Tuesday 26 November 2013

प्रो. लालबहादुर वर्मा आज़मगढ़ डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज के छात्रों के बीच




प्रिय मित्र, विश्व-प्रसिद्ध इतिहासविद प्रो. लालबहादुर वर्मा की विद्वत्ता और बेबाकी विलक्षण रही है.
उनका लेखन विविध और विराट है.
उनकी वक्तृता-क्षमता हर उम्र के लोगों के दिलों को झकझोर सकने में समर्थ है.
वह अपने वैचारिक विरोधियों के भी सहज सम्मान के हकदार रहे हैं.
वर्मा जी की विचार-यात्रा आज तक विकासमान है.
उनका सन्देश है कि अपने को गम्भीरता से लें, साथ ही पर एवं प्रकृति के प्रति भी गम्भीर बनें.
उनके विचारों को आज़मगढ़ के युवाओं को भी सुनने का अवसर 14.11.13. को मिला.
इसका श्रेय उनके प्रिय शिष्य डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज के इतिहास-विभाग के डॉ.बद्रीनाथ को है.
सरल शब्द-चयन, सुबोध शैली और गहन विश्लेषण के धनी वर्मा जी से मैंने अलग-अलग शैली में लिखना सीखा है.
जनवाद के प्रबल समर्थक प्रो. वर्मा क्रान्तिकारी आन्दोलन में चार दशकों तक खूब सक्रिय रहे हैं.
आज भी तिहत्तर वर्षों की उम्र में उनकी सक्रियता हम सब के लिये प्रेरणा का स्रोत है.
कृपया आप भी उनके विचारों को सुनिए, गुनिए, लागू कीजिए.
और साथ ही उनसे बोलने की शैली भी सीखिए.
यह 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' द्वारा अपलोड की जाने वाली श्रृंखला का तेइसवाँ व्याख्यान है.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
http://www.youtube.com/watch?v=_sVgukJ7Cs0&feature=youtu.be

लम्पट सर्वहारा - गिरिजेश



प्रश्न : 'लम्पट सर्वहारा' क्या है ?
उत्तर : मैंने जितना मार्क्सवाद को पढ़ा और समझा है, उसके अनुसार किसी व्यक्ति में सर्वहारा वर्ग की पृष्ठभूमि होना एक चीज़ है और सर्वहारा वर्ग की चेतना होना दूसरी चीज़. दोनों ही चीज़ें एक ही व्यक्ति में हों - यह भी ज़रूरी नहीं है. 

सर्वहारा की वर्गीय चेतना से लैस व्यक्ति किसी भी वर्गीय पृष्ठभूमि का हो सकता है, वह अपने को डी-क्लास करके सर्वहारा वर्ग के संघर्ष का वर्गचेतन योद्धा बन सकता है. उसका मोर्चा कोई भी हो, उसकी उपयोगिता आन्दोलन के लिये महत्वपूर्ण होती है और उसका योगदान उसके लिये सम्मानप्रद होता है. इसके अगणित उदहारण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में बिखरे पड़े हैं. 

वहीं सर्वहारा वर्ग में जन्म लेने वाले भी असंख्य लोग ऐसे हैं, जिनको किसी भी तरह से जल्दी से जल्दी ख़ुद अपने और अपने परिजनों के लिये सारी सुविधाएँ जुटा लेने की हाही मची रहती है. उनमें से कुछ पेशेवर अपराधियों के गिरोह में भर्ती होना चाहते हैं, कुछ तरह-तरह की झप्सटई करके अमीर बनने की कोशिश करते हैं, कुछ रंग-बिरंगी पार्टियों के नेताओं के छोटे-बड़े चमचे और थाने-कचहरी के दलाल बन जाते हैं, तो कुछ घूसखोर अधिकारी बनने के लिये रात-दिन एक किये रहते हैं. वे ख़ुद को बेचने के चक्कर में मौका ताड़ते रहते हैं. अपने लक्ष्य और दृष्टिकोण में वे पूरी तरह से पूँजीवादी होते हैं. और तय है कि उनकी प्रतिभा और क्षमता को प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप में खरीदने वाला वर्ग केवल सम्पत्ति ही नहीं, कुछ अक्ल भी रखता ही है. 

इनमें से कुछ तत्व क्रान्तिकारी आन्दोलन की कतारों में भी घुस जाते हैं. महान लेनिन द्वारा ऐसे तत्व ही क्रान्तिकारी आन्दोलन के 'भीतरघातिये' और 'उकसावेबाज़' कहे गये हैं. इनको ही 'लुम्पेन प्रोलेतारिया' कहा जाता है. ये क्रान्तिकारी होने का सफल अभिनय तो करते रहते हैं, परन्तु ये किसी भी तरह से प्रतिबद्ध क्रान्तिकारी नहीं होते. मूलतः ये केवल अवसरवादी होते हैं. मजदूर वर्ग के आन्दोलन को आगे बढ़ाने में इनकी कोई भूमिका नहीं होती. इसके उलटे ये मजदूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर तरह-तरह से तोड़फोड़ करके शोषक वर्गों के निहित हितों को मूर्तमान करने में लगे रहते हैं. 

लम्पट सर्वहारा तत्व बार-बार तरह-तरह से षड्यन्त्र करते रहते हैं और आन्दोलन को नुकसान पहुँचाते रहते हैं. अपने सर्वहारा परिवार में जन्म लेने की वर्गीय पृष्ठभूमि के बावज़ूद अपने स्वार्थी चरित्र के चलते ये सत्ता और व्यवस्था पर काबिज़ जनशत्रुओं के जी-हुज़ूरिये और वेतनभोगी चाकर होते हैं. ये उन तक आन्दोलन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण और गोपनीय सूचनाएँ सही समय पर पहुँचाते रहते हैं. ये आन्दोलन के नेताओं को गिरफ्तार करवाने में या उनकी ह्त्या करने में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं. ये आन्दोलन को विपथगामी करने में भी आगे बढ़ कर अपनी सक्रियता प्रदर्शित करते हैं. दुश्मन से मिल सकने वाले पुरस्कार का लालच ही इनसे कुल्हाड़ी के पीछे लगी डेढ़ हाथ की लकड़ी की भूमिका अदा करवाता है और ये समूचा जंगल धराशायी करने वाले गद्दार बन जाते हैं.

शोषण पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था को बनाये रखने में अपनी सहायक भूमिका के चलते ये व्यवस्था के कार्य-पालिका, विधायिका, न्याय-पालिका और मीडिया के साथ पाँचवे खम्भे के रूप में काम करते हैं और इनको 'पंचमांगी' कहते हैं. ये आस्तीन के साँप केवल "घीसू-माधो" की तरह अमानुषीकरण के शिकार नहीं होते. इनके 'व्यक्तित्व का विखण्डन' नहीं हुआ रहता. ये सचेत गद्दार होते हैं. इनको अपने किये पर कोई अफ़सोस नहीं होता. उलटे अपनी मोटी खाल के चलते ये पूरी तरह से बेहयाई पर अमादा होते हैं. 

“जब वामपन्थी पार्टियाँ मशहूर हो जाती हैं और ख़ास कर जब सत्ता में स्थान बना लेती हैं, तब उन्हें भी, मजदूर और किसान आन्दोलन की तरह, सबसे बड़ा खतरा इन्ही लुम्पेन सर्वहारा से होता हैं. और वामपन्थी पार्टियों का ख़ात्मा ये ही करते हैं. सी.पी.आई. और सी.पी.एम. को इन्हीं से बचना चाहिए था. सोवियत यूनियन को भी इन्हीं ने ख़त्म कर डाला. असली वामपन्थी पीछे छूटते गये और अवसरवादी वामपन्थियों ने कहीं ज़्यादा ज़ोर से वामपन्थी नारे लगा कर आगे आते चले गये. सर्वहारा को वह वर्ग मान कर लिखा गया है, जिसके पास उत्पादन के साधन न हों. सत्तर साल की अवधि में सोवियत-संघ में सभी इसी कटेगरी में आ गये थे. उन मौकापरस्तों को बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर काबिज़ होते देखा है. जो दिल से वामपन्थी नहीं थे, पर इतनी ज़ोर से वामपन्थी नारे लगाते थे कि कई वामपन्थी फ़ीके नज़र आते थे और धीरे-धीरे नेपथ्य में विलीन हो जाते थे. वही हाल यहाँ भी हुआ.” – Reena Satin

केवल क्रान्तिकारी नेतृत्व की सक्रिय और सतर्क निगरानी ही ऐसे तत्वों की 'पर्जिंग' कर सकती है. 
(सौजन्य - साथी Tiwari Keshav )

Sunday 24 November 2013

IS "EVERY THING FAIR IN LOVE AND WAR" ?


dear friend,
one of my nearest and dearest friends gave the statement -
"every thing is fair in love and war."
i don't agree with the thought of every thing being fair.
either in love or in war how can every thing be fair?
what ever is fair is fair always,
and what ever is foul is always bound to be foul.
in love we love the fair aspects of the personality,
whom we love.
and in war even we condemn the foul deeds
done by either our friends or our enemies.
the inhuman ideas and acts can never be glorified.
a cheat is always a cheat.
a fraud is always a fraud.
and even any lie can never be the truth.
we can appreciate
only the fair, human and just stands and deeds
of both our friends and enemies.
mercy is always respected
and cruelty is always hated.
to forget and forgive is more valuable than any revenge.
to adjust, avoid and tolerate is necessary
for co existence.
to expect from others
is only an indication of
our own performance of the same level.
and destruction is never valuable than creation.
only creation is always valuable than destruction.
what is your opinion ?
with love - your's girijesh

एक नयी शुरुवात : मित्र के आरोप का सार-संकलन - गिरिजेश

"तोड़ो बंधन, तोड़ो....
ये अन्याय के बन्धन...."
प्रिय मित्र, मेरा अनुरोध है कि आप भी मुक्त मन से एक बार फिर से मेरा मूल्यांकन कर लें. कहीं ऐसा न हो कि आपको भी मेरे बारे में बाद में अफ़सोस हो कि आपने मेरे जैसे ग़लत इन्सान को अपने इतना क़रीब आने दिया और मेरे बारे में पूरा सच न जानने के कारण तब तक भ्रम में रहे.

अब मेरे पास अपने लिये ये विशेषण भी हैं - 
"सबसे बड़ा अवसरवादी, जातिवादी, बहुत बड़ा दोगला " 

हर कमज़ोर इन्सान बहुत जल्दी पूर्वाग्रहग्रस्त हो जाता है और फिर तर्क देने के बजाय केवल गालियाँ देने के स्तर पर उतर आता है. कमज़ोर इन्सान गालियाँ देते समय यह भी भूल जाता है कि सामने वाले ने उसके लिये कब-कब, कैसे-कैसे और क्या-क्या किया, कितने मौकों पर उसके बारे में बहुत कुछ जानते हुए भी उसके अत्याचार के हद से बढ़ जाने पर भी सब कुछ सहन करते हुए उसके साथ अपने सम्बन्ध का निर्वाह करता गया. उसके अन्दर सच कहने का साहस नहीं होता. मगर सच तो सच है. वह तो अन्ततोगत्वा पूरी तरह से हर पर्दा फाड़ कर सामने आता ही है. और फिर इस तरह उसके 'सच' के पूरी तरह केवल 'गालियों' के रूप में सामने आते ही उसकी अभिनय भरी, लम्बी और नकली कहानी ख़त्म हो जाती है. 

मजबूत इन्सान तर्क और तथ्यों के सहारे धीरज से अपनी बात कहता है और फिर पूरा समय ले कर सार-संकलन कर लेता है. फिर भी हर इन्सान के लिये स्पेस बचा कर रखता है. वह हर-हमेशा एक नयी शुरुवात करने के लिये तैयार रहता है.

आज फिर ऐसी ही एक 'कहानी' पर कम से कम तब तक के लिये पूर्ण-विराम लग गया, जब तक सामने वाले को अपनी गलती का एहसास हो जाये और फिर से वहीँ से वह बात शुरू करने के लिये तैयार हो, जहाँ आ कर टूटी है और पूरी ईमानदारी से अपने पूर्वाग्रहयुक्त वक्तव्य के लिये स्पष्ट शब्दों में माफ़ी माँग कर अपनी पहल ले....

इस मोड़ पर पहुँच कर अब तक छटपटाता रहने वाला मेरा मन एक बार संतुष्ट है.
बहुत दिनों से जारी एक और त्रासदी का अन्त हो गया. 
बहुत दिनों से अन्दर बैठी एक और तथाकथित 'अपनेपन' की मारक पीड़ा से आज मुक्ति मिली. 
इस मुक्ति के लिये भी उस 'मित्र' का ही आभार व्यक्त करना चाहता हूँ...
आपसे अब तक मिले आपके स्नेह और सम्मान के लिये आपके प्रति आभारी हूँ. 
आपका गिरिजेश

आरोप एक मित्र का - गिरिजेश

प्रिय मित्र,
मैत्री किसी के समर्थकों और विरोधियों की गिनती करके नहीं की जाती.
उसके अपने सद्गुणों के चलते हो जाया करती है.
अपने सभी मित्रों से मुझे आजीवन हर सम्भव सहायता मिलती रही है.
मैं अपनी ज़िन्दगी में आज तक जो कुछ भी कर सका, उसके लिये मैं अपने सभी मित्रों की सकारात्मक भूमिका के लिये उनका आभारी हूँ.
मेरे लिये जितना सम्भव था, मैं जहाँ तक कर सका, मैंने भी मैत्री-निर्वाह में अपनी सीमित शक्ति भर यथा-सम्भव अपने कर्तव्य का निर्वाह किया ही है.
मेरा एक मित्र अपने विरोधियों के षड्यन्त्र के घेरे में फँस गया. मैंने अपने मित्र की विपत्ति में उसका पक्ष लिया.
उसने कभी मेरे साथ सम्मानजनक व्यवहार किया था, मेरी मुहिम में मेरा साथ देने का आश्वासन भी दिया था.
मगर ज़िन्दगी की मार के चलते वह विपत्ति का शिकार हो गया.
किसी का भी मूल्यांकन वस्तुगत तथ्यों के सहारे तर्कपूर्वक किया जाना चाहिए.
तभी सटीक सार-संकलन सम्भव है.
अन्यथा आत्मगत होने और पूर्वाग्रहग्रस्त होकर चूक करने की पूरी सम्भावना बनी रहती है.
अभी कुहासा छंटा भी नहीं कि जिसके चलते उससे परिचय हुआ था, उस मित्र का आज यह सन्देश मिला -

"अफ़सोस है मुझे आप पर समझ में नहीं आ रहा हंसू या रोई अपने आप पर सच कहूँ तो दुनिया में आपसे बड़ा अवसर वादी नहीं देखा मैंने...."

इसके पहले भी मेरे सामने हिम्मत से सच बोलने के बजाय पीठ पीछे आरोप लगाने, आक्षेप करने वाले और उपहास करने वाले अनेक मित्रों ने मुझे ज़िन्दगी में पर्याप्त यन्त्रणा दी है.
बिना स्पष्ट शब्दों में अपने आरोप के बारे में तर्क दिये या बिना तथ्य बताये केवल मुझ पर तड़ाक से तरह-तरह के आरोप लगा देने की आतुरता के चलते बार-बार अनेक मित्रों को मैंने ज़िन्दगी में अपने साथ इस तरह का अन्याय करते और फिर पीछे छूटते पाया है.
ऐसे कुछ मित्रों का आहत मन से पूरी तरह चुप लगा जाना और बिलकुल ही न बोलना तो मेरे लिये भीषण रूप से त्रासद है ही.
मगर संध्या-भाषा में बोलना तो और भी त्रासद है.
क्या इस तरह के आरोप लगाने वालों को खुल कर अपने हिस्से का सच नहीं बोलना चाहिए.
उनके साथ बिताये गये सुखद समय को भी याद करने पर और भी पीड़ा होती है.
ऐसी हालत में मुझे यह गीत याद आ रहा है.
क्या ऐसी वेदना से आपका भी साबका पड़ा है !
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
https://www.youtube.com/watch?v=ql_EnCTgjdU

मार्क्स की दृष्टि, गाँधी की क्षमता, अम्बेदकर का स्वाभिमान – गिरिजेश



क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास का सवाल : 
प्रिय मित्र, महात्मा गाँधी का स्वयं को पीड़ा देकर आत्म-शुद्धि करने, बार-बार अनशन करने और शत्रु का हृदय-परिवर्तन करने का प्रयास करने का सिद्धान्त न तो उनके जीवन-काल में सफल हो सका और न ही अन्ना-आन्दोलन में अन्ना और उनके अनुयायियों द्वारा किये जाने वाले आमरण अनशन के रूप में राज-सत्ता के चरित्र पर कोई सकारात्मक प्रभाव डाल सका. गाँधी जी का भी उपनिवेशवादी सत्ता ने भरपूर सम्मान किया. परन्तु अन्ततोगत्वा हर बार लागू वही हुआ, जो अंग्रेज़ चाहते थे. वह कभी भी नहीं लागू हो सका, जो गाँधी जी अपनी विनम्रता और ईमानदारी के साथ चाहते रहे. अन्ना का भी देश की वर्तमान सत्ता ने ख़ूब सम्मान किया. मगर जब लागू करने का वक्त आया, तो वही लागू किया, जो अन्ना-आन्दोलन के हर तरह के हर बार के अनुरोध के विरुद्ध था और सत्ता और टीम-अन्ना के बीच के समझौते में नहीं था, बल्कि धूर्त सत्ताधारियों के निहित स्वार्थों के हित में था. 

स्पष्ट है कि गाँधीवाद के जनदिशा में किये जाने वाले तरह-तरह के प्रयोग आज़ादी की लड़ाई में भी और अन्ना-आन्दोलन में भी जन-जागरण के लिये तो उपयोगी हैं. वे विराट जन-आन्दोलन खड़ा करने में तो समर्थ हैं. परन्तु वे जन के हित में खड़ा हो चुके जनान्दोलन के परिणाम के तौर पर अन्तिम सकारात्मक और सफल निर्णय करने-कराने में हर-हमेशा विफल और असमर्थ रहे हैं. ऐसे में राष्ट्र-हित के प्रति प्रतिबद्ध युवाओं के मन में गाँधी और अन्ना दोनों के प्रति सम्मान तो भरपूर रहा है. किन्तु उनका गाँधी और अन्ना के पथ से मोह-भंग होना भी पूरी तरह से स्वाभाविक रहा. और वह मोह-भंग बार-बार हुआ भी. ख़ुद अरविन्द केजरीवाल को अन्ना का केवल जन-आन्दोलन का गाँधीवादी पथ छोड़ कर ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने और चुनाव लड़ने का निर्णय लेना पड़ा. और विवशता में स्वयं अन्ना को भी आज तक उनके विरुद्ध बार-बार अलग-अलग मुद्दों पर अपना वक्तव्य देते जाना पड़ रहा है. 

ऐसे में दिख रहा है कि वर्तमान जनविरोधी ‘वैश्विक गाँव’ में पूँजीवादी व्यवस्थाजनित हमारी सभी तरह की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-मानसिक समस्याओं का समाधान करने में केवल मार्क्स के वर्गीय सामाजिक विश्लेषण पर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सिद्धान्त ही कारगर होने जा रहा है. क्योंकि हमारा समाज बना तो है परस्पर विरोधी हितों वाले विभिन्न वर्गों से ही. और वर्गीय समाज में हर वर्ग के सदस्य का अपने-अपने वर्गीय हित के अनुरूप ही चिन्तन और आचरण सम्भव है. और उसके अनुरूप ही उनके परस्पर स्वार्थों के टकराने पर होने वाले हर स्तर के संघर्ष में दोनों पक्षों द्वारा अपने कदम उठाने की अपेक्षा की जा सकती है. अभी तक का क्रन्तिकारी आन्दोलन मूलतः केवल सशस्त्र संग्राम का ही हिमायती रहा है. और कम से कम भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के पिछले चार दशकों की विफलता इस सार-संकलन के लिये पर्याप्त और साक्षी है कि केवल सशस्त्र संग्राम की कार्य-दिशा अभी तक सफल नहीं हो सकी है. और न ही निकट भविष्य में उसके सफल होने के कोई आसार ही दिख पा रहे हैं. क्योंकि वह अब तक भी आक्रामक नहीं, केवल आत्मरक्षात्मक युद्ध लड़ने के लिये बाध्य है. और महान माओ ने विश्व-क्रान्ति के योद्धाओं को सिखाया था कि केवल आक्रमण ही सबसे अच्छा सुरक्षात्मक कदम होता है. महान लेनिन ने क्रान्तिकारी आन्दोलन के उग्रवादी अतिवामपन्थी विचलन को “बचकाना मर्ज़” कहा था.

लेनिन ने इसके साथ ही पूँजीवादी संसद को “सूवर-बाड़ा” कहा था. क्रान्तिकारी आन्दोलन के चुनाववादी विचलन को उन्होंने दक्षिणपन्थी भटकाव बताया था. अरविन्द केजरीवाल जिस संसदीय सुधारवाद के पथ पर बढ़ने जा रहे हैं. उस पर चलने वाली इस देश की सी.पी.आई. और सी.पी.एम. जैसी संसदीय मार्क्सवादी पार्टियों के अनुभव हमें दशकों से साफ-साफ़ दिखा चुके हैं कि क्रान्ति का पथ छोड़ कर केवल चुनाव के चक्कर में लग जाने पर उनके भी नेताओं के साथ ही कार्यकर्ताओं के भी वैचारिक और सांगठनिक स्तर को अधोगति का शिकार होना पड़ा है. इस तरह पूँजीवादी जनतन्त्र में केवल संसद के गलियारों की परिक्रमा करने से भी बुनियादी सामाजिक परिवर्तन असम्भव है. क्योंकि लूट पर टिकी इस व्यवस्था में निहित स्वार्थों वाले वर्ग अपने पाले में आने वाले क्रान्तिकारी दलों को भी अपने जैसा ही बना डालते हैं. वे उनसे बार-बार तरह-तरह के समझौता और समर्पण करवाते रहते हैं. और वे लगातार ख़ुद भी इस भ्रम में रहते हैं और अपने ईमानदार कार्यकर्ताओं को भी इसी भ्रम में जिलाने का प्रयास करते रहते हैं कि वे जन के हित मंे सत्ता और व्यवस्था के सामने एक के बाद एक लगातार अपने ये समर्पणकारी कदम उठाते जा रहे हैं. ऐसे में संसदीय विचलन के रास्ते पर भी चल कर पूरी मेहनत और ईमानदारी से प्रयास करने से भी फैसलाकून क्रान्तिकारी समाधान की कल्पना भी आज तक हर तरह से केवल मृग-मरीचिका की मार्मिक त्रासदी ही सिद्ध हो चुकी है. जन-समस्याओं के समाधान की उससे भी तनिक भी उम्मीद पालना हमारा भोलापन ही कहा जायेगा.

इन दोनों विचारधाराओं के अलावा डॉ. अम्बेदकर का दलितवादी चिन्तन भी भारतीय समाज में सक्रिय एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने हमारे समाज के सबसे निचले और सबसे पिछड़े वर्गों के सबसे ग़रीब लोगों के स्वाभिमान के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. जब हमारे देश का कम्युनिस्ट आन्दोलन केवल चुनाव लड़ने और जीतने के दक्षिणपन्थी भटकाव के चक्कर में फँस कर अपनी सांगठनिक गतिविधियों को धीमा करने लगा, अपने अध्ययन-चक्रों को कम और ख़त्म करने लगा, तो वह अपने साथ जुड़े समाज के ग़रीब-गुरबा लोगों को वैचारिक स्तर पर बौद्धिक ख़ुराक देने में और आन्दोलनात्मक स्तर पर दलित बस्तियों में लोगों को जन-समस्याओं के समाधान के लिये सशक्त तरीके से जूझने के लिये सक्रिय बनाये रखने में पिछड़ने लगा. ऐसे में कम्युनिस्टों से धीरे-धीरे नाउम्मीद हो चुके उन सब लोगों को दलितवादी चिन्तन से भारी सहारा मिला. और फिर दलित बस्तियों से मजदूर-किसानों के लाल झण्डे उतरने लगे और उनकी जगह मायावती की बहुजन पार्टी के नीले झण्डों ने ले लिया. 

ख़ुद अम्बेदकर ने अपने जीवन में मूलतः केवल परम्परागत सामन्ती उत्पीड़न के विरुद्ध दलित स्वाभिमान को जगाने की कामना से अपने समूचे लेखन और सारे आन्दोलन - दोनों ही के स्तर पर पहल लिया था. उनका पूँजीवाद के वर्गीय शोषण का सक्रियता के साथ विरोध करने वाला रूप कभी भी उभर कर सामने नहीं आ सका. इसके विपरीत उन्होंने ‘पूना-पैक्ट’ में गाँधी के सामने आत्म-समर्पण किया और आज़ादी मिलने पर नेहरू के साथ सत्ता में भागीदारी किया. उन्होंने हमारे ‘धनतन्त्र का संविधान’ बनाने में अपनी सक्षम भूमिका का सचेत तौर पर निर्वाह किया. और इसका परिणाम हुआ कि उनका नाम लेकर मायावती जातिवाद की चुनावी शतरंज की बिसात पर सफल हो गयी और अन्ततोगत्वा विराट दलित वोट-बैंक के सहारे अपनी सरकार बनाने तक जा पहुँची और ‘ग़रीब की अमीर बेटी’ बन सकी. मगर ग़रीब आदमी की ग़रीबी की विभीषिका अभी भी वैसी की वैसी ही न केवल बनी हुई है, बल्कि और भी बढ़ती चली जा रही है. वह तो अम्बेदकर के भी रास्ते पर चलने से भी आज तक रंचमात्र भी दूर नहीं हो सकी. हाँ, पूँजी के शातिर खेल के चलते और भी अधिक सूक्ष्म और त्रासद होती चली जा रही है. 

इसके प्रभाव का विस्तार हुआ नवदलितवाद में. नवदलितवादी विचारकों ने श्रम और पूँजी के मूलभूत अन्तर्विरोध के बजाय ब्राह्मणवाद और दलितवाद के बीच के अन्तर्विरोध को भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण अन्तर्विरोध बताया. उन्होंने दलितों की समस्याओं के समाधान के लिये उनको वर्तमान वैश्विक सत्य की विभीषिका का साक्षात्कार कराने और उनको साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध क्रान्तिकारी जन-संघर्षों के लिये तैयार करने की जगह की जगह ढह रही सामन्तवादी परम्पराओं के उत्पीड़न के विरुद्ध ही सचेत करते जाने का काम अभी भी अपना प्रमुख कार्य-भार बना रखा है. वे वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के घेरे के अन्दर ही सत्ता-प्रतिष्ठान में अपने लिये थोडा-सा और बेहतर स्थान बना लेने के लिये स्वयं भी प्रयासरत रहे हैं और इतने भर के लिये ही अपने अनुगामियों को भी प्रेरित करते रहते हैं. हाँ, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी तीख़ी नफ़रत के साथ ही प्रकारान्तर से वे क्रान्तिकारी विचारधारा पर भी पूरी धार के साथ हमलावर हैं. दलित कार्यकर्ताओं की एक कतार ने मार्क्स और अम्बेदकर के बीच से रास्ता निकालने के प्रयास में ‘जय भीम कामरेड’ का नारा दिया है. समन्वय के इस प्रयास को क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी पर्याप्त सम्मान प्राप्त है और ग़रीब दलितों के बीच भी उनका अपना व्यापक प्रभाव है.

भारतीय समाज में मूलभूत परिवर्तन की कामना से समाधानकारी प्रयास में सक्रिय इन तीनों धाराओं के इस विश्लेषण का सार-संकलन करने पर यह पूरी तौर से स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की नेतृत्वकारिणी टोली को मार्क्स की वर्गीय विश्लेषण की पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा गाँधी की जन-मन को छू सकने और विराट जन-उभार खड़ा कर सकने की क्षमता के साथ ही अम्बेदकर की ‘दलित जन के उत्थान की कामना’ को भी अपना हथियार बनाना होगा. तभी इस देश में जन-क्रान्ति की सफलता का सपना साकार हो सकेगा. न केवल भारतीय समाज के अन्दर परिवर्तन के लिये इन तीनों में से किसी को भी छोड़ कर किया जाने वाला कोई भी प्रयास विफल ही होता रहेगा, बल्कि इन तीनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का कोई भी प्रयास क्रान्तिकारी जन-दिशा में आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों के लिये आत्मघाती होगा. जनपक्षधर शक्तियों की व्यापकतम एकजुटता के लिये सकारात्मक प्रयास करने वाले सभी साथियों की भी यह ही सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है. 

"शक्ति के विद्युत्-कण जो व्यस्त, 
विकल बिखरे हैं हो निरुपाय;
समन्वय उनका करे समस्त, 
विजयिनी मानवता हो जाये|"
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !

—: PRO-PEOPLE SOLIDARITY FORUM :—


[AGAINST EXPLOITATION, OPPRESSION AND COMMUNAL HATRED]
Dear friend, Parallel media is the only platform left to raise genuine issues and disseminate the real fact and honest information to the people and express ourselves as true representative of Indian populace in view of electronic and print media being sold out to obscene greed of power, post and property under pressure of anti-people system and being reduced to propaganda machinery of ruling classes. Friends on facebook have achieved unprecedented success in raising public issues and awareness and in making their voice of protest emphatically and unitedly these days. The unity you showed in busting the fraud of Nirmal Baba, protest again Delhi Rape case and Arrest of Kanwal Bharti and its impact on establishment has lead me and other friends to conclude that facebook can be used as tool of protest even more effectively. But Facebook has a short memory, what is so prominent in morning turns trifle passing through evening. At times, we miss important piece of poetry, essay or an article by friends. Very few articles come to our notice when shared by friends. Then it is possible only those articles to be liked, shared or commented upon.

I feel there is a solution for this problem, if we create a blog named pro-people solidarity forum against exploitation, oppression and communal hatred. There will be links of compositions, articles, national and international news of importance and its analysis with scope for elaborate discussion. Thus a reference place in internet will be there, where one can paste the link of his/her article with an introductory paragraph while writing on his/her own wall or blog.

In an era of information explosion, this medium can allow us to share more and more information keeping in view paucity of time. It is even easy and convenient to use the link there as reference in future.

The friends, who are supposed to lead this move, are responsible. They may decide on themselves. Decision will be taken on basis of consensus or majority as the ease may be. Instead of making a particular person admin, the password will be passed on to group of friends to make it as democratic as far as practicable. It is my opinion to keep the password accessible to maximum possible friends to insure democratic nature of the forum and thus its main purpose will be solved. I feel that some more responsible friends should be included in the team. Too big or too small a team may be problematic. A handful of person may control the decisions if too small a team is made. In a large team while decision-making, we may fight individualism due to which pro-people solidarity has been evasive for decades. This will ensure that no post will be discriminated against by someone due to prejudice or malice. Also, no unwanted element will be able to intoxicate the milieu in this space.

Today, when fascism is knocking at door again, this is the most important task ordained by history on us to get united against conspiracy of shrewd ruling classes and consolidate our efforts for resistance against this along with pro-people friends in this hard time. The collective effort to solve the intricacies of complex social fabric of present is the task ordained by history on us. This duty should be discharged in collective unison. If we succeed in solidarity endeavour, we can strengthen further the voice of resistance. Therefore, it is my humble request to participate actively in this collective initiative to run forum duly and impart it impetus in right direction which is formed for solidarity to combat exploitation, oppression and communal hatred. I have a solemn hope that despite our wide differences on many issues, we will able to be united at these three fronts. I even hope that after success at this stage, ensuing time will transform this into our revolutionary unity.

Please think and take initiative to own responsibility as a responsible member of this revolutionary team. You have to take this responsibility among other daily juggernaut because we cannot leave this would as a culprit of history being ridiculed in eye of coming generations. We expect getting emboldened by your active participation and leadership in this enterprise. 

Please consider the proposal and if you see some fault in it, point out along with your suggestions and rectifications. If you agree on these issues, please discuss about this endeavor with your friends and inform me about the friends whose consent is obtained so that they could be included in this endeavor. I don’t want that any friend or companion should feel dejected and left out after so much of waiting, labor and time devoted to it and whole experiment meets a fiasco before its inception being victim of politics of conceit. Take your time and name someone using your own discretion. So that it can be started with help of all the friends.

Some senior friends want participation of maximum number of friends on national level. For this, it should be translated into regional languages and should be shared. If you or your friend can translate into any language please take initiative for its translation. Such sharing will help in its publicity and dissemination.

One step is taken already. Now this is embarked upon as a blog created by Ashok Kumar Pandey https://www.facebook.com/kalamghasit. Its link ishttp://ppsfin.blogspot.in/2013/09/blog-post_7.html. The co-ordination team members can post directly to the blog. Other friends are requested to send their posts to the blog through email at ppsfindia@gmail.com. This will be a bit inconvenient for you, but there is no way out, it seems to control unwanted posts. Link to email (ppsfindia@gmail.com) of this forum is given at right hand at blog icon for your convenience.

In coming days, we are going to have discussion of two days in a city or take further step in case of exigency. These meetings will make us come closer. Other friends active on facebook or outside facebook standing firmly on pro-people issues can also be invited. We shall try to inform you regarding our future plans and possible happenings, but you too are requested to click the link and visit the blog.
Till now, 340 friends have consented on the project and assured of their active participation.
I salute you with all my humility.
With thanks - Girijesh.

[Translated by Faqir Jay https://www.facebook.com/faqir.jay and edited.]

Monday 11 November 2013

नेतृत्व का दायित्व और संघर्ष की विविधता का सवाल - गिरिजेश


प्रिय मित्र, परिवर्तनकामी चेतना के वाहकों की किसी भी छोटी या बड़ी टोली के नेतृत्वकारी व्यक्ति के संघर्ष की जटिलता के अनेक पक्ष होते ही हैं. उसको हर क़दम पर अपने निकटस्थ साथियों के साथ वैचारिक द्वंद्व में जूझते रहना होता है. इस द्वंद्व में लगातार उभरते रहने वाले उनके नये-नये तर्कों के टकराने पर अपनी सोच को सही साबित करने की चुनौती उसके सामने बार-बार आती रहती है क्योंकि सतत जारी जीवन और जगत के परिवर्तन की विविधता के चलते नये-नये तथ्यों का सतत उद्घाटन होता रहता है और नेतृत्व को इन नूतन तथ्यों के भी आलोक में पुराने तथ्यों के आधार पर गढ़े गये अपने सूत्रों की सत्यता और तथ्यपरकता को पुष्ट करते रहना होता है. 

उसके साथ मिल कर उसके अभियान का आरम्भ करने वाले महत्वपूर्ण साथियों में से जहाँ कुछ तो उसके साथ आगे बढ़ते हैं, कुछ यथास्थिति की जड़ता के शिकार हो जाते है, वहीं कुछ दूसरे अपने व्यक्तित्व की सीमाओं के चलते, अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक महत्वाकांक्षाओं के चलते, अपनी व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्याओं के चलते या पथ की विकटता को समझ-बूझ कर पीछे भी हटते रहते हैं. आगे बढ़ने वाले साथियों का मार्गदर्शन करना और पीछे हटने वाले साथियों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास नेतृत्वकारी व्यक्ति का दोहरा दायित्व होता है. 

इस सब के बीच उसे पीछे छूटने वाले मित्रों के बिछड़ने की मार्मिक यन्त्रणा सहन करनी होती है और इतना ही नहीं, उनमें से कुछ मुखर मित्रों के मारक कटाक्षों का वार भी मुस्कुरा कर झेलना पड़ता है. साथ ही अलग-अलग अवस्थितियों पर खड़े होकर अपने अभियान की आलोचना करने वाले दूसरे लोगों का प्रतिवाद भी उसे करते ही रहना होता है. 

उसे लगातार तरह-तरह की क्षमता वाले और भी नये-नये साथियों की तलाश करते रहना होता है. ऐसे लगभग सभी नये साथी अभियान के आभा-मण्डल की दीप्ति से प्रभावित होने पर ही सम्पर्क में आ पाते हैं. उसे इन नये साथियों के साथ मैत्री भाव का विकास करने के मकसद से पहले तो अन्तरंग भावनात्मक सम्बन्ध बनाना होता है. उनके साथ परस्पर मजबूत भावनात्मक सम्बन्ध की आधार-शिला के अटल रूप से स्थापित हो जाने के पश्चात ही उस भावनात्मक सम्बन्ध को वैचारिक धरातल तक उन्नत किया जा सकता है. 

वैचारिक चेतना का सतत उत्कर्ष करते रहने के लिये सभी नये और पुराने साथियों के बीच बार-बार विभिन्न विषयों पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के विस्तृत आयाम खोलते रहना होता है क्योंकि उनके ऊपर समाज में प्रचलित विविध परम्परागत विचारों का सशक्त असर पहले से मौज़ूद रहता है. यह काम सभी साथियों की मदद से कविताओं-गीतों, नाटकों-फिल्मों, लेखों-विश्लेषणों, सूचनाओं-समाचारों और अध्ययन-चक्रों की निरन्तरता बनाये रख कर और तरह-तरह की पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेरक और वैचारिक सरल, सुबोध और शास्त्रीय पुस्तकों को पढ़ने के लिये प्रेरित कर के एवं उनकी स्वयं की अभिव्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को और मुखरित करने का प्रयास करने पर ही मुमकिन हो पाता है.

विनम्रता सामाजिक कार्यकर्ताओं का मूलभूत गुण होती है और दम्भ उनके विकास का सबसे बड़ा अवरोध. यह जनविरोधी व्यवस्था हर व्यक्ति के सामने हमेशा पहिचान का संकट पैदा करती रहती है. और अपनी पहिचान बनाने और उसे बचाये रखने के लिये हर व्यक्ति को हरदम ललचाती रहती है. जनपक्षधर चेतना के विस्तार के लिये थोडा-सा भी काम कर ले जाने में सफल होते ही किसी भी व्यक्ति का दम्भ उसे दबोच लेता है और फिर उसके तब तक के सभी सकारात्मक कामों पर ग्रहण लग जाता है. ऐसे में सतर्कतापूर्वक सभी कार्यकर्ताओं के मन में सतत सेवा-भाव को बनाये रखना नेतृत्व का सबसे ज़रूरी दायित्व है. इसमें चूक होते ही टोली के सदस्यों के मन में व्यक्तिवाद को पनपने से नहीं रोका जा सकता. और जैसे ही एक बार टोली के सदस्यों के बीच व्यक्तिवाद ने अपनी जड़ें टोली में जमायीं, तो उसे व्यर्थ के विवादों में फँस जाने से कोई नहीं रोक सकता. बार-बार लगातार और गम्भीर प्रयास करके व्यक्ति को समूह के अधीन बनाये रखने से ही व्यक्तिवादी अहम् से सफलतापूर्वक निबटा जा सकता है. फिर भी इसमें बार-बार मुँह की खानी पड़ती है और इससे होने वाली क्षति को भी झेलना ही पड़ता है.

उसे जहाँ एक ओर अपने और अपनी टोली के इर्द-गिर्द बीच-बीच में नकारात्मक ऊर्जा बिखेरने वाले लोगों की कुटिल टिप्पणियों से भी दो-दो हाथ करना होता है, वहीं दूसरी ओर समाज में से सकारात्मक ऊर्जा देने वाले अन्य समर्थ लोगों को लगातार तलाशते भी रहना होता है. साथ ही चुप लगा कर तमाशा देख रहे लोगों की भीड़ में से आगे बढ़े हुए तत्वों को अपने साथ गोलबन्द करने के लिये बार-बार प्रचारात्मक अभियान आयोजित करना भी उसका एक ज़रूरी कार्य-दायित्व होता है. 

परन्तु संघर्ष के सभी दूसरे रूपों में से आर्थिक मोर्चे का संघर्ष नेतृत्व के लिये सबसे विकट और दुरूह होता है. अपने अभियान के विविध पक्षों को पूरी आन-बान-शान के साथ चलाते रहने के लिये लगातार न्यूनतम आवश्यक अर्थव्यवस्था जुटाने के लिये प्रयत्न करते रहना भी उसके लिये अपरिहार्य दायित्व बना रहता है. उसके सामने जितने तरह के कार्य-दायित्व होते हैं, उनकी अपेक्षा उसकी टोली की अर्थ-व्यवस्था हमेशा ही कमतर और डगमग रहती है. ऐसे में हरदम उसे आर्थिक किल्लत के चलते पैदा होने वाली अस्थिरता की सम्भावना के भय का धैर्य से मुकाबला करना होता है. इस मामले में "मेहनत और किफ़ायत से अपने देश का निर्माण करो" का महान माओ का कथन उसके लिये मशाल की तरह मार्गदर्शक और मददगार होता है. उसे फिजूलखर्ची पर कठोर अंकुश लगाने के लिये भी सतर्क रहना होता है. और सही जगह पर सही मात्रा में खर्च करने के लिये भी मन बनाकर तैयार रहना होता है. नये-नये आर्थिक संसाधन जुटाते रहना उसके लिये सबसे टेढ़ी खीर होती है. 

और इस सबके बीच दूसरों का मनोबल बनाये रखने और बढ़ाते रहने की अनवरत जारी अपनी कोशिश के साथ ही उसे अपनी ख़ुद की हिम्मत को बनाये रखने के लिये लड़ना होता है. उसे लगातार अपनी और अपने साथियों की समय-सीमा, अपनी ख़ुद की और अपनी टोली की क्षमता की सीमा, उपलब्ध संसाधनों की सीमा और समाज के बौद्धिक स्तर की सीमा के चलते उभर आने वाली और अपने चारों ओर बार-बार काले बादलों के घटाटोप की तरह छा जाने वाली भीषण हताशा के अन्धकार से टकराते रहना होता है. उसे सफलता और विफलता की समान सम्भावनाओं के बीच के द्वंद्व की अपनी मानसिक बेचैनी से हरदम जूझते रहना होता है. उसे हर कदम पर ख़ुद अपने को अपनी ख़ुद की नज़रों में भी सही ठहराने के लिये आत्मसंघर्ष की तपिश झेलते रहना होता है. 

इस तरह परिवर्तनकामी चेतना के प्रत्येक वाहक के सामने रचना और संघर्ष का दोहरा दायित्व होता है. इसके किसी भी पक्ष की अवहेलना करना उसके लिये असम्भव होता है. क्योंकि कोई भी पक्ष कमज़ोर पड़ने पर वह आत्मघाती दुर्गति में फँस जा सकता है. और तब उसे उबारने वाला तो कोई नहीं होता. हाँ, प्रशंसा करने वाले, उपहास करने वाले और सान्त्वना देने वाले ज़रूर होते हैं - कभी दूर-दराज़, तो कभी आस-पास. 

मुझे आपकी कूबत पर पूरा भरोसा है. मेरी अपनी ढेरों सीमाएँ रही हैं. 
उम्मीद करता हूँ कि आप मेरा और अपना - दोनों का ही मनोबल बनाये रखेंगे. 
आज बस इतना ही.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

एक और बहु चर्चित मोदियापा : हिन्दुत्व की कट्टरता के सच का मौकापरस्त चेहरा!


यह मूर्ख अगर केवल बार-बार उलटा-पलटा बड़बड़ कर रहा है, तो लोगों के बीच इतना हड़कम्प मचवा रहा है. जब वह हुकूमत करने तक जा पहुँचेगा, तो तथ्यों और लोगों का जो हाल करेगा उसकी कल्पना कर लीजिए.
कथा श्री फेंकू "चाय वाला":
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"देश इतिहास की तो छोड़िये फेंकू महराज अपने इतिहास को ही बदलकर दिखाना चाहते है ! खासतौर पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर उन्होंने जो ज्ञान दुनिया के सामने रखा है वही वह दुनिया को दिखाना और बताना चाहते हैं ! क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे वास्तविकता को वह लोगो के सामने आने ही नहीं देना चाहते हैं! श्यामा प्रसाद मुखर्जी १९०१ में पैदा हुए और जून १९५३ में उनका देहांत हुआ!
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन का इतिहास सत्ता के करीब रहने का इतिहास है ! वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बंगाल विधान परिषद् में चुने गए परन्तु जब कांग्रेस ने विधान परिषद के बहिष्कार का फैसला किया तो उन्होंने विधान परिषद् की बजाय कांग्रेस से इस्तीफा देना ही बेहतर समझा ! १९४१ में उन्होंने सत्ता में रहने के लिए मुस्लिम लीग से गठजोड़ किया और फैजुल हक़ के नेतृत्व वाली सरकार में वित्तमंत्री बने ! हिन्दू महासभा ने केवल बंगाल में ही नहीं १९४१ में सिंध प्रान्त और उत्तर पश्चिमी सीमांत इलाक़े में भी मुस्लिम लीग के गठजोड़ करके सरकार बनायी !
१९४२ में जब देश आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गांधी के आह्वान पर भारत छोडो आंदोलन में शामिल था तो श्यामा प्रसाद बंगाल के वित्तमंत्री थे ! और देश आज़ाद होने पर नेहरू की अंतरिम सरकार में वह उद्योग और आपूर्ति मंत्री भी रहे !
बहरहाल फेंकू को दोष न दीजिये अपने नेता का ऐसा इतिहास फेंकू छुपाना छह रहे है तो इसमें बुराई क्या है !"
Samar Dhaliwal की वाल से By Mahesh Rathi
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अब नरेंद्र मोदी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लंदन में मारा! 
नवभारतटाइम्स.कॉम | Nov 11, 2013
नई दिल्ली : नरेंद्र मोदी भले ही यूपीए सरकार पर गांधी परिवार के लिए देश का इतिहास-भूगोल बदलने के आरोप लगा रहे हों, लेकिन वह खुद आए दिन इतिहास के तथ्यों को लेकर गलतियां कर रहे हैं। और तो और, उन्होंने अपनी पार्टी के संस्थापक तक का इतिहास बदल दिया। गुजरात के खेड़ा में एक अस्पताल के उद्घाटन के वक्त उन्होंने रविवार को स्वतंत्रता सेनानी श्याम जी कृष्ण वर्मा का जिक्र करते हुए कहा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत 1930 में लंदन में हुई थी और 73 साल बाद वह उनकी अस्थियां कच्छ में उनके गांव लेकर आए। हालांकि, भाषण खत्म करते ही उन्हें जब उन्हें गलती के बारे में बताया गया तो उन्होंने दोबारा माइक पर आकर इसे सुधारा।

तथ्य यह है कि स्वतंत्रता सेनानी श्याम जी कृष्ण वर्मा की मौत लंदन में हुई थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत कश्मीर में हुई थी, वह भी आजादी के बाद। श्यामा प्रसाद मुखर्जी उन्हीं की 'मूल' पार्टी जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष थे। भूल से उन्होंने श्याम जी कृष्ण वर्मा की जगह श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम ले लिया। गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ही उनकी अस्थियां साल 2003 में जीनिवा से स्वदेश लाए थे।

कच्छ में मोदी ने कांग्रेस के हमले का जवाब देते हुए कहा, 'देश के इतिहास के साथ कौन खिलवाड़ कर रहा है? श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक क्रांतिकारी थे। उनकी मौत 1930 में लंदन में हो गई थी। उनकी आखिरी इच्छा थी कि देश की आजादी के बाद उनकी अस्थियां भारत लाई जाएं। कांग्रेस को 2003 तक यह बात याद नहीं आई। आप ही बताइए, उनकी अस्थियां भारत कौन लेकर आया?' मोदी ने ये बातें अपनी पीठ थपथपाने के लिए कहीं, लेकिन उनका यह दांव उल्टा पड़ गया।
दरअसल, मोदी यह बात श्यामजी कृष्ण वर्मा के बारे में कह रहे थे, लेकिन वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम ले बैठे। ध्यान रहे कि 23 जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत कश्मीर में हुई थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ के संस्थापक थे। यही जनसंघ 1980 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के रूप में फिर से गठित हुई थी। मोदी की इस गलती पर एक बार फिर उनके विरोधी उनका मजाक उड़ा रहे हैं। उनके इतिहास के ज्ञान पर सवाल उठा रहे हैं। सोशल मीडिया पर यह मुद्दा छाया हुआ है।
गौरतलब है कि मोदी पर कई बार इतिहास की गलत व्याख्या और गलत आंकडे़ पेश करने के आरोप लग चुके हैं। पटना की हुंकार रैली में भी मोदी ने ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी देते वक्त कई गलतियां की थीं। मोदी की इन्हीं गलतियों को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन पर निशाना साधा था।

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मोदी झूठों का बड़ा सरताज निकला... - नीरेंद्र नागर 
नीतीश कुमार ने आज राजगीर में मोदी की पोल खोल दी। उन्होंने ताना कसा कि पीएम बनने का सपना देखनेवाले को यह तक नहीं पता कि तक्षशिला बिहार में नहीं, पाकिस्तान में है। चंद्रगुप्त मौर्य को भी मोदी ने हाल की पटना रैली में गुप्त वंश का बता दिया था। शायद वह चंत्रगुप्त मोर्य और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य में कन्फूजिया गए थे। चाहे जो हो, इससे पता चलता है कि हमारे नरेंद्र भाई मोदी का इतिहास ज्ञान बहुत ही कम है।

मोदी पहले भी इस तरह फेंकते आए हैं और उनके समर्थक जो खुद भी बहुत ज्ञानी नहीं हैं, उनका कहा हर शब्द सच मान लेते हैं। मैंने 16 जुलाई को मोदी के फेंकू चरित्र पर एक पोस्ट लिखी थी। आप भी पढ़िए कि मोदी किस तरह झूठ पर झूठ फेंकते आए हैं।

पिछले हफ्ते मोदी के पिल्ले वाले बयान पर लिखने के बाद सोचा था कि अभी कुछ दिनों तक उन पर कुछ नहीं लिखूंगा। लेकिन मोदी जी हैं कि आराम करने ही नहीं देते। कुछ न कुछ ऐसा बोल या कर जाते हैं कि लिखे बिना रहा ही नहीं जाता। अब कोई सरासर झूठ बोले, बार-बार बोले और पतली गली से निकल जाए तो चुप तो नहीं रहा जा सकता।

अभी दो दिन पहले पुणे में नरेंद्र मोदी ने दो-तीन बातें ऐसी कहीं जिससे यह लगता है कि या तो मोदी का गणित बहुत ही कमज़ोर है या फिर वह भंग खाकर भाषण देते हैं। उन्होंने कहा कि 1835 में बंगाल में 100 % साक्षरता थी। अब कोई मोदी से कहे कि जब आज भी वहां 100 प्रतिशत साक्षरता नहीं है तो उस समय कैसे रही होगी। भइया, उस समय तो लड़कियों को पढ़ने की ही आजादी नहीं थी। मोदी एक और बात बोल गए कि चीन शिक्षा पर अपने जीडीपी का 20% खर्च करता है जबकि भारत में यह आंकड़ा 4 प्रतिशत है। लेकिन चीनी समाचार एजेंसी शिनवा खुद कहती है कि यह आंकड़ा 3.93 प्रतिशत है। 
(पढ़ें यह खबर।

Larger proportion of China's GDP spent on education
English.news.cn 2013-1-4 BEIJING, Jan. 4 (Xinhua) -- Nationwide education expenditure amounted to 3.93 percent of China's 2011 GDP, up 0.28 percentage points from 2010, a Ministry of Education statement said Friday.


The 2011 GDP in China was 47.3 trillion yuan (7.52 trillion U.S. dollars), the ministry said.


According to the ministry, in 2011, central and local governments at all levels budgeted 1.68 trillion yuan in education, up 24.57 percent from 2010.
As much as 326.9 billion yuan was from central finance, 28.31 percent higher than in 2010. http://news.xinhuanet.com/english/china/2013-01/04/c_132080607.htm)
अब कहां 3.93 प्रतिशत और कहां 20 प्रतिशत। लगता यह है कि किसी ने मोदी जी को बताया होगा कि चीन ने अपने शिक्षा खर्च में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है तो मोदी समझे कि उसका खर्च 20 प्रतिशत है। सुब्रमण्यम स्वामी राहुल गांधी को बुद्धू कहते हैं लेकिन मैथ के मामले में हमारे मोदी जी भी कम बुद्धू नहीं है। और यह बुद्धूराम फेंकता भी बहुत है। ट्विटर पर एक चुटकुला चलता है कि यदि मोदी अपने बारे में कोई डेटा दें तो उसको आधे से डिवाइड कर दें, वही होगी सच्ची संख्या।

मोदी यह भी कहते पाए जाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की एसआईटी ने उनको गुजरात दंगों के मामले में क्लीन चिट दे दी है। यह भी अर्धसत्य है। एसआईटी ने तो कहा है कि मोदी के रोल के बारे में और जांच की जरूरत है। एसआईटी ने बल्कि मोदी के सांप्रदायिक और पक्षपाती व्यवहार की बखिया उधेड़ दी है। ज्यादा जानने के लिए पढ़ें यह खबर।

PRESS STATEMENT
No Clean Chit For Mr Modi
Contrary to the desperate attempt made by the Gujarat Chief Minister, the fact is that the Supreme Court has never given Mr Modi a clean chit on the issue of 2002 pogrom
SAHMATCITIZENS FOR JUSTICE AND PEACE
In an interview to the foreign news agency Reuters that was published on July 12 2013, Narendra Modi, Gujarat Chief Minister has made a desperate attempt to create an impression that Supreme Court has given him a clean chit through the SIT which was appointed by it to investigate the criminal complaint of Zakia Jafri and Citizens for Justice & Peace (CJP) on 27.4.2009. 

A section of the media, without verifying the facts has allowed this impression to gain credibility. 

The facts in relation to Supreme Court and SIT are as follows:

The SIT was appointed by the Supreme Court on 26.3.2008 on a petition by Teesta Setalvad, D.N.Pathak, Cedric Prakash and Others, first to look into the nine cases recommended by the National Human Rights Commission (NHRC) to be investigated by the CBI. 

The same SIT was a year later also asked to look into the criminal complaint against Narendra Modi and 61 others filed first before the Gujarat Police on 8.6.2006.

The SIT submitted its report on the Zakia Jafri and CJP Complaint to the Supreme Court on 12.5.2010 itself recommending that Further Investigation was required. 

In the interim, the SC had also to drop two officers from the SIT, Shivandand Jha (because he was an accused in the Zakia Jafri complaint) and Geeta Johri who had been found, in the Sohrabuddin case to have serious strictures passed against her by the Supreme Court itself. (April 6 2010)

The following features of the SIT report need special mention:
It found the speeches of N Modi objectionable and that Modi had a communal mindset, travelling 300 kilometres to Godhra but not visiting any relief camps that housed the internally displaced Muslims, victims of reprisal killings post Godhra until 6.3.2002.
It found it questionable that bodies of the unfortunate Godhra victims were handed over to a non-government person, Jiadeep Patel of the Vishwa Hindu Parishad (VHP) who is currently facing trial in the Naroda Gaam massacre case;
It found that Saneev Bhatt an officer of the State Intelligence, Gujarat had opined that he attended the controversial meeting at the chief minister's residence indicating that illegal and objectionable instructions were given.
It accepted that Police Officers like RB Sreekumar, Rahul Sharma, Himanshu Bhatt and Samiullah Ansari who had performed their tasks legally had been penalised and persecuted by the Modi regime and those who had buckled under the illegal and unconstitutional instructions had been favoured consistently;
It however still concluded that there is no prosecutable evidence against the chief minister

The SC was not satisfied with this conclusion and directed that the Amicus Curiae Mr Raju Ramachandran, who had already been appointed to assist the Supreme Court in this critical case, visit Gujarat, independently assess the evidence garnered and meet with witnesses directly, bypassing SIT.

Amicus Curiae Raju Ramachandran submitted an Interim report (January 2011) and Final report (July 2011).

The Supreme Court gave the SIT an opportunity to further investigate in light of the Amicus Curiae's contrary findings and thereafter file a Final Report before a Magistrate on 12.9.2011. In the same order the SC gave the petitioners the inalienable right to file a Protest petition and access all documents related to the SIT
After its further investigation the SIT, ignoring the contents of the Amicus Curiae report, filed a final closure report on 8.2.2012 without issuing any notice to the complainant Zakia Jafri and CJP as is required under Section 173(2)(ii) of the CRPC. Worse, it fought a hard as nails battle to deny access to any of the documents related to the investigation to the petitioners.

It took a whole year, from 8.2.2012 to 7.2.2013 for the complainant to access all the documents related to the Investigation including the SIT Reports filed before the Supreme Court. The complainant Zakia Jafri assisted by the CJP filed the Protest Petition on 15.4.2013.

The petitioners Mrs. Zakia Jaffri and CJP are now arguing in support of the Protest Petition being allowed, showing through an arduous and rigorous process, how the SIT ignored its own evidence. Arguments that began on June 25 are still going on. 

It is clear from the above that the SC has never given Mr Modi a clean chit on the issue of 2002 pogrom. These facts could have been earlier verified by Reuters as well as the collusive media. We hope that the media will present the facts truthfully in relation to the ‘so-called’ clear chit to Mr Modi

SAHMAT
CITIZENS FOR JUSTICE AND PEACE


मुझे पता है, मोदी के भक्त नहीं मानेंगे भले ही झूठों के इस सरताज के कितने ही झूठ पकड़ में आ जाएं वैसे ही जैसे ओसामा बिन लादेन के मुरीद नहीं मानेंगे कि लादेन ने कोई अपराध किया था। (नीचे इन भक्तों के कॉमेंट पढ़ लें) अब इन भोला भंडारियों को उम्मीद है कि मोदी पीएम बन जाएंगे तो करप्शन खत्म हो जाएगा। करप्शन खत्म करना तो हम भी चाहते हैं लेकिन हमें मोदी पर भरोसा नहीं है। क्यों भरोसा नहीं है? इसलिए कि मोदी 11 साल से गुजरात में हैं, क्या वहां से करप्शन खत्म हो गया है? क्या वहां पुलिस हफ्ता नहीं लेती? क्या वहां सरकारी दफ्तरों में बिना पैसे लिए-दिए सारे काम हो जाते हैं?

मैं गुजराती हूं लेकिन गुजरात में नहीं रहता। इस बारे में हमारे गुजराती पाठक ही बता सकते हैं। या फिर आप इस साइट - http://www.ipaidabribe.com/ पर जा सकते हैं जिसमें हमारे-आपके जैसे लोगों ने बताया है कि उन्होंने कहां, कितनी रिश्वत दी। इसमें गुजरात का भी नाम है। जिन पाठकों की सच्चाई जानने की इच्छा हो, वे यहां क्लिक करें।

5 Modi lies that must be nailed…. - Prashant Panday 11 March 2013, 

Speaking to US NRIs yesterday, Modi claimed that the growth rate in India had “lost momentum” in the last 6-7 years. Well, Modi is used to dishing out mis-truths and blatant lies; so this was just one more in a series. India’s growth in the last 6-7 years has been exemplary by any standard, with GDP growth hitting 9.2% just last year.

Let me group all of Modi’s lies into 5 distinct categories:

1) Comparing Gujarat with India: Even a 5th standard student knows what averages are. India’s GDP growth represents the average of all states – dynamic ones like Gujarat, Maharashtra, AP, Haryana and TN as well as poor performing ones like Rajasthan, UP, MP, Karnataka, and (in the past), Bihar and Orissa. Quite obviously Gujarat growth rate will be higher than India’s. When Modi uses this to show that he would make a better PM than Manmohan Singh, it’s plain chicanery. What he should do is compare Gujarat – a powerhouse since decades – with other powerhouse states. But he’s smart. He won’t do that!

2) Gujarat growth barely comparable with other big states: The top 5 states in terms of state GDP are Maharashtra, UP, AP, TN and Gujarat in that order. Modi will be embarrassed to note that the pecking order of these states has remained largely intact over the last 6-7 years (since 2004-5) – in spite of Modi’s “dynamic” rule. The only exception is that WB used to be 5th back then, and is now just behind Gujarat. Let’s look at how much each state economy has expanded over this period and I am using data from Wikipedia here (which in turn quotes the Ministry of statistics and Program Implementation Govt. Of India). Between 2004-5 and 2010-11, the Maharashtra GDP has expanded 2.49 times in nominal terms, Gujarat’s by 2.52 times, Tamil Nadu’s by 2.50 times, UP’s by 2.28 times, AP’s by 2.62 times and West Bengal’s by 2.27 times. So Gujarat has kept pace with the big states; nothing more, nothing less. Compared to the noise that Modi makes, the actual numbers are nothing to write home!

3) Takes undue credit: Gujaratis are genetic coded to demand that any CM of the state has to be business minded. Remember Gujarat is a state in which college graduates take up jobs only when they cannot start their own business. And even when they do jobs, almost all of them do something “on the side”. It may be playing the stock market, or doing a small side business in the wife’s name. Growth in Gujarat pre-dates Modi. This is proven by the growth rates recorded during the tenures of the previous CMs. For the purpose of this analysis, I have used Net State Domestic Product at factor cost at constant prices in Rupees as the measure of economic growth. The data taken is from the RBI’s “Handbook of Statistics of Indian Economy” readily available on the internet. Under Modi (between 2002-3 to 2009-10), the average growth rate in Gujarat in nominal terms has been 16.25% per annum. In the Keshubhai Patel era (1998-99 to 2001-02), Gujarat grew at only 7.5% per annum. BJP messed up during Keshubhai’s time and that’s one reason he was replaced. Take the period before Keshubhai Patel. There was a period of rapid changes in CMs in Gujarat between 94-95 and 98-99; the BJP, Congress and the Rashtriya Janata Party ruled the state and achieved between 14% and 31% growth rates. The previous strongman of Gujarat used to be Chimanbhai Patel who ruled as CM from 1990-91 to 1993-94. The growth rate during his period was 16.75%. Err…..higher than what Modi achieved. Prior to Chimanbhai Patel was the rule of the Congress for 10 years from 1980-81 to 1989-90. During this period of time, Madhvsinh Solanki and Amarsingh Chaudhary were the Congress CMs in the state. The growth rate during these ten years was 14.8% - a shade lower than Modi’s achievements. Remember back then, India wasn’t quite the dynamic growth engine it is today. Modi can surely take credit for sustaining Gujarat’s growth; but he cannot claim to be the diva of India’s growth miracle!

4) Vibrant Gujarat: The biggest lie that Modi dishes out is Vibrant Gujarat. Modi talks of “lacs of crores” of investments “promised” to the state. But promises have not translated into actual investments. A recent report shows that not even 20% of that investment has actually materialized over the last 4 years. The Tatas, the Ambanis, all claim to love Modi and Gujarat and they heap praise on him. They realize Modi loves such public encomium and these business leaders are smart enough to give him that. But they also love Prithviraj Chavan and Maharashtra, Bhupinder Singh Hooda and Haryana, Jayalalitha/Karunanidhi and TN and whoever it is in AP. Businessmen want pragmatic governance and all these states offer that. The only difference is that these states are quiet performers, while Modi croons from the roof top.

5) Hides all non-GDP data: And the last lie of course is that by talking only about GDP growth, Modi diverts attention from everything else. Be it is hiscommunal record (he hasn’t apologized for the post-Godhra riots, or for the fake encounter killings), or his state’s data on Human Development Indices (The HDI for Gujarat, in 2008, was 0.527 and it ranked 10thamong major states), or social indicators (In Gujarat, the Life Expectance at Birth during 2002-06 was 64.1 years and it ranked ninth among major Indian states. In the areas of Mean Years of Schooling and School Life Expectancy, during 2004-05, it ranked seventh and ninth, respectively. Kerala ranked first in all three indicators. Even Maharashtra, Himachal Pradesh, Punjab, Haryana, Tamil Nadu and Karnataka performed much better than Gujarat (source: Gujarat: Myth and reality: Dr Bhalchandra Mungekar Jun 12, 2012, TOI online edition), Gujarat is a laggard. This is what prompted Chidambaram to state in his budget speech that this is not the growth model that the UPA wants to practice.

The real truth is that the Gujarat economic story has to be narrated correctly. The public has to know the real truth. Even if it takes a hundred such posts. Of course Gujarat is a developed state; just as developed as Maharashtra, AP, Haryana and TN. That’s why people come back impressed from Ahmedabad. But is Modi being truthful by claiming credit for all this? No way. In fact, he is lying through his teeth. And its time the lies are exposed….


तो एक आदमी जो बात-बात पर झूठ बोलता है, बड़ी-बड़ी डींगें हांकता है कि मैंने यह कर दिया, मैंने वह कर दिया जैसा आज तक किसी ने नहीं किया था, तो ऐसे फेंकू का कोई क्या करे? भई, जहां तक विकास का मामला है तो मैं बाकी राज्यों का तो नहीं कह सकता, लेकिन दिल्ली के बारे में जरूर बोल सकता हूं। 26 सालों से मैं दिल्ली-एनसीआर में रह रहा हूं। पहले जहां मुझे पांडव नगर से आईटीओ (6 किलोमीटर) की दूरी तय करने में कम से कम आधा घंटा लग जाता था, आज नोएडा से आईटीओ (20 किमी) की दूरी 35 से 40 मिनट में पूरी हो जाती है। फ्लाइओवर, मेट्रो रेलसेवा, सीएनजी चालित बस सर्विस, इन सबने सफर बहुत ही आसान बना दिया है। कभी आप दिल्ली और एनसीआर वालों से पूछें तो पता चलेगा कि इन बदलावों से उनकी ज़िंदगी पहले के मुकाबले कितनी आसान हो गई है। लेकिन हम नहीं कहते कि शीला दीक्षित नहीं होतीं तो दिल्ली का विकास नहीं होता। क्योंकि विकास का काम यहां शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री बनने से पहले से हो रहा था। भई, हर सरकार का काम है विकास करना। (विकास होता है तो उसमें उन्हें कट भी मिलता है)। गुजरात में भी मोदी से पहले विकास हुआ था और मोदी के बाद भी होगा। खुद आडवाणी ने शिवराज सिंह चौहान की तारीफ करते हुए यह कहा था कि गुजरात तो मोदी से पहले भी विकसित था। 

लेकिन मोदी हैं कि अपनी लाइन को बड़ी दिखाने में ही लगे रहते हैं। इसके लिए वह क्या स्ट्रैटिजी अपनाते हैं, यह जानने के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया पर यह ब्लॉगपोस्ट पढ़ें जो बताता है कि किस तरह मोदी गुजरात की तुलना करते हुए हमेशा गरीब और कमज़ोर राज्यों का हवाला देते हैं ताकि उनका विकास बड़ा दिखे। वे महाराष्ट्र और तमिलनाडु से तुलना नहीं करते जिनका प्रदर्शन गुजरात जितना या उससे बेहतर है। ऊपर मैंने लिखा था कि मैथ के मामले में मोदी बुद्धू लगते हैं। लेकिन अब कहना पड़ेगा कि अपनी कमज़ोरी छुपाने और लोगों के झांसा देने में बंदा डबलस्मार्ट है। फेंकू के अलावा इनको झांसे का राजा भी कहा जा सकता है।

मोदी - पिल्लों से प्यार पर सॉरी कहने से इनकार -   Saturday July 13, 2013

गुजरात के मुख्यमंत्री और बीजेपी के पीएम-इन-वेटिंग नरेंद्र मोदी कल पहली बार कुछ ऐसा बोल गए जिसपर पार्टी को सफाई देते नहीं बन रहा। मोदी से पूछा गया था कि क्या उन्हें गुजरात दंगों में मरनेवालों पर अफसोस है? मोदी ने इसका सीधा जवाब नहीं देते हुए एक उदाहरण दिया कि अगर कोई कार चला रहा हो या चला न रहा हो, पीछे ही बैठा हो और कोई पिल्ला यदि कार के नीचे आ जाए तो बुरा तो लगता ही है।


इस बयान का क्या मतलब है - इसके बारे में दो बिल्कुल विपरीत विचार हैं। मोदीविरोधी कहते हैं कि मोदी दंगों में मरनेवालों की तुलना पहिए के नीचे आनेवाले पिल्ले से कर रहे हैं यानी उनके लिए दंगों में हुई मौतें और किसी कुत्ते की मौत में कोई फर्क नहीं है। बल्कि मोदी ने मुसलमानों और कुत्तों को एक ही पलड़े में रख दिया है, यानी उनके लिए मुसलमानों की औकात कुत्तों जितनी ही है।

मोदीभक्तों का कहना है कि इससे मोदी ने माना है कि हां, वह दुखी हैं। बीजेपी के एक प्रवक्ता के मुताबिक इस बयान से तो मोदी की करुणा का पता चलता है कि वह सड़क पर किसी कुत्ते की मौत से भी विगलित हो जाते हैं। फिर दंगों में हुई मौतों से तो उनका दुखी होना स्वतःसिद्ध है।

मोदी के इस बयान पर जब विवाद उठा तो मोदी ने  ट्विटर पर लिखा - In our culture, every form of life is valued and worshipped. (हमारी संस्कृति में जीवन के हर रूप की कद्र और पूजा की जाती है।) लेकिन इस स्पष्टीकरण से भी कुछ साफ नहीं हुआ। क्या वह यह कहना चाहते हैं कि हर जीवन कीमती है और हर मौत दुखद है? अगर हां तो हम फिर उसी बिंदु पर आते हैं कि दंगों में हुई मौत और सड़क पर कुचल कुत्ते की हुई मौत एक समान है।

मोदी और मोदीभक्त जो बात नहीं समझ रहे हैं, वह यह कि आप इंसान के जीवन और मृत्यु की तुलना किसी पशु के जीवन और मृत्यु से नहीं कर सकते। आगे एक उदाहरण पेश कर रहा हूं और यह उदाहरण जानबूझकर बीजेपी के एक बड़े नेता का ले रहा हूं ताकि पाठक मुद्दे की गहराई को समझ सकें - कल बीजेपी के पूज्य अटल बिहारी वाजपेयी (ईश्वर उनको लंबी उम्र दे) भगवान राम को प्यारे हो जाएं  और मोदी से कोई सवाल पूछे कि वाजपेयी जी के जाने पर आपको दुख है, तो मोदी क्या कहेंगे? यही कि आपके परिवार में बरसों से एक कुत्ता रह रहा हो, उसने आपके घर की रखवाली की हो और एक दिन अचानक आप देखें कि वह अब नहीं रहा तो आपको दुख तो होगा ही। क्या कहेंगे ऐसा ही कुछ? और कहेंगे तो क्या मोदीभक्त उसको भी डिफेंड करेंगे जैसे कि आज कर रहे हैं?

पिल्ले वाली बहस से एक मुद्दा जो छूट रहा है, वह यह कि इस उदाहरण से वह यह भी कहते दिख रहे हैं कि दंगे तो एक दुर्घटना थे और इसमें उनका और उनकी पार्टी का कोई हाथ नहीं है। यानी पिल्ला मरा तो अपनी गलती से, ड्राइवर की गलती से नहीं। ड्राइवर तो गाड़ी चलाएगा ही। गलती तो पिल्ले की है जो सड़क पर सो रहा था या दौड़ रहा था। यदि दंगों के संदर्भ में इस बयान को देखें तो अर्थ यह निकलता है कि गुजरात दंगों में मुसलमान मरे तो अपनी गलती से क्योंकि उन्होंने गोधरा में एक ट्रेन जलाई थी और इसका रिऐक्शन तो होना ही था।

संक्षेप में इस इंटरव्यू से यही संदेश निकलता है कि मोदी अपनी जगह से टस से मस नहीं होनेवाले। एक सीधा-सा सवाल था - क्या गुजरात दंगों में हुई मौत से उनको अफसोस है? पिल्ला वाला उदाहरण दिए बगैर क्या वह 'हां' नहीं कह सकते थे? क्या वह ऐसा नहीं कह सकते थे कि इन दंगों में निर्दोष हिंदू और मुसलमान दोनों मरे थे और मुझे इन दंगों में मरे एक-एक व्यक्ति के लिए अफसोस है? लेकिन नहीं। वह ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि मुसलमानों की मौत का अफसोस करते ही वह उन संकीर्ण हिंदू वोटरों का सपोर्ट खो बैठेंगे जिनके लिए मुसलमानों की औकात खटमलों और मच्छरों से ज्यादा नहीं है। और पिल्लों से प्यार करनेवाले मोदी को 'कुत्ते और रोटी' की वह कहानी अच्छी तरह याद होगी जिसका संदेश है - आधी छोड़ पूरी को धावे, पूरी मिले न आधी पावे। वह पानी में नज़र आ रही अपनी ही परछाई के मुंह की रोटी पाने के लिए अपनी मौजूदा रोटी क्यों गंवाएंगे?

यानी पीएम की कुर्सी पाने के चक्कर में मोदी भला गुजरात के सीएम की कुर्सी को दांव पर क्यों लगाएंगे?
(लेखक को जानें : नीरेंद्र नागर नवभारतटाइम्स.कॉम के सीनियर एडिटर हैं। इससे पहले वह नवभारत टाइम्स दिल्ली में न्यूज़ एडिटर और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 29 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वह देश और समाज और समूह की तानाशाही के खिलाफ हैं और मानते हैं कि हर व्यक्ति वह सबकुछ करने के लिए स्वतंत्र है जिससे किसी और का कोई नुकसान नहीं होता और समाज का सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए राजनीतिक मुद्दा हो या इंसानी रिश्तों का तानाबाना, उनके लेखों ने अक्सर उन लोगों को बौखलाया है जिन्होंने खुद ही समाज की ठेकेदारी ले रखी है और दुनिया को अपनी सनक के मुताबिक चलाना चाहते हैं। 'एकला चलो' में भी आप ऐसे ही लेख पाएंगे।)

देश के हर मुसलमान तक पहुँचना चाहिए यह ‘सच’ - Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines




मुसलमानों को इस वक्त क्या चाहिए? किसी विवादित ज़मीन पर बनी मस्जिद जिसमें बमुश्किल 200 नमाज़ी नमाज़ पढ़ पाएं? विधानसभा या संसद में किए गए झूठे वादे या फिर देश के संसाधनों और योजनाओं में अपना हक़?
इस सवाल के जबाव तक पहुँचने में आपकी मदद करने के लिए बस हम कुछ आँकड़े आपके सामने पेश करना चाहते हैं. यकीन जानिए यह आँकड़े पढ़कर आपके सामने नीतीश की टोपी उतर जाएगी, मुलायम आपको कठोर नज़र आएंगे, आज़म खाँ का असली चेहरा सामने आ जाएगा और मुस्लिम परस्त दिखने वाले बाकी सरकारों और नेताओं की बेशर्म हक़ीकत आपके सामने नंगी हो जाएगी.
Indian MuslimsBeyondHeadlines को केन्द्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय से सूचना के अधिकार के ज़रिए मिले अहम दस्तावेज़ अल्पसंख्यक़ों के कल्याण के लिए शुरू की गई स्कीमों की हकीक़त बयाँ कर रहे हैं. आप जानेंगे कि कैसे अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों के कल्याण का दावा करने वाली यह योजनाएं काग़जों में ही दम तोड़ रही हैं. (या नेता इनका गला घोंट रहे हैं.)
बजट सौ करोड़ का पर रिलीज़ हुआ एक लाख और खर्च शुन्य

मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए सरकार की कई संस्थाएं व स्कीमें चल रही हैं. उन्हीं संस्थाओं में एक नाम मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन का भी है. अख़बारों के बिके हुए पन्ने इस संस्था की तारीफ़ से भरे मिल जाएंगे, लेकिन हकीक़त यह है कि साल 2012-13 में इस संस्था के लिए 100 करोड़ का बजट पास किया गया, लेकिन रिलीज़ हुए सिर्फ एक लाख रुपये. हद तो यह है कि यह एक लाख रुपये भी खर्च नहीं किए गए. यदि खर्च होते तो किसी ज़रूरतमंद मुसलमान का भला हो जाता, जो शायद न सरकार चाहती है और न ही खोखले दावे करने वाले नेता.
अल्पसंख्यक महिला नेतृ्त्व विकास स्कीम भी महज़ एक दिखावा

अल्पसंख्यक महिलाओं में लीडरशीप डेवलपमेंट को लेकर सरकार द्वारा अल्पसंख्यक महिला नेतृ्त्व विकास स्कीम (Scheme for Leadership Development of Minority Women) शुरू की गई. इस स्कीम के लिए साल 2012-13 में 15 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जारी किए गए सिर्फ 12.80 करोड़ रूपये और इसमें से भी सिर्फ 10.45 करोड़ ही खर्च किया जा सका.
जबकि इससे पहले के वर्षों में साल 2011-12 में 15 करोड़ का बजट रखा गया और रिलीज सिर्फ 4 लाख ही किया गया. उसी तरह साल 2010-11 में भी 15 करोड़ का बजट रखा गया जबकि रिलीज 5 करोड़ किया गया. यही नहीं, साल 2009-10 में यह बजट 8 करोड़ का था और 8 करोड़ रूपये रिलीज़ भी किया गया. पर जब खर्च की बात आती है तो शुन्य बटा सन्नाटा… सारा धन रखा का रखा ही रह गया. यही हाल साल 2010-11 और साल 2011-12 का भी रहा. यदि यह पैसा खर्च किया जाता तो सकता है कि मुसलमानों में कुछ महिलाओं कौम की रहनुमाई की अहम जिम्मेदारी संभालने के लायक हो जाती. लेकिन शायद हमारे नेता और सरकारे ऐसा नहीं चाहती. उनके लिए तो मस्जिदों की दीवारें और इफ़्तार पार्टियाँ ही अहम हैं.
फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई

यही हाल Grant-in-aid to State Channelising Agencies (SCA) engaged for implementation in NMDFC Programme का भी है. इस कार्य के लिए भी साल 2012-13 में 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 66 लाख रूपये ही किया जा सका. गनीमत होती कि इसमें से कुछ पैसा जरूरतमंदों पर खर्च कर दिया जाता. लेकिन पूरी बेशर्मी और बेहाई के साथ संबंधित विभाग इस पैसे को दबाए रहा और एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई. (यहाँ, यह सवाल करना ही बेमानी है कि जब कोई पैसा ही खर्च नहीं किया गया तो संबंधित विभाग के अधिकारियों ने काम क्या किया, शायद वे नेताओं के लिए वसूली का टारगेट पूरा कर रहे हों.)
रक़म सरकारी खजाने में पड़ी रही

राज्यों के वक्फ़ बोर्डों को मज़बूत (Strengthening of the state Wakf Board) करने के लिए साल 2012-13 में 5 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 10 लाख रूपये ही हुआ. क्या आपको यह बताने की ज़रूरत है कि इस फंड में से एक भी रूपया खर्च नहीं किया गया? और अगर आपको पता चल भी जाए कि इस फंड में से भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो आप क्या करेंगे? शायद कुछ भी नहीं, क्योंकि हो सकता है आपके लिए भी एक मस्जिद (जो जहाँ, है वहाँ होनी ही नहीं चाहिए थी) की दीवार ही ज्यादा अहम है!
यही नहीं, साल 2010-11 में भी इस मद में 7 करोड़ रूपये का बजट रखा गया लेकिन रिलीज़ हुआ सिर्फ 10 लाख रूपये और यह रक़म भी सरकारी खजाने में पड़ी रही, 2012-13 की तरह ही इस साल भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया जा सका. (या जानबूझकर नहीं किया गया)
कौम परस्ती सिर्फ मज़हबी मसाइल को हवा देने तक ही सीमित हैं

सिविल सेवा परिक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की मदद के लिए भी सरकार ने बजट निर्धारित किया गया है. (Support for students clearing Prelims conducted by UPSC, SSC, State Public Services Commission etc) के लिए भी साल 2012-13 में 4 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन इसके नाम पर महज़ 2 लाख रूपये रिलीज़ किए गए. और यह दो लाख रूपये भी खर्च नहीं किया जा सका. यदि यह चार करोड़ रुपये खर्च हो जाते तो हो सकता है कि कुछ अल्पसंख्यक छात्र सिविल सेवा परीक्षा पास कर पाते. लेकिन मुस्लिम परस्त होने का दावा करने वाले नेताओं को शायद यह पसंद नहीं है. तब ही तो मुस्लिम कल्याण के उनके नारे सभास्थलों में हवा हो जाते हैं और मुसलमानों के हाथ आती ही सिर्फ मायूसी और बेबसी. अब आज़म खाँ, शफीकुर्रहमान बर्क या असदउद्दीन ओवैसी किसी नेता से इस बारे में सवाल मत कर लेना. वरना उनकी आँखे लाल हो जाएंगी और वे वही आडंबर करने लगेंगे जो संसद में करते हैं. इनके लिए वंदे मातरम का गाया जाना या न गाया जाना तो मु्द्दा है लेकिन मुस्लिम छात्रों के लिए फंड रिलीज न होने शायद कभी मु्द्दा न हो. इनकी कौम परस्ती सिर्फ मज़हबी मसाइल को हवा देने तक ही सीमित हैं.
बजट ही गोल कर दिया गया

कौशल विकास पहल (Skill Development Initiatives) के नाम पर साल 2012-13 में 20 करोड़ रूपये का बजट रखा गया जबकि इसके नाम पर रिलीज हुआ सिर्फ 5 लाख रूपये और इसमें से भी एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया.
छोटे अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में गिरावट रोकने के लिए योजना (Scheme for containing population decline of small minorities) का भी यही हाल है. साल 2012-13 में केन्द्र सरकार के इस स्कीम के लिए 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज किया गया सिर्फ 1 लाख रूपये. इसी तरह साल 2010-11 में भी इस स्कीम के लिए 2 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज किया गया सिर्फ 1 लाख रूपये. और दिलचस्प यह है कि दोनों ही बार एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया. जबकि बाकी के सालों में इसके नाम का बजट ही गोल कर दिया गया.
स्कीम ही गायब हो गई

भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए प्रोमोशनल क्रियाओं (Promotional Activities for Linguistic Minorities) के नाम पर साल 2010-11 में 1 करोड़ रूपये का बजट रखा गया. लेकिन महज़ 5 लाख रूपये रिलीज किया जा सका और बाकी अन्य योजनाओं की तरह ही इस योजना के तहत भी एक भी रुपया खर्च नहीं किया गया. और इस साल के बाद से इस योजना का बजट ही गोल कर दिया गया या यूं कहिए कि स्कीम ही गायब हो गई.
विदेशों में अध्ययन के लिए शिक्षा ऋण पर ब्याज सब्सिडी (Interest Subsidy on Educational Loans for Overseas Studies) के लिए साल 2012-13 में 2 करोड़ का बजट पास किया गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ दो लाख रूपये. इसी तरह साल 2010-11 में भी में 2 करोड़ का बजट पास किया गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ दो लाख रूपये. इन दोनों वर्षों में खर्च के साथ साथ बाकी के सालों में बजट ही गोल कर दिया गया.
राज्य वक्फ बोर्डों के अभिलेखों के कंप्यूटरीकरण सिर्फ कागज़ों पर

राज्य वक्फ बोर्डों के अभिलेखों के कंप्यूटरीकरण (Computerization of records of State Wakf Boards) के लिए साल 2012-13 में 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 1.65 करोड़ रूपये. और इस पैसे को भी देश के तमाम राज्य खर्च नहीं कर सके. देश के तमाम राज्यों में इस मद में मात्र 89 लाख रुपये ही खर्च किए जा सके. साल 2011-12 की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. इस साल भी 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया. लेकिन रिलीज सिर्फ 2 करोड़ रूपये ही हो सका. और इस 2 करोड़ रूपये को भी देश के तमाम राज्य खर्च नहीं कर सके. सिर्फ 62 लाख रूपये ही देश के तमाम राज्य मिल कर खर्च कर पाएं. साल 2010-11 की कहानी तो और भी हैरान कर देने वाली है. इस साल 13 करोड़ रूपये का बजट रखा गया था. लेकिन रिलीज सिर्फ 6 करोड़ रूपये ही हो सका. और इस 6 करोड़ रूपये में से सिर्फ 3.63 करोड़ रूपये ही देश के तमाम राज्य मिल कर खर्च कर पाएं.
नेताओं से सवाल मत पूछना, उनका गला सूख जाएगा

व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्सेज के लिए योग्यता सह साधन छात्रवृत्ति योजना (Merit-cum-Means Scholarship for professional and technical courses of under graduate and post graduate) के लिए साल 2012-13 में 220 करोड़ का बजट रखा गया, पर रिलीज़ 184.07 करोड़ ही हुआ. और खर्च 181.21 करोड़ रूपये ही किए गए. बाकी के सालों में स्थिति थोड़ी बेहतर रही. लेकिन साल 2008-09 में इस स्कॉलरशिप के लिए 124.90 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 64.94 करोड़ ही किया गया. शायद ऐसा कोई ही छात्र हो जिसने इस योजना के तहत फार्म न भरा हो और न जाने कितने फॉर्मों को फंड न होने का हवाला देकर रद्द कर दिया गया हो. अब सवाल यह उठता है कि जब पूरा फंड रिलीज ही नहीं किया गया और जो रिलीज हुआ भी वह खर्च ही नहीं किया गया तो फिर फॉर्म रद्द कैसे हो गए? अल्पसंख्यकों की रहनुमाई करने वाले नेताओं से यदि यह सवाल पूछ लिया जाए तो उनका गला सूख जाएगा और अगर बेशर्मी से हलक़ से दो चार शब्द बाहर निकले भी तो एक और नया झूठ ही सामने आएगा. क्योंकि इस मामले में सच्चाई इन रहनुमाओं की खोखली नेतागिरी से भी ज्यादा बेशर्म है.
किसी रहनुमा से इस बजट के बारे में सवाल मत करना

चयनित अल्पसंख्यक बहुल जिलों में अल्पसंख्यकों के लिए बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (Multi Sectoral Development Programme for Minorities in selected of Minority Concentrated Districts) योजना के लिए साल 2008-09 में 539.80 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 279.89 करोड़ रूपये. जबकि साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 999 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 649 करोड़ रूपये. अब आप किसी रहनुमा से इस बजट के बारे में सवाल मत कर लीजिएगा. यदि सवाल कर लिया तो हो सकता है किसी मस्जिद की टूटी दीवार की ईंट उठाकर ही वे आपके सिर पर मार दें.
नेताओं के फूहड़ भाषणों पर ताली कौन बजाएगा?

पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति (Post Matric Scholarship) योजना के लिए साल 2008-09 में 99.90 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 69.93 करोड़ रूपये. जबकि साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 500 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज हुआ सिर्फ 340.75 करोड़ रूपये और खर्च 326.55 करोड़ रूपये ही किया जा सका. यदि यह पूरा पैसा रिलीज़ हो जाता तो शायद गरीबों के बच्चे दसवीं के बाद कॉलेज के मुंह देख पाते. लेकिन यदि गरीब अल्पसंख्यकों के बच्चे पढ़ गए तो फिर इन नेताओं के फूहड़ भाषणों पर ताली कौन बजाएगा?
इन तमाम स्कीमों पर एक पैसा खर्च नहीं किया गया 

पिछड़े शहरों के रूप में पहचाने गए 251 में से 100 अल्पसंख्यक बहुल कस्बों/शहरों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई योजना (Scheme for promotion of education in 100 minority concentrate towns/cities out of 251 such town/cities identified as backward) का हाल तो और भी बुरा है. इस स्कीम के लिए केन्द्र सरकार ने 50 करोड़ का बजट रखा लेकिन रिलीज सिर्फ 4 लाख रूपये ही किया गया लेकिन उदासीनता की हद यह रही कि इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया.
यही हाल एमसीबी/एमसीडी के अंतर्गत न आने वाले गांवों के लिए ग्राम विकास कार्यक्रम (Village Development Programme for Villages not covered by MCB/MCDs) का भी है. इस स्कीम के लिए भी केन्द्र सरकार ने 50 करोड़ का बजट रखा लेकिन रिलीज सिर्फ 4 लाख रूपये ही किए गए. और इन चार लाख में से एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई.
एमसीडी में जिला स्तरीय संस्थाओं को समर्थन (Support to district level institutions in MCDs) के लिए भी साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने 25 करोड़ का बजट रखा लेकिन इसमें भी सिर्फ चार लाख ही रुपये रिलीज किए गए जिसमें से एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया. यानि इस योजना का लाभ एक भी व्यक्ति को नहीं पहुँचा.
नौवीं कक्षा की लड़कियों के लिए फ्री साइकिल योजना (scheme of Free Cycles to girl students of class IX) का हाल भी ऐसा ही है. इस स्कीम के लिए साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने सिर्फ 5 करोड़ का बजट रखा गया जिसमें से मात्र चार लाख रुपये रिलीज किए गए और खर्च एक पैसा भी नहीं किया गया.
सच जो हर हिंदुस्तानी अल्पसंख्यक को जानना चाहिए वह यह है कि अल्पसंख्यकों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान एवं कल्याण के लिए शुरु की गई तमाम सरकारी योजनाओं ने कागजों पर ही दम तोड़ दिया. और हमारे नेताओं ने इनकी फातेहा तक नहीं पढ़ी.
पहले तो बजट ही ऊँट के मुँह में जीरे के समान रखा गया. लेकिन यह जीरा भी ऊँट के मुँह में नहीं गया. इससे भी कड़वा सच यह है कि जो पैसा खर्च हुआ उसका भी बड़ा हिस्सा नेताओं और अफ़सरों की जेब में चला गया.
यदि अब तक बयाँ की गई हकीक़त से आपके गले का पानी सूख गया है तो अब आपके दिल पर पत्थर पड़ने वाले हैं. क्योंकि सबसे शर्मनाक हक़ीकत यह है कि सरकार और नेताओं के पोस्टरों पर जारी किए गए फंड से ज्यादा पैसा खर्च कर दिया गया. लेकिन देश का कोई अखबार या टीवी चैनल आपको यह नहीं बताएगा क्योंकि सरकार की इन लोक लुभावन (लेकिन ज़मीनी स्तर पर शून्य) योजनाओं के विज्ञापन और उनमें चमकने वाले नेताओं के चेहरे इनके ज़रिये ही आप तक पहुँचे. जब टीवी चैनलों और अखबारों को विज्ञापनों के ज़रिए अपना हिस्सा मिल ही गया तो वे असली हक़दारों तक पैसे की पहुँचने या न पहुँचने की चिंता क्यों करें? शायद ही किसी भी टीवी या अखबार का कोई तेज़ तर्रार रिपोर्टर इन आँकड़ों से उपजे सवालों को नेताजी के मुँह पर दागने की हिम्मत न जुटा पाए, क्योंकि उसके चैनल/अख़बार को तो अपना हिस्सा मिल ही गया है.
प्रचार-प्रसार पर पूरा ध्यान

आपको यह जानना चाहिए कि साल 2008-09 में Research/Studies, Monitoring & Evaluation of Development Schemes for Minorities including Publicity के लिए 5 करोड़ रूपये का बजट रखा गया था. लेकिन रिलीज 8.95 करोड़ रूपये किया गया और खर्च भी 7.97 करोड़ रूपये रहा. साल 2009-10 में बजट को बढ़ाकर 13 करोड़ रूपये कर दिया गया. 13 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 11.97 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2010-11 में बजट को और बढ़ाकर 22 करोड़ रूपये कर दिया गया. 22 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 19.63 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2011-12 में यह बजट बढ़कर 36 करोड़ हो गया. 36 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 24.48 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. साल 2012-13 में बजट को और बढ़ाकर 40 करोड़ रूपये कर दिया गया. 33.30 करोड़ रूपये रिलीज भी हुआ और इसमें से 33.29 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया. अब सवाल यह उठता है कि जब मूल योजनाओं का पैसा ही रिलीज नहीं किया गया तो उनके अध्ययन पर यह पैसा कैसे खर्च कर दिया गया. हम कोशिश करेंगे की इसकी पूरी सच्चाई भी आप तक पहुँचे.
यदि आप पिछले 15 दिन से अख़बार पढ़ रहे हैं या किसी भी रूप में ख़बरें देख रहे हैं तो आपको लगेगा कि मुसलमानों के लिए सबसे अहम मसला एक मस्जिद की दीवार है. कम से कम यूपी सरकार को तो यही लगता है. लेकिन आपको यह सवाल भी खुद से करना होगा कि देश के तमाम बड़े अख़बारों में एक मस्जिद की दीवार का गिरना और उसके लिए एक आईएएस अधिकारी का तबादला किया जाना तो खबर बन जाता है लेकिन मुसलमानों के हक़ में पड़ रहा हजारों करोड़ का यह डाका खबर नहीं बन पाता? आखिर क्यों? यदि आपकी समझ इस बुनियादी लेकिन अहम सवाल का जबाव तलाश पा गए तो समझ लीजिए बेदारी की राह में पहला कदम आपने आगे बढ़ा दिया है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बेशर्मी से कहते हैं कि सांप्रदायिक सौहार्द न बिगड़े इसके लिए उन्होंने अफ़सर का तबादला कर दिया, और वे आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे. क्या अखिलेश यादव इस सवाल का जबाव देने की हिम्मत भी जुटा पाएंगे कि मुसलमानों को उनका जायज़ हक़ न देने वाले अफ़सरों के ख़िलाफ़ आज तक उन्होंने क्या कार्रवाई की है? अखिलेश की तो छोड़िये मुसलमानों के सरपरस्त बनने का दावा करने वाले आज़म खाँ भी इस सवाल के जबाव में सिर्फ अपने ख़ाली गिरेबां में ही झाँक सकते हैं. वे अपनी आलोचना में पोस्ट की गई टिप्पणी पर तो किसी आम नागरिक को हवालात की हवा खिला सकते हैं लेकिन मुसलमानों का हक़ डकारने वाले अफ़सरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में उनकी भी घिग्घी बंध जाएगी.
अब सवाल यही उठता है कि जब नेता खामोश हैं, अफ़सर हक़ पर डाका डाल रहे हैं. मुसलमान हुक्मरानों ने बेशर्मी अख़्तियार कर ली है तो फिर हम क्या करें? इसका सीधा सा जबाव यह है कि अब हमें मुश्किल सवाल पूछने की शुरूआत करनी होगी. और ज़रूरी नहीं है कि यह सवाल नेताओं के मुँह पर ही पूछा जाए. आप यह लेख शेयर करके भी ऐसा कर सकते हैं.
यदि आपने यह लेख यहाँ तक पढ़ लिया है तो इस सच्चाई को बाकी देशवासियों तक भी पहुँचाइये ताकि खोखली सरकार, खोखले नेताओं और खोखले मुसलिम हुक्मरानों की सियाह हक़ीकत लोगों के सामने आ जाए और वे असली और अहम सवालों के बारे में सोचना शुरू करें.
(यह आँकड़े पूरे देश के हैं. समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और आज़म खाँ के नाम का इस्तेमाल मुसलमानों के नाम पर हो रही राजनीतिक को रेखांकित करने के लिए किया गया है. मुसलमानों की बदहाली के लिए बाकी नेता भी इतने ही जिम्मेदार हैं जितना के इस स्टोरी में उल्लेखित किए गए राजनेता.)