Monday 27 April 2015

निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग : रोहतक के नरेश कुमार


रोहतक के नरेश कुमार जी को हार्दिक बधाई ! निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग देश में जगह-जगह चल रहा है. अगर सबको समेकित किया जा सका, तो हम विकृत और बेमानी हो चुकी अपने देश की शिक्षा-व्यवस्था का विकल्प दे सकेंगे. युवा दोस्तों से मेरा अनुरोध है कि इस काम को अपने आस-पास के ज़रूरतमंद लोगों के बीच शुरू करें. जो भी दिक्कत आयेगी, उसका समाधान खोजने में यथाशक्ति सहायता देने के लिये मैं उपलब्ध हूँ. दिल्ली में हमारे साथी ज्योतिभूषण जीJyoti Bhushan और कलकत्ता में साथी फ़कीर जे Faqir Jay जी इस काम में लगे हैं.
https://www.facebook.com/nkumarsisar/about
नरेश कुमार 09416267986

नरेश कुमार जी के काम की चर्चा इस विडियो में देखिए.
ttps://www.youtube.com/watch?v=tqdxU0pnNfg&feature=share

किसान क्यों है ख़ुदकुशी करने को मजबूर? - हरवीर सिंह



किसान क्यों है ख़ुदकुशी करने को मजबूर? - हरवीर सिंह वरिष्ठ पत्रकार 8 अप्रैल 2015

भारतीय किसान
भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और इनकी संख्या बढ़ रही है. नए इलाकों में इसका असर हो रहा है - आखिर क्यों?
इस सवाल के तह तक जाने के बजाए जो सरकारें कर रही हैं वे मर्ज़ का इलाज नहीं बल्कि उसको टालने की कोशिश भर है.
पिछले दिनों जब उत्तरप्रदेश सरकार ने बेमौसम बरसात से कम से कम 35 किसानों की खुदकुशी की बात स्वीकार की तो उसके बाद केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कई ज़िलों का दौरा किया. आज शाम तक जांच टीमें तमाम ज़िलों की रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौपेंगी.
2014 में किसानों की आत्महत्या का ब्यौरा नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो जून महीने तक देगी. 31 मार्च 2013 तक के आंकड़े बताते हैं कि 1995 से अब तक 2,96 438 किसानों ने आत्महत्या की है हालांकि जानकार इस सरकारी आकंडे को काफी कम कर आंका गया समझते हैं.
पढ़ें लेख विस्तार से

जहाँ पहले देश में किसानों की आत्महत्या की ख़बरें महाराष्ट्र के विदर्भ और आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र से ही आती थीं, वहीं अब इसमें नए इलाक़े जुड़ गए हैं.
इनमें बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाक़े नहीं, बल्कि देश की हरित क्रांति की कामयाबी में अहम भूमिका वाले हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं.
इसके अलावा औद्योगिक और कृषि विकास के आंकड़ों में रिकॉर्ड बनाने वाले गुजरात के क्षेत्र शामिल हैं.
राजस्थान और मध्य प्रदेश के किसान भी अब आत्महत्या जैसे घातक क़दम उठा रहे हैं. पर क्यों? सीधा जवाब ये है कि खेती करना अब घाटे का सौदा हो गया है.
आत्महत्या की वजह
इससे निपटने के लिए सरकार ने अभी तक कोई पहल नहीं की है. आंकड़ों को आधार बनाकर बयानबाज़ी ज़रूर होती रही है.
फ़ाइल फोटो
क़रीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ केस स्टडी के आधार पर किसान आत्महत्याओं की वजह जानने की कोशिश की थी.
इसमें सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती जोत बताई गई. इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं.
लेकिन यह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह गई है.
असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है.
किसानों की लागत बढ़ी
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाक़ों में किसानों की लागत में बहुत तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है. इसमें सबसे अधिक बढ़ोतरी सिंचाई सुविधाओं पर होने वाले ख़र्च में हुई है.
फ़ाइल फोटो
भूजल स्तर में भारी गिरावट के चलते ब्लैक स्पॉट में शुमार इन इलाक़ों में बोरवेल की लागत कई गुना बढ़ गई है और इसके लिए कर्ज़ का आकार बढ़ रहा है.
तेलंगाना में जब आत्महत्या के आंकड़े बढ़े तो बोरवैल पर कर्ज़ इनकी बड़ी वजह थी. नीचे गिरते जल स्तर के चलते वहां बोरवैल पर प्रतिबंध लग गया था और इसके लिए बैंकों से कर्ज़ नहीं मिलने से किसान साहूकारों के पास जा रहे थे.
पिछले साल उत्तर प्रदेश से किसानों की आत्महत्यों की खबरें आई तो उसकी वजह वहां किसानों का चीनी मिलों पर हज़ारों करोड़ रुपए का बकाया था.
उसके बाद हालात और बदतर हुए हैं.अभी भी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों पर किसानों का करीब आठ हज़ार करोड़ रुपए का बकाया है.
मुश्किल में किसान
बड़ी तादाद में ऐसे किसान हैं जिनकी जोत दो एकड़ या इससे भी कम है, लेकिन उनको दो साल से गन्ना मूल्य का आंशिक भुगतान ही हो सका है.

पहली बार इन संपन्न माने जाने वाले इलाकों में बच्चों की शिक्षा से लेकर लड़कियों की शादियां तक अटकी हैं.
चीनी पर किसानों के फ़र्स्ट चार्ज के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जब चीनी मिलें सुप्रीम कोर्ट गईं थीं तो सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के पक्ष में फ़ैसला दिया था. जबकि भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल बैंकों के पक्ष में खड़े थे.
इस तरह के उदाहरण सरकार की मंशा ज़ाहिर करते हैं कि वह किसान के साथ नहीं खड़ी है. यही वह संदेश होते हैं जो किसान की उम्मीद तोड़ते हैं.
फसलों की क़ीमतें गिरी
पिछले एक साल में अधिकांश फसलों की क़ीमतों में भारी गिरावट दर्ज की गई. नतीजतन किसानों की आय कम हुई है.

लेकिन उनकी आमदनी में इज़ाफ़ा करने का कोई बड़ा क़दम सरकार ने नहीं उठाया है. एक साल के भीतर किसानों को दो प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है.
कमज़ोर मॉनसून के चलते खरीफ़ का उत्पादन गिरा, वहीं फ़रवरी और मार्च के महीने से लेकर अप्रैल के पहले सप्ताह तक जिस तरह बेमौसम की बारिश, ओले और तेज़ हवाओं ने किसानों की तैयार फसलों को बर्बाद किया उसका झटका बहुत से किसान नहीं झेल पाए हैं.
यही वजह है कि इस प्राकृतिक आपदा के बाद राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में जिस तरह से किसानों ने आत्महत्याएं कीं, उससे साफ़ है कि आर्थिक रूप से उनका बहुत कुछ दांव पर लगा था जो बर्बाद हो गया.
सरकारों पर भरोसा नहीं

केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम बयानों में उसे भरोसा नहीं दिखा क्योंकि ये कभी किसान की मदद के लिए बहुत कारगर क़दम नहीं उठा पाई हैं.
इस तरह की आपदा के बाद किसानों को राहत के लिए दशकों पुरानी व्यवस्था और मानदंड ही जारी हैं.
सरकार ने इस व्यवस्था को व्यवहारिक बनाने और वित्तीय राहत प्रक्रिया को तय समयसीमा में करने के लिए क़दम नहीं उठाए हैं.
भले ही जनधन में 13 करोड़ से ज़्यादा खाते खुल गये हों, आधार नंबर से जुड़ने वाले बैंक खाते लगभग पूरी आबादी को कवर करने की ओर जा रहे हों, लेकिन किसानों की मदद के लिए अभी भी बेहद पुरानी, लंबी और लचर व्यवस्था ही जारी है.
आत्महत्या की वजह अलग

कई बार सूखे का सामना करने वाले राजस्थान में किसान की आत्महत्या की ख़बरें नहीं आती थी क्योंकि वहां किसानों ने दूध को आय का एक मज़बूत स्रोत बना लिया था.
लेकिन अब वहां हालात बदल गए हैं. फसल बर्बाद होने के कारण हो रहे भारी नुकसान से किसान की बढ़ती हताशा उसे आत्महत्या की ओर ले जा रही है.
कर्ज़ नहीं है समाधान

दूसरी ओर, अब भी सरकार के साढ़े आठ लाख करोड़ रुपए के कृषि कर्ज़ के बजटीय लक्ष्य के बावजूद आधे से ज्यादा किसान साहूकारों और आढ़तियों से कर्ज़ लेने को मजबूर हैं. ये किसानों के लिए घातक साबित होता है.
किसानों के बढ़ते संकट का एक कारण किसानों को ज़्यादा कर्ज़ की वकालत करने की बजाय किसान कर्ज़ माफ़ी की बात उठना भी है.
आंध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और तेलंगाना के राजनीतिक दल इसकी वकालत कर रहे हैं. लेकिन यह कोई स्थायी उपाय नहीं है. अगर ऐसा होता तो 2008 की साठ हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा की कर्ज़ माफ़ी के बाद किसान आत्महत्याएं बंद हो जातीं.
इसलिए इसका उपाय किसान की आय बढ़ाने में है न कि कर्ज़ माफ़ी. लेकिन सरकार शायद अभी इस दिशा में कुछ सोच नहीं रही है.

http://www.bbc.co.uk/…/i…/2015/04/150403_farmers_suicides_du

भारतीय किसान - चुनौतियाँ और समाधान



राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस के अवसर पर 
'' भारतीय किसान - चुनौतियाँ और समाधान'' विषय पर महापण्डित राहुल सांकृत्यायन बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, चक्रपानपुर में आयोजित विचार-गोष्ठी की अध्यक्षता करने का अवसर मुझे मिला. उक्त गोष्ठी में मेरा अध्यक्षीय वक्तव्य -

"किसान कभी खुश नहीं रहा. वह पुरातन काल से ही पीढ़ी दर पीढ़ी त्रस्त, शोषित और उत्पीड़ित रहा है. आज़ादी के पहले किसान अत्याचारी ज़मींदार, पाखण्डी पुरोहित और सूदखोर महाजन के फन्दे में जकड़ा था. अब वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, बैंकों और शासन की जनविरोधी नीतियों का शिकार हो रहा है. पूँजी अपने विस्तार के लिये लगातार प्राक्पूँजी उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करती रहती है.

छोटी किसानी को नेस्तनाबूत करना ही मोदी की फ़ासिस्ट सरकार का मकसद है. '90 में देश के तत्कालीन प्रधानमन्त्री द्वारा डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के बाद से किसानों के विरुद्ध लगातार साज़िश जारी है. वैश्विक पूँजी समूची धरती पर किसानों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के मकसद से लगातार आक्रामक है.

अपने देश में लगातार हो रही किसानों की आत्महत्या वस्तुतः उनकी हत्या है. जिसके लिये देश और दुनिया में सत्ता पर काबिज़ पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है. बड़ी पूँजी के हमले के सामने छोटे किसानों को बर्बाद होने से बचने और जिन्दा रहने का केवल एक रास्ता है और वह है सामूहिक खेती. अगर छोटे-बड़े किसान अपने झगड़ों से ऊपर उठ कर अपने बीच सहमति बना कर अपने खेतों की मेड़ों को तोड़ दें और मिलजुल कर सामूहिक खेती शुरू करें, तो वे अपनी अलग-अलग व्यक्तिगत मालिकाने की खस्ता हालत से उबर सकते हैं.

किसानों को एक दूसरे के विरुद्ध लड़ाने वाले छोटे-मोटे मनमुटाव और उनको आपस में बाँटने वाली जातिवाद की सोच से मुक्त होकर ही किसानों की वास्तविक एकजुटता मुमकिन है. राहुल बाबा की पुस्तक 'बाइसवीं सदी' एक ऐसे ही समाज की कल्पना है, जिसमें हर तरह के भेदभाव से मुक्त होकर गाँव का आदमी खुशहाल ज़िन्दगी जीता है."

तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा. - Niraj Jain March 7 ·


Yogendra Yadav Prashant Bhushan Arvind Kejriwal
.............. " ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं ??
..................तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा."
(बहुत प्रसव पीड़ा के बाद)
बौद्धिकता का भौतिक गुणधर्म शुष्कता है, लेकिन योगेन्द्र यादव की मौजूदगी उस आँचल की तरह है जहाँ विचार को माँ की गोद जैसा आश्रय मिलता है. स्वाधीन गणतांत्रिक भारत को योगेन्द्र की नजरों से समझना गर्भधारण कर मातृत्व को समझने जैसा ही रोमांचकारी है, बहीं दूसरी और प्रशांत भूषण हैं जो बाकायदा पूरी रिसर्च के साथ कमोबेश पांच सैकड़ा पीआईएल और अन्य दूसरे प्रकरणो के जरिये आजाद भारत की न्याय प्रक्रिया को अपनी तर्जनी पर सुदर्शन चक्र की भांति थामे जन हन्ता व्यवस्था का सतत संहार कर रहे हैं. ये शख्सियतें अपने सरोकारों से कोई समझोता किये बगैर बस तटस्थ भर हो जाएँ तो ऐसा कोई पुरस्कार नहीं जो धनपशुओं की ऊर्जा से चलने बाली सरकारें नाक रगड़ कर इनकी झोली में न डाल दे, मगर इनकी प्रतिबद्धताएं ही इनकी प्राण वायु हैं और इसलिए तमाम अपमानों के बाद भी इन्होने जो रास्ता चुना बह बही रास्ता है जो कभी गांधी, कभी सुभाष और कभी लोहिया चुनते आये हैं,
मगर हमें नहीं भूलना चाहिए की अवतारों से चमत्कृत भारतीय अचेतन में सब्जेक्टिव उपलब्धियां जन उभारों की प्रेरणाएँ नहीं बनती, आप किसी विधा के महारथी हो सकते हैं मगर जरूरी नहीं की आप भीड़ तंत्र के नियामक हो जाएँ, नेहरू और पटेल अनेक सन्दर्भों में गांधी से ज्यादा प्रतिभाशाली थे मगर निर्विवाद सत्य है की देश भर में स्वाधीनता की लहर गांधी ही जगा पाये , वरना कांग्रेस तो गांधी के पहिले भी थी और उनके बाद भी रही, आजाद भारत में गांधी की जगह को नेहरू ने भरा लेकिन नेहरू के बाद की कहानी आपको बताने की जरुरत नहीं, विचारधारा का दंभ भरने बाले भारत के दो समूह तभी थोड़ा बहुत स्वीकार्य हुए जब उन्हें उसी भारतीय अचेतन की परंपरा को समझने बाले नेतृत्व मिले, जबकि उनके पास अपने लाखों कार्यकर्ता थे, समृद्ध बौद्धिक जमातें थीं.
अगर पढ़ने,लिखने,बोलने से दुनिया बदल रही होती तो कबीर या मार्क्स या रजनीश ने उसे कब की बदल दी होती, दुनिया अगर बदली भी तो बेहद समयोचित ढंग से , मैं यह नहीं कह रहा कि इस बदलाव में इन विचारकों का श्रम निष्फल रहा मगर यह जरूर कह रहा हूँ कि इन विचारकों का श्रम जन-जन तक पहुंचाने बाला जनप्रिय नेतृत्व ही इनका पसीना जमीन में बो सका. हमने बचपन से सुना है कि "व्यक्ति ही संस्था है" , जरा बताईये कि कब यह साधारण वक्तव्य गलत साबित हुआ, भगवा पल्टन के पास किस चीज की कमी थी मगर उसे 50 साल लग गए अपनी स्वीकार्यता बनाने में, लेकिन 500 साल भी लग सकते थे अगर उसे अटल विहारी वाजपेयी न मिले होते, अटल के बाद भी मोदी के मिलने तक फिर 10 साल इंतजार करना पड़ा बो भी तब जब उसके पास के. एन. गोविंदाचार्य जैसा सर्वथा असंदिग्ध हिमालय मौजूद था, ज्योति बसु के बाद मजदुर क्रांति फटे बांस सी बजने लगी, अगर तमाम क्षत्रप अपनी सीमाओं में क्षत्रपति नहीं होते तो आज कांग्रेस इतिहास के पन्नो पर कैद हो गयी होती, क्या मायावती के बाद बसपा, मुलायम के बाद सपा , बाल ठाकरे के बाद सेना, नेहरू के बाद कांग्रेस का कोई ठोस बजूद आपकी समझ में आता है ? आज भी जब भी प्रकाश करात की छुट्टी होगी और येचुरी को कमान मिलेगी तब आप यह मत कहियेगा कि लोग बामपंथी होने लगे हैं, दरअसल लोग जैसे हैं बेसे ही हैं बैसे ही थे.....सवाल सिर्फ उस भरोसे का है जो नेतृत्व की ताकत से पैदा होता है, किसी हरामी विचारधारा के झंडे जनता की छाती में येन केन प्रकारेण गाढ़ देने से नहीं.
निश्चित ही योगेन्द्र और प्रशांत की नियत और संवेदनाएं अरविन्द की तुलना में हजारगुना असंदिग्ध हैं लेकिन क्या हजार योगेन्द्र-प्रशांत मिलकर भी बह जन-ज्वार पैदा कर सकते हैं जो लोकतंत्र खासकर भारतीय लोकतंत्र की अपरिहार्य आवश्यकता है . ओमपुरी, नसीर, इरफ़ान ; अमिताभ - सलमान-शाहरुख़ से अनंत प्रतिभाशाली हैं, न सिर्फ कला के तौर पर वरन संवेदनाओं के तल पर भी, लेकिन जनप्रियता में वे इनका मुकाबला कभी नहीं कर सकते..बिलकुल ठीक है की अरविन्द को ज्यादा उदार, लोकतान्त्रिक, सहिष्णु, होना चाहिए मगर क्या आप यह चाहेंगे की तिनका-तिनका जोड़ कर जो कुटिया उसने बनाई है उसे और उसके लक्ष्यों को बह किताबी सिद्धांतों के हबाले करके जीतनराम और मोदी पैदा करता रहे और खुद को नीतीश या आडवाणी बना ले. आप इतनी महानता की अपेक्षा उस आदमी से क्यों कर रहे हैं जिसके समर्थक महाभ्रष्ट, पाखंडी, हिंसक, और उन्मादी भारत में कुछ अलग और नया करने की उसकी छोटी सी कोशिश से ही पर्याप्त खुश हैं, हमें समझना होगा की पार्टी को हजारों योगेन्द्र और प्रशांत मिल सकते हैं मगर अरविन्द दूसरा नहीं मिल सकता , नहीं यह व्यक्तिपूजा नहीं है , यह आज तक के भारत की सार्वभौम हकीकत है. उदारता-व्यापकता-लोकतांत्रिकता अरविन्द को समझाने की बजाय हमारा दायित्व हो कि हम योगेन्द्र और प्रशांत को ये समझाएं कि उनकी भूमिकाएं फिल्म में नायक के अभिनय के लिए नहीं, पटकथा रचने के लिए हैं; और बिना पटकथा के नायक भी अपना अभिनय नहीं कर सकता.........................................@

"अन्ना आंदोलन से लेकर स्वराज संवाद तक" - Yash Sharma



____पठनीय विश्लेषण____
प्रिय मित्र, अन्ना आन्दोलन के जमीनी कार्यकर्ता और गम्भीर सूझ-बूझ वाले युवक साथीYash Sharma जी का यह लेख आप के द्वारा पढ़े जाने की अपेक्षा करता है. लेख थोड़ा लम्बा है. मगर विश्लेषण सही है. इसके निष्कर्ष से आप कितना सहमत होते हैं यह आपका अपना पक्ष होगा. मैं निष्कर्ष के बारे में डॉ. Niraj Jain जी के लेख से सहमत हूँ. उसे मैं पहले ही शेयर कर चुका हूँ. सन्दर्भ के लिये उसका भी लिंक यहाँ प्रस्तुत है. (https://www.facebook.com/dr.nirajjain/posts/980432268651109)

"अन्ना आंदोलन से लेकर स्वराज संवाद तक"
(एक सामान्य अन्ना आंदोलन के वॉलेंटियर का सारे घटनाक्रम पर नजरिया )
दोस्तों मेरा ये लेख अन्ना आंन्दोलन से लेकर आज तक के राजनैतिक घटनाक्रम की एक निष्पक्ष विवेचना है !इस लेख मैं मैंने अपने व्यक्तिगत अंनुभव के आधार पर जो कुछ भी सीखा उसे आपके साथ साझा करने का प्रत्यन किया है ! मेरे अनुभव के निष्कर्ष से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं ये पूणतया आपकी अपनी स्वतंत्रता है !साथ ही इस आंदोलन की अंदरूनी राजनीति के प्रत्ति मेरा ज्ञान उतना ही है जितना की एक सामन्य कार्यकरता का ! अतः इस विवेचना के द्वारा किसी निष्कर्ष पर आने से पहले आप कृपया मेरी सीमाओ का भी ध्यान रखे !
बात आज से लगभग चार साल पहले की है जब अन्ना जी ५ अप्रैल २०११ को भ्रस्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग को लेकर जंतर मंतर पर आमरण अनशन के लिए बैठे ! पूरा देश अन्ना जी के आवाहन पर उठ खड़ा हुआ ! लेकिन इस आंदोलन को पूरी तरह समझने से पहले यह समझना जरुरी है की इस आंदोलन को सक्रिय रूप से सपोर्ट करने वाले कौन लोग थे! इस बात को ध्यान में रखना जरुरी है !
१.पहले थे देश का वो पड़ा लिखा युवा वर्ग जो अन्ना आंदोलन से पहले किसी भी तरह की सक्रिय राजनीति से सम्बन्ध नही रखता था !
२.दुसरे स्थान पर थे वो लोग जो एक प्लेटफार्म की तलाश कर रहे थे जिनमे नेतागीरी के जन्मजात कीटाणु उपस्थित थे तथा जिन्हे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक प्लेटफार्म की आवश्यकता थी !
३. तीसरे और एक बड़े वर्ग में वो लोग थे जिनकी राजनीति कांग्रेस विरोधी थी जिन्हे कांग्रेस को कमजोर करने के लिए ये आंदोलन एक अच्छा मौका लगा !
तीसरे वर्ग के लोगों ने सोचा की वो इस आंदोलन की भ्रस्टाचार विरोधी छवि को बदलकर कांग्रेस विरोधी आंदोलन में बदल देंगे और राजनीतिक लाभ लेंगे ! ये वही लोग थे जिन्हे अपने अपने राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए आंदोलनों को भटकाने में maharat हासिल है !समय साक्षी है की जिस तरह इन्होने जयप्रकाश नारायण के समय बेरोजगारी हटाओ के नारे को कांग्रेस हटाओ और इंद्रा हटाओ के नारे में बदला और अपने राजनैतिक महत्व को कुछ हद तक साधने में कामयाब भी रहे ! परन्तु इस बार ये लोग अपनी मंशा में कामयाब नहीं रहे इसका बहुत बड़ा कारण यहाँ ये रहा की जयप्रकाश नारायण के समय कांग्रेस एकमात्र बड़ी पार्टी हुआ करती थी स्वभावतया सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ उस समय एक लहर पैदा करना कोई मुश्किल काम नहीं था !परन्तु अन्ना आंदोलन के समय तक लोग लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों को आजमा चुके थे अतयः लोगों को ये समझ आ चुका था की कोई सकारात्मक परिवर्तन सिर्फ़ राजनीतिक विकल्पों को बदलने से संभव नहीं है अपितु इसके लिए वर्तमान राजनीति में बदलाव करना पड़ेगा !
जब ये कांग्रेस विरोधी धड़ा इस आंदोलन को पूरी तरह अपने पक्ष में बदलने में कामयाब नहीं हुआ तथा इस आंदोलन से उसकी राजनीतिक जमीन भी खिसकने लगी तो इस आंदोलन को एकमत से सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों द्वारा कुचलने के प्रयास होने लगे !परन्तु इस प्रयास में ये धड़ा कामयाब नहीं हो पाया क्यूंकि इस आंदोलन के समर्थित लोगों की संख्या उनकी अपेक्षा से कहीं अधिक निकली !
फिर जैसा की सब लोग जानते हैं वैचारिक भिन्नता के कारण ये आंदोलन दो धड़ो में टूट गया !इनमे से एक धड़े ने अपनी मांगो को लेकर सक्रीय राजनीति मैं जाने का फैसला किया तथा दुसरे धड़े ने आंदोलनात्मक राजनीति के द्वारा जन दवाव के निर्माण से अपनी मांगों को आगे बढ़ाने का प्रयास करने का निर्णय किया !इस परिपेक्ष में दो नए बैनरों का जनम हुआ !
१ आम आदमी पार्टी
२ जनतंत्र मोर्चा
ये समय मेरे जैसे वॉलेंटियर्स के लिए कश्मकश भरा रहा ! एक तो राजनीति में अनुभव का अभाव और समझ की कमी तथा दूसरी ओर युवा अवस्था का एक नैसर्गिक जोश हमे कुछ निर्णय नहीं लेने दे रहा था ! मैंने अपने एक दो साथियों के साथ मंत्रणा की तथा ये निर्णय लिया गया की कुछ दिन परिस्थितयों को देखकर फिर निर्णय किया जाए !
कुछ दिन उठा पटक चलने के बाद जब हमने देखा बहुत से महत्वकांशी लोगों के द्वारा राजनीतिक पार्टी के बनते ही उसमे शामिल होने की होड सी लग गई है तो हमने किसी अनहोनी की सम्भावना के चलते उस परिपेक्ष में सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए थोड़ा और इन्तजार करने का निर्णय किया तथा गैर राजनीतिक रूप से आम आदमी पार्टी की अपेक्षा जनतंत्र मोर्चा के अंतर्गत जन लोकपाल की मुहीम को आगे बढ़ाने का निर्णय किया !
जो लोग आम आदमी पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और स्वराज न होने का दावा करते हैं उन्हें यह जानकार आश्चर्य होगा की जनतंत्र मोर्चा जैसे जन आंदोलन के नेतृत्व का दावा करने वाले संगठन की स्थिति और भी खराब थी !इसका अंदाजा मुझे तब हुआ जब अन्ना जी के आंदोलन का पूर्णतया राजनैतिक रूप से इस्तेमाल हुआ ! किस लोकपाल को पास कराने हम निकले और कोनसा लोकपाल पास हुआ ! इसका कब और कैसे निर्णय हुआ की लोकपाल बिल के किस ड्राफ्ट पर अन्ना जी को सहमत होना है और कब आंदोलन समाप्त करना है इसके बारे में मेरे जैसे वॉलेंटियर्स की कोई जानकारी नहीं थी ! किसी भी निर्णय के बारे में हमारी राय तक नहीं पूछी गई ! जब लोकपाल बिल संसद में पेश हो रहा था तब मैं और मेरी टीम के कुछ साथी राजिस्थान के एक छोटे से जिले अलवर में अन्ना जी के समर्थन में धरना दे रहे थे ! मुझे अंत तक यही उम्मीद थी शायद अन्ना जी लोकपाल बिल के सन्दर्भ में अपने आंदोलन को समाप्त करने से पहले हमसे अपनी राय पूछेंगे ! पर जब सरकारी लोकपाल बिल संसद में पास हुआ और अन्ना जी ने अपनी सहमति उस बिल के समर्थन में जताई तब मेरा ये भ्रम जाता रहा ! साथियों के द्वारा विजय जुलूस निकालने का निर्णय किया गया पर मेरी मनः स्थिति विचित्र थी !मुझे समझ नहीं आया की खुश हुआ जाए की रोया जाए ! मैंने अपने साथियों से अपने मन की बात कही की मैं इस लोकपाल से खुश नहीं हूँ वो भी मेरी बात से सहमत दिखे ! मैं अपने मित्रों के प्रेम के कारण जुलूस में शामिल तो हुआ पर मैंने कोई सफलता के नारे नहीं लगाये मन में अजीब कश्मकश जारी थी !
इस नाटकीय घटनाक्रम से पहले आम आदमी पार्टी दिल्ही में २८ सीट जीत कर भारत की राष्ट्रीय राजनीति में उथल पुथल मचा चुकी थी ! मैंने मेरे साथियों के साथ मंत्रणा की तथा कहा की अन्ना जी के इस जनतंत्र मोर्चा के अंतर्गत हमे इस आंदोलन को समाप्तः करने के लिए राजनीतिक मोहोरों के रूप में इस्तेमाल किया गया है हमे इस झांसे में आये बिना इस लोकपाल बिल का विरोध करना चाहीये तथा जन लोकपाल की अपनी लड़ाई को जारी रखना चाइये ! मेरे कुछ साथियो ने मेरी बात का समर्थन किया !परन्तु मेरी बात पूरणतया तब सही सिद्ध हुई जब श्री जर्नल बी .के सिंह और श्रीमती किरण बेदी ने लोकसभा चुनाव में खुलकर बीजेपी का समर्थन करने का ऐलान किया !उस वक्त में इस राजनीति के कुछ दांवपेंचों से वाकिफ हुआ जो की निम्नलिखित हैं -
१.किसी आंदोलन की हत्या करने के दो ही तरीके है ,पहला तो ताकत द्वारा दमनपूर्वक आंदोलन को कुचला जाना और दूसरा उस आंदोलन के लोगों को झूटी सफलता की चादर उड़ा कर एक झूटी सफलता की घोषणा करवा देना तथा आंदोलन के पुरोधाओं को झूटी सफलता के चने के झाड़ पर चढ़ा देना जिससे उनके अभिमान का पोषण होए और आंदोलनकारी अभीमान,सम्मान और गर्व के नशे में चूर अपने मूल लक्ष्य को भूल जाए ! अन्ना जी पर ये दूसरा प्रयोग किया गया !इसमे कुछ हद तक षड्यंत्रकारी सफल भी रहे पर इसका कारण अभीमान नहीं अपितु अन्ना जी की राजनीतिक अपरिपक्वता रही !पर आंदोलन के सामान्य वॉलेंटियर्स पर ये प्रयोग काफी हद तक सफल रहा !
२.दूसरा सबक मैंने ये सीखा की देशभक्ति , सच्चाई और कर्मठता किन्ही बड़े नामो की मोहताज नहीं ! किरण बेदी जी और जर्नल बी .के सिंह का महत्वकांशी हो बीजेपी में शामिल हो जाना इस बात का एक उम्दा सबूत है !
अब इस आंदोलन के दुसरे धड़े यानी आम आदमी पार्टी की इस आंदोलन में सहभागिता को मेरी दृस्टि के आधार पर, तथा ''आप" के साथ मेरे अनुभवों को आपको दिखाने का प्रयास मैंने यहाँ किया है ! पूरी स्थिति को समझने के लिए "आप" के उद्गम से लेकर अब तक के पूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम को जानना यहाँ पर बहुत आवश्यक है !जब आम आदमी पार्टी बनी तो मैंने और मेरी पूरी टीम ने पार्टी के अंदरूनी राजनीतिक घटना क्रम से दूर रहते हुए पार्टी के विभिन्न जन कल्याण के इश्यूज पर बहार रहते हुए भी आप का समर्थन करने का फैसला किया तथा पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र पर नजर रखने का निर्णय किया !श्री अरविन्द केजरीवाल को राष्ट्रीय संजोयक चुना गया तथा आप पार्टी का संविधान लिखा गया !सम्विधान हम सभी को बहुत पसंद आया!संविधान के आधार पर आंतरिक लोकपाल,पि. ऐ. सी ,नेशनल एक्सिक्यूटिव ,नेशनल कौंसिल ,और इंटरनल लोकपाल का गठन किया गया !फिर राज्य ,जिला और ग्राम सत्तर पर आप की इकाइयों का गठन होंने लगा !
हमे उम्मीद थी की जिस decenterlization और पीपल empovernment के उद्देश्यों को लेकर आप आगे बढ़ रही है वो अपने मूल सिधान्तो पर कुछ साल तो अडिग रहेगी इसी के साथ ये उम्मीद भी थी ये पार्टी और पार्टियों की तरह स्वार्थ लोलुपता और राजनैतिक पार्टियों के स्वार्थ लोलुपता और compromizing नेचर आदि हथकंडो से दूर रहेगी !परन्तु पार्टी बनते ही धीरे धीरे राजनैतिक पार्टियो की सारी कमिया इस पार्टी को भी प्रभावित करने लगी !ईमानदारी की जगह stratigy ने ले ली !
decenrilization का दावा करने वाली पार्टी की पहला स्वार्थ गत निर्णय यह था आप ने पहला चुनाव देश की बजाय दिल्ही में लड़ने का फैसला लिया!
मेरी दृस्टि में आप के इस फैसले के पीछे स्ट्रैटिजी यह थी की दिल्ही में अगर हम जीतते हैं तो लोगों के बीच हम शक्ति प्रदर्शित करने में हम कामयाब रहेंगे और चुकी शक्तिमान का समर्थन करने में एक आम नागरिक के अभिमान को बल मिलता है और गर्व की अनुभूति होती है इस प्रकार हम अधिक से अधिक लोगों को अपनी पार्टी की तरफ आकर्षित करने में कामयाब रहेंगे और देश की राष्ट्रीय राजनीति में जल्द ही बड़ी घुसपैठ करने में कामयाब होंगे ! अब यहाँ पे ये प्रशन उठता है की क्या ये वोही नयी प्रकार की राजनीति है जिसका दावा आम आदमी पार्टी कर रही थी या फिर जल्दी सफलता प्राप्त करने के नुस्खे आप में अजमाए जा रहे थे !
दूसरा स्वार्थगत निर्णय आप का यह था की पहले दिल्ही विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए आपने देश की राष्ट्रीय राजनीति के प्रश्नो से बचने का प्रयत्न किया ! आपने श्री नरेन्द्र मोदी से सीधी टक्कर लेने से बचने का प्रयास किया क्यूंकि इससे आपको दिल्ही चुनावो में नुक्सान का खतरा रहा होगा !इसका नुक्सान ये हुआ की आपने देश में उत्पन हुई भ्रस्टाचार के विरुद्ध ऊर्जा को बढ़ने के मौका छीन लिया और उस ऊर्जा को दिल्ही में सेंट्रलाइज्ड कर दिया और नरेंद्र मोदी और बीजेपी को पोलिटिकल स्पेस प्रोवाइड करा दिया ! जिससे बीजेपी भारत की राजनीती में कांग्रेस मुक्त भारत नारे को फ़ैलाने और आंदोलन से उपजे भ्रस्टाचार मुक्त भारत के अभियान को पीछे धकेलने में कामयाब रही !अगर आप ऐसा नहीं करती तो २०१५ के लोकसभा चुनावो में आप की इतनी बड़ी हार और बीजेपी की इतनी बड़ी जीत नहीं हो सकती थी क्यूंकि जब आम आदमी पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति में आने का फैसला किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी बीजेपी अपनी मंशा में कामयाब हो चुकी थी ! किसी विकल्प के नहीं रहते भारत की जनता के मानस को झूठे प्रचार और विज्ञापनों द्वारा बीजेपी बरगलाने में कामयाब रही और एक सबल विपक्ष के अभाव में भारत की जनता ने बीजेपी को चुनने का निर्णय किया !मैंने और हमारी टीम ने इस वक़्त हथियार न डालते हुए इन बड़ी ताखतो से लड़ने का प्रयास किया तथा राजस्थान के २०१४ के विधान सभा चुनावो में नोटा (नो ऑप्शन) वोट का प्रचार कर बीजेपी को कुछ हद तक रोकने का प्रयास किया परन्तु हमारे प्रयास सिर्फ इतने ही थे जितना की "ऊट के मूह में जीरा" !
इसी के साथ आम आदमी पार्टी ने पहले दिल्ही विधानसभा चुनावो में भी स्वार्थ को ईमानदारी से ऊपर रखा ! टिकिट बटवारे के समय भी आम आदमी पार्टी में कुछ स्थानो पर ईमानदारी के ऊपर पॉपुलर्टी और जिताऊ कैंडिडेट्स को जयादा महत्व दिया गया ! ज्यादातर निर्णय पि ऐ सी में लिए गए तथा नेशनल एक्सिक्यूटिव ,नेशनल कौंसिल और वॉलेंटियर्स की राय को जयादा महत्त्व नहीं दिया गया !
परन्तु इन सभी गलतियों और महत्वकांशा के अंतर्गत लिए गए निर्णयों के चलते हुए भी आप उस वक्त तक मेरी फेवरट पार्टियों में से एक थी उसके कई कारण थे मुख्यतः चंदे में पारदर्शिता , इंटरनल लोकपाल , सभी विचारधारा के लोगों का अद्भुत समागम , कर्मठ और बुद्धिमान युवा कार्यकर्ता ,नए विचार ,नई ऊर्जा और आंदोलन के साथियो के चलते इस पार्टी से भावनात्मक जुड़ाव आदि प्रमुख कारण थे !
इन सभी अच्छाइयों के चलते आप को २८ सीट दिल्ही विधानसभा के पहले चुनावो में मिली ! उस समय हम जनतंत्र मोर्चा की असफलता से निराश थे और एक सही दिशा में आंदोलन को आगे बढ़ाने को तत्पर थे ! आप की इस सफलता ने हमे भी एक नयी उम्मीद बंधा दी ! हममे यह उम्मीद जगी की आप को वैकल्पिक राजनीति के एक हथियार के रूप में इस्तिमाल किया जा सकता है ! यह भी हमे ज्ञात हो चुका था की आप की सफलता से घबराकर और आंदोलन को खत्म करने के उद्देश्य से ही लोकपाल क़ानून को संसद में पास किया गया है जो की एक राजनैतिक चाल है ! खैर हममे से कुछ लोगो ने आप के अंदर जाकर आप में आंतरिक लोकतंत्र और स्वराज को मजबूती प्रदान करने तथा इस पार्टी को स्वार्थ लोलुप लोगो से बचाने का निर्णय किया !पर उस वक़्त तक श्री अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस के बाहरी सपोर्ट से सरकार बना ली थी और मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली थी !जब हमने पार्टी की जिला कार्यकारणी में शामिल होने तथा अपनी बात रखने की कोशिश की तब हमे पता लगा की हमने शायद बहुत देर कर दी थी !पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की भारी कमी थी !सारे निर्णय दिल्ही से होने लगे थे ,कॉमन वॉलेंटियर्स की जगह जिला सयोंजक , सचिव , मीडिआ प्रभारी आदि पदो ने ले ली थी ! अब वॉलेंटियर्स अपने देश सेवा और भ्रस्टाचार विरोधी कामो के लिए आम आदमी पार्टी का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे जैसा की इंडिया अगेंस्ट करप्शन के समय में होता था बल्कि पार्टी आदेश करती थी और वॉलेंटियर्स को आदेशो का पालन करना होता था !सारे स्वार्थी लोगों में आप ज्वाइन करने की एक होड सी मच गई थी !बहुत सारे अच्छे लोग भी थे परन्तु ये बात पक्की थी की हमारे लिए इस पार्टी की निर्णय प्रक्रिया में शामिल होने और इस पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और आंतरिक स्वराज को मजबूत करने का अब कोई तरिका नहीं था !क्यूंकि जो लोग पदो में बैठे हुए थे वो अपने हाथ की पावर को decentrilized करने को ही तैयार नहीं थे ! श्री अरविन्द केजरीवाल की लिखी किताब स्वराज के ज्ञान को वो अपनी ही पार्टी के अंदर लागू करने में ही असमर्थ रहे ! मुझे याद आ रहा था केजरीवाल की किताब स्वराज के मुख्य पृष्ठ पर बना वो कार्टून जिसमे एक आम आदमी एक नेता से यह कह रहा है की मुझे विकास नहीं सत्ता में भागीदारी चाहिए विकास मैं खुद कर लूंगा !फिर भी उस वक़्त की परिस्थिति को देखते हुए हमने उस समय जयादा विरोध न करने का फैसला किया !क्यूंकि हमे पता था की अभी अगर हमने आवाज बुलंद करी तो हमे स्वार्थी और मौकापरस्त न जाने कैसे कैसे विशेषणों से सम्बोधित किया जाएगा तथा हमारे पास सत्ता के मद में चूर इन लोगों को समझाने का कोई उपाये भी नहीं दिख रहा था !मजबूरीवश हमने उस वक़्त आप की जिला वॉलेंटियर्स comette में शामिल होने का इरादा छोड़े दिया और कुछ और इन्तजार करने तथा अपनी लड़ाई व्यक्ति गत और अपनी टीम के साथ जारी रखने का निर्णय किया !
फिर उसके बाद राजनैतिक घटनाक्रम तेजी से बदला !केजरीवाल का इस्तीफा और लोकसभा चुनाव में ज्यादा से जयादा सीटो पर चुनाव लड़ने का फैसला हुआ !मेरे विचार में ये दोनों ही फैसले सही थे !
इस्तीफे का फैसला इसलिए सही था क्यूंकि २८ सीटो के साथ और आगे बढ़ने की संभावना मुझे भी अब नहीं दिख रही थी इस्तीफा देना ही एकमात्र विकल्प था !
जयादा से जयादा सीटो पर चुनाव लड़ने का फैसला इसलिए सही था क्यूंकि एक तो इससे देश के सभी झुजारु लोगो को ये चुनाव एक प्लेटफॉर्म पर लाकर खड़ा कर सकता था जिससे आंदोलन की शक्ति बढ़ती तथा और भी नए क्रांतिकारी सोच रखने वाले आंदोलनकारी एक प्लेटफॉर्म पर इकट्ठा होंगे जो की power decentrilization के लिए बहुत ही जरुरी बात थी साथ ही मुझे ये भी पता था आम आदमी पार्टी इस चुनाव में जयादा सीट नहीं जीत पाएगी क्युकी एक तो राष्ट्रीय राजनीति में आने में काफी देर कर दी है और लोग बीजेपी को वोट देने का मन बना चुके हैं!परन्तु लोकसभा चुनाव में इस समय हार का एक सकारात्मक परिणाम ये होगा की स्वार्थी और ईमानदार वॉलंटियर्स के बीच छटनी हो जायेगी जिससे ईमानदार लोगों की बात शायद इस पार्टी में सुनी जाए और हम वैकल्पिक राजनीति की दिशा में इस पार्टी को ले जा सके ! ये सब सोचते हुए हुए हमने एक निश्चित दूरी रखते हुए पार्टी से थोड़ा बहुत जुड़ाव रखने साथ ही साथ लोकसभा चुनाव २०१४ में आप का प्रचार न करने परन्तु आप को ही वोट देने का निर्णय किया !
प्रकृति अपना संतुलन खुद बना लेती है ! लोकसभा चुनाव के परिणामो के बाद जो तस्वीर पेश हुई वो हमे पहले से ही मालुम थी !असल में आप की हार इतनी बड़ी नहीं थी जितना की स्वार्थी लोगो के पलायन ने उसे बना दिया !एकदम से भीड़ हटने लगी !जो लोग तारीफों के पुल बांधा करते थे वो ही लोग उपहास करने लगे !ये सब हमे पहले से ही मालूम था !लोगों को लग रहा था आप हार गई पर जिसमे थोड़ी सी भी दूर दृस्टि थी वो वो ये देख सकता था की ये वास्तव में कोई हार नहीं थी !४०० सीटो पर लोकसभा चुनाव लड़ने से बहुत फायदे हुए थे जिनमे मुख्यतः पंजाब में आप की मजबूत पकड़ बनना ,मेधा पाठकर,सोनी सोढ़ी , मीरा सान्याल ,आशीष खेतान तथा और भी बहुत से नए चेहरों का इस पार्टी से जुड़ाव ,१ करोड़ से अधिक लोगों का जन समर्थन जैसे कई सकारात्मक परिणाम इस पार्टी को मिले थे जिससे वैकल्पिक राजनीति में आम आदमी पार्टी का दावा और भी मजबूत हुआ था ! हां एक दुष्परिणाम जरूर हुआ था ,दिल्ही में आम आदमी पार्टी की थोड़ी जमीन खिसकी थी ऐसा भी हो सकता था की बीजेपी अनफेयर मीन्स का इस्तेमाल करे और पैसे और बिकाऊ मीडिया की कुप्रचार की ताकत के दम पर आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की छवि को काफी नुक्सान कर सकती थी !वो विधायक जिन्हे जिताऊ समझकर आप ने पहले टिकट दे दिया था उनकी महत्वकांशा अब सामने आने लगी थी !वो अब आम आदमी पार्टी को छोड़कर बीजेपी में जाने को तत्पर दिखाई देने लगे थे !हो सकता था रातो रात सफलता प्राप्त करने वाली पार्टी के पुरोधा श्री अरविन्द केजरीवाल जी को जो चुनाव के समय जब उनसे पुछा जाता था की, अगर आप नहीं जीते तो क्या होगा, तो वो अक्सर कहा करते थे की ये हमको थोड़ी सोचना है की ये तो आपको सोचना है की अगर हम नहीं जीते तो आपके बच्चों के भविष्य का क्या होगा, को अपने भविष्य का डर सताने लगा था !उनको पता था की अगर विधायक टूटते है तो जनता को जवाव देना मुश्किल हो जाएगा !ये बात महत्वकंशियों को टिकट देने से पहले कौन सोचता है शायद ईमानदारी के पुजारी और त्याग के देवता श्री अरविन्द केजरीवाल ने भी नहीं सोची होगी !हार बुद्धिमान लोगों के लिए आइना होती है जिसमे वो अपनी गलतियों को देख लेते हैं !ऐसे वक़्त में करना ये था की अपनी गलतियों को जानकार वापिस अपने मूल सिधान्तो पर लौट आना जो मत्वकांशी लोग अलग होते हैं उन्हें अलग होने देना तथा अपने नए साथियो के साथ ,जो चुनाव के दौरान जुड़े थे ,को एकत्रित करना एवं वापिस आंदोलन में कूद पड़ना परन्तु हुआ एकदम इसका उल्टा ! आम आदमी पार्टी अपने मूल सिद्धांतों से और भी अधिक भटक गई !
लोग उपहास कर रहे थे परन्तु हमारे अंदर तो एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ था !इस पार्टी को वैकल्पिक राजनीति का एक नया हथियार बनाया इस पर हमारा एक नया मंथन चल ही रहा था की कुछ घटनाओ ने हमारे सारे सपनो को तितर बितर कर दिया!
पता लगा की आप ने कांग्रेस से समर्थन माँगा है सरकार बनाने के लिए तथा राज्यपाल महोदय को पत्र लिखकर जताया की हम सरकार बनाने की सम्भावना तलाश रहे हैं !फिर योगेन्द्र यादव का इस्तीफा और केजरीवाल की हिटलरशाही के खिलाफ पत्र उसके बाद मनीष सिसोदिया का नवीन जय हिन्द के समर्थन में योगेन्द्र यादव के खिलाफ बयानबाजी !शांतिभूषण और केजरीवाल के बीच मनभेद की खबरे इतियादी !
समझने के लिए काफी था की ये आम आदमी पार्टी के पुरोधा अपनी हार को पचा नहीं पाये हैं !और फिर जिस तरह से २०१५ के विधानसभा चुनाव लड़े गए उससे न सिर्फ भ्रस्टाचार विरोधी इस आंदोलन को क्षति हुई बल्कि सिर्फ महत्वकांशी लोगों का उदय हुआ !पूरी तरह से decentralization के मुद्दे को भूलकर एक व्यक्ति की लोकप्रियता को भुनाने के लिए चुनाव में सिर्फ उसी के नाम के नारे लगवाए गए तथा चुनाव जीतने के लिए हर प्रकार के compromises किये गए !
एक बार श्री मनीष सिसोदिया को ये कहते सुना था की हम राजनीति को बदलने आये हैं !उनके अनुसार ""आप ""जीते या हारे पर आप की ईमानदार राजनीति से डरकर मुख्य धड़े की पार्टियां आप का अनुसरण करेंगी और वैकल्पिक राजनीति का जनम होगा !परन्तु २०१५ के दिल्ही विधानसभा चुनाव में '"पाँचसाल केजरीवाल"""पाँचसाल केजरीवाल "के नारे और "हर हर मोदी ,घर घर मोदी "के नारो में एक समानता ये लगी की दोनों ही नारे व्यक्तिवादी सोच का नतीजा थे !इससे एक बात सुस्पष्ट हो गई थी की दूसरी पार्टियों का तो पता नहीं परन्तु हम दूसरी पार्टियो से सीखने लगे थे !
इन सभी घटनाक्रम और आम आदमी पार्टी के प्रचार के तरीको को देखकर प्रसिद राजनीती शास्त्री श्री पंडित दीनदयाल के उन शब्दों की याद आने लगी थी जिसमे उन्होंने एक सही राजनीति का अर्थ बताया था लोकमत का परिष्कार करना न की लोकलुभावन वादे करके लोकमत के अनुसार चलना !
आम आदमी पार्टी के पुरोधाओं को ये समझना होगा की लोकमत के अनुसार चलकर सत्ता प्राप्त करना शायद बहुत आसान है परन्तु राजनीति को बदलना बहुत मुश्किल है क्यूंकि राजनीति को बदलने के लिए आपको लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाना पड़ता है जो की सतत संघर्ष से ही संभव है न की रातो रात नारे लगा कर चुनाव जीतने से कोई परिवर्तन होने वाला है !आज भी लोकसत्ता जैसी कई पार्टिया है जो सतत संघर्ष के चलते हुए भी एक या दो सीट से आगे नहीं बाद पाई हैं परन्तु वैकल्पिक राजनीति की दिशा में उनका प्रयास सहरानीय है क्यूंकि बहुत से लोगों की राजनीतिक समझ को उन्होंने अपने सतत संघर्ष के दवारा परिपकव किया है !
इन सभी बातो को समझते हुए भी मैंने २०१५ के विधानसभा चुनावो में आप का विरोध नहीं किया क्यूंकि मैं एक विश्लेषक के तौर पर लोकपाल बिल और स्वराज बिल को प्रैक्टिकली इम्प्लीमेंट होते हुए देखना चाहता था !
अब चुकी २०१५ के दिल्ही विधानसभा चुनावो में आप को ६७ सीट मिली हैं इस तथाकथित सफलता का विश्लेषण बहुत जरुरी है तथा इस जीत के बाद के घटनाक्रम को पार्टी के अंदरुनी लोकतंत्र के परिपेक्ष में समझना और विश्लेषण करना भी मैं बहुत आवश्यक समझता हूँ !
सबसे पहले तो किसी भी बड़ी जीत का मतलब ये नहीं समझना चाइए की इससे देश की वर्तमान राजनीति में कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी बदलाव होने जा रहा है इसके लिए जीत के साथ साथ ही और भी परिपेक्ष में इस जीत को देखा जाना बहुत जरुरी है ! चुकी इस जीत के लिए आम आदमी पार्टी ने अपनी मूल भावना से खिलवाड़ किया है तथा अपनी जीत की के लिए सतत संघर्ष की अपेक्षा उकसाने की राजनीति करी है,विज्ञापनों के द्वारा लोगो के जनमानस पर अपनी छाप छोड़कर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है !ऐसी राजनीति तो कांग्रेस और बीजेपी सालो पहले से करती आई हैं और उन्होंने बहुत आपार सफलता भी पाई है !परन्तु उससे देश के जनमानस की चेतना में बहुत वृद्धि हुई है ये बात सरासर गलत है ! परन्तु ये पार्टी जन लोकपाल और स्वराज जैसे बिलों को पास करने और देश में लोकतंत्र को एक नए आयाम तक पहुचाने के सपने को लेकर आगे बढ़ी है मुझे लगता है की ये बड़ी जीत इस पार्टी के लिए हानिकारक सिद्ध होगी क्युकि स्वराज और जन लोकपाल बिल की सफलती सिर्फ उनको पास कर देने पर ही नहीं जन भागीदारी पर भी बहुत कुछ डिपेंडेंट है ! परन्तु चुकी बिना जन संघर्ष के पाई गयी ये सफलता जन चेतना में कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पाई है अपितु इस राजनीति से जन चेतना में सिर्फ गिरावट ही आई है ऐसी स्थिति में दिल्ही का सामान्य जन इस नवीन प्रयोग को स्वीकार भी कर पायेगा भी की नहीं ये कहना भी मुश्किल है ! ऐसी स्थिति में स्वराज और लोकतंत्र के इस नयी पहल की विफलता वैकल्पिक राजनीति के इस नए प्रयोग की आत्मा को ही हिला कर रख सकती है! ऐसी स्थिति में इस आंदोलन को बचाए रखने के लिए सक्रिय राजनीति को छोड़कर फिर से आंदोलन में कूदने के आलावा कोई और विकल्प नहीं रह जाएगा ! परन्तु आम आदमी पार्टी के सत्ता लोलुप नेताओ से ये अपेक्षा करनी अब बहुत बड़ी बेमानी है !अतः इस पार्टी का दो धड़ो में टूट जाना अब अवश्यम्भावी है जिसकी की शुरुवात अरविन्द केजरीवाल खेमे और योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषन खेमे के अलग हो जाने से हो चुकी है !
अब हाल ही के घटना क्रम पर नज़र डालते हैं जिसमे श्री योगेन्द्र यादव और श्री प्रशांत भूषन को गैर लोकतान्त्रिक तरीके से पहले पोलिटिकल अफेयर कमिटी और फिर नेशनल एग्जीक्यूटिव और नेशनल कौंसिल से निकाला गया !उसके बाद श्री अरविंद केजरीवाल जी के नेशनल कौंसिल मीटिंग के भाषण का edited verson लांच हुआ जिसमे उन्होंने बताया की किस प्रकार प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने २०१५ क विधानसभा चुनावो में आप को हराने की कोशिश की तथा वो पार्टी विरोधी गतिविधिओं में संलिप्त पाये गए !
एक बार मैंने जब आम आदमी पार्टी को बने हुए जयादा दिन नहीं हुए थे तब अरविन्द केजरीवाल जी को कहते हुए सुना था की पार्टी इम्पोर्टेन्ट नहीं है देश इम्पोर्टेन्ट है !पार्टी तो सिर्फ एक जरिया है देश की राजनीति में परिवर्तन लाने का !अब ये बात शायद किसी ने नहीं उठाई की योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषन जो बाते उठा रहे हैं वो पार्टी विरोधी हो सकती हैं , लेकिन क्या वो देश विरोधी हैं ?शायद नहीं !फिर उन्हें पार्टी से क्यों निकला गया ?शायद इसलिए क्यूंकि अब आम आदमी पार्टी में बैठे लोगों को जीतना जयादा इम्पोर्टेन्ट मालुम पड़ता है , देश ,समाज ,नैतिकता ,आत्मा ,आदर्श ,सिद्धांत ये सब बेकार की बाते मालुम होती हैं!
अब चुकी ये पार्टी दो धड़ो में टूट चुकी है !मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं की राजनीति को जड़ से बदल देने का दावा करने वाली ये पार्टी, जो वैकल्पिक राजनीति का दावा करती थी, इसके सभी ईमानदार क्रांतिकरी युवा वॉलेंटियर्स और साथ में विदेशो में आप के समर्थक भारतीय मूल के लोग भी धीरे - धीरे ये समझ रहे होगे , की ये पार्टी अब वैकल्पिक राजनीति का हथियार बनने की अपेक्षा विकल्प की राजनीति का ही हिस्सा बनती जा रही है ! ऐसी स्थिति में सभी जागरूक लोग धीरे- धीरे योगेन्द्र और प्रशांत भूषन के साथ खड़े होने लगेंगे ! इसका सबसे विकट परिणाम ये होगा की विदेश में रहने वाले भारतीय ,जो इस पार्टी के डोनेशन का बहुत बड़ा सोर्स हैं, आप को डोनेशन देना बंद कर देंगे ! ऐसी स्थिति में पूरे देश में चुंनाव लडने के लिए ईमानदारी से चंदा जुटाना आप के लिए बहुत मुश्किल होगा ! परंतु मुझे लगता है सत्ता लोलुपता के वशीभूत आप के नेता ऐसे वक़्त में अपनी महत्व की आकांशा को सिद्ध करने के लिए अनफेयर मीन्स से चंदा जुटाने में भी शायद गुरेज नहीं करेंगे !परिणामतः आने वाला समय इस पार्टी में थोड़ी सी बची नैतिकता की अर्थी को भी शमशानघाट पहुँचाने वाला सिद्ध होगा !
ऐसी स्थिति में इस आंदोलन की आत्मा को बचाए रखने का सारा दारोमदार योगेन्द्र और प्रशांत भूषन धड़े का होगा !पर एक बात मुझे स्पष्ट दिखाई देने लगी है की इस आंदोलन के ईमानदार वॉलेंटियर्स को इस आंदोलन की आत्मा को बचाए रखने के लिए कांग्रेस ,बीजेपी के साथ अब एक नए दुश्मन से भी सामना करना पड़ सकता है , और वो नया दुश्मन है "आम आदमी पार्टी" या फिर यूं कहे की" अरविन्द आदमी पार्टी "!
वैसे में प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव की सत्यता और मंशा को अपने घर बैठे बैठे प्रामाणिक नहीं कर सकता परन्तु एक बात स्पष्ट है की अरविन्द केजरीवाल धड़े से अब मुझे कोई अपेक्षा नहीं है जबकि विरोधी धड़े से कुछ आशा जरूर है क्यूंकि उन्होने अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को छोड़कर सत्य के साथ और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत तो की है!
अब तो मुझे बस इन्तजार है १४ अप्रैल को होने वाली मीटिंग का जिसे" स्वराज संवाद" नाम दिया जा रहा है ! चुकी में इस आंदोलन का शुरू से हिस्सा रह चूका हूँ अतः में साक्षी हूँ उस जूनून का जो अन्ना आंदोलन के वक़्त दिखाई पड़ा था , में साक्षी हूँ उस युवा जोश का जो देश की राजनीति को बदल कर रख देने का साहस रखता था ! अब बस देखना यह है की इस आंदोलन के वॉलंटियर्स में अभी भी वही जोश वही जज्बा दिखाई देता है या फिर इस राजनीति की रस मलाई ने स्वराज की भूख को मार तो नहीं दिया! कुछ भी हो पर मै भी जरूर रहना चाहता हूँ इस ऐतहासिक संघर्ष का गवाह ! अतः मैं भी आ रहा हूँ इस स्वराज संवाद में और आशा करता हूं आप सबसे अब वही मुलाक़ात होगी क्युकी हम सभी जानते हैं की हमारी लड़ाई अभी थमी नहीं है लड़ाई अभी जारी है ,मेरे दोस्तों, लड़ाई अभी जारी है !

रुक जाना नहीं तू कभी हार के
कांटो पे चलके मिलेंगे साये बहार के
written by
yash sharma
(volenteer since anna movement up to now )

https://www.facebook.com/groups/yashsharma5feb/permalink/761995660582539/?__mref=message_bubble

खेती करके वह पाप कर रहे हैं क्या? — क़मर वहीद नक़वी



हर आधे घंटे में भारत की जीडीपी में क़रीब साढ़े छह अरब रुपये जुड़ जाते हैं और हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर लेता है! ये हैं विकास की दो तसवीरें!
यानी हर दिन औसतन 46 किसानों की आत्महत्याएँ, यानी हर दिन 46 परिवारों पर मुसीबत का पहाड़!
किसान को खेती से क्या मिलता है? एक हेक्टेयर में गेहूँ बोने पर फ़सल अगर ठीक हो गयी तो छह महीने की मेहनत के बदले किसान को कुल कमाई होगी चौदह हज़ार की, यानी महीने के सिर्फ़ 23 सौ रुपये!
इसलिए हैरानी नहीं कि 2001 से 2011 की जनगणना के बीच देश में 77 लाख किसान कम हो गये? खेती न छोड़ते तो क्या करते?

किसान मर रहे हैं. ख़बरें छप रही हैं. आज यहाँ से, कल वहाँ से, परसों कहीं और से. ख़बरें लगातार आ रही हैं. आती जा रही हैं. किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं. इसमें क्या नयी बात है? किसान तो बीस साल से आत्महत्याएँ कर रहे हैं. इन बीस बरसों में क़रीब तीन लाख किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के नाम सुसाइड नोट छोड़ कर मर चुके. कुछ नहीं हुआ. किसी ने नहीं सुना.

बीस सालों से आत्महत्याएँ
और किसान क्या पिछले बीस सालों से ही मर रहे हैं! मुंशी प्रेमचन्द के ज़माने में भी वह ऐसे ही मरा करते थे. ‘मदर इंडिया’ के ज़माने में भी किसान ऐसे ही मरा करते थे. अन्दर पिक्चर हाल में नरगिस के बलिदान पर ख़ूब तालियाँ बजतीं, साहूकार कन्हैयालाल को भर-भर गालियाँ farmer-suicideपड़तीं, बाहर असली खेतों वाले गाँवों में साहूकार किसानों का टेंटुआ दबाते रहते और किसान मरते रहते! ईस्टमैन कलर से चल कर अब डिजिटल प्रिंट का ज़माना आ गया, समय कितना बदल गया न! बस देश के लैंडस्केप में एक चीज़ नहीं बदली, क़र्ज़ के बोझ तले किसानों का मरना! वह वैसे ही जारी है. बल्कि आँकड़े कहते हैं कि 1995 के बाद से किसानों की आत्महत्याएँ लगातार बढ़ी हैं. 1991 में देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थी. विश्व व्यापार संगठन के खुले बाज़ार ने देश का नक्शा बदल दिया, जीडीपी बढ़ती गयी, और किसानों की आत्महत्याओं की तादाद भी. अब हर आधे घंटे में भारत की जीडीपी में क़रीब साढ़े छह अरब रुपये जुड़ जाते हैं और एक किसान आत्महत्या कर लेता है! ये हैं विकास की दो तसवीरें!

कम हुए 77 लाख किसान!
और जब जीडीपी इतनी भारी-भरकम हो जाये कि आप दुनिया में सातवें नम्बर पर पहुँच जायें तो सब तरफ़ विकास ही विकास दिखता है. लेकिन इस विकास के बीच में किसान क्यों लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं? विकास की इस बहार में 2001 से 2011 की जनगणना के बीच देश में 77 लाख किसान क्यों कम हो गये? उन्होंने खेती क्यों छोड़ दी? वह कहाँ गये, अब क्या कर रहे हैं? यह सवाल गम्भीर नहीं हैं क्या? देश के विकास कार्यक्रमों की प्राथमिकताओं में यह मुद्दा है क्यों नहीं?
बात सिर्फ़ अभी की नहीं है कि दैवी आपदा आ गयी, अचानक बेमौसम बरसात ने फ़सलें तबाह कर दी, इसलिए किसान आत्महत्याएँ करने लगे. अगर ऐसा होता तो कभी-कभार ही होता. लेकिन यहाँ तो किसान हमेशा ही आत्महत्याएँ करते रहते हैं. सूखा पड़ जाये तो भी, बरसात हो जाये तो भी, बाढ़ आ जाये तो भी, फ़सल ख़राब हो जाये तो भी, फ़सल ज़्यादा हो जाये तो भी! फ़सल चौपट हो गयी, तो पैसा डूब गया, क़र्ज़ चुका नहीं पाये, इसलिए आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ा. और फ़सल अगर ज़रूरत से ज़्यादा अच्छी हो गयी, तो कहीं रखने का ठिकाना नहीं, बाज़ार में न दाम मिला, न ख़रीदार, फ़सल फेंकनी पड़ गयी, न लागत निकली, न क़र्ज़ चुका, तो आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता बचा!

गेहूँ बोओ, महज़ 23 सौ कमाओ!
आँकड़े चौंकाने वाले हैं. हर दिन औसतन 46 किसानों की आत्महत्याएँ, हर दिन क़रीब 46 परिवारों पर मुसीबत का पहाड़, पिछला क़र्ज़ कैसे चुकेगा, पेट कैसे पलेगा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे होगी, खेती कौन सम्भालेगा, लड़कियों की शादी कैसे होगी? इस भयावह मानवीय त्रासदी को कैसे रोका जाये, इस पर देश में कभी कोई गम्भीर सोच-विचार नहीं हुआ. उलटे बेशर्मी की हद यह है कि छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने इन आँकड़ों को छुपाना शुरू कर दिया और ‘शून्य आत्महत्याएँ’ घोषित करना शुरू कर दिया. कहा जाने लगा कि आत्महत्याएँ खेती की वजह से नहीं, बल्कि नशे की लत, पारिवारिक झगड़े, बीमारी की परेशानी, लड़की की शादी या ऐसे ही किसी कारण से लिये गये क़र्ज़ को न चुका पाने के कारण हो रही हैं!
जबकि सच्चाई यह है कि खेती लगातार किसान के लिए घाटे का सौदा होती जा रही है. उसकी लागत लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि बाज़ार में फ़सल की क़ीमत उस हिसाब से बढ़ कर नहीं मिलती, ऐसे में सामान्य हालत में भी किसान के हाथ कुछ नहीं लग पाता. ख़ुद सरकारी आँकड़े बताते हैं कि गेहूँ की फ़सल पर औसतन एक हेक्टेयर में क़रीब 14 हज़ार, सरसों की फ़सल पर क़रीब 15 हज़ार, चने की फ़सल पर महज़ साढ़े सात हज़ार रुपये और धान पर सिर्फ़ साढ़े चार हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर ही किसान को बच पाते हैं. अब एक छोटा-सा हिसाब लगाइए. गेहूँ की फ़सल में छह महीने लगते हैं. एक हेक्टेयर में किसान ने अगर गेहूँ बोया, और सब ठीकठाक रहा तो उसकी मासिक आमदनी क़रीब 23 सौ रुपये हुई! इसमें तो पेट भरना ही मुहाल है. और अगर किसी वजह से कोई ऊँच-नीच हुई, फ़सल ख़राब हो गयी, फ़सल इतनी ज़्यादा हुई कि बाज़ार में कोई ख़रीदने को तैयार न हो, तो किसान पिछली फ़सल का क़र्ज़ कहाँ से चुकाये, अगली फ़सल के लिए पैसे कहाँ से लाये, परिवार को क्या खिलाये, बच्चों को कैसे पढ़ाये? वह आत्महत्या नहीं करेगा तो और क्या करेगा?

भीख से भी गया-गुज़रा मुआवज़ा!
और सरकारों का रवैया क्या रहा? सरकारें चाहे राज्यों की हों या केन्द्र की, किसी भी पार्टी की रही हों, इनमें से किसी ने खेती के इस गणित को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया ताकि एक किसान ठीक से परिवार चलाने लायक़ पैसा कमा सके. होता यह है कि जब कोई आपदा आती है, तो मुआवज़े बँट जाते हैं. वह भी अभी तक तब मिलते थे, जब आधी से ज़्यादा फ़सल का नुक़सान हुआ हो. भला हो अधर में लटके भूमि अधिग्रहण क़ानून का कि किसानों को मरहम लगाने के लिए मोदी सरकार ने यह सीमा घटा कर 33 फ़ीसदी कर दी. लेकिन ऊपर दिये ‘खेती के मुनाफ़े’ की गणित से आप भी अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि छोटी जोत के किसानों के लिए तो यह तैंतीस प्रतिशत की सीमा भी कितनी बड़ी नाइन्साफ़ी है. वह तो रत्ती भर भी घाटा सह पाने की हालत में नहीं हैं.
और मुआवज़ा क्या मिलता है? आधा-अधूरा. कभी 75 रुपये, तो कभी दो-तीन रुपये भी! याद है न कि दो साल पहले हरियाणा सरकार ने किसानों को दो-दो, तीन-तीन रुपये के चेक बाँटे थे! किसान को कितना नुक़सान हुआ, इसके आकलन की कोई व्यवस्था ही नहीं है. उसके ब्लाक में जो औसत नुक़सान हुआ, उसके आधार पर सरकारी अफ़सर अपने दफ़्तर में बैठे-बैठे मुआवज़ा तय कर देते हैं. इस बार हरियाणा सरकार ने न्यूनतम मुआवज़ा पाँच सौ रुपये और उत्तर प्रदेश सरकार ने पन्द्रह सौ रुपये तय किया है. आप ख़ुद समझ सकते हैं कि इतने मामूली मुआवज़े में होगा क्या?

उद्योग के लिए निहाल, किसान के लिए मुहाल!
यह मुआवज़ा मुँह नहीं चिढ़ाता क्या? इस मुआवज़े से न नुक़सान की भरपाई होगी, न क़र्ज़ पटेगा, न घर चलाने भर का इन्तज़ाम हो पायेगा, फिर किसान अगली फ़सल कैसे बोयेगा? खेती से मुनाफ़ा मामूली, नुक़सान होने पर भरपाई की कोई व्यवस्था नहीं, कहने को फ़सल बीमा योजनाएँ हैं, लेकिन मुश्किल से दस फ़ीसदी किसान उसकी कवरेज में हैं, वह भी ज़बरन उन्हें लेना पड़ता है, जिन्होंने किसी सरकारी एजेन्सी या बैंक से क़र्ज लिया है, ताकि बैंक का पैसा न डूबे! वरना इतनी कम कमाई में बीमा प्रीमियम का बोझ कौन उठाये?
पिछले बीस सालों में सरकारों ने उद्योगों के लिए तो बड़ी चिन्ता की. लेकिन मर रहे किसानों को मुआवज़े की भीख बाँट देने के सिवा कुछ नहीं किया गया. देश में आधे से ज़्यादा रोज़गार कृषि क्षेत्र उपलब्ध कराता है? फिर भी कृषि क्षेत्र की इतनी बुरी हालत क्यों? उद्योगों के पहाड़ जैसे मुनाफ़े के बदले किसान को राई जैसा मुनाफ़ा क्यों मिलता है? उसको न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी क्यों नहीं? खेती करके वह पाप कर रहे हैं क्या?
http://raagdesh.com/farmers-suicide-a-shameful-tale-of-apa…/
(लोकमत समाचार, 18 अप्रैल 2015) http://raagdesh.com
( साभार राग देश से )




MESSAGE FROM NIRAJ JAIN ON MY BIRTHDAY !


Niraj Jain
April 15 at 4:49pm ·
हम फकीरों से जो चाहे वो दुआ ले जाये
फिर न जाने कहाँ हमको हवा ले जाये

अपना घर जला के चौराहे को रोशन करने वाला आदमी, हर बच्चे , किशोर, नौजवान के हौसलों को पंख देने बाला आदमी, इंसानियत के वजूद को जिन्दा रखने के लिए जिन्दा रहने बाला आदमी, आपके लगाए एक पोधे को हरी भरी बगिया जैसा सम्मान देकर आपको सदा खुश रखने को संकल्पित आदमी, आदमी जिसकी जिदों से आदमियत के दुश्मनो की रूह कांपती हैऔर दोस्तों की ताकत बढ़ती है.......... ,आभासी दुनिया में रहना जिन फरिश्तों के कारण सुखकारी और प्रीतिकर है , ऐसे ही एक दिलदार का नाम है गिरिजेश तिवारी . उस प्यारे इंसान का आज जन्मदिन है.

हर नौजवान के भीतर से उसका सर्वश्रेष्ठ निकलबाने के लिए कृत संकल्पित गिरिजेश जी को मैंने कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा मगर यह सच है कि उन्हें जानने के बाद कभी उन्हें अपने वजूद से अलहदा नहीं पाया . उम्र से बूढ़ा , दिल से बच्चा और हौसलों से जवान यह आदमी बैसे तो प्रतिबद्ध -समर्पित-कर्मठ बामपंथी है मगर जड़-कुंठित-दमित-अकर्मण्य बामपंथियों की धज्जियाँ जिस बलन्दी के साथ उड़ाता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि VOLTAIR ने शायद उससे सीखकर ही कहा होगा " मैं तुमसे सौ फीसदी असहमत हूँ मगर तुम्हारे बोलने के अधिकार की रक्षा अपनी जान देकर भी करूँगा". 

गुरु, भाई, सखा सभी भूमिकाओं में निष्णात अपने फेस बुक मित्र गिरिजेश तिवारी को जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनायें, अस्तित्व से प्रार्थना कि उन्हें शतायु बनाये कि हम सीख सकें ज्यादा से ज्यादा ..........LOVE YOU GIRIJESH
https://www.facebook.com/girijeshkmr?fref=nf

___ 'स्व' के विरुद्ध संघर्ष {FIGHT AGAINST SELF} ___

प्रिय मित्र, मनुष्य के छः सहज गुण बताये गये हैं —
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर.
इनमें से किसी का भी अतिरेक व्यक्ति के विकास में अवरोध उत्पन्न करता है.
इन को मर्यादा की सीमा में नियन्त्रित रखने से 'व्यक्तित्व-विकास' में सहायता मिलती है.
'अहंकार' भी इन सहज गुणों में से एक है.
सकारात्मक अर्थ में इसे 'स्वाभिमान' कहते हैं.
नकारात्मक अर्थ में इसे 'दम्भ' कहते हैं.
यही 'अस्मिता' है.

लम्बे समय तक मैं अपने 'स्व' (EGO) को 'स्वाभिमान' समझता गया.
हर छोटे-बड़े मामले में मैंने अपने 'स्वाभिमान' की रक्षा के लिये प्रतिवाद किया.
परन्तु कोई भी प्रतिवाद सही होने पर भी मुझे सफल नहीं कर सका.
हर प्रतिवाद मुझे शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर तोड़ता गया.

जबकि सामने वाले पर मेरे प्रतिवाद का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ सका.
उसने मेरे प्रतिवाद को कभी भी गम्भीरता से लिया ही नहीं.
हर बार वह अपनी अवस्थिति पर पूर्ववत् ही बना रहा.
वह अपने हित-अहित के अनुरूप ही सोचता, कहता और करता चला गया.
हाँ, उसने मुझसे थोड़ी और दूरी बना ली.

प्रत्येक प्रतिवाद ने मेरे स्वास्थ्य और मेरी शान्ति दोनों को नष्ट किया.
प्रतिवाद के चक्कर में मेरी ऊर्जा का बहुत अधिक हिस्सा व्यर्थ ही बर्बाद होता रहा.
प्रतिवाद में बर्बाद होने वाली अपनी ऊर्जा से मैंने अनेक महत्वपूर्ण काम किये होते.
परन्तु इसके चलते मेरा सृजन मात्रा और गुणवत्ता दोनों में ही प्रभावित होता रहा.
प्रतिवाद के चलते ही मेरे अनेक मित्र मुझसे दूर होते चले गये.

मेरे अनन्य मित्र Hari Sharan Pant जी का यह कथन मुझे प्रेरणा देता रहा है —
"विकास करना है, तो विवाद से बचिए."
परन्तु यह सूत्र जब मुझे मिला, तब तक मैं बहुत कुछ बर्बाद कर चुका था.

सहजता सृजन की शर्त है.
'दम्भ' किसी को भी सहज नहीं रहने देता.
अस्त-व्यस्त रहने पर कोई भी सृजन नहीं किया जा सकता.
सहज रहने के लिये 'स्व' के विरुद्ध संघर्ष अनिवार्य है.
मेरा अनुरोध है कि 'स्व' के विरुद्ध अपने संघर्ष को और तेज़ करें.
तभी आप व्यर्थ के विवादों से बच सकेंगे.
तभी आप शान्त चित्त से अपना सृजन और संघर्ष आगे बढ़ा सकेंगे.
तभी आप अपनी समस्त ऊर्जा मानवता की सेवा में समर्पित कर सकेंगे.

ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (26.4.15.)

Tuesday 7 April 2015

कृष्ण का व्यक्तित्व और कृतित्व : एक मूल्यांकन — गिरिजेश



प्रिय मित्र, अपने देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के वाहकों और अलग-अलग बौद्धिक स्तर पर खड़े उनके अगणित अनुगामियों ने अपने दृष्टिकोण के प्रचार के लिये जन-सामान्य के साथ होने वाले वैचारिक द्वन्द्व में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं के कारण और निवारण का समाज और उसकी गतिकी के भीतर विश्लेषण करने पर ज़ोर देने के बजाय बार-बार सबसे पहला प्रहार धर्म पर ही किया है. इसका परिणाम यह रहा है कि जो साथ आया, वह तो पूरी तरह साथ आया और जो विरोध में गया, वह पूर्वाग्रहग्रस्त होकर हमारी विचारधारा के विषय में अन्य अबोध लोगों को भी पूर्वाग्रहग्रस्त करने में लीन हो जाता रहा है. 


अभी तक इतिहास के विविध काल-खण्डों का विश्लेषण अथवा इन काल-खण्डों के व्यक्तित्वों के संतुलित मूल्यांकन का प्रश्न तो फिर भी लोगों के बीच हमें अपना वैचारिक मतभेद रखने और अन्य मतानुयायिओं द्वारा हमारी बातों को सहन कर लिये जाने का आधार बना चुका है. परन्तु मिथक साहित्य के मूल्यांकन के प्रश्न पर तो आध्यात्मिक धारा के अधिकतर लोग अपनी आस्था और अपने परम्परागत विचारों के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं होते. और अगर उन्होंने हमारी बात को हमारा सम्मान करने के चलते सुन लेने तक सहन कर लिया, तो भी उसे मानने के लिये तो कदापि मन नहीं बना पाते.

ऐसे में हमारे सामने लोगों के बीच अपनी बात कहने के परिणाम के तौर पर दो ही विकल्प हैं. पहला कि हम उनको अपने विरुद्ध पूर्वाग्रहग्रस्त कर लें और उनको अपना बहिष्कार करने दें और जो भी मुट्ठी भर लोग साथ चल पड़ें, उनसे ही संतुष्ट हो लें. और दूसरा कि हम मिथक साहित्य के मूल्यांकन का स्वस्थ और तर्कसम्मत प्रयास करें और सामान्य वैचारिक क्षमता वाले अधिकतर लोगों को सोचने-विचारने के लिये थोड़ी बेहतर ज़मीन मुहैया करने का प्रयास करें. पहले विकल्प में हम अपनी अवस्थिति पर दृढ़तापूर्वक बने रह सकने की हर तरह से सुरक्षा पा लेते हैं. परन्तु दूसरे विकल्प में हमें अपने सामने वाले को अपनी बात समझाने की आतुरता की अपेक्षा उसे सुनने और उसकी अवस्थिति को पूरी तरह समझने के लिये और भी धैर्य से काम लेना होता है. अगर हम आतुरता के शिकार हो कर सामने वाले को परास्त करने की मंशा से ललचा कर केवल शास्त्रार्थ करने के चक्कर में फँस गये, तो बिना अधिक देर किये बहुत जल्दी ही दोनों ही पक्ष केवल अपनी-अपनी बात कहते दिखाई देते रहेंगे, उनमें से सुनने वाला कोई भी नहीं होगा. अक्सर हम सब को ऐसी विडम्बना ख़ुद भी झेलनी पड़ती है और दूसरे साथियों के संस्मरणों में भी ऐसी घटनाओं के विवरण मिल जाया करते हैं.

वाल्मीकि कृत रामायण और व्यास कृत महाभारत संस्कृत साहित्य के प्रथम दो महाकाव्य हैं. इन महाकाव्यों के महानायक राम और कृष्ण का व्यक्तित्व भी हमारे मिथक साहित्य का हिस्सा है. सामान्यतया अधिकतर परम्परावादी लोग इन दोनों को विष्णु के अवतार ही मानते हैं और पूरी आस्था के साथ उनकी पूजा भी करते हैं. बुद्धिजीवियों का एक छोटा-सा हिस्सा ही उनको ईश्वर के बजाय मनुष्य के तौर पर स्वीकार करता है और उनके बारे में एक हद तक तर्क करने और सुनने को तत्पर हो पाता है. परन्तु ऐसे लोगों में भी अधिकतर लोगों को केवल सुनी-सुनाई कहानियों तक का ही बोध होता है, मूल शास्त्र के बारे में अधिकृत तौर पर जानने वाले कम ही मिलते हैं. 

साथ ही यह पक्ष भी विचारणीय है कि कलमकार स्वयं को ही अपनी रचना में व्यक्त करता है. जीवन की त्रासदी को झेलने के बाद ही व्यक्ति परिपक्व हो पाता है. रचनाकार के व्यक्तित्व का भी विकास प्रतिकूल परिवेश ही करता है. अपनी रचना में रचनाकार के जीवन के पुनर्सृजन की यह अभिव्यक्ति अतिशय सूक्ष्म और अमूर्त रूप से विद्यमान होती है. यही कारण है कि सामान्य पाठक इसे देख ही नहीं पाता. वाल्मीकि ने ख़ुद को राम-कथा में उकेरा है और कृष्ण द्वैपायन व्यास ने अपने महानायक कृष्ण में स्वयं अपने जन्म, जीवन और परिवेश की कटुता से उद्भूत उस प्रतिक्रिया को चित्रित किया है, जो उनको जीवन भर कचोटती रही थी. अन्य अगणित लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों की ही तरह समाज में स्थापित जन-विरोधी शक्तियों की सत्ता के विरुद्ध जो प्रतिवाद वे स्वयं नहीं कर सके, उसे उन्होंने अपनी कृति में अपने महानायकों के माध्यम से सहज ही करवा लिया और उनके इस रचना-संसार ने उनके क्षोभ को संतुष्ट तो किया ही, साथ ही मानवता के गरिमाशाली उदात्त भावों के चित्रण द्वारा उनके पाठकों और श्रोताओं को प्रेरित भी किया.

व्यक्तित्व की उदात्तता के अनुगमन का लोकमानस में एक ही आधार है कि वह अनुकरणीय है अथवा नहीं. अनुकरण के लिये लोक मर्यादाओं और वर्जनाओं के रूप में अपने मूल्यों और मान्यताओं की सांस्कृतिक समझ का सहारा लेता है. वर्जना वे मूल्य हैं, जो समाज को स्वीकार्य नहीं हैं और मर्यादा वे मान्यताएँ हैं, जो परम्परा का अनुगमन करते हुए लोक-रूढ़ हो कर अक्सर जड़ हो जाया करती हैं. फिर भी समाज उनको पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोता चला जाता है. निःसत्व हो चुकी इन रूढ़ मान्यताओं का निर्वाह लोक द्वारा अक्सर स्वेच्छा से किया जाता है, कभी-कभी व्यक्ति स्वयं अपनी अन्तःचेतना के अनुरूप एक नयी पहल करने का सफल-विफल प्रयास करता है. परन्तु अधिकतर इस पहल के स्थान पर उसके विपरीत मात्र लोकभय इनके अनुगमन का प्रमुख चालक कारक होता है. 

लोक स्थापित मर्यादाओं के सर्वमान्य औचित्य के आडम्बर से भयाक्रान्त रहता है. लोक पर व्यापक प्रभाव डालने वाला यह लोकभय ही अपने अमूर्त होने के चलते व्यक्ति को सदा-सर्वदा उसकी अपनी सीमाओं की अनुभूति कराता रहता है. इस लोकभय की अनुभूति की तीक्ष्णता ही व्यक्ति को वर्जनाओं से दूरी बनाये रखने और मर्यादाओं के अन्धानुकरण के लिये विवश करती रहती है. इसी के चलते उसका विवेक उसके साहस का साथ नहीं दे पाता. अपनी इसी विवशता के कारण ही लोक उन तमाम तरह की मर्यादाओं की परम्परा का भी अनुगमन करता रहता है, जिनका युग बीत चुका. 

लोक की और लोकनायक की रचना करने वाले साहित्यकार की दृष्टि, बोध तथा अभिव्यक्ति के स्तर में भी अतिशय अन्तर स्वाभाविक है. लोक अपने आराध्य के विषय में अलग-अलग काल में रचे गये समग्र साहित्य को भी सत्य ही मानता है. वह कदापि नहीं समझता कि जीवन और साहित्य में यथार्थ और उसके पुनर्सृजन का मूलभूत अन्तर है. वह साहित्य में यथार्थ के अलंकरण की भूमिका और अलंकृत साहित्य के सौन्दर्य को न तो जानता है और न ही मानता है. ऐसे में वैज्ञानिक दृष्टि से मिथक साहित्य का विवेचन और उसके पात्रों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन और भी दुरूह कार्य हो जाता है. इसीलिये हमारे लिये यह कड़ी चुनौती है. फिर भी हमारे अनेक समर्थ कलमकार पुरखों ने अपनी-अपनी कलम की धार को इस चुनौती पर आजमाया भी है.

दृष्टि की इन सभी सीमाओं से परे दोनों महाकाव्यों के महानायकों के व्यक्तित्व कालजयी रहे हैं. दोनों को ही लोकप्रियता और आस्था हासिल है. परन्तु फिर भी कृष्ण का व्यक्तित्व सहजता और कुटिलता के संतुलित समन्वय के चलते सापेक्षतः अधिक लोकप्रिय रहा है तथा उनका कृतित्व अपनी वैचारिक निपुणता के चलते अधिकतर लोगों के लिये सदा-सर्वदा आकर्षक रहा है. वह राम की तरह मर्यादाओं और वर्जनाओं की सीमाओं में जकड़ा नहीं है. इन सीमाओं का अतिक्रमण राम भी आवश्यकता के अनुरूप करते ही रहे. परन्तु फिर भी उनकी ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ की छवि ही लोक-मानस में रची-बसी रही. वह योद्धा तो हैं, परन्तु उनके पास लोक को देने के लिये ‘गीता का सन्देश’ नहीं है. कृष्ण को बन्धन असह्य हैं. विद्रोह ही उनके व्यक्तित्व का मूल-स्वर है. चुनौती स्वीकारना और चुनौती देना, परम्पराएँ ध्वस्त करना और पाखण्ड का उपहास करना, दम्भ को ललकारना और स्नेह की सहजता में डूब जाना, लक्ष्य-प्राप्ति के लिये हर सम्भव पथ का चयन करना और किसी भी कीमत पर लक्ष्य तक पहुँचने के लिये बज़िद होना ही उनके व्यक्तित्व की लोकप्रियता के पीछे के कारक हैं. 

धारा के प्रवाह का अनुगमन करते चुपचाप शव की तरह बहे चले जाना उनको अपने लिये हल्का और अपमानजनक लगता है. धारा के विपरीत तैरने की चुनौती स्वीकारने और उस चुनौती को संघर्ष एवं सृजन द्वारा रूपायित करने में ही आजीवन अपनी कूबत वह आजमाते रहे. किसी भी तरह की लोक-रूढ़ हो चुकी परम्परा की मर्यादा के आभा-मण्डल के बोझ को सिर झुका कर स्वीकारना उनके तेवर के लिये असह्य है. इसी तरह तरह-तरह की वर्जनाओं का उल्लंघन उन्हें प्रिय है. बन्धन का बोध ही उनको विद्रोह के लिये ललकारता है. उनका विद्रोह ही उनको तृप्ति देता है. 

अक्सर अनिच्छापूर्वक ही सही मुँह जाब कर और आँख-कान बन्द करके मर्यादाओं का पालन करने वाला लोक बार-बार कृष्ण के व्यक्तित्व में उन सभी मर्यादाओं के औचित्य को परास्त होते देखता है. कृष्ण किसी भी कीमत पर किसी अन्धानुकरण से बंधे रहना सहन नहीं करते. कदम-कदम पर मर्यादाओं को तोड़ना ही उनको स्वीकार्य है. मर्यादाओं के निर्वाह की वह रंच-मात्र परवाह नहीं कर पाते. जो कुछ भी उनको समझ में आ जाता है, उसे वह पूरी ऊर्जा और तल्लीनता के साथ किसी अनावश्यक ‘किन्तु-परन्तु’ का विचार किये बिना ही एक झटके में कर गुज़रते हैं. उनके सारे के सारे वक्तव्य और कृतित्व धारा के विपरीत होने के चलते ही लोक को आकर्षित करते हैं. 

प्रतिकूल परिस्थिति में ही सशक्त व्यक्तित्व का विकास होता है. राम और कृष्ण के व्यक्तित्व के बीच अन्तर के पीछे भी यही कारण है. जहाँ राम अनुकूल परिवेश में विकसित होते हैं, वहीं कृष्ण परिवेश की इसी प्रतिकूलता की उत्पत्ति हैं. राम को जीवन भर सम्मान सहज ही उपलब्ध रहा. परन्तु कृष्ण को कदम-कदम पर उपहास और कटाक्ष झेलना पड़ा. राम को अपने शत्रुओं को खोजना पड़ा. कृष्ण के शत्रु उनके जन्म के पूर्व से ही उनके प्राण के पीछे पड़े थे. राम स्थापित समाज की गरिमा के प्रतिनिधि थे और कृष्ण को स्वयं को स्थापित करने के लिये कदम-कदम पर हर तरह के कल-बल-छल का सहारा लेना पड़ा था. राम कुलीन थे तो कृष्ण जन-जीवन की उपज.

कृष्ण के जन्म से ही कलमकार को चमत्कारों के सहारे उनको दिव्य दीप्ति से अलंकृत करना पड़ा. राम को स्थापित होने के लिये ऐसे किसी चमत्कार की आवश्यकता ही नहीं थी. इसके विपरीत उनका सामान्य-जन का सा आचरण करना उनकी अतिमानवीय क्षमता को मानवीय रूप देने के लिये अनिवार्य था. कृष्ण के विरोधी उनकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली थे. उन सब से निपटने में उनको अक्सर अपनी चतुराई और अपने उग्र रूप — दोनों का सहारा लेते रहना पड़ा. फिर भी टक्कर में प्रतिभट को परास्त कर लेने के बाद पुनः जीवन के सामान्य होते ही कृष्ण सहज हो सुदर्शन की विनाशकारिणी भयंकरता की जगह वंशी की मीठी तान में ख़ुद भी डूब लेते, साथ ही दूसरों को भी संगीत और नृत्य की मादकता में मन्त्रमुग्ध कर झूम उठने के लिये बाध्य कर देते. सुदर्शन चक्र और वंशी दोनों की जुगलबन्दी कृष्ण की लोकप्रियता की आधार-शिला है. राम के पास कृष्ण जैसी कोई सम्मोहनकारिणी क्षमता नहीं है. उनको सदा ही अपने को गम्भीरता के आवरण में समेटे रहने की विवशता को झेलना पड़ता है. राम को अपने मित्रों से सहायता मिलती रही. परन्तु कृष्ण के मित्र और परिजन उनके लिये स्नेह तथा क्षोभ की वजह रहे. शास्त्र जहाँ सूर्यवंशी राम को केवल बारह कलाएँ प्रदान करता है, वहीं चन्द्रवंशी कृष्ण के व्यक्तित्व में सभी सोलह कलाओं को निहित कर देता है.

पुराण और स्मृति के रचनाकार समाज में व्याप्त सत्ता और विद्या के दो परस्पर विरोधी और भिन्न क्षमताओं के केन्द्रों — क्षत्रिय तथा ब्राह्मण के बीच सतत जारी द्वंद्व में स्थापित शक्ति-सन्तुलन की यथास्थिति को बदल देने अथवा बनाये रखने के लिये बौद्धिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे थे. ब्राह्मण परम्परा से सम्मानित थे. परन्तु सत्ता के केन्द्र में क्षत्रिय थे. सम्मान की भूख ने वेदान्त के रूप में ‘ब्रह्म-विद्या’ की कल्पना को प्रचारित किया और स्मृतिकार परास्त हो गये. राम क्षत्रिय थे, तो रावण ब्राह्मण. राम की प्रतिष्ठा को और भी गरिमा-मण्डित करने के लिये परशुराम का उपहास कवि के लिये रुचिकर रहा. कृष्ण के सामने दूसरी ही समस्या थी. कृष्ण को स्वयं को कुलीन राजाओं के उस क्षत्रिय समाज में स्थापित करना पड़ा, जो सत्ताधारी था और जिसका दम्भ सामान्य कुल के कृष्ण को अपने बीच स्थापित होने देने में बाधक था. 

परन्तु वेदान्त के रूप में जो दर्शन सामने आया, उसने व्यास द्वारा गीता गढ़ कर कृष्ण को स्थापित कर दिया. गीता में वेदान्त ने ख़ुद को खड़ा करने के लिये सांख्य दर्शन से सहारे का आधार तो लिया. परन्तु वेदान्त का ‘ईश्वर’ सांख्य के ‘पुरुष’ की तरह ‘त्रिगुणात्मिका प्रकृति’ के सृजन का केवल साक्षी और द्रष्टा नहीं रह सका. उसने जगत के समस्त कार्य-व्यापारों का दायित्व अपने ऊपर लेकर उनके कर्ता के रूप में स्वयं को व्यक्त किया. 

तत्पश्चात उसने वह सम्मान प्राप्त करने में सफलता हासिल की कि ब्राह्मण ऋषि क्षत्रिय राजाओं से ‘ब्रह्म-विद्या’ सीखने के लिये उनका शिष्यत्व स्वीकारने तक जा पहुँचे और यादव कृष्ण महाभारत के विजेता के रूप में उभर कर ब्राह्मण के उपासना-गृह तक में ‘ठाकुर जी’ बन कर स्थापित हो सके. यह द्वंद्व वशिष्ठ और विश्वामित्र से चल कर शाक्य गण-राज्य में जन्म लेने वाले गौतम बुद्ध (563 ईस्वी पूर्व — 483 ईस्वी पूर्व) के यज्ञविरोधी विचारों और उनके समकालीन समाज में परम्परा से स्थापित रहे यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के द्वंद्व से होता हुआ अन्तिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग (185 — 149 ई॰पू॰) के हाथों हत्या और शुंग वंश की स्थापना तक इतिहास में चलता चला आया.

हम अपने इन दोनों महाकाव्यों के महानायकों के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और ज्ञान की प्रत्येक विधा में और भी गहराई से विश्लेषण कर सकते हैं. परन्तु हज़ारों वर्षों तक समाज को व्यवस्था देने वाले सामन्तवाद का युग कब का बीत चुका है. श्रम और पूँजी के अन्तर्विरोध और आर-पार के द्वंद्व के वर्तमान युग में हम अपने मिथक साहित्य और उसके पात्रों से अपने लिये पाथेय के रूप में केवल मानवीय भावों की उदात्तता और गरिमा की प्रेरणा ही ले पा सकते हैं. अतएव अभी कृष्ण के जन्म-दिवस पर उनके प्रेरक व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने वाले सभी परम्परावादियों और विद्रोहियों से अपना-अपना पक्ष विनम्रता से प्रस्तुत करने और सामने वाले के विचारों को सुनने का धैर्य बनाये रखने का अनुरोध कर रहा हूँ. तभी ‘वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः’ का कथन लागू होगा. अन्यथा इसके विपरीत करने पर ‘वादे-वादे जायते शीर्ष-भंगः’ तक जा पहुँचने में देर नहीं लगेगी.

ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (18.8.14.)

Monday 6 April 2015

____कविता-पोस्टर बनाने का मेरा तरीका____


Upadhyaya Pratibha — Girijesh Tiwari Sir, यह कलाकारी कैसे करते हैं? कैसे JPEG में Convert करते हैं?
उत्तर : — सबसे पहले कविता को वर्ड में यूनिकोड में लिख लेता हूँ.
उसके बाद उस कविता में आये हुए महत्वपूर्ण शब्दों को सेलेक्ट करके राइट क्लिक करता हूँ.
ऐसा करने पर गूगल में सर्च करने का विकल्प मिलता है.
गूगल में जाकर images में सर्च करता हूँ.
जो चित्र अच्छा लगता है, उसे सेव कर लेता हूँ.
अब पेण्ट में उस चित्र को खोलता हूँ.
इसके लिये पेस्ट फ्रॉम के आप्शन से करना होता है.
पेण्ट में चित्र को सेलेक्ट कर के resize करने का आप्शन है.
tools में colour picker सेलेक्ट करके उस चित्र के अनुकूल background colour चुन कर fill with colour से रंग लेता हूँ.
अब वर्ड से कविता को copy करके पेण्ट में text आप्शन सेलेक्ट करता हूँ.
text बॉक्स लेफ्ट क्लिक को दबा कर खींच लेता हूँ.
text को पेस्ट करने के बाद सेलेक्ट all राइट क्लिक करने खुली विण्डो में क्लिक करने पर हो जाता है.
सेलेक्ट हिस्से को उचित रंग से रंगा जा सकता है.
कविता यूनीकोड में टाइप होने पर हिन्दी में केवल दो फ़ॉन्ट्स में लिखी जा सकती है - मंगल और Aparajita.
इनमें से अपराजिता कम जगह में अधिक सामग्री के लिये उपयुक्त है.
इनके अलावा किसी और सुन्दर दूसरे फॉण्ट के लिये हिन्दी में टाइप करना होता है.
रेखा और बॉक्स की सहायता से से बॉर्डर उचित मोटाई का बन जाता है.
अब चित्र तैयार हो गया उसे दाहिने से बायें और ऊपर से नीचे को घुमा कर उसके अनावश्यक हिस्से को छाँटने के लिये बीच के स्पॉट को पकड़ कर खीच देना होता है.
अगर पोस्टर के अनुरूप किसी भी चित्र को छोटा या बड़ा करना है, तो ज़रूरत के हिसाब से उसके कार्नर या बीच के बिन्दु से खींच कर करना होता है. यह चित्र को पेस्ट करने के समय ही कर लेना होता है.
अब सेव ऐज़ के विंडो में JPEG picture के आप्शन में सेव कर लेता हूँ.
अगर कोई चित्र सीधे डाउनलोड नहीं हो रहा है, तो उसकी सॉफ्ट कॉपी प्रिन्ट कर के उसे कट करके पेण्ट में पेस्ट करने पर पेस्ट हो जाता है.
जैसे यह चित्र है....
मुझे उम्मीद है कि इतना करने का प्रयास करने पर धीरे-धीरे अभ्यास से और कलात्मक दृष्टि की सहायता से हम सुन्दर कविता-पोस्टर बना सकते हैं.
मैंने photoshop सीखने के लिये उसके कुछ lectures डाउनलोड किये, मगर समय के अभाव में अभी उस विधा को पूरा नहीं सीख सका हूँ.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश





Vandana Bajpai Nice
August 27, 2014 at 7:39pm · Unlike · 1


Vandana Bajpai Achhi jankari



Upadhyaya Pratibha Sir, बहुत बहुत धन्यवाद. आपने तो बहुत सारी ज्ञानवर्धक जानकारी दे दी है.