने उनका बहिष्‍कार कर दिया जिससे कुछ समय तक वह ऐसे दुश्‍मन के सामने निहत्‍थे खड़े रहे जिसे वह और उनकी स्‍त्री केवल घृणित ही मान सकते थे। और यह दशा बहुत समय तक रही।
''परन्‍तु इस परिस्थिति का भी अंत हुआ। यूरोप के सर्वहारा वर्ग को थोड़ी बहुत स्‍वतंत्रता मिली और इंटरनेशनल (विश्‍व संघ) की स्‍थापना की गयी। मजदूरों का वर्ग-संघर्ष एक देश से दूसरे देश में फैला और कार्ल मार्क्‍स, अगुओं के भी अगुआ होकर लड़े। मार्क्‍स पर किये गये आरोपों को श्रीमती मार्क्‍स ने हवा के सामने भूसे की तरह उड़ते देखा। सामन्‍तवादियों से लेकर जनवादियों तक, सब विभिन्‍न प्रतिगामियों ने जिस सिद्धांत का दमन करने के लिये इतनी मेहनत की थी, उनको उन्‍होंने सारे सभ्‍य संसार की भाषाओं में खुले आम प्रतिपादित होते देखा। मजूदर-आंदोलन उनके प्राणों का प्राण था, उसे उन्‍होंने रूस से अमरीका तक पुरानी दुनिया की नींव को हिलाते हुए देखा और प्रबल विरोध के होते हुए भी विजय के अधिकाधिक विश्वास के साथ आगे बढ़ते देखा। राइशटाग के (जर्मन पार्लियामेण्‍ट के) पिछले चुनाव में जर्मन मजदूरों ने अपनी अपार शक्ति का जो प्रबल प्रमाण दिया उसे देखकर उन्‍होंने अपार संतोष का अनुभव किया।
''जिस स्‍त्री की बुद्धि इतनी तीक्ष्‍ण और आलोचनात्‍मक थी, जिसे इतनी राजनीतिक समझ थी, जिसमें इतना उत्‍साह और शक्ति थी, मजदूर आंदोलन के अपने साथी योद्धाओं के लिये जिसके मन में इतना स्‍नेह था, ऐसी स्‍त्री ने पिछले चालीस बरसों में क्‍या-क्‍या किया, यह जनता को मालूम नहीं है। यह सम-सामयिक अखबारों के पन्‍नों में अंकित नहीं है। यह सिर्फ उन्‍हें मालूम है जिन्‍होंने इस सबका अनुभव किया है। परन्‍तु इसका मुझे भरोसा है कि कम्‍यून के दमन के बाद भागे हुए आदमियों की स्त्रियाँ बहुत बार उन्‍हें याद करेंगी और हम में से बहुत से उनकी चतुर और साहसपूर्ण सलाह की कमी को दुख से याद करेंगे, जो साहसपूर्ण होती थी परन्‍तु गर्वपूर्ण नहीं, चतुर होती थी परन्‍तु असम्‍मानजनक नहीं।
''मुझे उनके निजी गुणों के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उनके मित्र उन्‍हें जानते हैं और उन्‍हें सदा याद रखेंगे। यदि कभी कोई ऐसी स्‍त्री थी जिसे दूसरों को सुखी बनाने में ही चरम सुख मिलता था तो वह श्रीमती मार्क्‍स थी।''
अपनी स्‍त्री की मौत के बाद मार्क्‍स का जीवन शारीरिक और नैतिक दुख से भारी हो उठा किन्‍तु वह उसे धैर्य से सहते रहे। पर जब साल भर बाद उनकी बड़ी लड़की श्रीमती लौंगुए भी चल बसीं तो यह दुख बहुत बढ़ गया। उनका दिल टूट गया और वे इस शोक को न भूल सके। चौदह मार्च सन 1883 को 67वें वर्ष में वह अपने काम करने की मेज के सामने बैठे हुए सदा के लिये सो गये।
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मार्क्‍स की स्‍मृतियाँ
लेखक - विलहेम लीबनेख्‍ट
1. मार्क्‍स से पहली भेंट
मार्क्‍स की दोनों बड़ी लड़कियों के साथ जिनमें एक छ: और एक सात बरस की थी मेरी दोस्‍ती सन 1850 की गर्मियों में स्विजरलैण्‍ड से लंदन आने के बाद शुरू हुई। सच पूछिये तो मैं ''स्‍वतंत्र स्विजरलैण्‍ड'' के एक कारागार में से आया था क्‍योंकि मुझे निर्वासन का 'पार्सपोर्ट' देकर फ्रांस के रास्‍त्‍ो बाहर भेज दिया गया था। मैं मार्क्‍स के परिवार से कम्युनिस्ट मजूदरों के शिक्षात्‍मक संघ की एक गर्मियों की यात्रा में लंदन के पास कहीं मिला था, मुझे याद नहीं ग्रीनिच में या हैम्‍पटन कोर्ट में। 'बाबा मार्क्‍स' ने, जिन्‍हें मैंने पहली बार देखा था, तुरंत मेरा पूरा निरीक्षण किया, मुझे घूर कर देखा और ध्‍यान से मेरे सिर की जाँच की। इस बात की तो मुझे पहले से ही गस्‍टाव स्‍टूव के कारण आदत थी। वह मेरी नैतिक दृढ़ता के बारे में बहुत दिनों तक शक करते रहे इसलिये मेरे ऊपर विशेष रूप से वह दिमाग की बनावट के विज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग किया करते थे। खैर, परीक्षा सफलता से समाप्‍त हुई। मैंने काली भुजंग गरदन के शेर जैसे सिर वाले मार्क्‍स की दृष्टि को सह लिया। अब परीक्षा का स्‍थान सजीव और हँसी की बातचीत ने ले लिया। थोड़ी देर में हम लोग मनोरंजन में लग गये। मार्क्‍स सबसे ज्‍यादा खुश थे। तभी श्रीमती मार्क्‍स, युवावस्‍था से परिवार की वफादार नौकरानी लेन्‍चन और बच्‍चों से मेरा परिचय हुआ।
उस दिन से मैं मार्क्‍स के घर में घुलमिल गया। मैं उस परिवार से मिलने का दिन कभी नहीं भूलता था। मार्क्‍स उस समय आक्‍सफोर्ड स्‍ट्रीट के पास की एक सड़क, डीन स्‍ट्रीट पर रहते थे और मैंने भी पास ही चर्च स्‍ट्रीट पर घर ले रखा था।

2. पहली बातचीत
कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्‍मक संघ की उपरोक्‍त यात्रा में भेंट के अगले दिन मार्क्‍स के साथ मेरी पहली लम्‍बी बातचीत हुई। उस दिन तो खुलासा बातचीत का मौका न मिलना स्‍वाभाविक था और मार्क्‍स ने मुझसे संघ की बैठक की जगह पर अगले दिन आने को कहा जब कि शायद एंगेल्‍स भी वहाँ होंगे। मैं निश्चित समय से कुछ पहले पहुँच गया। तब तक मार्क्‍स वहाँ नहीं थे। परन्‍तु मुझे कई पुराने जान पहिचान वाले मिल गये और मैं उनके साथ खूब मजे से बातचीत कर रहा था जब मार्क्‍स ने मेरे कन्‍धे पर हाथ रखा। उन्‍होंने बड़ी मित्रता के भाव से अभिवादन किया और कहा कि एंगेल्‍स अपने निजी कमरे में हैं और वहाँ ज्‍यादा एकान्‍त रहेगा। मुझे मालूम नहीं था कि निजी कमरा क्‍या होता है और मुझे खयाल आया कि अब मेरा इम्तिहान होने वाला है। फिर भी मैं उनपर भरोसा करके पीछे-पीछे चला। पहले दिन की तरह आज भी मुझ पर मार्क्‍स का अनुकूल प्रभाव पड़ा था। उनमें कुछ ऐसा गुण था जो लोगों को दिल खोलकर बात करने के लिये प्रेरित करता था। उन्‍होंने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे निजी कमरे में ले गये यानी मकान मालिक या शायद मकान मालकिन का वह कमरा जहाँ एंगेल्‍स ने तुरन्‍त हंसी मजाक से मेरा स्‍वागत किया। उन्‍होंने अपने लिये गहरी बादामी रंग की शराब का गिलास मँगा रखा था। जरा सी देर में वहाँ की फुर्तीली नौकरानी एमी को हमने खाने-पीने का सामान लाने का आदेश दिया। हम भगोड़ों में पेट का सवाल बड़ा महत्‍वपूर्ण होता था। जल्‍दी ही बीअर (शराब) आ गयी और हम बैठ गये। मैं मेज के एक तरफ और मार्क्‍स तथा एंगेल्‍स मेरे सामने। काले पत्‍थर की विशाल मेज, धातु के चमकते हुए गिलास, झागदार शराब, असली अंग्रेजी खाने का आगमन, मिट्टी के लम्‍बे-लम्‍बे पाइप जिन्‍हें देखकर पीने को जी करता था-यह सब मिलाकर इतना आरामदेह था कि मुझे बौज की अंग्रेजी तसवीरों में से एक की प्रबल याद आयी। परंतु इस सबके होते हुए भी वह इम्तिहान था। पर मैंने सोचा कि आखिर उससे डरने की क्‍या बात है। बातचीत का जोर बढ़ने लगा। साल भर पहले जेनीबा में एंगेल्‍स से मिलने के पहले मेरा उन दोनों से कोई घनिष्‍ठ परिचय नहीं था। मैं मार्क्‍स के सिर्फ पैरिस के 'यार बुशर' अखबार के लेखों और ''अर्थशास्‍त्र की दरिद्रता'' को और एंगेल्‍स के केवल ''इंग्‍लैण्‍ड में मजदूर वर्ग की दशा'' को जानता था। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बारे में मैंने सुना था और जानता था कि उसमें क्‍या लिखा है। तब भी सन 1846 से कम्युनिस्ट होने पर भी, ''कम्युनिस्ट घोषणा पत्र'' की पहली प्रति मैंने विधान-विरोधी आंदोलन के बाद एंगेल्‍स के साथ भेंट होने से कुछ पहले ही देखी थी। नया ''राइनिश जाइटुंग'' तो मुझे बहुत कम देखने को मिलता था क्‍योंकि उसके ग्‍यारह महीने के जीवन के समय में मैं विदेश में या जेल में या स्‍वयंसेवकों के अनिश्चित जीवन के तूफान में फँसा हुआ था।
मेरे दोनों परीक्षकों को यह संदेह था कि मुझमें निम्‍न-पूंजीवादी जनवाद की भावना और दक्खिनी जर्मनी की भावुकता है। मनुष्‍यों और वस्‍तुओं के बारे में मेरे अनेक विचारों की कड़ी अलोचना की गयी। सब कुछ देखते हुए परीक्षा का फल बुरा नहीं रहा और बातचीत का क्षेत्र विस्‍तृत हो गया। थोड़ी ही देर में हम लोग प्राकृतिक विज्ञान के विषय पर आ गये और मार्क्‍स ने विजयी प्रतिक्रियावादियों की हँसी उड़ायी जो यह समझते थे कि हमने क्रांति का गला घोंट दिया और उन्‍हें यह संदेह भी नहीं था कि प्राकृतिक विज्ञान एक नयी क्रांति की तैयारी कर रहा है। पिछली सदी में दुनिया में क्रांति मचाने वाले राजा भाफ (भाप) का राज्‍य खतम होने वाला था और उससे कहीं ज्‍यादा महान क्रांतिकारी चीज उसकी जगह लेने वाली थी और वह थी बिजली की चिनगारी। फिर उत्‍साह और जोश से भरे हुए मार्क्‍स ने मुझे बतलाया कि पिछले कई दिन से रीजेन्‍ट स्‍ट्रीट में एक बिजली की मशीन दिखायी जा रही है जो रेलगाड़ी को खींचती है। ''अब समस्‍या हल हो गयी है। इसके परिणामों को बताना असंभव है। आर्थिक क्रांति के बाद राजनीतिक क्रांति होगी क्‍योंकि दूसरी क्रांति तो पहली की ही अभिव्‍यक्ति मात्र है।'' जिस ढंग से मार्क्‍स ने विज्ञान ओर यन्‍त्र विद्या की इस प्रगति के बारे में, अपने दुनिया के प्रति दृष्टिकोण के, और विशेष रूप से जिसे इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण कहते हैं, उसके बारे में बातचीत की वह इतना स्‍पष्‍ट था कि अभी तक जो मेरी शंकाएँ थीं वे बसन्‍त की बातचीत की धूप में बर्फ की तरह पिघल गयीं। उस शाम को मैं घर लौटा ही नहीं। अगले दिन सुबह तक हम लोग बातचीत, हँसी-मजाक और शराब पीने में लग रहे और जब मैं सोया तो सूरज खूब चढ़ चुका था। परंतु बड़ी देर तक मैं सो नहीं सका। मैंने जो सुना था उस सबसे मेरा दिमाग बहुत ज्‍यादा भरा था। अंत में इधर-उधर भटकते हुए अपने विचारों के कारण मैं फिर बाहर निकला और जल्‍दी से इस मशीन को देखने रीजेन्‍ट स्‍ट्रीट गया। यह मशीन आधुनिक युग के ''ट्रोजन घोड़े'' के समान थी जिसे पूंजीवादी समाज ने ट्रायवासियों की तरह घातक मोह से खुशी अपने महल में घुसा लिया था और जो उसी तरह निश्‍चय उनका सर्वनाश करेगी। वह दिन आवेगा जब पवित्र इलियन (यानी पूंजीवाद) नष्‍ट हो जावेगा।
बाहर की घनी भांड से मालूम हो रहा था कि मशीन किस खिड़की में रखी हुई है। मैं भीड़ में घुस कर आगे जा निकला और सचमुच मेरे सामने इंजिन और गाड़ी दोनों मजे से चल रहे थे।
उस समय जुलाई सन 1850 का प्रारम्‍भ था।

3. क्रांतिकारियों के अध्‍यापक और शिक्षक के रूप में मार्क्‍स

''मूर'' (मार्क्‍स) को हम युवकों से पांच छ: बरस बड़े होने का फायदा था। वह अपनी विकसित अवस्‍था के लाभों के सब लाभों को समझते थे और हर मौके पर हम लोगों की और खास कर मेरी परीक्षा लेते थे। अपने विस्‍तृत अध्‍ययन और अद्भुत स्‍मरणशक्ति के कारण वे जल्‍दी ही हमे मुश्किल में डाल देते थे। जब किसी तरुण विद्यार्थी को किसी मुश्किल में डालकर उदाहरण से वह यह साबित कर देते कि हमारे विश्‍वविद्यालय में किताबी पढ़ाई की कैसी शोचनीय दशा है, तो वह बड़े खुश होते थे।
परन्तु वह नियमानुसार शिक्षा भी देते थे। इन शब्दों के विस्तृत तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में मैं कह सकता हूँ कि वह मेरे गुरु थे। हरएक विषय में उनका अनुसरण करना पड़ता था। अर्थशास्त्र के विषय में मैं कुछ न कहूंगा। पोप के महल में पोप के बारे में बात नहीं की जाती। कम्युनिस्ट लीग में अर्थशास्त्र पर उनके भाषणों के बारे में आगे मैं कुछ कहूँगा। मार्क्स प्राचीन और नवीन दोनों तरह की भाषाओं को अच्छी तरह जानते थे। मैं भाषाशास्त्री हूँ और मेरे सामने जब वह अरस्तू् या एसकाइलस का कोई ऐसा कठिन उद्धरण पेश कर पाते जिसको मैं तुरन्त नहीं समझ सकता था तो उन्हें बच्चों जैसी खुशी होती थी। उन्होंने मुझे एक दिन खूब डाँटा क्योंकि मैं स्पेानिश भाषा नहीं जानता था। फौरन उन्होंने किताबों के ढेर में से 'डॉन क्विक्सो‍ट' निकाल ली और मुझे पढ़ाना शुरू कर दिया। डाइज के लैटिन भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण से मैं शब्द विन्यास और व्याकरण के मूल तत्वों को जानता था। इसलिये मेरे अटकने या रुकने पर मूर की योग्य सहायता और कुशल शिक्षा से मेरा खूब काम चल गया। वह वैसे तो बड़े उग्र और तूफानी स्वभाव के थे परंतु पढ़ाने में उनका धैर्य अटूट था। एक मिलनेवाले के तूफानी आगमन ने पाठ को समाप्त कर दिया। रोज मेरी परीक्षा ली जाती थी। और मुझे 'डॉन' क्विक्सोट' या स्पैनिश भाषा की किसी और किताब से अनुवाद करना पड़ता था। जब तक मैं योग्य साबित नहीं हो गया तब तक यही चलता रहा। मार्क्‍स बड़े अच्‍छे भाषाशास्‍त्री थे यद्यपि यह सच है कि पुरानी भाषाओं की अपेक्षा आधुनिक का ज्ञान उन्‍हें ज्‍यादा था। उन्‍हें ग्रिम के जर्मन व्‍याकरण का विस्‍तृत ज्ञान था और ऐसा मालूम होता था कि वह मुझ भाषाशास्‍त्री से ज्‍यादा अच्‍छी तरह ग्रिम भाइयों के जर्मन शब्‍दकोश को जानते थे। यद्यपि यह ठीक है कि बोलने में वह कुशल नहीं थे फिर भी वह अंग्रेज की तरह अंग्रेजी और फ्रांसवालों की तरह फ्रांसीसी भाषा लिखते थे। न्‍यूयार्क ट्रिब्‍यून के उनके लेख शुद्ध अंग्रेजी में हैं। प्रूधों की पुस्‍तक 'दरिद्रता का दर्शनशास्‍त्र' के जवाब में लिखी हुई 'दर्शनशास्‍त्र की दरिद्रता' उत्तम फ्रेंच में है। जिस फ्रांसीसी मित्र से उन्‍होंने छापेखाने के लिये अपनी पुस्‍तक पढ़वाई थी उसे बहुत ही कम गल्तियाँ मिली थीं। चूंकि मार्क्‍स भाषा का सार जानते थे और उसका उद्गम, विकास व रचना शैली जानने में मेहनत कर चुके थे, इसलिये उन्‍हें भाषाएँ सीखने में कठिनाई नहीं होती थी। लंदन में उन्‍होंने रूसी भाषा भी सीखी और क्राइमिया की लड़ाई के जमाने में अरबी व तुर्की तक सीखने का इरादा था परन्‍तु यह पूरा नहीं हो सका। वह पढ़ने पर ज्‍यादा जोर देते थे। जो व्‍यक्ति किसी भाषा को अच्‍छी तरह जानना चाहता है उसे यही करना चाहिये। मार्क्‍स की ऐसी असाधारण स्‍मरण शक्ति थी कि वे कभी कुछ नहीं भूलते थे और जिसकी अच्‍छी स्‍मरण शक्ति होती है वह खूब पढ़ने से भाषा का शब्‍दकोश और मुहावरे जल्‍दी हो जान जाता है। इसके बाद उनको उपयोग करना तो आसानी से सीखा जा सकता है।
सन 1850 और 1851 में मार्क्स ने अर्थशास्‍त्र पर कुछ भाषण दिये। उन्‍होंने अनिच्‍छा से यह करना तय किया। परंतु मित्र मंडली को थोड़ी शिक्षा देने के बाद उन्‍होंने हमारा कहना और समझाना मानकर ज्‍यादा बड़ी मंडली को शिक्षा देना स्‍वीकार कर लिया। यह भाषण माला सब सुननेवालों के लिये प्रसन्‍नता तथा सौभाग्‍य की बात थी क्‍योंकि मार्क्‍स ने इस समय ही अपनी शिक्षा के मौलिक सिद्धांतों का उसी भांति पूरा ब्‍यौरा दिया जैसा कि ''कैपीटल'' में मिलता है। कम्युनिस्ट संघ के भरे हुए हॉल में या कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्‍मक संघ में, जो उस समय ग्रेट विन्‍डयल स्‍ट्रीट में था (उसी हॉल में जहाँ ढाई साल पहले 'कम्‍युनिस्ट घोषणापत्र' का लिखना तय किया गया था), मार्क्‍स ने किसी सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने के अपने अद्भुत गुण को दिखाया। विकृत करने को अर्थात् विज्ञान को असत्‍य, छिछला और नीच बनाने से उन्‍हें बहुत ही भारी चिढ़ थी। परंतु स्‍पष्‍ट अभिव्‍यंजना की योग्‍यता भी किसी में उनसे अधिक नहीं थी। साफ विचारों का फल साफ भाषण है और साफ-साफ सोचने से अवश्‍य साफ अभिव्‍यंजना शैली बनती है।
मार्क्‍स एक नियम के अनुसार चलते थे। पहले वह छोटा हो सकता था उतना छोटा वाक्‍य कहते थे और फिर कुछ विस्‍तार से उसे समझाते थे। परंतु इसका खास ध्‍यान रखते थे कि ऐसा कोई मुहावरा न हो जिसे मजदूर न समझ सकें। इसके बाद वह सुननेवालों से सवाल पूछने को कहते थे। यदि कोई सवाल नहीं पूछा जाता था तो वह परीक्षा लेना शुरू करते थे और यह काम इतनी होशियारी से करते थे कि न तो कोई बात छूटती ही थी और न कोई गलतफहमी बाकी रहती थी। उनकी योग्‍यता की प्रशंसा करने पर मुझे मालूम हुआ कि वह ब्रूसेल्‍ज के मजदूर संघ में राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर भाषण दे चुके थे। जो कुछ भी हो, उनमें कुशल अध्‍यापक बनने के लक्षण थे। पढ़ाने में वह एक ब्‍लैक बोर्ड का भी प्रयोग करते थे जिस पर वह सिद्धांतों के सूत्र लिख दिया करते थे-वे सूत्र भी जिन्‍हें कैपीटल के शुरू के हिस्‍से से हम अच्‍छी तरह जानते थे।
यह अफसोस की बात हुई कि पाठ छ: महीने या इससे भी कम चला। संघ में ऐसे लोग आ गये जिनसे मार्क्‍स संतुष्‍ट नहीं थे। जब लोगों के बाहर जाने की बाढ़ रुक गयी तो संघ छोटा हो गया और उसका स्‍वरूप बड़ा संकुचित हो गया। वीटलिंग और केबेट के चेले फिर प्रमुख होने लगे और मार्क्‍स ने कम्युनिस्ट लीग से अलग रहना शुरू कर दिया क्‍योंकि उनके लिये इतना छोटा कार्यक्षेत्र था और उनका पुराने जालों को झाड़ने से ज्‍यादा अच्छा काम करने का इरादा था।
उन्‍हें भाषा की शुद्धता इतनी पसंद थी कि कभी-कभी यह दिखावा मालूम होता था। और अपनी ''ऊपरी हेस'' की बोली के कारण जो बराबर मेरे पीछे लगी रही-या मैं उसके पीछे लगा रहा-मुझे अनगिनती उपदेश सुनने पड़े।
मैं जो ऐसी छोटी छोटी बातें बतलाता हूँ वह यह दिखाने के लिये कि हम युवकों के साथ अध्‍यापक के रूप में मार्क्‍स अपने को कैसा समझते थे।
इसकी एक और तरह से भी अभिव्‍यक्ति होती थी। वह हम लोगों से बड़ी बड़ी आशाएँ करते थे। जैसे ही वह हमारे ज्ञान में कोई कमी देखते थे, वह जोर देकर उसे पूरा करने को कहते थे और उसके लिये आवश्‍यक उपाय भी बतलाते थे। अगर कोई उनके साथ अकेला होता था तब तो उसकी पूरी परीक्षा हो जाती थी। और उनकी परीक्षा कोई मजाक नहीं थी। मार्क्‍स को धोखा देना असंभव था। और अगर वह देखते थे कि उनकी पढ़ाई का कोई असर ही हो रहा है तो दोस्‍ती भी खत्म हो जाती थी। उनका हमारा अध्‍यापक होना हमारे लिये इज्‍जत की बात थी। उनके साथ रहकर हमेशा मैंने कोई न कोई बात सीखी...।
उस समय मजदूर-वर्ग के छोटे से भाग में समाजवाद का प्रचार हो पाया था। और समाजवादियों में भी जो मार्क्‍स के वैज्ञानिक अर्थ में, 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अर्थ में समाजवादी हों, उनकी संख्‍या कम थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और जीवन की जरा सी चेतना जाग्रत हुई भी थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और भावुक इच्‍छाओं और नारों के उस कुहरे में फँसे हुए थे जो सन 1848 के आंदोलन और उसकी भूमिका और उपसंहार के विशेष चिह्न थे। सब की प्रशंसा और लोकप्रियता को मार्क्‍स अपने गलत रास्‍ते पर होने का सबूत समझते थे। और दान्‍ते की यह अभिमानी पंक्ति उन्‍हें बहुत पसंद थी - ''लोगों को जो चाहे कहने दो, तुम अपने रास्‍ते पर चलो।''
यह पंक्ति कैपीटल की भूमिका के अंत में है, इसे उन्‍होंने न जाने कितनी बार हमें सुनाया होगा। कोई भी आदमी धक्‍केमुक्‍कों की और कीड़ी-काँटों के काटने की ओर से बिल्‍कुल उदासीन नहीं रह सकता। किन्‍तु मार्क्‍स अपने मार्ग पर निर्द्वन्‍द्व बढ़ते जाते थे। चारों ओर से उन पर आक्रमण होते, रोज के भोजन के लिये चिंता करनी पड़ती, लोग उनकी बात को गलत ढंग से समझ बैठते, यहाँ तक कि वे मजदूर ही अक्‍सर उनको बुरा-भला कहने से न चूकते जिनकी मुक्ति संघर्ष के लिये ही मार्क्‍स एक अद्भुत अमोघ अस्‍त्र रात के सन्‍नाटे में परिश्रम से तैयार किया करते थे। इसके विपरीत ये मजदूर बकवास करने वाले, विश्‍वासघातियों और शत्रुओं तक के पीछे दौड़ रहे थे। पर मार्क्‍स हताश न होते थे। अपने सादे से कमरे के एकांत में उस महान कवि दांते के शब्‍दों को याद करके शायद उन्‍हें प्रेरणा और नयी शक्ति मिला करती होगी।
उन्‍होंने अपने को पथ से डिगने नहीं दिया। वह अलिफ लैला के उस राजकुमार के समान नहीं थे जिसने विजय और उसके पुरस्‍कार को खो दिया था क्‍योंकि उसने पीछे के शोर और चारों तरफ की भयानक तसवीरों से घबराकर पीछे देख लिया था। मार्क्‍स आगे बढ़ते रहे, उनकी आँखें सदा आगे देखती रहीं, अपने उज्‍ज्वल लक्ष्‍य पर लगी रहीं, उन्‍होंने लोगों को जो चाहे कहने दिया ''और यदि पृथ्‍वी फूट-फूटकर गिर पड़ती'' तो भी वे अपने मार्ग से पीछे न हटते। अंत में विजय उनकी ही हुई, यद्यपि विजय का पुरस्‍कार उन्‍हें न मिल सका।
सर्वविजयी मृत्‍यु के डँसने से पहले वह यह देख सके कि उनका बोया हुआ बीच मनोहर रूप से उगकर कटने के लिये तैयार हो रहा है। हाँ, जीत उन्‍हीं की हुई और पुरस्‍कार हमें मिलेगा।
यदि उन्‍हें लोकप्रियता से घृणा थी तो लोकप्रियता पाने की कोशिश पर क्रोध होता था। चिकनी चुपड़ी बातें करने वाले को वह विष समझते थे और थोथे नारे लगाने वाले की तो खैरियत नहीं थी। उसके साथ तो वह निर्मम हो जाते थे। नारेबाज उनकी सबसे बड़ी गाली थी और जब एक बार वह किसी को नारेबाज समझ लेते थे तो फिर उससे कोई संबंध नहीं रखते थे। तर्कपूर्ण विचारशैली और विचारों की स्‍पष्‍ट अभिव्‍यक्ति-यही उन्‍होंने प्रत्‍येक अवसर पर हम युवकों को शिक्षा दी और सीखने पर मजबूर किया।
लगभग इसी समय ब्रिटिश म्‍यूजिअम में एक उत्तम वाचनालय बना जिसमें पुस्‍तकों का विशाल भांडार था। मार्क्‍स वहाँ रोज जाते थे और उन्‍होंने हमें भी वहाँ जाने की प्रेरणा दी। सीखो! सीखो! यही आज्ञा वे बराबर चिल्‍लाकर हमें दिया करते थे और यह तो उनके दृष्‍टांत से, बल्कि सच पूछिये तो उनकी तीक्ष्‍ण और अध्‍ययनशील बुद्धि से स्‍पष्‍ट थी।
जब कि अन्‍य निर्वासित दुनिया को उलट-पलट करने की योजना बना रहे थे और दिन पर दिन, और प्रत्‍येक शाम को इस विचार की अफीम के नशे में डूबे रहते थे कि ''यह क्रिया कल शुरू होगी'', उसी समय हम ''डाकू'', ''मानवता के कीड़े'' ''भड़काने वाले'', ब्रिटिश म्‍यूजिअम में बैठे अपने को शिक्षित करने और भावी संघर्षों के लिये अस्‍त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे।
बहुधा किसी को खाने को कुछ भी नहीं मिलता था। परंतु उससे उसका ब्रिटिश म्‍यूजिअम जाना नहीं रुकता था। वहाँ उसे कम से कम बैठने को एक आराम-देह कुर्सी और सर्दी में सुखदायी गर्मी तो मिलती थी। ये बातें उसके घर में नहीं मिलती थीं, यदि उसकी घर जैसी कोई चीज होती भी थी।
मार्क्‍स कड़े अध्‍यापक थे। वह हमें सिर्फ पढ़ने के लिये मजबूर ही नहीं करते थे बल्कि अपने आपको भी संतुष्‍ट करते थे कि हमने सीखा या नहीं।
अध्‍यापक के रूप में कड़े होते हुए भी मार्क्‍स में हतोत्‍साह न करने का अद्भुत गुण था।
अध्‍यापक के रूप में मार्क्‍स में एक और उत्तम गुण था। वह हमें आत्‍म-आलोचना करने पर मजबूर करते थे और यह नहीं सह सकते थे कि कोई अपने किये से संतुष्‍ट होकर बैठ जाय। अपने व्‍यंग्य के कोड़े से वे कल्‍पना के विलास-प्रिय शरीर को निर्दयता से मारते थे।

4. मार्क्‍स की शैली

यह कहा जाता है कि मार्क्‍स की कोई शैली नहीं थी या बड़ी बुरी शैली थी। यह वे लोग कहते हैं जिन्‍हें यह नहीं मालूम कि शैली है क्‍या-मीठे मीठे भाषण देने वाले और नारेबाज जो मार्क्‍स को समझ नहीं सके और समझने के अयोग्‍य थे; मानवी दुख और मानवी नीचता के गहनतम गर्त से विज्ञान और भावना के उच्‍चतम शिखर तक मार्क्‍स की बुद्धि की उड़ान को समझने में असमर्थ थे। बुफौं का कथन-शैली ही मनुष्‍य है-यदि किसी के बारे में सच है तो मार्क्‍स के बारे में। मार्क्‍स की शैली से स्‍वयं मार्क्‍स का सच्‍चा रूप प्रगट होता है। उन्‍हें सचाई से ऐसा प्रेम था कि वह सत्‍य के अलावा कोई धर्म न जानते थे। यह जानते ही कि उनका सिद्धांत गलत है वह तुरंत उसे बदल देते थे फिर वह उन्‍हें चाहे जितना प्रिय हो और चाहे जितने परिश्रम का फल हो। ऐसा आदमी अपनी लेखनी से अपने सत्‍य स्‍वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा सकता था। दिखावा, बनावट या ढोंग करने में असमर्थ, अपने जीवन के समान अपने लेखों में भी वह सदा सच्चे रहते थे। यह सच है कि इतना विविधतापूर्ण, विशाल और बहुमुखी स्‍वभाव होने के कारण उनकी शैली दूसरे कम, जटिल और संकीर्ण चित्त वाले आदमियों जैसी अपरिर्वतनशील, एक सी और नीरस नहीं हो सकती। 'कैपीटल' का मार्क्‍स, '18वीं ब्रूमेअर' का मार्क्‍स और 'हर वोग्‍ट' का मार्क्‍स तीन अलग-अलग आदमी हैं। परन्‍तु अपनी विभिन्‍नता में भी वही एक मार्क्‍स है, उस त्रिमूर्ति में एक ही व्‍यक्तित्‍व है-एक ऐसा महान व्‍यक्तित्‍व जो विभिन्‍न क्षेत्रों में अपने को विभिन्‍न प्रकार से अभिव्‍यक्‍त करता है परंतु फिर भी रहता हमेशा वही है। कैपीटल की शैली मुश्किल जरूर है परन्‍तु क्‍या उसका विषय आसानी से समझ में आनेवाला है? शैली मनुष्‍य के अनुसार ही नहीं, विषयानुसार भी होती है, उसे विषय के अनुकूल बनाना पड़ता है। विज्ञान का कोई आसान राजमार्ग नहीं है, सबसे कुशल गुरु को भी परिश्रम से जूझना और ऊपर चढ़ना पढ़ता है। कैपीटल की शैली के कठिन, जटिल या अपरिमार्जित होने की शिकायत करना तो सिर्फ विचार शिथिलता और सोचने की अयोग्‍यता को स्‍वीकार करना है।
क्‍या '18वीं ब्रूमेअर' जटिल है? क्‍या वह बाण गूढ़ होता है जो सीधा अपने निशाने पर जाता है और मांस में घुस जाता है? क्‍या मजबूत हाथ से फेंका हुआ वह भाला जटिल होता है जो दुश्मन के ठीक हृदय में लगता है? '18वीं ब्रूमेअर' के शब्‍द तीर हैं, भाले हैं। वह शैली आग की तरह प्रचण्‍ड और घातक है। यदि घृणा, या स्‍वतंत्रता का उज्‍ज्वल प्रेम कभी जलते हुए, तीक्ष्ण और महान शब्‍दों में व्‍यक्‍त हुआ है तो '18वीं ब्रूमेअर' में। उसमें टैसिटस का रोष और कठोरता जूवेनल के तीक्ष्‍ण व्‍यंग और दान्‍ते के पवित्र क्रोध से मिला हुआ है। इसमें शैली का वही रूप है जो रोमवासियों के लिये था, यानी लोहे के एक तेज यंत्र का जो लिखने और भौंकने के लिये काम में आता था। शैली हृदय पर आघात करने के लिये अस्‍त्र के समान है।
और हर वोग्‍ट में-वह हास्‍य, वह प्रसन्‍नता है जो फालस्‍टाफ को और उसमें व्‍यंग के अनन्‍त कोष को खोज निकालने पर शेक्सपियर को हुई होगी।
खैर, अब मैं मार्क्‍स की शैली के बोर में और कुछ नहीं कहूँगा। मार्क्‍स की शैली सचमुच मार्क्‍स है। उन पर छोटी से छोटी जगह में ज्‍यादा से ज्‍यादा सामग्री ठूँसने की कोशिश करने का दोष लगाया गया है, परन्‍तु यही तो मार्क्‍स का स्‍वरूप है।
मार्क्‍स शुद्ध और सत्‍य अभिव्‍यंजना के असाधारण मूल्‍य को समझते थे और गेटे, लेसिंग, शेक्सपियर, दांते और सरवेन्‍टीज के रूप में, जिन्‍हें वह रोज पढ़ते थे, उन्‍होंने सबसे बड़े कलाकारों को छाँटा था। भाषा की शुद्धता और सत्‍यता का वे हमेशा ध्‍यान रखते थे और उसके लिये बड़ी मेहनत करते थे।
मार्क्‍स कट्टर शुद्धतावादी थे और बहुधा सही मुहावरे के लिये वह देर तक और बड़े परिश्रम से खोज करते थे। वह जरूरत से ज्‍यादा विदेशी शब्‍दों के प्रयोग को नापसन्‍द करते थे। यदि फिर भी जहाँ विषय के लिये आवश्‍यक नहीं था वहाँ उन्‍होंने स्‍वयं बहुधा विदेशी शब्‍दों का प्रयोग किया है तो यह शायद इसीलिये कि वह बहुत समय तक विदेश में, खासकर इंग्‍लैण्‍ड में रहे थे। मार्क्‍स ने अपने जीवन के दो तिहाई से ज्‍यादा हिस्‍से को विदेश में बिताया पर उन्‍होंने हमारी जर्मन भाषा के हमारे जर्मन निर्माताओं के लिये बहुमूल्‍य काम किया। नये और शुद्ध जर्मन शब्‍दों और शब्‍दों के प्रयोग में वह अद्वितीय हैं।

5. राजनीतिज्ञ, अध्‍यापक और मनुष्‍य के रूप में मार्क्‍स
मार्क्‍स के लिये राजनीति एक अध्‍ययन की वस्‍तु थी। कोरी राजनीतिक बातचीत और उसे करनेवालों से वह विष के समान घृणा करते थे। वास्‍तव में इससे ज्‍यादा मूर्खता की दूसरी चीज क्‍या हो सकती है? इतिहास मानव-जगत और प्रकृति की सब कार्यशील शक्तियों का फल है, मनुष्‍य के विचारों, भावों और आवश्‍यकताओं का फल है। परन्‍तु राजनीति सैद्धांतिक रूप में, 'समय के कर्घे' में काम करती हुई इन लाखों-करोड़ों शक्तियों का ज्ञान है, और व्‍यावहारिक रूप में वह इस ज्ञान द्वारा निश्चित कर्म है। इसलिए राजनीति सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक दोनों तरह का विज्ञान है।
जब मार्क्‍स उन कूड़मगजों की बात करते थे जो कुछ पुराने घिसे-पिटे वाक्‍यों के द्वारा मामला तै कर देते है, और जो अपने उल्‍टे-सीधे विचारों और इच्‍छाओं को सच मानकर होटल की मेज पर, अखबारों में, जन-सभाओं में और पार्लियामेंटों में, दुनिया के भाग्‍य का निबटारा कर देते हैं, तो वह बड़े नाराज हो जाते थे। वह सौभाग्‍य की बात है कि दुनिया ऐसे आदमियों की ओर ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देती। उक्‍त कूड़दिमागों में कुछ बड़े मशहूर, बड़े सम्‍मानित ''महापुरुष'' भी थे।
इस विषय में मार्क्‍स ने केवल आलोचना ही नहीं की है, उन्‍होंने एक आदर्श भी उपस्थित किया है। खासकर हाल में फ्रांस की घटनाओं और नेपोलियन की राजसी क्रांति के बारे में अपने लेखों में और ''न्‍यूयार्क ट्रिब्‍यून'' को लिखे अपने पत्रों में उन्‍होंने इतिहास की राजनीतिक लेखन शैली के उत्‍कृष्‍ट नमूने दिये हैं।
यहाँ एक तुलना के बारे में मुझे लिखना ही पड़ेगा। बोनापार्ट की जिस राजसी क्रांति के बारे में मार्क्‍स ने अपनी '18 वीं ब्रूमेअर' लिखी, उसी के ऊपर फ्रांस के रोमांटिक और शब्‍दावली के कलाकारों में सर्वश्रेष्‍ठ लेखक, विक्‍टर ह्यूगो ने भी एक मशहूर किताब लिखी थी। इन दोनों आदमियों और उनकी रचनाओं में कितना महान अंतर है? एक तरफ तो भयानक शब्‍दावली और शब्‍दों का दानव, दूसरी ओर नियमानुसार सजी हुई सच्‍ची घटनाएँ और एक शांत और गंभीर राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक जो क्रुद्ध है परंतु जो अपने क्रोध से अपने फैसले को कभी बिगड़ने नहीं देता।
एक ओर समुद्र-फेन की तरह उड़ती छलछलाती भाषा, करुण शब्‍दावली, वीभत्‍स व्‍यंग-चित्र हैं, और दूसरी ओर है सघे हुए तीर के समान प्रत्‍येक शब्‍द, अपनी नम्रता से ही विश्‍वास उत्‍पन्‍न करने वाला नग्र सत्‍य-क्रोध नहीं बल्कि सत्‍य की स्‍थापना और उसकी आलोचना। विक्टर हयूगो लिखित 'छोटा नैपोलियन' के उस समय दस संस्‍करण छपे पर आज उसका नाम भी कोई नहीं लेता। दूसरी ओर आज से हजार वर्ष बाद भी मार्क्‍स की '18वीं ब्रूमेअर' प्रशंसा के साथ पढ़ी जायगी। विक्‍टर ह्यूगो की 'छोटा नैपोलिन' एक आतिशाबाजी थी, मार्क्‍स की '18वीं ब्रूमेअर' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सभ्‍यता के भावी इतिहासकार के लिये-और भविष्‍य में सभ्‍यता के इतिहास के अतिरिक्‍त कोई विश्‍व का इतिहास नहीं होगा- उतना ही आवश्‍यक होगा जितनी थूसिड़ाइडीज का पेलोपोनीशियन युद्ध का इतिहास।
जैसा मैं एक और जगह समझा चुका हूँ मार्क्‍स जैसे बने, वैसे वह केवल इंग्‍लैण्‍ड में ही बन सकते थे। इस सदी के मध्‍य तक जर्मनी आर्थिक रूप से जैसी अविकसित दशा में था, उसमें मार्क्‍स पूँजीवादी अर्थशास्‍त्र के आलोचक नहीं बन सकते थे और न पूँजीवादी उत्‍पादन की जानकारी प्राप्‍त कर सकते थे-उसी तरह जैसे इस आर्थिक रूप से अविकसित जर्मनी में आर्थिक रूप से विकसित इंग्‍लैण्‍ड की सी राजनीतिक संस्‍थाएँ नहीं हो सकती थीं। मार्क्‍स भी अपने वातावरण और रहने की परिस्थितियों पर उतने ही निर्भर थे जितना कोई और मनुष्‍य, और इस वातावरण और परिस्थिति के बिना वह वैसे न बन सकते जैसे हम उन्‍हें पाते हैं।
ऐसी बुद्धि पर परिस्थिति का असर पड़ते हुए और प्रकृति तथा समाज के अंदर उसे अधिकाधिक गहराई से पैठते हुए देखना, स्‍वयं अपने आप में एक गंभीर बौद्धिक सुख है। यह मेरे बड़े सौभाग्‍य की बात थी कि मुझ जैसे ज्ञान के भूखे अनुभवहीन युवक को मार्क्‍स के साथ रहने और उनसे सीखने का अवसर मिला। उनकी ऐसी बहुमुखी अथवा यों कहें कि सर्वतोमुखी प्रतिभा थी कि उसमें दुनिया भर के ज्ञान को आकलन करने की सामर्थ्‍य थी। वह प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण पहलू को देखते थे और किसी चीज को भी मामूली तथा बेकार नहीं समझते थे। ऐसी प्रतिभा के द्वारा मेरी शिक्षा का बहुमुखी होना अवश्‍यम्‍भावी था।
मार्क्‍स उन लोगों में थे जिन्‍होंने सबसे पहले डार्विन की छानबीन का महत्‍व समझा। सन 1859 के साल से पहले ही-वह साल जब ''जातियों की उत्‍पत्ति'' (Origin of Species) छपी और एक अद्भुत संयोग से उसी साल ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' भी छपी-मार्क्‍स ने डार्विन के नवयुग की घोषणा करने वाले कार्य के महत्‍व को समझ लिया था। डार्विन शहर के शोरगुल से दूर अपने शांत ग्रामीण घर में वैसी ही क्रांति की तैयारी कर रहे थे जैसी दुनिया के तूफानी केंद्र में स्‍वयं मार्क्‍स कर रहे थे। फर्क सिर्फ यही था कि दोनों का क्षेत्र अलग-अलग था।
खासकर प्राकृतिक विज्ञान-जिसमें भौतिक विज्ञान और रसायनशास्‍त्र सम्मिलित हैं-और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्‍स ने हर नयी चीज को, हर प्रगति को समझा। मोल शोट, लीबिंग हक्‍सले, आदि के जन-प्रिय भाषणों में हम नियमित रूप से जाते थे। इनके नाम हमारी गोष्‍टी में उतनी ही बार आते थे जितने रिकार्डो, एडम स्मिथ, मैककुलौख और स्कॉटिश तथा इटालियन अर्थशास्त्रियों के। जब डार्विन ने अपनी छानबीन से निष्‍कर्ष निकाले और उनकी घोषणा की तो महीनों तक डार्विन और उसके वैज्ञानिक कार्य की क्रांतिकारी शक्ति को छोड़कर हम लोग कुछ और बात ही नहीं करते थे। मैं यह बात खास तौर पर जोर देकर कह रहा हूँ क्‍योंकि कुछ ''उग्रपंथी'' दुश्‍मनों ने यह कहानी फैलायी है कि ईर्षा के कारण मार्क्‍स ने बड़ी अनिच्‍छा से और सिर्फ कुछ हद तक ही डार्विन के गुणों को माना था।
जहाँ दूसरे के गुणों की प्रशंसा का सवाल था वहाँ मार्क्‍स बड़े उदार और न्‍यायप्रिय थे। ईर्षा, द्वेष और घमंड से वह परे थे। झूठे बड़प्‍पन से, बनावटी यश से जिसकी आड़ में अयोग्‍यता व नीचता फैलाते हैं, उन्‍हें बड़ी घृणा थी। यही बात हर एक झूठ और झूठी चीज के लिये थी।
मेरी जान-पहचान के बड़े, छोटे और साधारण व्‍यक्तियों में मार्क्‍स उन थोड़े से आदमियों में से थे जो दंभी नहीं थे। उनके जैसे महान और बलवान और अभिमानी व्‍यक्ति के लिये दंभी होना असंभव था। वह कभी ढोंग नहीं करते थे और हमेशा अपने सच्‍चे स्‍वरूप में रहते थे। अपने को छिपाने या बनावटी चेहरा पहनने में वह एक बच्‍चे के समान असमर्थ थे। जब तक सामाजिक या राजनीतिक कारणों से जरूरी न हो वह अपने भावों और विचारों को बिना कुछ छिपाये पूरी तरह प्रकट कर देते थे और उनके विचार, उनके चेहरे पर झलक जाते थे। अगर कुछ छिपाने की जरूरत होती थी तो वह बच्‍चों की तरह घबरा जाते थे जिस पर उनके मित्रों को बड़ी हँसी आती थी।
मार्क्‍स से ज्‍यादा सच्‍चा कोई आदमी नहीं हुआ। वे सत्‍य की साक्षात मूर्ति थे। उनको देखने से ही व्‍यक्ति को अपनी असलियत मालूम हो जाती थी। हमारे निरंतर संघर्षपूर्ण ''सभ्‍य समाज'' में हमेशा सच नहीं बोला जा सकता। उससे तो दुश्‍मन के फंदे में पड़ने या समाज से बहिष्‍कार होने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं होगा। परन्‍तु यदि बहुधा हम सच नहीं बोल सकते तो इस कारण से झूठ बोलना जरूरी नहीं है। मैं अपने विचारों और भावों को शब्‍दों में प्रकट नहीं कर सकता, पर इसका यह मतलब नहीं है कि जो मेरे विचार तथा भाव नहीं हैं मुझे उन्‍हें प्रकट करना चाहिये या करना ही पड़ेगा। पहली बात बुद्धिमानी है, दूसरी ढोंग है। और मार्क्‍स कभी ढोंगी नहीं थे। वह यह कर ही न सकते थे बिल्‍कुल न बिगड़े हुए बालक की तरह। और सचमुच उनकी स्‍त्री बहुत बार उन्‍हें 'मेरा बड़ा बच्‍चा' कहा करती थी। उनसे ज्‍यादा न कोई मार्क्‍स को जानता था और न समझता था, एंगेल्‍स भी नहीं। यह सच्‍ची बात है कि जब वह 'सभ्‍य समाज' में निकलते, जहाँ बाहरी रूप पर बड़ा ध्‍यान दिया जाता है और सँभल कर बात करनी पड़ती है तब हमारा 'मूर' वास्‍तव में एक बड़ा बालक था। वह एक छोटे बच्‍चे की तरह झेंपते और लाल हो जाते थे।
बनावटी लोग उन्‍हें बड़े बुरे लगते थे। मुझे अभी तक याद है कि किस तरह उन्‍होंने हँसते हुए लुई ब्‍लाँक के साथ अपनी पहली मुठभेड़ का किस्‍सा सुनाया था। यह तब की बात है जब वह डीन स्‍ट्रीट में ही थे। उस छोटे से घर में सामने का कमरा मिलनेवालों के लिये और काम करने को लिये था। और पीछे का बाकी सब कामों के लिये। लुई ब्‍लाँक ने लेन्‍वेन को अपना नाम बताया। वह उन्‍हें सामने के कमरे में ले गयी और दूसरे कमरे में मार्क्‍स जल्‍दी से कपड़े पहनने लगे। पर दोनों कमरों के बीच का दरवाजा थोड़ा सा खुला था और उस दरार में से एक मजेदार दृश्‍य दिखाई पड़ा। वह महान इतिहासकार और राजनीतिज्ञ बहुत ठिगना सा आदमी था, मुश्किल से आठ बरस के लड़के से लंबा। लेकिन वैसे वह बड़ा घमंडी था। उस मजदूरों जैसे गोल कमरे में चारों तरफ देखने के बाद एक कोने में उसे एक बड़ा पुराना आईना मिला और वह फौरन उसके सामने जाकर डट गया। वह शान से खड़ा हो गया और अपने बौने कद को अकड़कर जितना लम्‍बा कर सकता था कर लिया। (इतनी ऊँची एड़ी के जूते पहने मैंने और किसी को नहीं देखा) और बड़े संतोष से अपने को देखते हुए वसंतकाल के प्रेम से पागल खरगोश की तरह चलने और भरसक शानदार दिखाई पड़ने की कोशिश करने लगा। श्रीमती मार्क्‍स, जो इस मजेदार दृश्‍य को देख रही थी, मुश्किल से अपनी हँसी का ठहाका रोक सकीं। जब उसका श्रृंगार खत्‍म हो गया तो मार्क्‍स ने जोर से खाँसकर अपने आने की सूचना दी जिससे वह ढोंगी आईने से एक कदम पीछे हटकर आगन्‍तुक का शान से झुककर स्‍वागत कर सका। परंतु मार्क्‍स के सामने बनावट या दिखावट से कुछ फायदा नहीं हो सकता था। और इसलिये छोटा लुई (जैसा कि बोनापार्ट से फर्क दिखाने के लिये पैरिस के मजदूर उसे कहते थे) शीघ्र ही यथासंभव स्‍वाभाविकता से बातें करने लगा।

6. काम करते समय मार्क्‍स
किसी ने कहा है कि ''परिश्रम करने की असीम योग्‍यता का नाम प्रतिभा है''। अगर पूरी तरह नहीं तो कम से कम बहुत हद तक यह जरूर सच है। ऐसा कोई प्रतिभाशाली मनुष्‍य नहीं होता जिसमें मेहनत करने की असाधारण शक्ति न हो और जो असाधारण मात्रा का काम न कर दिखाये। जो इन दोनों से अनजान है वह प्रतिभाशाली मनुष्‍य या तो सिर्फ एक क्षणभंगुर साबुन का बुलबुला है या हवाई किलों के बल पर लिखायी हुई हुंडी है। परन्‍तु जहाँ परिश्रम करने और कार्य संपादन करने की असाधारण शक्ति है वहीं प्रतिभा है। मुझे अनके मनुष्‍य मिले हैं जो अपने आपको प्रतिभावान समझते थे या कभी-कभी जिन्‍हें दूसरे भी प्रतिभावान समझते थे परंतु उनमें मेहनत करने की शक्ति नहीं थी। वे सिर्फ बातें बनाने में कुशल और अपनी तारीफ करने में तेज नौसिखिये थे। जितने सच्‍चे बड़े आदमियों से मैं मिला हूँ वे सब बड़े मेहनती थे और कठिन परिश्रम करते थे। यह बात पूरी तरह से मार्क्‍स के लिये लागू है। वह महान परिश्रम करते थे। बहुधा वह दिन में काम नहीं कर पाते थे, खासकर अपने भगोड़ेपन के जीवन के पहले हिस्‍से में। इसलिये वह रात को काम करते थे। जब किसी मीटिंग या सभा से देर में घर लौटते थे तो वह नियमानुसार कुछ घंटे बैठकर काम करते थे। और ये कुछ घंटे बढ़ते गये यहाँ तक कि वे लगभग सारी रात काम करने लगे और सुबह को सोने लगे। उनकी स्‍त्री ने इसका बड़ा विरोध किया परन्‍तु उन्‍होंने हँसते हुए कहा कि यह तो मेरे स्‍वभाव के अनुकूल है। मुझे खुद स्‍कूल में भी रात को देर तक या सारी रात काम करने की आदत थी क्‍योंकि उसी वक्‍त मुझे सबसे ज्‍यादा दिमागी चुस्‍ती मालूम होती थी। इसलिये मैंने इस मामले को श्रीमती मार्क्‍स की तरह बुरा नहीं समझा। पर उनका कहना ठीक था और अपनी असाधारण मजबूत काठी के होते हुए भी सन 1860 के लगभग मार्क्‍स को अपने शरीर के संबंध में तरह तरह की शिकायतें होने लगी। डाक्‍टर को दिखाना पड़ा और उसका नतीजा यह हुआ कि रात को काम करने की बिलकुल मनाही हो गयी और कसरत, हवाखोरी तथा घुड़सवारी करने को कहा गया। उस जमाने में मैं लन्‍दन के आसपास, खासकर उत्तर की पहाड़ियों की तरफ मार्क्‍स के साथ बहुत घूमा करता था। वह बड़ी जल्‍दी अच्‍छे हो गये क्‍योंकि वास्‍तव में उनका स्‍वास्‍थ्‍य घोर परिश्रम और कार्य संपादन के योग्‍य था। परन्‍तु वह मुश्किल से अच्‍छे हुए थे कि उन्‍होंने धीरे-धीरे अपनी रात को काम करने की आदत फिर शुरू कर दी। फिर एक संकट आया जिसकी वजह से उन्‍हें ठीक तरह से रहने के लिये मजबूर होना पड़ा। परन्‍तु यह तभी तक चलता था जब तक मजबूरी होती। यह तकलीफ ज्‍यादा जोर पकड़ने लगी, उन्‍हें तिल्‍ली की शिकायत हो गयी और बड़ी दुखदायी गिल्टियाँ निकलने लगीं। धीरे-धीरे उनका लोहे का शरीर कमजोर हो गया। मुझे पूरा विश्‍वास है, और यही उन डाक्‍टरों की राय भी है जिन्‍होंने आखिरी वक्‍त उनकी दवा की, कि अगर वह स्‍वाभाविक जीवन बिताते, यानी ऐसा जीवन जो उनसे शरीर के अनुकूल या यों कहिये कि स्‍वास्‍थ्‍य शास्‍त्र के अधिक अनुकूल होता तो वह आज भी जीवित होते। सिर्फ अपने आखिरी सालों में जब बहुत देर हो चुकी थी तब उन्‍होंने रात को काम करना बंद किया। परंतु वह उतना ही ज्‍यादा दिन में काम करते थे। जब भी हो सकता था वह हर मौके पर काम करते थे। जब वह घूमने जाते थे तब भी अपनी नोटबुक लिये रहते थे और बराबर लिखते रहते थे। और उनका काम कभी दिखावटी नहीं होता था। काम तरह-तरह का होता है। वह हमेशा खूब अच्‍छी तरह समझ कर पूरा-पूरा काम करते थे। उनकी लड़की इलीनोर ने मुझे इतिहास-संबंधी एक तालिका दी है जिसे मार्क्‍स ने एक छोटी सी टिप्‍पणी के लिये बनायी थी। सचमुच मार्क्‍स के लिये कोई चीज साधारण नहीं थी। अपने उसी समय के काम के लिये बनायी हुई यह तालिका इतनी मेहनत से बनायी गयी है जैसे छपवाने के लिये हो।
मार्क्‍स इस सहनशीलता से काम करते थे कि मैं बहुधा चकित हो जाता था। वह यह जानते ही न थे कि थकान होती क्‍या है। वे गिर पड़ते थे और तब भी आराम नहीं करते थे।
अगर आदमी की कीमत उसके किये हुए काम से लगायी जाय, जैसे काम की कीमत उसमें लगी मेहनत के हिसाब से लगायी जाती है, तब इस मापदण्‍ड से भी मार्क्‍स की इतनी कीमत होगी कि बुद्धि के महापुरुषों में थोड़े से ही उनकी बराबरी कर सकेंगे।
और काम की इतनी विशाल मात्रा के लिये पूंजीवादी समाज ने उन्‍हें मजूरी क्‍या दी है? उन्‍होंने चालीस साल तक ''कैपीटल'' पर मेहनत की, और मेहनत भी कैसी! उन्‍होंने इस तरह मेहनत की जो मार्क्‍स ही कर सकते थे। और मैं बात बढ़ा नहीं रहा हूँ। सचमुच मार्क्‍स की उस सदी की दो सवोच्‍च कृतियों में से एक के लिये (दूसरी रचना डार्विन की थी) जो पारिश्रमिक मिला उससे जर्मनी के सबसे कम वेतन वाले मजदूर को भी चालीस बरस के वेतन के रूप में ज्‍यादा मिल गया होगा।
विज्ञान का बाजार में मूल्‍य नहीं है। और क्‍या हम यह आशा कर सकते हैं कि अपने ही मृत्‍युदण्‍ड के ब्यौरे के लिये पूंजीवादी समाज अच्‍छा दाम देगा?

7. मार्क्‍स और बच्‍चे

बलवान और स्‍वस्‍थ स्‍वभाव के सब लोगों की तरह मार्क्‍स को बच्‍चों से असाधारण प्रेम था। वह केवल एक स्‍नेही बाप ही नहीं थे जो घंटों अपने बच्‍चों के साथ बालक बन सकते थे। बल्कि जो अपरिचित बच्चे, खासकर गरीब और अनाथ उनके सामने आ जाते थे, वह उनकी ओर चुम्‍बक के आगे लोहे की तरह खिंच जाते थे। हजारों बार गरीब मुहल्‍लों में घूमते हुए वह एकाएक चिथड़े पहने दरवाजे पर बैठे हुए किसी बच्‍चे के सिर पर हाथ फेरने और उसके हाथ में एक पैसा या टका देने के लिये अलग हो जाते थे। उन्‍हें भिखमंगों पर शक हो गया था क्‍योंकि लन्‍दन में भीख माँगने का पूरा व्‍यापार बन गया था-ऐसा व्‍यापार जिसमें कमाई तो ताम्‍बे की होती थी पर नींव सोने की बन गयी थी।
इसीलिए शुरू में तो जब तक उनके पास कुछ होता वह देने से इनकार नहीं करते थे। परन्‍तु बाद में वह भिखमंगों की बातों में देर तक नहीं आते थे-चाहे वह मर्द हो या औरत। उनमें से कुछ से तो वह बड़े नाराज होते थे जिन्‍होंने बनावटी बीमारी या दरिद्रता का कलापूर्ण प्रदर्शन करके उनसे कर वसूल किया था। वह मनुष्‍य की सहानुभूति से अनुचित लाभ उठाने को बहुत ही नीच काम और दरिद्रता की आड़ से चोरी करना समझते थे। पर अगर कोई भिखमंगा रोते हुए बच्‍चे को लेकर मार्क्‍स के सामने आ जाता था तो वह बिल्‍कुल हार जाते थे, चाहे भिखारी के चेहरे पर गुण्‍डापन कितना ही साफ क्‍यों न झलकता हो। वह किसी बच्‍चे की माँगती हुई आँखों के सामने पिघले बिना नहीं रह सकते थे।
शारीरिक दुर्बलता और असहायता देखकर उन्‍हें हमेशा बड़ी सहानुभूति होती थी। ऐसे मनुष्‍य को जिसने अपनी स्‍त्री को पीटा हो - और उन दिनों लन्‍दन में स्‍त्री-ताड़ना का बड़ा रिवाज था - उसे तो वे कोड़े लगवा कर मार डालते। ऐसे मौकों पर अपने जल्‍दबाज स्‍वभाव के कारण वह बहुधा अपने को और हमें मुसीबत में फँसा देते थे। एक दिन शाम को हम दोनों गाड़ी के दुमंजिले पर बैठे हैम्‍पस्‍टेड हीथ को जा रहे थे। एक शराबखाने के सामने गाड़ी के रुकने की जगह हमने एक भीड़ देखी जिसमें से एक औरत की ''खून-खून'' चिल्‍लाने की आवाज आ रही थी। बिजली की तरह फुर्ती से मार्क्‍स नीचे कूद गये और मैं उनके पीछे हो लिया। मैं उन्‍हें रोकना चाहता था, पर इससे अच्‍छा तो मैं खाली हाथ से बन्‍दूक की गोली रोकने की कोशिश करता। जरा सी देर में हम लोग भीड़ के बीच में पहुँच गये और हम चारों तरफ आदमियों की बाढ़ से घिर गये। ''क्‍या बात है?'' जो मामला था वह जल्‍दी ही दिखायी पड़ा। एक शराब के नशे में चूर औरत का अपने पति से झगड़ा हो गया था। पति उसे घर ले जाना चाहता था। वह जा नहीं रही थी और इस तरह चिल्‍ला रही थी जैसे कोई भूत सवार हो। यहाँ तक तो सब ठीक था। हमारे बीच-बचाव करने की कोई जरूरत नहीं थी, यह भी हमने देखा। पर इस बात को झगड़नेवाले दम्‍‍पति ने भी देखा, उन्‍होंने झट आपस में सुलह कर ली और हमारी तरफ घूम पड़े। भीड़ भी चारों तरफ से हमारे पास आने लगी और ''विदेशियों'' के लिये हालत खतरनाक हो गयी। उस औरत ने खासकर मार्क्‍स पर विकट हमला किया और उनकी सुन्‍दर चमकती हुई काली दाढ़ी को निशाना बनाया। मैंने तूफान को रोकने की कोशिश की, पर सब बेकार। अगर दो तगड़े पुलिसवाले बड़े मौके से युद्ध क्षेत्र पर न आ गये होते हो तो हमें बीच बचाव करने के अपने परमार्थी प्रयत्‍न का मँहगा दाम देना पड़ता। वहाँ से सही-सलामत लौटकर घर जाती हुई गाड़ी पर बैठकर हमें बड़ी खुशी हुई। इसके बाद बीच-बचाव की ऐसी कोशिश मार्क्‍स कुछ संभल कर करते थे।
विज्ञान के इस महारथी के भावों की गहराई और बचपन देखने के लिये मार्क्‍स को अपने बच्‍चों के साथ देखना जरूरी था। अपने फुरसत के वक्‍त या हवाखोरी में वह उनको लाद कर ले जाते थे और उनके साथ बड़े बे-मतलब हंसी-खुशी के खेल खेलते थे। संक्षेप में, बच्‍चों के साथ बच्‍चा बन जाते थे। हैम्‍पस्‍टेड हीथ पर हम ''घुड़सवारी'' खेला करते थे। एक छोटी लड़की को मैं अपने कंधे पर बैठा लेता था, दूसरी को मार्क्‍स और फिर कूदते, भागते हुए हम आपस में होड़ करते थे। कभी-कभी घुड़सवारों में थोड़ी सी लड़ाई भी होती थी। लड़कियाँ लड़कों की तरह बेरोकटकोट थीं और बिना रोये दो एक गद्दे भी सह लेती थीं।
मार्क्‍स के लिये बच्‍चों का साथ जरूरी था, इस तरह से वह अपने को दुबारा ताजा कर लेते थे। और जब उनके खुद के बच्‍चे मर गये तो उनकी जगह नाती नातनियों ने ले ली। जेनी ने 1870 के लगभग कम्‍यून के बाद निर्वासित होने वाले लौंगुए से ब्‍याह किया था। उसके कई बच्‍चे थे जो बड़े शैतान थे। उनमें सबसे बड़ा जौन या जौनी जो अब जबरदस्‍ती ''स्‍वयंसेवक'' होकर फ्रांस में एक साल बिताने वाला है, खास तौर पर अपने नाना का लाड़ला था। वह उनके साथ जो चाहे कर सकता था और इस बात को जानता था। एक दिन मैं लंदन गया हुआ था तो जौनी को, जिसे उसके माँ बाप ने पैरिस से भेज दिया था (और ऐसा हर साल कई बार होता था) मार्क्‍स को गाड़ी बनाने का महान विचार आया और उसके कोचबक्‍स यानी मार्क्‍स के कंधे पर वह डट गया। उसने मुझे और एंगेल्‍स को गाड़ी के घोड़े बनाया। जब हम ठीक तरह जुत गये तो मेटलैण्‍ड पार्क रोड वाले मार्क्‍स के मकान के पीछे के बगीचे में खूब जोर की दौड़ हुई। मुझे यह कहना चाहिये कि गाड़ी खूब हाँकी गयी। शायद यह रीजेन्‍ट पार्क के एंगेल्‍स के घर में हुआ हो। लंदन के मामूली घर इतने मिलते जुलते होते हैं कि वे आसानी से एक दूसरे से मिल जाते हैं खासकर घर का बगीचा। घास और बजरी पड़ी हुई थोड़ी सी चौकोर जगह-लंदन की कालिख या काले बर्फ से यानी चारों तरफ उड़ते हुए धुएँ से ऐसी ढकी हुई कि यह नहीं बताया जा सकता था कि घास कहाँ तक है और बजरी कहाँ तक। लंदन का बगीचा ऐसा ही होता है।
अब वह चली! तिक् तिक्-जर्मन, अंग्रेजी और फ्रेंच में दुनिया भर के हुंकारों से - हुर्रा, जी अप आदि के साथ। मूर को इतना दुलकी चाल दौड़ना पड़ा कि उनके मुँह पर से पसीना चूने लगा और यदि मैं या एंगेल्‍स जरा भी रफ्तार कम करते थे तो‍ निर्दयी कोचवान का चाबुक फौरन हमारी कमर पर पड़ता - अरे बदमाश घोड़े! आगे बढ़ो! जब तक कि मार्क्‍स बिल्‍कुल न थक गये दौड़ चलती रही। फिर जौनी के साथ सुलह की बातचीत शुरू हुई और सन्धि हो गयी।

8. लेन्‍चेन
जब से मार्क्‍स ने घर बसाया, तब से लेन्‍चेन उनकी एक लड़की के शब्‍दों में घर की आत्‍मा हो गयी। घर का सारा कामकाज वही करती थी। क्‍या कोई ऐसा काम था जो उसे नहीं करना पड़ता था? क्‍या कोई ऐसा काम था जिसे वह खुशी से नहीं करती थी? मैं तो सिर्फ सोने की तीन गेंद वाले उन दयालु रिश्‍तेदार ''चचा'' के यहाँ बारबार जाना याद करता हूँ जो बड़े रहस्‍यपूर्ण और निन्दित थे लेकिन थे बड़े सभ्‍य। और लेन्‍चेन हमेशा खुश, हँसती रहती और मदद करने को तैयार रहती थी। परन्‍तु नहीं! वह नाराज भी हो सकती थी और मूर के दुश्‍मनों को उससे बड़ी जबर्दस्‍त नफरत थी।
यदि श्रीमती मार्क्‍स की तबियत अच्‍छी नहीं होती थी तो वह माँ भी बनती थी। अन्‍य अवसरों पर वह बच्‍चों की दूसरी माँ की तरह थी। उसकी अपनी मर्जी भी थी जो बहुत दृढ़ और कट्टर होती थी। जो वह आवश्‍यक समझती थी उसका होना अनिवार्य था।
जैसा मैं कह चुका हूँ, लेन्‍चन का एक तरह का एकाधिपत्‍य था। सब के संबंध को साफ-साफ बताने के लिये यह कहा जा सकता है कि वह घर में डिक्‍टेटर थी और श्रीमती मार्क्‍स राजा। इस शासन के सामने मार्क्‍स भेड़ बनकर रहते थे। यह कहा गया है कि अपने नौकर की नजरों में कोई भी बड़ा आदमी नहीं होता। निश्‍चय ही लेन्‍चेन की आंखों में मार्क्‍स तो बड़े आदमी नहीं थे। वह उनके लिये अपने को बलिदान कर देती, उनके लिये और श्रीमती मार्क्‍स और हर एक बच्‍चे के लिये, यदि यह आवश्‍यक या संभव होता तो अपनी जान सौ बार भी दे देती और उसने सचमुच अपनी जान दी। पर मार्क्‍स उस पर रोब नहीं जमा सके। वह उनके मिजाज और कमजोरियों को जानती थी और उनसे मनमानी करा सकती थी। उनका चाहे कितना ही चि‍ड़चिड़ा मिजाज हो रहा हो, चाहे वह कितने ही नाराज हो रहे हों और सब लोग उनसे दूर रहने में खैरियत समझते हों लेन्‍चेन शेर की माँद में घुस जाती थी और वह यदि गुर्राते थे तो ऐसा सबक पढ़ाती थी कि शेर भेड़ की तरह पालतू हो जाता था।

9. मार्क्‍स के साथ हवाखोरी

हैम्‍पस्‍टेड हीथ की हमारी यात्राएँ! अगर मैं एक हजार बरस तक जिन्‍दा रहूँ तो भी मैं उन्‍हें कभी नहीं भूल सकता। हैम्‍पस्‍टेड हीथ (मैदान) प्रिमरोज हिल नामक पहाड़ी से आगे है और उसी की तरह लंदन के बाहर की दुनिया उसे डिकेन्‍स के उपन्‍यास ''पिकविक पेपर्स'' से जानती है। आज तक वह जगह बहुत कुछ मैदान ही है - पहाड़ी जमीन जिस पर कोई इमारत नहीं है और काँटेदार झाडि़यों और पेड़ों के झुण्‍ड हो रहे हैं। उसमें छोटे छोटे पहाड़ और घाटियाँ हैं जहाँ स्‍वेच्‍छापूर्वक खेला और घूमा जा सकता है। वहाँ यह डर नहीं रहता कि बिना आज्ञा के किसी की निजी सम्‍पत्ति पर चढ़ आये हों और वहीं उस पवित्र सम्‍पत्ति के चौकीदार से टोके जाँय और जुरमाना देना पड़े। लन्‍दनवासियों के घूमने के लिये अब भी हैम्‍पस्‍टेड हीथ एक प्रिय जगह है और खुले मौसम में इतवार को वह आदमियों के कपड़ों से काला और औरतों के कपड़े से रंगबिरंगा बना रहता है। सदा के धैर्यवान गधे और लट्ट घोड़े की परीक्षा लेने का औरतों को खास शौक होता है। चालीस साल पहले हैम्‍पस्‍टेड का मैदान आज से कहीं बड़ा और जंगली था। हैम्‍पस्‍टेड हीथ पर इतवार बिताना हमारे लिये बड़ी खुशी की बात होती थी। बच्‍चे उसके बारे में पूरे एक हफ्ते पहले बात करने लगते थे और हम बड़े लोगों, बूढे़ ओर जवान सबके लिये यह बड़ी प्रसन्‍नता की बात होती थी। यहाँ तक कि खाली यात्रा भी एक त्‍यौहार के समान थी। डीन स्‍ट्रीट में मार्क्‍स का कुनबा रहता था, और चर्च स्‍ट्रीट में मेरा लंगर पड़ा हुआ था। वहाँ से हीथ का रास्‍ता अच्‍छा खासा सवा घण्‍टे का था और ज्‍यादातर हम लोग सुबह के 12 बजे चल पड़ते थे। यह ठीक है कि अक्‍सर हम लोग देर में चलते थे क्‍योंकि लंदन में सबेरे उठने का रिवाज नहीं है और सब कुछ तैयार करने में बच्‍चों की देखभाल करने और टोकरी लगाने में, कुछ वक्‍त हमेशा लग जाता था।
ओकरी! वह तो हमेशा मेरी मन की आँखों के सामने ऐसी साफ ललचाती और देखने से भूख जगाती हुई लटकती रहती है जैसे कि मैने कल ही उसे लेन्‍चेन के हाथ में देखा हो।
व‍ह टोकरी ही हमारे खाने का गोदाम थी और जब किसी का पेट मजबूत और स्‍वस्‍थ होता है और अक्‍सर जेब में काफी रेजगारी नहीं होती (ज्‍यादा दाम होने का तो उस समय सवाल उठ ही नहीं सकता था) तो खाने का सवाल बड़ा महत्‍वपूर्ण होता है। और अच्‍छी लेन्‍चेन जिसका हम दरिद्र और इसलिए सदाभूखे मेहमानों के लिए बड़ा सहानुभूतिपूर्ण हृदय था, इस बात को अच्‍छी तरह जानती थी। हैम्‍पस्‍टेड हीथ पर इतवार को बछड़े के मांस का एक बड़ा-सा भुना हुआ टुकड़ा हमेशा से खास चीज होता था। द्रेव्‍य के जमाने से लेन्‍चेन की बचाई हुई एक बहुत बड़ी टोकरी इस परम पवित्र वस्‍तु के लिए बरतन का काम देती थी। भुने हुए मांस के साथ चाय, चीनी मिलती थी और कभी-कभी फल भी। डबल रोटी और पनीर तो हम लोग हीथ पर ही खरीद सकते थे जहाँ बर्लिन के कॉफी के बागों की तरह दूध के साथ गर्म पानी और चीनी के बर्तन मिल सकते थे और हर एक अपनी इच्‍छा या सामर्थ्‍य के अनुसार वहाँ के सलाद, पानी के झीगुर आदि के साथ रोटी, मक्‍खन, पनीर, शराब आदि खरीद सकता था और अब भी खरीद सकता है।
वहाँ की यात्रा इस भाँति होती थी। मैं दोनों लड़कियों के साथ आगे चोबदार की तरह चलता था - कभी कहानियाँ सुनाता हुआ, कभी मनमानी कसरत करता हुआ या जंगली फूलों को ढूँढ़ता हुआ जो इन दिनों इतने कम नहीं थे जितनें अब हैं। हमारे पीछे कुछ दोस्‍त चलते थे। फिर सेना का मुख्‍य भाग आता था, अर्थात मार्क्‍स और उनकी स्त्री और शायद कोई इतवार के मिलनेवाले जो हमारे ध्‍यान को थोड़ा सा आकर्षित करते थे। और इनके पीछे आती थी लेन्‍चेन - सब से भूखे मेहमानों के साथ जो टोकरी उठाने में उसकी मदद करते थे। अगर कुछ मेहमान होते थे तो वे सेना की कतारों के बीच में बँट जाते थे। मुझे कह कहने की शायद जरूरत नहीं है कि अपनी इच्‍छा या आवश्‍यकता के अनुसार यह यात्रा-क्रम या सेना-विभाजन बदला जा सकता था।
मैदान में पहुँचकर इस बात का ध्‍यान रखते हुए कि वहाँ चाय या शराब मिल सकेगी, पहले तो हम ऐसी जगह ढूँढ़ते थे जहाँ हम अपना डेरा जमा सकें।
खाने पीने से ताजे होने के बाद, सब लोग बैठने के लिए सबसे अच्‍छी जगह ढूँढ़ते थे और यदि सोना ज्‍यादा पसन्‍द न किया गया तो, रास्‍ते में खरीदे हुए इतवार के अखबार जेब से निकाले जाते थे और हम पढ़ना और राजनीति पर बात करना शुरू कर देते थे। बच्‍चे जिन्‍हें जल्‍द से साथी बन जाते थे झाड़ियों में आंख मिचौनी खेलते थे।
परन्‍तु अपने आराम के जीवन में हमें कुछ विभिन्‍नता लानी होती थी इसलिये दौड़ होती थी, कभी-कभी कुस्‍ती होती थी, पत्‍थरों से निशाना लगाना या और खेल होते थे। एक इतवार को हमने पड़ोस में एक पके फलवाला अखरोट का पेड़ ढूंढ़ निकाला। किसी ने कहा कि देखें कौन सबसे ज्‍यादा गिराता है और 'हुय' चिल्‍लाते हुए हम लोग जुट गये। मूर तो पागल जैसे हो गये और सचमुच अखरोट गिराने में वह बहुत कुशल नहीं थे। परंतु वह थकते न थे - जैसे हम सब थे। जब खुशी के शोर के साथ आखिरी अखरोट गिरा लिया गया तब गोलाबारी बंद हुई। उसके आठ दिन बाद तक मार्क्‍स अपना सीधा हाथ नहीं चला सके और मेरी भी इससे अच्‍छी हालत नहीं थी।
सबसे बड़ा उत्‍सव घोड़ों-गधों की सवारी था। कितने जोर की हंसी और आनंद का फव्वारा छूटता था! और क्‍या मजेदार दृश्‍य होते थे! मार्क्‍स ने कितना अपने को हँसाया - और हमें! उन्‍होंने हमें दो तरह से हँसाया - अपने सवारी करने के दकियानूसी कौशल और उस कला में अपनी योग्‍यता की कट्टरता से घोषणा करके। उनकी योग्‍यता यह थी कि एक बार उन्‍होंने घुड़सवारी सीखी थी - एंगेल्‍स कहते थे कि वह तीन बार से ज्यादा नहीं गये थे। छुट्टी के जमाने में जब वह मेन्‍चेस्‍टर गये थे तो एंगेल्‍स के साथ एक रोजीनेन्‍ट पर उन्‍होंने सवारी की थी जो कि शायद उस भेड़ जैसी सीधी घोड़ी की पोती थी जिसे बूढ़े फ्रिट्ज ने गेलर्ट को भेंट किया था।
हैम्‍पस्‍टेड हीथ से हमारा लौटना भी बड़ा मजेदार होता था यद्यपि खुशी के बारे में बाद में सोचने में इतना मजा नहीं आता जितना उसके पहले। हम लोग अपने व्‍यंगात्‍मक हास्‍य से उदास होने से बच जाते थे यद्यपि उसके लिये हमारे पास कारण तो खूब थे। हमारे लिये निर्वासित जीवन के कष्‍ट तो थे नहीं - अगर कोई शिकायत करने लगता था तो उसे प्रबल रूप से अपने सामाजिक कर्तव्य की याद दिलायी जाती थी।
लौटने का तारीका जाने से भिन्‍न था। दौड़-भाग से बचे थके होते थे और लेन्‍वेन के साथ वे हमारे पीछे चौकीदार बनते थे। टोकरी खाली हो जाने से लेन्‍चेन के पास बोझ कम होता था और वह तेज चल सकती थी। अक्‍सर हम लोग गाना शुरू करते थे, कभी-कभी राजनीतिक गाने पर ज्‍यादातर ग्राम गीत, खासकर भावुक गाने या मातृभूमि के बारे में देश भक्ति के गाने आदि। या बच्‍चे हमें हब्शियों के गाने सुनाते थे और यदि उनके पैरो की थकान दूर हो गयी होती तो नाचते भी थे। चलते समय भगोड़े के दुखों की बातें करना उतना ही मना था जितना राजनीति की बातें करना। बल्कि हम लोग साहित्‍य और कला के बारे में बहुत बातें करते थे और तब मार्क्‍स को अपनी अद्भुत स्‍मरण शक्ति दिखाने का मौका मिलता था। वह 'डिवाइन कामेडी' के लम्‍बे-लम्‍बे उद्धरण पढ़ते थे। वह उन्‍हें लगभग पूरी जबानी याद थी। वह शेक्‍सपियर के नाटकों में से भी सुनाते थे। इसमें उनकी स्‍त्री, जिन्‍हें शेक्‍सपियर का खूब ज्ञान था, बहुधा उनकी मदद करती थीं।
लगभग सन 1860 से हम लोग लंदन के उत्तर में केन्टिश टाउन और हेवरस्‍टौक हिल में रहने लगे और तब हमारे घूमने की प्रिय जगह हैम्‍पस्‍टेड और हाइगेट के पीछे के मैदान तथा पहा़डि़याँ थीं। यहाँ हम लोग फूल ढूँढ़ सकते थे और फूलों की पहचान कर सकते थे - इससे शहर के बच्‍चों को खास खुशी होती है। जिनको बड़े शहर के निर्जीव पत्‍थरों के सागर में रहते-रहते प्रकृति की हरियाली के दृश्‍यों के लिये प्रबल चाह हो जाती है। जब घूमते भटकते हुए हमें पेड़ों से ढंका हुआ कोई तालाब मिल जाता था और मैं बच्‍चों को सबसे पहला सचमुच का 'मुझे मत भूलना' नाम का जंगली फूल दिखा पाता था हमें कितनी खुशी होती थी। जब हम किसी सुन्‍दर मखमल जैसे हरे मैदान में, जिसमें हम बिना आज्ञा न घुसने की चेतावनी के विरुद्ध देखभाल करने के बाद घुसते थे किसी सुरक्षित स्‍थान पर और वसंती फूलों के साथ कोई जंगली फूल पाते थे तो हमें और भी ज्‍यादा खुशी होती थी।

10. बीमारी व मृत्‍यु

(यह मार्क्‍स की सबसे छोटी लड़की एलिएना का पत्र है जो उसने लीबनेख्‍ट को लिखा था। यह पत्र लीबनेख्‍ट ने अपने संस्‍करणों में पूरा का पूरा उद्धृत कर दिया है। -सं.)
मुस्‍तफा (एलजीअर्स) में मूर के ठहरने के बारे में मैं इससे कुछ ज्‍यादा नहीं कह सकती कि मौसम बहुत बुरा था। मूर को वहाँ एक बड़ा होशियार और दोस्‍ताना बर्ताव का डाक्‍टर मिला और होटल में हर एक आदमी उनका ख्याल करता था और उनसे दोस्‍त की तरह मिलता था।
सन 1881-82 की शरद ऋतु तथा जाड़ों में मूर पहले तो जेनी के पास पैरिस के निकट आरजेनतियूल में रहे। वहाँ हम लोग मिले और कुछ हफ्तों तक साथ रहे। फिर वह दक्खिनी फ्रांस और एलजीरिया गये परंतु बहुत बीमार होकर लौटे। वाइट के टापू पर वेन्‍टनारे में उन्‍होंने सन 1882-83 की शरद ऋतु और जाड़े बिताये और वहाँ से वह 8 जनवरी को जेनी की मृत्‍यु के बाद सन 1883 में लौटे।
अच्‍छा अब कार्ल्‍सबाद के बारे में। हम सबसे पहले वहाँ सन 1874 में गये थे। नींद न आने और तिल्‍ली की शिकायत के कारण मूर को वहाँ भेजा गया था। पहली बार जाने से उन्‍हें बहुत फायदा हुआ इसलिये अगले साल साल सन 1875 में वह वहाँ अकेले गये। उसे अगले साल उन्‍होंने मुझे बहुत याद किया था। कार्ल्‍सबाद में बड़ी ईमानदारी से उन्‍होंने अपना इलाज किया और जो कुछ डाक्‍टरों ने बताया बिल्‍कुल वही किया। वहाँ हमारे बहुत से दोस्‍त बन गये। यात्रा के लिये मूर बड़े अच्‍छे साथी थे। वह हमेशा खुश रहते थे और हर चीज को पसन्‍द करते थे, चाहे वह सुंदर दृश्‍य हो या शराब का गिलास। इतिहास के अपने विस्‍तृत ज्ञान से वह हर जगह को भूत काल में वर्तमान से भी ज्‍यादा सजीव बनाकर दिखा सकते थे।
मैं समझती हूँ कि मार्क्‍स के कार्ल्‍सबाद में रहने के बारे में बहुत सी बातें कही गयी हैं। और बातों के साथ-साथ मैंने एक लम्‍बे लेख के बारे में सुना था। मुझे अब याद नहीं कि वह किस पत्रिका में छपा था। शायद डी. में रहने वाला एम. ओ. इसके बारे में कुछ और बता सकेगा। उसने मुझ से एक बड़े अच्‍छे लेख के बारे में कहा था।
सन 1874-75 में हम दोनों लीपजिग में मिले। फिर घर लौटते हुए हम लोग बिन्‍गेन गये जो जो मार्क्‍स मुझे दिखाना चाहते थे क्‍योंकि मेरी माँ के साथ वे वहाँ 'हनीमून' के लिये गये थे। इसके अलावा इन दो यात्राओं में हम ड्रेस्‍डेन, बर्लिन, हैमबर्ग और न्‍यूरमबर्ग भी गये।
सन 1877 में मूर को फिर कार्ल्‍सबाद जाना चाहिये था। परंतु हमें खबर मिली कि जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया की सरकार का उन्‍हें निकाल देने का इरादा है। यात्रा इतनी लम्‍बी और खर्चीली थी कि देश निकाले के खतरे की अवहेलना नहीं की जा सकती थी। इसलिये मूर फिर कार्ल्‍सबाद नहीं गये। इससे उन्‍हें हानि हुई क्‍योंकि वहाँ अपना इलाज करने के बाद उन्‍हें ऐसा लगता था कि उनका कायाकल्‍प हो गया हो।
मेरे पिता के वफादार दोस्‍त और मेरे प्रिय मामा एडगर फौन वेस्‍ट्फेलन से मिलने के लिये ही हम बर्लिन गये थे। वहाँ हम थोड़े दिन ही कम रहे। मूर को यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि तीसरे दिन, हमारे चले जाने की ठीक एक घंटे बाद, पुलिस उनके लिये होटल में आयी थी।
सन 1880 के शरद काल में जब कि हमारी प्‍यारी माँ इतनी बीमार थीं कि वह मुश्किल से पलंग पर से उठ सकती थीं, मूर को प्‍लूरसी का दौरा हुआ। वे हमेशा अपनी बीमारी के बारे में लापरवाही करते थे इसलिये वह इतनी खतरनाक हो गयी। हमारा श्रेष्‍ठ मित्र डौंकिन जो डाक्‍टर था बीमारी को निराशाजनक समझता था। बड़ी विपदा का समय था। सामने के बड़े कमरे में माँ लेटी रहती थीं, पीछे वाले में मूर। और वे दोनों तो परस्‍पर इतने निकट थे और एक दूसरे के साथ रहने के इतने आदी हो गये थे, वे एक ही कमरे में नहीं रह सकते थे।
मुझे और हमारी बुढ़िया लेन्‍चेन को (तुम जानते हो वह हमारे लिये क्‍या थी) उन दोनों की देखभाल करनी पड़ी। डाक्‍टर ने यह कहा कि हमारी देखभाल ने ही मूर की जान बचा ली। खैर, जो कुछ भी हो, मैं तो सिर्फ यह जानती हूँ कि तीन हफ्ते तक मैं और लेन्‍चेन बिल्‍कुल नहीं सोये। हम दोनों दिन और रात इधर से उधर फिरते थे और हममें से कोई बिल्‍कुल थक जाता था तो हम बारी-बारी से एक घंटा आराम कर लेते थे। एक बार मूर ने अपनी बीमारी को परास्‍त कर दिया। मैं वह दिन कभी नहीं भूलूँगी जब उन्‍होंने माँ के कमरे में जाने लायक शक्ति का अनुभव किया। साथ-साथ वे दोनों जवान बन गये, वह एक प्रेमिका युवती और वह एक प्रेमी युवक जो साथ साथ जीवन में पदार्पण कर रहे थे। बीमार से क्षीण बूढ़े और मरती हुई बुढ़िया की सी जो जीवन भर के लिये बिदा हो रहे हैं, उनकी अवस्‍था न रही।
मूर कुछ सुधर गये और यद्यपि उनमें अभी तक ताकत नहीं थी तो भी वह ताकतवर मालूम होने लगे।
फिर माँ की मृत्‍यु हो गयी, दूसरी दिसम्‍बर सन 1881 को। उनके अंतिम शब्‍द मार्क्‍स के प्रति थे और यह अचरज की बात है कि वे अंग्रेजी में थे। जब हमारे प्रिय जनरल (एंगेल्‍स) आये तो इस मृत्‍यु का समाचार सुनकर उन्‍होंने कहा कि मूर भी मर गया। इस बात को सुनकर उस समय तो मुझे बहुत क्रोध आया था।
किन्‍तु सचमुच था ऐसा ही।
माँ के प्राणों के साथ मूर के प्राण भी चले गये। उन्‍होंने काम चलाते रहने की बड़ी कोशिश की क्‍योंकि वह अंत समय तक योद्धा बने रहे। पर उनका दिल टूट चुका था। उनकी सेहत बिगड़ती ही चली गयी। अगर वह ज्‍यादा स्‍वार्थी होते तो होनी को होने देते। परन्‍तु उनके लिये एक चीज सबसे पहले थी और वह थी साम्‍यवादी क्रांति के लिये उनकी भक्ति। उन्‍होंने अपनी महान रचना को पूरा करने की कोशिश की और इसलिये वह अपने स्‍वास्‍थ्‍य के लिये एक और यात्रा करने को राजी हो गये।
सन 1882 के वसन्‍त काल में वह पैरिस और आरजेनतियूल गये जहाँ मैं उनसे मिली और हमने बच्‍चों के साथ सचमुच बड़ी खुशी से कुछ दिन बिताये। फिर मूर पश्चिमी फ्रांस गये और उसके बाद एलजिअर्स।
एलजिअर्स, नीस तथा कैन्‍स में सब जगह में सब जगह जब तक वे रहे तब तक उन्‍हें मौसम खराब मिला। उन्‍होंने एलजिअर्स से मुझे लम्‍बे-लम्‍बे पत्र लिखे। उनमें से बहुत से मेरे पास से खो गये हैं। क्‍योंकि मूर के कहने से मैं उन्‍हें जेनी को भेज देती थी और उसने उनमें से बहुत कम वापिस किये।
जब आखिरकार मूर घर लौटे तो वह बहुत बीमार थे और हमें अब अनिष्‍ट की आशंका होने लगी। डाक्टर की सलाह से उन्‍होंने शरद ऋतु और जाड़े के दिन वाइट के टापू पर वेन्‍टनोर में बिताये। मुझे यह कह देना चाहिये कि उस समय मूर की इच्‍छा के अनुसार मैंने जेनी के सबसे छोटे लड़के जौनी के साथ इटली में तीन महीने बिताये। सन 1883 के वसन्‍त काल में मैं मूर के पास वापिस चली गयी और अपने साथ जौनी को ले गयी जो नाति-नातनियों में उनका विशेष लाड़ला था। मुझे वापस जाना पड़ा क्‍योंकि मुझे पढ़ाना था।
और अब अंतिम धक्‍का लगा, जेनी की मृत्‍यु की खबर आयी। जेनी मूर की सबसे बड़ी और लाड़ली बेटी थी। वह अचानक 8 जनवरी को चल बसी। हमारे पास मूर के पत्र आये थे - और वे इस समय भी मेरे सामने रखे हैं - जिनमें उन्‍होंने लिखा है कि जेनी की सेहत बेहतर है और हमें (हेलेन को और मुझे) फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। जिस पत्र में मूर ने यह लिखा था उसके मिलने के एक घंटे बाद ही हमें जेनी की मृत्‍यु का तार मिला। मैं तुरन्‍त वेन्‍टनोर गयी।
मेरे जीवन में बहुत सी दुख की घड़ियाँ बीती हैं परंतु इतनी करुण कोई भी नहीं। मुझे ऐसा मालूम पड़ा जैसे मैं अपने बाप को उनकी मौत की सजा की खबर देने जा रही हूँ। लम्‍बी और फिक्र भरी यात्रा में यह सोचकर अपने दिमाग को यातना देती रही कि मैं उन्‍हें यह खबर कैसे दूँ। मुझे कहने की जरूरत नहीं हुई। उन्‍हें तो मेरे चेहरे से सब मालूम हो गया। मूर ने कहा ''हमारी जेनी मर गयी'' और फिर मुझसे पैरिस जाने और बच्‍चों की देखभाल में मदद करने को कहा। मैं तो उनके साथ रहना चाहती थी पर उन्‍होंने एक न सुनी। मुझे वेन्‍टनोर पहुँचे मुश्किल से आधा घंटा हुआ होगा कि मैं फोरन पैरिस को रवाना होने के लिये उदासी से लन्‍दन जा रही थी। मूर ने जो कहा वह मैंने बच्‍चों के खयाल से किया।
मैं अपनी यात्रा की बात नहीं करूंगी, उसे याद करके मैं काँप जाती हूँ। वह यातना, वह मानसिक कष्‍ट - पर उसे जाने दो। यह कहना काफी है कि मैं लौट आयी और मूर वापस घर चले गये - मरने के लिये।
अब अपनी माँ के बारे में एक बात। वह महीने भर मृत्‍युशैया पर पड़ी रहीं और उन्‍होंने उन सब दारुण कष्‍टों को सहा जो कैन्‍सर के साथ आते हैं। परंतु फिर भी उनका अच्‍छा स्‍वभाव, उनका उन्‍मुक्‍त हास्‍य, जिसे तुम खूब जानते हो, एक पलभर के लिये भी नहीं गया। उन दिनों (सन 1881 में) जर्मनी में जो चुनाव हो रहे थे उनके नतीजे के बारे में वह उत्‍सुकता से पूछती थीं और हमारी जीत पर उन्‍हें बड़ी खुशी हुई। मरते समय तक वह हँसमुख रहीं और मजाक करके हमारी फिक्र को मिटाने की कोशिश करती रहीं। हाँ, इतने घोर दुख में भी वह मजाक करती थीं, हँसती थीं। वह डाक्‍टर के और हम सबके ऊपर हँसती थीं, क्‍योंकि हम इतने गंभीर थे। लगभग अंतिम क्षण तक उन्‍हें पूरा होश रहा और जब वह और नहीं बोल सकीं - उनके अंतिम शब्‍द 'कार्ल' के प्रति थे - तो उन्‍होंने हमारा हाथ दबाया और मुस्‍कराने की कोशिश की।
जहाँ तक मूर का सवाल है, तुम जानते हो कि मेटलैण्‍ड पार्क में वह अपने सोने के कमरे से पढ़ने के कमरे में गये, आराम कुर्सी पर बैठे और शांति से सो गये।
''जनरल'' ने इस आराम कुर्सी को अपनी मृत्‍यु तक रखा और अब वह मेरे पास है।
अगर तुम मूर के बारे में लिखो तो लेन्‍चेन को मत भूल जाना। मैं जानती हूँ, तुम माँ को नहीं भूलोगे। कुछ हद तक लेन्‍चेन वह धुरी थी जिसके चारों ओर सारा घर चलता था। वह सच्‍ची और सबसे अच्‍छी दोस्‍त थी। इसीलिये अगर तुम मूर के बारे में लिखो तो लेन्‍चेन को मत भूल जाना।
जब तुम्‍हारी इच्‍छा है तो अब मार्क्‍स के दक्खिन में रहने के बारे में थोड़ा और कहती हूँ। हमने यानी मैंने और मूर ने सन 1882 के शुरू में आर्जेनतियूल में जेनी के साथ कुछ हफ्ते बिताये। मार्च और अप्रैल में मूर एलजिअर्स में रहे और मई में मौन्टिकार्लो, नीस व कैन्‍स में। जून के अंतिम दिनों में और जुलाई भर वह फिर जेनी के साथ रहे और उस समय लेन्‍चेन भी आर्जेनतियूल में थी। आर्जेनतियूल से मूर लारा के साथ, स्विट्जरलैण्‍ड, बेवी वगैरह गये। सितम्‍बर के अंत या अक्‍टूबर के शुरू में इंग्‍लैण्‍ड लौटे और फौरेन वेन्‍टनोर गये जहाँ मैं और जौनी उनसे मिले थे।
एडगर मुश का जन्‍म सन 1847 में हुआ था - मुझे ठीक नहीं मालूम - सन 1855 में वह मर गया। छोटा फौक्‍स (फौक्‍सचेन) हाइनरिख पांचवीं नवम्‍बर सन 1849 को पैदा हुआ था और दो बरस का ही मर गया था। मेरी छोटी बहिन, फ्रैंसिस्‍का जो सन 1857 में हुई थी लगभग ग्‍यारह महीने की उम्र में ही मर गयी थी।
और अब मैं अपनी प्रिय हेलेन के बारे में तुम्‍हारे सवाल को लेती हूँ। हम लोग उसे 'निमी' कहते थे। क्‍योंकि न मालूम क्‍यों‍ बचपन से ही जौनी लौंगुए उसे यही कहकर पुकारता था। आठ या नौ बरस के बच्‍चे की तरह लेन्‍चेन वेस्‍टफेलिया से मेरी नानी के पास आई थी और वह मूर, माँ और एडगर फौन वेस्‍टफेलन के साथ बड़ी हुई। हेलेन को पुराने वेस्‍टफेलन से हमेशा बड़ा प्रेम रहा और मूर को भी। बूढ़े बैरन फौन वेस्‍टफेलन के बारे में, उनके शेक्‍सपियर और होमर के ज्ञान के बारे में बतलाते हुए मूर कभी नहीं थकते थे। वे शुरू से आखीर तक होमर की पूरी कविताएँ सुना सकते थे। शेक्‍सपियर के अधिकांश नाटक अंग्रेजी और जर्मन दोनों में उन्‍हें जबानी याद थे। इसके विपरीत मूर के पिता और मूर अपने पिता का बड़ा सम्‍मान करते थे - 18वीं सदी के असली फ्रांसवासी थे। जिस तरह वेस्‍टफेलन को शेक्‍सपियर और होमर याद था, उसी तरह उन्‍हें वोल्‍तेअर और रूसो पूरे जबानी याद थे। और निस्‍संदेह बहुत हद तक मार्क्‍स की बहुमुखी प्रतिभा उनके माँ-बाप के प्रभाव का परिणाम थी।
किन्‍तु अब हेलेन के विषय पर वापिस आना चाहिये। मैं नहीं कह सकती कि हेलेन मेरे माँ-बाप के पास कब आयी - उनके पैरिस जाने के पहले या बाद (जहाँ वे शादी के बाद जल्‍दी ही गये थे)। मैं सिर्फ यह जानती हूँ कि नानी ने माँ के पास उस लड़की को यह कहकर भेजा था कि प्रिय और वफादार लेन्‍चेन के रूप में वह सबसे अच्‍छी वस्‍तु भेज रही है। और वफादार लेन्‍चेन बराबर मेरे माँ-बाप के साथ रही और बाद में उसकी छोटी बहिन मैरियान भी आ गयी। मैरियान की तुम्‍हें शायद ही याद होगी, क्‍योंकि वह तुम्‍हारे समय के बाद आयी थी।

11. गरीबी और तकलीफ
मार्क्‍स के बारे में अनगिनत झूठी बातें फैलायी गयी हैं। यह कहा गया है कि जब और सब निर्वासित भूखे और कष्‍ट से दिन बिताते थे, तब मार्क्‍स ऐश और आराम से रहते थे। यहाँ सविस्‍तार बातें कहना अनुचित होगा। परंतु मैं यह कह सकता हूँ कि उनके रोजनामचों को देखकर जो सजीव चित्र मेरी आँखों के सामने आ जाता है वह किसी एक अकेली घटना का नहीं है जो किसी के साथ भी हो सकती है खासकर विदेश में जहाँ विदेश में जहाँ कोई मदद करनेवाले नहीं होते। मार्क्‍स और उनके परिवार ने बरसों तक निर्वासित के जीवन के दुखों का अनुभव किया। ऐसे निर्वासित परिवार कम होंगे जिन्‍होंने मार्क्स और उनके परिवार से ज्‍यादा दुख उठाया हो। बाद के जमाने में भी जब आमदनी ज्‍यादा और नियमित थी मार्क्‍स के परिवार को खाने की फिक्र मिट नहीं गयी थी। जब सबसे बुरा समय बीत चुका था तब भी बरसों तक ''न्‍यूयार्क ट्रिब्‍यून'' से लेख के लिये जो एक पौंड हर हफ्ते मिलता था वही आमदनी का एक निश्चित रूप था।

12. मार्क्‍स की कब्र
वास्‍तव में तो उसे मार्क्‍स की पारिवारिक कब्र कहना चाहिये। यह उत्तरी लन्‍दन में हाइगेट नाम कब्रिस्‍तान में है जो एक पहाड़ी के ऊपर है। वहाँ से सारी विशाल नगरी दिखायी देती है।
मार्क्‍स अपने लिये स्‍मारक नहीं चाहते थे। 'कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र' और 'कैपीटल' के रचयिता के लिये अपने बनाये हुए स्‍मारक के अलावा कोई दूसरा स्‍मारक बनाने की इच्‍छा करना तो मृत आत्मा का निरादर होता। करोड़ों मनुष्‍य मार्क्‍स के आह्वान से संगठित हो गये हैं। उनके हृदय और मस्तिष्‍क में मार्क्‍स का ऐसा अमर स्‍मारक बना हुआ है जिसके आगे धातु की मूर्ति तुच्‍छ है। यही नहीं उन लाखों करोड़ों हृदयों और मस्तिष्‍कों में वह जीवित भूमि है जिसमें उनकी शिक्षा और अभिलाषा का बीज अंकुरित होकर फले फुलेगा जो कुछ अंश में हो भी चुका है।
हम सामाजिक-जनवादियों के न कोई महात्‍मा हैं और न महात्‍माओं के कब्रिस्‍तान। परन्‍तु करोड़ों मनुष्‍य आदर और कृतज्ञता से उस आदमी की याद करते हैं जो उत्तरी लंदन के कब्रिस्‍तान में सो रहा है। मजदूर वर्ग को अपनी स्‍वतंत्रता के प्रयत्‍न में जिस पशुता और संकीर्णता का आज मुकाबला करना पड़ता है आज से हजार साल बाद वह पुराने जमाने की एक कहानी भर रह जायगी। किन्‍तु तब भी स्‍वतंत्र और सज्‍जन मनुष्‍य नंगे सिर उनकी कब्र के पास खडे़ होंगे और अपने बच्‍चे से धीरे से कहेंगे :
''यहाँ कार्ल मार्क्‍स सो रहे हैं''
यहाँ कार्ल मार्क्‍स और उनका परिवार दफनाया हुआ है। संगमरमर के पत्‍थरों से घिरी हुई कब्र के सिर की तरफ तकिये की तरह, एक सादी बेल से घिरा हुआ संगमरमर का पत्‍थर है और उस पर यह लिखा है-
जेनी फौन वेस्‍टफेलन
कार्ल मार्क्‍स की
प्रिय पत्‍नी
जन्‍म : 12 फरवरी, सन 1814
मृत्‍यु : 2 दिसम्‍बर, सन 1881
और कार्ल मार्क्‍स
जन्‍म - 5 मई, सन 1818 : मृत्‍यु - 14 मार्च, 1883
और हैरी लौंगुए
उनका धेवता
जन्‍म - 4 जुलाई, सन 1878 : मृत्‍यु - 20 मार्च, सन 1883
और हेलेन डेमुथ
जन्म - 1 जनवरी, सन 1823 : मृत्यु - 4 नवंबर, सन 1890
पारिवारिक कब्र में परिवार के मृत व्‍यक्तियों में से सभी नहीं दफनाये गये हैं। वे तीन बच्‍चे जो लंदन में मरे लंदन के और कब्रिस्‍तानों में दफनाये गये। उनमें से एक, एडगर (मुश) तो निश्चित ही और शायद, अन्‍य दोनों भी टोटेनहेम कोर्ट रोड के व्हिटफील्‍ड कब्रिस्‍तान में हैं। और उनकी लाड़ली बेटी जेनी पैरिस के पास आर्जेनतियूल में विश्राम कर रही है।
परंतु यदि सब मृत बच्‍चों और नाती-नातनियों को कब्र में जगह नहीं मिली तब भी उस कब्र में एक प्राणी ऐसा है जो रिश्‍तेदार न होने पर भी परिवार का ही था : ''वफादार लेन्‍चेन'', हेलेन डेमुथ।
यह तो पहले ही श्रीमती मार्क्‍स और उनके बाद मार्क्‍स ने तय कर दिया था कि उसको पारिवारिक कब्र में दफनाया जाय। जीवित बच्‍चों और वफादार लेन्‍चेन के समान वफादार एंगेल्‍स ने इस काम को पूरा किया। अपने आप भी वह यही करते।
मार्क्‍स की सबसे छोटी लड़की के अन्‍यत्र छपे हुए पत्र से देखा जा सकता है कि मार्क्‍स के बच्‍चे लेन्‍चेन को कितना मानते थे, उससे कितना स्‍नेह करते थे और उसकी स्‍मृति का कितना आदर करते थे।
जब आखिरी बार लंदन जाने के बाद मैं पैरिस होता हुआ घर लौट रहा था तो ड्रवील में जहाँ लौंगुए और उसकी पत्‍नी लारा मार्क्‍स ने अपने लिए बड़ा आकर्षक घर बना रहा था, तो मैं लंदन की पुरानी स्‍मृतियों की बात कर रहा था। जब मैंने इस स्‍मारक पुस्तिका को लिखने के इरादे की बात की तो उसने भी मुझसे वही कहा जो कुछ पहले छपे हुए पत्र में और बाद में जबानी रूप से एलिएना ने कहा था-''लेन्‍चेन को मत भूल जाना''
मैं लेन्‍चेन को नहीं भूला हूँ और न भूलूँगा। क्‍या वह चालीस बरस तक वास्‍तव में मेरी मित्र नहीं थी? लन्‍दन में निर्वासित होने के जमाने में क्‍या वह बहुधा मेरे लिए भाग्‍य के समान नहीं थी? जब मेरी जेब खाली होती थी और मार्क्‍स के घर में ज्‍यादा तंगी नहीं होती थी-क्‍योंकि अगर मार्क्‍स के घर में तंगी होती तो लेन्‍चेन से कुछ भी नहीं मिल सकता था-तो न जाने कितनी बार उसने पैसे देकर मेरी मदद की। और जब मेरे पास इतने पैसे न होते कि अपने कपड़ों की मरम्‍मत कर सकूं तो बहुत बार वह मेरे कपड़ों की बड़ी सुन्‍दरता से मरम्‍मत कर देती थी ताकि (जिससे) वह कपड़ा कुछ हफ्ते तक पहनने लायक हो जाता था। आर्थिक कारणों से उस कपड़े के बदलने की तो संभावना ही बहुत कम रहती थी।
जब मैंने पहली बार लेन्‍चेन को देखा तो वह सत्ताईस बरस की थी और यद्यपि वह कोई बहुत सुंदर नहीं थी तब भी उसका रूपरंग आकर्षक था और वह देखने में अच्‍छी लगती थी। उसे प्रेमियों की कमी नहीं थी और उसे बार बार अच्‍छी शादी करने के अवसर मिले। उसने शादी न करने की कसम नहीं खाई थी परंतु उस वफादार आत्‍मा के लिए मूर और श्रीमती मार्क्‍स और बच्‍चों को छोड़कर जाना संभव न था।
वह उनके पास रही और उसके यौवन के बरस बीत गये। वह दुख और दरिद्रता, दुर्भाग्‍य में साथ रही। उसे पहली बार आराम तब मिला जब मृत्‍यु ने उस आदमी और औरत को निगल लिया जिनके साथ उसने अपने भाग्‍य को बांध दिया था। उसे एंगेल्‍स के घर में आराम मिला और वहीं उसकी मृत्‍यु हुई। अंतिम समय तक अपने स्वार्थ के विषय में उसने कभी न सोचा। और अब वह पारिवारिक कब्र में विश्राम कर रही है।
हमारे मित्र मौटलर ने जो हाईगेट के समीप ही हैपम्‍पस्‍टेड में रहते हैं और (कम्‍युनिस्‍ट होने के कारण) 'लाल डाकू बाबू' कहलाते हैं कब्र का निम्‍नलिखित वर्णन दिया है :
''मार्क्‍स की कब्र के चारों तरफ सफेद संगमरमर लगा है। जिस छोटे से पत्‍थर पर काले अक्षरों में नाम और समय लिखा है, वह भी संगमरमर का है। स्‍पेन की घास, लकड़ी की बेल, जो मैं स्विजरलैण्‍ड से लाया था और कुछ छोटी सी गुलाब की झाड़ियाँ, यही कब्र की सादी सजावट है जैसी कि आम तौर पर यहाँ कब्रों की होती है। पर ये गुलाब की झाड़ियाँ भी अब जंगली घास से ढँक गयी हैं। मैं हफ्ते में दो बार हाइगेट कब्रिस्‍तान में से मार्क्‍स की कब्र के पास होकर निकलता हूँ। यदि घास बहुत बढ़ी होती है तो मैं उसे हटा देता हूँ। बहुत सी घास गर्मियों में सूख जाती है जैसे पिछले दोनों साल। (इस साल जब योरप में इतनी वर्षा हुई तो इंग्‍लैण्‍ड में ऐसा अकाल पड़ा जैसा किसी ने पहले नहीं देखा, और बागों में भी घास बिलकुल सूख गई है) लेसनर की मदद से भी कब्र को जलते हुए सूरज के असर से नहीं बचाया जा सका। इसलिए आखिरकार एवलिंग परिवार से समझौते के बाद जो कि इतनी दूरी के कारण सिर्फ कभी-कभी आ सकते हैं, हमें इस काम को कब्रिस्‍तान के माली को सौंपना पड़ा।''


एंगेल्‍स के चार पत्र

1. एंगेल्‍स का जोहान फिलिप बेकर को पत्र
लन्‍दन, 15 मार्च, 1883
प्रिय मित्र,
इस बात के लिए अपने भाग्‍य को सराहो कि तुमने पिछले शरदकाल में मार्क्‍स को देख लिया था क्‍योंकि अब तुम उन्‍हें कभी नहीं देख सकोगे। कल दोपहर को पौने तीन बजे उन्‍हें दो मिनट से भी कम के लिए अकेला छोड़ने के बाद हमने उन्‍हें आरामकुर्सी पर शांति से सोते हुए पाया। हमारे दल के सबसे महान मस्तिष्‍क ने सोचना बन्‍द कर दिया। संभावना यही है कि अंदर ही अंदर कोई खून की नस फट गयीं।
सन 1848 के दल में से अब करीब करीब हम दोनों ही बचे हुए हैं। खैर, हम मोर्चे पर डटे रहेंगे। गोलियाँ सनसना रही हैं, हमारे मित्र चारों तरफ गिर रहे हैं पर यह पहली बार तो है नहीं जब कि हम दोनों ने यह देखा है। यदि हममें से किसी को गोली लग जाय तो लगने दो। मैं यही चाहता हूँ कि वह ठीक निशाने पर लगे और हमें देर तक यातना न दे।
तुम्हारा पुराना साथी
एफ. एंगेल्‍स

2. एंगेल्‍स का विलहम लीबनेख्‍ट को पत्र

लन्‍दन, 14 मार्च, 1883
प्रिय लीबनेख्‍ट,
यद्यपि मैंने आज शाम को शैय्या पर अंतिम विश्राम करते हुए उनके चेहरे को देखा जिस पर मृत्‍यु की निर्जीवता थी तब भी मैं पूरी तरह नहीं समझ सकता कि उस अद्भुत मस्तिष्‍क ने अपने महान विचारों से दोनों दुनिया के सर्वहारा आन्‍दोलन को प्रेरित करना बंद कर दिया। जो कुछ हम हैं वह उन्‍हीं के कारण हैं। और जैसा आजकल आन्‍दोलन का रूप है वह उनके सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक परिश्रम की रचना है। यदि वह न होते तो हम लोग अभी तक अनिश्‍चय की भूलभुलैया में टटोल रहे होते।
तुम्‍हारा -
एफ. एंगेल्‍स
3. एंगेल्‍स का बर्नस्‍टाइन को पत्र
लन्‍दन, 14 मार्च, 1883
प्रिय बर्नस्‍टाइन,
तुम्‍हें अब तक मेरा तार मिल गया होगा। सब कुछ बहुत ही अचानक हो गया। जब हमारी आशा खूब बढ़ गयी थी तब एकाएक उनकी ताकत ने जवाब दे दिया और आज दोपहर को वह सोते हुए ही चल बसे। दो मिनट में उनके अद्भुत दिमाग ने सोचना बंद दिया और यह उस समय जब डाक्‍टरों ने उनके अच्‍छे होने की पूरी आशा दिलाकर हमें प्रसन्‍नता से भर दिया था। जो आदमी उनके साथ बहुत दिन तक रहा है वही यह समझ सकता है कि बड़े-बड़े फैसले करने के समय सिद्धांत में और व्‍यवहार में उनका क्‍या मूल्‍य था। बरसों तक उनकी महान दूरदर्शिता उन्‍हीं के साथ छिपी रहेगी। वह ऐसा गुण था जिसकी हम लोगों से और किसी में क्षमता नहीं है। आंदोलन चलता रहेगा परन्‍तु उसमें उस सुयोग्‍य बुद्धि की शां‍त और समयानुकूल शिक्षा की कमी होगी जिसने बीते हुए युग में हमें बहुत सी भूलों से बचाया।
अधिक फिर लिखूंगा। अब आधी रात हो गयी है और दोपहर और शाम भर मैं पत्र लिखता और तरह-तरह का काम करता हुआ इधर से उधर भागता रहा हूँ।
तुम्‍हारा -
एफ. एंगेल्‍स


4. एंगेल्‍स का फ्रे‍डरिक एन्‍टन सौर्ज को पत्र
लंदन, 15 मार्च, 1883

प्रिय सौर्ज,
पिछले छ: हफ्तों से रोज सुबह मुझे बड़ा डर लगा रहता था कि कहीं सड़क के कोने से घूमकर मैं यह न देखूँ कि खेल खत्‍म हो गया। कल दोपहर को ढाई बजे - जो उनसे मिलने का सबसे अच्‍छा समय होता है - मैं पहुँचा तो मैंने सारे घर को रोते हुए पाया। यह मालूम होता था कि अंत समीप है। मैंने पूछा कि क्‍या हुआ और सान्‍त्‍वना देने के लिये असली मामला जानने की कोशिश की। अंदर ही अंदर उनकी कोई नस फट जाने से थोड़ा सा खून बहा था परन्‍तु हालत बड़ी तेजी से बिगड़ने लगी थी। बेचारी लेन्‍चेन जिसने माँ से ज्‍यादा अच्‍छी तरह उनकी देख-भाल की थी उनके पास ऊपर गयी और फिर नीचे आ गयी। उसने कहा कि वह आधे सोये से हैं परंतु आप अंदर जा सकते हैं। जब हम कमरे में घुसे तो वह सदा के लिये सोये पड़े थे। उनकी नाड़ी और साँस बंद हो गया था।
जो घटनाएँ प्राकृतिक आवश्‍यकता से होती हैं वे चाहे कितनी ही भयानक क्‍यों न हों, वे सब अपने साथ आश्‍वासन भी लाती हैं, ऐसा ही वहाँ भी है। डाक्‍टरी कौशल शायद उन्‍हें जड़ जीवन के कुछ और साल प्रदान कर देता। डाक्‍टरी कला की विजय इसमें होती कि उन्‍हें ऐसे असहाय मनुष्‍य का जीवन मिल जाता जो एकाएक नहीं, धीरे-धीरे मरता। परंतु हमारे मार्क्‍स कभी इसे नहीं सह पाते कि उनकी सब रचनाएँ अधूरी रह जातीं, पर उनको समाप्‍त करने की इच्‍छा से परेशान रह कर भी उन्हें पूरा करने में असमर्थ रहते। यह जीवन तो उस शांत मृत्‍यु से हजार बार बुरा होता जो उन्‍हें प्राप्‍त हुई। एपिक्‍यूरस को उद्धृत करते हुए वह कहा करते थे कि मृत्‍यु उसके लिये दुर्भाग्‍य नहीं है जो मर जाता है बल्कि उसके लिये है जो जिन्‍दा रह जाता है। उस महान व्‍यक्ति को चिकित्‍सा-शास्‍त्र के यश के लिये शारीरिक खंडहर के रूप में जीते रखना, ताकि नौसिखियों को जिन्‍हें अपने ताकत के जमाने में उन्‍होंने कितनी ही बार पराजित किया था उन पर हँसने का मौका मिले - नहीं, इससे तो यही हजार बार बेहतर है - यह हजार बार बेहतर है कि दो दिन बाद कब्र में ले जायँ जहाँ उनकी पत्‍नी विश्राम कर रही है।
इसके पहले जो कुछ हो चुका था - जिसके बारे में डाक्‍टरों को उतना नहीं मालूम जितना मुझे - उसके बाद मेरी राय में और कोई रास्‍ता नहीं था।
चाहे जो हो, मानवता का एक अपूर्व मस्तिष्‍क कम हो गया है, और वह भी हमारे जमाने का सबसे बड़ा मस्तिष्‍क। सर्वहारा-आंदोलन आगे बढ़ रहा है। परंतु उसका वह प्रमुख व्‍यक्ति चला गया जिसकी ओर संकट काल में फ्रांसीसी, रूसी, अमरीकन, जर्मन सब देखते थे और हमेशा ऐसी स्‍पष्‍ट और निर्विवाद सलाह पाते थे जो केवल वही व्‍यक्ति दे सकता है जिसे परिस्थिति का पूरा ज्ञान हो। अगर ढपोर शंख नहीं तो स्‍थानीय ''विद्वानों'' और छोटे-छोटे दिमागों को अब मैदान साफ मिलेगा। अंतिम जीत तो निश्चित है परंतु टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते, स्‍थानीय और अस्‍थायी भूलें जिनसे बचना अब भी इतना मुश्किल है, बहुत बढ़ जायेंगी। खैर, हमें तो इसे पार लगाना होगा। हम यहाँ है और किस लिये?
और अभी हम हिम्‍मत नहीं हार रहे हैं!
तुम्‍हारा-
एफ. एंगेल्‍स
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