Friday 28 September 2012

आत्मसंघर्ष और चिन्तन-पद्धति (पंकज को पत्र) - गिरिजेश

प्रिय मित्र, आत्मसंघर्ष में जूझ रहे एक नौजवान दोस्त के नाम मेरा यह पत्र आप भी पढ़िए. इसमें व्यक्त विचार आपके भी आत्मसंघर्ष में सहायक हो सकते हैं.


मेरे प्यारे पंकज, 
हमारे समाज में दो चिन्तन-धाराएँ हैं. एक आत्म-भर्त्सना को गौरवान्वित करती है. दूसरी आत्म-गौरव को प्रतिष्ठित करती है. पहली धारा के प्रतिनिधि उदाहरण हैं कबीर और तुलसी. जब कि दूसरी धारा मानती है कि हम प्रकृति की सर्वोत्तम कृति हैं महाबली मानव. हमने ही प्रकृति प्रदत्त समस्त उपादानों को मानवता के उपयोग योग्य रूपान्तरित और विकसित किया है. ज्ञान-विज्ञान-कला-साहित्य-संस्कृति की सारी की सारी उपलब्धियाँ हमारे ही द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत किये गये घनघोर श्रम का शानदार परिणाम रही हैं. इस धारा के सशक्त हस्ताक्षरों के उदाहरणों से समूचा ही इतिहास भरा पड़ा है.

जहाँ कबीर लिखते हैं - 
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय;
जो दिल खोजा आपणां, मुझ सा बुरा न होय."
वहीं तुलसी कहते हैं - 
"मो सम कौन कुटिल, खल, कामी!"
और ये दोनों ही हिन्दी साहित्य और भारतीय चिन्तन परम्परा के शीर्षस्थ नाम हैं. जब कबीर और तुलसी जैसे चरम विकसित व्यक्तित्व वाले लोग अपने बारे में ऐसा सोचते हैं, तो सामान्य जन तो खुद को सबसे गया बीता ही मानेगा. और मानता भी रहा है. "अपने को सुधारो, तो समाज सुधर जायेगा" कहने वाले आचार्य श्री राम शर्मा से लेकर 'पर उपदेश कुशल' ढेर सारे तथाकथित 'महात्मा' लोग हैं.

दूसरी ओर हम हैं, जो यह मानते हैं कि सारा का सारा समाज बिलकुल भी बिगड़ा हुआ नहीं है कि उसे सुधारने के लिये किसी समाज सुधारक की ज़रूरत पड़नी है. हर आदमी अपने हितों और स्वार्थों के अनुरूप चिन्तन और आचरण करता है. समाज के वर्गीय स्वरूप के चलते ही सारी मानवीय समस्याएँ हैं. किसी भी व्यक्ति को स्वयं आत्म-ग्लानि से अवसादग्रस्त होने अथवा किसी भी कारण से किसी के द्वारा दूसरों को अवसादग्रस्त किये जाने का कोई मतलब नहीं है. दोनों ही स्थितियाँ अमानवीय और अपमानजनक हैं.

और फिर तुम तो धरती के सबसे अच्छे लोगों में से एक हो. तुमने किसी के साथ कभी किसी तरह का विश्वासघात नहीं किया. दूसरों के चलते खुद को ही अधिकतम यंत्रणा दिया है. और यह भी मुस्कुराते हुए किया, ताकि किसी को पता भी न चले कि तुम्हारे अन्दर कैसा दावानल धधक रहा है. इससे सुन्दर व्यक्तित्व और क्या हो सकता है! मस्त रहो, मानवता की सारी विरासत तुम्हारी अपनी है. उसका सारा सौन्दर्य तुम्हारे भविष्य के लिये विकास के रास्ते खोलने को आतुरता से तुमको पुकारता रहता है. और तुम उस पुकार को सुनते भी हो. केवल थोड़ी-सी और मस्ती के साथ अपनी विकास-यात्रा पर आगे बढ़ते चले जाओ. जगत में कौन दूसरा है तुम जैसा! तुम अनन्य, अनुपम, प्रशंसनीय और अनुकरणीय हो. 

पेंटर बाबा को याद करो. उस उम्र में भी ललाट पर कैंसर का घाव गमछे से बाँध कर कैसे मस्त हो कर सिखाते थे और सबसे अधिक साइकिल चलाते थे. उन्होंने मुझे एक ही बात सिखाया था - 
"जिन्दगी जंग है, इस जंग को जारी रखना;
भूल कर बोझ कभी दिल प' न भारी रखना."

जीवन भर अपनी खुद की असफलताओं के आधार पर बन चुके नकारात्मक चिन्तन के चलते बिना सोचे-समझे उलटी-पलटी टिप्पड़ी करने वाले फालतू 'शुभचिन्तकों' की हताश करने वाली बेहूदी प्रतिक्रियाओं के बारे में सोच-सोच कर बिलावजह परेशान होना बन्द कर दो. कभी-कभी गाना गाया करो. कितना सुन्दर गाते रहे हो तुम! और फिर अब तो तुम संगीत भी सीख ही रहे हो. संगीत का आनन्द लो और अपनी पुरानी मस्ती के साथ जिन्दगी की एक-एक साँस जियो. मैं तो तुम्हारे साथ हूँ ही. हम सब ही तुम्हारे साथ हैं. जल्दी ही हम लोग कुछ और बड़ा-बड़ा करेंगे और तब और भी मज़ा आयेगा. 
बस. 
ढेर सारे प्यार के साथ तुम्हारा पुराना दोस्त 
गिरिजेश.

पंकज के नाम एक और पत्र:-

पंकज - "मुझे मना करना कब आएगा और क्यूँ नहीं आता मुझे "ना" कहना .. हर बार अपनी इसी आदत के चलते धोखा ही खाया है, फिर भी मना नहीं कर पाता."
गिरिजेश - "अभी तक तो तुम पैसों की दुनिया के लोगों के मक्कार चरित्र की वीभत्सता से अपरिचित थे. सम्पत्ति के लोभी सभी रक्तसम्बन्धियों और भावनात्मक सम्बन्धियों के मनोवैज्ञानिक दाँव-पेंच से अनजान थे. लोगों में घुस कर बैठे साहित्य-सम्राट प्रेमचन्द के चरित्रों घीसू-माधव' के अमानुषिक विखण्डित व्यक्तित्वों के दोहरेपन के विद्रूप से अबोध थे.
अब तुमको असली ज़रूरतमंद लोगों और फर्ज़ी ढोंगियों के बीच फ़र्क करना सीखना पड़ेगा और अपने खुद के लिये कुछ करने के बारे में भी आगे आने वाले दिनों में पड़ने वाली कड़ी ज़रूरत से रू-ब-रू होना पड़ेगा. ज़रूरत पड़ने पर खुद तुमको देने वाला कौन है? कोई भी तो नही!
भावना में बह कर अपने तथाकथित प्रियजनों पर अपना सब कुछ लुटा देने की मैंने जो चूक किया, अगर तुम भी वही दोहराते जाते हो और ऐसे कुटिल माहौल में थोड़ा भी सजग नही बन पाते, तो लोग मेरी तरह तुमको भी कंगाल बना कर कूड़ेदान पर फेंक देंगे और तब फिर मैं भी अपनी इस सडकछाप हालत में तुम्हारे लिये कैसे और कहाँ से और कुछ भी कर सकूँगा?
इसलिये अपनी आमदनी के आधे में से अपना खर्च चलाओ. मेरा न्यूनतम देय मुझको भेजो और शेष को अपने लिये आकस्मिक निधि के रूप में बचाने की कोशिश करो. प्राइवेट सेक्टर की जो नौकरी आज है, कल वह निश्चय ही नहीं रहेगी. अगली नौकरी मिलने तक के बीच के बेरोज़गारी के दौर में न्यूनतम खर्च करते हुए भी कैसे जिन्दा रहोगे - यही सोच कर यह सिखा रहा हूँ कि फालतू लोगों पर अनावश्यक खर्च करने से बचो.
हाँ, जहाँ ज़रूरी समझो अपनी आर्थिक परिस्थिति और अपनी जेब की औकात को देखते हुए उतनी मदद कर सकते हो. मेरी ओर से उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है. तुम्हारा पैसा तुम जैसे और जहाँ चाहो खर्च करना. और वह भी पूरी आज़ादी से. ऐसे में खुद ही सोचना और फैसला करते रहना. कम से कम अब तो तुमको रोकने वाला भी कौन है, सिवाय मेरे!!! 
ढेर सारे प्यार के साथ तुम्हारा - गिरिजेश"


पंकज के नाम एक और पत्र:-
Pankaj Singh - सर, मैं बड़ा हो गया हूँ अब. शायद थोडा बहुत समझने लगा हूँ की दुनियां कैसी है! लेकिन सर क्या मेरी गलती ये है कि मैं इन्सान हूँ और इंसानियत समझता नहीं हूँ. सर, आज बड़ी तकलीफ में हूँ. बहुत दुःख हो रहा है अपने आप पर कि मैं ऐसा क्यूँ हूँ. मुझे कब जान से मार दिया जायेगा - मैं नहीं जानता, सर. कब आपका यह बेटा इस दुनिया में नहीं होगा इसे भी नहीं पता!! सर, लोग मुझसे जलते हैं पता नहीं क्यूँ शायद इसलिये कि मैं इन्सान हूँ!! आज किसी से इतनी जलालत मिली कि मैं बयान नहीं कर सकता.
इस महीने में ये दूसरी बार है ?
क्या मुझे भी जीने नहीं दिया जायेगा मजबूर किया जायेगा मरने पर!! कई बार मुझे हिदायत दी जा चुकी है सर कि मैं बहुत छोटी औकात का हूँ और औकात में रहूँ!! हाँ, जिन लोगों ने धमकी दी बड़े पैसे वाले हैं सर, मुझसे कहते हैं मैं करोड़ों का मालिक हूँ!!
मैं पूर्वानुमान कर रहा हूँ कि शायद मुझे मारा जाये...
डरा नहीं हूँ अभी. लेकिन सर पर कफ़न बाँध चुका हूँ. आपका पागल पंकज 29.12.2012
Girijesh Tiwari -

पंकज प्यारे, कायर डर-डर कर पूरी जिन्दगी प्रतिदिन मरते हैं. वीर निडर हो कर जीते हैं और एक ही बार मरते हैं. और तुम तो वीरपुत्र हो. पैसे की गर्मी से अंधे हो कर तुम्हारे जैसे फक्कड़ को धमकी देने वाले बड़बोले मूर्खो को तुम्हारी नस्ल का पता ही नहीं है. उन कायरों से पूछना कि उन्होंने अपनी माँ का दूध पिया है कि डब्बे के पाउडर का. शेर का बेटा शेर होता है और गीदड़ का बेटा गीदड़. मानव देह मरणशील है. मानवता अमर है. मेरे साथ अपने धुर बचपन से जवान होने तक गुज़ारे सारे दिनों को याद करो और मस्त रहो. मुझे तुम्हारी मौत पर भी गर्व ही होगा, अगर वीरगति प्राप्त हुई तो. मैं अकेले आजमगढ़ में पिछले तीन दशकों से एक तरफ से सारे के सारे टुच्चे लोगों को ललकारता रहा हूँ और आगे भी मेरा यही इरादा है. मेरे बाद मेरा झण्डा तुम लोगों को ही लेकर आगे चलना है. और मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.
"विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी;
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी."
मेरी सलाह है कि इस कविता को एक बार फिर से पढ़ो.
कब तक रोज़ी-रोटी में फंसे रहोगे? - गिरिजेश
http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/10/blog-post_8.html


पंकज के नाम एक और पत्र:-मेरे प्यारे पंकज,
अपने समर्थ व्यक्तित्व का एक बार निर्ममतापूर्वक मूल्यांकन करो.
अपने अनन्य अतीत के शानदार पलों को याद करो.
अपने उपलब्ध वर्तमान को सतत सृजन के अदम्य संघर्ष का साक्षी बनाओ.
अपने लिये एक गौरवशाली भविष्य की रचना पूरे मनोयोग से करो.
अगणित सकारात्मक संभावनाएँ सम्भव हैं.
कुछ भी असम्भव नहीं.
पूर्ण रूप से निर्बन्ध और सहज बनो.
याद रखो, शेर शेर है और कुत्ता कुत्ता.
न तो कुत्ता शेर बन सकता है और न ही शेर कुत्ता.
बाँस की खूँटी से बाँस ही पैदा होता है और बबर शेर का बेटा भी शेर ही होता है.
हम सब तुम्हारे साथ हैं.
ढेर सारा प्यार - तुम्हारा अपना गिरिजेश





मेरे प्यारे पंकज, 
मेरा तो नारा ही है - "नौकरी ना करी". आपका आज का यह सहज अनुभवजन्य वक्तव्य उन सभी युवाओं का मार्गदर्शन करने के काम अवश्य ही आयेगा, जो छोटी या बड़ी सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरी की तैयारी के नाम पर अपनी जवानी के वर्ष-दर-वर्ष कम्पटीशन की कोचिंग में जी.के. रटने में गुज़ार दे रहे हैं. 

मैंने जीवन भर नौकरी नहीं किया, भले ही चरम ग़रीबी झेली. मगर अपने पथ से किसी भी तरह के लालच के चक्कर में कभी भी विचलित नहीं हुआ. मैंने अपने मूल्यों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया. दोस्तों की शक्ल में बार-बार सामने आने वाले और गुलाम बनाने की साज़िश करने वाले सम्पत्ति के मालिकाने के दम्भ के सामने, तरह-तरह के झूठ और कपट का वार करने वाले शासक वर्ग के जनविरोधी मूल्यों के ढोंग के सामने कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया. हर तरह का नुकसान बर्दाश्त किया, मगर किसी के सामने मैंने थूक कर चाटने का धन्धा भी कभी नहीं किया. और इस तरह न केवल अपने सम्मान की रक्षा करता रहा. बल्कि अपने साथ खड़े होने वाले दूसरे लोगों के लिये भी रोज़गार और सम्मान दोनों जुटाता गया. और आप तो जानते ही हैं - 
"what a man has done, a man can do." 

कल तक मेरी प्रशंसा करने वाले और आज मेरे विरुद्ध मेरी अनुपस्थिति में मुझ पर कटाक्ष करने वाले लोग भले ही मुझ पर युवाओं को बरगलाने का आरोप लगाते रहे हैं, मगर मैं कभी भी किसी भी युवा को किसी भी परिस्थिति में इस बात के लिये नहीं समझाया करता कि तुम भी वैसे ही जियो, जैसे मैं या तुम भी वही करो, जो मैं. 

अपना फैसला हममें से हर एक को ख़ूब अच्छी तरह से सोच-समझ कर ख़ुद ही लेना होता है. क्योंकि कोई भी फैसला लेने के पहले तो हम स्वतन्त्र होते हैं कि उसके पक्ष या विपक्ष के बारे में लाभ और हानि के बारे में मन्थन कर सकें, मगर एक बार फ़ैसला ले लेने के बाद लागू कर देने पर हमारी इच्छा से स्वतन्त्र उसकी अपनी गति होती है और हम उससे बच नहीं सकते. कहा भी है -
"महज़ एक क़दम ग़लत चला था राह-ए-शौक में;
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही|"


"चापलूसी नहीं करनी !!!
गलियां नहीं सुननी !!! 
तेवर किसी के ..नहीं सहने !!!
बेईमानी नहीं करनी !!!
तो सच्ची बात है नौकरी कब तक संभालूँगा .?????
जी भर गया इस नौकरी की दुनियां से !!!!
अब जीने का कोई और तरीका निकालूँगा !!!!"
.....पंकज Girijesh Tiwari

No comments:

Post a Comment