Saturday 21 November 2020

सूर्य की पूजा और मानवता की पीड़ा

 

प्रिय मित्र, सूर्य की उपासना का आज पर्व है. विराट ब्रह्माण्ड के निस्सीम विस्तार में हमारा सूर्य अगणित ताराओं के बीच मात्र एक तारा ही तो है. सौर-मण्डल के सभी ग्रह और उपग्रह सूर्य के अंश ही तो हैं. हमारी अपनी धरती माता भी सूर्य की पुत्री ही तो है. सूर्य से अपनी निश्चित दूरी के कारण ही तो धरती ब्रह्माण्ड का एकमात्र नीला ग्रह है. सूर्य से इसी दूरी के कारण केवल धरती पर ही जीवन सम्भव हो सका. जीवन को प्रकाश मयस्सर हुआ. धरती की हरीतिमा के लिये अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे वनस्पति-जगत द्वारा सतत हो रहे प्रकाश-संश्लेषण से सम्पूर्ण सजीव जगत को ऊर्जा मयस्सर हुई. वायुमण्डल, जल, ओजोन छतरी की सुरक्षा मयस्सर हो सकी.
मनुष्य भी सजीव जगत का मात्र एक सदस्य ही तो है. सूर्य की पुत्री धरती की सन्तान होने के चलते मनुष्य सूर्य का नाती है और सूर्य हमारा नाना.
सूर्य में अनादि काल से परमाणु बमों का विस्फोट हो रहा है. सूर्य लगातार अपनी ही आग में जल रहा है. सूर्य के तपते रहने के कारण ही मनुष्यता को दिन का प्रकाश, रात का अँधेरा, मौसम की विविधता मयस्सर है. सूर्य की उपासना का पर्व सूर्य के कारण मानवता को मिली समस्त उपलब्धियों को महसूस करने और मन से आभार व्यक्त करने का पर्व भी है.
सूर्य की उपासना का पर्व अपनों के कल्याण की कामना का पर्व है. इस पर्व के उत्सव में हम पुरबियों की माँ अपनी सन्तान के बेहतर जीवन की मंगल-कामना से डूबते और उगते हुए सूर्य को निराजल रह कर जल में कमर तक खड़ी होकर पूजती हैं.
प्रश्न है - क्या मानव-जाति का कल्याण इस पूजा से सम्भव है ? उत्तर है - नहीं.
आपको मेरा यह उत्तर पसन्द नहीं आया न ? इस उत्तर से आपकी आस्था को ठेस लगी क्या ? अगर उत्तर आपको बुरा लग गया, तो मुझे क्षमा कीजिए. परन्तु एक पल रुक कर ज़रा सोचिए. सोचिए ज़रा कि मानवता संकट में क्यों है. धरती का अस्तित्व संकट में क्यों है. जीवन का अस्तित्व संकट में क्यों है. धरती पर अन्याय, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, दमन क्यों है. धरती पर युद्ध, विग्रह और अशान्ति क्यों है. धरती पर अपमान, दुःख, भूख, ग़रीबी, कंगाली, अभाव और असहायता का आलम क्यों है. मन को निराश कर देने वाला अन्धकार का यह सांय-सांय करता चौतरफा पसरा हुआ सन्नाटा क्यों है. मानवता बिलख क्यों रही है.
मानवता का संकट मनुष्य-मात्र की वेदना का कारण है. मनुष्य का संकट प्रकृति-जन्य संकट कदापि नहीं है. इस संकट को स्वयं मनुष्य ने ही रचा है. समस्त सजीव जगत के साथ ही मनुष्य को भी मदर नेचर ने ही रचा. समस्त सजीव जगत में मनुष्य ही सबसे विकसित सदस्य है. उनके बीच एकमात्र मनुष्य ही रचने लायक बन सका. मनुष्य पशु-जगत में सबसे विकसित हो सका क्योंकि उसने अपने हाथों को आज़ाद किया. अपने पैरों पर सीधा तन कर खड़ा हुआ. अपने स्वर-यन्त्र का, अपने मस्तिष्क का, अपनी भाषा का विकास किया. उसने सभ्यता का सृजन किया. उसने संस्कृति की संरचना की.
सबसे विकसित था न, इसलिये जब रचने निकला, तो मनुष्य ने मदर नेचर के साथ गद्दारी की. मनुष्य ने मनुष्यता के साथ गद्दारी की. मनुष्य ने धरती के साथ गद्दारी की. मनुष्य ने जीवन के साथ गद्दारी की. पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य ने मनुष्य के साथ जितना बुरा व्यवहार किया, उतना बुरा किसी भी प्रजाति के पशु ने अपनी प्रजाति के दूसरे सदस्य के साथ नहीं किया. समूचा पशु जगत धरती पर मनुष्य के अवतार के पहले प्रकृति का ग़ुलाम था. मनुष्य ने प्रकृति का मालिक बनने की ठानी.
मानवता की गौरवशाली परम्पराओं पर खड़ी सभ्यताओं और संस्कृतियों का विकास करने में लगे मनुष्य ने जघन्यतम कुकृत्य भी किये. मनुष्य ने मनुष्य को जंज़ीरों में जकड़ा. मनुष्य ने मनुष्य को अपना ग़ुलाम बनाया. मनुष्य ने मनुष्य को बेचा और ख़रीदा. मनुष्य ने मनुष्य के ऊपर क्रूरतम अत्याचार किया. मनुष्य ने अपनी ही आधी आबादी को उपभोक्ता सामग्री में रूपान्तरित कर दिया. पुरुष-प्रधान बनी हमारी सभ्यता. नारी विरोधी बनी हमारी संस्कृति.
मनुष्य ने प्रकृति-प्रदत्त उपहारों का अपने उपभोग योग्य रूपान्तरण करना आरम्भ किया. उसने अपने उर्वर मस्तिष्क और सबल हाथों से उत्पादन की प्रक्रिया का प्रवर्तन किया. कल्पनातीत परिणाम सामने था. सम्पत्ति का उपभोग से अधिक उत्पादन होने लगा. मनुष्य ने अब सम्पत्ति का संचय आरम्भ किया.
सम्पत्ति के लोभ ने कपट को जन्म दिया. कपट ने युद्ध को विस्तार दिया. सभ्यता के विकास के साथ युद्ध और मारक होता चला गया. हथियार और विकसित होते चले गये. साथ ही उत्पादन और जटिल और संश्लिष्ट होता गया. विज्ञान के विकास के साथ औजारों का स्थान मशीनों ने ले लिया. उत्पादन में पेशियों की भूमिका गौड़ हो गयी.
उत्पादन का वितरण अनिवार्य था. वितरण ने बाज़ार को जन्म दिया. और बाज़ार ने सम्पत्ति का असमान वितरण कर दिया. अधिकतर के पास आवश्यक आवश्यकताएँ भी पूरी न करने भर को न्यूनतम छोड़ा, तो मुट्ठीभर के पास अनावश्यक अत्यधिक संचित कर दिया.
अब दो तरह के मनुष्य धरती पर सह-अस्तित्व में रहने लगे. दोनों के हित परस्पर विरोधी ठहरे. एक को और सम्पत्ति का लोभ है, तो दूसरा सम्मान से सिर उठा कर जीने के लिये जूझ रहा. एक प्रतिशत मालामाल हैं और निन्यानबे प्रतिशत कंगाल. एक करोड़पति को बनाने में एक करोड़ मनुष्यों को कंगाल होना पड़ा.
बाज़ार की पैशाचिक भूख का दुष्परिणाम भी सामने है. ज्ञान-विज्ञान का अभी तक का सबसे विकसित स्वरूप है तो, परन्तु हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है. कार्यसक्षम हाथ हैं तो, मगर काम पाने का अधिकार नहीं है. चिकित्सा के विशेषज्ञ हैं तो, परन्तु ग़रीब बीमार पड़ने पर कंगाल होने और कंगाल मर जाने को अभिशप्त है. छोटे और बड़े अगणित न्यायालय हैं तो, मगर न्याय नहीं दे सकते. वे केवल सम्पत्ति के हित में निर्णय देने वाली दूकानों में रूपान्तरित हो गये हैं.
जनतन्त्र है तो, मगर तन्त्र की जन पर ज़बरदस्ती जारी है. शासन-सत्ता है तो, मगर धरती के धनकुबेरों की चाकर है. व्यवस्था है तो, मगर दुर्व्यवस्था बढ़ाने का उपकरण बन कर रह गयी है.
मेरे मासूम दोस्त, केवल माँ की दुआ और सूर्य की उपासना से महँगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा, अन्याय, अत्याचार, अपमान और तिल-तिल कर मारती यह रात-दिन की आपकी घुटन समाप्त नहीं होने वाली है.
समूची धरती पर पीढ़ियों से जारी संग्राम मानवता के अस्तित्व का युद्ध है. इसमें आपकी दो ही परिणति है. या तो विजय या मृत्यु. दोनों में से किसी का भी वरण करने के लिये मन बनाकर आपको स्वयं ही अपनी तैयारी करनी पड़ेगी.
इसके लिये आपको सूर्य-पुत्र कर्ण के संकल्प, शौर्य, साहस तथा उदारता का विकास अपने व्यक्तित्व में करना पड़ेगा. आपको दो-टूक अपना पक्ष चुनना पड़ेगा. या तो कर्ण की तरह सब समझते हुए भी अपना शस्त्र और कवच अपने ही हत्यारों को सहजता के साथ दे देना होगा, या फिर कर्ण की हत्या के षड्यन्त्र में हिस्सेदारी का मन बनाकर कपट करने की कला सीखनी पड़ेगी और अन्ततोगत्वा विजेता से कुछ ईनाम-इकराम भर पा लेने से अपने मन को संतुष्ट करना पड़ेगा.
अब यह आप पर है कि आप क्या चुनना पसन्द करते हैं.
ढेर सारा प्यार - आपका गिरिजेश छठ 2020. https://www.facebook.com/girijeshkmr/posts/10217294056971255