Sunday 19 May 2013

यक्ष-प्रश्न?

प्रिय मित्र, मेरे सामने आज का यक्ष-प्रश्न यह है कि युवा परिवर्तन की चेतना के वाहक बन कर आगे आयें या फिर केवल लूट, ज़ुल्म और शोषण पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था के छोटे-बड़े चाकर बन कर इस भ्रम में जीते रहें कि वे जन-सेवा कर रहे हैं. मुझे कोई भ्रम नहीं है. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध का संचालन करने वाले को सारे भ्रम तोड़ कर नेतृत्व का दायित्व लेना ही होगा. इसी दायित्व का निर्वाह करने के चलते ही अभी तक आजमगढ़ का परिचय तीन पीढ़ी पहले पैदा हुए राहुल सांकृत्यायन और अल्लामा शिबली नोमानी के नाम से दिया जाता रहा था. बीच की पीढ़ी ने अपने हिस्से के कर्तव्य के निर्वहन में जो अक्षम्य कोताही की, तो आजमगढ़ में शिक्षा-सेवा और परिवर्तन की चेतना बेतहाशा डूब गयी. अब या तो केवल मज़दूर पैदा होने लगे या फिर अपराधी. और तब इसे 'आतंकगढ़' की संज्ञा दे दी गयी.

सन एकहत्तर-बहत्तर में मैं आन्दोलन के सम्पर्क में आया. पचहत्तर में मुझे चिकित्सा-शास्त्र के अध्ययन के लिये पुणे जाना पड़ा. सन अस्सी में वहाँ से निकल कर क्रान्तिकारी आन्दोलन में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय भागीदारी शुरू किया. मेरा सन सत्तासी से आजमगढ़ में दुबारा लौटना हुआ. सन बानबे से 'राहुल सांकृत्यायन जन इंटर कॉलेज' के रूप में मैंने शिक्षा-जगत में क्रान्तिकारी बीज बोने का प्रयोग करने की एक कोशिश शुरू किया. अट्ठारह वर्षों तक अन्तर्संघर्ष करते जाने के बाद क्रान्तिकारी शिक्षा का वह केन्द्र भी 2009 में व्यवस्था के घेरे में फँस कर पीछे छूट गया और मेरा प्रयास एक बार फिर डूब गया. तब नगर से चालीस किमी. दूर एक गाँव में 'चाणक्य विद्यालय' के नाम से फिर कोशिश की. मगर महज़ सवा साल में ही वह भी किनारे लग गया.

पिछले दो वर्षों से 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के नाम पर प्रयास कर रहा हूँ कि युवाओं के बीच से जनपक्षधर दिमाग विकसित हों और केवल व्यवस्था के छोटे या बड़े चाकर बन कर ही न जियें. बल्कि अगली पीढ़ी के परिवर्तन के संघर्ष की चेतना के वाहक बन सकें. मैं अपनी पूरी जिन्दगी में केवल मुट्ठी भर ही ऐसे लोगों को खड़ा करने में सफल हो सका. शेष हजारों किशोरों और तरुणों ने मुझे खूब प्यार किया, बड़े ध्यान से मेरी बातें सुनीं, कड़ी मेहनत करके मुझसे कुछ न कुछ सीखा भी. मगर उनमें से भी अधिकतर वक्त की धारा में बहते हुए व्यवस्था की भंवर की चपेट में डूब कर खो गये. 

पिछले दो वर्षों में 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के इस प्रयोग में भी मैं अभी तक बहुत कुछ सार्थक और सकारात्मक परिणाम नहीं प्राप्त कर सका हूँ. फिर भी मेरे मन में लगातार यह छटपटाहट बनी हुई है कि कैसे और क्या करूँ. कुछ तो मेरी समझ की सीमा है और कुछ मेरे व्यक्तित्व का बौनापन कि अभी तक तो असफलता दर असफलता ही मेरे खाते में दर्ज होती गयी है. आगे आप सभी साथियों के मनोबल, बुद्धिबल और एकजुट प्रयासों का सहारा है कि इस घटाटोप अँधेरे में हम कोई चिनगारी भी जला पाते हैं या फिर आखिरी साँस तक केवल और केवल असफलता का कलंक लेकर ही दुनिया को अलविदा कहना पड़ेगा. 

मैं पूरी विनम्रता से निवेदन करना चाहता हूँ कि मेरी मदद कीजिए. वरना अभी भी अपने इर्द-गिर्द जुट रहे युवाओं के बीच तो मुझे वह कहावत ही अभी तक सच साबित होती हुई दिख रही है कि इनमें से कोई भगत सिंह नहीं बनना चाह रहा. हाँ, उनकी फोटो पर माला चढ़ा कर अपनी फोटो खिंचवाने में और अपने लिये इस जनविरोधी व्यवस्था की सीढ़ियों में से किसी न किसी पर थोड़ी-सी जगह बना लेने के चक्कर में ही पिछली पीढ़ी के चालाक बुद्धिजीवियों की तरह ही अधिकतर युवा जुटे हुए हैं. कृपया बताइए कि मैं क्या करूँ? 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश


Siddharth Verma - "आदरणीय श्री गिरिजेश तिवारी जी, आप किसी भी भाँति असफल नहीं हुए हैं, चाहे वह "राहुल सांकृत्यायन जन इन्टर कालेज" हो, या फिर "चाणक्य विद्यालय" का प्रयोग। शायद आप को व्यावसायिकता के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने में आप अपने को असफल मान रहे हैं। आपने जितने भी लोगों (जिसमें मैं भी सम्मिलित हूँ) को शिक्षित एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण दिया, वे शायद विस्मृत नहीं कर पायेंगे। भले ही वे लोग आज धनोपार्जन या वर्तमान व्यवस्था एवं पूंजीवादी एवं उपभोक्तावादी होड़ में सम्मिलित हो गए हों, पर उनकी वैचारिक एवं विश्लेषण दृष्टिकोण तो समृद्ध हुआ ही है। हमारे समाज की व्यवस्था इसी प्रकार की है जिसमें बहुधा असफलता हाथ लगती ही है। मेरे विचार से व्यवस्था परिवर्तन समाज की इकाई (जो व्यक्ति ही होता है) की सोच में परिवर्तन एवं तत्कालीन सामाजिक अवस्था पर निर्भर करता है। रूस में बोल्शेविक क्रान्ति को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं उसके उपरान्त बनी वैश्विक एवं उक्त देश में आसन्न परिस्थितियों से बल मिला, लेकिन दूसरी ओर आर्थिक विपन्नता एवं लगभग ऐसी ही परिस्थितियों ने जर्मनी में नात्सीवाद का उद्भव प्रारम्भ हुआ। आज का विश्व लगभग एक ध्रुवीय एवं पूंजीवादी, बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद से प्रभावित है। हमारे देश के युवा मानस में भी यही वैचारिकता हावी है, जिसके कारण समाज में भृष्टाचार एवं सड़न व्याप्त है। हमारे कथित वामपंथ का अधिकाँश नेतृत्व इस समय सुविधाभोगी हो गया है एवं सत्ताभोगी होने की लालसा रखता है। इन परिस्थितियों में पीड़ित वर्ग को सही नेतृत्व नहीं मिल पा रहा है। भारतीय समाज इस समय संक्रान्ति की स्थिति में है। एक ओर जहां वह सामंतवादी, रूढ़िवादी एवं जातिवादी व्याधियों से ग्रसित है वहीँ दूसरी ओर पूंजीवादी, बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद की चकाचौंध से भ्रमित है। शायद इसी कारण वह अपनी व्याधियों के निदान एवं निराकरण में अक्षम है। इस समय पीड़ित एवं विपन्न जन सामान्य के सामने पहली प्राथमिकता रोज़ी-रोटी की है, जिसके कारण वह सैद्धान्तिक विचारधारा एवं परिस्थितियों का सही विश्लेषण करने में अपने को असमर्थ पाता है। कभी-कभी मैं स्वयं भ्रमित हो जाता हूँ। ऐसे में शायद अपना वैचारिक संघर्ष जारी रखते हुए उचित परिस्थितियों की प्रतीक्षा करना ही उचित होगा। पर आप असफल नहीं हुए हैं। मैं आपका प्रशंसक हूँ तथा आपके प्रशंसक आपकी किस प्रकार सहायता कर सकते हैं, बताने की कृपा करें।"

 Girijesh Tiwari - प्रिय मित्र, आपके शब्दों में झलकते हार्दिक स्नेह के लिये अंतर्मन से आभारी हूँ. आपका विश्लेषण वर्तमान देश-काल-परिस्थिति के बारे में मेरी समझ से सही है. समस्या यही है कि ऐसे प्रतिकूल परिवेश और परिस्थिति में कैसे काम को आगे बढ़ाया जाये. ऐसी हालत में मैं खुद कुछ भी सोच पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ और इसीलिये खूब सोच-विचार कर मैंने सभी मित्रों से मदद का निवेदन किया है. 

हाँ, मैं केवल मानवीय घटक को और विकसित करने की दृष्टि से ही सोच कर प्रयास करता रहा हूँ. मैं व्यावसायिकता की दृष्टि से कभी सोचता ही नही. उस दृष्टि से तो मेरे दोनों ही विद्यालय आज भी खूब फल-फूल रहे हैं. उनके पास पैसे हैं, छात्रों और शिक्षकों की भरपूर संख्या है, भूमि-भवन-वाहन है और चालाक प्रबन्धन भी है. मगर दोनों में ही फ़र्क केवल एक ह्रस्व 'मात्रा' का पड़ गया है - वे तब वैचारिक पटल पर जहाँ 'शिव' थे, अब मात्र 'शव' हो कर रह गये हैं. उनकी सीमा यही थी और इसी लिये उसका मुझे क्षोभ भी नहीं है. मात्र और आगे के प्रयास के रूप-रेखा की चिन्ता है.

 Shashi Tyagi - इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब माहोल निराशाजनक दिखाई देता है. लेकिन यह हमारे द्रष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हम घट रही घटनाओं के कोनसे रूप को देखते हैं।पिछले दिनों दिल्ली में जो सैलाब उठा वह सकारात्मक ही है. बांग्लादेश में जनता यानि मजदूर लगातार संघर्ष कर रहे हैं। जरूरत है तो इन सब ताकतों का सही मंच पर आना. ऐसे घटाटोप में भी जो अपने को जिन्दा रखे वही असली इंसान है.

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