Friday 31 August 2012

मेरा विरोध करने वाले मिट जाते हैं! जो खटते मेरे साथ अमर हो जाते हैं!!


- इतिहास-निर्माता हूँ मैं!
बनाता ही रहता हूँ हर कदम एक नया इतिहास.
कीर्तिमान स्थापित, खण्डित और स्थापित करता ही रहता हूँ हर दम.
हर-हमेशा जन का हित, जीवन की सेवा, भावी के सपने गढ़ता,
पूर्ण समर्पित जीवन जीता रहता हूँ दिन-प्रतिदिन.

- मैं मुक्ति-मार्ग के हर अवरोध तोड़ करके दीपित प्रशस्त पथ करता बढ़ता जाता हूँ,
हर कदम चरण बढ़ते जाते हैं अंगद के और धमक व्यापती जाती है दिग्दिगन्त तक.
गति - अनवरत अग्रगति, कूच - सदा करता हूँ आगे कूच, अभियान-दर-अभियान
विजय दौड़ती रहती है पीछे मेरे, हाथों में डाले हाथ कीर्ति के साथ.

- मैं शाश्वत हूँ, हूँ सत्य और श्रम, न्याय और दायित्वबोध का पक्ष,
मैं हूँ गर्वीला विद्रोही, अन्याय, झूठ, गद्दारी - सब के ही विरुद्ध,
हूँ आर्ष ऋचा का गूँज रहा मैं आप्त वाक्य - 'सत्यं वद! धर्मं चर!'

- मैं काल-चक्र से ऊपर हूँ, उद्दाम भावना से प्रदीप्त,
चिर यौवन, नित नूतन, संघर्षलीन, अनवरत सृजनरत,
बेरहमी से काट गिराया करता हूँ जड़ हो चुके विचारों के खांडव-वन को,
और उसकी जगह बसाता ही रहता हूँ मैं इन्द्रप्रस्थ का वैभवशाली साम्राज्य.

- पुरोधा हूँ, जन-क्रान्ति का ध्वजवाहक अग्रदूत,
देखो, देखो, बवण्डर मचाती है पछुवा हवा और इस बवण्डर में और भी आन-बान-शान से
फड़फड़ाता, लहराता,ललकारता मेरा लाल झण्डा जाता ही है उड़ता ऊँचा, और ऊँचा.

- मैं अपराजित वीर, एक ही घोष किया करता, फिरता होकर अधीर
रावण और शिव के प्रथम मिलन से आज तलक - 'युद्धं देहि! युद्धं देहि! युद्धं देहि!'

- जो कायर थे, वे कायर हैं, वे कायर ही रह जाते हैं, वे पक्ष नहीं चुन पाते हैं,
वे प्रश्न नहीं कर पाते हैं, वे सत्य नहीं कह पाते हैं, जीवन-रण का सामना नहीं कर पाते हैं,
चुप लगा, निपोरे दाँत, दबाये पूँछ, न कुछ भी पूछ, भागते दिखलाई वे पड़ते हैं,
गिरते-पड़ते पतली गलियों में जान बचाने के चक्कर में हो आतंकित और व्यथित,
फिर भी मारे ही जाते हैं, इतिहास उन्हें भी अपराधी ही कहता है.

- मेरा विरोध करने वाले निज स्वार्थ ध्यान में रखते हैं, उससे ही परिचालित होते,
वे पक्षपात करते-करते कुण्ठित होते, हिलते जाते, छिलते जाते,
हतोत्साह, ओजस् विहीन, श्री हीन, कलंकित, अपमानित होते जाते,
पल-पल लज्जित, पीड़ा सहते, आख़िरकार हो बेकार, मिट्टी में मिल ही जाते.
उनकी अपनी खुद की ही जीवन की गति प्रतिगति के हर प्रतिनिधि को
पहुँचा ही देती है, फेंक ही आती है 'इतिहास के कूड़ेदान' में.

- मेरा विरोध करने वाले मिट जाते हैं!
जो खटते मेरे साथ अमर हो जाते हैं!! - गिरिजेश
Photo: मेरा विरोध करने वाले मिट जाते हैं! 
जो खटते मेरे साथ अमर हो जाते हैं!!
- इतिहास-निर्माता हूँ मैं! 
बनाता ही रहता हूँ हर कदम एक नया इतिहास.
कीर्तिमान स्थापित, खण्डित और स्थापित करता ही रहता हूँ हर दम.
हर-हमेशा जन का हित, जीवन की सेवा, भावी के सपने गढ़ता,
पूर्ण समर्पित जीवन जीता रहता हूँ दिन-प्रतिदिन.

- मैं मुक्ति-मार्ग के हर अवरोध तोड़ करके दीपित प्रशस्त पथ करता बढ़ता जाता हूँ,
हर कदम चरण बढ़ते जाते हैं अंगद के और धमक व्यापती जाती है दिग्दिगन्त तक.
गति - अनवरत अग्रगति, कूच - सदा करता हूँ आगे कूच, अभियान-दर-अभियान
विजय दौड़ती रहती है पीछे मेरे, हाथों में डाले हाथ कीर्ति के साथ.

- मैं शाश्वत हूँ, हूँ सत्य और श्रम, न्याय और दायित्वबोध का पक्ष,
मैं हूँ गर्वीला विद्रोही, अन्याय, झूठ, गद्दारी - सब के ही विरुद्ध,
हूँ आर्ष ऋचा का गूँज रहा मैं आप्त वाक्य - 'सत्यं वद! धर्मं चर!' 

- मैं काल-चक्र से ऊपर हूँ, उद्दाम भावना से प्रदीप्त,
चिर यौवन, नित नूतन, संघर्षलीन, अनवरत सृजनरत,
बेरहमी से काट गिराया करता हूँ जड़ हो चुके विचारों के खांडव-वन को,
और उसकी जगह बसाता ही रहता हूँ मैं इन्द्रप्रस्थ का वैभवशाली साम्राज्य.

- पुरोधा हूँ, जन-क्रान्ति का ध्वजवाहक अग्रदूत,
देखो, देखो, बवण्डर मचाती है पछुवा हवा और इस बवण्डर में और भी आन-बान-शान से 
फड़फड़ाता, लहराता,ललकारता मेरा लाल झण्डा जाता ही है उड़ता ऊँचा, और ऊँचा.

- मैं अपराजित वीर, एक ही घोष किया करता, फिरता होकर अधीर
रावण और शिव के प्रथम मिलन से आज तलक - 'युद्धं देहि! युद्धं देहि! युद्धं देहि!'

- जो कायर थे, वे कायर हैं, वे कायर ही रह जाते हैं, वे पक्ष नहीं चुन पाते हैं,
वे प्रश्न नहीं कर पाते हैं, वे सत्य नहीं कह पाते हैं, जीवन-रण का सामना नहीं कर पाते हैं,
चुप लगा, निपोरे दाँत, दबाये पूँछ, न कुछ भी पूछ, भागते दिखलाई वे पड़ते हैं,
गिरते-पड़ते पतली गलियों में जान बचाने के चक्कर में हो आतंकित और व्यथित,
फिर भी मारे ही जाते हैं, इतिहास उन्हें भी अपराधी ही कहता है.

- मेरा विरोध करने वाले निज स्वार्थ ध्यान में रखते हैं, उससे ही परिचालित होते,
वे पक्षपात करते-करते कुण्ठित होते, हिलते जाते, छिलते जाते,
हतोत्साह, ओजस् विहीन, श्री हीन, कलंकित, अपमानित होते जाते,
पल-पल लज्जित, पीड़ा सहते, आख़िरकार हो बेकार, मिट्टी में मिल ही जाते.
उनकी अपनी खुद की ही जीवन की गति प्रतिगति के हर प्रतिनिधि को 
पहुँचा ही देती है, फेंक ही आती है 'इतिहास के कूड़ेदान' में. 

- मेरा विरोध करने वाले मिट जाते हैं!
जो खटते मेरे साथ अमर हो जाते हैं!! - गिरिजेश
(चित्र - चे और कैमिलो)
(चित्र - चे और कैमिलो)

Thursday 30 August 2012

"मैं घंटा हूँ - बजता ही रहूँगा, जब तक जिन्दा हूँ!" - गिरिजेश


 लोग चूँकि दो ही तरह के होते हैं - परिवर्तनकामी और परिवर्तनविरोधी.
इसीलिये आवाज़ें भी दो ही तरह की होती रही हैं -
एक कहती है - "मेरी आवाज़ सुनो!"
दूसरी कहती है - "यह आवाज़ डिस्टर्ब कर रही है. इसका गला घोंट दो!"

मैं घंटा हूँ, वक्त-बेवक्त बजना ही मेरा काम है, बजते रहना ही मेरी फ़ितरत.
जिन्दगी भर बजते चले जाना ही है मेरी नियति.
मैं बजता ही रहा हूँ, बज रहा हूँ, बजता ही रहूँगा, जब तक जिन्दा हूँ.

मेरी आवाज़ तुम्हारे कानों में गूँजती है और तुमको डिस्टर्ब करती है.
तुम मेरी आवाज़ का गला घोंट सकते हो.
मगर बाद मेरे मरने के भी मेरी आवाज़ की प्रतिध्वनि तुम्हें जीवन भर डिस्टर्ब ही करती चली जायेगी.

माना मैं दुनिया को बदलने की कसम खा कर भी दुनिया को नहीं बदल सका.
सच का वार झूठ पर नहीं चल सका.
मगर दुनिया भी अपनी औकात समझ चुकी.
हर कोशिश, साज़िश, दाँव-पेंच, चालाकी, मक्कारी कर चुकी.
दुनिया मेरे ऊपर हर हथकण्डा, हर ताकत आज़मा चुकी, थक-हार चुकी.
मुझे अपने सींगें कटवा कर बछड़ा बन जाने की सीख दे चुकी.
ताकि हर औना-पौना-बौना मुझे बेख़ौफ़ हो कर सहलाता रह सके.
मुझे 'मीठा सच' बोलने का पाठ पूरी संज़ीदगी से पढ़ा चुकी.
बदले में मैं अपने महीन, ज़हीन, मधुरभाषी और दुनियादार उस्तादों से आखिरी हद तक कड़वा झूठ बोलवा चुका.

और अब नतीज़ा है सामने - दुनिया भी मुझे तो नहीं ही बदल सकी.
न मैं दुनिया को बदल सका, न दुनिया मुझे.
ले-दे कर हिसाब-किताब बराबर.
न मेरे ऊपर दुनिया का क़र्ज़, न दुनिया के ऊपर मेरा ब्याज.

और अब जब आखिरी साँस है नज़दीक,
मैं पूरी आन-बान-शान से खुशी-खुशी दुनिया को कहना चाहता हूँ -
"अलविदा! कल फिर मिलेंगे!"
हाँ, तब मेरा नाम कुछ और होगा.
मगर तुम्हारी तो वही रहेगी पहिचान - झूठ, कपट, लम्पटई, बेहयाई और ढका-छिपा या नंगा स्वार्थ.
टक्कर एक बार फिर होगी, और फिर-फिर होगी.
तब तक - जब तक दुनिया हार नहीं जाती और मैं जीत नहीं जाता सच के सहारे.

हाँ, एक बात और - अपनी दुनिया अटल, अपरिवर्तनीय, जड़ तो नहीं है.
दुनिया बदल तो रही ही है.
हाँ, परिवर्तन की रफ़्तार थोड़ी धीमी ज़रूर है.
और बदलाव की बयार की दिशा अभी वाम नहीं दक्षिण है.
मगर बयार की दिशा कब बदलेगी - इसे न तुम बता सकते हो और न ही मैं.
हाँ, इतना तय है कि दिशा बदलेगी ज़रूर,
क्योंकि बार-बार पुरवा हवा ने पछुवा हवा को पछाडा है.
और फिर एक बार जल्दी ही पछाड़ने वाली है.

Wednesday 29 August 2012

और शिष्य ने ऐसा कहा.....- गिरिजेश



आइना दिखा दिया, क्या गुनाह कर डाला?

वाह हुज़ूर, आप तो सच कहते ही गुर्राते हैं!


हम तो मुंह खोलते ही पीट दिये जाते हैं !

"चुप रहो, तभी भला है!" हमें समझाते हैं.


'बोलती बन्द ही हो जाये न कहीं अपनी'

सोचते हैं सभी और हम बहुत डर जाते हैं.


हम ज़ुबां बन्द रखें तो हो क्या ही अच्छा!

आप तो जैसे चाहें, वैसे सितम ढाते हैं.


आप का ज़ुल्म सलामत रहे, हम डरते रहें.

पाठ हम को भला क्यों न्याय का पढ़ाते हैं?


हम निडर होंगे तो क्या आप को ख़तरा होगा?

डर की तासीर से क्यों एकता घटाते हैं?


आप ईमान से कुछ याद कराये ही नहीं;

वरना हम बार-बार फेल क्यों हो जाते हैं?


अपने दिल में झाँक कर खुद अपनी गलती पूछिये;

छोटे बच्चों पर भला क्यों बिजलियाँ गिराते हैं?


डर के जीते हैं और हम को भी डरवाते हैं;

शह तो मिलती नहीं, हर बार मात खाते हैं.


अपना कद देखिये खुद आप ज़रा सा पहले;

नन्ही औकात को क्यों चुनौती बताते हैं?


हम तो बच्चे हैं, चूक करते हैं, करने देते;

आप उस्ताद हैं, क्यों गलतियाँ कर जाते हैं?


आप कहते तो हैं कि इन्कलाब है अच्छा;

ज़िन्दगी से हमारी खेल क्यों कर जाते हैं? - गिरिजेश


About Pushpa



Simple yet complicated, Impulsive yet Genuine.
Blind by emotions yet not bound forever, Free to that extent I am.
Limitations of odds and evens, can’t divide all humans.
Life is far beyond the tit for tat, better to create than to react.
The turn is over and deeds done yet I am none to hate anyone.
Always are possibilities, life is fact. 
This is the way I think and act.
For some I am love and other’s hatred, both are comments and none rational.
Why to fight them teeth and nail? 

As I proceed take both equal.
The change is only truth, so both may change.
Yet I am always the same, not hungry for name and fame.
The truth is fact yet blames several. Few can feel yet not general.
Ups and downs, push and pulls, Life is going on yet eternal.
Sentiments bind my eyes and blurred vision, entangled and forgot mission.
A little stone cracks the mirror, and I find out my error.
Neither bitter nor sweet, reality comes out to meet.
The dream is broken, heart is heavy, now the truth prevails not illusion.
At times life seems a dark tunnel but there is always the other end,
there is light, there is hope, there is life one can cope…


Tuesday 28 August 2012

भ्रम की भी एक उम्र होती है - पुष्पा यादव





भ्रम की भी एक उम्र होती है .
तलाश जारी रहती है हकीकत की .
उम्मीद के सहारे
अनजान बियाबान जंगलों से होकर बढ़ती जाती है जिन्दगी.
ठिठकती, ठोकर खाती, लड़खड़ाती और सम्हलती
घटाटोप अँधेरे को हाथ बढ़ा कर टटोलती
कदमों को साधती, थपथपाती धरती को
वक्त की धारा को चीरती
अंधेरी रात के ढलने तक.
धीरज का दिया
डूबते हुए दिल के किसी कोने में
जुगनू की तरह टिमटिमाता रहता है तब तक
जब तक भ्रम का अन्धकार तार-तार होकर फट नहीं जाता, बिखर नहीं जाता
और फ़ैल नहीं जाता उम्मीद की उषा का लाल-लाल उजियारा!


भ्रम की भी एक उम्र होती है ...
हकीकत से रू-ब-रू होने तक
और फिर आखिरकार दिप-दिप दमकता है
जुझारू भरोसे का तेवर
चमकती हुई आँखों में
आंसुओं के सूख चुके दरिया के पार से
एक हुंकार उठती है - '' आगे बढ़ो-आगे बढ़ो,
टूट चुके भ्रम, काटो बंधन,
प्रस्थान करो नयी उम्मीद के साथ अगली मंजिल की ओर''!
28-5-11

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ -अमित पाठक



अमित पाठक मेरी साधना के प्रतिनिधि पुष्प हैं. मेरे विचारों के समर्थ वाहक अमित बहुत ही संवेदनशील इन्सान हैं. दुबले-पतले, लम्बे, सुन्दर, सक्रिय और सतर्क अमित अपने दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. वह बी.एससी. (गणित) द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. इस गर्मी की छुट्टी में उन्होंने मेरे संग्रह से लगभग पचास पुस्तकें पढ़ डाली हैं और मेरे पूरे पुस्तकालय पर अपना अधिकार जीत चुके हैं. वह अनेक युवकों को व्यक्तित्व व विकास परियोजना से जोडते चले जा रहे हैं. उनकी प्रतिभा और कलम पर उनकी पकड़ का एक नमूना आप तक पहुँचाने के लोभ से खुद को मैं बचा नहीं पा रहा हूँ.

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ,
कुछ अधूरे ख़्वाब हैं, थोड़ी-सी फ़ुर्सत माँग लूँ.
यूँ बहुत ही दूर तो मंज़िल नहीं अपनी मगर,
अपनी भी कोशिश में लेकिन रह गयी थी कुछ कसर;      
उस कसर के नाम पर कुछ छटपटाहट माँग लूँ,

सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.
ख़्वाब चुभ जाते हैं इन आँखों को अक्सर रात में,
आँख है कुछ गमज़दा लेकिन हँसी है बात में; 
जो नहीं पूरी हुई अब तक व' हसरत माँग लूँ,
सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.


फासलों के नाम पर पैगाम मिलते ही रहे,
दोस्ती के नाम पर इलज़ाम मिलते ही रहे; 
सामने आ जायें, तो थोड़ी नसीहत माँग लूँ,
सोचता हूँ, आपसे कुछ मुस्कुराहट माँग लूँ.

Yadav Shambhu - आज खबर 'जनसत्ता' की




Yadav Shambhu - आज खबर 'जनसत्ता' की

मोटे भाई ने हड़पा है जब से 'मोटा माल',
छोटा भाई उछल रहा है कह कर उसे दलाल;
मोटा बोला "चुप कर छोटू, क्यों इतना चिल्लाता?
जब भी मौका पाता, तूँ भी 'छोटा माल' उड़ाता.
जब भी तूँ चोरी करता है मैं किसको बतलाता?"

देखो लोगों धन की देवी कैसे नाच रही है!
खुल्लमखुल्ला अरे पहाड़ा उलटा बाँच रही है.
दो-दो आँखें होने पर भी हमको कहती अन्धा!
इसकी कितनी ज़ुर्रत है, है कैसा इसका धन्धा!

अठखेलियाँ कर रहा देखो है धन का जंजाल,
चम-चम-चम चमक रहा है कारपोरेट का माल;
कैसे-कैसे जादूगर हैं, कैसा यह इंद्रजाल,
ठुमक-ठुमक चल रहे तंत्र की मनमोहनी है चाल.

इधर खड़े मोदी गुर्राते, है उनका क्या कहना!
और उधर हैं अटल चमकते, जैसे नकली गहना; 
बी.जे.पी. है गगन बिहारी, फोटो करे कमाल,
लुटा देश का माल दोस्तो, लुटा देश का माल.

गेहूं की है चोर-बाजारी, है हम सब की भी लाचारी, 
हाल बहाल हुआ जनता का, बने न कोई काम; 
बेबस हो कहती है केवल "त्राहिमाम-त्राहिमाम",
"एक किसान आज कर्जे से फांसी झूल गया है",
रहम करो परवरदिगार! क्यों होती नहीं दया है.....?

चलो, निराला !


चलो, निराला !

चलो निराला,नाव तुम्हारे गाँव न बाँधेंगे;
देखेंगे, कैसे पूछेगी दुनिया खड़ी-खड़ी? 

गड़े हुए मुर्दों की दुनिया पूजा करती है; 
सड़े हुए मूल्यों के जंजालों में मरती है।

दुनिया को फिर से दुलराने आगे बढ़ना है; 
इसके अन्धेपन से भी हमको ही लड़ना है।

अन्धे को अन्धा कहने की जुर्रत करना है; 
नहीं किसी मक्कार लोमड़ी से ही डरना है। 

आओ चलें, बढ़ें हम आगे, टक्कर देखे, जनता जागे;
नयी रोशनी बढ़े, अँधेरा ठोकर खाता, गिरता भागे। 

Monday 27 August 2012

-:कहानी:- शिलाओं तले सिसकता शिल्पी


                                     -:कहानी:-                            
शिलाओं तले सिसकता शिल्पी 
                                         - स्वाति उपाध्याय
एक था बच्चा। दुबला-पतला, एकदम मरियल, बहुत ही कमज़ोर - मौत के पास, ज़िन्दगी से दूर, भोजन से अधिक दवाएँ खाने को मज़बूर, रोग ने हड्डी-हड्डी चूस लिया था। जब खाँसता, तो लगता कि आँखें अभी निकल कर गिर जायेंगी। एक बार की खाँसी उसे घण्टों के लिए अधमरा कर देती। जब भी उसे बीमारी से थोड़ी-सी राहत मिलती, तो वह कभी धरती को देखता और कभी आसमान को। वह सोचता रहता, ‘‘क्या मैं किसी काबि़ल हो पाऊँगा, क्या मैं किसी के काम आ पाऊँगा?’’ वह खुद से प्रश्न करता, ‘‘क्या मैं ठीक हो कर आसमान में उड़ पाऊँगा या थक-हार कर धरती की गोद में सो जाऊँगा?’’ उसका मन कहता, ‘‘तू आसमान के काम आयेगा और उसका तन कहता, ‘‘जल्दी ही तू माँ की गोद में सो जायेगा।’’ ज्यों ही उसका मन उसे प्रभावित करता और उसका मुरझाया चेहरा थोड़ा-सा खिलता, त्यों ही उसे खाँसी आ जाती और उसकी सारी कल्पना उसके सीने के दर्द में मिलकर धूमिल हो जाती। बेचारा फिर बेहाल पड़ा सिसकता, भीतर ही भीतर जलता और अपने बेजान-से हो चुके हाथों-पैरों को देखकर पंख कटे पक्षी की तरह छटपटाता। वह मर-मर कर जीता और हार-हार कर सोचता। केवल सोच ही तो सकता था बेचारा। कुछ करने की उसमें ताकत ही कहाँ थी? यहाँ तक कि उसमें मरने की भी ताकत नहीं थी। वरना कब का मर गया होता।
दूसरी तरफ जब उसकी माँ अपने बेजान-से बच्चे को देखती तो सोचती, ‘‘इतना बेजान तो यह गर्भ में भी न था।’’ वह खुद से कहती, ‘‘अगर मुझे पता होता कि जन्म लेने के बाद मेरा बेटा ऐसा होगा, तो मैं नौ महीने क्या, नौ साल तक इसे गर्भ में ही ढोती रहती।’’ उसे लगता कि उसने अपने बेटे को दूध नहीं ज़हर पिलाया है, जो उसे घुट-घुट कर जीने को मज़बूर कर रहा है। माँ हो कर भी वह चाहती कि उसका बेटा हरदम खाँसता रहे, क्योंकि जब खाँसने की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती, तो उसे लगता कि मौत उसके बेटे को लेकर भाग रही है। उसे बचाने के लिये वह अपने आँचल से ढँक कर इतना कस कर पकड़ लेती कि मौत भी उससे छीनते-छीनते हार कर वापस चली जाये। उसका पिता जब माँ को पागलों की तरह आँचल पसारे फफक-फफक कर रोते देखता, तो जलती दोपहरी में नंगे पाँव डाॅक्टर के दवाखाने की ओर दौड़ पड़ता। डाॅक्टर को पहले से दी गयी दवाओं पर भले ही विश्वास रहता, मगर वह भी जानता था कि माँ की ममता उसे मरने नहीं देगी। माँ की ममता, पिता की कुर्बानी और डाॅक्टर की सेवा के भरोसे बच्चे को यह विश्वास होने लगा कि मौत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। धीरे-धीरे उसके बेजान हाथों और पैरों में जान आने लगी। सूखे होंठो पर मुस्कान आने लगी। 
अब उसे अपने सवालों का जवाब मिलने लगा था कि वह आसमान के काम आयेगा, वह पक्षियों की तरह क्षितिज के पार उड़ता जायेगा। बचपन से ही बीमार रहने के कारण उसका कोई दोस्त भी नहीं था। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा वह एकान्त-प्रेमी हो गया था। उसके एकान्त-प्रेमी होने का कारण थी तो उसकी बीमारी ही, क्योंकि बीमार आदमी से कोई भी दोस्ती नहीं करना चाहता। उस पर दया तो सभी दिखाते हैं, मगर उसका दर्द कोई नहीं बाँटना चाहता। अगर उसकी बीमार आँखें किसी को लगातार देख देती हैं, तो वह इंसान उसके पास तक नहीं जाना चाहता और जितना हो सके उससे दूर भागने की कोशिश करता है। इसलिए एकान्त में उसके साथी होते ऊपर सितारों भरा आसमान और नीचे धरती की गोद में सोये पड़े कुछ बेजुबान पत्थर और आसपास पड़ी कुछ किताबें। पत्थरों को वह गढ़ नहीं सकता था और किताबों को पढ़ नहीं सकता था। जब भी वह ऊपर देखता, दिल में क्षितिज को छू लेने की कशिश लिये बाज से गौरेया तक हवा में अपने पंख तोलते दिखाई देते। पक्षी उसे सचमुच बहुत प्यारे लगते, लेकिन उसे लगता कि पक्षी उसे चुनौती देते हैं, उससे पूछते हैं, ‘‘तुम भी हमारी तरह उड़ सकते हो क्या?’’ गौरेया उसके कानों के पास पंख फड़फड़ाती और फुर्र से उड़ जाती, कोयल कूक-कूक कर उसे अपने पास बुलाती और कौआ कँाव-काँव करके पूछता, ‘‘मेरे साथ उड़ोगे?’’ हवा में कलाबाज़ियाँ खाता बाज उसे ललकारता, ‘‘है दम मेरा मुकाबला करने का?’’ आस-पास पड़ी किताबों के पन्ने फड़फड़ाते और कहते, ‘‘हमको पढ़ो, तब जान पाओगे कि हममें क्या है।’’ 
बच्चा उदास हो जाता, बीमारी ने तो उसे स्कूल का मुँह देखने ही नहीं दिया था, तो फिर पढ़ता कैसे? बेटे को उदास देखकर पिता ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाया। अब वह हरदम किताबें पढ़ता रहता, पढ़ने से जब उसका जी ऊबता तो वह पत्थरों के साथ खेलता और आसमान को निहारता।  पत्थरों के साथ उसके लगाव को देख पिता ने उसके जन्मदिन पर उपहार में उसे एक सुन्दर हथौड़ी और छेनी दे दी। छेनी-हथौड़ी पाकर वह बहुत खुश था। एक दिन उसने बाज से पूछा, ‘‘तुम इतनी ऊँचाई तक कैसे उड़ते हो? मुझे भी बताओ न!’’ बाज बोला, ‘‘मेरे पास इतने सुन्दर पंख जो हैं।’’ बच्चा बोला, ‘‘मुझे दे दोगे अपने पंख?’’ बाज बोला, ‘‘तुम्हारे आस-पास भी तो इतने सारे पत्थर पड़े हैं, उनसे क्यों नहीं बना लेते अपने लिये पंख? अपना पंख कोई किसी को देता है क्या?’’ 
बाज की बात सुनकर उसे लगा कि बाज ने उसके मन की बात कह दी। बचपन से ही उसे पक्षियों और पत्थरों सेे लगाव तो था ही, बाज के जवाब में उसमें अपने लियेे पथरीले पंख गढ़ने की चाहत पैदा हुई। वह उन्हें अपने कन्धांे पर सजा कर हवा में तोलना चाहता था और पक्षियों की तरह उड़ कर क्षितिज छू लेना चाहता था। दौड़ता हुआ वह अपने घर के अन्दर गया और झट से अपनी छेनी और हथौड़ी निकाल लाया। आसमान में उड़ते पक्षियों के पंखों को देर तक निहारता रहा, उनकी बनावट को अपनी आँखों के अन्दर उतारता रहा। फिर पत्थरों से वैसे ही पंख गढ़ने लगा। उसने पत्थर के दो सुन्दर-सुन्दर पंख बनाये। उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि कभी बेजान रहने वाले हाथों ने आज इतने सुन्दर-सुन्दर पंख बना दिये। अब उसने बाज को ही नहीं, अपितु सूर्य को भी चुनौती दे दी। अपनी पीठ पर अपने पथरीले पंखो को बाँधा, अपनी मुँडे़र पर चढ़ा, आसमान को निहारा, एक गहरी साँस भरी और फिर छलाँग लगा दी। मगर यह क्या! वह तो धड़ाम से गिर पड़ा अपने ही आँगन में। पक्षी उसे देख कर ज़ोर-जा़ेर से हँस पड़े। वह धीरे-से उठ बैठा, चारों ओर निहारा, आस-पास कहीं कोई नहीं था। केवल आसमान में अठखेलियाँ करते चन्द गर्वीले पक्षी थे, जो उसकी असफलता पर अट्टहास कर रहे थे। आहत और अपमानित हो कर उसकी आँखें डबडबा आयीं, अपना सिर झुका कर वह गहरी सोच में डूब गया। 
अन्त में उसे समझ में आया कि और बेहतर पत्थरों की तलाश की जाये। सफलता तभी सम्भव हो पायेगी। और फिर अपने पथरीले पंखांे को सीने से लगाये बोझिल पाँवों से इन पत्थरों से बेहतर पत्थरों की खोज में वह चल पड़ा। पत्थरों के पंख गढ़ना तो उसने सीख ही लिया था, क्योंकि था तो वह भी शिल्पी ही। मगर इन पथरीले पंखों को पक्षियों के पंखों की तरह हल्का बनाना उसे नहीं आता था, इसलिये वह अनुभवी शिल्पियों से मिलना भी चाहता था। किसी से मिलने के लिये किसी को तो छोड़ना ही पड़ता है, कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना ही पड़ता है। शिल्पी को भी छोड़ना पड़ा अपनी माँ के उस आँचल को जिससे मौत भी हार गयी थी, पिता की उन बाँहो को जिनमें सो कर वह बचपन में झूला करता था। इन सब को खो कर वह शिल्पकला में दक्षता पाने चल पड़ा एक ऐसे संसार की ओर, जहाँ से पीछे लौटना उसके लिये असम्भव था, एक भावनाशून्य पथरीला संसार।
जिन-जिन उस्ताद शिल्पकारों से मिलने वह जाता, उसे देखते ही वे समझ जाते कि इसकी बनायी हुई मूर्तियाँ दुनिया के कोने-कोने में पूजी जायेंगी, सराही जायेंगी। वह एक से एक उस्ताद शिल्पकारों से मिलता गया, शिल्पकार उसे मूर्ति-कला सिखाते गये। अब शिल्पी बार-बार मूर्ति गढ़ता। मूर्तियों में कोई न कोई कमी रह जाती। मगर शिल्पी हार नहीं मानता। मूर्तियों को गढ़ते-गढ़ते उसके हाथों में छाले पड़ जाते, आँखों में पत्थर के कण पड़ जाते। फिर भी शिल्पी भूखा-प्यासा, थकान से चूर रहने पर भी दिन-रात लगातार मूर्तियाँ गढ़ता रहता। लोगों ने जब उसे भूखे देखा, तो समझाया, ‘‘मूर्तियाँ गढ़ने से किसी का पेट नहीं भरता।’’ शिल्पी ने यह पूछ कर उन्हें निरुत्तर कर दिया कि क्या दुनिया में सारी मूर्तियाँ आसमान से टपकी हैं? इनको गढ़ने से मेरा मन ही नहीं भरता। मन ऊबे, तब तो पेट की याद आये। तभी तो मैं रात-दिन इन्हें गढ़ता रहता हूँ। इस तरह अपने कठिन परिश्रम तथा लगन से उसने शिल्पकला में महारथ हासिल कर ली।
पत्थरों को गढ़ना तो उसने सीख ही लिया था, अब बाकी था तो किताबों को पढ़ना। किताबों को पढ़ कर वह यह जानना चाहता था कि समाज में कहाँ-कहाँ से अच्छे-अच्छे पत्थर मिल सकते हैं, समाज को कैसी-कैसी मूर्तियों की आवश्यकता है। साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है। इसलिये वह साहित्य-सागर में गोते लगाने चल पड़ा। दिल में उड़ने की कशिश लिये उसने तैरना भी सीखा। पहले वह पत्थरों को आकाश में उड़ाना चाहता था और अब पत्थर की मूर्तियों को पानी में तैराना चाहता था। दोनों ही काम असम्भव! मगर वह था ही बहुत जिद्दी। दोनांे को सम्भव बनाना चाहता था। वह सोचता, ‘‘जो असम्भव को सम्भव न बना दे, वह आदमी कैसा? किस काम का?’’ उसकी यह सोच उसके अध्ययन की देन थी, उन किताबों की देन थी, जिनको खरीदने के चक्कर में वह अपने खाने में कंजूसी करता, अपनी दवाओं के पैसे बचाता, अपने लिये कपड़े नहीं बनवाता, यहाँ तक कि वह दूसरों के उतारे कपड़े भी पहन कर काम चला लेता।
इस तरह उसने कठोर तपस्या करके एक-एक किताब खरीदी, कुछ ऐसी किताबें भी खरीदीं, जो आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। जैसे पक्षी तिनका-तिनका जुटा कर अपना घोंसला बनाते हैं, वैसे ही शिल्पी ने एक-एक किताब जुटा कर अपना पुस्तकालय बनाया। किताबों को पढ़ते-पढ़ते उसे समझ में आ चुका था कि समाज को कैसी मूर्तियों की आवश्यकता है। शिल्पी तो वह था ही, वह यह भी जानता था कि कैसी-कैसी मूर्तियाँ बनानी हैं। अब उसे आवश्यकता थी, तो सिर्फ उन पत्थरों की, जिनसे उसे ये मूर्तियँा बनानी थीं। और पत्थर तो ऐसी चीज़ थे नहीं कि अख़बारों में विज्ञापन देने से उसके पास खुद-ब-खुद चले आते। उन्हें ढूँढ़ने का काम तो शिल्पी को ही करना था। पत्थरों की खोज में भटकता वह जा पहुँचा मकराना की खानों के पास, जहाँ उसे श्वेत संगमरमर मिले। फिर वह विंध्य पर्वत की तलहटी में गया और काले पत्थरों को ले आया। सोन नदी से उसको सुनहरी चट्टानें उपलब्ध हुईं। ऊँचे हिमालय से उसने कच्चे पत्थर पाये। गहरे समुद्र ने उसे लाल प्रवाल दिया।

अब उसके पास वह सब कुछ था, जो वह चाहता था। सब कुछ अर्थात् एक भरी-पूरी पथरीली दुनिया, जिसके ख्वाब उसने बचपन से देखे थे। बचपन में उसने मौत को भले ही परास्त कर दिया हो, मगर उसके यौवन से कभी-कभी उसकी बीमारी झाँकती। पत्थरों को तो वह खोज ही चुका था, अब आवश्यकता थी सबको एक जगह लाकर इकट्ठा करने की। पत्थर तो पत्थर ही थे - बहुत भारी। सबको अकेले ही ढकेल कर वह इकट्ठा नहीं कर सकता था। फिर भी हिम्मत के साथ उसने यह काम भी अकेले ही करना शुरू किया। उसकी हिम्मत ने दूसरों को भी आकर्षित किया और बहुत से लोग उसकी मदद करने आ पहुँचे। धीरे-धीरे करके वे सभी शिल्पी के मित्र बन गये। सभी ने पूरे दिल-ओ-दिमाग से उसकी सहायता की और सारे पत्थर एक जगह इकट्ठा हो गये।
उसकी सहायता करने के बाद उसके मित्रों ने पूछा, ‘‘इन पत्थरों का करोगे क्या?’’ शिल्पी बोला, ‘‘क्या तुम मुझे नहीं जानते? मैं एक शिल्पकार हूँ। मैं इन पत्थरों से अपना घर तो बनाऊँगा नहीं और अगर बनाऊँ भी तो किसके लिए? घर में रहने वाला भी तो कोई चाहिए! और फिर सोचो तो जब छोटे-से खाली दिमाग को शैतान का घर कहा जाता है, तो खाली घर को किसका घर कहा जायेगा? मैं इन पत्थरों से एक से एक अनोखी और शानदार मूर्तियाँ बनाऊँगा, जो दुनिया के कोने-कोने में सराही जायेंगी।’’ उसके साथी मन ही मन मुस्कुराते, वे पत्थरों को मूर्ति का रूप देने में उसकी कोई मदद नहीं कर सकते थे, क्योंकि मूर्तियाँ गढ़ना वे जानते ही नहीं थे और मूर्तियाँ गढ़ना उसे भी इतनी आसानी से नहीं आया था। उसको भी कठोर तपस्या करनी पड़ी थी।
बचपन से ही जब वह बेडौल पत्थरों को देखता, उनको सुडौल बनाने के लिए उसकी अंगुलियाँ ऐंठने लगतीं और उसके मन में उसकी छेनी-हथौड़ी चलने लगती। बचपन से बेचैन अंगुलियों को तब जाकर चैन मिला, जब उसने एक-एक करके पत्थरों को गढ़ना शुरू किया। वह रात-दिन पत्थरों को गढ़ता रहता और अपनी बीमारी से लड़ता रहता। आराम करने के लिए वह तभी बैठता, जब उसका रोम-रोम दर्द से भर टीसने लग जाता, जब उसकी पलकें झपकने लगतीं और उसे आशंका होने लगती कि उसके हाथ इधर-उधर चोट कर बैठेंगे। ज्यों ही वह आराम के बारे में सोचता, त्यों ही पत्थरों से आवाज़ आने लगती, ‘‘मुझे तराशो, मुझे आकार दो।’’ उन मूर्तियों को शिल्पी की दशा पर कभी तरस भी नहीं आता था, क्योंकि उनको तो सिर्फ अपना स्वार्थ दिखता। और शिल्पी की हालत ऐसी हो गयी थी कि कभी पत्थर गिरते तो उसकी अँगुलियाँ कुचल जातीं, कभी हथौड़ा उसके हाथों पर चोट कर देता, और कभी हाथों में पड़े छाले फूट कर पूरे हाथ को लहूलुहान कर देते, जिसके चलते अगर कोई मूर्तियों को ध्यान से देखता, तो उसे उन पर कहीं न कहीं खून से सनी अंगुलियों के दाग दिखाई दे जाते। 
कभी-कभी जब वह बहुत बीमार होता, रात भर का जागा होता, तब भी वह इन पत्थरों को देखे बिना नहीं रह पाता और आ कर मूर्तियों के बीच बैठ जाता। और जब वह आकर बैठता, तो किसी न किसी मूर्ति के किसी न किसी बेडौल भाग को देखते ही उसे सुडौल बनाने के लिये दर्द से कराहता हुआ खड़ा होता और फिर चल पड़ता अपनी छेनी और हथौड़ी उठा कर। सारे पत्थर मूर्ति का रूप ग्रहण करने के लिये पूरी तरह से शिल्पी पर निर्भर रहते। छोटा-सा कोना भी अगर गढ़ने के लिये बाकी रह जाता, तो भी वे शिल्पी के ही पास दौड़ कर आ जाते। वे स्वयं कुछ भी नहीं करना चाहते थे। कारण था उनका आलस्य। और तो और जब अपनी अज्ञानता और मासूमियत दिखाकर कुछ चिकने पत्थर शिल्पी को मूर्ख बनाते, तो वह कसमसा कर रह जाता था। शिल्पी इतने दिनों से पत्थरों को ही गढ़ रहा था। इसलिये वह एक-एक पत्थर के बारे में खूब अच्छी तरह जानता था। वह झल्लाता-झुँझलाता, झिड़कता-बड़बड़ाता, चीखता-चिल्लाता, रोता-गिड़गिड़ाता। मगर अन्ततोगत्वा वह इन्हें पत्थर समझ कर माफ़ कर देता। मजबूर था न! आखिर कर भी क्या सकता था?
पत्थरों से मूर्तियाँ बनाने में शिल्पी इतना तल्लीन था कि उसे पता ही नहीं चला कि उसने अपने जीवन के पन्द्रह सालों को पत्थरों के बीच कैसे गुजार दिया। ज़िन्दगी खप गयी। मगर धीरे-धीरे कर के शिल्पी की मेहनत रंग लायी। कुछ पत्थरों ने मूर्तियों का रूप लेना शुरू कर दिया, कुछ में थोड़ी लकीरें उभरीं, और कुछ तो इतने चिकने थे कि उन पर रंच मात्र भी असर नहीं पड़ा। इक्का-दुक्का पत्थरों ने मूर्तियों का रूप लगभग ले लिया था। अब बाकी था उनको रगड़-रगड़ कर हीरे की तरह चमकाना। अब शिल्पी ने मूर्तियों को रगड़ना शुरू किया। मूर्ति बन चुके पत्थर फूले न समाते। मगर शिल्पी को उनमें चमक की तनिक भी कमी हमेशा खटकती रहती। शिल्पी उनको ऐसा बनाना चाहता था कि उनका कोई विकल्प न हो। इसलिये शिल्पी उन्हें लगातार तराशता रहता। उसकी अंगुलियाँ घिस गयीं। उसके नाखून टूट गये। लेकिन उनमें चमक नहीं आयी, क्योंकि वे चमकना ही नहीं चाहते थे। उन्हें लगा उनका काम हो गया। अब शिल्पी को वे फूटी आँखों से भी नहीं देखना चाहते थे। जब शिल्पी उनके बीच न रहता, तो वे बहुत खुश होते।

मगर उनके बीच न रहकर भी वह कहीं न कहीं से उनको निहारता रहता। शिल्पी समझ गया कि ये चमक तो नहीं सके, लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलना इन्होंने जरूर सीख लिया है। वह समझता था कि पत्थरों को अपने-अपने अतीत से मोह है। और चूँकि मोह इतनी आसानी से खत्म नहीं होता। उसके लिये भी तपस्या करनी पड़ती है। इसलिये इसमें इन पत्थरों का भी ज़्यादा दोष नहीं है। अभी श्वेत पत्थरों को शिल्पी की पथरीली दुनिया से ज़्यादा मोह था मकराना की खानों से, श्याम पत्थरों को विंध्य पर्वत की तलहटी के सपने सताते और कच्चे पत्थरों को हिमालय की ऊँचाई याद आती, प्रवाल समुद्र की यादों में खोये रहते, तो सुनहरे पत्थरों को सोन नदी की सोन-मछलियों की छपाक-छपाक करती अठखेलियाँ पुकारती रहतीं। शिल्पी उन पत्थरों के बारे में रात-दिन सोचता, चिकने पत्थरों को उनकी भाषा में समझाता और उनको अपनी दुनिया से अलग करने की चेतावनी भी देता, मगर उन्होंने शिल्पी की बातों को कभी गहराई से लिया ही नहीं। उन शिलाओं ने शिल्पी के दर्द को कभी अपना दर्द समझा ही नहीं और उनके न समझ पाने का परिणाम बहुत भयंकर हुआ। पत्थरों और शिल्पी के बीच दूरी बढ़ती गयी। शिल्पी बहुत स्वाभिमानी था। किसी से कुछ माँगना उसे बिल्कुल पसन्द नहीं था। मगर वह माँग-माँग कर लाया था उन चिकने पत्थरों को, जो अपने-अपने मालिकों की ज़ागीरों में कैद थे। लेकिन वह धोखा खा गया था उनकी चमक और चिकनेपन को पहिचानने में।
जब दूसरे पत्थरों को पता चला कि शिल्पी कुछ चिकने पत्थरों को अलग कर रहा है, तो वे जड़ पत्थर चल पड़े और शिल्पी को घेर लिया। शिल्पी को यह समझते देर न लगी कि आज ये बेज़ुबान पत्थर बोलेंगे क्योंकि वह दूरदर्शी भी तो था। पत्थरों के कुछ कहने से पहले ही शिल्पी ने उन्हें अपनी ओर से बोलने के लिये आज़ाद कर दिया, ‘‘जो पूछना चाहते हो पूछो, जो बोलना चाहते हो बोलो।’’ शिल्पी तो जानता था कि पत्थर बेजुबान हैं। लेकिन बेजुबान पत्थर बोले। इससे पहले शिल्पी ने कभी उनको बोलते हुए नहीं सुना था। बोलते-बतियाते थे वे। मगर शिल्पी की पीठ के पीछे। सामने तो केवल कराहते रहते। वह सुनता था तो सिर्फ अपने पत्थरों के कराहने की आवाज़ंे। जब उन पर हथौड़े चलते, तो वे चीख पड़ते। उनके कराहने से शिल्पी को भी दर्द तो होता ही, मगर शिल्पी अगर कराहों और चोटों का ख्याल करे, तो मूर्तियाँ कैसे बनें? इसलिए वह बहरा बना उनको गढ़ता रहता। 
पत्थर शिल्पी के हथौड़े को इसलिये बर्दाश्त करते क्योंकि जहाँ एक तरफ वे अपने को शिल्पी के मजबूर कैदी मानते, वहीं दूसरी तरफ वे सोचते थे कि मूर्तियों का रूप लेने के बाद लोग उन्हंे पूजेंगे। मगर वे यह नहीं जानते थे कि मूर्ति को लोग पूजते क्यों हैं? क्यों पूजते हैं लोग मूर्तियों को? क्योंकि मूर्तियों की कोई इच्छा नहीं होती। वे सब कुछ चुपचाप सह लेती हैं। इंसान भी अगर अपनी सभी इच्छाओं को त्याग दे, तो लोग उसे भी पूजें। एक-एक कर पत्थरों ने शिल्पी से पूछा, ‘‘क्यों अलग कर रहे हो इन चिकने पत्थरों को हमसे? आज इनको, तो कभी हमको भी इनकी तरह ही अलग कर सकते हो?’’ शिल्पी भी इन पत्थरों को झेलते-झेलते बुरी तरह से खिन्न हो चुका था। उसे भी इसी मौके की तलाश थी कि वह भी कुछ बोल सके, अपने अन्दर छिपी उन बातों को बता दे, जिनको कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की। वह दृढ़ता से बोला “हाँ, आवश्यक होने पर मैं किसी को भी अलग कर सकता हूँ।’’ और चिकने पत्थरों से पूछ बैठा, ‘‘तुम लोग बताओ, मैंने तुम लोगों को बचाने का हर सम्भव प्रयास क्या नहीं किया? सोचो, तुम लोगों ने ऐसा क्या किया कि मैं ही, जो तुम को इतनी मुश्किल से तलाश कर लाया था, आज अलग कर रहा हूँ। तुम लोगों ने मेरे हाथों-पैरों पर चोटें की, मैं तुम्हें क्षमा करता रहा। मगर अब तो तुम मेरी भावनाओं पर भी आघात करने लगे हो। तुम लोगों ने कभी मेरे दर्द को अपना दर्द समझा ही नहीं। तो फिर मैं क्यों तुम्हारे दर्द से कराहूँ? मेरे अपने दर्द क्या तुम्हारे दर्द से कम हैं?’’ और शिल्पी इन पत्थरों के बीच से हट जाता है। पत्थर आपस में फुसफुसाते हैं। कुछ शिल्पी की बातों से सन्तुष्ट हैं, तो कुछ असन्तुष्ट।
शिल्पी रात भर रोता रहा, बिलखता रहा। मगर उसकी सिसकियों को सुनने वाला भी कोई नहीं था। उस दिन शिल्पी को लगा कि मैं बेकार ही इन पत्थरों कोे गढ़ता हूँ। ये मेरे किसी काम आने वाले नहीं। अब इन पत्थरों को छोड़ कर शिल्पी कहीं और चला जाना चाहता था। मगर जाता भी तो कहाँ? इन पत्थरों के अलावा उसका था ही कौन? उसे लगा वह हार गया है। मगर कुछ नये और नन्हे पत्थरों की चमक ने उसे फिर आर्कषित किया। आँखों में आँसू और होठों पर नकली मुस्कान लिये जाते-जाते वह फिर से वापस लौट कर आ गया और दूने उत्साह से फिर से मूर्तियों को गढ़ना शुरू कर दिया। शिल्पी के हाथ लगी बार-बार की असफलता ने उसके प्रहार तीखे बना दिये थे। उसके हथौड़े और छेनी की आवाज़ की गूँज दूर-दूर तक जाती। दूर-दूर तक लोग उसे जानने-पहचानने लगे थे। लोग उसकी दीवानगी की चर्चा करते, उसके प्रति हमदर्दी जताते, उसकी सराहना करते, उसे आश्वासन देते, उसकी मदद करते। अभी भी शिल्पी उन पत्थरों को बहुत प्यार करता था।
 
शिल्पी अपने अतीतजीवी पत्थरों के मोह को, आलसी पत्थरों की लापरवाही को, यथास्थितिवादी पत्थरों की जड़ता को और बिना हाथ-पैर हिलाये खाली खयाली पुलाव पकाते रहने वाले निकम्मे पत्थरों की अव्यावहारिकता को तोड़ना चाहता था। मगर पत्थर परिवर्तन की कल्पना तक नहीं करना चाहते थे। इसी बात को लेकर शिल्पी और शिलाओं के मध्य द्वन्द्व हुआ। शिल्पी ने तो अपनी सारी ऊर्जा इन्हीं मूर्तियों को दे दी।
परिणामस्वरूप द्वन्द्व में शिल्पी हार गया। उसकी अंगुलियों के नीचे रहने वाले पत्थरों ने उसे नीचे पटक दिया और उसके सीने पर सवार हो गये। वे उसके अंग-अंग को कुचलने लगे। शिल्पी को पता ही नहीं चला कि इस द्वन्द्व में उसकी छेनी और हथौड़ी कहाँ जाकर गिर गयी। मूर्तियों के गढ़ने का काम ठप हो गया। मूर्तियों को गढ़ने से निकलने वाली आवाज़ बन्द हो गयी। 
लोगों को उसकी ठक-ठक सुनने की आदत लग चुकी थी। लोग इस आवाज़ के बन्द होते ही बेचैन हो उठे। वे जानना चाहते थे कि आज शिल्पी कर क्या रहा है। धीरे-धीरे कर के ढेर सारे लोग शिल्पी के पास यह देखने आ पहुँचे कि आवाज़ बन्द क्यों हो गयी है? शिल्पी अगर चाहता, तो चिल्ला भी सकता था क्योंकि उसकी आवाज़ में भी जादू था। मगर चिल्लाता भी तो किस मुँह से? वह तो शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। कहीं कोई उससे पूछ न दे कि इन्हें ही पूजने की तो बात करते थे न तुम! जो खुद को अस्तित्व देने वाले का ही अस्तित्व मिटाने में भिड़ गये हैं, उनको कौन पूजेगा भला? शिल्पी ने अपने स्तर पर छिपाने की बहुत कोशिश की। मगर सच्चाई तो ज़्यादा दिन तक नहीं छिपती है। एक न एक दिन सामने आ ही जाती है। शिल्पी की आँखें छलछला आयीं, सिसकियों के बीच से एक टूटी हुई आवाज़ आयी, ‘‘मैं हार गया! मुझे बचा लो! मैं कुचला जा रहा हूँ! दर्द तो मैंने बहुत सहे, मगर यह दर्द मुझसे नहीं सहा जाता। देखो न, मेरे ही हाथों से बनी मूर्तियाँ कितनी बेरहमी से मुझे कुचल रही हैं!’’
आज वह शिल्पी हार गया था, जिसे लोग जीत का पर्याय समझते थे। आज वह शिल्पी सिसक रहा था, जिसके शब्दकोष में आँसू नाम का कोई शब्द ही नहीं था। आज वह शिल्पी मदद माँग रहा था, जो खुद सब का मददगार था। इसे ही कहते हैं - वक्त का तकाज़ा। शिल्पी की दास्तान सुनने के बाद लोगों की आँखांे में आँसू आ गये। बेशर्म पत्थरों को तो आनन्द आ रहा था। वे और ताकत लगाकर शिल्पी को ज़ोर-ज़ोर से दबाने लगे। मगर उसकी चीखें उभरती गयीं। उसकी ज़ादुई आवाज़ ने लोगों को भीतर तक झकझोर दिया। लोगांे के पैर आगे बढ़े, हाथ नीचे झुके एक-एक पत्थर को उठाकर फेंकने के लिये। मगर यह क्या? खुश होने के बजाय शिल्पी और भी तेज़-तेज़ सिसकने लगा। लोगों के हाथ थम गये। शिल्पी बोला, ‘‘इन्हें क्यों हटाते हो? इन्हें हटा दोगे, तो मेरी पथरीली दुनिया का क्या होगा? मेरी साधना का क्या होगा, उन पन्द्रह सालों का क्या होगा, जो मैंने इनके साथ गुजारे हैं?’’ पत्थरों के साथ शिल्पी के इस लगाव को देख कर लोग झल्ला गये और पूछ बैठे, ‘‘फिर तुम्हारी कैसे करें मदद ?’’ शिल्पी ने लोगों को बताया, ‘‘मैं इन पत्थरों को बड़ी मेहनत से खोज कर लाया हूँ, मैंने इन्हें मूर्तियों का रूप देने में उतना ही दर्द सहा है, जितना माँ अपने बच्चे को जन्म देने में सहती है। क्या माँ अपने जीते जी अपने शरीर से अपने बच्चे को अलग करती है?’’ लोग चुप थे, दुखी थे, असमंजस में पड़े सोच रहे थे। मगर दिल में शिल्पी की मदद की तमन्ना लिये वे अपने कदमों को पीछे हटाने को मजबूर थे।
लोगों को हार कर लौटते देख पत्थर खुश हो गये। लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिसे दबाने में वे अपना कल्याण समझते हैं, वह अपने ध्वन्स से भी उठ खड़ा होगा। अपने पत्थरों को अभी भी अपने पास देखकर शिल्पी भी खुश था। मगर अपने कुचले जा रहे अंगो को देखकर वह सिसक रहा था। अपने प्रति शिल्पी के इस स्नेह को देखकर कुछ भावुक शिलायें सन्न रह गयीं। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें? कुछ मूर्तियों की भी आँखों में आँसू आ गये। शिल्पी के मन में भी उनके प्रति करुणा उमड़ आयी। शिल्पी को लगा कि सुबह के भूले शाम को वापस आ गये हैं।

 मगर अफसोस! अब वह चाहकर भी उन पत्थरों के लिये कुछ भी नहीं कर सकता था क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी। शिल्पी के लिये तो शाम अब रात बन चुकी थी। अब शिल्पी के पास वक्त नहीं था। फिर भी शिल्पी के दिल की बात उसकी जुबान पर आ ही गयी। शिल्पी फिर बोला, ‘‘यह मत समझना कि मैं तुम लोगों की तरह मक्कार हूँ। मैं अभी भी तुमको गढ़ने को तैयार हूँ। मगर गढ़ूँ, तो कैसे गढ़ँू? मेरे अंग-अंग कुचल गये हैं। कम से कम तुम लोग तो मुझे पहिचानते ही हो! मैं अब शिलाओं को गढ़ने वाला कलाकार नहीं रहा, महज शिलाओं तले सिसकता हुआ शिल्पकार हूँ।    


Sunday 26 August 2012

मेरी कलम से - गिरिजेश



"ए.बी. बर्धन जैसे ईमानदार कम्युनिस्ट नेता जब आउटलुक के साथ साक्षात्कार में कहते हैं कि मार्क्सवाद बहुत कठिन है, इसलिये दलितों को समझ में नहीं आता, तो फिर कहना पड़ेगा कि भारत के परिप्रेक्ष्य में कम्युनिस्ट पार्टी की आम समझ पर नये सिरे से चिंतन और उस पर अमल की बेहद ज़रूरत है." - उज्ज्वल भट्टाचार्य

मित्रो, मैं एक बहुत ही छोटा कार्यकर्ता हूँ. छोटी जगह में रहता हूँ. कम पढ़ा-लिखा हूँ. मैं भी मानता हूँ कि 
मार्क्सवाद की किताबें, खासकर लेनिन की किताबें (हिन्दी अनुवाद) कठिन भाषा में लिखे गये हैं. मैंने कुछ कोशिश किया है सरलीकरण और संक्षेपीकरण की. किशोरों और तरुणों के बीच कुछ अध्ययन-चक्र और परिचर्चा चलाने की भी कोशिश की है. राहुल और भगत सिंह के ही लेख अभी नौजवानों को समझने में दिक्कत हो रही है. उनको शब्दों और सीधे-सीधे वाक्य के मतलब का बोध कराने के लिये रुक रुक कर समझाना पड़ता है. एक पैराग्राफ पढकर उसका अर्थ बताने में उन नौजवानों को भी दिक्कत आती है, जो कई-कई वर्ष से आंदोलनकर्मी क्रान्तिकारी लोगों के सम्पर्क में रहे हैं. राहुल के लेखन का देश-काल-सन्दर्भ सब बदल चुका है. शिव वर्मा की परिचयमाला और सव्यसाची की पुस्तिकाओं के सन्दर्भ पुराने पड़ चुके हैं. नये दौर के लिये नये सिरे से लिखे जाने की ज़रूरत है. इस दिशा में प्रो. लाल बहादुर वर्मा और अशोक कुमार पाण्डेय जैसे बहुत से समझदार लोगों ने बहुत काम भी किया है. मगर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. रोज-रोज विकसित होने वाले घटनाक्रम पर भी प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत ही कम और आधी-अधूरी जानकारी ही दे पाता है. मेरा तो विकसित साथियों से निवेदन है कि अगर उनके द्वारा थोड़ी मेहनत की जाये और किसी भी मामले पर पूरी जानकारी और थोड़ा कायदे का विश्लेषण दे दिया जाये, तो मुझ जैसे कार्यकर्ताओं और गाँवों में पड़े हमारे सम्पर्क के नौजवानों को, जिन तक लेखों के फोटोस्टेट कर के पहुँचाने की कोशिश जारी है, किसी भी मामले पर अपनी समझ बनाने में भारी मदद मिल जायेगी. मार्क्सवाद के शास्त्रीय ग्रंथो को भी संक्षिप्त कर के मूल प्रस्थापनाओं को समेटते हुए छोटे पर्चे लिखे जाने चाहिये. मूल ग्रन्थ जिसे पढ़ना हो, पढ़ता रहे. मगर सामान्य समझ बनाने भर को संक्षिप्त सामग्री अलग से सरल भाषा में तैयार करनी ही होगी. इस कार्यभार से हमारे लेखक साथी मुँह नहीं चुरा सकते. और बिना इसके किये अगली पीढ़ी को क्रान्तिकारी चेतना से लैस नहीं किया जा सकेगा. आशा है मेरे निवेदन को अन्यथा नहीं लेंगे और इस पर ध्यान देकर कुछ ऐसा लिखना शुरू कर देंगे,जो इस चुनौती का उत्तर होगा.
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और अब बम्बई में भी फिर से एक बार धर्मान्धता की वही नफरत, वही आग, वही दंगाई मानसिकता का पागलपन! क्यों आदमी खुद को केवल इन्सान कह कर संतुष्ट नहीं रह पा रहा? क्यों वह मुसलमान या हिन्दू बन कर या बनाया जा कर बार-बार नफरत के ज़हर के असर में पागल हो कर इन्सानियत पर ही वार कर बैठता है? कितना आसान है किसी को बरगला कर उससे विध्वंस करवाना और कितना मुश्किल है उसी को उसकी खुद की रोजमर्रा की जिन्दगी के कड़वे सच क
ा साक्षात्कार करवाना! आइये मित्रो, नफरत की जगह प्यार का सन्देश फैलायें और नफरत फैलाने वाले पोस्ट्स को लाइक या शेयर करने से बचें. केवल ऐसी ही हर सकारात्मक प्रतिक्रिया से हम इस ज़हर का इलाज कर सकेंगे. वरना यह ज़हर देश के पूरे शरीर में एक बार फिर फैलता चला जायेगा और हर पिछली बार की तरह इस बार भी न जाने कितने मासूमों की बलि लेकर इसकी दानवी भूख तृप्त हो सकेगी - यह कहना मुश्किल है.
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क्या आजमगढ़ आतंकवाद की नर्सरी है! नहीं, कदापि नहीं.
जिन लोगों ने आज़मगढ़ को आतंकगढ़ कह कर बदनाम किया, उनको करारा जवाब देने का वक्त यही है. पिछले दिनों जब देश और प्रदेश के अलग-अलग शहरों में दंगाई मुस्लिम साम्प्रदायिकता का ताण्डव कर रहे थे, तो लोगों की नज़र आज़मगढ़ पर लगी थी. मगर मुझे अपने आज़मगढ़िया होने पर गर्व है और मैं आज़मगढ़ के लोगों को उनकी सूझ-बूझ के लिये बधाई देना चाहता हूँ कि यहाँ शान्ति और सौहार्द ब
नाये रखने में सबने मिलजुल कर समझदारी दिखायी. कामना करता हूँ कि यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब इसी तरह बरकरार रहे. बताते हैं कि इस शहर की स्थापना शाहजहां के शासनकाल के दौरान 1665 ई. में विक्रमजीत के पुत्र आजम खान ने, जो एक शक्तिशाली जमींदार थे, की थी. आजम खान के नाम पर ही इसका नाम आजमगढ़ पड़ा. तमसा नदी के तट पर स्थित आजमगढ़ देवल, दत्तात्रेय और दुर्वासा जैसे अनेक ऋषियों-मुनियों की साधना-स्थली है. प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के वीर कुंवर सिंह के विजय अभियान से लेकर सन बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन तक स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसकी महत्वपूर्ण भागीदारी थी. इसकी माटी से राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिऔध', मौलाना शिबली नोमानी और कैफी आज़मी जैसे दिग्गज साहित्यकारों के नाम जुड़े हैं. आजमगढ़ का परिचय अकबाल सुहेल के इस शेर से दिया जाता रहा है -
"यह खित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ;
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है."
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मित्र, जन लोकपाल आन्दोलन भारत के इतिहास के बड़े जन-उभारों की श्रृंखला का अंतिम हिस्सा तो है, मगर यह कत्तई क्रान्तिकारी जन-उभार नहीं है. इसके उलट यह आन्दोलन क्रान्ति न होने पाये और यही व्यवस्था और बेहतर तरीके से चलती रहे और इस जनविरोधी व्यवस्था द्वारा जन सामान्य का शोषण, उत्पीडन और अन्याय बदस्तूर होता रहे - इसको सुनिश्चित करने का प्रयास है. यह केवल साफ़-सुथरे धन-तन्त्र के लिये प्रयास तो है, मगर धन-तन
्त्र को असली जन-तन्त्र में बदलने का प्रयास नहीं है. फिर भी कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है ही. इस तौर पर ही इसके बारे में बिना किसी भ्रम के मैं इस आन्दोलन के साथ हूँ. जनलोकपाल और क्रान्ति का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है. जन-लोकपाल इसी तन्त्र के भीतर एक सरकारी अधिकारी और उसका लम्बा चौड़ा विभाग होगा. बस और कुछ नहीं. और क्रान्ति क्रान्तिकारी जनचेतना के विस्तार से सम्भव होती है.--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

प्रिय मित्र, नाथू राम गोडसे ने तो केवल गाँधी के शरीर की हत्या की थी. मगर इस बार तो गान्धीवाद का ही वध कर दिया गया है. अब अगर सार-संकलन कर लिया गया, तो अनशन की राजनीति पर पूर्णविराम लग जाना चाहिये. एक बार फिर से साबित हो गया है कि विचारधारा के स्तर पर गांधीवाद की वर्गसहयोग पर आधारित हृदय-परिवर्तन की विचारधारा शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जन-दिशा पर आधारित क्रान्तिकारी विचारधारा के सामने परास्त हो चुकी है
. अब तो केवल क्रान्तिकारी विचारधारा का जन-सामान्य के बीच प्रचार-प्रसार करने का, उनकी मासूमियत से भरी परम्परागत सोच-समझ और अन्ध-विश्वास से भरे उनके दिन-प्रतिदिन के आचरण को बदलने की कोशिशों का, उनको एकजुट करके उनके लिये वैचारिक अध्ययन-चक्रों की श्रृंखलाएं चला कर उनके वैचारिक क्षितिज को और भी विस्तृत करने का और उनके साथ विचारधारात्मक धरातल के डिबेट में उनको धैर्य के साथ सहमति तक पहुँचा कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का और इस तरह जन-जागरण करके जन-संगठन बनाने का, धीरे-धीरे कर के ही सही जन-आन्दोलन और फिर अंततः जन-संघर्ष खड़ा करने का काम ही व्यवस्था-परिवर्तन का एक मात्र सही रास्ता है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
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इतिहास गवाह है कि घायल शेर और अपमानित योद्धा कितना खतरनाक हो जाता है. वीरता अपने शत्रु को भी रणभूमि में शहीद होते या परास्त होते देख कर उपहास करने में नहीं, उसे सैलूट करने में है. अन्ना आन्दोलन के पहले तिरंगे कन्धों पर रखे नौजवान सडकों पर न
हीं दिखाई देते थे. याद रखना होगा किसी छोटी-सी पीछे हटने की घटना के सहारे युद्ध का मूल्यांकन नहीं होता. अन्ना ने बैटिल हारा है. वार नहीं. अभी लड़ाई बाकी है. 'सर्दियाँ तुम्हारी हैं, वसंत हमारा होगा." पोलैंड की क्रान्ति का लेख वालेसा का नारा बहुत कुछ कहता है. मित्रो, हौसला रखो, तैयारी करते रहो, कौन जानता है कि हमले की घड़ी कब और किस रूप में आ जायगी.
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प्रिय मित्र, अनशन समाप्त करने, आन्दोलन वापस लेने और राजनीतिक विकल्प देने के प्रश्न पर विचार करने की अन्ना की आज की घोषणा के बाद से अन्ना आन्दोलन का मज़ाक उड़ाने वाले मित्रों से मेरा अनुरोध है कि इतिहास के मूल्यांकन में बच्चों की तरह इतनी जल्दीबाज़ी न करें. 
हर आन्दोलन में उतार-चढ़ाव के तरह-तरह के दौर बार-बार आते ही हैं. जन-ज्वार के समय नेतृत्व की प्रशंसा के पुल बांधने वाले कमज़ोर समर्थक और व्यक्तिपरक च
र्चा करने वाले हलके आलोचक भीड़ के घटते ही और आन्दोलन के पीछे हटने पर उपहास करने तक जा पहुँचते हैं. मेरी समझ से यह नितान्त अनुचित और अशोभनीय है.
"एक कदम आगे, दो कदम पीछे" का नारा देने वाले महान क्रान्तिकारी लेनिन भी इससे कम बुरी परिस्थितियों से नहीं जूझे थे.
यह आन्दोलन है, आप उसके नेतृत्व के विचारों से अपनी असहमति व्यक्त करें. वैचारिक संघर्ष चलायें. उसकी कार्यप्रणाली से मतभेद व्यक्त करें. मगर उपहास तो कदापि न करें.
इतिहास का अन्त नहीं होता. जो भी मित्र हताश होकर यह सोचने लगे हैं कि अब कोई आन्दोलन नहीं होने वाला, उनके लिये भी विचार करने का अधिक महत्वपूर्ण विषय यह है कि कोई भी आन्दोलन होता ही क्यों है. क्योंकि जन-समस्याओं का समाधान दे पाना जनविरोधी तन्त्र के बूते की बात है ही नहीं. और जन-असंतोष ही परिवर्तन की आकांक्षा को आन्दोलन में रूपायित करता है. तो अगर जनाक्रोश समाप्त नहीं हुआ है, उसे संतोषजनक समाधान नहीं मिला है, तो यह स्पष्ट तौर पर इंगित कर रहा है कि देश में अगले जन-आन्दोलन का भविष्य पर्याप्त उज्जवल है.
निराशा का कोई आधार है ही नहीं. अपितु और भी प्रबल संकल्प के साथ अगली लड़ाई की तैयारी में लगने की आवश्यकता है. मेरा निवेदन है कि आन्दोलन से जुड़े सभी जनसंगठनों के हर स्तर के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को नये साथियों को जोडने और पुराने साथियों को वैचारिक तौर पर अधिक सक्षम बनाने के अभियान में जुट जाना होगा. अपने अपने स्तर पर तरह तरह के प्रयोग आरम्भ कर के और भी सघन जनसमर्थन जुटाने का मन बना कर और भी सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने के लिये कटिबद्ध हो जाना होगा. व्यवस्था के आमूल परिवर्तन के बिना किसी भी समस्या का समाधान असंभव है. और व्यवस्था बिना क्रान्ति के नहीं बदलने वाली है. शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के सपनों की शोषणमुक्त समाजव्यवस्था की रचना करना ही अब राष्ट्र के नौजवानों का अगला सामाजिक कार्यभार है. और आने वाला कल इसका साक्षी होने जा रहा है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
भ्रष्टाचार मुर्दाबाद!!
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आज की दुनिया पर अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है. मैं एक छोटी जगह में पिछड़े लोगों के बीच रहता हूँ. यहाँ से नौजवान जब भी बाहर महानगरों में पढ़ने जाते हैं, तो उनके सामने आने वाले संकटों में से भाषा का भी भीषण संकट होता है. अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों के छात्र और हिन्दी माध्यम विद्यालयों के छात्रों के स्तर में अन्तर होता है. उनकी किताबें, फीस, तौर-तरीके, पृष्ठभूमि - सब अलग-अलग हैं. मुझे महान माओ की यह उक्ति समझ में आती है - "खुद को जानो और अपने दुश्मन को भी जानो!" अंग्रेज़ी शासक वर्ग की भाषा है. बिना शत्रु की भाषा जाने हम कैसे उसके बारे में जान सकते हैं? हमारे देश में अभी भी अंग्रेज़ी उच्चशिक्षा की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम उच्चशिक्षा प्राप्त कर सकते हैं? अंग्रेज़ी सम्पर्क की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम अपने ही देश के दूसरे प्रान्तों के लोगों से सम्वाद कर सकते है? मेरे दक्षिण भारतीय और विदेशी मित्र अक्सर कहते हैं कि आपका लिखा हम कैसे पढ़ें? मुझे उनको समझाना पड़ता है कि गूगल के सहारे ट्रांसलेट कर लीजिए. खुद मुझे हिन्दी में ही अधिकांशतः लिखना पड़ता है, क्योंकि मेरे इलाके के अधिकतर लोग केवल हिन्दी ही अच्छी तरह से पढ़-समझ सकते हैं. मैं हिन्दी-भाषी होने में गर्व महसूस करता हूँ. मगर अंग्रेज़ी की जानकारी आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि आज की दुनिया में अंग्रेजीदां लोगों से टक्कर लेकर अपने लिये बेहतर जगह बनाने में अंग्रेज़ी की जानकारी आजमगढ़ के नौजवानों के लिये सहायक है. अपने देश में आज भाषा के ज्ञान का ही संकट है. नयी पीढ़ी को हिन्दी भी कायदे से नहीं सिखाई जा रही है. एक अलग ही तरह की पौध उगायी जा रही है, जिसे न तो हिन्दी आती है और न ही अंग्रेज़ी. बच्चे हिंग्लिश बोलते हैं. तीन आइसक्रीम नहीं समझते, थ्री आइसक्रीम समझते हैं. पहाड़ा नहीं जानते, टेबल जानते हैं. हिन्दी की गिनती - उनचास, उनहत्तर - नहीं समझते, अंग्रेज़ी में बताना पड़ता है. गुलामी का आलम यह है कि गाँव गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के नाम पर खुली शिक्षा बेचने वाली छोटी बड़ी दूकानों में धड़ल्ले से चाल्क, टाल्क पढ़ाया जा रहा है. ऐसे में व्यक्तित्व विकास प्रोजेक्ट के कामो में एक महत्वपूर्ण काम नौजवानों को अंग्रेज़ी की जानकारी देना भी है. उनको हिन्दी भी सिखाना ही पड़ता है. हम सब के सामने भाषा की चुनौती एक कठिन चुनौती है.
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मैं गाँधीवाद का विरोधी हूँ. मगर मैं खुले तौर पर स्वीकारता हूँ कि गाँधी युगपुरुष थे. व्यक्ति और विचारधारा के तौर पर अपनी सीमाओं के बावज़ूद गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में जो झेला और किया, उसने उनके व्यक्तित्व को वह धार दिया कि १९१६ में भारत वापस आने के बाद उन्होंने तिलक के गरम दल और गोखले के नरम दल दोनों को पी कर पचा लिया और फिर भारतीय इतिहास में गाँधी युग का आरम्भ हुआ. शेष धाराओं ने अपनी भूमिका का निर्
वाह किया तो, मगर भारतीय पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी ने ही स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया. स्वतन्त्र भारत के पूँजीवादी विकास को गांधीवाद की ज़रूरत नहीं थी. उसने नेहरू के सपनों के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास किया. देश की सत्ता के द्वारा पूँजीवादी जनतन्त्र की स्थापना और विकास किया गया और पंचशील और पंचवर्षीय योजनाओं का दौर आरम्भ हुआ. साठ के दशक को नेहरू का दशक कहा गया. नेहरू और टीटो ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ज़मीन दे कर साम्राज्यवाद के सामने एक अवरोध खड़ा करने की कोशिश की. इतिहास का मूल्यांकन तथ्यों की रौशनी में करने से हम चूक से बच सकते हैं. वहाँ हमारी सदिच्छाओं की कोई जगह नहीं होती.
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जीवन-संघर्ष में जूझ रहे नौजवानों द्वारा अपने समय का सही तरीके से प्रबंधन कर ले जाना और मिले हुए अवसर पर चूक न जाना गलाकाटू प्रतियोगिता के आज के भीषण दौर में सफलता के लिये मूल मन्त्र है. राष्ट्र कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहा है. सत्ता देश के संसाधनों को बेशर्मी के साथ देशी-विदेशी थैलीशाहों को बेच रही है. विद्वेष के ज़हर से जन की एकता को विखण्डित करने का कुचक्र साम्प्रदायिकतावादी शक्तियों द्वारा चलाया जा रहा है, जो फ़ासिज़्म के बढ़ते खतरे की ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है. ऐसे में यक्ष-प्रश्न है - "कौन बचायेगा देश?" और एक मात्र उत्तर है - "केवल समर्थ और समर्पित नौजवान!"
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प्रिय मित्र, आज़ाद की शहादत का दिन और उनसे नेहरू की मुलाकात का दिन एक ही बताने वाले और आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क जाने की सूचना पुलिस तक पहुँचाने का नेहरू पर आरोप लगा कर नेहरू को पुलिस का मुखबिर बताने वाले लोगों के षड्यंत्र की सच्चाई की जानकारी आप सब को देने के लिये पेश है यशपाल द्वारा लिखित सिंहावलोकन के पृष्ठ 392 से 402 तक. इसे अवश्य देखने का कष्ट करें. 
इस आरोप को इन लिंक्स पर देखिये.

कहता है उसी तारीख को मिले थे (See the second Paragraph)
"Chandra Shekhar Azad met Pandit Nehru on 27 February 1931 early morning and asked help to stop capital punishment of these three Krantikari(Bhagat Singh,Rajguru and Shukhdev). Pandit Nehru did not agree with him on some points and told him to leave immediately.So,Azad had to return back with an empty hand.
On the same day, Azad went to the Alfred Park . He sat under a
tree of Jamun.... "
Chandra Shekhar Azad - Wikipedia, the free encyclopedia
अब यह लिंक देखिये -
Thalua Club - "चंद्रशेखर आज़ाद की मौत से जुडी फ़ाइल आज भी लखनऊ के सीआइडी ऑफिस १- गोखले मार्ग मे रखी है .. उस फ़ाइल को नेहरु ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया .. इतना ही नही नेहरु ने यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को उस फ़ाइल को नष्ट करने का आदेश दिया था .. लेकिन चूँकि पन्त जी खुद एक महान क्रांतिकारी रहे थे इसलिए उन्होंने नेहरु को झूठी सुचना दी की उस फ़ाइल को नष्ट कर दिया गया है ..

उस फ़ाइल मे इलाहब...ाद के तत्कालीन पुलिस सुपरिटेंडेंट मिस्टर नॉट वावर के बयान दर्ज है जिसने अगुवाई मे ही पुलिस ने अल्फ्रेड पार्क मे बैठे आजाद को घेर लिया था और एक भीषण गोलीबारी के बाद आज़ाद शहीद हुए |...नॉट वावर ने अपने बयान मे कहा है कि " मै खाना खा रहा था तभी नेहरु का एक संदेशवाहक आया उसने कहा कि नेहरु जी ने एक संदेश दिया है कि आपका शिकार अल्फ्रेड पार्क मे है और तीन बजे तक रहेगा .. मै कुछ समझा नही फिर मैं तुरंत आनंद भवन भागा और नेहरु ने बताया कि अभी आज़ाद अपने साथियो के साथ आया था वो रूस भागने के लिए बारह सौ रूपये मांग रहा था मैंने उसे अल्फ्रेड पार्क मे बैठने को कहा है "

फिर मै बिना देरी किये पुलिस बल लेकर अल्फ्रेड पार्क को चारो ओर घेर लिया और आजाद को आत्मसमर्पण करने को कहा लेकिन उसने अपना माउजर निकालकर हमारे एक इंस्पेक्टर को मार दिया फिर मैंने भी गोली चलाने का हुकम दिया .. पांच गोली से आजाद ने हमारे पांच लोगो को मारा फिर छठी गोली अपने कनपटी पर मार दी |"

27 फरवरी 1931, सुबह आजाद नेहरु से आनंद भवन में उनसे भगत सिंह की फांसी की सजा को उम्र केद में बदलवाने के लिए मिलने गये, क्यों की वायसराय लार्ड इरविन से नेहरु के अच्छे ''सम्बन्ध'' थे, पर नेहरु ने आजाद की बात नही मानी,दोनों में आपस में तीखी बहस हुयी, और नेहरु ने तुरंत आजाद को आनंद भवन से निकल जाने को कहा । आनंद भवन से निकल कर आजाद सीधे अपनी साइकिल से अल्फ्रेड पार्क गये । इसी पार्क में नाट बाबर के साथ मुठभेड़ में वो शहीद हुए थे ।अब आप अंदाजा लगा लीजिये की उनकी मुखबरी किसने की ? आजाद के लाहोर में होने की जानकारी सिर्फ नेहरु को थी । अंग्रेजो को उनके बारे में जानकारी किसने दी ? जिसे अंग्रेज शासन इतने सालो तक पकड़ नही सका,तलाश नही सका था, उसे अंग्रेजो ने 40 मिनट में तलाश कर, अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया । वो भी पूरी पुलिस फ़ोर्स और तेयारी के साथ ?

आज़ाद पहले कानपूर गणेश शंकर विद्यार्थी जी के पास गए फिर वहाँ तय हुआ की स्टालिन की मदद ली जाये क्योकि स्टालिन ने खुद ही आजाद को रूस बुलाया था . सभी साथियो को रूस जाने के लिए बारह सौ रूपये की जरूरत थी .जो उनके पास नही था इसलिए आजाद ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नेहरु से पैसे माँगा जाये .लेकिन इस प्रस्ताव का सभी ने विरोध किया और कहा कि नेहरु तो अंग्रेजो का दलाल है लेकिन आजाद ने कहा कुछ भी हो आखिर उसके सीने मे भी तो एक भारतीय दिल है वो मना नही करेगा |

फिर आज़ाद अकेले ही कानपूर से इलाहबाद रवाना हो गए और आनंद भवन गए उनको सामने देखकर नेहरु चौक उठा | आजाद ने उसे बताया कि हम सब स्टालिन के पास रूस जाना चाहते है क्योकि उन्होंने हमे बुलाया है और मदद करने का प्रस्ताव भेजा है .पहले तो नेहरु काफी गुस्सा हुआ फिर तुरंत ही मान गया और कहा कि तुम अल्फ्रेड पार्क बैठो मेरा आदमी तीन बजे तुम्हे वहाँ ही पैसे दे देगा |"

और अब मेरे ब्लॉग http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/10/blog-post_13.html में यह देखिये - "इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से आज़ाद की मुलाकात हुई थी और जब उन्होंने फ़ासिस्ट कहा, तो आज़ाद बहुत क्षुब्ध हुए। नेहरू ने उनके पास पन्द्रह सौ रुपये भेजे थे, ताकि उनके साथी रूस जा सकें। मृत्यु के बाद इन्हीं रुपयों में से पाँच सौ आज़ाद की ज़ेब में पड़े मिले। 27 फरवरी, 1931 की सुबह लगभग साढ़े आठ बजे आज़ाद ने दो साथियों यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डेय से कहा, ‘‘मुझे ऐल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलना है। साथ ही चलते हैं। तुम लोग आगे निकल जाना।’’ तीनों साइकिल से चले। पार्क में सुखदेवराज (सुखदेव और राजगुरु नहीं) साइकिल से जाते दिखे। यशपाल समझ गये कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना था। राज के अनुसार वह आज़ाद के साथ पार्क में एक इमली के पेड़ के पास बैठ कर बातें कर रहे थे। तभी आज़ाद ने पार्क के बाहर सड़क की ओर संकेत किया - ‘‘जान पड़ता है वीरभद्र तिवारी जा रहा है। उसने हम लोगों को देखा तो नहीं।’’ इसी आधार पर वीरभद्र तिवारी पर ग़द्दारी का आरोप लगाया गया। यशपाल के अनुसार सी.आई.डी. के डी.एस.पी. विश्वेश्वर सिंह ने पार्क से गुज़रते हुए आज़ाद को देखा और अपने साथ चल रहे कोर्ट इन्स्पेक्टर डालचन्द से कहा, ‘‘वह आदमी आज़ाद जैसा लगता है। उस पर नज़र रखो, हम अभी लौटते हैं।’’ और समीप ही सी.आई.डी. सुपरिण्टेण्डेण्ट नॉट बावर के बँगले पर आज़ाद के हुलिये से मिलते-जुलते आदमी की ख़बर दी। नॉट बावर ने पिस्तौल जेब में डाली, दो अर्दली साथ लिये और विश्वेश्वर सिंह के साथ ख़ुद अपनी कार चलाता सड़क पर पेड़ के समीप खड़ी कर दी।"
अब यशपाल के सिंहावलोकन से पढ़िए - "1931 के शुरू की बात कह रहा था. एक दिन आज़ाद ..... प. नेहरू से बात करने आनंद भवन गये.... आज़ाद एक बार मोतीलाल जी से मिल चुके थे...प.नेहरू ने आज़ाद से मुलाकात का अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है - (मेरी कहानी- नेहरू पृष्ठ 269)...आज़ाद ने नेहरू जी से मुलाकात के बाद जब इस घटना की बात हम लोगों को कटरे के मकान में सुनायी, तो उनके होंठ खिन्नता से फडक रहे थे और उन्होंने कहा था, "साला हमें फासिस्ट कहता है."....आज़ाद को इस बात का बहुत कलख था कि नेहरू जी ने उन्हें फासिस्ट कहा. उन्होंने कहा, "सोहन,(यशपाल) एक दिन तुम जाकर प. नेहरू से मिलो." मैंने प्रायः फरवरी के दूसरे-तीसरे सप्ताह में शिवमूर्ति जी से कह कर नेहरू जी से मिलने का समय तय किया और संध्या समय आनंद भवन गया.....मैंने... रूस जाने और ... आर्थिक सहायता का अनुरोध भी किया. ...मैंने अनुमान से पाँच-छः हज़ार की रकम बता दी. नेहरू जी ने कहा, "इतना तो बहुत है पर मैं जो कुछ हो सकेगा, करूँगा." लौटने के बाद मैंने बातचीत का ब्यौरा आज़ाद को बताया तो उन्हें काफी सन्तोष हुआ.....लगभग तीसरे दिन शिवमूर्ति जी ने मुझे पन्द्रह सौ रुपये देकर कहा कि शेष के लिये नेहरू जी प्रबन्ध कर रहे हैं....कटरे के मकान में लौट कर मैंने यह रूपया आज़ाद को सौंप देना चाह तो उन्होंने कहा, "तुम्हीं रखो." इस विचार से कि किसी दुर्घटना में सभी रुपया एक साथ न चला जाये, पाँच सौ उनकी जेब में डाल दिया. ...दूसरे दिन २७ फरवरी को सुरेन्द्र पाण्डेय और मैं स्वेटरों के लिये चौक जाने के लिये तैयार हुए तो आज़ाद ने कहा, "मुझे अल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलने जाना है. साथ ही चलते हैं. तुम लोग आगे निकल जाना." हम तीनो साईकिलों से अल्फ्रेड पार्क के सामने से जा रहे थे एक साइकिल पर सुखदेव राज पार्क में जाता दिखाई दिया. मैं समझ गया कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना है.... भैया पार्क में चले गये और पाण्डेय और मैं सीधे चौक की ओर."
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और अब यह नया शिगूफा! धन्य हैं चरित्रहनन की राजनीति करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और
Amar Ujala, Hindi daily in one of its report today mentioned Shiv Verma, Comrade of Bhagat Singh as 'Approver'(Sultani Gawah), it is shame ful, to say the least.Shiv Verma dedicated all his life to socialist movement in India and went through all kinds of deprivations, still he went to London in 1992-93, almost at the age of 90 years and worked for five weeks in British Library to collect material for writing on Bhagat Singh/revolutionary movement.My response to newsआपके संवाददाता ने शिव वर्मा जैसे महान क्रन्तिकारी और भगत सिंह के विश्वासपात्र को सुल्तानी गवाह बता कर तथ्यों के साथ खिलवाड़ और जन भावनाओं का अपमान किया है, इसके लिया अमर उजाला को औपचारिक रूप से खेद व्यक्त करना चाहिए