Friday 7 September 2012

"माओ त्से तुंग महान थे क्योंकि..." -गिरिजेश


"माओ त्से तुंग महान थे क्योंकि..."
       -गिरिजेश
साथियो, हम सभी वर्तमान वित्तीय नव उपनिवेशवादी व्यवस्था के कारण अपने प्यारे देश की रही-सही आज़ादी के ऊपर मँड़राते काले सायों से तथा अपने समाज के शोषक वर्गों की गद्दारी तथा विलासिता की हविश से तथा निरन्तर बढ़ती मँहगाई से तथा कर्ज़ के बोझ तले दबे अन्नदाता किसानों की आत्महत्या से तथा निर्लज्ज चुनावबाज़ नेताओं की करतूतों से तथा भ्रष्ट नौकरशाहों की अन्धी लूट से तथा शिक्षा-जगत के पतन के लिये जवाबदेह आज के द्रोणाचार्यों के शिष्य-द्रोह से तथा यमराज-सहोदर वैद्यराज के आज जारी प्राण तथा धन दोनों के अपहरण के कुचक्र से तथा सच को झूठ तथा न्याय को अन्याय में रूपान्तरित कर देने वाली न्याय की अन्धीश्देवी की शासक वर्गों के प्रति एकतरफ़ा पक्षपात की विद्रूपता से वर्दीधारी गुण्डा-गिरोह की मनबढ़ई से तथा साम्प्रदायिक एवं जातिवादी गणित के सहारे दंगे भड़का कर रोटी सेंकने वालों की कुण्ठा से तथा पतनशील पाश्चात्य संस्कृति की जूठन के लिये लार टपकाने वाले अपने ही भाइयों की लालच से तथा भारतीय जन-गण के भोलेपन एवं परम्परागत अन्धविश्वासों से तथा समाज में अपनी आॅक्टोपसी जकड़ बढ़ाती जा रही व्यक्तिवाद की अवसाद-ग्रस्त आत्म-हन्ता चेतना की विकृति से त्रस्त तथा क्षुब्ध हैं। हमें अपने आक्रोश को रचना और संघर्ष की दुधारी तलवार द्वारा व्यक्त करना होगा। केवल तभी हमें इन मर्मवेधी समस्याओं का समाधान प्राप्त होगा। और वह समाधान है - समाजवादी क्रान्ति द्वारा वर्तमान जन-विरोधी पूँजीवादी समाज-व्यवस्था को पलट कर जनपक्षधर समाजवादी समाज-व्यवस्था की स्थापना। इसका मतलब है - उत्पादन के साधनों का निजी मालिकाना तथा विरासत का हक़ समाप्त करके सबके लिये समान अवसर वाला समाज बनाना।

हमारे पड़ोसी देश चीन में भी ऐसा ही समाज वहाँ के क्रान्तिकारियों ने अपने नेता माओ त्से तुंग के नेतृत्व में बनाया था। आज भले ही वहाँ भी गद्दारों ने पूँजीवाद की पुनस्र्थापना कर डाली है। फिर भी महान माओ के विचार समूचे विश्व के क्रान्तिकारियों के लिये आज भी मार्गदर्शक हैं। माओवाद हमारे युग का माक्र्सवाद-लेनिनवाद है। मार्क्सवाद क्रान्ति का दर्शन है। मज़दूर वर्ग की विचारधारा की विकास-यात्रा में माक्र्स और लेनिन के बाद माओ की अद्वितीय भूमिका है। यही कारण है कि आज द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद को मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा कहते हैं।

माओ ने चीनी समाज-व्यवस्था का अर्ध सामन्ती-अर्ध औपनिवेशिक (आधा सामन्तवाद-आधा विदेशी कब्ज़ा) वर्गीय विश्लेषण किया, उसके लिये क्रान्ति की रणनीति तथा रणकौशल की रूप-रेखा तैयार की तथा सामन्तवाद-साम्राज्यवाद विरोधी सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग, धनी किसान, मध्यम किसान, तथा ग़रीब किसानों की एकता पर आधारित विजयिनी नवजनवादी क्रान्ति के महानायक बन कर उभरे। उन्होंने अपने शास्त्रीय लेखों ‘‘व्यवहार के बारे में’’ तथा ‘‘अन्तर्विरोध के बारे में’’ द्वारा द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सरल व्याख्या की।

छापामार युद्ध के इतिहास में माओ का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने जनता की जनवादी क्रान्ति के तीन चमत्कारी हथियारों - कम्युनिस्ट पार्टी, लाल सेना तथा इतिहास के रथ-चक्र को पीछे घुमाने की साज़िश करने वाले प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों के विरुद्ध जनता के वर्गों के व्यापकतम संयुक्त मोर्चे की रचना की और लोकयुद्ध के राजनीतिक और सामरिक सिद्धान्तों का निष्पादन किया। उन्होंने बताया कि चीनी क्रान्ति केवल दीर्घकालीन लोकयुद्ध के माध्यम से देहातों में लाल आधार-क्षेत्रों का निर्माण करके, शहरों को देहातों द्वारा घेर कर और अन्ततः पूरे देश में राज्य-सत्ता जीत कर ही विजयी हो सकती है। और उन्होंने इस विजय को साकार करके दिखा दिया।

माओ ने सर्वहारा वर्ग को संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व करने की शिक्षा दी तथा गैर सर्वहारा वर्गों के साथ एकता और संघर्ष एक साथ चलाने का तरीका सिखाया। उन्होंने क्रान्तिकारी जन-दिशा लागू करने में कम्युनिस्ट पार्टी का तथा शौर्यपूर्ण सशस्त्र संघर्ष में लाल सेना का नेतृत्च किया और जापानी साम्राज्यवाद (दूसरे देश पर कब्ज़ा करने वाली विचारधारा) और प्रतिक्रियावादी च्यांग काई शेक की कुओमिन्तांग हुकूमत को पराजित किया। माओ ने कहा - ‘‘साम्राज्यवाद कागज़ी बाघ है’’ और ‘‘जनता ही असली लोहे का दुर्ग है’’। उन्होंने सभी राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों को समर्थन दिया, अन्य देशों के क्रान्तिकारी संघर्षों को अपनी सफल क्रान्ति द्वारा प्रेरित किया और बताया कि ‘‘एक चिनगारी सारे जंगल में आग लगा सकती है’’ और ‘‘मेहनत और किफ़ायत से अपने देश का निर्माण करो’’ तथा ‘‘राज्य-सत्ता का जन्म बन्दूक की नाल से होता है’’।

सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण (जनता का सामूहिक मालिकाना और काम के अनुसार वितरण) के अनुभवों का सार-संकलन किया और सबक निकाले और चीन में पूँजी विरोधी सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न किया। उन्होंने ‘उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धान्त’ को माक्र्सवाद से भटकाव बताया और ‘‘दस मुख्य सम्बन्धों के बारे में’’ तथा ‘‘जनता के बीच के अन्तर्विरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’’ आदि सैद्धान्तिक रचनाओं की शृंखला द्वारा समाजवादी निर्माण की समस्याओं का विश्लेषण किया। कम्यूनों (संघ के स्वामित्व की व्यवस्था) की रचना की, जिन्होंने पेरिस कम्यून के अमर नायकों के सपनों को मूर्तिमान करके सारे संसार को महाबली मानव की विजय-यात्रा की एक नयी अगली मन्ज़िल की सम्भावना को साकार होते हुए दिखाया। समाजवाद (मज़दूर वर्ग की सत्ता) के मार्ग में महत्तर विजयें प्राप्त करने के लिये उन्होंने ‘‘महान अग्रवर्ती छलांग’’ (GREAT LEAP FORWARD) द्वारा जनता के क्रान्तिकारी उत्साह को निर्बन्ध कर दिया।

स्टालिन के निधन के बाद सोवियत संघ में जब खु्रश्चेव के नेतृत्व में संशोधनवादियों (मार्क्सवाद में तोड़-मरोड़ करके पूँजीपति वर्ग की सेवा करने वालों) ने द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता और सोवियत क्रान्ति के अमर शिल्पी स्टालिन पर हमला किया और श्रमिक वर्ग के खू़न-पसीने से गढ़े गये सोवियत संघ को पूँजीपति वर्ग (निजी मालिकाना और मुनाफ़ाख़ोरी) के सामाजिक साम्राज्यवाद (कथनी में समाजवाद मगर करनी में साम्राज्यवाद) में बदल डाला, तो माओ ने खु्रश्चेव के पूँजीवाद और समाजवाद के बीच शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और शान्तिपूर्ण होड़ के संशोधनवादी सिद्धान्त का पर्दाफ़ाश उसके विरुद्ध उग्र विचारधारात्मक संघर्ष चला कर किया। ‘‘महान बहस’’ के नाम से मशहूर इस संघर्ष में उन्होंने संशोधनवादियों को बेनकाब और परास्त कर दिया और ‘समूची जनता के राज्य’ और ‘समग्र जनता की पार्टी’ के संशोधनवादी सिद्धान्तों के प्रतिक्रियावादी चरित्र का विश्वव्यापी भण्डाफोड़ किया।

ख्रुश्चेव द्वारा चीन को दी जा रही सारी सोवियत सहायता अचानक बन्द करके सभी रूसी विशेषज्ञों को वापस बुला कर ब्लैकमेल करने के प्रयास के सामने घुटने टेकने के बजाय समझौताविहीन सिद्धान्तनिष्ठ विचारधारात्मक संघर्ष चलाया और आत्मनिर्भरतापूर्वक समाजवादी निर्माण जारी रखा। माओ ने सिखाया कि समाजवादी निर्माण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपादान मशीन और तकनीक नहीं, अपितु जनता है।

कम्युनिस्ट पार्टी में मौज़ूद वाङ मिङ, पेङ ते हुआई, ल्यू शाओ ची, लिन प्याओ जैसे दक्षिणपन्थी (प्रगतिविरोधी और इतिहास को पीछे ले जाने को आतुर) धारा के प्रतिनिधियों द्वारा उत्पन्न की गयी बाधाओं को दूर किया और बताया कि सही और गलत की ‘‘दो कार्यदिशाओं का संघर्ष वर्ग-संघर्ष ही है।’’ माओ ने पूँजीवाद की पुनस्र्थापना (प्रतिक्रान्तिकारी सत्ता-पलट) के भौतिक आधारों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया और संशोधनवाद के सामाजिक आधारों को उद्घाटित किया। उन्होंने बताया कि समाजवादी समाज में भी पूँजीवादी अधिकार मौजू़द रहते हैं। यद्यपि पूँजीवादी निजी स्वामित्व का समाजवादी सामूहिक स्वामित्व में रूपान्तरण सर्वहारा की विजय और महती प्रगति है। किन्तु आवश्यकता के अनुसार वितरण (मज़दूरी) की जगह काम के अनुसार वितरण का पूँजीवादी अधिकार अभी भी मौजू़द रहता है, मूल्य का नियम प्रभावी होता है और माल भी बरकरार रहते हैं। इससे समाजवादी समाज में बुर्जुआ (पूँजीवादी) सम्बन्ध लगातार पैदा होते रहते हैं और बुर्जुआ विचार और मूल्य-मान्यताएँ नये-नये रूपों में निरन्तर सामने आते रहते हैं। उत्पादन के साधनों का स्वामित्व बदल जाने भर से ही समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध अस्तित्व में नहीं आ जाते। इसी कारण संशोधनवादियों द्वारा नेतृत्व हथिया लिये जाने भर से ही पूँजीवाद की पुनस्र्थापना बहुत ही आसान हो जाती है।

उन्होंने बताया कि समाजवादी समाज में (जो पूँजीवाद और साम्यवाद COMMUNISM राज्य का विलोप, आवश्यकता के अनुसार वितरण) के बीच का संक्रमण का युग है ) पूँजीवादी मार्ग और समाजवादी मार्ग के बीच सतत संघर्ष जारी रहता है और कौन विजयी होगा - यह अभी तय नहीं हुआ रहता। अतः पूँजीवाद की पुनस्र्थापना के भौतिक आधारों के उन्मूलन के लिये समाजवादी समाज में सर्वहारा वर्ग के पूँजीपति वर्ग पर अधिनायकत्व (तानाशाही) में वर्ग-संघर्ष जारी रखने के लिये महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति GREAT PROLETARIAN CULTURAL REVOLUTION के सिद्धान्त तथा व्यूह की रचना की। इसके लिये माओ ने मूलाधार INFRA STRUCTURE (आर्थिक सम्बन्धों) और अधिरचना SUPER STRUCTURE (शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य, नैतिकता, कानून, दर्शन, विज्ञान आदि) के अन्तर्सम्बन्धों का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया और अधिरचना के अनवरत क्रान्तिकारीकरण की सतर्कता की आवश्यकता को चिह्नित किया।

माओ ने बताया कि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के निशाने पर कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादी राज्य के नेतृत्व में मौज़ूद पूँजीवादी पथ अपनाने वाले लोग हैं और इसका लक्ष्य संशोधनवाद और पूँजीवाद की पुनस्र्थापना की जड़ों को नष्ट करना है। उन्होंने गद्दार ल्यू शाओ ची के बुर्ज़ुआ हेडक्वार्टर (पूँजीवादी मुख्यालय) पर बमबारी करने के लिये जनता को लामबन्द किया और सिखाया कि पार्टी को अविकल रूप से जन-समुदाय से जुड़े रहना चाहिए, जन-समुदाय द्वारा आलोचना के लिये तैयार रहना चाहिए और जन-संघर्षों की आग में लगातार ख़ुद को परिमार्जित करना और फौलाद बनाना चाहिए। जनता को शिक्षा देने से पहले जनता से ख़ुद सीखना चाहिए। क्रान्तिकारी जन-दिशा का अनुसरण करना चाहिए। सांस्कृतिक क्रान्ति के अग्रणी योद्धा लाल गार्डों को उन्होंने सिखाया कि ‘‘विद्रोह करना न्यायसंगत है।’’ अधिरचना के विविध पक्षों के पूँजीवादी विचारों, प्रवृत्तियों और रुझानों पर हमले करती सांस्कृतिक क्रान्ति ने क्रान्तिकारी पार्टी, लाल गार्डों और जनता को अपने स्व SELF OR EGO (अहंकार) के विरुद्ध संघर्ष करने, नये मानव का सृजन करने तथा नये समाज की रचना करने की प्रेरणा दी।

सांस्कृतिक क्रान्ति में माओ ने नारा दिया ‘‘क्रान्ति पर पकड़ कायम रखो और उत्पादन को आगे बढ़ाओ’’। वर्ग-संघर्ष, उत्पादन-संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग - तीन आन्दोलनों ने जनता में सृजनात्मक उत्साह का विस्फोट किया और सभी मोर्चों पर ज़बरदस्त उपलब्धियाँ हासिल की गयीं। उत्पादन में रिकार्डतोड़ वृद्धि हुई। उत्पादन-सम्बन्धों में आशातीत क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। विशेषज्ञों और नौकरशाहों के व्यक्तिवादी प्रबन्धन का स्थान मज़दूरों की क्रान्तिकारी कमेटियों ने ले लिया। समाजवादी उत्पादन के उपक्रमों के माॅडलों  - कृषि में ‘ता चाई’ और उद्योग में ‘ता चिङ’ का जन्म हुआ। सामान्य जन को द्वन्द्ववाद की दार्शनिक शिक्षा से लैस किया गया और उनकी राजनीतिक चेतना को उन्नत करके पहलकदमी जगायी गयी।

26 दिसम्बर, 1893 को जन्मे माओ की 83 वर्ष की अवस्था में 9 सितम्बर, 1976 को मृत्यु के बाद चीन के संशोधनवादियों ने चीनी खु्रश्चेव तेङ सियाओ पिङ के नेतृत्व में पार्टी और राज्य के नेतृत्व को धीरे-धीरे हथिया लिया और प्रतिक्रान्तिकारी सत्ता-पलट करके पूँजीवाद की पुनस्र्थापना में जुट गये। उन्होंने माओ की पत्नी चियाङ चिङ और उनके चार साथियों (सभी माओवादियों) पर अत्याचार करके तथा पीकिङ में तियेन अन मेन चैक पर छात्रों का नृशंस दमन करके क्रान्ति की आवाज़ को बेरहमी से कुचलने के लिये राज्य-सत्ता का दुरुपयोग किया। तेङ गिरोह ने क्रान्तिकारी प्रयोगों को ध्वस्त कर दिया, कम्यूनों को तोड़ डाला, भूमि के निजी स्वामित्व के साथ ही उद्योगों के निजी स्वामित्व की फिर से शुरुआत कर दी, बाज़ार के लाभ आधारित विनिमय के पूँजीवादी कदमों को दुबारा लागू किया और लाल चीन को सफ़ेद चीन में बदल डाला। समाजवाद के दुर्ग को खण्डहर बना डाला और उसके रक्षक श्रमिकों को शोषण, उत्पीड़न और दमन करने वाली पूँजी की ग़ुलामी के शिकंजे में जकड़ने की साज़िश की।

अब प्रश्न यह है कि क्या बलिदान के कीर्ति-स्तम्भ ध्वस्त हो गये? क्या क्रान्ति की अग्नि-शिखाएँ बुझ गयीं? क्या माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा असफल हो गयी? क्या माओवादियों के महान लक्ष्य की सफलता की सम्भावना धूमिल हो गयी? नहीं, कदापि नहीं। ये कीर्ति-स्तम्भ समूची दुनिया के सर्वहारा वर्ग को प्रेरणा देते रहे हैं और देते रहेंगे। ये अनश्वर अग्नि-शिखाएँ उन्नत-शिर, अविचल तथा प्रदीप्त खड़ी विश्व-क्रान्ति के प्रशस्त पथ को आलोकित करती रही हैं और करती रहेंगी। पेरिस कम्यून की मशाल कभी भी निष्प्रभ नहीं की जा सकी। वह मेहनतकश के मार्ग को सदा-सर्वदा आलोकित करती रही है और उसे सोवियत संघ की महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति के मरहले तक पहुँचाया है। अक्टूबर क्रान्ति की तोपों के धमाकों से दुनिया का कोना-कोना गूँज उठा और चीनी क्रान्ति का सिंहद्वार खुल गया। साथ ही अन्य देशों में भी क्रान्तिकारी जनवाद का प्रसार हुआ। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति महान माओ द्वारा रचित वह अमोघ मारण-मन्त्र है, जिसका सुर्ख़ परचम लहराते हुए दुनिया भर में लाखों-लाख क्रान्तिकारियों ने अगणित विजय अभियान सजाये हैं और जिनके जोशीले नारों की हुंकार से आज भी गर्वीला श्रमजीवी प्रेरणा प्राप्त कर रहा है। पूँजी की देवी माओ के इसी मारक-मन्त्र की आक्रामक क्षमता से आक्रान्त है। अपने विकास की चरम अवस्था में पहुँच कर वित्तीय पूँजी का मरणासन्न साम्राज्यवादी दैत्य पूँजी-निवेश, ऋण एवं संयुक्त उद्यमों के हथकण्डों से विश्व-बाज़ार पर अपनी जकड़ बढ़ाता जा रहा है। डंकल अनुबन्ध इसी का प्रतीक है। वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण उसके नारे हैं। विश्व-मानवता का लहू पीने के लिये ही साम्राज्यवाद उस पर कंगाली और विश्वयुद्धों की विभीषिका थोपता रहा है।

अब वह दिन दूर नहीं है जब दुनिया का मेहनतकश अवाम एक बार फिर एकजुट होगा और असहनीय आक्रोश से आवेशित होकर साम्राज्यवाद को उसकी कब्र तक अन्ततोगत्वा पहुँचा ही देगा। यह अनिवार्य भवितव्य संसार की पूँजीवादी व्यवस्थाओं में साँस ले रहे किसानों-मज़दूरों, छात्रों-नौजवानों, बुद्धिजीवियों-क्रान्तिकारियों में व्याप्त उद्दाम आशावादी आवेग के छिटफुट विस्फोटों में परिलक्षित हो रहा है। इसी मँड़राते मृत्यु-भय को यथासम्भव टालने के चक्कर में पूँजी के प्रतिक्रियावादी और संशोधनवादी चाकर घिनौने और हास्यास्पद प्रयास और प्रतिवाद में लगे हैं और ‘इतिहास के अन्त’, ‘समाजवाद की विफलता’ तथा ‘पूँजीवाद के अमरत्व’ सरीखे विक्षिप्त प्रलाप मृत्यु-भय से आक्रान्त साम्राज्यवाद तथा पूँजीवाद के प्रचार-तन्त्र में ताल-तिकड़म के ज़रिये मलाई मारने के लोभ से जुड़े किसी भी हद तक गिर जाने पर उतारू भाड़े के कलमघिस्सू बुद्धिविलासियों द्वारा जारी हैं। आसमान पर थूकने की ज़ुर्रत करने वाले वे बेचारे बौने समझ ही नहीं सकते कि इतिहास का रथ-चक्र कभी पीछे नहीं लौटता। बल्कि हर-हमेशा वह आगे ही कूच करता चला जाता है।

महान माओ इतिहास की रचना करने वाले प्रचण्ड योद्धा थे। क्रान्तिकारी जगत के अनन्य रहनुमा और शिक्षक थे महान माओ। आइए, उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रेरक आभा-मण्डल से प्रेरणा ले कर अपने खु़द के आचरण में सुधार करके बुरी कार्य-प्रणाली से पिण्ड छुड़ा कर क्रान्तिकारी दृढ़ता, सुहृद विनम्रता और स्नेह-सिक्त श्रम से अपने प्यारे राष्ट्र की ग़रीब जनता की सतत सेवा का व्रत लें और शोषण-मुक्त विश्व के निर्माण में अपनी भी भूमिका अदा करके गर्व की अनुभूति कर सकें।
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