Tuesday 23 December 2014

कविता और बिम्ब-विधान___

एक पठनीय बहस और विचारणीय विषय !
वीरू सोनकर समर्थ कलमकार हैं. उनकी कलम से हम सब को उम्मीद है. उनकी इस पोस्ट में सहज जिज्ञासा है. जिज्ञासा के साथ पूछे गये प्रश्न तुष्टि दायक उत्तर की विज्ञ जनों से अपेक्षा करते हैं. कविता क्या है - सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है. हर लेखन कविता की कोटि में नहीं शामिल किया जा सकता है.
कविता - छन्द-बद्ध या छन्द-मुक्त - कोई भी हो वर्तमान काल की हो या शताब्दियों पहले की - वही है, जिसमें जीवन का सौन्दर्य चिलमन के पीछे से झिलमिलाता हुआ कुछ दिख जाये और जो और जितना दिखा, उसमें इतनी सामर्थ्य हो कि वह कुछ और देखने की प्रबल इच्छा पैदा कर जाये.
कविता में जो दिख जाता है, वही कविता का बिम्ब-विधान है. जो दिख नहीं पाता, मगर जिसे देखने की उत्सुकता मन को झंकृत कर ले जाती है, वही कविता का कथ्य है.
कथ्य की प्रखरता से गद्य भी कविता की तरह ही समर्थ और प्रवाहमान हो जाता है और तब शब्द-चित्र और गद्य-कविता की विधा सामने आती है.
सामान्यतः यह कथन उचित लगता है कि अतिरेक अनुचित है. परन्तु समर्थ कलमकार इस अतिरेक को साध ले जाते हैं. और उनका अतिरेक भी उनकी कविता को और भी सुन्दर और सम्मानित बना देता है. कालिदास और मुक्तिबोध को इसी लिये सम्मान उपलब्ध हो सका.
प्रशिक्षु कवि की सामर्थ्य की सीमा हो सकती है और उसी तरह पाठक और श्रोता की समझ की और भावभूमि की भी. परन्तु जो सहज ही लोगों की समझ में आ जाये, वह लोक-साहित्य का अंश तो हो सकता है. वह शास्त्रीय साहित्य का भाग नहीं हो सकता, क्योंकि शास्त्रीय साहित्य रचनाकार और पाठक दोनों से ही कला की उस विशिष्ट विधा में एक न्यूनतम अनुशासन, स्तर, समझ और गति की अपेक्षा करता है. शास्त्रीय संगीत ही नहीं, ललित साहित्य भी ललित कलाओं की अन्य सभी विधाओं की तरह ही कलमकार और पाठक व श्रोता दोनों से ही विशेष क्षमता की अपेक्षा करता है.


Veeru Sonker -
December 11 at 11:53am ·
https://www.facebook.com/veeru.sonker/posts/10203112728997838?fref=nf
क्या समकालीन कविता या छंद मुक्त कविता में बिम्ब निर्माण बहुत अधिक नहीं बढ़ गया है ?
गहरे बेहद गहरे और अनसुलझे बिम्ब में कविता एक पहेली जैसी नहीं बन गयी है ?
सोचना होगा......हम कविता के द्वारा कहीं पहुचना चाहते है या बिम्बो की भूलभुलैया में ही खोना चाहते है
अक्सर ऐसी कविताये भी पढ़ने को प्राप्त होती है जो सिर्फ बिम्ब ही गड़ती है ऐसी कविता कहीं नहीं जाती...बस इन्ही बिम्बो में अपने पर फड़फड़ाती है

----- बिम्बो से कवि की कल्पनाशीलता की गहराई का पता चलता है....और कविता में समुचित मात्रा में बिम्ब होने भी चाहिए.....पर,,
हमें सोचना ही होगा.....बिम्ब निर्माण ही तो कविता नहीं है..

मेरी अल्पज्ञता सर्वविदित है-----
पर अपने वरिष्ठों से कविता में बिम्ब निर्माण पर मार्ग दर्शन चाहता हूँ !
Shailja Pathak मुझे बिम्ब का मतलब भी नही आता । मुझे भी समझाया जाय
Vikas Rana Bahut sahi likha hai
Aajkal faishon hai
Bimb kaise bhi likho aur ban gayee kavita.....
Animesh Mukharje सार्थक बात
Promilla Qazi कवि यदि बिम्ब प्रयोग जानबूझ कर रहा है तो उसका मक़सद यही होता होगा कि बिम्ब में अर्थो को ढूंढा जाए , वो चाहता होगा कि उसका पाठक वर्ग ऐसी भूल भुलैया में थोड़ा विचलित , थोड़ा सा खो जाए पर मुझे लगता है यह प्रयास पाठक को कविता के आत्म तक जाने से रोकता है।
मेरी समस्या यह है कि अक्सर मुझे लिखते समय पता नहीं होता कि यह कहा जा कर रुकेगा। …दोनो ही स्तिथियाँ शायद कष्टकर है पाठक के लिए। 
Ashok Kumar Pandey मुझे नहीं लगता कि समकालीन कविता मैंने इतनी पढ़ी है. जब पढ़ लूँगा तो कविताओं के उदाहरण से बात करूँगा।
Basant Jaitly आवश्यकता से अधिक कुछ भी हानिकर ही होगा. कविता बिम्बों का समुच्चय नहीं है. प्रतीकों की भरमार भी कविता नहीं है. आवश्यकता एक संतुलन की है और यह संतुलन सायास होता है. यही कारण है कि कविता लिखने से ज़्यादा कवितायें पढ़ कर एक समझ बनाने पर जोर देता हूँ और यह भी कहता हूँ कि अपनी ही कविता का बार- बार पढ़ना बहुत ज़रूरी है.
सीमा संगसार बिल्कुल सही कविता वही जो सीधे मर्म को छुए अधिक से अधिक पाठक उसकी गहराई मेँ उतर सके न कि छंदोँ प्रतीकोँ और बिम्बोँ मेँ उलझ कर रह जाए
मेरी समझ से . . .
Veeru Sonker Basant Jaitly सर.......शायद इसी जवाब की तलाश थी मुझे...
Pramod Beria पहले ही कह दूँ - मेों सम कौन कुटिल खल कामी
मैं उतना जानता नहीं ,जितना समझता हूँ ,जितना समझता हूँ ,उतना समझता नहीं हूँ ,फिर भी हर जगह टाँग घुसेड़ देता हूँ ,आदत से मजबूर हूँ ,पढ़ाई- लिखाई बहुत ही सीमित है ,लेकिन कविता करने से जो समझा वह यह है कि कविता तो कोई भी कर सकता है - यह 'कर' सकने में सारा रहस्य है ,ऐसा लगता है ,क्योंकि कविता करी नहीं जा सकती ; हर कृत्य की धारावाहिकता में उसका निर्मित होना होता है ,करने में नहीं । बिंब तो ज़रूरी उपादान हैं ही ,लेकिन वे विषय के साथ गुँथे हुये होने चाहिये ,अन्यथा आपको जैसे भारी लगते हैं ,वैसे हो जाते हैं ! वाहवाही अलग बात है ,यह भीअपनी अतलतम गहराई से आये तो सामने जोहना नहीं होता ।
माफ़ करें विषय ऐसा था ,रोक नहीं पाया ,उस क़ाबिल समझता भी नही , हूँ भी नहीं ,लेकिन कविता का नाम सुन कर लगता है मेरी प्रेमिका को कोई कुछ कह रहा है !
फिर से क्षमाप्रार्थी !
Ashok Kumar Pandey Basant Jaitly सर, क्या आप मानते हैं समकालीन कविता में यह बढ़ा है? फिर यह समकाल क्या है?
Veeru Sonker वाह !
एक अच्छी बहस की पूरी पूरी सम्भावना दिख रही है...
मुझे और अधिक सीखने का अवसर मिलने वाला है..
Basant Jaitly बढ़ा नहीं है. हर काल में कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं जो कविता को उलझाते हैं. उलझाने के लिए बिम्ब प्रतीक आदि की भरमार वैसे ही की जा सकती है जैसे रीतिकालीन कवियों या संस्कृत कवियों ने छंदों और अलंकारों के साथ किया. आमतौर पर कोई भी कवि बचना चाहता है इस सबसे. रही समकाल की बात सो वह अगर अपने समय का बोधक मात्र है तो बात अलग है लेकिन कवि या कविता के सन्दर्भ में यह एक मिथ है.
Mukesh Kumar Sinha इतना दिमाग नही मेरे पास
Parul Tomar केवल बिम्ब निर्माण कविता कभी नहीं हो सकता है न कभी हुआ है .... कविता की आत्मा है रस जो उसके भाव और अर्थ में निहित होता है .... आप उस रस की उत्पत्ति कैसे करते हैं यह आप पर निर्भर करता है ! मेरे विचार में समुचित रूप से प्रयोग किया गया बिम्बों का प्रदर्शन कविता के सौंदर्य और रस दोनों को बढ़ा देता है ! और अति तो सभी जगह हानिकारक होती है !
Maya Mrig कम या ज्‍यादा, नए या पुराने--- ये सब अपनी जगह मूल बात जो समझ अाती है वह यह कि जो भी हो, सहज हो---स्‍वत हो, जबरन पैदा किये गए बिम्‍ब या हठात गढ़े गए शब्‍द हमेशा ि‍करचते रहेंगे, चाहे वह कम हों या ज्‍यादा---।
Anupama Sarkar Itna soch kar kavita kahan ki ja sakti hai... Woh toh kewal bhaav prawah hai jisme khud b khud shabd jud jaate hain...
Basant Jaitly Parul Tomar ने लिखा ... कविता की आत्मा है रस जो उसके भाव और अर्थ में निहित होता है. यह रस क्या है ? श्वेता राय ने कहा ... बिम्ब उलझा रहे हैं पाठको/ कभी कभी तो इतना कि येसमझ पाना मुश्किल हो जाता है कि कवि कह क्या रहे हैं ? सो वो कौनसे बिम्ब हैं, कौनसी कविता है और कौनसे कवि हैं. बिना उदाहरण के यह समझ पाना असम्भव है. एक सवाल भी ... क्या पाठक की पात्रता जैसी भी कोई वस्तु होती है या नहीं ? क्या सारा दोष महज़ लिखने वाला ही वहन करेगा ? मेरी समझ में अगर मुक्तिबोध नहीं आते तो क्या सारी गलती उनकी है या यह मेरी भी अक्षमता है ?
Veeru Sonker Basant Jaitly सर.....मुझे लगता है की Parul Tomar जी और श्वेता जी के कमेंट कुछ ख़ास कविताओ के सन्दर्भ में ही है...और शायद सही भी है !
Asha Pandey Ojha Asha kavita me thodee sahjta bhi jaruri hai har paathk lekhk ke mansik level ka nahi hota main aapse sahmat hun
Basant Jaitly Anupama Sarkar ... यह सच है कि कविता सोच कर नहीं लिखी जाती लेकिन लिखे जाने के बाद में उस पर विचार होना चाहिए या नहीं ? मैं हमेशा कविता लिखने के बाद उसे बार - बार पढने को कहता हूँ ताकि आवेग में लिखी गयी कविता में ज़रूरी संतुलन देखा जा सके, आवश्यक सम्पादन किया जा सके. कविता लिख देना भर ही पर्याप्त है क्या या उसके ऊपर कवि द्वारा कालान्तर में विचार किया जाना भी ज़रूरी है?
Veeru Sonker बिलकुल....कविता लिखने के बाद विचार और सुधर होने ही चाहिए..
Parul Tomar Basant Jaitly जी .... कविता क्या है, कवि क्या कह रहें हैं , और बिम्ब क्या है कविता का रस क्या है ? सर इतने सारे प्रश्न एक साथ.... जबाब है आप प्लीज कविता पढ़िए.... कविता का इतिहास पढ़िए ! प्लीज ये न पूछिएगा कि कविता का इतिहास क्या है !
Basant Jaitly Veeru Sonker मैं वही कवितायें तो जानना चाहता हूँ. या तो बात सामन्य हो और या फिर उसे प्रमाणित किया जाए. पाठक की पात्रता का निर्णय कौन करेगा ? मुक्तिबोध के सन्दर्भ में मैंने इस बात को उठाया है. अब यह नहीं हो सकता कि वे मेरी समझ में न आयें और क्योंकि दुनिया कहती है कि वे महान हैं तो किसी दूसरे को तो मैं उन्हीं अवगुणों पर गरियाऊं लेकिन मुक्तिबोध को महान कहूं ?
Ashok Kumar Pandey मुझे ऐसी कथित चिंताओं और बहसों का कभी कोई औचित्य समझ नहीं आता. न तो यहाँ समकाल की कोई समझ दिखती है, न ही बिम्ब विधान की. एक सरलीकृत बात गैरजिम्मेदार तरीके से कह दी गयी है. मुझे तो इसके उलट लगता है कि बिम्ब गढ़ना कवि भूल रहे हैं और कम से कम ऍफ़ बी पर तो नीरस, उबाऊ और अतिकथन से भरे गद्य को कविता की तरह पेश कर रहें हैं जिनमें विचार के नाम पर कुछ इंस्टेंट नूडल जैसा है. समस्या उससे अधिक यह कि हर कोई गुरु की भूमिका में है. बताना चाहता है कि कविता क्या काम करती है/ उसे क्या काम करना चाहिए. जबकि समकाल या इतिहास और परम्परा का कोई अध्ययन कहीं परिलक्षित नहीं होता. व्यक्तिगत तौर पर इस जल्दबाज प्रवृत्ति से मैं बहुत दुखी होता हूँ..क्षुब्ध भी.

हाँ कविता बिम्ब निर्माण भी है, प्रतीक विधान का निर्माण भी. वरना गद्य लिखा जाना चाहिए..कवि होने का स्वांग ही क्यों?
Prahriof Mycountry ashok kumar pandey जी से पूर्णतः सहमत !!
Basant Jaitly Parul Tomar दशकों से कविता ही पढ़ता / पढाता रहा हूँ विश्वविद्यालयों में. कुछ लिखता भी हूँ और वह एक अरसे से प्रतिष्ठित पत्र / पत्रिकाओं में छपता भी रहा है लेकिन मैं अज्ञानी फिर भी यही सवाल पूछ रहा हूँ
Ashok Kumar Pandey सुंदर गद्य भी बिम्बों और प्रतीकों के साथ ही आता है. कभी हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर पर लिखी किताब पढनी चाहिए, या शिव प्रसाद सिंह का नीला चाँद या विनोद कुमार शुक्ल का गद्य..

कवि कविता का बाज़ार लगा के नहीं बैठता. साहित्य और कला का उपभोक्ता को निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं होता. सुपाच्य भोजन से तुलना करते ही आप उसे एक कमोडिटी में तब्दील कर देते हैं. फिर कविता का मूल चरित्र ही खंडित हो जाता है. कला का भी. यहाँ पाठक को एक सक्रिय एजेंट बनना होगा. हिमालय आपकी सुविधा के लिए अपनी ऊंचाई कम नहीं करता..आपको उस तक चल के जाने का हुनर सीखना होता है.
Veeru Sonker ऐसी बहसों से रुष्ट नहीं होना चाहिए...क्या ये सच नहीं है की इस बहस से कविता के उद्देश्य और सार बिंदु और भी अधिक स्पष्ट हो रहे है !
ऐसी बहसे निरर्थक क्यों ??
यदि कहीं कोई भ्रम है तो उसका निराकरण क्यों न किया जाये ?
Basant Jaitly सर...और पारुल जी श्वेता जी अशोक सर.....आप सभी के कमेंट से मुझे तो कविता के बारे में और भी अधिक सीखने को मिल रहा है फिर इससे वंचित क्यों हुआ जाये ??
Anulata Raj Nair इतने विमर्श के बाद मेरा कुछ कहना किसी की बात को दुहराना ही होगा....पर मैं सबसे अधिक सहमत Basant सर की बात से हूँ...कि अति न हो और कविता को दोबारा, बार बार पढ़ा जाना चाहिए...
जहाँ तक बिम्बों का सवाल है मुझे सख्त आपत्ति है जब विदेशी कविताओं या वहां की माइथोलॉजी के बिम्ब इस्तेमाल किये जाते हैं.....जिन्हें आम पाठक समझता भी होगा मुझे नहीं लगता.....हमारे देश की कथा कहानियां , पुराण वेद तो लोगों के कान में यदाकदा पड़ते ही रहते हैं सो उनसे जुड़े बिम्बों को समझना सरल है सहज है......
Ashok Kumar Pandey भ्रम का निराकरण बहसों से नहीं होता. उसके लिए किताबों में डूबिये. हिंदी ही नहीं दुनिया भर की काव्य परम्परा को जानिये. सूना ज्ञान नौ दिन चलता है और पढ़ा उम्र भर.
Veeru Sonker बिम्बो के सही अनुपात या सिर्फ बिम्ब ही बिम्ब !
ये बहस इसी प्रश्न के उत्तर की तलाश करती है
Ashok Kumar Pandey मुझे एक सिर्फ बिम्ब ही बिम्ब वाली कविता बताइए. और यह भी कि बिम्ब से आपका आशय क्या है? किस तरह ये प्रतीक से अलग होते हैं? इनका क्या अनुपात होना चाहिए आपके ख्याल से? केदार जी की केवल बिम्ब वाली कविता या गोरख की ऐसी कविताओं का क्या किया जाना चाहिए?
Basant Jaitly Veeru Sonker मैं रुष्ट नहीं होता आसानी से लेकिन यह तो जान सकता हूँ कि रस क्या है. बाकी Ashok Kumar Pandey की बात सही है कि भ्रम का निराकरण बहसों से नहीं होता. यही मेरा सवाल भी है कि कौनसे बिम्ब, कौनसी बिब्बों के बोझ से झुकी हुई कविता, कौन कवि ?
Parul Tomar सॉरी सर , आपको आहत करना हमारा अभिप्राय कदापि नहीं है , हमें आपका प्रश्न कुछ अपरिपक्व सा प्रतीत हुआ था , इसलिए यह सब लिख बैठे , और यह तो बिल्कुल नहीं जानते थे कि आप कविता को पढ़ते और पढ़ाते ही नहीं बल्कि जीते भी हैं... हम क्षमाप्राथी हैं ... प्लीज आप स्वंय को अज्ञानी कहकर हमें शर्मिंदा न कीजिए.... सर Basant Jaitly जी
Parul Tomar Veeru जी नाराज़गी का तो प्रश्न ही नहीं उठता है किसी भी सार्थक बहस में...
Veeru Sonker ज्ञान तो ज्ञान होता है..चाहे वो जिस भी माध्यम से प्राप्त हुआ हो..
वैसे मैंने बीएड किया हुआ है..और शैक्षिक अधिगम पर मैंने जो पढ़ा है उससे ये ही जाना है की सुना और देखा हुआ अधिक समय तक याद रहता है बनिस्पत पढ़े हुए के..
Ashok Kumar Pandey सर आप fb पर सहज उपलब्ध है...यदि मन में कविता के किसी पक्ष पर कोई शंका उत्पन होती है तो क्या आपसे उसका निराकरण प्राप्त करना गलत है ?
आप और Basant Jaitly सर सक्षम है मेरी धारणाओं को और भी अधिक स्पष्ट करने में....
आप सभी के ज्ञान से वंचित क्यों रहा जाये
Basant Jaitly ऐसी कोई बात मेरे मन में नहीं आयी Parul Tomar और न ही मैं आहत हुआ. मैंने परिहास में लिखा था. मुझे बुरा नहीं लगता
प्रशांत विप्लवी कवि निरीह हो अपनी कविता के बाद ...जब कवि कविता पर भारी पड़ने लगता है तो कविता उबाऊ होने लगता है ...सहज होना ही कठिन है शायद ..बांकी बहुत सारे गुनिजन शामिल हैं इस विमर्श में ....वीरू के प्रयास से सकारात्मक बहस बुलाई गई है ..बस पूर्वाग्रही न होकर बहस हो ...आत्मसात कर रहा हूँ इस बहस के अच्छे पहलुओं को ...शुक्रिया वीरू |
Veeru Sonker मैं अल्पज्ञानी हूँ.....और कविता को अभी सीखने की प्रक्रिया में हूँ...कोशिश करता हूँ की कविता पर कुछ सहज ज्ञान प्राप्त हो
यद्यपि मैं पर्याप्त रूप से अध्ययन करता रहता हूँ....
फिर भी.....यदि कोई भूल हुई हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ
Basant Jaitly सर Ashok Kumar Pandey सर...

मैं यहाँ सिर्फ अपनी धारणाओं और शंकाओ का समाधान चाहता था.....
Ashok Kumar Pandey मैंने कहा न बी एड वाले तरीके से कविता और ऐसे विषयों की समझ नहीं आती। आप ही बताइये कौन सी कविता आपको बिम्ब ही बिम्ब वाली लगी? और मेरे हिसाब से इस बहस में न कोई नई बात हुई न ही कुछ सिद्ध हुआ. आपको बस बसंत सर की वह बात सही लगी, यानी आपको उसका इंतज़ार लगा जो आपके निकषों के क़रीब थी. असल में ऐसी बहसें हम अपने निकषों पर मुहर लगाने के लिए ही करते हैं. ज्ञान की प्यास अगर हो तो किताबों से ही बुझती है।

बाक़ी हाँ बिम्ब भर से कविता बन सकती है...कवि में वह क्षमता होनी चाहिए।
Ashok Kumar Pandey धारणाएं बनें तो पहले परिपक्व तरीके से। उसके लिए परम्परा और समकाल का अनुशीलन तो हो पहले! उनका कोई तार्किक और सैद्धांतिक आधार तो हो।
Sundar Srijak Bimb aur pratik kavitaa men samvednaa va anubhuti ko preshit karne men saahaayak hote hain ,kabhi-kabhi bimb/pratik apne aap men mukammal kavitaa bhi hote hain ...chhand mukt kavitaaon ke pichhe yah jarur thaa ki unki aantarik lay naa choote par akaadamik bauddhik jugaali/paanditya pradarshan ke kaaran kavitaa men bimb aur pratik jabaran thusnaa hameshaa se ek pribariti bani rahi hai jiske baavjood bhi kavitaa abaadha gati se apne dishaa aur pravaah ko banaaye hue hai | duruh kavitaa likhne vaale ko samy apne aap pichhe chod detaa hai...aaj kitni hi kavitaaen hain jinmen prayukt bimbon/pratikon men samkaalin samsyaaon ko nirupit karne kaa maddaa hai?? sabhi samayon men kavitaa alag-alg paathak ki ruchi aur vivekshil kalpnaashiltaa ke saapeksh likhi padhi jaati rahi hai ....
निधि जैन Veeru Sonker महाराज की जय
दिल की बात कह दी
मुझे तो कितनी साड़ी कवितायें समझ ही नही आती इन बिम्बो के चक्कर में
और जो समझ नि आती वहां जरुरी वाह वाह लिखकर आती हूँ
कल Maya Mrig सर की कविता पर भी की
Ashok Kumar Pandey Parul Tomar जी और Basant Jaitly सर, हमारे पास कोई उपाधि नहीं। खुद को कवि भी कम ही मानते हैं। हाँ थोडा बहुत इधर उधर से पढ़ा है...पता नहीं आप दोनों के साथ एक बहस में भागीदारी की हैसियत है या नहीं।
Veeru Sonker Ashok Kumar Pandey सर मुझे आपके इस कमेंट का भी इन्तजार था....बिम्ब भर से भी कविता बन सकती है....कवि में वह क्षमता होनी चाहिए...

सर.....ऐसे ही तो मुझे मेरी समस्या का निराकरण प्राप्त होगा..
आप सभी उच्च शिक्षित लोग है.. आखिर आपसे ही अपने भ्रम और धारणाये क्यों न स्पष्ट कराइ जाये..
क्या इस ज्ञान गंगा में मेरा डुबकी लगाने का हक़ नहीं है ??
और सर,,
मैं जिस पृष्ठभूमि से आता हूँ...वहां बीएड तक का ज्ञान ही मेरे लिए क्या कीमत रखता है ये मैं ही जानता हूँ !

मुझे अगर कहीं कोई भ्रम लगेगा तो मैं उसके निराकरण के लिए योग्य व्यक्ति के पास ही जाऊंगा..
मैं आपके पास आया हूँ....क्या मैं गलत हूँ ?
ज्ञान पर सिर्फ किताबो का हक़ तो नहीं है न ?
ज्ञान आप सभी से मिल रहा है..
कविता और भी अधिक निखार रही है
मन तृप्त हो रहा है
Basant Jaitly अनुशीलन के अलावा मुख से निसृत ज्ञान भी एक एकमार्ग है Ashok Kumar Pandey. एक नए कवि का सवाल है उसमे सैद्धांतिकी पढ़ाने की जगह सीधा जवाब भी दिया जा सकता है और न देना हो तो चुप रहा जा सकता है. ये सब तो कविता के प्रेम में हैं. इन्हें ऊधो वाले ज्ञान की ज़रुरत है क्या"? और किसी बात का पसंद आना यह निश्चित इंगित कबसे करने लगा कि इसका हमें इंतज़ार था ?
Veeru Sonker Sundar Srijak भाई.....आपका से पूर्ण रूप से सहमत..
Veeru Sonker Basant Jaitly सर....आप और अशोक सर मुझे पूर्ण रूप से समर्थ लगते है...मैंने अशोक सर को पढ़ा हुआ है..
पता नहीं क्यों मुझे ये विश्वास बना रहता है की मेरे स्तर पर जो सवाल हो सकते है उसके सही जवाब आप से प्राप्त हो सकते है
बस उत्तर की अभिलाषा मात्र !
शंकाओ का निराकरण मुझे सहज कविता को ओर ले जाता है
आप सभी को मेरा नमन..
आप सभी मेरे गुरु है
और ये मेरा सौभाग्य है की आप सभी ने मुझे अपना समय दिया
प्रशांत विप्लवी काश! विमर्श को विमर्श ही रहने देते....विमर्श का हश्र बहस/ फिर तकरार ..फिर विमर्श का बंटाधार...
Ashok Kumar Jaiswal निश्चित ही कविता में बिम्ब आवश्यक हैं....विशेषकर यदि कविता समस्यामूलक किस्म की हो, तब ऐसे में कविता एक समाधान भी इंगित करती है....!!
निधि जैन मैं आई और पंगे शुरू
Girijesh Tiwari वीरू सोनकर समर्थ कलमकार हैं. उनकी कलम से हम सब को उम्मीद है. उनकी इस पोस्ट में सहज जिज्ञासा है. जिज्ञासा के साथ पूछे गये प्रश्न तुष्टि दायक उत्तर की विज्ञ जनों से अपेक्षा करते हैं. कविता क्या है - सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है. हर लेखन कविता की कोटि में नहीं शामिल किया जा सकता है.
कविता - छन्द-बद्ध या छन्द-मुक्त - कोई भी हो वर्तमान काल की हो या शताब्दियों पहले की - वही है, जिसमें जीवन का सौन्दर्य चिलमन के पीछे से झिलमिलाता हुआ कुछ दिख जाये और जो और जितना दिखा, उसमें इतनी सामर्थ्य हो कि वह कुछ और देखने की प्रबल इच्छा पैदा कर जाये.
कविता में जो दिख जाता है, वही कविता का बिम्ब-विधान है. जो दिख नहीं पाता, मगर जिसे देखने की उत्सुकता मन को झंकृत कर ले जाती है, वही कविता का कथ्य है.
कथ्य की प्रखरता से गद्य भी कविता की तरह ही समर्थ और प्रवाहमान हो जाता है और तब शब्द-चित्र और गद्य-कविता की विधा सामने आती है.
सामान्यतः यह कथन उचित लगता है कि अतिरेक अनुचित है. परन्तु समर्थ कलमकार इस अतिरेक को साध ले जाते हैं. और उनका अतिरेक भी उनकी कविता को और भी सुन्दर और सम्मानित बना देता है. कालिदास और मुक्तिबोध को इसी लिये सम्मान उपलब्ध हो सका.
प्रशिक्षु कवि की सामर्थ्य की सीमा हो सकती है और उसी तरह पाठक और श्रोता की समझ की और भावभूमि की भी. परन्तु जो सहज ही लोगों की समझ में आ जाये, वह लोक-साहित्य का अंश तो हो सकता है. वह शास्त्रीय साहित्य का भाग नहीं हो सकता, क्योंकि शास्त्रीय साहित्य रचनाकार और पाठक दोनों से ही कला की उस विशिष्ट विधा में एक न्यूनतम अनुशासन, स्तर, समझ और गति की अपेक्षा करता है. शास्त्रीय संगीत ही नहीं, ललित साहित्य भी ललित कलाओं की अन्य सभी विधाओं की तरह ही कलमकार और पाठक व श्रोता दोनों से ही विशेष क्षमता की अपेक्षा करता है.
Basant Jaitly मुझे कोई दिक्कत नहीं है Veeru Sonker. जिन सवालों के जवाब दे सकता हूँ वह अपनी समझ के अनुसार ज़रूर दूंगा.
प्रशांत विप्लवी Tiwari Girijesh सर, आपने पानी की तरह साफ़ कर दिया " जो दिख नहीं पाता, मगर जिसे देखने की उत्सुकता मन को झंकृत कर दे, वही कविता का कथ्य है. अतिरेक अनुचित है. परन्तु समर्थ कलमकार इस अतिरेक को साध ले जाते हैं. और उनका अतिरेक भी उनकी कविता को और भी सुन्दर और सम्मानित बना देता है. कालिदास और मुक्तिबोध को इसी लिये सम्मान उपलब्ध हो सका. " .. अतिरेक से ज्यादा अनावश्यक बिम्ब चुभते हैं...अतिरेक के लिए सामर्थ्यवान कवि तक पहुँचने के लिए अपना ज्ञान बढ़ाना पड़ेगा...अशोक भाई की एक बात से इत्तेफाक रखता हूँ कि पढना हर हाल में ज़रूरी है| बसंत सर को सलाम करता हूँ कि बहुत सहजता से उन्होंने अपनी बात रखी|
Ashutosh Kumar पिछली सदी की शुरुआती दशकों में एज़रा पाउंड और उनके साथियों ने जो बिम्बवादी आंदोलन चलाया था , उसके लेखे बिम्ब ही कविता है। लेकिन बिम्ब सटीक होना चाहिए।भले ही जटिल हो। कविता में एक भी फालतू शब्द नहीं आना चाहिए। एक भी नहीं।
यह असल में लफ़्फ़ाज़ीपसंद रोमानी कविता के खिलाफ एक आधुनिकतावादी प्रतिक्रिया थी। हिंदी में उसका सब से अधिक प्रभाव अज्ञेय पर है। निराला ,मुक्तिबोध ,शमशेर ने बिम्बों का सब से अधिक प्रभावशाली उपयोग किया है, गोकि वे बिम्बवादी कवि नहीं थे। नई कविता के बाद हिंदी कविता बिम्बवाद के प्रभाव से दूर हुई है ।बिम्ब को विचारहीनता से जोड़कर देखा जाने लगा।कविता में बिम्ब की जगह बयान का महत्व बढ़ा है। रघुवीर सहाय इस प्रवृत्ति के अग्रणी कवि हैं।
आज शायद ही 'कविता क्या है' जैसे सनातन प्रश्न के उत्तर में कोई बिम्ब को रखना पसन्द करे।
मेरी कसौटी फ़क़त इतनी है कि कविता में बिम्ब आये या बयान , उसे अद्वितीय और अपरिहार्य होना चाहिए। सजावट और श्रृंगार के लिए उनका इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होना चाहिए।कविता में कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए जिसके बिना भी काम चल सके ।
'अँधेरे में 'कविता में प्रेतों के जुलूस का जो गतिमान बिम्ब है , उसे कैसे विस्थापित किया जा सकता है? या 'शक्तिपूजा' में जलती मशाल को ? लेकिन कविता का चरमविन्दु इन बिम्बों में नहीं है। वह 'कविता में कहने की आदत नहीं ' या'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' जैसे बयानों में है।
कविता हो या कला ,वे सिद्धांतों से नहीं बनते। सिद्धांत उन्हें समझने में मदद करते हैं,रचने में नहीं। उन्हें साधना पड़ता है।
चूंकि इस सूत्र में लोग अपने 'अज्ञान' की डींग ज़्यादा हांक रहे हैं ,इसलिए मैं इस रस्म को छोड़ रहा हूँ।
प्रशांत विप्लवी " बिम्ब सटीक होना चाहिए।भले ही जटिल हो। कविता में एक भी फालतू शब्द नहीं आना चाहिए। एक भी नहीं। " मेरे एक गुरुजन ने कभी बताया था कि महाप्राण निराला दरवाजा बंद करके कविता लिखते और घंटों बाद जब निकलते तो पूरा शरीर पसीने से तर-बतर होता..Ashutosh सर, आपकी पंक्तियों को इसलिए उधृत करना चाह रहा हूँ कि निराला जी शब्दों को सटीक रखने के लिए श्रम करते थे..जैसा आपने भी कहा है..फ़ालतू के शब्द नहीं होने चाहिए..जबकि आजकल देखने और पढने को ऐसी कवितायें मिल रही है जिनमें बिना श्रम के अनावश्यक शब्दों ठूंसा जाता है| इस शब्द और बिम्ब अपव्यय के कारण पाठक भी आहत हुए हैं|
Ashok Kumar Pandey पाठक! मुझे तो सबसे ज़्यादा ऐसी ही कविताओं के पाठक दीखते हैं प्रिय साथी। रहा सवाल जवाब और ज्ञान का, तो वह बार बार कह चुका हूँ कि ऍफ़ बी से नहीं मिलने वाला। नए कवि का सवाल नहीं है, न ज्ञानी आलोचकों का। सवाल एक कवि के कवि होने की प्रक्रिया का है। कटु बोलना कभी कभी ज़रूरी हो जाता है। लेकिन मैं बार बार बोलना चाहूंगा कि यह बहस असल में निरर्थक है, एक कवि के रूप में मुझे इससे कुछ हासिल नहीं होता और एक पाठक के रूप में भी। बिम्ब और बयान का यह समीकरण ऐसे सुलझता तो क्या बात थी! मुझे तो अक्सर लगता है कि बिम्ब है क्या, यह समझे बिना लोग बिम्बों पर बात करते हैं जैसे abstraction को समझे बिना abstraction पर और कला को समझे बिना कलावाद पर. बाक़ी आज आगे हिस्सा लेने में असमर्थ हूँ तो क्षमा चाहूँगा।
Veeru Sonker Ashutosh Kumar सर Girijesh Tiwari सर,
आपसे संवाद कर के क्या पाया जा सकता है आज पता चल गया..
नमन.....इस ज्ञान गंगा के लिए !
प्रशांत विप्लवी दादा.....आपने समाधान को महत्त्व दिया आपको भी मेरा नमन
Ashok Kumar Pandey Basant Jaitly sir, हम क्या करेंगे यह हम ही तय करेंगे न? अपने अपने अनुभव से...
Veeru Sonker Ashok Kumar Pandey सर आशा है आपसे आगे भी सीखने को मिलेगा,,
सर मैं अब पर्याप्त रूप से पढ़ने की भी कोशिश करूँगा..

आपका स्नेह मुझे प्राप्त होता रहेगा आशा करता हूँ...
प्रशांत विप्लवी Ashok भाई, आपकी बातें खुद में विरोधाभासी हैं... "ऍफ़ बी से नहीं मिलने वाला " सबको यहीं से दिक्कत है सभी यहीं फंसे पड़े हैं...इस ऍफ़ बी ने कई कवि दिए हैं और अच्छे कवि दिए हैं... कवि होना और ज्ञानी होना दो अलग बात है... "सवाल एक कवि के कवि होने की प्रक्रिया का है" दोनों बात आप ही कह रहे हैं|
Ashok Kumar Pandey Veeru Sonker आप प्रिय हैं इसलिए कहता हूँ. कविता सच में लिखना है...लंबे दौर में सार्थक कविता लिखनी है तो fb पर भरोसा छोड़िये। यहाँ दिए समय का नब्बे फीसद बर्बाद होता है. कभी कभी सुकून होता है कि यह बीस साल पहले नहीं था। कभी कोई सर्वे करेगा कि इसने कितनी प्रतिभाओं को नष्ट किया। बाक़ी आप समर्थ हैं...मेरी बात को अस्वीकार करने को। सस्नेह
Ashok Kumar Pandey प्रशांत विप्लवी भाई, मैं एक ही बात कह रहा हूँ लगातार। एकदम स्पष्ट। यहाँ फंसना और यहाँ से ज्ञान की उम्मीद करना दो अलग चीजें हैं. उन्हें एक साथ मत जोड़िये। यह सोशल नेटवर्किंग है। यहाँ मैं दोस्त और साथी बनाता हूँ। वैचारिक बहसें और वह भी अधिकतर प्रोपेगेंडा के लिए करता हूँ। और कवि होने की प्रक्रिया में असल ज़रुरत अपनी परम्परा और समकाल को पढ़ने और गुनने की है...यह तो मैंने साफ़ किया है।
Veeru Sonker fb ??

आज से 3 साल पहले कविता लिखना तो दूर कविता पढ़ना तक गवारा नहीं था.......See More
Veeru Sonker Ashok Kumar Pandey सर...आपकी कोई भी बात मैं अस्वीकार नहीं कर सकता..
आपके शब्द याद रखने वाले होने है
और सीखने वाले होते है.
बहस चर्चा परिचर्चा अपनी जगह है....पर आपको पढ़ कर जो मिलता है वह गूंगे का गुड़ ही है...आप मेरे लिए सदैव ही सम्माननीय रहे है और रहेंगे
हमेशा हमेशा !
Basant Jaitly बात गलत नहीं है. अगर इस बहस में न होता कुछ लिखता या पढ़ता. फेसबुक एक लत भी है और समय की बर्बादी भी. अगर कुछ पढोगे और कुछ गुनोगे तो अधिक सुखी रहोगे और ज्यादा सीखोगे Veeru Sonker.
Surendra Mohan Sharma it`s all blah blah .... one just can`t learn how to use imagery in one`s poem or get rid of it... You simply can`t do that . And I`m totally in disagreement with Mr. Pandey that a good poem , not to mention a good poet, could possibly be a product of FB... He just siphoned off a relevant question under the garb of his understanding of Abstract art etc etc.. you just can`t equate a good poem with abstract art . Both are different domains ...
Mahesh Punetha सहमत
Sundar Srijak Sanjay Kumar Shandilya bhai
Sanjay Kumar Shandilya बिम्ब और प्रतीक जीवन से निकलते हैं और कविता में दर्ज होते हैं ।उसी तरह अलंकार भी ।कभी-कभी पूरी कविता ही रूपक हो जाती है ।कवि का काम कविताएँ लिख जाना है ।वह सिद्धांतकार हो यह जरूरी नहीं ।एक ही समय में कयी तरह की कविताएँ लिखी जाती हैं ।समय यह तय करता है कि किसकी क्या भूमिका रही ।छंद का ज्ञान जरूरत भर रखते हैं तो शिल्प को साधने में सहायता मिलती है ।परंपरा का ज्ञान भी समकालीन समय और समाज को समझने में अच्छा है ।सही बात यह कि कविताएँ लिखें ।अगर प्रकाशित हो जाती हैं तो पाठक तय कर लेते हैं कि पढना क्या है ।बिम्बवाद एक पुराना आग्रह है ।वैसे ही रूपवाद भी ।आप क्या लिख सकते हैं यही महत्वपूर्ण है ।दूसरे क्या लिखते हैं वह उनका संघर्ष है ।अपना लिखत-पढत ही काम आता है ।सिद्धांतकार अगर कविताएँ लिख सकता तो लिख लेता ।
Sundar Srijak darasal kavi ke andar jo paathak hotaa hai use jab bhi kavitaa duruh yaa thik thik sampreshit hui nahi lagti yaa fir kavitaa kaa uddeshy pooraa hotaa nahi dikhtaa tab vah is tarh ke vidhi-nishedh men padkar apni raay/asuvidhaa darj karvaataa hai jo ki paaribhshik rup men sidhaant maanaa jaataa hai....meraa maanaa haai ki ab kavitaa ke rup-shilp se jiyaadaa lakshy aur uddeshy par baat honi chaahiye kyunki yadi vah jiyaadaa se jiyaadaa graahy hai to apne uddeshy tak safal hogi....graahytaa jis kaaran bhi aaye uski parvaah nahi ki jaani chaahiye....
Sanjay Kumar Shandilya सुन्दर: चिन्ता तो ग्राह्यता की भी नहीं है ।नज़्म वही जो नस्र न हो ।एक पंक्ति में अर्थ कर गए तो कविता की संवेदना वह काम नहीं करेगी जो उसे करना है ।मनुष्यता को जाग्रति दे एक कामगार कविता से यह अपेक्षा होती है ।वह ऐसा कैसे कर ले जाती है यह बहुत चिन्तन का विषय नहीं है कवि के लिए ।हाँ यह जरूर कि एक कविता कविता होने से इन्कार न करे ।
Sundar Srijak bhai kavitaa ka lakshy aur uddeshya mere liye maanviya samvednaa aur sangharsh se itar kuchh bhi nahi....mere liye ek pankti jo 'inqlab jindaabaad' saa josh bhar de ki kavitaa bhi swikary hai..aakhir hamne Hyku ko swikaar kar hi liyaa hai n...
कंडवाल मोहन मदन सही फ़रमाया वीरू
Anupama Sarkar Basant Jaitly Sir..सबसे पहले क्षमा कि बहुत देर बाद fb पर आपके comment को देखा और इस रोचक चर्चा में भाग नहीं ले पाई। मैं आपसे शत प्रति शत सहमत हूँ कि कवि को कालांतर में अपनी रचना पर विचार करना चाहिए और उसे बेहतर बनाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। बल्कि मैं तो अपनी कविताओं को कभी पूर्ण या perfect मानती ही नहीं। उनमें सुधार की गुंजाइश है, इससे इंकार किसी भी रचनाकार को नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस दिन ये विचार मन में आ गया, आपकी रचनाशीलता सीमाओं में सिमट जाएगी पर हाँ, मेरे लिए लेखन अपने भावों की अभिव्यक्ति है, सोचविचार कर, गहन चिंतन करके यदि शब्दों को बिंबों के रुप में ढालने की कोशिश की जाए, तो कविता अलंकारों का जमावड़ा मात्र रह जाएगी। जब कोई बात मन से निकले, तभी वो पाठक के हृदय में पहुँच सकती है। लेखन effortless होना चाहिए, स्वतः बहता हुआ।
Veeru Sonker Sundar Srijak भाई...आप ने बहुत कुछ धुंध दूर किया धन्यवाद्
Navneet Pandey बिम्ब का उदाहरण

एक नीला आइना
बेठोस सी यह चाँदनी
और अन्दर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में।
मौन में इतिहास का कन किरन जीवित, एक, बस। (शमशेर)
Navneet Pandey बिम्ब का उदाहरण

पी गया हूँ दृश्य वर्षा काः
हर्ष बादल का
हृदय में भर कर हुआ हूँ। हवा सा हल्का।
धुन रही थीं सर
व्यर्थ व्याकुल मत्त लहरें (शमशेर)
Navneet Pandey बिम्ब का उदाहरण

मैंने उसको
जब जब देखा
लोहा देखा
लोहा जैसे
तपते देखा
गलते देखा
ढलते देखा
मैंने उसको
गोली जैसे
चलते देखा (केदार)
Navneet Pandey बिम्ब का उदाहरण

क‍ई दिनो तक चुल्हा रोया ,चक्की रही उदास

"क‍ई दिनो तक कानि कुतिया सोयी उसके पास

"क‍ई दिनो तक लगी भीत पर छिपकलीयो कि गस्त"
क‍ई दिनो तक चुहो कि भी हालत रही शिकस्त
"धुआँ उठा आँगन के उपर क‍ई दिनो के बाद
दाना आया घर के भीतर कई दिनो के बाद
कौव्वे ने खुजलायी पाँखे कई दिनो के बाद (नागार्जुन)
Navneet Pandey बिम्ब का उदाहरण

साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--

विष कहाँ पाया? (अज्ञेय)
Navneet Pandey बिम्ब के उक्त उदाहरणों के साथ हो सकता है कि बहस आगे किसी सिरे तक पहुंचे और जिज्ञासाओं, शंकाओ के कुछ बादल छंटे... बसंत जी के साथ- साथ और भी समर्थ विद्वजन हमारे साथ हैं ही
Arun Sri बड़ा कठिन है वीरू भाई !
बिम्ब प्रतीकों की तरह एकार्थ व्यंजक नहीं होते बल्कि स्वच्छंद होते हैं और कथ्य , पृष्ठभूमी और व्यक्तिगत अनुभव की संबद्धता में ही अपना अर्थ रखते हैं ! पाठक कहीं से भी चूका तो उसके लिए बिम्ब एक निरर्थक शब्द समुच्चय से अधिक नहीं रह जाएँगे ! जब पाठक का दाइत्व इतना बड़ा है तो मुझे नहीं लगता कि सीधे-सीधे कवि को दोष देना ठीक रहेगा !
इस तरह तो “अँधेरे में” और “राम की शक्ति पूजा” जैसी रचनाएँ प्रथम दृष्टया बिम्बों की भूल-भुलैया कह कर खारिज कर देनी चाहिए ! एक-एक बिम्ब अपने आप में एक पूरी कविता हो जाते हैं कभी-कभी !
हाँ , इस पर सहमत हुआ जा सकता है कि नितांत व्यक्तिगत संवेगों के सम्मूर्तन में उनका गहन परोक्ष पाठक के अंदर अरुचि पैदा कर सकता है !
कविता द्वारा छंद , तुक , लय आदी का बंधन तोड़ने के बाद मुझे लगता है कि बिम्ब निर्माण वो महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा गद्य और पद्य में अंतर किया जा सकता है !
छायावाद की चर्चा के दौरान केदार नाथ जी ने भावों का सम्मूर्तन विधान लिखते हुए इस विषय को अच्छे से स्पष्ट किया है ! अगर उपलब्ध हो तो पढ़िए !
संभवतः आप फेसबुक पर या और कहीं पढ़ी गई उन अपरिपक्व कविताओं की बात कर रहे हैं जो सिर्फ और सिर्फ “केशव” बनने के लोभ में लिखी जाती हैं !
कुछ कविताओं में बिम्ब तो होते हैं लेकिन बिम्बों के बीच का अंतर्संबंध नदारद होता है ! और व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि उन कविताओं को विमर्श का हिस्सा न माना जाय तो अच्छा ! विमर्श मुख्य-धारा से सम्बंधित हो , खारिज या अपवाद विषय-वस्तु पर नहीं !
Veeru Sonker Arun Sri भैया.....अपने संतुष्ट किया..
कविता पर आपकी समझ मुझे और भी अधिक जानने को उत्सुक करती है...
हां ये सच है की शायद मेरे मन में फेसबुक की कुछ रचनाओ को देख कर संशय जगा था.
पर जब तक आप है
कोई भी संशय टिक सकता है भला 
Arun Sri //जब तक आप है//
आप शर्मिंदा कर रहे हैं वीरू भाई , मुझमें उचित पात्रता का आभाव होने के कारण मुझे संकोच होता है ऐसी बातों से ! मैं खुद एक नौसिखिया ! यहाँ-वहाँ से बस थोड़ा बहुत जो मिल रहा है बटोरता जा रहा हूँ !
Veeru Sonker इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की मुझे आपसे जो सीखने को मिल रहा है वह अनमोल है....
आभार तो बनता ही है भैया
Anju Sharma वीरू जी, चाहकर भी उतना पढ़ नहीं पाती हूँ जितना जरूरी है और लिखने की बात करूँ तो मैं नहीं समझती कि मैं इस स्टेटस पर टिप्पणी करने की पात्रता रखती हूँ...फिर भी जानना चाहूंगी आप किन कविताओं की बात कर रहे हैं
Prem Mohan Lakhotia बिम्ब निर्माण ही तो कविता नहीं है| कविता है एक सृजनात्मक लयात्मक सोच!
Basant Jaitly आचार्य राम पलट दास कविता पर बहुत गंभीरता से कह रहे हैं यह बात .................. ·
जो कुछ भी लिखा हमने पब्लिक से परे रक्खा
कविता के कलेवर में गहगड्ड करे रक्खा
ये बिम्ब टिकाऊ है ये अर्थ नया-सा है
सब माल किराए का छाती पे धरे रक्खा.... सब के लिए लिखा जाए, किराए के माल से बचा जाए याने मौलिक लिखा जाए यह बहुत ज़रूरी है.... ध्यान देने लायक बात है.
Veeru Sonker वाह
प्रशांत विप्लवी बसंत सर, अंततः सार मिल ही गया...मौलिकता और व्यापकता दो अहम बातें कविता को बचाए रखती है|
Veeru Sonker दादा
Pankaj Parimal ...बिम्बके साथ कवि का ट्रीटमेंट कैसा है,यह देखना होगा,आप भट्टी में ईंट तो पका लेते हैं, लेकिन उससे कविता बना पाते हैं या नहीं ...या उस ईंट को को ही कविता कहकर पाठक के सर पर दे मारते हैं....यह वाक्य भी एक बिम्ब गढ़ता है परयदि यह अपना मंतव्य नहीं खोल पाता,तो इसे कहने का कोई अर्थ नहीं
Veeru Sonker बिलकुल सही

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