Wednesday 29 May 2013

प्रेमचन्द की कलम से - नमक का दारोगा



जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।

यह वह समय था जब अंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लडाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले।

उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हुए हैं। लडकियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूँ! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो।

'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।

'इस विषय में विवेक की बडी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खडे हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृध्द मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पडे, कलवार की आशालता लहलहाई। पडोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।

जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे।

नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी किवाड बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक ऑंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाडियों की गडगडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे।

इतनी रात गए गाडियाँ क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोडा बढाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाडियों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। डाँटकर पूछा, 'किसकी गाडियाँ हैं।

थोडी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा-'पंडित अलोपीदीन की।

'कौन पंडित अलोपीदीन?

'दातागंज के।

मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बडे कौन ऐसे थे जो उनके ॠणी न हों। व्यापार भी बडा लम्बा-चौडा था। बडे चलते-पुरजे आदमी थे। ऍंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

मुंशी ने पूछा, 'गाडियाँ कहाँ जाएँगी? उत्तर मिला, 'कानपुर । लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, 'क्या तुम सब गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?

जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के डेले थे।

पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-'महाराज! दारोगा ने गाडियाँ रोक दी हैं और घाट पर खडे आपको बुलाते हैं।

पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम आते हैं। यह कहकर पंडितजी ने बडी निश्ंचितता से पान के बीडे लगाकर खाए। फिर लिहाफ ओढे हुए दारोगा के पास आकर बोले, 'बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाडियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।

वंशीधर रुखाई से बोले, 'सरकारी हुक्म।

पं. अलोपीदीन ने हँसकर कहा, 'हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पडा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कडककर बोले, 'हम उन नमकहरामों में नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपको कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ। पिछले पृष्ठ से आगे 

पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।

वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, 'हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।

अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, 'लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।

धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खडा था।

अलोपीदीन निराश होकर बोले, 'अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढा। पंडितजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले, 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने का तैयार हूँ।

'असम्भव बात है।

'तीस हजार पर?

'किसी तरह भी सम्भव नहीं।

'क्या चालीस हजार पर भी नहीं।

'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असम्भव है।

'बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।

धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्छित होकर गिर पडे।

दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृध्द सबके मुहँ से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया।

पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साकार यह सब के सब देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे।

जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकडियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित ऑंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।

किंतु अदालत में पहुँचने की देर थी। पं. अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे।

उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौडे। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।

बडी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में यध्द ठन गया। वंशीधर चुपचाप खडे थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।

यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पडता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया।

डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुध्द दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बडे भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोडे लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बडे खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पडा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुकदमे की बढी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुध्दि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पडे। पं. अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। स्वजन बाँधवों ने रुपए की लूट की। उदारता का सागर उमड पडा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।

जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था।

कदाचित इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकडते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौडी उपाधियाँ, बडी-बडी दाढियाँ, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं ह 
भाग दो से आगे

वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुडबुडा रहे थे कि चलते-चलते इस लडके को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे ऍंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना-लिखना सब अकारथ गया।

इसके थोडे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले- 'जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृध्द माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं। पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।

इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। सांध्य का समय था। बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोडी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जडे हुए। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे।

मुंशीजी अगवानी को दौडे देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे- 'हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लडका अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुँह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान न दे।

अलोपीदीन ने कहा- 'नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।

मुंशीजी ने चकित होकर कहा- 'ऐसी संतान को और क्या कँ?

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा- 'कुलतिलक और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!

पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- 'दरोगाजी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पडा किंतु परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।

वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई।

पंडितजी की ओर उडती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले- 'यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेडी में जकडा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर।

अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा- 'नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पडेगी।

वंशीधर बोले- 'मैं किस योग्य हूँ, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।

अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले- 'इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूँगा।

मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढा तो कृतज्ञता से ऑंखों में ऑंसू भर आए। पं. अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हजार वाषक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोडा, रहने को बँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वर में बोले- 'पंडितजी मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूँ! किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।

अलोपीदीन हँसकर बोले- 'मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा- 'यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुध्दि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिए एक बडे मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- 'न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व को खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।

वंशीधर की ऑंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रध्दा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।

अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।

प्रेमचन्द की कलम से - कफ़न


1.

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के पास बैठे थे और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़े की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।

घीसू ने कहा – मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते ही गया, ज़रा देख तो आ।

माधव चिढ़कर बोला – मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नही जाती ? देखकर क्या करूं?

‘तू बड़ा बेदर्द है बे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’

‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’

चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि आधे घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता। इसीलिये उन्हें कहीँ मज़दूरी नहीं मिलती थी। घर में मुट्ठी भर अनाज भी मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ लाता और माधव बाज़ार में बेच आता। जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम कि कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उस वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा ना होता। अगर दोनों साधू होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिल्कुल ज़रूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा और कोई सम्पत्ति नही थी। फटे चीथ्डों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जीये जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त! कर्ज़ से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिल्कुल आशा ना रहने पर भी लोग इन्हें कुछ न कुछ कर्ज़ दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भूनकर खा लेते या दस-पांच ईखें उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद चिन्हों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक़्त भी दोनो अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाए थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए देहांत हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनो बे-गैरतों का दोजख भारती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनो और भी आराम तलब हो गए थे। बल्कि कुछ अकडने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्बयाज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी, और यह दोनों शायद इसी इंतज़ार में थे कि वह मर जाये, तो आराम से सोयें।

घीसू ने आलू छीलते हुए कहा- जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या! यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!

माधव तो भय था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलू का एक बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला- मुझे वहाँ जाते डर लगता है।

‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’

 ‘तो तुम्ही जाकर देखो ना।’

‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नही; और फिर मुझसे लजायेगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नही देखा; आज उसका उधडा हुआ बदन देखूं। उसे तन कि सुध भी तो ना होगी। मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी ना पटक सकेगी!’

‘मैं सोचता हूँ, कोई बाल बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड, तेल, कुछ भी तो नही है घर में!’

‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दे तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वो ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ ना था, भगवान् ने किसी न किसी तरह बेडा पार ही लगाया।’

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालात उनकी हालात से कुछ अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों कि दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीँ ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीँ ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शुन्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिलता था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी कि बैठक बाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिये जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाव ऊँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तस्कीन तो थी ही, कि अगर वह फटेहाल है तो उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नही करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नही उठाते। दोनो आलू निकल-निकलकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नही खाया था। इतना सब्र न था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दे। कई बार दोनों की ज़बान जल गयी। चिल जाने पर आलू का बहरी हिस्सा बहुत ज़्यादा गरम ना मालूम होता, लेकिन दोनों दांतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा ज़बान, तलक और तालू जला देता था, और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत तो इसी में थी कि वो अन्दर पहुंच जाये। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान था। इसलिये दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालांकि इस कोशिश में उन्ही आंखों से आँसू निकल आते ।

घीसू को उस वक़्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वो उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी।

बोला- वह भोज नही भूलता। तबसे फिर उस तरह का खाना और भर पेट नही मिला। लडकी वालों ने सबको भरपेट पूड़ियाँ खिलायी थी, सबको!

छोटे-बडे सबने पूड़ियाँ  खायी और असली घी की चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोग में क्या स्वाद मिल, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, मांगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पीया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम गोल-गोल सुवासित कचौड़ियाँ डाल देते हैं। मन करते हैं कि नहीं चाहिऐ, पत्तल को हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान एलैची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी! खङा हुआ ना जाता था। झटपट अपने कम्बल पर जाकर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर!

माधव नें पदार्थों का मन ही मन मज़ा लेते हुए कहा- अब हमें कोई ऐसा भोजन नही खिलाता। ‘अब कोई क्या खिलायेगा। वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो। क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछों, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कामं नही है। हाँ , खर्च में किफायती सूझती है। ‘

‘तुमने बीस-एक  पूड़ियाँ खायी होंगी?’

‘बीस से ज़्यादा खायी थी!’

‘मैं पचास खा जाता!’

‘पचास से कम मैंने भी ना खायी होगी। अच्छा पट्ठा था । तू तो मेरा आधा भी नही है ।’

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीँ अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़्कर पाँव पेट पर डाले सो रहे। जैसे दो बडे-बडे अजगर गेदुलियाँ मारे पडे हो।

और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

2.

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियां भिनक रही थी। पथरायी हुई आँखें ऊपर टंगी हुई थी । सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना धोना सुना, तो दौड हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।

मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर ना था। कफ़न और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोसले में मांस!

बाप-बेटे रोते हुए गाँव के ज़मीनदार के पास गए। वह इन दोनों की सूरत से नफरत करते थे। कयी बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा- क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीँ दिखलायी भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।

घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आंखों से आँसू भरे हुए कहा – सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घर-वाली गुज़र गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, पर वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रह मालिक! तबाह हो गए। घर उजाड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिटटी पार लगायेगा। हमारे हाथ में जो कुछ था, वह सब तो दवा दारू में उठ गया…सरकार की ही दया होगी तो उसकी मिटटी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊं!

ज़मीनदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढाना था। जीं में तो आया, कह दे, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नही आता, आज जब गरज पडी तो आकर खुशामद कर रह है। हरामखोर कहीँ का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फ़ेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर के बोझ उतारा हो। जब ज़मींदार साहब ने दो रुपये दिए, तो गाँव के बनिए-महाजनों को इनकार का सहस कैसे होता? घीसू ज़मीन्दार का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घंटे में घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बांस-वांस काटने लगे।

गाव की नर्म दिल स्त्रियां आ-आकर लाश देखती थी, और उसकी बेबसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थी।

3.

बाज़ार में पहुंचकर, घीसू बोला – लकड़ी तो उसे जलाने भर की मिल गयी है, क्यों माधव! माधव बोला – हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिऐ।

‘तो चलो कोई हल्का-सा कफ़न ले लें।

‘हाँ, और क्या! लाश उठते उठते रात हो जायेगी। रात को कफ़न कौन देखता है!’

‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जीं तन धांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिऐ।’

‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’

‘क्या रखा रहता है! यहीं पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।

दोनों एक दुसरे के मन कि बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घुमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गए, कभी उस दुकान पर! तरह-तरह के कपडे, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जंचा नहीं. यहाँ तक कि शाम हो गयी. तब दोनों न-जाने किस दैवीय प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुंचे और जैसे पूर्व-निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गए. वहाँ ज़रा देर तक दोनों असमंजस में खडे रहे. फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा- साहूजी, एक बोतल हमें भी देना। उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछ्ली आयी, और बरामदे में बैठकर शांतिपूर्वक पीने लगे। कई कुज्जियां ताबड़्तोड़ पीने के बाद सुरूर में आ गए. घीसू बोला – कफ़न लगाने से क्या मिलता? आख़िर जल ही तो जाता. कुछ बहू के साथ तो न जाता. माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बाना रह हो – दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाह्मनों को हज़ारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!

‘बडे आदमियों के पास धन है,फूंके. हमारे पास फूंकने को क्या है!’

‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’

घीसू हँसा – अबे, कह देंगे कि रुपये कंमर से खिसक गए। बहुत ढूंढा, मिले नहीं. लोगों को विश्वास नहीं आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे। माधव भी हंसा – इन अनपेक्षित सौभाग्य पर. बोला – बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो ख़ूब खिला पिला कर!

आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूड़ियाँ मंगायी. चटनी, आचार, कलेजियां. शराबखाने के सामने ही दुकान थी. माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया. पूरा डेढ रुपया खर्च हो गया. सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे. दोनो इस वक़्त इस शान से बैठे पूड़ियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ रह हो. न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी का फिक्र. इन सब भावनाओं को उन्होने बहुत पहले ही जीत लिया था.

घीसू दार्शनिक भाव से बोला – हमारी आत्म प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा? माधव ने श्रध्दा से सिर झुकाकर तस्दीक कि – ज़रूर से ज़रूर होगा. भगवान्, तुम अंतर्यामी हो. उसे बैकुण्ठ ले जाना. हम दोनो हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिल वह कहीँ उम्र-भर न मिल था. एक क्षण के बाद मॅन में एक शंका जागी. बोला – क्यों दादा, हम लोग भी एक न एक दिन वहाँ जायेंगे ही? घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया. वह परलोक की बाते सोचकर इस आनंद में बाधा न डालना चाहता था।

‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नही दिया तो क्या कहेंगे?’

‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’

‘पूछेगी तो ज़रूर!’

‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’ माधव को विश्वास न आया। बोला – कौन देगा? रुपये तो तुमने चाट कर दिए। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सिन्दूर मैंने डाला था।

घीसू गरम होकर बोला – मैं कहता हूँ, उसे कफ़न मिलेगा, तू मानता क्यों नहीं?

‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’

‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया । हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएंगे। ‘

ज्यों-ज्यों अँधेरा बढता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला, की रोनक भी बढती जाती थी। कोई गाता था, डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपट जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाए देता था। वहाँ के वातावरण में सुरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खीच लाती थी और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं कि मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं। और यह दोनो बाप बेटे अब भी मज़े ले-लेकर चुस्कियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी और जमी हुई थी। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खडा इनकी और भूखी आंखों से देख रह था। और देने के गौरव, आनंद, और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।

घीसू ने कहा – ले जा, ख़ूब खा और आशीर्वाद दे। बीवी की कमायी है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आर्शीवाद उसे ज़रूर पहुंचेगा। रोएँ-रोएँ से आर्शीवाद दो, बड़ी गाढ़ी कमायी के पैसे हैं!

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा – वह बैकुंठ में जायेगी दादा, बैकुंठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला – हाँ बेटा, बैकुंठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुंठ जायेगी तो क्या मोटे-मोटे लोग जायेंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढाते हैं?

श्रद्धालुता का यह रंग तुरंत ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला – मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!

वह आंखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चीखें मार-मारकर।

घीसू ने समझाया – क्यों रोता हैं बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गई, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिए।

और दोनों खडे होकर गाने लगे – ”ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी …!”

पियक्कड़ों की आँखें इनकी और लगी हुई थी और वे दोनो अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाए, अभिनय भी किये, और आख़िर नशे से मदमस्त होकर वहीँ गिर पडे।

Tuesday 28 May 2013

महात्मा बुद्ध और डॉ. अम्बेदकर - गिरिजेश

प्रिय मित्र, महात्मा बुद्ध ने जगत को ऐसा दृष्टिकोण प्रदान किया, जिसके आलोक में मानवता आज तक अपनी मुक्ति के लिये प्रयास करती जा रही है| बौद्धमत मार्क्सवाद के सबसे निकट हैं| डॉ. अम्बेदकर बौद्ध धर्म के प्रतिनिधि व्यक्तित्व हैं| इस व्याख्यान में मैंने बुद्ध, महावीर, गाँधी और अम्बेदकर के व्यक्तित्व एवं भारतीय समाज पर उनके प्रभाव की तुलनात्मक समीक्षा करने का प्रयास किया है| 
मेरा यह व्याख्यान 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की व्याख्यान-श्रृंखला का पन्द्रहवाँ व्याख्यान है|
 यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है| कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें| 
ढेर सारे प्यार के साथ 
- आपका  गिरिजेश
इसका लिंक यह है - http://youtu.be/_048yQlaYiY


Sunday 19 May 2013

मनुपुत्र ! – प्रो. प्रभुनाथ सिंह ‘मयंक’

आदमी सभ्य है
क्योंकि वह सभा के फ़र्ज़ अदा करता है
मतलब
रोशनी और भीड़ में
अपनों पर वार यदा-कदा करता है !

आदमी सभ्य है
रात्रिधर्मी बिच्छुओं की भाँति
बिना कुछ प्रचारे
(क्योंकि लोग जान जायेंगे)
अनजान अँधेरे में
डंक से कर लेता है चरणस्पर्श
क्योंकि
उसने सीख रक्खी है भली तहज़ीब !

आदमी और बिच्छू में भेद है
बिच्छुओं को देखते
रक्षार्थ हम उपचार करते हैं
मारते या दूर होते
भिन्न इससे
आदमी को दौड़ कर हम प्यार करते हैं
बेझिझक
मनुपुत्र पर एतबार करते हैं !

नवदलितवाद का विष-वृक्ष - गिरिजेश



प्रिय मित्र, मेरा मत है कि जे.एन.यू. की विशेष सुविधाओं में जीते हुए और तरह-तरह के देशी-विदेशी स्रोतों से आने वाले फण्ड के दम पर तथाकथित नवदलितवादी विचारक समाज में विद्वेष का एक ऐसा विष-बीज बो रहे हैं. जिसके भरोसे देशी-विदेशी धनपशु अपना लूट-राज निर्विघ्न चलाते रहेंगे और व्यवस्था-परिवर्तन के लिये जनजागरण में जीवन खपाने वाले क्रांतिकारियों को आने वाले दिनों में इनके चलते जन-मन में घर कर चुकी और भी दुरूह विकृतियों और विसंगतियों से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा. 

ये स्वनामधन्य 'विचारक' वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था के हर तरह से उजागर पूँजी और श्रम के बीच के प्रधान अन्तर्विरोध को छिपा कर जातियों के बीच के गौड़ अन्तर्विरोध को और तीखा करने के प्रयास मे लगे हैं. ये सूरज को बादलों से ढकने के चक्कर में भूल गये हैं कि सच को झुठलाया ही नहीं जा सकता. क्या आज गाँव-गिराँव और गली-कस्बे में जीने वाला सामान्य इन्सान बिलकुल ही नहीं जानता कि छोटे-बड़े दूकानदार से लेकर कण्ट्रोल के ठेकेदार तक उसी की जेब काट रहे हैं? प्रधान जी से लेकर डाक्टर साहब और वकील साहब तक, दलाल जी से लेकर सिपाही और दरोगा जी, और चमचा जी से ले कर नेता जी तक, चपरासी जी से लेकर अधिकारी महोदय तक उसी के घूस से मौज कर रहे हैं? सब के सब सुविधाभोगी लुटेरे उसका ही खून पीने के चक्कर में रात-दिन एक किये रहते हैं?

महानगर की चकाचौंध में पहुँच कर ये 'पोथी-पाँड़े' अपने अधकचरे किताबी ज्ञान के दो-चार उद्धरणों को मूल सन्दर्भों से काट कर और किसी तरह रट-रटा कर अर्ध-सत्य या पूरी तरह से कपोल-कल्पित कहानियाँ गढ़ कर सारे समाज को बेवकूफ बनाने के चक्कर में परेशान हैं. ग्रामीण जनता की न्यूनतम एकजुटता को भी तोड़ने पर आमादा होकर शासक वर्गों के ये वेतन-भोगी चाकर हमारे वर्ग-बन्धुओं को परस्पर नफ़रत के ज़हर से और भी भर देने का कुत्सित और निन्दनीय कुकर्म करने में लगे हैं. मगर महानगर केवल मुट्ठी भर महानगर हैं, जे.एन.यू. केवल जे.एन.यू. है. समूचा देश और आम आदमी की जिन्दगी का रोज-रोज का सच इस सब से बहुत बड़ा है. 

वहाँ पहुँच कर ये बेचारे गाँव की जिन्दगी की ज़मीनी सच्चाई को भूल चुके हैं और दलित-पिछड़ा एकता का नारा देते हुए समझ ही नहीं सकते कि अहिरौटी और चमरौटी के बीच परम्परा से उत्पीड़ितों और बाबुआन के लठैतों का छत्तीस का भीषण विरोध रहा है. और वह विरोध और उससे पैदा हुई पुश्तैनी कटुता इनकी जातिवाद की एकता वाली मीठी गोली से इतनी आसानी से समाप्त होने नहीं जा रहा और इनकी थीसिस के अनुरूप इन दोनों पुरवों के निवासी ग्रामीणों के बीच एकता पैदा नहीं करने दे सकता. केवल और केवल मार्क्सवाद के पास ही वह वैचारिक भावभूमि और बोध के स्तर के विकास का विज्ञान है, जो समूची शोषित-पीड़ित मानवता के सभी वर्गों को एकजुट कर देता रहा है. 

प्रिय मित्र, 'जातिवाद बनाम मार्क्सवाद' की बहस नयी नहीं है. कल इस विषय पर इतना और सोचने का अवसर मिला. इसके लिये मैं नीलाक्षी की वाल पर चले लम्बे 'लिहो-लिहो' का आभारी हूँ. कृपया इस विषय पर अपनी सम्मति दें.

"मित्रों, आप सब से एक बार अपनी संकीर्ण जातिवादी अवस्थिति पर पुनर्विचार का निवेदन करना चाहूँगा. मेरी समझ है कि सत्ता द्वारा किया गया अगड़ा, पिछड़ा और अनुसूचित का विभाजन वर्ग नहीं है. यह जातियों का ही विभाजन है. जाति और वर्ग दोनों ही अलग हैं. वर्ग उत्पादन-सम्बन्धों के आधार पर परिभाषित होता है. वह अवरचना (इन्फ्रा-स्ट्रक्चर) की अवधारणा (कन्सेप्ट) है. जब कि जाति अधिरचना से जुड़ी अवधारणा है. दोनों को एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड करने से ही यह भ्रामक वैचारिक अवस्थिति पैदा हुई है. 

मेरी समझ है कि अम्बेदकर की जातीय अपमान के विरुद्ध स्वाभिमान की लड़ाई अब केवल जातीय घृणा के प्रतिक्रियावादी चिन्तन तक सिमट गयी है. उसका यही हस्र होना ही था. उत्पादक और शोषक वर्गों के बीच का शोषण के विरुद्ध वर्ग-संघर्ष अगर क्रान्तिकारी दिशा में वर्गीय एकता पर लड़ा जायेगा, तो क्रान्तिकारी आन्दोलन का विकास होगा. अन्यथा इसे उत्पादन-सम्बन्धों की परिधि से बाहर जाकर केवल जातिगत आधार पर लड़ने का प्रयास उत्पादन-सम्बन्धों में बदलाव के बजाय परस्पर जातीय नफ़रत ही पैदा कर सकता था. और उसने ऐसा सफलतापूर्वक कर दिया है. 

"जातिवर्ग" जैसा कुछ नही होता. यह एक और भ्रामक शब्द है, जो संकीर्णता को सैद्धांतिक जामा पहनाने का प्रयास तो कर रहा है. मगर केवल एक मुगालता भर है. सांस्कृतिक पहिचान की लड़ाई तक ही सिमटे लोग जब खुद को क्रान्तिकारी कहने का प्रयास कर रहे हैं, तो आत्मप्रवंचना में उन्होंने इस शब्द का आविष्कार कर डाला है. 

दलित जातियों के द्वारा चलाया जा रहा सांस्कृतिक पहिचान का संघर्ष व्यवस्था की परिधि के भीतर केवल व्यवस्था को और मजबूत करता रहा है. वह इस शोषण पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के नये-नये पैरोकार तैयार कर रहा है. व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढाने के लिये तो वर्गीय एकजुटता की ज़मीन तैयार करनी होगी. जन को परस्पर लड़ाने के हथियार तो जनविरोधी सत्ता के हैं. आरक्षण भी उनमें से केवल एक ऐसा ही हथियार है. वह 'बाँटो और राज करो' के सिद्धान्त का नया फार्मूला मात्र है. 

जैसे ही हम अम्बेदकर की समझ को मार्क्स की समझ के साथ जोड़ने की कोशिश करते हैं, वैसे ही यह धूर्त व्यवस्था शासित वर्गों के बीच परम्परा से चली आ रही जातीय नफ़रत को और व्यापक पैमाने पर फ़ैलाने के लिये खुद को श्रेष्ठ साबित करने को बज़िद कर देने वाली दृष्टि में बाँध कर 'नवब्राह्मणवाद' के साथ एक ऐसा संयुक्त मोर्चा बनाती है, जिसके परिणाम स्वरूप मायावती और मुलायम का जातिवाद सत्ता तक तो पहुँच जाता है. मगर परिवर्तनकामी चेतना को अपने रास्ते से विचलित कर देता है. 

फ़ासिज़्म केवल आर.एस.एस. के हिन्दूवाद तक ही सीमित नहीं है, वह इसी 'श्रेष्ठताबोध' की घोषणा करने वाली प्रवृत्ति का नाम है. इस 'मैं' से विराट 'हम' तक की यात्रा केवल लिहो-लिहो कर के नहीं पूरी होनी है. इसे विचारों और विश्लेषण की ज़मीन पर खड़ा करना होगा. 

मार्क्सवाद इसी लिये विज्ञान है कि वह तर्क के लिये आधार देता है. तर्क करता है, तर्क सुनता भी है. सहमति के प्रयास करता है. इसके विपरीत केवल आक्षेप और आरोप केवल दूरी पैदा करता है. सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव के लिये इस दूरी को पाटने का प्रयास करना होगा. मेरी समझ है कि क्रान्ति के विज्ञान को थोड़ा और गहराई से समझने का प्रयास किया जायेगा, तभी वर्तमान यथार्थ की जटिलता को सही तरीके से सूत्रबद्ध किया जा सकेगा.



"अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। .... अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।" - इसी लेख से.

वक्त रहते - जनसत्ता, चौपाल - भरत तिवारी
कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते।

आज एक तरफ मनुवादी अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हैं, तो दूसरी तरफ अमनुवादी भी उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए वैसा ही कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि देश का प्रगतिशील वर्ग दोनों की बातों से सहमत नहीं होता दिखता। उसे दोनों ही पक्षों में घृणा का स्वर सुनाई देता है। शायद इसलिए कि ये वे स्वर हैं, जिनके खिलाफ होकर ही वह प्रगति कर सका है या जात-पात आदि से ऊपर उठ सका है। उसकी दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उसे यह स्वर अपने बहुत करीब सुनाई देता है। ऐसी स्थिति में अगर वह मनुवाद का स्वर हो और वह न सुने तो उसे अमनुवादी ठहरा दिया जाता है और यदि विपरीत स्वर हो और वह अनसुना कर दे तो उसे मनु समर्थक कहा जाता है। 

इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इन दोनों तरह के वादों से सरोकार नहीं रखना ही उसका प्रगति-पथ है, जिसे वह नहीं छोड़ना चाह रहा है। बीते कुछ वर्षों में इन स्वरों की मुखरता ने उसे पथ से विचलित भी किया है। सवाल है कि यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हुआ? वह नागरिक जो सर्वधर्म समभाव की नीति पर गर्व से चल रहा था, जिसके लिए राष्ट्र ही धर्म था, जिसे सिर्फ तिरंगे से प्यार था, उसी ने लाल, हरा, नीला, पीला या काला झंडा हाथ में ले लिया, जिसका अब तक वह विरोधी रहा है।

कई दफा दिमाग को कोरा करके सोचने पर ही स्वस्थ निर्णय सामने आ पाता है। इन मुद्दों पर निष्पक्ष होकर गौर करना जरूरी है, सवालों की तह तक पहुंचना जरूरी है। कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते। गंभीर बात है कि ऐसा वार करने वालों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि हमारे सही और गलत को समझने की प्राकृतिक इंद्रियबोध-शक्ति उनके प्रभाव से कम होती जा रही है। ये सिद्धहस्त लोग अब इस स्तर के हो गए हैं कि वे बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भी ठीक सांप्रदायिक लोगों की तरह जात-पात का जामा पहनाने लगे हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि ‘जुड़े को तोड़ना’ की नीति से फायदा किसे पहुंचता है।

कितने पत्ते हमने इन्हें दे दिए हैं खुद से खेलने के लिए! क्या आप जानते हैं कि ये वे लोग हैं, जो इंसान तो दूर, उसकी जाति को भी हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि की नजर से नहीं, बल्कि सिख बनाम मुसलिम, हिंदू बनाम मुसलिम, सिख बनाम हिंदू, गरीब बनाम अमीर, मराठा बनाम बिहार, दलित बनाम सवर्ण आदि की नजर से देखते हैं। अगर हम उनकी इस नजर को नहीं पहचानते तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। इसे खेल कर वे जघन्य अपराधों को भी हमारे सामने ऐसे रख रहे हैं कि वे हमें जघन्य न लगें। आम बातचीत को भी यों तोड़-मरोड़ कर सामने रख देते हैं कि हमारा आपसी सामंजस्य बिगड़ जाए।

जिस कृत्य से सारे समाज को क्षति पहुंचे, वह हमें अपनी क्षति नहीं लगे, तो सोचिए कि कैसी स्थिति होगी। कोई बात बगैर पूरा संदर्भ दिए अगर अनर्थ के रूप में सुनाई जाए तो क्या होता है? आज वक्त है कि हम इन राजनीतिक ‘वादों’ को दफन करें और एक होकर चलें। यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनकी जड़ें बहुत गहरी और कांटों से लैस हैं और उन्हें उखाड़ने में हमें पीड़ा होगी। लेकिन जान लें कि अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
भरत तिवारी, शेख सराय, नई दिल्ली

त्याग - क्या और क्यों! - गिरिजेश


प्रश्न - क्या त्याग हमेशा दूसरों के लिए ही किया जाता है? क्या त्याग का मतलब ही परहित होता है? लाखों क्रांतिकारियों ने प्राणोत्सर्ग किसके लिए किया? क्या उनके लिए जो या तो उनसे सहमत नहीं थे या उनके विरोधी थे?

उत्तर - "सकारात्मक पहलू और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण ही मुझे मान्य है ......" इस अंश से मैं भी सहमत हूँ. मगर विचारणीय है कि क्या त्याग केवल 'परहित' ही किया जाता है. मेरी मान्यता है कि चाहे कितना ही छोटा हो या बहुत बड़ा - कोई भी त्याग किसी और के लिये नहीं, बल्कि अपने खुद के विचारों को रूपायित करने के लिये किया जाता है. 

अब यह अलग प्रश्न है कि वे विचार कैसे हैं. हो सकता है कि वे विचार मानवता के लिये हितकर हों (जैसे वैज्ञानिकों, फकीरों और क्रांतिकारियों के) और यह भी हो सकता है कि वे विचार मानवता के लिये कष्टकर हों (जैसे हिटलर जैसे तानाशाहों, तालिबानियों, दंगाइयों, अपराधियों, जातिवादियों, धर्मान्धों, अन्ध-राष्ट्रवादियों, साम्राज्यवादियों के). मगर व्यक्ति उन विचारों से ही प्रेरित होकर कोई आचरण करता है, जिनके सम्पर्क में वह आता है और जिनको सही मानता है. 

वही व्यक्ति नये विचारों के सम्पर्क में आने पर और अपने पुराने विचार बदल जाने पर अपने अतीत के आचरण को गलत मानता है और अपने आचरण में आगे चल कर आमूल-चूल बदलाव भी कर डालता है (जैसे रत्नाकर डाकू से वाल्मीकि, चण्ड अशोक से अशोक प्रियदर्शी, राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध, कांग्रेस के सुभाष से आज़ाद हिंद फौज़ के सुभाष,). 

परिवर्तन की प्रक्रिया में नूतन के सायास ग्रहण और पुरातन के सहज त्याग की इस अवधारणा को 'निषेध का निषेध' कहते हैं. प्रशंसा ग्रहण की होनी चाहिए. किन्तु लोकरूढ़ होने के चलते उसके बजाय त्याग की ही प्रशंसा की जाती रही है. जो बहुत उचित नहीं प्रतीत होता. क्योंकि जो नित नूतन विचारों को ग्रहण करने का प्रयास करता है, वही जड़ हो चुके विचारों का त्याग भी निःसंकोच कर सकता है. 

राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि विचारों को बोझ बना कर सिर पर ढोने के बजाय बेड़े की तरह पार उतरने के लिये प्रयोग किया जाना चाहिए. चाहे आप्त वचन हों या हमारे खुद के - विचार हमें अपनी और दूसरों की जिन्दगी की समस्याओं के हल सुझाते हैं. मगर कई बार हम अपनी जड़ता में अतीत के विचारों को वर्तमान तथ्यों पर ज़बरदस्ती आरोपित करने के चक्कर में असह्य बना बैठते हैं. और समस्याओं का हल देने के बजाय और भी जटिल समस्याएँ पैदा कर बैठते हैं. 

ऐसे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मान्यता है कि जगत और जीवन में सबकुछ परिवर्तनशील है. केवल परिवर्तन ही शाश्वत है और हर व्यक्ति के विचारों और आचरण दोनों में ही परिवर्तन सतत जारी रहता ही है. कभी-कभी यह इतना धीमे होता है कि महसूस नहीं हो पाता और कभी-कभी तूफानी रफ़्तार से होता है और देखते ही देखते समग्रता में प्रभावी हो जाता है. ये दोनों ही परिवर्तन की सतत जारी प्रक्रिया के दो चरण हैं. एक का नाम है परिमाणात्मक परिवर्तन और दूसरे का गुणात्मक परिवर्तन. जैसे धीरे-धीरे गरम होता हुआ पानी शून्य डिग्री पर ठोस और फिर द्रव और सौ डिग्री पर गैस होता है. मगर मूलतः वह रहता वही है - चाहे बर्फ हो या पानी हो या फिर भाप हो. पानी की इन तीनों अवस्थाओं को हम केवल क्रान्तिक बिन्दु पर गुणात्मक परिवर्तन हो जाने के बाद ही चिह्नित कर सकते हैं. 

ऐसे ही प्रकृति की ही तरह समाज और व्यक्ति में भी प्रकृति की तरह ही परिवर्तन होता रहता है. मेरा अनुरोध है कि लगातार और विविधता के साथ पढ़िए, लगातार नयी-नयी चीज़ें सीखिए, मगर जो आपको तर्क-सम्मत और तथ्य-परक लगे और मानवता के लिये हितकर प्रतीत हो, केवल उन्हीं विचारों को मानिए और फिर चाहे जो भी कीमत अदा करनी पड़े उनको ही लागू कीजिए.

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यक्ष-प्रश्न?

प्रिय मित्र, मेरे सामने आज का यक्ष-प्रश्न यह है कि युवा परिवर्तन की चेतना के वाहक बन कर आगे आयें या फिर केवल लूट, ज़ुल्म और शोषण पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था के छोटे-बड़े चाकर बन कर इस भ्रम में जीते रहें कि वे जन-सेवा कर रहे हैं. मुझे कोई भ्रम नहीं है. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध का संचालन करने वाले को सारे भ्रम तोड़ कर नेतृत्व का दायित्व लेना ही होगा. इसी दायित्व का निर्वाह करने के चलते ही अभी तक आजमगढ़ का परिचय तीन पीढ़ी पहले पैदा हुए राहुल सांकृत्यायन और अल्लामा शिबली नोमानी के नाम से दिया जाता रहा था. बीच की पीढ़ी ने अपने हिस्से के कर्तव्य के निर्वहन में जो अक्षम्य कोताही की, तो आजमगढ़ में शिक्षा-सेवा और परिवर्तन की चेतना बेतहाशा डूब गयी. अब या तो केवल मज़दूर पैदा होने लगे या फिर अपराधी. और तब इसे 'आतंकगढ़' की संज्ञा दे दी गयी.

सन एकहत्तर-बहत्तर में मैं आन्दोलन के सम्पर्क में आया. पचहत्तर में मुझे चिकित्सा-शास्त्र के अध्ययन के लिये पुणे जाना पड़ा. सन अस्सी में वहाँ से निकल कर क्रान्तिकारी आन्दोलन में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय भागीदारी शुरू किया. मेरा सन सत्तासी से आजमगढ़ में दुबारा लौटना हुआ. सन बानबे से 'राहुल सांकृत्यायन जन इंटर कॉलेज' के रूप में मैंने शिक्षा-जगत में क्रान्तिकारी बीज बोने का प्रयोग करने की एक कोशिश शुरू किया. अट्ठारह वर्षों तक अन्तर्संघर्ष करते जाने के बाद क्रान्तिकारी शिक्षा का वह केन्द्र भी 2009 में व्यवस्था के घेरे में फँस कर पीछे छूट गया और मेरा प्रयास एक बार फिर डूब गया. तब नगर से चालीस किमी. दूर एक गाँव में 'चाणक्य विद्यालय' के नाम से फिर कोशिश की. मगर महज़ सवा साल में ही वह भी किनारे लग गया.

पिछले दो वर्षों से 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के नाम पर प्रयास कर रहा हूँ कि युवाओं के बीच से जनपक्षधर दिमाग विकसित हों और केवल व्यवस्था के छोटे या बड़े चाकर बन कर ही न जियें. बल्कि अगली पीढ़ी के परिवर्तन के संघर्ष की चेतना के वाहक बन सकें. मैं अपनी पूरी जिन्दगी में केवल मुट्ठी भर ही ऐसे लोगों को खड़ा करने में सफल हो सका. शेष हजारों किशोरों और तरुणों ने मुझे खूब प्यार किया, बड़े ध्यान से मेरी बातें सुनीं, कड़ी मेहनत करके मुझसे कुछ न कुछ सीखा भी. मगर उनमें से भी अधिकतर वक्त की धारा में बहते हुए व्यवस्था की भंवर की चपेट में डूब कर खो गये. 

पिछले दो वर्षों में 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के इस प्रयोग में भी मैं अभी तक बहुत कुछ सार्थक और सकारात्मक परिणाम नहीं प्राप्त कर सका हूँ. फिर भी मेरे मन में लगातार यह छटपटाहट बनी हुई है कि कैसे और क्या करूँ. कुछ तो मेरी समझ की सीमा है और कुछ मेरे व्यक्तित्व का बौनापन कि अभी तक तो असफलता दर असफलता ही मेरे खाते में दर्ज होती गयी है. आगे आप सभी साथियों के मनोबल, बुद्धिबल और एकजुट प्रयासों का सहारा है कि इस घटाटोप अँधेरे में हम कोई चिनगारी भी जला पाते हैं या फिर आखिरी साँस तक केवल और केवल असफलता का कलंक लेकर ही दुनिया को अलविदा कहना पड़ेगा. 

मैं पूरी विनम्रता से निवेदन करना चाहता हूँ कि मेरी मदद कीजिए. वरना अभी भी अपने इर्द-गिर्द जुट रहे युवाओं के बीच तो मुझे वह कहावत ही अभी तक सच साबित होती हुई दिख रही है कि इनमें से कोई भगत सिंह नहीं बनना चाह रहा. हाँ, उनकी फोटो पर माला चढ़ा कर अपनी फोटो खिंचवाने में और अपने लिये इस जनविरोधी व्यवस्था की सीढ़ियों में से किसी न किसी पर थोड़ी-सी जगह बना लेने के चक्कर में ही पिछली पीढ़ी के चालाक बुद्धिजीवियों की तरह ही अधिकतर युवा जुटे हुए हैं. कृपया बताइए कि मैं क्या करूँ? 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश


Siddharth Verma - "आदरणीय श्री गिरिजेश तिवारी जी, आप किसी भी भाँति असफल नहीं हुए हैं, चाहे वह "राहुल सांकृत्यायन जन इन्टर कालेज" हो, या फिर "चाणक्य विद्यालय" का प्रयोग। शायद आप को व्यावसायिकता के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने में आप अपने को असफल मान रहे हैं। आपने जितने भी लोगों (जिसमें मैं भी सम्मिलित हूँ) को शिक्षित एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण दिया, वे शायद विस्मृत नहीं कर पायेंगे। भले ही वे लोग आज धनोपार्जन या वर्तमान व्यवस्था एवं पूंजीवादी एवं उपभोक्तावादी होड़ में सम्मिलित हो गए हों, पर उनकी वैचारिक एवं विश्लेषण दृष्टिकोण तो समृद्ध हुआ ही है। हमारे समाज की व्यवस्था इसी प्रकार की है जिसमें बहुधा असफलता हाथ लगती ही है। मेरे विचार से व्यवस्था परिवर्तन समाज की इकाई (जो व्यक्ति ही होता है) की सोच में परिवर्तन एवं तत्कालीन सामाजिक अवस्था पर निर्भर करता है। रूस में बोल्शेविक क्रान्ति को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं उसके उपरान्त बनी वैश्विक एवं उक्त देश में आसन्न परिस्थितियों से बल मिला, लेकिन दूसरी ओर आर्थिक विपन्नता एवं लगभग ऐसी ही परिस्थितियों ने जर्मनी में नात्सीवाद का उद्भव प्रारम्भ हुआ। आज का विश्व लगभग एक ध्रुवीय एवं पूंजीवादी, बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद से प्रभावित है। हमारे देश के युवा मानस में भी यही वैचारिकता हावी है, जिसके कारण समाज में भृष्टाचार एवं सड़न व्याप्त है। हमारे कथित वामपंथ का अधिकाँश नेतृत्व इस समय सुविधाभोगी हो गया है एवं सत्ताभोगी होने की लालसा रखता है। इन परिस्थितियों में पीड़ित वर्ग को सही नेतृत्व नहीं मिल पा रहा है। भारतीय समाज इस समय संक्रान्ति की स्थिति में है। एक ओर जहां वह सामंतवादी, रूढ़िवादी एवं जातिवादी व्याधियों से ग्रसित है वहीँ दूसरी ओर पूंजीवादी, बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद की चकाचौंध से भ्रमित है। शायद इसी कारण वह अपनी व्याधियों के निदान एवं निराकरण में अक्षम है। इस समय पीड़ित एवं विपन्न जन सामान्य के सामने पहली प्राथमिकता रोज़ी-रोटी की है, जिसके कारण वह सैद्धान्तिक विचारधारा एवं परिस्थितियों का सही विश्लेषण करने में अपने को असमर्थ पाता है। कभी-कभी मैं स्वयं भ्रमित हो जाता हूँ। ऐसे में शायद अपना वैचारिक संघर्ष जारी रखते हुए उचित परिस्थितियों की प्रतीक्षा करना ही उचित होगा। पर आप असफल नहीं हुए हैं। मैं आपका प्रशंसक हूँ तथा आपके प्रशंसक आपकी किस प्रकार सहायता कर सकते हैं, बताने की कृपा करें।"

 Girijesh Tiwari - प्रिय मित्र, आपके शब्दों में झलकते हार्दिक स्नेह के लिये अंतर्मन से आभारी हूँ. आपका विश्लेषण वर्तमान देश-काल-परिस्थिति के बारे में मेरी समझ से सही है. समस्या यही है कि ऐसे प्रतिकूल परिवेश और परिस्थिति में कैसे काम को आगे बढ़ाया जाये. ऐसी हालत में मैं खुद कुछ भी सोच पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ और इसीलिये खूब सोच-विचार कर मैंने सभी मित्रों से मदद का निवेदन किया है. 

हाँ, मैं केवल मानवीय घटक को और विकसित करने की दृष्टि से ही सोच कर प्रयास करता रहा हूँ. मैं व्यावसायिकता की दृष्टि से कभी सोचता ही नही. उस दृष्टि से तो मेरे दोनों ही विद्यालय आज भी खूब फल-फूल रहे हैं. उनके पास पैसे हैं, छात्रों और शिक्षकों की भरपूर संख्या है, भूमि-भवन-वाहन है और चालाक प्रबन्धन भी है. मगर दोनों में ही फ़र्क केवल एक ह्रस्व 'मात्रा' का पड़ गया है - वे तब वैचारिक पटल पर जहाँ 'शिव' थे, अब मात्र 'शव' हो कर रह गये हैं. उनकी सीमा यही थी और इसी लिये उसका मुझे क्षोभ भी नहीं है. मात्र और आगे के प्रयास के रूप-रेखा की चिन्ता है.

 Shashi Tyagi - इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब माहोल निराशाजनक दिखाई देता है. लेकिन यह हमारे द्रष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हम घट रही घटनाओं के कोनसे रूप को देखते हैं।पिछले दिनों दिल्ली में जो सैलाब उठा वह सकारात्मक ही है. बांग्लादेश में जनता यानि मजदूर लगातार संघर्ष कर रहे हैं। जरूरत है तो इन सब ताकतों का सही मंच पर आना. ऐसे घटाटोप में भी जो अपने को जिन्दा रखे वही असली इंसान है.

एक व्यंग्य : 'मधुर' के कटु प्रश्न का उत्तर


Amarnath Madhur -
"भारत की उस राष्ट्रीय पार्टी का नाम बताओ जो न उत्तर में है न दक्षिण में और न पूरब में है न पश्चिम में [एकाध राज्य को छोड़कर]. मध्य में है जहां ह्रदय में शूल की तरह पीड़ा पहुँचाती रहती है. आओ इस पीड़ा का सही उपचार करें और आगामी आम चुनाव में इसे जमींदोज कर दें."


उत्तर :- प्रिय मित्र, वह पार्टी ही देश की एक-मात्र ऐसी पार्टी है, जो अपना नाम-रूप-वेश-घोषणापत्र-कार्यक्रम-नारा-नेता-झण्डा सब कुछ वक्त-ज़रूरत के हिसाब से बार-बार बदलती रहती है. वह परम मायाविनी पार्टी है. उसका अण्डरग्राउण्ड तरीके से रिमोट से सञ्चालन किया जाता है. हिटलर उसका चाचा है और मुसोलिनी उसका मामा. उसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है सबको धमकाते रहना, बेगुनाहों पर जानलेवा हमला करना, घरों को फूँकना, जोर-ज़बरदस्ती आम पब्लिक पर अपना रौब ग़ालिब करना, चोरी करके सीनाज़ोरी करना, सच छिपाना, झूठ बोलना, नफ़रत का धुआँ उड़ाना, अफवाह फैलाना, सबको बदनाम करना और खुद ही अपनी पीठ ठोंकते रहना. उसे खास-खास लोगों-विचारों-मान्यताओं-आस्थाओं से बहुत अधिक चिढ़ है. उनको तो वह सीधे अरब सागर में दफ़न कर देना चाहती है.

"वाह भाई, हम! वाह, वाह!" - उसका मूल-मन्त्र है. वह हरदम अतीत के गीत गाती है. नितान्त वर्तमान में जीती है. भविष्य से सख्त नफ़रत करती है. वह केवल हर तरह की रोशनी से डरती है और रात के अन्धेरे में उसे सुकून मिलता है. एक से बढ़ कर एक अपराधी, माफिया, गुण्डे उसके कार्य करते हैं. 'चरित्र' नाम का गाना उसे बहुत पसन्द है. मगर ''चरित्र-चरित्र" गाने के चक्कर में वह चरित्रहीनों का हरदम ही विशेष ध्यान रखती है. हर तरह के दलबदलुओं का बाहें फैला कर तह-ए-दिल से स्वागत करती है. चमचों के बिना उसका काम ही नहीं चलता. मगर ईमानदार और मेहनती कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों को एक के बाद एक बार-बार हरदम झटकती-फेंकती रहती है.

तरह-तरह के लोगों और दलों से किसी भी स्तर पर उतर कर समझौते-दर-समझौते कर-कर के कुर्सी की गणेश-परिक्रमा करती रहती है. मगर कुर्सी है कि उसके इतनी पूजा-आराधना करने पर भी उसके कब्ज़े में आने को तैयार नहीं होती. जितना वह कुर्सी के पीछे भागती है, उतना ही कुर्सी उससे दूर भागती रहती है. इस भाग-दौड़ में उसे हरदम हाँफते रहना पड़ता है. उसे 'श्वास-कास-हिक्का' नामक बीमारी तो है ही, साथ ही 'वातज ज्वर' नामक भीषण बीमारी भी है. जो बार-बार 'सन्निपात' की हद तक पहुँचती रहती है.

उसकी झोली में हर तरह का माल है. पहले वह शिशुओं और बालकों को उलटा पहाड़ा पढ़ाती रहती थी. मगर अब ज़माना बदल जाने के बाद उसकी ऊँची दूकान का फीका पकवान बिकना बन्द हो गया है. दूकान के दिवालिया हो जाने के बाद से वह अब अन्तर-जाल पर वेतनभोगी चाकरों को नियुक्त करके काम चला रही है. वह केवल मासूम और भावुक युवाओं और किशोरों को चुन-चुन कर अपने मकड़जाल में फांसती रहती है. उसका ऐसे तो सब कुछ ही खास है. मगर सबसे खास चीज़ उसकी ज़ुबान है. उसके पास दो ज़ुबान है. एक देश के भीतर इस्तेमाल करती है और दूसरी विदेशों में.

क्या अभी भी आप नहीं समझ सके कि वह कौन पार्टी है? क्या कहा? समझ गये! चलिए फिर तो ठीक है. खुद समझे तो समझे, अब सजग रहिए. किसी और से बताइएगा मत. खुद अपने तक ही यह अनमोल जानकारी महदूद रखिए. वरना अगर सब लोग जान जायेंगे, तो फिर तो उसकी बड़ी बदनामी होगी. होगी न! और फिर आप ठहरे शरीफ आदमी. जग-ज़ाहिर है कि शरीफ लोग किसी को बदनाम तो नहीं करते हैं. नहीं न!

सवाल संविधान का - गिरिजेश


प्रिय मित्र, मेरी समझ है कि भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम की नेतृत्वकारी पार्टी कांग्रेस भारतीय पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करती थी. समर-भूमि में टक्कर दे कर भारतीय जनगण के उपनिवेशवादी शत्रु ब्रिटेन को परास्त करने की जगह चुपके से की गयी समझौते-दर-समझौते की खातिर सतत जारी गुपचुप वार्ताओं के परिणामस्वरूप आधी रात को आज़ादी मिलने के बाद उसी कांग्रेस पार्टी के हाथ में सत्ता आयी. और फिर उसके विद्वान नेतृत्व ने OF THE PEOPLE, FOR THE PEOPLE, BY THE PEOPLE वाले संविधान की रचना करने के बजाय जानबूझ कर OF THE CAPITAL, FOR THE CAPITAL, BY THE CAPITAL वाला संविधान गढ़ डाला. इस तरह इस देश का संविधान ही गलत तरीके से, गलत लोगों द्वारा, गलत मकसद के लिये बनाया गया था. उसमें जनतन्त्र की जगह धनतन्त्र के पक्ष में सारे प्राविधान रचे गये हैं.

- क्या सबको समान रूप से निःशुल्क शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और रोजगार के बुनियादी अधिकारों को किनारे लगा कर सम्पत्ति के अधिकार और विरासत के हक को आगे बढ़ाना सही मकसद था?
- क्या हमारे संविधान-निर्माताओं को यहाँ-वहाँ से उधर का माल इधर करने और भानमती का पिटारा तैयार करने के लिये सारे संसार के संविधानों की तो पूरी तरह से जानकारी थी?
- मगर क्या सोवियत-संघ के समाजवादी समाज-व्यवस्था से वे नितान्त अपरिचित थे?
- क्या वे नहीं जानते थे कि वे गरीब मेहनतकश भारतीयों को धोखा दे रहे हैं?
- क्या वे नहीं जानते थे कि वे पूँजीवादी जनतन्त्र के लिये संविधान लिख रहे हैं?
- क्या उनको नहीं पता था कि पूँजीवादी जनतन्त्र का मतलब ही है आम नागरिक के लिये दिहाड़ी की गुलामी और पूँजी के लिये अकूत मुनाफ़ाखोरी?
- क्या वे नहीं जानते थे कि मुनाफे को बेलगाम कर देने का अन्जाम गरीबी और अमीरी के बीच और अधिक गहरी होती खाई के चलते भीषण महँगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, कालाबाजारी, जमाखोरी, बेरोज़गारी, अवसाद और आत्महत्याओं के रूप में सामने आयेगा ही?
- क्या वे क्रान्ति और क्रान्तिकारी विचारधारा से बिलकुल अनजान थे?
- क्या वे नहीं जानते थे कि पूँजीवादी जनतन्त्र मूलतः पूँजी की श्रम पर तानाशाही का नाम है?
- क्या उन्होंने जानबूझ कर श्रम को पूँजी की गुलामी के बन्धनों में जकड़ने का जाल नहीं बुना?
- क्या वे श्रम की पूँजी के विरुद्ध दुनिया और देश में ज़ारी क्रान्तिकारी कोशिशों से बेतहाशा भयभीत नहीं थे?
- क्या उन्होंने बार-बार भारतीय जन की क्रान्ति के प्रयासों को क्रूरता के साथ कुचलने की ज़ुर्रत नहीं की?
- क्या आदमी का खून पीने वाले बर्बर धनपशुओं की इस क्रूर व्यवस्था और इस जनविरोधी संविधान के लागू रहते किसी तरह से भारतीय जनगण की समस्याओं का समाधान सम्भव है?

नहीं न!
तो फिर मेरा विनम्र निवेदन है कि परस्पर एकजुट हो कर हमारे प्रचण्ड पराक्रमी पुरखों द्वारा देखे गये भारतीय समाज में क्रान्ति के अभी तक अधूरे सपने को साकार करने के लिये अपने स्तर पर हर मुमकिन पहलकदमी लें.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
पूँजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!!


डॉ. अम्बेडकर का आर्थिक दर्शन और भूमंडलीकरण एवं निजीकरण - एस आर दारापुरी 
https://www.facebook.com/srdarapuri/posts/10151635629701554

डॉ अम्बेडकर को सामान्यतया भारतीय संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा के रूप में ही जाना जाता है परन्तु उनके व्यक्तित्व का एक अति महत्वपूर्ण पहलू अभी तक जन साधारण से छिपा हुआ है। डॉ अम्बेडकर न केवल महान समाज-शास्त्री, राजनीति-शास्त्री और धर्म-शास्त्री थे, बल्कि वे एक महान अर्थ-शास्त्री भी थे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी वे पब्लिक फाइनेंस विषय के महान विशेषज्ञ थे। उनकी पी एच डी का शोध विषय Evolution of Public Finance in British India तथा डी एस सी का विषय Problem of the Rupee अत्यंत गहन विषय था जो कि बाद में पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुए। उनकी एम ए का विषय Ancient Indian Commerce तथा एम एस सी का शोध विषय Decentralization of Imperial Finance in British India भी गंभीर और महत्वपूर्ण विषय थे। उनका इरादा अर्थशास्त्र के संसार में प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र Bonn University से एक एडवांस कोर्स भी करने का था जिसे वे पैसे की कमी के कारण पूरा नहीं कर सके। उनकी यह शैक्षिक उपलब्धियां उनके अर्थ शास्त्र के प्रकांड विद्वान् होने का प्रमाण हैं।
भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 1925 में गठित हिल्टन कमीशन के सामने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था। उनके दूसरे असंख्य लेख एवं भाषण न केवल उनके एक अग्रगणी अर्थशास्त्री होने को प्रमाणित करते हैं बल्कि इस से उनकी भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने की उत्सुकता भी प्रमाणित होती है। डॉo अम्बेडकर द्वारा विद्यार्थियों की एक सभा में Responsibilities of a Responsible Government विषय पर पढ़े गए लेख में व्यक्त विचारों के बारे में उस समय के संसार प्रसिद्ध राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो हेराल्ड जे लस्की ने कहा था : " लेख में प्रकट किये गए डॉ अम्बेडकर के विचार क्रांतिकारी स्वरूप के हैं।" डॉ आंबेडकर के आर्थिक दर्शन से प्रभावित होकर ही नोबल पुरुस्कार विजेता डॉ अमर्त्य सेन ने कहा है: " Dr Ambedkar is the father of my economics " अर्थात "डॉ आंबेडकर मेरे अर्थशास्त्र के जनक हैं।"
डॉ अम्बेडकर के शोध- ग्रन्थ Decentralization of Imperial Finance in British India पर उनके आचार्य एडविन केनन ने अपनी प्रस्तावना में उनके तर्क से मतभेद व्यक्त करते हुए उन के ग्रन्थ में व्यक्त विचारों और युक्तिवाद में प्रकट कुशाग्र बुद्धि की सराहना की थी। 
भारत की मुद्रा प्रणाली में आवश्यक सुधार लागू करने के लिए Royal Commission on Indian Currency and Finance की स्थापना की गयी थी। इस कमीशन के अध्यक्ष Edward Hilton Young थे। इस कमीशन ने 40 लोगों के ब्यान लिए जिनमे डॉ अम्बेडकर को जब आमंत्रित किया गया तो कमीशन के हरेक सदस्य के हाथ में डॉ आंबेडकर द्वारा लिखित Evolution of Public Finance in British India ग्रन्थ की प्रतिलिपियाँ थीं। यह इस अद्भुत भारतीय मनीषी के प्रति अंग्रेज़ बुद्धिजीवियों द्वारा प्रदर्शित बौद्धिक सम्मान था। 
उस समय सारे भारत में यह चर्चा का विषय बना हुआ था कि रुपए का मूल्य पौंड के हिसाब से 1 शिलिंग 4 पैन्स या 1 शिलिंग 6 पैन्स रखा जाये। इस विषय में डॉ आंबेडकर ने दो लेख कर अपनी राय ज़ाहिर की थी। उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि रुपए का मूल्य 1 शिलिंग 6 पैन्स रखना ही राष्ट्र के लिए हितकर होगा। बाद में डॉ आंबेडकर के इस सुझाव के अनुसार ही रुपए का मूल्य 1 शिल्लिग 6 पेन्स रखा गया था। 
कमीशन के सामने दिए गए अपने ब्यान में डॉ अम्बेडकर ने साफ साफ कहा था कि सरकार की दुविधामयी नीति के कारण ही कीमतों में भारी उतार चढ़ाव होते रहते हैं और उसका परिणाम गरीबों को झेलना पड़ता है। उन्होंने एच एल शैव्लानी की पुस्तक Indian Currency and Exchange पर भी समालोचन लिखी थी।
डॉ अम्बेडकर ने अपनी कृतियों में अंग्रेज़ सरकार की तत्कालीन कर-नीति जैसे अत्यधिक भूमि लगान, नमक-कर, इंग्लैंड तथा भारतीय उत्पादन पर असमान कर कस्टम डियूटी, जागीरदारी व्यवस्था द्वारा किसानों का घोर आर्थिक शोषण तथा अंग्रेजों और भारतीय सरकारी अधिकारीयों के वेतन में भारी अंतर अदि पर भी आलोचनाएँ की थीं। इस व्यस्था के परिणामों का चित्रण बाबा साहेब ने इन शब्दों में किया था- " The Agencies of war were cultivated in the name of peace and they usurped so much of the total funds that nothing was practically left for the agencies of progress" अर्थात शांति के नाम पर युद्ध के अभिकरण तैयार किये गए और वे सम्पूर्ण धनराशी का इतना अधिक भाग हजम कर गए विकास के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। "
रुपये की समस्या पर उनका मत था कि भारतीय रुपए का आधार सोना होना चाहिए न कि चांदी। डॉ आंबेडकर "गोल्ड एक्सचेंज स्टैण्डर्ड" तथा " गोल्ड रिज़र्व फण्ड" के विरोधी थे। वे रुपए के मूल्य को उसकी आन्तरिक क्रय क्षमता से जोड़ने तथा उसके नियंत्रित प्रचलन के पक्षधर थे। उनका सुझाव था कि रुपए का मूल्य सोने के रूप में रखा जाये तथा कागज़ के नोट चलाये जाएँ। इस विवरण से स्पष्ट है कि बाबा साहेब भारतीय अर्थ व्यवस्था के प्रति कितने चिंतित थे तथा उन्होंने इसे सुधारने में अथक योगदान दिया।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ आंबेडकर की एक अर्थशास्त्री के रूप में योग्यता अंग्रेजी और पश्चिम के विद्वानों द्वारा कितनी सराही गयी थी। 
स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित अर्थ-व्यस्था के बारे में उनके विचार States and Minorities नामक पुस्तक, जो वास्तव में उनका संविधान का अपना प्रारूप था, में स्पष्टतया अंकित हैं। 
डॉ आंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मुलभूत अवश्क्ताओं की पूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे। वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खुले विरोधी थे। उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों का अदभुत समन्वय है। वे पक्के यथार्थवादी थे। उनकी मान्यता थी कि मानव समाज में पूर्ण समानता नहीं लायी जा सकती। इसलिए वे धन-दौलत एवं अन्य प्रकार की सामाजिक-शैक्षिक असमानताओं को ही क्रमिक और तार्किक ढंग से दूर करना चाहते थे। उन्होंने निजी पर्स की समाप्ति, बैंकों, बीमा कम्पनियों तथा कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी। इस से भी आगे बढ़कर उन्होंने भूमि तथा कृषि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी। वे समाजवाद और सार्वजानिक क्षेत्र के पक्षधर थे जिनके माध्यम से नेहरु जी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित एवं विकसित करना चाहते थे। डॉ आंबेडकर की आर्थिक योजना पर उनके निम्नलिखित शब्द प्रकाश डालते हैं- " यदि विदेशी तत्वों को निष्काषित करके आर्थिक परिवर्तनों को वरीयता दी जाये तो सशक्त प्रशासन आसानी से दूरगामी समाज-सुधार ला सकता है।" 
डॉ आंबेडकर का दृढ़ मत था कि "हमें अपने लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र बनाना चाहिए क्योंकि इसके बिना राजनितिक लोकतंत्र अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।" उन्होंने भारतीय समाज की सामाजिक दशा का चित्रण एक ज़ोरदार राजनितिक एवं आर्थिक शब्दावली में इस प्रकार किया है:-
" यह अत्यंत असंतोषजनक स्थिति है कि अधिकांश लोगों को अपनी जीविका कमाने के लिए भार ढोने वाले पशुओं की तरह 14-14 घंटे पसीना बहाना पड़ता है और इस प्रकार वे मनुष्य की अमूल्य धरोहर मस्तिष्क एवं मन का प्रयोग करने के अवसरों से सर्वथा वंचित रह जाते हैं। पूर्व में कैसा भी रहा हो, परन्तु वर्तमान समय में वैज्ञानिक और तकनीकि प्रगति ने इसे संभव बना दिया है। कुछ लोगों द्वारा दूसरों का शोषण इस लिए संभव हो पा रहा है कि उत्पादन के साधनों, भूमि और उद्योगों पर समाज का नियंत्रण नहीं है। जब यह संभव कर दिया जायेगा तो मैं इसे वास्तविक क्रांति मानूंगा।"
डॉ आंबेडकर की यह भी मान्यता थी कि सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के बिना जीवन और राजनितिक स्वतंत्रता का कानून एवं संविधान द्वारा संरक्षण बेमानी हो जाता है। उन्होंने कहा कि," हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोग, दलितों सहित, केवल कानून और व्यवस्था पर जीवित नहीं रहते, उन्हें तो रोटी चाहिए।" लोकतंत्र की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि " मेरे विचार में लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है कि समाज में घोर असमानताएं न हों। वहां पर कोई शोषित और दलित वर्ग न हो। वहां पर न तो कोई सर्वाधिकार संपन्न वर्ग और न ही कोई सर्वथा वंचित वर्ग हो। अन्यथा ऐसा विभाजन, ऐसी परिस्थिति तथा ऐसा सामाजिक संगठन हमेशा हिंसक क्रांति के बीज संजोये रहता है और लोकतंत्र द्वारा इनका निदान असंभव हो जाता है।"
डॉ आंबेडकर उन राष्ट्रवादियों से असहमत थे जो केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते थे। वे ऐसी कोरी एवं भावुक देशभक्ति को आदर्श नहीं मानते थे। उनकी मान्यता स्पष्ट थी- " भारत में वे लोग राष्ट्रवादी और देशभक्त माने जाते हैं जो अपने भाईयों के साथ अमानुषिक व्यवहार होते देखते हैं किन्तु इस पर उनकी मानवीय संवेदना आंदोलित नहीं होती। उन्हें मालूम है कि इन निरपराध लोगों को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है परन्तु इस से उनके मन में कोई क्षोभ नहीं पैदा होता। वे एक वर्ग के सारे लोगों को नौकरियों से वंचित देखते हैं परन्तु इस से उनके मन में न्याय और ईमानदारी के भाव नहीं उठते। वे मनुष्य और समाज को कुप्रभावित करने वाली सैंकड़ों कुप्रथायों को देख कर भी मर्माहत नहीं होते। इन देशभक्तों का तो एक ही नारा है- उनको तथा उनके वर्ग के लिए अधिक से अधिक सत्ता। मैं प्रसन्न हूँ कि मैं इस प्रकार के देशभक्तों की श्रेणी में नहीं हूँ। मैं उस श्रेणी से सम्बन्ध रखता हूँ जो लोकतंत्र की पक्षधर है और हर प्रकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए संघर्षरत है। हमारा उद्धेश्य जीवन के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक, आर्थिक एवं समाज में एक व्यक्ति, एक मूल्य के आदर्श को व्यव्हार में उतारना है।"
बाबा साहेब ने राजनीतिक आंदोलनों में मजदूर वर्ग की भूमिका के बारे में 6-7 सितम्बर, 1943 को पांचवी मजदूर सभा को संबोधित करते हुए कहा था-
"मैं दो टिप्णियाँ करना चाहता हूँ। पहली- यह कि जो लोग औद्योगिक ढांचे की पूंजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक ढांचे की संसदीय व्यवस्था में रह रहे हैं वे अपनी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को अवश्य पहचानें। इसमें प्रथम अन्तर्विरोध काम न करने वालों के लिए असीम सम्पदा एवं काम करने वालों के लिए भीषण गरीबी के रूप में है। दूसरा अन्तर्विरोध राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में है। राजनीति में समानता परन्तु आर्थिक क्षेत्र में असमानता। एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य हमारे राजनीतिक आदर्श हैं, परन्तु आर्थिक क्षेत्र राजनीतिक आदर्श का बिलकुल उल्टा है। इन अंतर्विरोधों को दूर करने के रास्तों के बारे में मतभेद हो सकते हैं, परन्तु इस में कोई मतभेद नहीं हो सकता कि ये अन्तर्विरोध हैं। 
मेरी दूसरी टिप्पणी यह है कि जबसे जीवन का आधार स्तर और संविदा (Status and Contract) हुए हैं तब से जीवन की असुरक्षा एक सामाजिक समस्या बन गयी है और मानवीय जीवन को बेहतर बनाने वालों को इस का हल ढूंढना होगा। मनुष्य के जन्म-सिद्ध अधिकारों एवं स्वतंत्राओं को व्याखित करने में बड़ी शक्ति लगायी है। यह सब बहुत अच्छा है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि तब तक सुरक्षा संभव नहीं होगी जब तक इन अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जाता जिन्हंि जन साधारण समझ सके जैसे - शांति, मकान, पर्याप्त कपड़ा, शिक्षा, अच्छी सेहत तथा सब से ऊपर गिरने के भय के बिना सिर को ऊँचा रखकर चलने का आधिकार।"
डॉ आंबेडकर ने आगे कहा- 
" हम भारत में इन समस्यायों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। हमें अपने मूल्यों का पुनर मूल्यांकन करना होगा। भारत में केवल आर्थिक उत्पादन पर सारी शक्ति लगा देना पर्याप्त नहीं होगा। हमें न केवल सभी भारतियों के सम्मानजनक जीवन के साधन के रूप में इस संपदा में उनकी हिस्सेदारी के मौलिक अधिकार पर सहमत होना होगा, बल्कि असुरक्षा से बचने के तरीके भी ढूंढने होंगे।"
वे गाँधीवादी अर्थव्यवस्था से खुले रूप से असहमत थे। उनकी दृष्टि में " गांधीवाद केवल वर्गभेद से ही संतुष्ट नहीं है, वह वर्ण व्यवस्था पर भी जोर देता है। यह तो समाज की वर्ण अर्थात आर्य-संरचना को पवित्र मानता है जिसके फलस्वरूप अमीर-गरीब, उंच-नीच, मालिक-नौकर आदि हमारे सामाजिक संगठन के स्थायी अंग हो जायेंगे।" उन्होंने आगे कहा कि " गांधीवाद ऐसे समाज के लिए उपयुक्त हो सकता है जो लोकतंत्र के आदर्श को अस्वीकार करता हो। ऐसा समाज आत्मनिर्भरता और संस्कृति के प्रति उदासीन हो सकता है, परन्तु लोकतान्त्रिक नहीं। पहला समाज कुछ लोगों के लिए आराम और सुसंस्कृत जीवन तथा अधिकांश लोगों के लिए कड़ी मेहनत और दरिद्रता का जीवन स्वीकार करेगा। परन्तु एक लोकतान्त्रिक समाज के लिए अपने सभी नागरिकों को सुखी एवं सुसंस्कृत जीवन सुनिश्चित करना आवश्यक है।" डॉ आंबेडकर मशीनीकरण और औद्योगीकरण के प्रबल समर्थक थे जब कि गाँधी जी इस के कट्टर विरोधी थे। 
वास्तव में डॉ अम्बेडकर का बहुत बड़ा योगदान भारत के औद्योगीकरण और आधनुकीकरण की नींव डालने का भी रहा है। दुर्भाग्यवश उन के इस योगदान को जानबूझ कर लोगों के सामने प्रकट नहीं किया गया है। इस क्षेत्र में उनका प्रमुख योगदान मजदूर वर्ग का कल्याण, बाढ़ नियंत्रण योजनायें, कृषि सिचाई, बिजली उत्पादन एवं जल यातायात सम्बन्धी योजनायें तैयार करना है। इसके फलस्वरूप ही बाद में भारत में औद्योगीकरण एवं बहुउदेशीय नदी जल योजनायें बन सकीं। 
यह स्पष्ट है कि पंडित जवाहर लाल नेहरु गाँधीवादी व्यवस्था के विरुद्ध उतने मुखर नहीं थे जितने कि डॉ आंबेडकर। नेहरु जी के लिए भी राजनीतिक स्वन्तान्त्रता सर्वोपरी थी और सामाजिक कार्यक्रम गौण थे। डॉ आंबेडकर और नेहरु जी दोनों ही राजकीय समाजवाद में विश्वास रखते थे। 
डॉ आंबेडकर के शब्दों में:
"समस्या यह है कि अधिनायकवाद के बिना समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र के साथ राजकीय समाजवाद कैसे रहे। इसका केवल यही हल दिखता है कि संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक कानूनों द्वारा राजकीय समाजवाद अपनाया जाये जिसे संसदीय बहुमत द्वारा निलंबित, संशोधित अथवा समापित करना असंभव होगा। इस प्रकार समाजवाद लाने, संसदीय लोकतंत्र को स्थापित करने और अधिनायकवाद से बचने के हमारे तीनों उद्देश्यों की पूर्ती हो सकेगी।"
डॉ आंबेडकर का राजनीतिक दर्शन मूलत: सामाजिक- आर्थिक दर्शन है। वे कहते हैं: " बेरोजगार लोगों से पूछिये कि उनके लिए मौलिक अधिकारों की क्या उपयोगिता है। यदि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अनिश्चित घंटों वाली सवैतनिक नौकरी और किसी मजदूर यूनियन में शामिल होने, संगठन बनाने अथवा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के बीच चुनने के लिए कहा जाये तो क्या उसके चुनाव के बारे में कोई शक हो सकता है? वह दूसरी चीज़ कैसे चुन सकता है? भुखमरी, घर-विहीनता, दरिद्रता, बच्चों को स्कूल से दूर रखने जैसी परिस्थितियां किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकार छोड़ने के लिए बाध्य कर सकती हैं। इस प्रकार बेरोजगार लोग काम तथा जीवन-निर्वाह के लिए मौलिक अधिकारों को तिलांजलि देने के लिए मजबूर होंगे।"
स्वतंत्रता के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए डॉ आंबेडकर ने कहा -
"संवैधानिक विशेषज्ञ यह मान लेते हैं की स्वंत्रता की सुरक्षा हेतु मौलिक अधिकारों को दे देना ही पर्याप्त है। उनकी मान्यता है कि जब सरकार व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती तो व्यक्ति की स्वंत्रता सुरक्षित रहती है। किन्तु आवश्कता इस बात की है कि न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को कायम रखते हुए वास्तविक स्वतंत्रताओं को बढ़ाया जाये। स्वतंत्रता को केवल सरकारी हस्तक्षेप से पूर्ण मुक्ति के सन्दर्भ में ही नहीं परिभाषित किया जाना चाहिए। इस से स्वतंत्रता की समस्या का समाधान नहीं हो जाता। सरकारी हस्तक्षेप के बिना जंगल राज अर्थात जिस की लाठी उसकी भैंस वाला समाज होगा।" 
इस लिए ऐसी स्वतंत्रता के सन्दर्भ में डॉ आंबेडकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ऐसी स्वतंत्रता आखिर कैसी और किस के लिए होगी? इस का उत्तर वे निम्न प्रकार देते है:
" स्पष्टतया यह स्वंत्रता ज़मींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को काम के घंटे बढ़ाने और कम मजदूरी देने की छूट देने वाली होगी। यह ऐसी ही होगी।" 
इसलिए डॉ आंबेडकर ने राजशक्ति की सृजनात्मक भूमिका पर जोर दिया। सही मायने में लोकतान्त्रिक राज लोक कल्याणकारी होगा। ऐसे राज का उपयोग ज़मींदारों और पूँजीपतियों जैसे निहित स्वार्थों को अनुशासित करने और उनके सामाजिक -आर्थिक आधार को ख़तम करने के लिए किया जा सकता है। इनके अधिकारों को सीमित किये बगैर आम जन को स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः डॉ आंबेडकर ने कहा: " एक अर्थव्यवस्था , जिसमे लाखों मजदूर उत्पादनरत हों, समय समय पर किसी न किसी को नियम बनाने पड़ेंगे ताकि मजदूरों को काम मिल सके और उद्योग चलते रहें, अन्यथा जीवन असंभव हो जायेगा। राजकीय नियंत्रण से स्वतंत्रता का मतलब होगा व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही।"
डॉ आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिए वे इसे अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "States and Minorities" नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। उनके अनुसार भावी संविधान में भारतीय संघ निम्नलिखित को संवैधानिक कानून का अंग घोषित करेगा:
1. सभी प्रमुख उद्योग सरकारी नियंत्रण में होंगे तथा सरकार द्वारा ही चलाये जायेंगे। 
2. वे उद्योग भी जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाये जायेंगे। 
3. बीमा केवल सरकार के हाथ में होगा तथा प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को जीवन बीमा पालिसी लेना आवश्यक होगा। 
4. कृषि राजकीय उद्योग घोषित होगी। 
5. सरकार सभी प्रमुख उद्योगों, बीमा कम्पनियों एवं कृषि भूमि का उनके मालिकों को डिबेंचरज के रूप में मुआवजा दे कर राष्ट्रीयकरण कर लेगी। 
6. कृषि उद्योग निम्न प्रकार से चलाया जायेगा:
(1) सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि को उचित आकार के फार्मों में विभाजित करके ग्रामीण परिवार-समूहों को इकाई मानकर उत्पादन करने हेतु निम्न शर्तों पर आवंटित किया जायेगा:
(क) फार्म पर सामूहिक खेती होगी। 
(ख) फार्म पर सरकार द्वारा बनाये गए नियमों के अनुसार उतपादन किया जायेगा। 
(ग) किरायेदारी कर आदि देने के बाद बचे उत्पादन को निर्धारित तरीके से आपस में बांटा जायेगा। 
(घ). भूमि सभी लोगों में जाति-धर्म आदि के भेदभाव के बगैर इस तरह बांटी जाएगी कि न तो कोई जमींदार होगा और न ही भूमिहीन मजदूर। 
(च) पानी, उपकरण, पशु, खाद तथा बीज आदि उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेवारी होगी। 
इस प्रकार हम देखते हैं की डॉ आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिए आवश्यक मानते थे। यह प्रारूप गाँधीवादी प्रारूप से सर्वथा भिन्न और नेहरुवादी प्रारूप से अधिक स्पष्ट, विकसित और निर्णायक था। भारत में परम्परागत सामाजिक बंटवारा अन्यापूर्ण है और उस पर आधारित आर्थिक बंटवारा अमानवीय है। हमें इसे समाप्त करना है। यही हमारे लिए महा प्रशन है। इस सन्दर्भ में कुछ विशेष न कर पाने के कारण ही आज जगह जगह हिंसात्मक संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हें केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना समझदारी नहीं होगी। इसकी आशंका डॉ आंबेडकर को पहले ही थी। अतः उन्होंने उसी समय अपना राजकीय समाजवाद का नमूना देश के सामने रखा था। यह भारत जैसे पिछड़े देश के लिए आज भी प्रासंगिक है। नेहरु जी इस दिशा में चले थे लेकिन आधे अधूरे मन से। आज हम अपने चिंतकों द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक-आर्थिक नमूनों को भूल कर पच्छिमी पूंजीवादी देशों द्वारा लुभावने किन्तु खतरनाक नारों और मुहावरों में फंसते जा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक रास्ता है। 
आज भूमंडलीकरण औए निजीकरण के दौर में हम राजकीय नियंतरण से स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता मान बैठे हैं। लेकिन डॉ आंबेडकर ने इसमें व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही देखी थी। लोकतान्त्रिक राज्य को निपट पूंजीवादी राज्य मानना उचित नहीं हैं। डॉ आंबेडकर ने भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए जिस राज्य की कल्पना की थी वह राजनितिक दृष्टि से लोकतान्त्रिक और आर्थिक दृष्टि से समाजवादी था। उसे उन्होंने राजकीय समाजवाद कहा था। उसे समाजवादी लोकतंत्र भी कहा जा सकता है। हमारे लिए यह नमूना आज भी प्रासंगिक है।
अंत में मैं डॉ आंबेडकर की इस गंभीर चेतावनी को दोहराना आवश्यक समझता हूँ जिस में उन्होंने कहा था, " 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे है। एक तरफ जहाँ हमारे राजनीतक क्षेत्र में समानता होगी वहीँ हमारी परम्पराओं के कारण सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। हमें इस अन्तर्विरोध को शीघ्रातिशीघ्र दूर करना होगा अन्यथा इस असमानता के शिकार लोग मुश्किल से बनाये गए इस राजनीतिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर देंगे।"

कैसे बनेगा शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के सपनों का समाज ?



जिसमें हो -
* दारू नहीं, दूध 
* दंगा नहीं, दोस्ती 
* ढोंग नहीं, सहजता 
* नफ़रत नहीं, प्यार 
* धोखा नहीं, यकीन 
* शोषण नहीं,समता 
* अत्याचार नहीं, इन्साफ़
* गुण्डई नहीं, भाईचारा 
* आत्मसमर्पण नहीं, विद्रोह
* घोटाला नहीं, पारदर्शिता 
* भ्रष्टाचार नहीं, कर्तव्य 
* हिन्दुत्व नहीं, मार्क्सवाद 
* पूँजीवाद नहीं, समाजवाद 
* चुनाववाद नहीं, क्रान्ति
* महँगाई नहीं, सही दाम 
* निजीकरण नहीं, सबको शिक्षा 
* साम्प्रदायिकता नहीं, एकजुटता 
* अश्लीलता नहीं, नारी का सम्मान 
* बेरोज़गारी नहीं, हर हाथ को काम 
* अन्धविश्वास नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण
* लाखों-करोड़ का क़र्ज़ का फन्दा नहीं, आत्मनिर्भरता का स्वाभिमान 
* अमेरिका की चरागाह नहीं, हमारा अपना देश
जरा सोचिए - 
हम आप करें, तो आखिर क्या करें !
http://www.youtube.com/watch?v=lNk-z01ILWs