Sunday 16 September 2012

आर्थिक गुलामी के विरुद्ध प्रतिरोध-संघर्ष की चुनौती स्वीकारना ही होगा! -- गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज हमारी जिन्दगी के एक के बाद दूसरे हिस्से को निगलती जा रही महंगाई की सुरसा क्यों इतनी आक्रामक होती जा रही है - इसे समझने के लिये एक बार फिर से सन्दर्भ के तौर पर प्रस्तुत है यह लेख. जो 1994 में तभी लिखा गया था, जब डंकल प्रस्ताव पर सत्तानशीन जयचंदों ने हस्ताक्षर कर के देश की आज़ादी को बेच दिया था.
आर्थिक गुलामी के विरुद्ध प्रतिरोध-संघर्ष की चुनौती स्वीकारना ही होगा!
 -- गिरिजेश
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह दिवस (23 मार्च,1994)
       साथियों, गाँव के निरक्षर गरीब की झोपड़ी से बुद्धिजीवियों की सभाओं तक देश के कोने-कोने में गुस्से की एक लहर कौंध रही है। इसकी वजह है कि पिछले 15 दिसम्बर को डंकल प्रस्ताव को मंजूरी देकर सरकार ने देश के साथ गद्दारी की है। 277 हजार करोड़ रु0 के विदेशी कर्ज से दबी देशी पूँजी के पतित प्रतिनिधियों ने लोकतन्त्र के नाम पर हमारे पास जो कुछ भी है, उसकी हत्या करने का मनसूबा बना लिया है। अप्रैल में गैट वार्ता के निष्कर्ष पर सरकारी प्रतिनिधि के हस्ताक्षर के साथ ही हम अपनी आर्थिक सम्प्रभुता खो देंगे। देश दुबारा ग़ुलाम हो जायेगा। जब खुद सरकार ही देश को गु़लाम बनाने पर उतारू हो चुकी है, तो सवाल उठता है कि आख़िर कौन बचायेगा देश? आप, केवल आप! इतिहास गवाह है कि संकट की ऐसी काली घड़ियों में समूचा राष्ट्र एक साथ खड़ा होता है, संकल्प लेकर आगे बढ़ता है और आर-पार की लड़ाई लड़कर विदेशी शोषकों के साथ गद्दार वतन-फरोशों को भी इतिहास के कूड़ेदान पर फेंक कर आज़ादी के झण्डे लहराता शान के साथ आगे बढ़ जाता है।
       आइए, जाने तो सही कि यह गैट और डंकल है क्या बला? कौन लोग अपने देश को ग़ुलाम बना रहे हैं? और किस तरह देश ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़ा जा रहा है?
       सामूहिक उत्पादन और व्यक्तिगत मालिकाने के तीख़े अन्तर्विरोध से ग्रस्त आज की दुनिया में मूल संकट निरन्तर संचित होती पूँजी के पुनर्निवेश का संकट है। निवेश के साथ ही संचय की यह प्रक्रिया अगली बार और बड़े पैमाने पर दुहरायी जाती है। आज शोषण की इस सतत विकासमान प्रक्रिया में बाधा पैदा हो चुकी है। इस विश्व-व्यापी बाधा का नाम है आर्थिक मन्दी। मन्दी का मतलब है मुनाफ़ा कमाने के मकसद से पैदा किया गया माल बिक नहीं पा रहा है। बाज़ार माल से पटा पड़ा है और ख़रीदार की ज़ेब खाली है। मन्दी के दुष्चक्र का मुकाबला करने के लिए पूँजीजीवाद ने अब तक जिन हथियारों का सहारा लिया है, वे हैं मुद्रास्फीति (आज रुपये की कीमत 1960 के आधार वर्ष से मात्र 7.6 पैसा है); भारी विदेशी कर्ज़, वेतन वृद्धि का झुनझुना, प्रत्यक्ष उत्पादकों की भारी पैमाने पर छँटनी, कारख़ानों में तालेबन्दी और अन्ततः दुनिया के बाज़ारों की एक बार फिर बन्दरबाँट - पहले समझौता की मेज़ पर और असफल होने पर विश्वयुद्ध के मैदान में। फैसला दो बार पहले भी हो चुका है। 1905 और 1930 के मन्दी के चक्रों से उबरने के लिए दुनिया को दो विश्वयुद्धों की विभीषिका से गुज़रना पड़ा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद थोड़े दिनों की मोहलत मिली। 1960 से आज तक फिर मन्दी का चक्र जारी है।
     आज़ादी हासिल करने के बाद भारतीय शासक पूँजीपति वर्ग ने भी अन्य अनेक देशों की तरह विकास का पूँजीवादी रास्ता अपनाया और साम्राज्यवादी पूँजी की ऑक्टोपसी जकड़ से भारतीय जनता की मुक्ति की प्रक्रिया को अधूरा छोड़ दिया। पूँजीवादी व्यवस्था के विकास के लिए समाजवाद के नेहरू माडल की संज्ञा देकर जनता के खू़न-पसीने के पैसे से जिस सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण और विस्तार किया गया। उसे भी भ्रष्टाचार में गले तक डूबी टुकड़खोर नौकरशाही चला नहीं पायी और घाटे के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को औने-पौने दामों पर निज़ी क्षेत्र के पूँजीपतियों को बेचा जा रहा है। 1956 में रूस और 1976 में चीन द्वारा समाजवाद का रास्ता छोड़कर मज़दूर-किसानों के राज को मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी भेड़ियों के हवाले कर देने के बाद समाजवादी क्रान्ति की धारा क्षीण होती चली गयी। सामाजिक साम्राज्यवादी रूस के बिख़रते ही तीसरी दुनिया (एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों) के शासकों की रही-सही सौदेबाज़ी की ताकत नष्ट हो गयी। कलम के ग़ुलामों द्वारा प्रचारित किया जाने लगा कि मार्क्सवाद फेल हो गया, कि पूँजीवाद ही अपराजेय है, कि समाजवाद भ्रष्टाचारियों का शब्द-जाल है, कि दो खेमों में बँटी दुनिया आज फिर महाबली अमेरिका की चैधराहट में एक ध्रुवीय बन गयी है। ऐसा अनर्गल कुत्सा-प्रचार जीवन के द्वन्द्व के विरुद्ध अवैज्ञानिक चिन्तन को ही पुष्ट करता है।
       सात साम्राज्यवादी देशों अमेरिका, जर्मनी, जापान, कनाडा, फ्रांस, ब्रिटेन और इटली के संगठन का नाम है - जी-7 और 1947 में गैट अर्थात जनरल ऐग्रीमेन्ट ऑन ट्रेड ऐण्ड टेरिफ़ (व्यापार और तटकर सम्बन्धी सामान्य समझौता) हुआ। अपने भारत सहित अब इसके सदस्य 117 देश हैं। जेनेवा में इसका मुख्यालय है। आर्थर डंकल नाम के एक अमेरिकी ने गैट के डाइरेक्टर-जनरल पद से 446 पृष्ठों का एक प्रस्ताव गैट की सहमति के लिए प्रस्तुत किया। अब यह आर्थर डंकल कारगिल नाम की एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी करता है। गैट पर कारगिल, फ़ाइजर, मोनसेन्टो, डु पोन्ट, अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटी बैंक, आई0 बी0 एम0 - जैसी दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के संगठन - मल्टीनेशनल टेªड नेगोसिएशन्स कोआलिशन (एम0 टी0 एन0 सी0) का वर्चस्व है।
       डंकल प्रस्ताव के सहारे साम्राज्यवादी देश आर्थिक मन्दी के चलते खोखले हो जाने पर विश्वपटल पर दादागिरी करके अपने आर्थिक संकट का बोझ तीसरी दुनिया के मत्थे मढ़ने और उनका और भी अधिक दोहन करने की फ़िराक में है। एक नज़र उनकी पतली हालत के कच्चे चिट्ठे पर डालने से उनकी बौखलाहट का अनुमान लग जायेगा। आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्ज़ख़ोर देश है। उसका बजट घाटा सकल घरेलू उत्पादन का 50 प्रतिशत अर्थात् 400 अरब डालर और घरेलू कर्ज़ पर ब्याज पूरे बजट का 20 प्रतिशत हो चुका है। यूनीसेफ़ की रिपोर्ट है कि अमेरिका में 31 प्रतिशत परिवार बेघर हैं। गरीब आदमी के पास अगर मकान है भी, तो उसके किराये पर उसे अपनी आय का 70 प्रतिशत ख़र्च करना पड़ता है। अमेरिकी कम्पनियाँ अपनी क्षमता का मात्र 78 प्रतिशत उत्पादन कर पा रही हैं। प्रति व्यक्ति उत्पादन 12 प्रतिशत गिर गया है। दर्ज़नों बैंक दिवालिया हो चुके हैं। जनरल मोटर्स, फ़ोर्ड, वी0 डब्ल्यू, मर्सडीज़ बेंज आदि अमेरिकी कम्पनियों ने प्रत्येक 12 हज़ार या अधिक मज़दूरों की छँटनी कर दी है। बेरोज़गारों की संख्या अमेरिका में 7.3 प्रतिशत, यूरोप में 3.4 करोड़, ब्रिटेन में 10 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया में 12 प्रतिशत, कनाडा और फ्रांस में 11 प्रतिशत हो चुकी है। पूरी दुनिया में डंकल के चलते 7 करोड़ लोगों को काम से हाथ धोना पड़ेगा। जर्मनी में विकास दर शून्य हो चुकी है। निवेश 34 प्रतिशत कम होने की सम्भावना है। ब्रिटेन में सकल घरेलू उत्पाद में 2.5 प्रतिशत की कमी हो गयी है। वहाँ 30 कोयला खानें बन्द हो चुकी हैं। जापानी अर्थव्यवस्था का सूचकांक शून्य पर पहुँच चुका है। वहाँ ठहराव की शिकार अर्थव्यवस्था के तीनों अवयव – उत्पाद, रोजगार और ख़रीदारी पहले के मुकाबले ख़स्ताहाल हैं। गत एक वर्ष में दिवालिया होने वालों में 85 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पूँजीवादी व्यवस्था में बड़ी पूँजी अपने से छोटी पूँजियों को निगलती चली जाती है। बदहवाशी के आलम में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक सारी दुनिया के अतिरिक्त मूल्य (मुनाफ़े) के बँटवारे में सहमति दिखाते हुए डंकल प्रस्ताव का सहारा लेकर विश्व-विजय का अभूतपूर्व प्रहसन आरम्भ किया है। गैट का अघोषित उद्देश्य तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों को आर्थिक नव उपनिवेशवादी गु़लामी में जकड़ना है। गैट पर अमेरिकी प्रभुत्व जग ज़ाहिर है। गैट वार्ता के प्रत्येक चक्र में अमेरिकी कानूनों के अनुरूप संशोधन होते आये हैं। इसके प्रथम 5 चक्रों (1947 - जेनेवा, 1949फ्रांस, 1951इंगलैण्ड, 1956, 60, 62 - जेनेवा) में अमेरिकी कानून रेसीप्रोकल ट्रेंड ऐग्रीमेन्ट-1934 के अनुरूप, सातवें (टोकियो – 1973) चक्र में अमेरिकी व्यापार कानून - 1974 के अनुरूप तथा 1986 में आरम्भ हुए आठवें उरुग्वे चक्र में ओम्नीवस टेªड ऐन्ड कम्पटीटिवनेस ऐक्ट - 1988 के अनुरुप संशोधन स्वीकार किये गये। 15 दिसम्बर 93 को इसमें ट्रिम्स और ट्रिप्स (टेªड रिलेटेड इनवेस्टमेन्ट मेज़र्स और टेªड रिलेटेड इन्टेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट्स) नामक दो नये भाग जोड़ दिये गये।
        डंकल प्रस्ताव के मुख्य भाग हैं :- (1) एम0 टी00 (2) गैट्स (3) ट्रिम्स (4) ट्रिप्स (5) कृषि (6०) दवाइयाँ।
       (1) एम0 टी00 (मल्टीलैटरल टेªड ऑरगैनाइज़ेशन) :- राष्ट्रीय जीवन के हर पक्ष – उद्योग, खेती, बैंकिंग, बीमा, आयात-निर्यात, निवेश, स्वास्थ्य शिक्षा - सबको प्रभावित करने वाला सत्ता का यह गैर संवैधानिक केन्द्र भारत सरकार से भी अधिक प्रभावी और ताकतवर बन जाएगा। अभी ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दिल्ली स्थित अधिकारी कम्प्यूटरों द्वारा त्रैमासिक निगरानी व्यवस्था के ज़रिये सारे आँकड़े एकत्र कर रहे हैं। डंकल लागू होने के बाद ये अपने पक्ष में न्याय का नाटक भी करेंगे।
       (2) गैट्स (सेवा क्षेत्र में व्यापार के लिए सामान्य समझौता) :- सेवा क्षेत्र में बैंक, बीमा कम्पनियाँ, मीडिया, (समाचार, रेडियो एवं टेलीविज़न), संचार (डाक और टेलीफोन), यातायात, शिक्षा, चिकित्सा आदि आते हैं। डंकल प्रस्ताव इन कामों में सरकारी एकाधिकार की अनुमति नहीं देता और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इन क्षेत्रों में बिना सरकारी नियन्त्रण के काम करेंगी। वे देशी कम्पनियों का अधिग्रहण कर सकती हैं और अपना एकाधिकार भी बना सकती हैं। प्रतियोगिता में न टिक पाने के कारण देशी बैंक और बीमा कम्पनियाँ, डाक-सेवा और समाचार-पत्र तबाह हो जायेंगे। पाँच सौ बैंक शाखाओं को अप्रैल 1994 तक बन्द करने लिए चिह्नित किया जा चुका है और 1995 तक कुल पाँच हज़ार बैंक शाखाएं बन्द कर दी जायेंगी। 50 सार्वजनिक उपक्रमों को बन्द कर देने से 20 लाख कर्मचारी बेरोज़गार हो जायेंगे। रेलवे के 40 प्रतिशत मज़दूरों और कर्मचारियों को निकाल फेंका जायेगा। प्रशासनिक सेवाओं में 10 प्रतिशत की कमी कर दी जायेगी।
       विदेशी टी0 वी0 द्वारा अश्लीलता, कामुकता और हिंसा भरे भद्दे कार्यक्रमों की औपनिवेशिक संस्कृति की तलछट सारे देश की चेतना को दूषित कर रही है। खास कर नौजवानों में यह कूड़ा नशे के रूप में फैलता जा रहा है। इस सांस्कृतिक हमले के द्वारा महान भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा से काट कर नयी पीढ़ी को नैतिक चारित्रिक रूप से पतित और दिग्भ्रमित कर राष्ट्र को और भी कमज़ोर किया जा रहा है, ताकि गु़लाम बनाये रखने में किसी तरह की कोई कठिनाई न हो।
       (3) ट्रिम्स (व्यापार सम्बन्धी पूँजी-निवेश) :- विदेशी पूँजी-निवेश पर से सारे प्रतिबन्ध हट जायेंगे। आज कुल विदेशी निवेश 8010 करोड़ रुपये का है और लगभग दो हजार विदेशी कम्पनियाँ भारतीय बाज़ार में चर-खा रही हैं। अरबों रुपये प्रति वर्ष मुनाफ़े, रायल्टी व प्रौद्योगिकी शुल्क के रूप में लूट ले जाने वाली ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ 1976-77 में 121.5 करोड़, 1986-87 में 494.6 करोड़ और पिछले 11 वर्षों में 3244.15 करोड़ रुपये ले जा चुकी हैं। जब कि उनकी शेयर पूँजी मात्र 675 करोड़ रुपये ही है। अपने देश के कुल निर्यात का मात्र 0.5 प्रतिशत ही विदेशी कम्पनियों का हिस्सा है। साफ है कि विदेशी पूँजी निवेश के कारण विदेशी मुद्रा भण्डार और निर्यात बढ़ने के बजाय बेतहाशा मुनाफ़ा ही देश से बाहर जाता है और इस प्रकार भुगतान-संतुलन का संकट उत्पन्न हो जाने के कारण अर्थ-व्यवस्था आने वाले दिनों में और भी खोखली होती चली जायेगी। आज कर्ज़ के फन्दे में फँसे हमारे राष्ट्र की सकल आय का 25 प्रतिशत विदेशी कर्ज का सूद चुकाने में ही ख़र्च हो जा रहा है और हर भारतीय के सिर पर 4 हजार रु0 का कर्ज़ लदा हुआ है।
       (4) ट्रिप्स (व्यापार सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकार) :- अमेरिकी पेटेन्ट कानून को लागू करने के चक्कर में भारत का 1970 का पेटेन्ट कानून पूरी तरह बदला जा रहा है। साथ ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम को भी बदला जायेगा। आज पश्चिम के पाँच पूँजीवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तीसरी दुनिया के 77 देशों के पेटेन्टों की मालिक हैं। जब कि इन देशों के लिए वे इनमें से मात्र 5 प्रतिशत ही उत्पादन करती हैं। (पेटेन्ट या कापी-राइट खोज करने वाली कम्पनी द्वारा अपने नाम से उस वस्तु के रजिस्टेªशन को कहते हैं।)
ट्रिप्स के सात असर होंगे - (क) प्रक्रिया की जगह उत्पादन का पेटेन्ट :- अब एक उत्पाद को दूसरी प्रक्रिया से नहीं बनाया जा सकेगा और उपभोक्ता से वस्तुओं का मनमाना दाम वसूलने की पूरी छूट रहेगी क्योंकि बाज़ार में विकल्प उपलब्ध नहीं होगा।
       (ख) पेटेन्ट की अवधि :- भारतीय पेटेन्ट कानून के अनुसार मात्र 7 वर्ष की थी। डंकल प्रस्ताव से 20 वर्ष हो जायेगी। उसके बाद अगले 40 वर्षों के लिए प्रक्रिया का पेटेन्ट कराया जा सकेगा। इससे वैज्ञानिक अनुसन्धान और प्रतियोगिता बाधित होंगे और बाज़ार पर एकाधिकार को बढ़ावा मिलेगा।
       (ग) पेटेन्ट धारकों को विशेषाधिकार :- पेटेन्ट धारकों की अनुमति के बिना आपात स्थिति में भी पेटेन्ट वस्तु का आयात नहीं किया जा सकेगा।
       (घ) अनिवार्य लाइसेन्स व्यवस्था रद्द :- पेटेन्ट कराने के बाद कोई कम्पनी यदि किसी वस्तु का उत्पादन न करे, तो देश-हित में उसका उत्पादन करने के लिए दूसरी कम्पनी को वह लाइसेन्स देने के लिए उसे मजबूर नहीं किया जा सकेगा। पहले यह व्यवस्था थी।
       (ङ) साक्ष्य अधिनियम में परिवर्तन :- भारतीय साक्ष्य अधिनियम में शिकायत करने वाले को अभियोग सिद्ध करना पड़ता है। डंकल प्रस्ताव लागू हो जाने पर जिसके विरुद्ध शिकायत की जायेगी, वह ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने को विवश होगा।
       (च) पेटेन्ट के नये क्षेत्र :- जैविक पदार्थ, जैविक प्रक्रिया (पौधों व पशुओं का नस्ल सुधार आदि) तथा परमाणु ऊर्जा तकनीक अब पेटेन्ट के घेरे में आ चुके हैं।
       (छ) पाइप लाइन सुरक्षा :- डंकल प्रस्ताव अपने अनुरूप देशी कानूनों को बदलने के लिए 10 वर्ष की मोहलत दे रहा है।
       (5) कृषि क्षेत्र :- इस पर भी डंकल प्रस्ताव के सात प्रभाव होंगे।
(क) पौधों की किस्मों की सुरक्षा को ख़तरा :- किसान अब अपने खेत से बीज पैदा न कर सकेगा। उसे विदेशी कम्पनियों से ही हर साल बीज खरीदना पड़ेगा। वरना जेल और जुर्माना दोनों झेलना होगा। खेती,
बागवानी और पशु-पालन - तीनों ही पेटेन्टधारी विदेशी कम्पनियों के पंजों में जकड़ जायेंगे। अनाज की खेती को घाटे का सौदा बना दिया जायेगा। विदेशी कम्पनियों की ज़रूरत की काफ़ी, कोको, तम्बाकू जैसी फसलों को बढ़ावा दिया जायेगा।
       (ख) बीज बाज़ार पर एकाधिकार :- भारत में प्रति वर्ष 6 लाख टन बीज की खपत होती है। इसमें से 2.2 लाख टन बीज सरकार मुहैया कराती है। शेष किसान आपसी लेन-देन से प्राप्त करते हैं। डंकल प्रस्ताव किसानों का बीज बचाने, खरीदने-बेचने और बीज बदलने का अधिकार छीन कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार उन पर थोप देगा। देशी बीज कम्पनियाँ या तो बन्द हो जायेंगी या फिर कारगिल जैसी विदेशी कम्पनियों द्वारा लील ली जायेंगी।
       (ग) कृष्ज्ञि सब्सिडी में कटौती :- डंकल प्रस्ताव कृषि उत्पाद के कुल मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक सब्सिडी (छूट या अनुदान) देने पर रोक लगाता है। और यह सब्सिडी भी 1986 - 87 के मूल्य के आधार पर होगी। आज अकेले गन्ने की खेती पर 30 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाती है। किसान पहले से ही महँगे खाद, बीज, सिंचाई तथा कीटनाशकों के और भी महँगे हो जाने से बोझ नहीं उठा सकेंगे। वे खेती से उजड़ जायेंगे। अपने खेत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचकर वे सर्वहारा की सेना में खड़े होने के लिये बाध्य हो जायेंगे। अभी ही 90 प्रतिशत गरीब किसानों के पास खेतों का मात्र 20 प्रतिशत है और 44 प्रतिशत आबादी खेत-मज़दूर है। कल भूस्वामित्व का यह ध्रुवीकरण और बढ़ेगा और अधिकांश किसानों का कंगालीकरण द्वारा कायाकल्प करके उनको महानगरों की सड़कों पर बेरोज़गार बना कर फेंक देगा। 1992 में सरकार द्वारा पोटाश और फास्फेट को नियन्त्रण मुक्त करने से खाद की कीमतों में 88 प्रतिशत से 265 प्रतिशत तक की वृद्धि हो चुकी है। 30 उर्वरक कारख़ाने बन्द हो चुके हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खाद डी00 पी0 188 प्रतिशत, फास्फेट 134 प्रतिशत, नाइट्रोफास्फेट 122 प्रतिशत, पोटाश 247 प्रतिशत अधिक दाम पर मिलते हुए किसान अभी ही देख रहा है। हमें सब्सिडी समाप्त करने का फ़तवा देने वाले खुद अपने किसानों को - जापान 70 प्रतिशत, यूरोपीय देश-37 प्रतिशत तथा अमेरिका-26 प्रतिशत (5.5 लाख करोड़ डालर) कृषि सब्सिडी देते हैं। 
       (घ) बीमा योजनाओं पर प्रतिबन्ध :- डंकल के चलते किसान को उसके घाटे का मात्र 70 प्रतिशत या उससे कम बीमा कम्पनी द्वारा मिल पायेगा। प्राकृतिक विपदाओं में मिलने वाली सरकारी सहायता भी डंकल की चपेट में आ चुकी है। पशुवध होने, खेत परती छोड़ने या पिछले तीन वर्षों की औसत आय के 30 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर ही यह सहायता मिल सकेगी।         
(ङ) आधारभूत परियोजनाओं में कटौती :- सिंचाई, विद्युतीकरण आदि से सम्बन्धित खर्च 10 प्रतिशत की अधिकतम सीमा वाली सब्सिडी योजना में शामिल होने के कारण सरकारी पाइलट प्रोजेक्ट, माडल प्रोजेक्ट तथा कमाण्ड एरिया डेवलपमेन्ट कार्यक्रम आदि बन्द कर दिये जायेंगे।
       (च) अनाज-बाज़ार में विदेशी घुसपैठ :- पूरे विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या भारत में है और यहाँ 12 प्रतिशत अनाज पैदा होता है। जबकि अमेरिका में 13 प्रतिशत पैदा होता है और विश्व के 5 प्रतिशत लोग ही वहाँ बसते हैं। डंकल लागू होने के पहले वर्ष में अपनी अनाज की खपत का 3 प्रतिशत (60 लाख टन) और बाद में 5 प्रतिशत हमें आयात करना ही पडे़गा - चाहे ज़रूरत हो या नहीं। ऊपर से तुर्रा यह है कि अगले 10 वर्ष में सीमा शुल्क घटा कर 24 प्रतिशत तक लाना पड़ेगा। दुनिया की अनाज-मण्डी का 80 प्रतिशत भाग 5 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (कारगिल - 25 प्रतिशत, कान्टीनेन्टल ग्रेन - 20 प्रतिशत, 0 वी0 एम0 / टोपर - 13 प्रतिशत, वुन्जेवान - 13 प्रतिशत, फेरुनी 8.1 प्रतिशत) की मुट्ठी में सिमटा हुआ है। मुट्ठी भर विकसित देश 100 गरीब  देशों की तुलना में 10 गुना गेहूँ का निर्यात और केवल 1.6 भाग आयात करते हैं। अमीर देशों का गेहूँ निर्यात 728 लाख टन और गरीब देशों का 75 लाख टन है। जब कि अमीर देशों का गेहूँ आयात 96 लाख टन और गरीब देशों का 545 लाख टन है।
       (छ) खाद्य-भण्डार और सार्वजनिक वितरण-प्रणाली पर हमला :- देश की खाद्य-सुरक्षा और बाज़ार-मूल्य पर नियन्त्रण सार्वजनिक वितरण-प्रणाली द्वारा बना रहता है। सरकार समर्थन-मूल्य पर अनाज की खरीद, भण्डारण और सस्ती दर से वितरण करती है। अब सरकार केवल बाज़ार दर पर ही खरीद-बिक्री कर पायेगी। कीमतों को नियन्त्रित करने का अधिकार वह खो देगी। और व्यापारी उपभोक्ता को लूटने के लिये अपने उत्पादों की कीमतें जब मनमाने ढंग से बढ़ायेंगे या किसानों को चूना लगाने के लिए अनाज की कीमतें घटायेंगे, तो सरकार कुछ भी न कर पायेगी। गरीबों की मददगार सार्वजनिक वितरण-प्रणाली बुरी तरह चरमरा जायेगी। देश की कृषि आत्म-निर्भरता और खाद्यान्न-सुरक्षा को मटियामेट करके असहाय गरीबों को देशी-विदेशी थैली शाहों के रहम-ओ-करम का मुहताज़ बना कर भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जायेगा।
       (6) दवाओं की कीमतों पर प्रभाव :- डंकल प्रस्ताव के चलते दवाएं 400 प्रतिशत तक महंगी हो जायेगी। पिछले वर्ष में ही दवाओं की कीमत 200 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है। आज देश में दवाओं का उत्पादन 4570 करोड़ रुपये का, आयात 600 करोड़ और निर्यात 1200 करोड़ रुपये का होता है। आज भी 50 प्रतिशत से अधिक महत्वपूर्ण दवाएं अमेरिकी पेटेन्ट के अधीन हैं। उदाहरण के लिए अल्सर की एक दवा रेनीटिडीन भारत में 20 रुपये की 10 गोली, इंगलैण्ड में 481 रुपये और अमेरिका में 744 रुपये की मिलती है। इस एक उदाहरण से ही दवाओं की कीमतें बढ़ने का अनुमान लगाया जा सकता है और इसके भीषण परिणाम की कल्पना भी की जा सकती है कि जब भुखमरी और रोगों से तड़पता गरीब दवा की दूकान का मुँह देखे बिना मरने के लिये मजबूर होगा, तो देश और दुनिया की तस्वीर कितनी वीत्भस होगी। खरीदने की ताकत घटती जाने के कारण भारतीय बाज़ार में दवाओं की आपूर्ति आज की मात्र 10 प्रतिशत रह जायेगी और वह भी कम से कम 10 गुने ऊँचे दाम पर ही हासिल होगी।
       (7) कपड़ा उद्योग :- भारत में प्रति व्यक्ति कपड़े की वार्षिक बिक्री 1965 में 16 मी0, 1985 में 10 मी0 और 1991 में घटकर मात्र 8 मी0 रह गयी है। अब विदेशी कपड़ों पर आयात शुल्क 85 प्रतिशत से घटा कर 45 प्रतिशत करना होगा। जिससे भारतीय बाज़ार विदेशी वस्त्रों से पट जायेंगे और पहले से ही मन्दी का शिकार बीमार देशी कपड़ा उद्योग पूरी तरह तबाह हो जायेगा।
       (8) अनुसन्धान कार्यों पर प्रभाव :- आठवीं योजना में सरकार ने कृषि अनुसन्धान परिषद के ख़र्च में 35 प्रतिशत कटौती करके 2008 करोड़ से 13 करोड़ रुपये मात्र कर दिया है। सकल कृषि उत्पादन का केवल 0.32 प्रतिशत ही कृषि अनुसन्धान पर ख़र्च हो पाता है। भारत जैसे उष्ण कटिबन्ध के देशों में ही आनुवांशिकी संसाधन या जीन सम्पदा केन्द्रित है, जिसकी मदद से और भी विकसित नस्लें तैयार की जाती हैं। अब यह जीन सम्पदा जैव सम्पदा के पेटेन्टीकरण के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुनाफ़ा
पैदा करने वाला साधन भर बन कर रह जानी है।
       (9) हस्तशिल्प पर प्रभाव :- 1500 करोड़ रुपये का भारतीय हस्तशिल्प बिना किसी पेटेन्ट के प्रति वर्ष निर्यात होता है। यदि कोई कम्पनी इनका पेटेन्ट करा ले, तो देश भर के सारे हस्त-शिल्पी उस कम्पनी के बँधुवा बनने या उजड़ जाने के लिये विवश हो जायेंगे।
       तीसरी दुनिया के बोलीविया, घाना, ब्राजील, पेरू, मैक्सिको, थाईलैण्ड आदि देशों पर 13 खरब डालर का कर्ज़ है। मैक्सिको और ब्राज़ील जैसे देश तो कर्ज़ का सूद चुकाते-चुकाते दिवालिया हो चुके हैं। ब्राजील में प्रति माह 30 प्रतिशत मुद्रास्फीति हो रही है। भारत भी ब्राजील के रास्ते पर बढ़ता जा रहा है। हमारे पास भी डंकल प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद केवल सस्ता मज़दूर और कच्चा माल ही दुनिया के बाज़ार में बेचने के लिए बचेगा।
       किन्तु जहाँ भारतीय शासक पूँजीपति वर्ग सारी दुनिया के शासकों के साथ अपने अन्तर्विरोधों को सुलझाने में लगा है, वहीं दूसरी ओर उनकी लूट से त्रस्त होने पर भी उनका बोझ अपने कन्धों पर ढो रही सारी दुनिया के मज़दूर-किसानों की विराट सेना परस्पर एकजुटता व्यक्त करने में पहलकदमी लेने लगी है। इतिहास गवाह है कि जैसे पहले दो मन्दियों से उबरने की मंशा से हुए समझौते असफल रहे और साम्राज्यवादियों को युद्ध द्वारा ही अन्तिम निर्णय करना पड़ा। उसी तरह मन्दी का यह चक्र भी बिना तीसरे विश्वयुद्ध के पूरा नहीं होगा। और जैसे पिछले दो विश्वयुद्धों के परिणाम-स्वरूप रूस, चीन तथा पूर्वी यूरोप के अनेक देशों में क्रान्तियाँ हुईं और तीसरी दुनिया से उपनिवेशवादी (सीधे वहीं रहकर) गुलामी के युग का अन्त ही हो गया, मानवता ने समाजवाद की विजय के गीत गाये और सामूहिकता का मीठा फल चखा। वैसे ही विश्वयुद्ध की यह अनिवार्य सम्भावना भी क्रान्तियों की नयी श्रृंखला को जन्म देने जा रही है।
       29 दिसम्बर को कारगिल सीड कारपोरेशन के दफ़्तर को कर्नाटक राज्य रैयत संघ के किसानों ने जलाकर डंकल विरोधी प्रतिरोध युद्ध का पहला बिगुल बजा दिया है। सितम्बर 93 में इस कम्पनी को गुजरात का नमक निर्माण करने वाला कांडला बन्दरगाह बेचने का फैसला देशव्यापी विरोध के चलते लागू न हो पाया। किन्तु हरियाणा के गुड़गाँव में जापानी औद्योगिक बस्ती हजारों एकड़ ज़मीन खरीद कर बना रहे हैं। 
      क्या दुबारा देश को गुलाम बनाने वाली पैशाचिक शक्तियाँ इतिहास के चक्र को आगे बढ़ने से रोक लेंगी? कदापि नहीं। हमारे पुरखों ने गुलामी की हवा में घुटन भरी साँस लिया है। हम गुलामी की कड़वाहट से अनजान नहीं हैं और अपनी रही-सही आज़ादी का भी हमें अहसास तो है ही। सवाल है अब यह कि इतिहास-निर्माण के इन कठिन क्षणों में क्या आप हाथ पर हाथ धरे चुपचाप अपमानित होते बैठे रहेंगे या आगे बढ़कर अपनी निर्णायक भूमिका का निर्वाह करेंगे? फैसला करना ही होगा कि हमारी धरती पर पूँजीवाद का घिनौना नंगा नाच होता रहेगा या कि मज़दूर-किसानों के बलशाली हाथों से रची गयी सभ्यता जीवन के केन्द्र में मानवता को उसकी समूची गरिमा के साथ स्थापित करेगी। साथियों, पूरे जोश से आगे आइए। सारी धरती हमारी है, साम्राज्यवादी लुटेरों और उनके देशी छुटभैये पट्टीदार दरिन्दों की नहीं। मुक्ति का मार्ग कठिन भले ही है, किन्तु अन्तिम विजय हमारी ही होगी। 
एक और टिप्पड़ी देखें :-  
    14 मई, 2008 को टाइम्स ऑफ इंडिया में मिचिओ काकू के नारायणी गनेश द्वारा लिये गये साक्षात्कार के कुछ अंश छपे। काकू की कुछ बातों की अर्थवत्ता का व्यापक प्रचार होना चाहिए। काकू स्ट्रिंग फील्ड थियरी में सह संस्थापक हैं और न्यूयार्क की सिटी यूनीवर्सिटी में थियरिटिकल फिज़िक्स के प्रोफ़ेसर हैं। उनकी नयी किताब फिज़िक्स ऑफ़ द इम्पासिबुल - बेस्ट सेलर्स की सूची में है। अकसर बेस्ट सेलर मनोरंजक और सेंसेशनल किताबें बनती हैं। एक सैद्धांतिक किताब भारी संख्या में ख़रीदी और पढ़ी जा रही है - यह पहले तो इस दुष्प्रचार को विशेष कर भारत में नकारती है कि लोग पढ़ना छोड़ते जा रहे हैं, दूसरे यह कि अब लोगों की गम्भीर सैद्धान्तिक बातों में रुचि नहीं रही।
       विज्ञान ऊर्जा संकट को दूर कर सकता है। 10 - 15 वर्षों में पेट्रोल की कीमत इतनी ज़्यादा हो जायेगी और वैकल्पिक स्रोतों का दाम इतना कम होगा कि बात स्पष्ट हो जायेगी। 30 वर्षों में फ्रांस में हो रहे प्रयोग सफल हो सकते हैं। तब समुद्र के पानी को ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जायेगा। इसलिए संक्रमण के 15 - 20 वर्ष ही ख़तरनाक हैं।
       न्यूक्लियर एनर्जी को विकल्प मानना कड़ाही से आग में कूदने जैसा है (फ्रॉम फ्राइंग-पैन टु फ़ायर)। हाइड्रोजन पर आधारित फ़्यूजन’ साफ-सुथरा होता है। यूरेनियम पर आधारित ‘फिशन’ बहुत अधिक कचरा पैदा करता है। प्रकृति में फ्यूजन का बहुत इस्तेमाल है। इससे नक्षत्र अपने को रिसाइकिल’ करते रहते हैं। प्रकृति यूरेनियम का इस्तेमाल नहीं करती। वह गन्दा है। प्रकृति की तरह हमें भी ‘न्यूक्लियर’ ऊर्जा के बिना काम चलाना चाहिए। इस तर्क के पक्ष में चार कारण हैं :-
       1. इसमें बढ़ते जाने का ख़तरा है। परमाणविक ऊर्जा के व्यावसायिक और सामरिक उपयोग की टेक्नालाजी एक जैसी है। इसीलिए उनके बीच स्थायी दीवार नहीं खींची जा सकती।
2. दुर्घटना के अपरिहार्य ख़तरे हैं। (याद करें चेर्नोबिल की दुघर्टना)
3. कचरा रेडियो ऐक्टिव होता है। इसलिए बेहद ख़तरनाक है। जापान में हिरोशिमा में बम गिरे साठ साल से ज़्यादा हो गये। परन्तु वहाँ अभी भी बच्चे विकलांग पैदा होते रहते हैं। इस कचरे को कैसे फेंका या इस्तेमाल किया जाये - यह अभी भी भारी संकट और चुनौती बना हुआ है। 
4. इस ऊर्जा के इस्तेमाल से ग्लोबल वार्मिंगपर फर्क पड़े, इसके लिये इसका उत्पादन 10.50 गुना बढ़ाना पड़ सकता है। ऐसा कर पाना अव्यावहारिक लग रहा है। इसलिये इस विकल्प की कोई ज़रूरत ही नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि बाज़ार ही यह निर्णय कर देगा, क्योंकि सौर-ऊर्जा के उत्पादन का ख़र्चा कम ही होता जायेगा। जबकि दूसरे ऊर्जा-स्रोतों का ख़र्चा बढ़ ही रहा है।
       हमें भारत-अमेरिकी ऊर्जा समझौतों को इस परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। जो लोग इस समझौते का विरोध राजनीतिक कारणों से कर रहे हैं, वे भी परमाणु ऊर्जा के पक्ष में ही हैं। यह इनके जन, यथार्थ और वृहत्तर परिप्रेक्ष्य से दूर होने का ही प्रमाण है।
इन्क़लाब-जिन्दाबाद !              
उसका जीना भी क्या जीना? जिसका देश गुलाम है...             















 

      













2 comments:

  1. इंकलाब जिंदाबाद काले अंग्रेजों भारत छोड़ो

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