Monday 27 August 2012

-:कहानी:- शिलाओं तले सिसकता शिल्पी


                                     -:कहानी:-                            
शिलाओं तले सिसकता शिल्पी 
                                         - स्वाति उपाध्याय
एक था बच्चा। दुबला-पतला, एकदम मरियल, बहुत ही कमज़ोर - मौत के पास, ज़िन्दगी से दूर, भोजन से अधिक दवाएँ खाने को मज़बूर, रोग ने हड्डी-हड्डी चूस लिया था। जब खाँसता, तो लगता कि आँखें अभी निकल कर गिर जायेंगी। एक बार की खाँसी उसे घण्टों के लिए अधमरा कर देती। जब भी उसे बीमारी से थोड़ी-सी राहत मिलती, तो वह कभी धरती को देखता और कभी आसमान को। वह सोचता रहता, ‘‘क्या मैं किसी काबि़ल हो पाऊँगा, क्या मैं किसी के काम आ पाऊँगा?’’ वह खुद से प्रश्न करता, ‘‘क्या मैं ठीक हो कर आसमान में उड़ पाऊँगा या थक-हार कर धरती की गोद में सो जाऊँगा?’’ उसका मन कहता, ‘‘तू आसमान के काम आयेगा और उसका तन कहता, ‘‘जल्दी ही तू माँ की गोद में सो जायेगा।’’ ज्यों ही उसका मन उसे प्रभावित करता और उसका मुरझाया चेहरा थोड़ा-सा खिलता, त्यों ही उसे खाँसी आ जाती और उसकी सारी कल्पना उसके सीने के दर्द में मिलकर धूमिल हो जाती। बेचारा फिर बेहाल पड़ा सिसकता, भीतर ही भीतर जलता और अपने बेजान-से हो चुके हाथों-पैरों को देखकर पंख कटे पक्षी की तरह छटपटाता। वह मर-मर कर जीता और हार-हार कर सोचता। केवल सोच ही तो सकता था बेचारा। कुछ करने की उसमें ताकत ही कहाँ थी? यहाँ तक कि उसमें मरने की भी ताकत नहीं थी। वरना कब का मर गया होता।
दूसरी तरफ जब उसकी माँ अपने बेजान-से बच्चे को देखती तो सोचती, ‘‘इतना बेजान तो यह गर्भ में भी न था।’’ वह खुद से कहती, ‘‘अगर मुझे पता होता कि जन्म लेने के बाद मेरा बेटा ऐसा होगा, तो मैं नौ महीने क्या, नौ साल तक इसे गर्भ में ही ढोती रहती।’’ उसे लगता कि उसने अपने बेटे को दूध नहीं ज़हर पिलाया है, जो उसे घुट-घुट कर जीने को मज़बूर कर रहा है। माँ हो कर भी वह चाहती कि उसका बेटा हरदम खाँसता रहे, क्योंकि जब खाँसने की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती, तो उसे लगता कि मौत उसके बेटे को लेकर भाग रही है। उसे बचाने के लिये वह अपने आँचल से ढँक कर इतना कस कर पकड़ लेती कि मौत भी उससे छीनते-छीनते हार कर वापस चली जाये। उसका पिता जब माँ को पागलों की तरह आँचल पसारे फफक-फफक कर रोते देखता, तो जलती दोपहरी में नंगे पाँव डाॅक्टर के दवाखाने की ओर दौड़ पड़ता। डाॅक्टर को पहले से दी गयी दवाओं पर भले ही विश्वास रहता, मगर वह भी जानता था कि माँ की ममता उसे मरने नहीं देगी। माँ की ममता, पिता की कुर्बानी और डाॅक्टर की सेवा के भरोसे बच्चे को यह विश्वास होने लगा कि मौत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। धीरे-धीरे उसके बेजान हाथों और पैरों में जान आने लगी। सूखे होंठो पर मुस्कान आने लगी। 
अब उसे अपने सवालों का जवाब मिलने लगा था कि वह आसमान के काम आयेगा, वह पक्षियों की तरह क्षितिज के पार उड़ता जायेगा। बचपन से ही बीमार रहने के कारण उसका कोई दोस्त भी नहीं था। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा वह एकान्त-प्रेमी हो गया था। उसके एकान्त-प्रेमी होने का कारण थी तो उसकी बीमारी ही, क्योंकि बीमार आदमी से कोई भी दोस्ती नहीं करना चाहता। उस पर दया तो सभी दिखाते हैं, मगर उसका दर्द कोई नहीं बाँटना चाहता। अगर उसकी बीमार आँखें किसी को लगातार देख देती हैं, तो वह इंसान उसके पास तक नहीं जाना चाहता और जितना हो सके उससे दूर भागने की कोशिश करता है। इसलिए एकान्त में उसके साथी होते ऊपर सितारों भरा आसमान और नीचे धरती की गोद में सोये पड़े कुछ बेजुबान पत्थर और आसपास पड़ी कुछ किताबें। पत्थरों को वह गढ़ नहीं सकता था और किताबों को पढ़ नहीं सकता था। जब भी वह ऊपर देखता, दिल में क्षितिज को छू लेने की कशिश लिये बाज से गौरेया तक हवा में अपने पंख तोलते दिखाई देते। पक्षी उसे सचमुच बहुत प्यारे लगते, लेकिन उसे लगता कि पक्षी उसे चुनौती देते हैं, उससे पूछते हैं, ‘‘तुम भी हमारी तरह उड़ सकते हो क्या?’’ गौरेया उसके कानों के पास पंख फड़फड़ाती और फुर्र से उड़ जाती, कोयल कूक-कूक कर उसे अपने पास बुलाती और कौआ कँाव-काँव करके पूछता, ‘‘मेरे साथ उड़ोगे?’’ हवा में कलाबाज़ियाँ खाता बाज उसे ललकारता, ‘‘है दम मेरा मुकाबला करने का?’’ आस-पास पड़ी किताबों के पन्ने फड़फड़ाते और कहते, ‘‘हमको पढ़ो, तब जान पाओगे कि हममें क्या है।’’ 
बच्चा उदास हो जाता, बीमारी ने तो उसे स्कूल का मुँह देखने ही नहीं दिया था, तो फिर पढ़ता कैसे? बेटे को उदास देखकर पिता ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाया। अब वह हरदम किताबें पढ़ता रहता, पढ़ने से जब उसका जी ऊबता तो वह पत्थरों के साथ खेलता और आसमान को निहारता।  पत्थरों के साथ उसके लगाव को देख पिता ने उसके जन्मदिन पर उपहार में उसे एक सुन्दर हथौड़ी और छेनी दे दी। छेनी-हथौड़ी पाकर वह बहुत खुश था। एक दिन उसने बाज से पूछा, ‘‘तुम इतनी ऊँचाई तक कैसे उड़ते हो? मुझे भी बताओ न!’’ बाज बोला, ‘‘मेरे पास इतने सुन्दर पंख जो हैं।’’ बच्चा बोला, ‘‘मुझे दे दोगे अपने पंख?’’ बाज बोला, ‘‘तुम्हारे आस-पास भी तो इतने सारे पत्थर पड़े हैं, उनसे क्यों नहीं बना लेते अपने लिये पंख? अपना पंख कोई किसी को देता है क्या?’’ 
बाज की बात सुनकर उसे लगा कि बाज ने उसके मन की बात कह दी। बचपन से ही उसे पक्षियों और पत्थरों सेे लगाव तो था ही, बाज के जवाब में उसमें अपने लियेे पथरीले पंख गढ़ने की चाहत पैदा हुई। वह उन्हें अपने कन्धांे पर सजा कर हवा में तोलना चाहता था और पक्षियों की तरह उड़ कर क्षितिज छू लेना चाहता था। दौड़ता हुआ वह अपने घर के अन्दर गया और झट से अपनी छेनी और हथौड़ी निकाल लाया। आसमान में उड़ते पक्षियों के पंखों को देर तक निहारता रहा, उनकी बनावट को अपनी आँखों के अन्दर उतारता रहा। फिर पत्थरों से वैसे ही पंख गढ़ने लगा। उसने पत्थर के दो सुन्दर-सुन्दर पंख बनाये। उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि कभी बेजान रहने वाले हाथों ने आज इतने सुन्दर-सुन्दर पंख बना दिये। अब उसने बाज को ही नहीं, अपितु सूर्य को भी चुनौती दे दी। अपनी पीठ पर अपने पथरीले पंखो को बाँधा, अपनी मुँडे़र पर चढ़ा, आसमान को निहारा, एक गहरी साँस भरी और फिर छलाँग लगा दी। मगर यह क्या! वह तो धड़ाम से गिर पड़ा अपने ही आँगन में। पक्षी उसे देख कर ज़ोर-जा़ेर से हँस पड़े। वह धीरे-से उठ बैठा, चारों ओर निहारा, आस-पास कहीं कोई नहीं था। केवल आसमान में अठखेलियाँ करते चन्द गर्वीले पक्षी थे, जो उसकी असफलता पर अट्टहास कर रहे थे। आहत और अपमानित हो कर उसकी आँखें डबडबा आयीं, अपना सिर झुका कर वह गहरी सोच में डूब गया। 
अन्त में उसे समझ में आया कि और बेहतर पत्थरों की तलाश की जाये। सफलता तभी सम्भव हो पायेगी। और फिर अपने पथरीले पंखांे को सीने से लगाये बोझिल पाँवों से इन पत्थरों से बेहतर पत्थरों की खोज में वह चल पड़ा। पत्थरों के पंख गढ़ना तो उसने सीख ही लिया था, क्योंकि था तो वह भी शिल्पी ही। मगर इन पथरीले पंखों को पक्षियों के पंखों की तरह हल्का बनाना उसे नहीं आता था, इसलिये वह अनुभवी शिल्पियों से मिलना भी चाहता था। किसी से मिलने के लिये किसी को तो छोड़ना ही पड़ता है, कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना ही पड़ता है। शिल्पी को भी छोड़ना पड़ा अपनी माँ के उस आँचल को जिससे मौत भी हार गयी थी, पिता की उन बाँहो को जिनमें सो कर वह बचपन में झूला करता था। इन सब को खो कर वह शिल्पकला में दक्षता पाने चल पड़ा एक ऐसे संसार की ओर, जहाँ से पीछे लौटना उसके लिये असम्भव था, एक भावनाशून्य पथरीला संसार।
जिन-जिन उस्ताद शिल्पकारों से मिलने वह जाता, उसे देखते ही वे समझ जाते कि इसकी बनायी हुई मूर्तियाँ दुनिया के कोने-कोने में पूजी जायेंगी, सराही जायेंगी। वह एक से एक उस्ताद शिल्पकारों से मिलता गया, शिल्पकार उसे मूर्ति-कला सिखाते गये। अब शिल्पी बार-बार मूर्ति गढ़ता। मूर्तियों में कोई न कोई कमी रह जाती। मगर शिल्पी हार नहीं मानता। मूर्तियों को गढ़ते-गढ़ते उसके हाथों में छाले पड़ जाते, आँखों में पत्थर के कण पड़ जाते। फिर भी शिल्पी भूखा-प्यासा, थकान से चूर रहने पर भी दिन-रात लगातार मूर्तियाँ गढ़ता रहता। लोगों ने जब उसे भूखे देखा, तो समझाया, ‘‘मूर्तियाँ गढ़ने से किसी का पेट नहीं भरता।’’ शिल्पी ने यह पूछ कर उन्हें निरुत्तर कर दिया कि क्या दुनिया में सारी मूर्तियाँ आसमान से टपकी हैं? इनको गढ़ने से मेरा मन ही नहीं भरता। मन ऊबे, तब तो पेट की याद आये। तभी तो मैं रात-दिन इन्हें गढ़ता रहता हूँ। इस तरह अपने कठिन परिश्रम तथा लगन से उसने शिल्पकला में महारथ हासिल कर ली।
पत्थरों को गढ़ना तो उसने सीख ही लिया था, अब बाकी था तो किताबों को पढ़ना। किताबों को पढ़ कर वह यह जानना चाहता था कि समाज में कहाँ-कहाँ से अच्छे-अच्छे पत्थर मिल सकते हैं, समाज को कैसी-कैसी मूर्तियों की आवश्यकता है। साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है। इसलिये वह साहित्य-सागर में गोते लगाने चल पड़ा। दिल में उड़ने की कशिश लिये उसने तैरना भी सीखा। पहले वह पत्थरों को आकाश में उड़ाना चाहता था और अब पत्थर की मूर्तियों को पानी में तैराना चाहता था। दोनों ही काम असम्भव! मगर वह था ही बहुत जिद्दी। दोनांे को सम्भव बनाना चाहता था। वह सोचता, ‘‘जो असम्भव को सम्भव न बना दे, वह आदमी कैसा? किस काम का?’’ उसकी यह सोच उसके अध्ययन की देन थी, उन किताबों की देन थी, जिनको खरीदने के चक्कर में वह अपने खाने में कंजूसी करता, अपनी दवाओं के पैसे बचाता, अपने लिये कपड़े नहीं बनवाता, यहाँ तक कि वह दूसरों के उतारे कपड़े भी पहन कर काम चला लेता।
इस तरह उसने कठोर तपस्या करके एक-एक किताब खरीदी, कुछ ऐसी किताबें भी खरीदीं, जो आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। जैसे पक्षी तिनका-तिनका जुटा कर अपना घोंसला बनाते हैं, वैसे ही शिल्पी ने एक-एक किताब जुटा कर अपना पुस्तकालय बनाया। किताबों को पढ़ते-पढ़ते उसे समझ में आ चुका था कि समाज को कैसी मूर्तियों की आवश्यकता है। शिल्पी तो वह था ही, वह यह भी जानता था कि कैसी-कैसी मूर्तियाँ बनानी हैं। अब उसे आवश्यकता थी, तो सिर्फ उन पत्थरों की, जिनसे उसे ये मूर्तियँा बनानी थीं। और पत्थर तो ऐसी चीज़ थे नहीं कि अख़बारों में विज्ञापन देने से उसके पास खुद-ब-खुद चले आते। उन्हें ढूँढ़ने का काम तो शिल्पी को ही करना था। पत्थरों की खोज में भटकता वह जा पहुँचा मकराना की खानों के पास, जहाँ उसे श्वेत संगमरमर मिले। फिर वह विंध्य पर्वत की तलहटी में गया और काले पत्थरों को ले आया। सोन नदी से उसको सुनहरी चट्टानें उपलब्ध हुईं। ऊँचे हिमालय से उसने कच्चे पत्थर पाये। गहरे समुद्र ने उसे लाल प्रवाल दिया।

अब उसके पास वह सब कुछ था, जो वह चाहता था। सब कुछ अर्थात् एक भरी-पूरी पथरीली दुनिया, जिसके ख्वाब उसने बचपन से देखे थे। बचपन में उसने मौत को भले ही परास्त कर दिया हो, मगर उसके यौवन से कभी-कभी उसकी बीमारी झाँकती। पत्थरों को तो वह खोज ही चुका था, अब आवश्यकता थी सबको एक जगह लाकर इकट्ठा करने की। पत्थर तो पत्थर ही थे - बहुत भारी। सबको अकेले ही ढकेल कर वह इकट्ठा नहीं कर सकता था। फिर भी हिम्मत के साथ उसने यह काम भी अकेले ही करना शुरू किया। उसकी हिम्मत ने दूसरों को भी आकर्षित किया और बहुत से लोग उसकी मदद करने आ पहुँचे। धीरे-धीरे करके वे सभी शिल्पी के मित्र बन गये। सभी ने पूरे दिल-ओ-दिमाग से उसकी सहायता की और सारे पत्थर एक जगह इकट्ठा हो गये।
उसकी सहायता करने के बाद उसके मित्रों ने पूछा, ‘‘इन पत्थरों का करोगे क्या?’’ शिल्पी बोला, ‘‘क्या तुम मुझे नहीं जानते? मैं एक शिल्पकार हूँ। मैं इन पत्थरों से अपना घर तो बनाऊँगा नहीं और अगर बनाऊँ भी तो किसके लिए? घर में रहने वाला भी तो कोई चाहिए! और फिर सोचो तो जब छोटे-से खाली दिमाग को शैतान का घर कहा जाता है, तो खाली घर को किसका घर कहा जायेगा? मैं इन पत्थरों से एक से एक अनोखी और शानदार मूर्तियाँ बनाऊँगा, जो दुनिया के कोने-कोने में सराही जायेंगी।’’ उसके साथी मन ही मन मुस्कुराते, वे पत्थरों को मूर्ति का रूप देने में उसकी कोई मदद नहीं कर सकते थे, क्योंकि मूर्तियाँ गढ़ना वे जानते ही नहीं थे और मूर्तियाँ गढ़ना उसे भी इतनी आसानी से नहीं आया था। उसको भी कठोर तपस्या करनी पड़ी थी।
बचपन से ही जब वह बेडौल पत्थरों को देखता, उनको सुडौल बनाने के लिए उसकी अंगुलियाँ ऐंठने लगतीं और उसके मन में उसकी छेनी-हथौड़ी चलने लगती। बचपन से बेचैन अंगुलियों को तब जाकर चैन मिला, जब उसने एक-एक करके पत्थरों को गढ़ना शुरू किया। वह रात-दिन पत्थरों को गढ़ता रहता और अपनी बीमारी से लड़ता रहता। आराम करने के लिए वह तभी बैठता, जब उसका रोम-रोम दर्द से भर टीसने लग जाता, जब उसकी पलकें झपकने लगतीं और उसे आशंका होने लगती कि उसके हाथ इधर-उधर चोट कर बैठेंगे। ज्यों ही वह आराम के बारे में सोचता, त्यों ही पत्थरों से आवाज़ आने लगती, ‘‘मुझे तराशो, मुझे आकार दो।’’ उन मूर्तियों को शिल्पी की दशा पर कभी तरस भी नहीं आता था, क्योंकि उनको तो सिर्फ अपना स्वार्थ दिखता। और शिल्पी की हालत ऐसी हो गयी थी कि कभी पत्थर गिरते तो उसकी अँगुलियाँ कुचल जातीं, कभी हथौड़ा उसके हाथों पर चोट कर देता, और कभी हाथों में पड़े छाले फूट कर पूरे हाथ को लहूलुहान कर देते, जिसके चलते अगर कोई मूर्तियों को ध्यान से देखता, तो उसे उन पर कहीं न कहीं खून से सनी अंगुलियों के दाग दिखाई दे जाते। 
कभी-कभी जब वह बहुत बीमार होता, रात भर का जागा होता, तब भी वह इन पत्थरों को देखे बिना नहीं रह पाता और आ कर मूर्तियों के बीच बैठ जाता। और जब वह आकर बैठता, तो किसी न किसी मूर्ति के किसी न किसी बेडौल भाग को देखते ही उसे सुडौल बनाने के लिये दर्द से कराहता हुआ खड़ा होता और फिर चल पड़ता अपनी छेनी और हथौड़ी उठा कर। सारे पत्थर मूर्ति का रूप ग्रहण करने के लिये पूरी तरह से शिल्पी पर निर्भर रहते। छोटा-सा कोना भी अगर गढ़ने के लिये बाकी रह जाता, तो भी वे शिल्पी के ही पास दौड़ कर आ जाते। वे स्वयं कुछ भी नहीं करना चाहते थे। कारण था उनका आलस्य। और तो और जब अपनी अज्ञानता और मासूमियत दिखाकर कुछ चिकने पत्थर शिल्पी को मूर्ख बनाते, तो वह कसमसा कर रह जाता था। शिल्पी इतने दिनों से पत्थरों को ही गढ़ रहा था। इसलिये वह एक-एक पत्थर के बारे में खूब अच्छी तरह जानता था। वह झल्लाता-झुँझलाता, झिड़कता-बड़बड़ाता, चीखता-चिल्लाता, रोता-गिड़गिड़ाता। मगर अन्ततोगत्वा वह इन्हें पत्थर समझ कर माफ़ कर देता। मजबूर था न! आखिर कर भी क्या सकता था?
पत्थरों से मूर्तियाँ बनाने में शिल्पी इतना तल्लीन था कि उसे पता ही नहीं चला कि उसने अपने जीवन के पन्द्रह सालों को पत्थरों के बीच कैसे गुजार दिया। ज़िन्दगी खप गयी। मगर धीरे-धीरे कर के शिल्पी की मेहनत रंग लायी। कुछ पत्थरों ने मूर्तियों का रूप लेना शुरू कर दिया, कुछ में थोड़ी लकीरें उभरीं, और कुछ तो इतने चिकने थे कि उन पर रंच मात्र भी असर नहीं पड़ा। इक्का-दुक्का पत्थरों ने मूर्तियों का रूप लगभग ले लिया था। अब बाकी था उनको रगड़-रगड़ कर हीरे की तरह चमकाना। अब शिल्पी ने मूर्तियों को रगड़ना शुरू किया। मूर्ति बन चुके पत्थर फूले न समाते। मगर शिल्पी को उनमें चमक की तनिक भी कमी हमेशा खटकती रहती। शिल्पी उनको ऐसा बनाना चाहता था कि उनका कोई विकल्प न हो। इसलिये शिल्पी उन्हें लगातार तराशता रहता। उसकी अंगुलियाँ घिस गयीं। उसके नाखून टूट गये। लेकिन उनमें चमक नहीं आयी, क्योंकि वे चमकना ही नहीं चाहते थे। उन्हें लगा उनका काम हो गया। अब शिल्पी को वे फूटी आँखों से भी नहीं देखना चाहते थे। जब शिल्पी उनके बीच न रहता, तो वे बहुत खुश होते।

मगर उनके बीच न रहकर भी वह कहीं न कहीं से उनको निहारता रहता। शिल्पी समझ गया कि ये चमक तो नहीं सके, लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलना इन्होंने जरूर सीख लिया है। वह समझता था कि पत्थरों को अपने-अपने अतीत से मोह है। और चूँकि मोह इतनी आसानी से खत्म नहीं होता। उसके लिये भी तपस्या करनी पड़ती है। इसलिये इसमें इन पत्थरों का भी ज़्यादा दोष नहीं है। अभी श्वेत पत्थरों को शिल्पी की पथरीली दुनिया से ज़्यादा मोह था मकराना की खानों से, श्याम पत्थरों को विंध्य पर्वत की तलहटी के सपने सताते और कच्चे पत्थरों को हिमालय की ऊँचाई याद आती, प्रवाल समुद्र की यादों में खोये रहते, तो सुनहरे पत्थरों को सोन नदी की सोन-मछलियों की छपाक-छपाक करती अठखेलियाँ पुकारती रहतीं। शिल्पी उन पत्थरों के बारे में रात-दिन सोचता, चिकने पत्थरों को उनकी भाषा में समझाता और उनको अपनी दुनिया से अलग करने की चेतावनी भी देता, मगर उन्होंने शिल्पी की बातों को कभी गहराई से लिया ही नहीं। उन शिलाओं ने शिल्पी के दर्द को कभी अपना दर्द समझा ही नहीं और उनके न समझ पाने का परिणाम बहुत भयंकर हुआ। पत्थरों और शिल्पी के बीच दूरी बढ़ती गयी। शिल्पी बहुत स्वाभिमानी था। किसी से कुछ माँगना उसे बिल्कुल पसन्द नहीं था। मगर वह माँग-माँग कर लाया था उन चिकने पत्थरों को, जो अपने-अपने मालिकों की ज़ागीरों में कैद थे। लेकिन वह धोखा खा गया था उनकी चमक और चिकनेपन को पहिचानने में।
जब दूसरे पत्थरों को पता चला कि शिल्पी कुछ चिकने पत्थरों को अलग कर रहा है, तो वे जड़ पत्थर चल पड़े और शिल्पी को घेर लिया। शिल्पी को यह समझते देर न लगी कि आज ये बेज़ुबान पत्थर बोलेंगे क्योंकि वह दूरदर्शी भी तो था। पत्थरों के कुछ कहने से पहले ही शिल्पी ने उन्हें अपनी ओर से बोलने के लिये आज़ाद कर दिया, ‘‘जो पूछना चाहते हो पूछो, जो बोलना चाहते हो बोलो।’’ शिल्पी तो जानता था कि पत्थर बेजुबान हैं। लेकिन बेजुबान पत्थर बोले। इससे पहले शिल्पी ने कभी उनको बोलते हुए नहीं सुना था। बोलते-बतियाते थे वे। मगर शिल्पी की पीठ के पीछे। सामने तो केवल कराहते रहते। वह सुनता था तो सिर्फ अपने पत्थरों के कराहने की आवाज़ंे। जब उन पर हथौड़े चलते, तो वे चीख पड़ते। उनके कराहने से शिल्पी को भी दर्द तो होता ही, मगर शिल्पी अगर कराहों और चोटों का ख्याल करे, तो मूर्तियाँ कैसे बनें? इसलिए वह बहरा बना उनको गढ़ता रहता। 
पत्थर शिल्पी के हथौड़े को इसलिये बर्दाश्त करते क्योंकि जहाँ एक तरफ वे अपने को शिल्पी के मजबूर कैदी मानते, वहीं दूसरी तरफ वे सोचते थे कि मूर्तियों का रूप लेने के बाद लोग उन्हंे पूजेंगे। मगर वे यह नहीं जानते थे कि मूर्ति को लोग पूजते क्यों हैं? क्यों पूजते हैं लोग मूर्तियों को? क्योंकि मूर्तियों की कोई इच्छा नहीं होती। वे सब कुछ चुपचाप सह लेती हैं। इंसान भी अगर अपनी सभी इच्छाओं को त्याग दे, तो लोग उसे भी पूजें। एक-एक कर पत्थरों ने शिल्पी से पूछा, ‘‘क्यों अलग कर रहे हो इन चिकने पत्थरों को हमसे? आज इनको, तो कभी हमको भी इनकी तरह ही अलग कर सकते हो?’’ शिल्पी भी इन पत्थरों को झेलते-झेलते बुरी तरह से खिन्न हो चुका था। उसे भी इसी मौके की तलाश थी कि वह भी कुछ बोल सके, अपने अन्दर छिपी उन बातों को बता दे, जिनको कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की। वह दृढ़ता से बोला “हाँ, आवश्यक होने पर मैं किसी को भी अलग कर सकता हूँ।’’ और चिकने पत्थरों से पूछ बैठा, ‘‘तुम लोग बताओ, मैंने तुम लोगों को बचाने का हर सम्भव प्रयास क्या नहीं किया? सोचो, तुम लोगों ने ऐसा क्या किया कि मैं ही, जो तुम को इतनी मुश्किल से तलाश कर लाया था, आज अलग कर रहा हूँ। तुम लोगों ने मेरे हाथों-पैरों पर चोटें की, मैं तुम्हें क्षमा करता रहा। मगर अब तो तुम मेरी भावनाओं पर भी आघात करने लगे हो। तुम लोगों ने कभी मेरे दर्द को अपना दर्द समझा ही नहीं। तो फिर मैं क्यों तुम्हारे दर्द से कराहूँ? मेरे अपने दर्द क्या तुम्हारे दर्द से कम हैं?’’ और शिल्पी इन पत्थरों के बीच से हट जाता है। पत्थर आपस में फुसफुसाते हैं। कुछ शिल्पी की बातों से सन्तुष्ट हैं, तो कुछ असन्तुष्ट।
शिल्पी रात भर रोता रहा, बिलखता रहा। मगर उसकी सिसकियों को सुनने वाला भी कोई नहीं था। उस दिन शिल्पी को लगा कि मैं बेकार ही इन पत्थरों कोे गढ़ता हूँ। ये मेरे किसी काम आने वाले नहीं। अब इन पत्थरों को छोड़ कर शिल्पी कहीं और चला जाना चाहता था। मगर जाता भी तो कहाँ? इन पत्थरों के अलावा उसका था ही कौन? उसे लगा वह हार गया है। मगर कुछ नये और नन्हे पत्थरों की चमक ने उसे फिर आर्कषित किया। आँखों में आँसू और होठों पर नकली मुस्कान लिये जाते-जाते वह फिर से वापस लौट कर आ गया और दूने उत्साह से फिर से मूर्तियों को गढ़ना शुरू कर दिया। शिल्पी के हाथ लगी बार-बार की असफलता ने उसके प्रहार तीखे बना दिये थे। उसके हथौड़े और छेनी की आवाज़ की गूँज दूर-दूर तक जाती। दूर-दूर तक लोग उसे जानने-पहचानने लगे थे। लोग उसकी दीवानगी की चर्चा करते, उसके प्रति हमदर्दी जताते, उसकी सराहना करते, उसे आश्वासन देते, उसकी मदद करते। अभी भी शिल्पी उन पत्थरों को बहुत प्यार करता था।
 
शिल्पी अपने अतीतजीवी पत्थरों के मोह को, आलसी पत्थरों की लापरवाही को, यथास्थितिवादी पत्थरों की जड़ता को और बिना हाथ-पैर हिलाये खाली खयाली पुलाव पकाते रहने वाले निकम्मे पत्थरों की अव्यावहारिकता को तोड़ना चाहता था। मगर पत्थर परिवर्तन की कल्पना तक नहीं करना चाहते थे। इसी बात को लेकर शिल्पी और शिलाओं के मध्य द्वन्द्व हुआ। शिल्पी ने तो अपनी सारी ऊर्जा इन्हीं मूर्तियों को दे दी।
परिणामस्वरूप द्वन्द्व में शिल्पी हार गया। उसकी अंगुलियों के नीचे रहने वाले पत्थरों ने उसे नीचे पटक दिया और उसके सीने पर सवार हो गये। वे उसके अंग-अंग को कुचलने लगे। शिल्पी को पता ही नहीं चला कि इस द्वन्द्व में उसकी छेनी और हथौड़ी कहाँ जाकर गिर गयी। मूर्तियों के गढ़ने का काम ठप हो गया। मूर्तियों को गढ़ने से निकलने वाली आवाज़ बन्द हो गयी। 
लोगों को उसकी ठक-ठक सुनने की आदत लग चुकी थी। लोग इस आवाज़ के बन्द होते ही बेचैन हो उठे। वे जानना चाहते थे कि आज शिल्पी कर क्या रहा है। धीरे-धीरे कर के ढेर सारे लोग शिल्पी के पास यह देखने आ पहुँचे कि आवाज़ बन्द क्यों हो गयी है? शिल्पी अगर चाहता, तो चिल्ला भी सकता था क्योंकि उसकी आवाज़ में भी जादू था। मगर चिल्लाता भी तो किस मुँह से? वह तो शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। कहीं कोई उससे पूछ न दे कि इन्हें ही पूजने की तो बात करते थे न तुम! जो खुद को अस्तित्व देने वाले का ही अस्तित्व मिटाने में भिड़ गये हैं, उनको कौन पूजेगा भला? शिल्पी ने अपने स्तर पर छिपाने की बहुत कोशिश की। मगर सच्चाई तो ज़्यादा दिन तक नहीं छिपती है। एक न एक दिन सामने आ ही जाती है। शिल्पी की आँखें छलछला आयीं, सिसकियों के बीच से एक टूटी हुई आवाज़ आयी, ‘‘मैं हार गया! मुझे बचा लो! मैं कुचला जा रहा हूँ! दर्द तो मैंने बहुत सहे, मगर यह दर्द मुझसे नहीं सहा जाता। देखो न, मेरे ही हाथों से बनी मूर्तियाँ कितनी बेरहमी से मुझे कुचल रही हैं!’’
आज वह शिल्पी हार गया था, जिसे लोग जीत का पर्याय समझते थे। आज वह शिल्पी सिसक रहा था, जिसके शब्दकोष में आँसू नाम का कोई शब्द ही नहीं था। आज वह शिल्पी मदद माँग रहा था, जो खुद सब का मददगार था। इसे ही कहते हैं - वक्त का तकाज़ा। शिल्पी की दास्तान सुनने के बाद लोगों की आँखांे में आँसू आ गये। बेशर्म पत्थरों को तो आनन्द आ रहा था। वे और ताकत लगाकर शिल्पी को ज़ोर-ज़ोर से दबाने लगे। मगर उसकी चीखें उभरती गयीं। उसकी ज़ादुई आवाज़ ने लोगों को भीतर तक झकझोर दिया। लोगांे के पैर आगे बढ़े, हाथ नीचे झुके एक-एक पत्थर को उठाकर फेंकने के लिये। मगर यह क्या? खुश होने के बजाय शिल्पी और भी तेज़-तेज़ सिसकने लगा। लोगों के हाथ थम गये। शिल्पी बोला, ‘‘इन्हें क्यों हटाते हो? इन्हें हटा दोगे, तो मेरी पथरीली दुनिया का क्या होगा? मेरी साधना का क्या होगा, उन पन्द्रह सालों का क्या होगा, जो मैंने इनके साथ गुजारे हैं?’’ पत्थरों के साथ शिल्पी के इस लगाव को देख कर लोग झल्ला गये और पूछ बैठे, ‘‘फिर तुम्हारी कैसे करें मदद ?’’ शिल्पी ने लोगों को बताया, ‘‘मैं इन पत्थरों को बड़ी मेहनत से खोज कर लाया हूँ, मैंने इन्हें मूर्तियों का रूप देने में उतना ही दर्द सहा है, जितना माँ अपने बच्चे को जन्म देने में सहती है। क्या माँ अपने जीते जी अपने शरीर से अपने बच्चे को अलग करती है?’’ लोग चुप थे, दुखी थे, असमंजस में पड़े सोच रहे थे। मगर दिल में शिल्पी की मदद की तमन्ना लिये वे अपने कदमों को पीछे हटाने को मजबूर थे।
लोगों को हार कर लौटते देख पत्थर खुश हो गये। लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिसे दबाने में वे अपना कल्याण समझते हैं, वह अपने ध्वन्स से भी उठ खड़ा होगा। अपने पत्थरों को अभी भी अपने पास देखकर शिल्पी भी खुश था। मगर अपने कुचले जा रहे अंगो को देखकर वह सिसक रहा था। अपने प्रति शिल्पी के इस स्नेह को देखकर कुछ भावुक शिलायें सन्न रह गयीं। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें? कुछ मूर्तियों की भी आँखों में आँसू आ गये। शिल्पी के मन में भी उनके प्रति करुणा उमड़ आयी। शिल्पी को लगा कि सुबह के भूले शाम को वापस आ गये हैं।

 मगर अफसोस! अब वह चाहकर भी उन पत्थरों के लिये कुछ भी नहीं कर सकता था क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी। शिल्पी के लिये तो शाम अब रात बन चुकी थी। अब शिल्पी के पास वक्त नहीं था। फिर भी शिल्पी के दिल की बात उसकी जुबान पर आ ही गयी। शिल्पी फिर बोला, ‘‘यह मत समझना कि मैं तुम लोगों की तरह मक्कार हूँ। मैं अभी भी तुमको गढ़ने को तैयार हूँ। मगर गढ़ूँ, तो कैसे गढ़ँू? मेरे अंग-अंग कुचल गये हैं। कम से कम तुम लोग तो मुझे पहिचानते ही हो! मैं अब शिलाओं को गढ़ने वाला कलाकार नहीं रहा, महज शिलाओं तले सिसकता हुआ शिल्पकार हूँ।    


7 comments:

  1. स्वाती जी को शुभकामनाये .............बहुत अच्छा चित्र उकेरा है उन्होंने शब्दों के माध्यम से

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  2. ये बहुत ही ह्रदय स्पर्शी लेखन है भावनाओं और सवेन्दनाओं में पूरी तरह डूबकर लिखा गया है जो पाठक के अंत: स्थल को छूता हुआ आँखों को नम कर देता है .इसके महानायक के नजर एक शेर है -
    जिन्दगी जंग है तुझसे मेरी मरते दम तक
    मैं अगर जीता नहीं हूँ तो मैं हारा भी नहीं .
    - मजहर गढ़ मुक्तेश्वरी

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  3. बहुत सुन्दर ....उज्ज्वल भविष्य के लिये शुभकामनाएं.....

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  4. इस कहानी ने ज़िंदगी के उस नाज़ुक किरदार की तर्जुमानी की है, जिस की नब्ज़ तक हर कोई नहीं पहुँचता, समाज में जी रहे उन हिम्मत वालों का दर्द है जहाँ स्नेह और प्रेम भी मिश्रित हैं, रुला देने वाली यह कहानी समाज के ठेकेदारों पर एक तमाचा भी है, स्वाती जी को बहुत बहुत मुबारकबाद , खुदा करे आप का क़लम् और ज़ोर पकड़े, सुनहरे मुस्तकबिल के लिए ढेर सारी दुआएं

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  5. स्वाती जी को बहुत-बहुत शुभकामनाये उन्होंने बहुत ही अच्छा चित्र प्रस्तुत किया है शब्दों के माध्यम से| देखा जाये तो हम इस कहानी को एक चलना सीखते बच्चे की उस लगन के रूप में बखूबी समझ सकते हैं जब एक बच्चा चलना शुरु करता है तो कई बार ठोकरें खाकर गिरता है मगर अंततः अपनी कोशिश पर परचम अवश्य फहराता है| यानि हम कह सकते हैं कि हम जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग लड़ रहे हैं तो यह मत समझिये कि आप जंग हार गये, यह कहानी कहती है कि उठिये अभी दुनिया खत्म नहीं हुई वापस शक्ति बटोरिये और चल पढ़िये जंग की ओर मंजिल आपको अवश्य प्राप्त होगी|

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  6. swati didi lovly didi...best wishesh for you and swati didi.

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  7. Thought provoking emotional story, well written and Madhurji's comment is fully appropriate जिन्दगी जंग है तुझसे मेरी मरते दम तक
    मैं अगर जीता नहीं हूँ तो मैं हारा भी नहीं .
    - मजहर गढ़ मुक्तेश्वरी Good luck and bright future ahead for Swaati. You are a proud Father :)

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