Friday 25 January 2013

लेखन-कला और निबन्ध-लेखन – गिरिजेश




जब आप किसी भी निबन्ध-प्रतियोगिता में विषय को जान लेते हैं, तो कलम उठाने के पहले विषय-वस्तु के बारे में थोड़ी देर अच्छी तरह सोचिए. अपने मन में अपने निबन्ध को प्रस्तावना, पृष्ठभूमि, विश्लेषण और उपसंहार के टुकड़ों के अन्तर्गत् तोड़ लीजिए. प्रस्तावना आम तौर से एक पैराग्राफ की होती है. वही पैराग्राफ यह निश्चय करता है कि पाठक उस लेख में रूचि लेगा या नहीं. उसके तुरन्त बाद वाला पैराग्राफ विषय को छूना शुरू कर देता है. इसका आरम्भ विषय की पृष्ठभूमि के बारे में लिखने से करना बेहतर होता है. पृष्ठभूमि अक्सर एक, दो या तीन पैराग्राफ की लिखी जाती है और विश्लेषण की ज़मीन तैयार कर देती है. 

विश्लेषण करते समय सत्य और शास्त्र, जीवन और जगत, विज्ञान और साहित्य, दिल और दिमाग, सभ्यता और संस्कृति, अतीत और वर्तमान के विविध पक्षों को स्पर्श करना होता है. विश्लेषण करते समय समर्थ लेखक जिस भावभूमि पर जा पहुँचता है, वहाँ वह अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्र सत्ता का पूरी तरह से परित्याग करके अपने पाठक की समस्याओं से अपनी चेतना को नाभिनालबद्ध कर चुका होता है. तभी ऐसी सशक्त रचना जन्मती है कि पाठक हठात् बोल बैठता है कि अरे यह तो मेरी ही बात है. और फिर रचना लोकप्रियता के शिखर चढती चली जाती है. विश्लेषण से जीवन-समर में जूझ रहे पाठक को अपने सामने आने वाले अनेक प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं और इसके साथ ही अगणित जिज्ञासाएँ भी उसके दिमाग में सिर उठाने लगती हैं. ऐसे में अपनी रचना के अन्त में उपसंहार में पाठक की समस्याओं के समाधान के रूप में उज्जवल भविष्य की कामना के साथ ही असीम धैर्य और अश्रुतपूर्व शौर्य की प्रेरणा के झिलमिलाते हुए सन्देश के साथ निबन्ध समाप्त किया जाता है.

उद्धरण निबन्ध के आरम्भ से अन्त तक कहीं भी लिखा जा सकता है. मगर आम तौर से निबन्ध के अन्त में कोई प्रेरक उद्धरण देने की परम्परा है. उद्धरण निबन्ध के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देते हैं. मगर उनकी अति भी कभी-कभी निबन्ध को हल्का कर देती है. सन्दर्भ, आँकडे और तालिकाएँ निबन्ध को तथ्यों की विश्वसनीयता प्रदान करती हैं. मगर कभी-कभी लेखक उनका बोधगम्य विश्लेषण नहीं कर पाता है और उनकी अधिकता से निबन्ध को अनावश्यक तौर पर अग्राह्य और बोझिल बना देता है.

रचनाकर्म के शिल्प की विविध विधाओं में तुलना करने पर हम पाते हैं कि एक वास्तुशिल्पी के पास विशाल निर्माण-सामग्री, अनेक सहकर्मी और पर्याप्त धन की शक्ति का बल होता है. उसकी तुलना में मूर्तिकर्मी के पास मात्र एक शिलाखण्ड, अपनी छेनी-हथौड़ी होती है. उससे भी कम सामग्री के रूप में चित्रकार के पास रंग, तूलिका और चित्र-फलक होता है. एक वक्ता के सम्मुख सजग श्रोताओं का अपनी और उसकी क्षमता के अनुरूप प्रतिदान करने वाला जनसमूह होता है. मगर एक लेखक को बन्द कमरे के एकान्त में केवल सादा कागज़ और कलम ही मयस्सर रहता है. परन्तु अपनी-अपनी साधना का बल और अपनी-अपनी कल्पना-शक्ति सबके पास होती है. 

शब्दों के चितेरे की साधना इन सभी विधाओं में सबसे अधिक सूक्ष्म और सशक्त मानी गयी है. शब्द को ही ब्रह्म कहा गया है. लेखक के सामने उसका पाठक नहीं होता. उसे अँधेरे में अग्निबाण छोड़ना होता है. और अचूक लक्ष्यवेध करके समर्थ लेखक अपने कलम के दम पर देश-काल की सारी सीमाओं को ध्वस्त कर देता है. ऐसे कालजयी रचनाकार पढ़े ही नहीं, कढ़े भी होते हैं.

साहित्य जीवन का पुनर्सृजन ही तो है. जो कुछ भी एक बार जिया जा चुका है, उसी को साहित्यकार अपने साधना-कक्ष के एकान्त में एक बार फिर से जीता है. और उस समय वह अपने अन्तर्मन में उसी तीखी वेदना से गुज़रता है, जिससे हर माँ को गुज़रना ही पड़ता है. इस तीखी वेदना की ही चरम उपलब्धि होती है एक नूतन कृति का जन्म. कलमकार के लिये पाठक के मन को छू पाना तभी मुमकिन है, जब उसकी यह वेदना घनीभूत, उसकी अभिव्यक्ति बोधगम्य, उसकी धार मारक और उसके सपने विराट होते हैं और वह अपने ‘स्व’ में जन-सामान्य की सम्वेदना को आत्मसात् कर चुका होता है.

शब्द-चयन का संकट लेखक के लिये सबसे विकट होता है. विषय-वस्तु की विविधता के अनुरूप शब्द-बन्ध गढ़ना कलमकार की विवशता होती है. सरल और सुबोध लेखन श्रेष्ठ माना जाता है. मगर बोधगम्य बनाने के चक्कर में सरलीकरण करते समय लेखन के सतही और अखबारी बन जाने का खतरा बराबर बना रहता है. जटिल सैद्धान्तिक अवधारणाओं को बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है.

प्रसव की वेदना की ही तरह विचारों की धारा का उद्भव भी एक बुद्बुद की तरह अचानक उठता है, शनैः-शनैः उभरता है, तीखा होता जाता है, फिर मद्धिम पड़ता है और अकस्मात् बन्द हो जाता है. भावभूमि की रचना के क्रम में मस्तिष्क-पटल पर पहले कुछ अस्फुट शब्द उभरते हैं. फिर कुछ वाक्य. और तब तक अचानक न जाने कहाँ से और कैसे सामने आ कर एक विराट शून्य कलम की धार को चट्टान की तरह रोक देता है. वेदना की तीव्रता असह्य हो उठती है. लेखक अब बिलबिलाता रहता है. उसे सूझता ही नहीं कि अब क्या और कैसे करे. कभी-कभी तो महज एक सटीक शब्द की ही तलाश दिल-दिमाग को मथ डालती है. बात में बात जोड़ना नामुमकिन लगने लगता है. हार मान कर कलम रख देनी पड़ती है. अब आवेग घनीभूत होता चला जाता है, बेचैनी बढ़ती चली जाती है. और अचानक शिला के सम्पुट के बीच से विस्फोट करता हुआ अंगारों की तरह दमकते हुए शब्दों का ज्वालामुखी फूट पड़ता है और विचारों के प्रवाह की नयी धारा के रूप में मन-मस्तिष्क को उजास, ऊर्जा और ऊष्मा से लबालब भर देता है. अचकचा कर भागता है लेखक अपने मेज़ की ओर, हडबड़ा कर उठाता है कलम और फिर क्या कहना! वह अब भूल जाता है सब कुछ. जल्दी से जल्दी समेट लेना चाहता है उन सभी शब्दों, वाक्यों, विचारों, प्रतीकों, बिम्बों और विवेचनाओं को जो-जो उसके पकड़ में आ पाते हैं. क्योंकि जो छूट गया, वह छूट गया. 

कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि लेख में हम कहना कुछ चाहते हैं, कहना कुछ और शुरू करते हैं और अन्त आते-आते कह कुछ का कुछ डालते हैं. और फिर जो बनाना चाहा था, उसकी जगह जो बन गया उसे काटने-छाँटने, सजाने-सँवारने, सुधारने-बदलने, जोड़ने-घटाने के बाद ‘लास्ट-टच’ देते-देते लेखक अपनी रचना के प्रति खुद ही अभिभूत हो जाता है. और तब अगर वह अहंकार की पतनकारी जकड़न से बच भी गया, तो भी उसे लोक की सेवा में विनम्रता से समर्पित करने के पश्चात् जब अपनी उस असामान्य भावभूमि से निकल कर सामान्य मनोदशा में वापस आ चुका होता है, तो अपनी खुद की ही कृति का पाठ करते समय उसे अचरज हो उठता है कि क्या वाकई इसे उसी ने लिखा है. महाकवि तुलसी साहित्यकार के इस तरह ‘आत्म-मुग्ध’ होने को इन शब्दों में बांधते हैं –
“निज कबित्त केहि लागि न नीका, सरस होउ अथवा अति फीका.”

Sunday 20 January 2013

'अनुत्तरित प्रश्न' - प्रो0 प्रभुनाथ सिंह ‘मयंक’

प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की द्वितीय मासिक प्रतियोगिता - 'शुद्द एवं धाराप्रवाह हिन्दी पढ़ने की प्रतियोगिता' में प्रतिभागियों को इस कहानी के अंश पढ़ने को दिये गये थे. आप से भी इसे पढ़ने का अनुरोध करते हुए 'ईश्वर के अस्तित्व और उसकी सत्ता' पर प्रश्न-चिह्न लगाने का दुस्साहस कर रहा हूँ.

'अनुत्तरित प्रश्न' - प्रो0 प्रभुनाथ सिंह ‘मयंक’ 

आचार्य वाचस्पति ने तुंगभद्र पर्वत पर रमणीक आश्रम स्थापित किया था। उस पर्वत पर हरी वनस्पतियों, रंग-बिरंगे फूलों तथा कल-कल निनाद से संगीत की लयात्मक राग-रागिनियों को जीवन्त करने वाले पाश्र्ववर्ती झरनों की शोभा देखते ही बनती थी। इस आश्रम के चतुर्दिक् परिवेश में प्रकृति ने मनोहारी शृंगार कर रखा था। आश्रम के अन्दर विशाल वटवृक्ष, देवदारु, साखू और सागौन के गगन-चुम्बी वृक्षों पर पक्षियों ने बसेरा किया था। जब वे आनन्द-विह्नल होकर उषा के आगमन के पूर्व ही लयात्मक कलरव करने लगते थे, तो आश्रम का वातावरण जागरण की पावन ऋचाओं और उदयपूर्व प्रकाश की लालिमा से प्राची क्षितिज को रंजित करके अद्वितीय सुषमा की सृष्टि कर देता था। प्रातर्विधि के प्श्चात् यज्ञ की वेदियों से ज्वलन्त अरणियों की अर्चियाँ वैदिक मन्त्रों की पवित्र ध्वनियों के साथ आर्ष वातावरण की चमत्कारमयी रचना कर देती थीं। शिव-मन्दिर के अन्दर रुद्राष्टाध्यायी का छान्दस पाठ साधकों के मन को अतीन्द्रिय लोक में प्रतिष्ठित कर देता था। वेद, पुराण, महाकाव्य, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, प्रातिशाख्य, ज्योतिष, दर्शन, आन्वीक्षिकी विद्या, यन्त्र-तन्त्र, अर्थशास्त्र, कला, सौन्दर्य-शास्त्र और पराविद्या का अध्यापन सुदूर क्षितिजों तक आश्रम की गरिमा का सम्वर्धन करता था। इस आश्रम में राजधर्म, आयुर्वेद, धनुर्वेद और नीतिशास्त्र का विधिवत् शिक्षण और अभ्यास किया जाता था। आचार्य वाचस्पति अपरा विद्या के साथ ही पराविद्या के भी निष्णात पण्डित थे। प्रकृति के सुरम्य वातावरण में स्थापित इस आश्रम के अन्दर वट, अश्वत्थ, शाल्मली, प्लक्ष, औदुम्बर और आम्र के छायादार वृक्षों के तलमूल में चैडे़, स्वच्छ, समतल चबूतरे बने हुए थे, जो आचार्यश्री के द्वारा किये जाने वाले अध्यापन के समय आसन्दी का काम करते थे। आचार्य वाचस्पति विभिन्न विषयों का अध्यापन अलग-अलग चबूतरों पर आसीन होकर मनोहारी रीति से किया करते थे। उनके शिष्यगण अनुशासन और तप की कठोर मर्यादाओं का पूर्ण समर्पण और विनय के साथ अनुपालन किया करते थे। आचार्य वाचस्पति के ही समान गौरांग शरीरधारी वटु पीताम्बर में आवृत होकर अपने हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, रक्ताभ, मांसल अंगों के द्वारा सौन्दर्य की किरणों का प्रसार किया करते थे। प्रातः, मध्याह्न और सायं संध्याओं का नियमपूर्वक निर्वाह होता था। 

एक दिन आचार्य वाचस्पति अध्यापन के समय यह बता रहे थे कि ईश्वर सभी जीवों का पिता, रक्षक और पोषक है। उसकी सृष्टि में सभी जीव समान महत्त्व के हैं। ऊँच-नीच के भेद-भाव मनुष्यकृत हैं। प्रेम, सत्य, अहिंसा, शान्ति, आनन्द, परस्पर सहयोग और समता पर आधारित व्यवहार परमात्मा की बहुमूल्य निधियाँ हैं, जो प्राणियों के लिये प्रदान की गयी हैं। परमात्मा ने रत्नों और जीवधारियों से भरा-पूरा उछलता हुआ समुद्र बना दिया। पोषण, कर्म और निवास के लिये धरती का आधार दिया। उसी ने प्यास बुझाने के लिये जल की व्यवस्था की। उसने वायु की गति और स्पर्श-शक्ति में आनन्द का संचार किया, हिम की शीतलता से जीवों की रक्षा करने तथा प्राणमयी तेजस्विता और ज्योतिर्मयी जीवन-धारा प्रवाहित करने के लिये अग्नि और सूर्य की रचना की। उसी परमपिता ने मुक्त रूप से उड़ान भरने के लिये अनन्त आकाश की सृष्टि की। ईश्वर सबका स्वामी है। उसकी उदारता वर्णनातीत है। आचार्य वाचस्पति ने अपना उपदेश पूरा किया और वे अपने विश्राम-कक्ष में चले गये। उनके आश्रम के अन्तेवासी उनके द्वारा दिये गये उपदेशों का निरीक्षण और मूल्यांकन करने हेतु उन्हीं के आदेश से अलग-अलग दिशाओं में प्रकीर्ण हो गये।

उनका एक शिष्य पदयात्रा करते-करते सागर के तट पर पहुँचा। वह तट पर स्थित होकर इस चिन्तन में डूब गया कि आचार्यश्री ने जो जीवन का पाठ पढ़ाया है, उसकी सत्यता अवश्य ही परखने योग्य है। जब उसने सागर के जल के अन्दर दृष्टि डाली, तो देखा कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को निगल रही हैं। विशाल जल-जन्तु दुर्बल जल-जन्तुओं का शिकार कर रहे हैं, प्रचण्ड शक्तिमान् जलहस्ती लाचार जलजन्तुओं को अपनी मारक शुण्डिकाओं में जकड़ कर मृत्यु के निर्मम राज्य में भेज रहे हैं, किन्तु सागर अपनी ही निरीह सन्तानों की रक्षा करने में असमर्थ होकर अपनी उच्छल तरंगों के द्वारा अपना उद्वेग व्यक्त कर रहा है, मानो वह पुकार रहा है कि यदि जीवों का कोई समर्थ स्वामी है, तो वह इन असहाय और निर्बल जल-जन्तुओं की रक्षा क्यों नहीं करता? वह विद्यार्थी इस बात पर भी विचार कर रहा था कि प्रलयकाल में यह विशाल सागर क्रोधातुर होकर धरती के समूचे जीवन-विस्तार को क्यों निगल जाता है? 

आचार्यश्री का दूसरा शिष्य हरी-भरी पर्वतीय उपत्यकाओं में दूर-दूर तक प्रकृति की मनोहारी सुषमा निहार रहा था। वह यह चिन्तन कर रहा था कि उड़ने वाले ये पक्षी कितने स्वतन्त्र हैं, जो पीड़ामयी धरती से आकाश की ऊँचाइयों में पहुँच कर निद्र्वन्द्व आनन्द की अनुभूति करते हैं। मनुष्यों से भले तो ये पक्षी ही हैं, जो बन्धनमुक्त हैं। चिन्तन के उन्हीं क्षणों में जब उसने आकाश की ओर हंसों के झुण्ड पर दृष्टि डाली, तो वह उनके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया, किन्तु हंसों का झुण्ड उत्तुंग शिखरों के ऊपर आकाश में उड़ता हुआ अन्यत्र प्रवास करने की कामना लेकर लम्बी यात्रा पर जा रहा था। इतने में हंस का एक मासूम बच्चा पंखों में अपेक्षित शक्ति न होने के कारण उड़ान की वेला में थककर लड़खड़ाते-लड़खड़ाते अपने माता-पिता और भाइयों के झुण्ड से बिछड़ गया। उसी समय घात लगाकर उड़ने वाला परम शक्तिमान् हिंसक बाज पक्षी उसके समीप पहुँचा और उसने हंस के निरीह बच्चे को अपने चंगुल में दबोच लिया और इस असहाय स्थिति में हंस का अनाथ बच्चा मर गया। 

आचार्य के तीसरे शिष्य के मन में हिरनों के सौन्दर्य का अवलोकन करने की बलवती इच्छा जागृत हो गयी। वह धीरे-धीरे हरे-भरे जंगल की ओर अग्रसर होता जा रहा था। इतने में चितकबरे, सुनहरे और श्याम रंग वाले हिरनों का झुण्ड कुलाँचंे भरता हुआ, अनेक प्रकार की केलियों का प्रदर्शन करता हुआ निश्चिन्त रूप से दौड़ रहा था। यह झुण्ड दौड़ते-दौड़ते थक गया। हिरनों को प्यास बुझाने के लिये जल की आवश्यकता थी। हिरन और हिरनियों की टोलियाँ अपने बच्चों के प्रति स्नेह का प्रदर्शन कर रही थीं। उन्हें जल से भरी हुई एक नदी दिखायी पड़ी। वह झुण्ड जब नदी के तट पर पहुँच कर जल पीने और नहाने के लिये नदी में उतरा, तो उसी समय अचानक कालरूप एक विशाल मगरमच्छ ने एक हिरन को अपने जबड़ों में कस लिया और वह अपनी भूख मिटाने के लिये उसे जल के भीतर खींच ले गया। मृत्यु-स्वरूप मगरमच्छ से जान बचाने के लिये शेष हिरनों का झुण्ड जब जंगल की ओर भाग रहा था, उसी समय अपनी प्यास बुझाने के लिये जलाशय के समीप पहुँचे हुए सिंहों और बाघों ने दौड़ा-दौड़ा कर कई हिरनों का हृदय-विदारक वध करके उनका रक्त पी लिया और वे उन्हें खा गये।

चौथा शिष्य जब घनी वनानियों का सौन्दर्य निहारते हुए आगे बढ़ रहा था, तो उसने देखा कि वृक्ष की शाखा पर लटका हुआ विशाल अजगर एक वन्य पशु को अपनी प्राणान्तक जकड़ में कस कर निगलता जा रहा था।

आश्रम में आचार्यश्री के द्वारा प्राप्त की गयी शिक्षा और ज्ञान को व्यावहारिक रूप में प्रमाणित करने के लिये जो शिष्य आश्रम के परिसर से बाहर गये थे, वे आश्रम में लौट आये। सायं संध्या की विधि पूर्ण करने के पश्चात् उन चारों शिष्यों ने अलग-अलग ढंग से आचार्य वाचस्पति के सम्मुख अपने प्रत्यक्ष सांसारिक अनुभव सुनाये और समवेत स्वर में चारों शिष्यों ने श्रद्धेय आचार्य से प्रश्न किया - "हे आचार्य! क्या शास्त्र और लोक किसी बिन्दु पर एक हैं, अथवा सत्य के धरातल पर अलग-अलग हैं? आपने तो प्रेम, अहिंसा, रक्षण और परस्पर सहयोग से सम्बन्धित गुणों की चर्चा की थी और यह बताया था कि ईश्वर सबका रक्षक है, किन्तु लोक-व्यवहार और उपदेश में इतना बड़ा अन्तर क्यों है?" 

आचार्य वाचस्पति शिष्यों के प्रश्न सुनकर आत्म-चिन्तन में डूब गये। उन्होंने कहा - "हे वत्स! विधाता ने अपनी सृष्टि में गुण और अवगुण - दोनांे को मिश्रित कर दिया है। उनकी प्रकृति में सत्त्व, रज और तम - तीनों गुणों की अनिवार्य सत्ता है। हिंसा, असत्य, चोरी, मिथ्यावाद, ठगी, भोगवाद और अहंता टिकाऊ तत्त्व नहीं हैं। इस संघर्षमय जीवन में सत्य, अहिंसा, प्रेम, उपकार, सेवा, क्षमाशीलता, इन्द्रिय-निग्रह और बुद्धिमत्ता ही सत्त्व गुण के स्थिर आधार हैं। जिन लोगों ने इन्हें अपने जीवन में सिद्ध कर लिया, वे जीवन-मुक्त हो गये। उन्होंने ही प्रेरक इतिहास की रचना की। तुम लोग भी उसी सत्त्व गुण को अपने जीवन का आधार बनाओ, कल्याणार्थ योजनाओं को क्रियान्वित करो। परमात्मा तुम्हारे भीतर नैतिकता, गुणवत्ता और आदर्श की शक्ति बन कर तुम्हारा मार्ग-दर्शन करेगा।"

आचार्यश्री ने शिष्यों को विभिन्न दृष्टान्तों के द्वारा उनके प्रश्नों का उत्तर तो दे दिया, किन्तु वे प्रश्न आज भी उत्तर चाहते हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गों पर चलने वाले असंख्य जन जीवन के वे समाधानकारी उत्तर सदियों से ढूँढ़ रहे हैं, किन्तु क्या समाधान का सर्वमंगलकारी, सर्वरक्षक, समतावादी समय उन अनुत्तरित प्रश्नों की प्यास बुझा सकेगा? आचार्य वाचस्पति क्षण-भंगुर जीवन के सच और जंगल-कानून पर आधारित असुरक्षित जीवों की समस्याओं के समाधान का मार्ग ढूढ़ रहे थे। वे इस बात पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे कि कपिल, कणाद, पतंजलि, अक्षपाद गौतम, वर्धमान महावीर, गौतम बुद्ध, चार्वाक और अन्य जड़वादी आचार्य किन कठोर, सत्याधारित, अनुभवसिद्ध परिस्थितियों में नास्तिक हो गये और उन्होंने निर्ममतापूर्वक ईश्वर की सत्ता को ही नकार दिया। इस संसार में वधिक, आतंकी निर्ममतापूर्वक जीवों का वध करते हैं, लूट-पाट करते हैं, अग्निकाण्ड के माध्यम से कला-विज्ञान की बहुमूल्य वस्तुओं और संस्कृतियों के अभिज्ञान को राख कर देते हैं। यहाँ कोई भी प्राणी सुरक्षित नहीं है। रक्तपात और विध्वंस का ताण्डव निर्बन्ध रूप से अनवरत जारी है। असुरत्व गर्जन कर रहा है। समरसता और आनन्द आतंक-कम्पित हैं।

आचार्य ने शिष्यों से आगे कहा - "तुम्हारे प्रश्नों का सटीक उत्तर तो समय ही देगा। मैं यथार्थ और आदर्श, प्रकृतिवाद और वेदान्त के सन्तुलन-बिन्दुओं के उस समाहित समरस काल को प्रणाम करने के लिये प्रतीक्षा करूँगा। जाओ, विश्राम का समय हो चुका है। कल प्रतिदिन की भाँति अभीष्ट समाधानों का सूर्य उगेगा।''
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शब्दार्थ:- वाचस्पति - ब्रह्मा, तुंगभद्र - ऊँचा, मनोरम, रमणीक - सुन्दर, अर्चियाँ - लपटें, छान्दस - सस्वर, निरुक्त - व्युत्पत्ति युक्त अर्थ, प्रातिशाख्य - शिष्य-परम्परा, आन्वीक्षिकी विद्या - न्यायशास्त्र, यन्त्र-तन्त्र - टेक्नाॅलाॅजी, पराविद्या - ब्रह्मविद्या, अपराविद्या - जगद्विज्ञान, अश्वत्थ - पीपल, शाल्मली - सेमर, प्लक्ष - पाकड़, औदुम्बर - गूलर, आसन्दी - आसन, अन्तेवासी - छात्रावास में रहने वाले, प्रकीर्ण - बिखर, जलहस्ती - आॅक्टोपस, शुण्डिकाओं - सूँड़ों, उच्छल - उठती हुई, उद्वेग - वेदना, उपत्यकाओं - घाटियों, उत्तुंग - ऊँचे, कुलाँचें - उछलना-कूदना, केलियों - क्रीड़ाओं, वनानियों - वनों, परिसर - चहारदीवारी, समवेत - एक साथ मिलकर, दृष्टान्तों-उदाहरणों, अनवरत-लगातार, अभीष्ट समाधानों-मनचाहे हल,

II - WHAT A MAN HAS DONE, A MAN CAN DO!


प्रिय मित्र, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के ऊपर केंद्रित 20 जनवरी (रविवार) को हुई सातवीं मासिक गोष्ठी में 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की द्वितीय मासिक प्रतियोगिता - 'शुद्द एवं धाराप्रवाह हिन्दी पढ़ने की प्रतियोगिता' के विजेता शिबली नेशनल कॉलेज के बी.एससी. (द्वितीय वर्ष) के छात्र अरुण कुमार यादव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त करके मानदण्ड स्थापित करने पर पुरस्कार-स्वरूप Oxford Advanced Learner’s Dictionary जनपद के लब्ध-प्रतिष्ठ क्रान्तिकारी नेता जय प्रकाश नारायण के हाथों से प्रदान की गयी. 

धाराप्रवाह और शुद्ध हिन्दी पढ़ने की यह प्रतियोगिता तेरह जनवरी (रविवार) के अध्ययन-चक्र में आयोजित की गयी. इस प्रतियोगिता में कुल 28 प्रतिभागी थे. प्रतिभागियों को जनपद के साहित्य-जगत के मूर्धन्य हस्ताक्षर प्रो. प्रभुनाथ सिंह 'मयंक' द्वारा कठिन हिन्दी में लिखी गयी कहानी 'अनुत्तरित प्रश्न' में से दस-दस वाक्य पढ़ना था. 

निर्णायक मण्डल में स्वयं मैं, विद्वान सामाजिक कार्यकर्ता राजेश राय शर्मा और इस परियोजना के अध्यक्ष अमित पाठक थे. साथ ही सदन में उपस्थित युवाओं ने भी किसी एक प्रतिभागी के पक्ष में अपना 'मत' दिया था.

Sunday 13 January 2013

‘शुद्ध एवं धारा-प्रवाह हिन्दी पढ़ने का वैज्ञानिक तरीका’ – गिरिजेश



प्रिय मित्र, यह व्याख्यान 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की उपज है.
शुद्ध एवं धारा-प्रवाह हिन्दी पढ़ने के वैज्ञानिक तरीके पर मेरा यह व्याख्यान इस अध्ययन-चक्र की श्रृंखला का सातवाँ व्याख्यान है.
हिन्दी बोलने एवं पढ़ने में अशुद्ध उच्चारण के चलते आमतौर से होने वाली त्रुटियों से बचने में सहायता देना ही इस व्याख्यान का उद्देश्य है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
https://www.youtube.com/watch?v=F3tK83CHjLE

Saturday 12 January 2013

वैज्ञानिक भौतिकवाद 1 (सुधरी आवाज़ में) - गिरिजेश



प्रिय मित्र, पिछले लिंक में तकनीकी कमियों के कारण आवाज़ बहुत धीमी थी, जिसे इस लिंक में सुधार दिया गया है.

यह व्याख्यान-माला 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की उपज है. 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर मेरा यह व्याख्यान 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की श्रृंखला का पहला व्याख्यान है. 

दृष्टिकोण ही चिन्तन, अभिव्यक्ति तथा आचरण को आधार प्रदान करता है. जगत को समझने एवं समस्याओं के सफल समाधान में केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही विश्वसनीय तौर पर सहायक साबित हुआ है. 

व्यक्तित्वान्तरण के लिये यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है. 

कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें. Published on Dec 31, 2012

Tuesday 1 January 2013

धारा के विरुद्ध जिन्दा मछली की कहानी - गिरिजेश


इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
मेरे प्यारे दोस्त, दिन-रात मेरे दिल-ओ-दिमाग को मथने वाली एक कहानी मुझे अभी एक बार फिर से याद आ रही है. लीजिए, आप भी सुनिए. बचपन में हम सभी ने एक शिशु-गीत सुना था.
"मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है;
हाथ लगाओगे डर जायेगी, बाहर निकालोगे मर जायेगी."
कहानी उसी मछली की है. मछली पानी में ही पैदा हुई थी. उसे पानी बहुत प्रिय था. पानी से अलग उसने अपने अस्तित्व की कल्पना भी न की थी. मछली जब छोटी थी, तो खूब खुश रहती थी. 

खेलती-कूदती, नाचती-गाती, उछलती-मचलती मछली धीरे-धीरे बड़ी होती गयी. मछली ने प्यार किया और खूब सारे अंडे दिये. उन नन्हे अण्डों से नन्हे-नन्हे, प्यारे-प्यारे ढेर सारे बच्चे बाहर आये. अब मछली का समूचा खुशहाल परिवार एक साथ तैरता था पानी में. 

मगर पानी में मछली ही तो नहीं थी. वहाँ आठ बाहों वाला, गोल-गोल आँखों वाला लालची और क्रूर ऑक्टोपस भी था. उसकी नज़र मछली और उसके बच्चों पर थी. उसने मछली के बच्चों को एक-एक कर के खाना शुरू किया. मासूम मछली पहले डर गयी, फिर रोने लगी, फिर क्षुब्ध हुई और फिर आखिरकार उसे गुस्सा आने लगा. 

उसने पानी से इन्साफ की गुहार लगायी. पानी बहुत बड़ा था. मगर उसका दिल मीठा नहीं खारा था. उसे अपने बड़े होने का अहंकार भी कम नहीं था. वह तनिक भी परेशान न हुआ, उसने मछली के आँसुओं को देख कर दुखी होने का ढोंग तो किया. मगर उसने ऑक्टोपस के अत्याचार के खिलाफ़ कुछ भी कर सकने में अपनी असमर्थता जतायी. 

पानी का ऐसा जवाब सुन कर भी मछली ने हार नही मानी. खूब सोचने के बाद मछली ने अब दूसरी सभी मछलियों को आवाज़ दी. सब ने एक स्वर से कहा -"हम सभी पूरा सच अच्छी तरह जानते हैं. ऑक्टोपस बारी-बारी से हम सब के बच्चों को खाता रहा है. जब हम अपने खुद के बच्चों को बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकीं, तो तुम्हारे बच्चों के लिये इन्साफ कैसे जुटा सकती हैं!" 

पराजयबोध की ग्लानि में डूबी दूसरी मछलियों के इस नपुंसक जवाब से हताश हो कर विद्रोहिणी मछली ने फिर से पानी का दरवाज़ा खटखटाया. उसने अब आखिरी बार ज़ोर-ज़ोर से इन्साफ के लिये माँग की. पानी झल्लाता हुआ घर से बाहर निकला. अब उसका आराम-हराम हो चुका था. गुस्से से पागल हो चुकने पर उसका मत्था फिर गया था. लाल-लाल आँखों से मछली को घूरते हुए पानी का दो-टूक जवाब मछली के कानों से टकराया - "मैं जलनिधि हूँ. और तुम मेरी इकलौती बेटी नहीं हो. ऑक्टोपस भी मेरा ही बेटा है. और यह मेरा ही 'मत्स्य-न्याय' है, जिसके चलते हर छोटी मछली को बड़ी मछली खाती ही है." 

निष्ठुर सागर का दो-टूक जवाब सुन कर बेचारी मछली का मन मर गया. अपने सबसे बड़े होने के घमण्ड में डूबे सागर को इन्साफ माँगती मछली पर तनिक भी रहम नहीं आया. उसने अपने अहंकार में ज्वार की ज़बरदस्त उछाल ली. अब मछली का सागर से भी मोह-भंग हो चुका था. ज्वार की ऊँची उछलती लहरों ने पूरी क्रूरता के साथ विद्रोहिणी मछली को किनारे की चट्टानों पर उठा कर पटक दिया. 

कठोर चट्टानों पर गिरी मछली की हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं. खून से लथपथ मछली छटपटा रही थी. अब वह जिन्दा रह भी नही सकती थी और जिन्दा रहना भी नहीं चाहती थी. मरती हुई मछली को अपने नन्हे बच्चों की ऑक्टोपस द्वारा की गयी ह्त्याएं याद आ रही थीं. धरती और आकाश दोनों ही विद्रोहिणी मछली की ठण्डी मौत के गवाह थे. 

मछली अब मरना ही चाहती थी. उसकी आंसुओं से डबडबायी आँखों में केवल एक ही सपना था - "काश, इस समूचे सागर का खारा पानी किसी तरह मीठा हो जाता! काश, उसके मीठे पानी में कोई ऑक्टोपस न होता! काश, अब किसी नन्हे बच्चे की मासूम खुशियों को इतनी बेरहमी से लीला न जाता! काश, काश, काश, इन्साफ केवल एक खोखला शब्द न रह जाता, तो जिन्दगी कितनी खूबसूरत होती!" 

मरती हुई मछली ने धरती और आकाश की ओर मुँह करके ज़ोर से चिल्ला कर कहा - "तुम सब ने मेरे बच्चों को मरते देखा है. और अब आज तो मैं भी इन्साफ की लड़ाई में हार जाने पर मर रही हूँ. मगर मैं फिर आऊंगी और उस खारे सागर के क्रूर न्याय को बदल दूंगी, तब मैं केवल एक अकेली मासूम मछली नहीं रहूंगी. सभी जिन्दा ज़मीर वाले लोग मेरे साथ होंगे. और फिर वह सपनीली दुनिया गढी जायेगी. जिसमे प्यार आजादी के साथ परवान चढेगा." 

धरती और आकाश दोनों के मुँह से ईमान का केवल एक शब्द निकला, जिसे इतिहास के पन्नों ने अगली पीढ़ियों के जिन्दा ज़मीर वाले लोगों के बच्चों को पढ़ाने के लिये अपनी कोख में छिपा लिया और वह था "आमीन!". मर रही मछली को अब केवल अपने बच्चों की किलकारियां याद आ रही थी और उसने पूरे सुकून से अपनी आँखें बन्द कर लीं. इस तरह शहीद हुई मछली ने दुनिया को अलविदा कहा.

क्या उस मछली को न्याय मिलेगा? कौन करेगा इन्साफ? 
सोचिए मेरे दोस्त, सोचिए! कीजिए मेरे दोस्त, कुछ कीजिए!


इन्कलाब ज़िन्दाबाद!

इसी सन्दर्भ में पठनीय हैं ये दो गीत :
बाज का गीत : गोर्की की कलम : 'आह्वान' का सौजन्य
 
1
“ऊँचे पहाड़ों पर एक साँप रेंग रहा था, एक सीलनभरे दर्रे में जाकर उसने कुण्डली मारी और समुद्र की ओर देखने लगा।
“ऊँचे आसमान में सूरज चमक रहा था, पहाड़ों की गर्म साँस आसमान में उठ रही थी और नीचे लहरें चट्टानों से टकरा रही थीं…
“दर्रे के बीच से, अँधेरे और धुन्ध में लिपटी एक नदी तेज़ी से बह रही थी – समुद्र से मिलने की उतावली में राह के पत्थरों को उलटती-पलटती…
“झागों का ताज पहने, सप़फ़ेद और शक्तिशाली, वह चट्टानों को काटती, गुस्से में उबलती-उफनती, गरज के साथ समुद्र में छलांग मार रही थी।
“अचानक उसी दर्रे में, जहाँ साँप कुण्डली मारे पड़ा था, एक बाज, जिसके पंख ख़ून से लथपथ थे और जिसके सीने में एक घाव था, आकाश से वहाँ आ गिरा…
“धरती से टकराते ही उसके मुँह से एक चीख़ निकली और वह हताशापूर्ण क्रोध में चट्टान पर छाती पटकने लगा…
“सांप डर गया, तेज़ी से रेंगता हुआ भागा, लेकिन शीघ्र ही समझ गया कि पक्षी पल-दो पल का मेहमान है।
“सो रेंगकर वह घायल पक्षी के पास लौटा और उसने उसके मुँह के पास फुँकार छोड़ी -
“मर रहे हो क्या?”
“हां मर रहा हूँ!”
गहरी उसाँस लेते हुए बाज ने जवाब दिया।
‘ख़ूब जीवन बिताया है मैंने!…बहुत सुख देखा है मैंने!…जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं!…आकाश की ऊँचाइयाँ नापी हैं मैंने…
तुम उसे कभी इतने निकट से नहीं देख सकोगे!…तुम बेचारे!’

आकाश?
वह क्या है?
निरा शून्य…
मैं वहाँ कैसे रेंग सकता हूँ?
मैं यहाँ बहुत मज़े में हूँ…
गरमाहट भी है और नमी भी!’

“इस प्रकार साँप ने आज़ाद पंछी को जवाब दिया और मन ही मन बाज की बेतुकी बात पर हँसा।

“और उसने अपने मन में सोचा –
‘चाहे रेंगो, चाहे उड़ो, अन्त सबका एक ही है –
सबको इसी धरती पर मरना है, धूल बनना है।’

“मगर निर्भीक बाज़ ने एकाएक पंख फडप़फ़ड़ाये और दर्रे पर नज़र डाली।
“भूरी चट्टानों से पानी रिस रहा था और अँधेरे दर्रे में घुटन और सड़ान्ध थी।
“बाज़ ने अपनी समूची शक्ति बटोरी और तड़प तथा वेदना से चीख़ उठा -

“काश, एक बार फिर आकाश में उड़ सकता!
…दुश्मन को भींच लेता
…अपने सीने के घावों के साथ
…मेरे रक्त की धारा से उसका दम घुट जाता!
…ओह, कितना सुख है संघर्ष में!’…

“सांप ने अब सोचा –
‘अगर वह इतनी वेदना से चीख़ रहा है, तो आकाश में रहना वास्तव में ही इतना अच्छा होगा!’

“और उसने आज़ादी के प्रेमी बाज से कहा –
‘रेंगकर चोटी के सिरे पर आ जाओ और लुढ़ककर नीचे गिरो।
शायद तुम्हारे पंख अब भी काम दे जायें और तुम अपने अभ्यस्त आकाश में कुछ क्षण और जी लो।’

“बाज़ सिहरा, उसके मुँह से गर्व भरी हुँकार निकली और काई जमी चट्टान पर पंजों के बल फिसलते हुए वह कगार की ओर बढ़ा।
“कगार पर पहुँचकर उसने अपने पंख फैला दिये, गहरी साँस ली और आँखों से एक चमक-सी छोड़ता हुआ शून्य में कूद गया।
“और ख़ुद भी पत्थर-सा बना बाज चट्टानों पर लुढ़कता हुआ तेज़ी से नीचे गिरने लगा, उसके पंख टूट रहे थे, रोयें बिखर रहे थे…
“नदी ने उसे लपक लिया, उसका रक्त धोकर झागों में उसे लपेटा और उसे दूर समुद्र में बहा ले गयी।
“और समुद्र की लहरें, शोक से सिर धुनती, चट्टान की सतह से टकरा रही थीं…पक्षी की लाश समुद्र के व्यापक विस्तारों में ओझल हो गयी थी…

2
“कुण्डली मारे साँप, बहुत देर तक दर्रे में पड़ा हुआ सोचता रहा –
पक्षी की मौत के बारे में, आकाश के प्रति उसके प्रेम के बारे में।
“उसने उस विस्तार में आँखें जमा दीं जो निरन्तर सुख के सपने से आँखों को सहलाता है।
“‘क्या देखा उसने – उस मृत बाज़ ने –
इस शून्य में, इस अन्तहीन आकाश में?
क्यों उसके जैसे आकाश में उड़ान भरने के अपने प्रेम से दूसरों की आत्मा को परेशान करते हैं?
क्या पाते हैं वे आकाश में?
मैं भी तो, बेशक थोड़ा-सा उड़कर ही, यह जान सकता हूँ।’

“उसने ऐसा सोचा और कर डाला।
कसकर कुण्डली मारी, हवा में उछला और सूरज की धूप में एक काली धारी-सी कौंध गयी।
“जो धरती पर रेंगने के लिए जन्मे हैं, वे उड़ नहीं सकते!
…इसे भूलकर साँप नीचे चट्टानों पर जा गिरा, लेकिन गिरकर मरा नहीं और हँसा -

“‘सो यही है आकाश में उड़ने का आनन्द!
नीचे गिरने में!…हास्यास्पद पक्षी!
जिस धरती को वे नहीं जानते,
उस पर ऊबकर आकाश में चढ़ते हैं और उसके स्पन्दित विस्तारों में ख़ुशी खोजते हैं। लेकिन वहाँ तो केवल शून्य है।
प्रकाश तो बहुत है,
लेकिन वहाँ न तो खाने को कुछ है और न शरीर को सहारा देने के लिए ही कोई चीज़। तब फिर इतना गर्व किसलिए?
धिक्कार-तिरस्कार क्यों?
दुनिया की नज़रों से अपनी पागल आकांक्षाओं को छिपाने के लिए,
जीवन के व्यापार में अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए ही न?
हास्यास्पद पक्षी!
…तुम्हारे शब्द मुझे फिर कभी धोखा नहीं दे सकते!
अब मुझे सारा भेद मालूम है!
मैंने आकाश को देख लिया है…उसमें उड़ लिया,
मैंने उसको नाप लिया और गिरकर भी देख लिया,
हालाँकि मैं गिरकर मरा नहीं,
उल्टे अपने में मेरा विश्वास अब और भी दृढ़ हो गया है।
बेशक वे अपने भ्रमों में डूबे रहें, वे, जो धरती को प्यार नहीं करते।
मैंने सत्य का पता लगा लिया है।
पक्षियों की ललकार अब कभी मुझ पर असर नहीं करेगी।
मैं धरती से जन्मा हूँ और धरती का ही हूँ।’

“ऐसा कहकर, वह एक पत्थर पर गर्व से कुण्डली मारकर जम गया।

“सागर, चौंधिया देने वाले प्रकाश का पुंज बना चमचमा रहा था और लहरें पूरे ज़ोर-शोर से तट से टकरा रही थीं।
“उनकी सिह जैसी गरज में गर्वीले पक्षी का गीत गूँज रहा था। चट्टानें काँप रही थीं समुद्र के आघातों से और आसमान काँप रहा था दिलेरी के गीत से -

‘साहस के उन्मादियों की हम गौरव-गाथा गाते हैं! गाते हैं उनके यश का गीत!’

‘साहस का उन्माद-यही है जीवन का मूलमन्त्र ओह, दिलेर बाज!
दुश्मन से लड़कर तूने रक्त बहाया…
लेकिन वह समय आयेगा
जब तेरा यह रक्त
जीवन के अन्धकार में चिनगारी बनकर चमकेगा और
अनेक साहसी हृदयों को आज़ादी तथा प्रकाश के उन्माद से अनुप्राणित करेगा!’

‘बेशक तू मर गया!…
लेकिन दिल के दिलेरों और बहादुरों के गीतों में तू सदा जीवित रहेगा,
आज़ादी और प्रकाश के लिए संघर्ष की गर्वीली ललकार बनकर गूँजता रहेगा!’

“हम साहस के उन्मादियों का गौरव-गान गाते हैं!”
http://ahwanmag.com/baaz-ka-geet-Maxim Gorky


Kavita Krishnapallavi - -: गरुड़ की उड़ान :-
"बौद्धिक विमर्श के आँगन में घरेलू मुर्गियों ने काफ़ी चीख-पुकार मचा रखी है।
पर्वतीय गरुड़ शत्रु से जूझते हुए लहूलहुान, घायल, एक चट्टान पर पंख फैलाये पड़ा है।
वह शत्रु के हाथों पाये जख्‍़मों से अधिक आने वाले दिनों के अभियानों और संघर्षों के बारे में सोच रहा है।
शायद वह स्‍वस्‍थ होकर फिर से आकाश की ऊँचाइयों को चूमने के बारे में सोच रहा है।
शायद वह अपने बच्‍चों के बड़े होकर शत्रुओं से जूझने के भविष्‍य-स्‍वप्‍नों में डूबा हुआ है।
आँगन की कुछ मुर्गियाँ उसके पागलपन पर हँस रही हैं...
क्‍या फ़ायदा इसतरह के जोखिम उठाने में, यह भी भला जीने का कोई तरीक़ा है, मौत के ख़तरों और अनिश्‍चय से भरा हुआ!!
कुछ मुर्गियाँ आसमान में उड़ने के ही विरुद्ध हैं।
कुछ सीमित ऊँचाई और सीमित दायरे का आसमान चुनकर उड़ने के पक्ष में हैं।
कुछ गारण्‍टीशुदा सुरक्षित उड़ानों और बिना कोई जोखिम लिये शत्रु पर फ़तह हासिल करने की तरक़ीब खोज निकालने का दावा कर रही हैं।
कुछ का कहना है कि अब समय वैसी उड़ानों और युद्धों का नहीं रहा।
कुछ का कहना है कि फिलहाल ऐसी चीज़ें मुमकिन नहीं।
कुछ का कहना है कि पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण जल्‍दी ही पर्वतीय गरुड़ विलुप्‍त हो जायेंगे।
फिर ज़माना सिर्फ़ आँगन की मुर्गियों का, बत्‍तखों, बुलबुलों, बटेरों और पण्‍डूकों का होगा।
विमर्श लगातार जारी है।
सेमिनार-सिम्‍पोजियम-कोलोक़ियम हो रहे हैं।
पुस्‍तकालयों में बस मुर्गियों की कुड़क-कुड़क ही सुनाई दे रही है।
पर्वतीय गरुड़ पुरानी चोटों से उबर कर नयी ओजस्विता और तूफ़ानी वेग के साथ फिर से शत्रु पर टूट पड़ने के संकल्‍प बाँध रहा है।
- कविता कृष्‍णपल्‍लवी