Tuesday 23 December 2014

___शिक्षा और सूचना___

शिक्षा क्या है ! सूचना क्या है ! दोनों में अन्तर क्या है !
वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था हमें बाज़ार के हवाले कर देती है — तब भी जब हम शैशवावस्था में ही इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल के हवाले अपना बचपन कर देते हैं. और तब तो और भी जब हमें सरकारी विद्यालय की खिचड़ी-छाप शिक्षा ही मयस्सर हो पाती है. प्राथमिक शिक्षा से ले कर माध्यमिक और उच्च शिक्षा तक देने वाले सभी शिक्षा-संस्थान आज पूरी तरह बाज़ार के लिये उपभोक्ता और उत्पाद बनाने का कारखाना बन चुके हैं. तब तो और भी जब हम किसी रोज़गार के लिये कोई प्रतियोगी परीक्षा देने की तैयारी कर रहे होते हैं, हम पूरी तरह बाज़ार पर आश्रित होते हैं. बाज़ार हमें हर स्तर पर हर तरीके से केवल और अधिक मुनाफ़ा पैदा करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करता है.

हमारे सामने विचार करने का विषय है कि यह शिक्षा-व्यवस्था हमें शिक्षा के नाम पर क्या दे रही है !
आइए, एक तरफ़ से देखने और पड़ताल करने का प्रयास करते हैं. प्रवेश परीक्षा देने का चलन सभी विद्यालयों में चल रहा है. जो विद्यालय पिछले सत्र में अपने ही विद्यार्थियों को शिक्षा दे चुके होते हैं और वार्षिक परीक्षा में उत्तीर्ण कर चुके होते हैं, वे भी उन छात्रों को अगले सत्र के आरम्भ में प्रवेश-परीक्षा देने और उत्तीर्ण होने पर ही पुनः अगली कक्षा में प्रवेश लेने का पात्र मानते हैं. जब किसी छात्र को विद्यालय में वार्षिक परीक्षा में अगली कक्षा में पढ़ने के योग्य प्रमाणित कर दिया गया, तो फिर उसी छात्र को उसी संस्था में प्रवेश-परीक्षा से गुज़ारने की क्या आवश्यकता है !

प्रवेश लेने के बाद छात्र को शिक्षा लेने के लिये पाठ्य-पुस्तकों का सहारा लेना होता है. प्रत्येक कक्षा के प्रत्येक विषय की प्रत्येक किताब में लगभग बीस अध्याय होते हैं. प्रत्येक विद्यालय वर्ष भर में लगभग 200 दिन शिक्षा का काम करता है. एक घंटी प्रतिदिन के हिसाब से एक पाठ के लिये शिक्षक और छात्र दोनों के पास मात्र दस घंटियाँ होती हैं. प्रत्येक कक्षा में लगभग चालीस या उससे अधिक ही छात्र-संख्या होती है. प्रत्येक घंटी में लगभग दस मिनट शिक्षक के आने-जाने और छात्रों के अगली घंटी की पाठ्य-सामग्री सामने निकालने में खर्च हो जाते हैं, तो वस्तुतः घंटी का समय मात्र तीस मिनट ही कार्यकारी समय के रूप में उपलब्ध हो पाता है. क्या सबसे अधिक ज़िम्मेदार और मेहनती शिक्षक के भी लिये यह सम्भव है कि वह चालीस मिनटों की दस घंटियों में एक पाठ के शब्दार्थ लिखा ले, आदर्श वाचन कर-करा ले, पाठ को समझा ले, प्रश्नों के उत्तर लिखा ले और उनको जाँच कर त्रुटिसुधार करवा ले जाये ! निश्चय ही हमारा उत्तर नकारात्मक होगा. फिर इतने लम्बे पाठ्यक्रम और इतनी बोझिल पाठ्य-पुस्तकों के लिखे जाने का क्या लाभ है !

आइए देखें, शिक्षा के नाम पर वास्तव में होता क्या है ! सामान्यतः शिक्षक चन्द पाठों को विस्तार में गम्भीरता से पढ़ाता है. अगले कुछ पाठों को तेज़ी से पढ़ा देता है. शेष पाठों को या तो छूता ही नहीं या अगर छूता भी है, तो केवल ऊपरी तौर पर खानापूर्ति करने के नाम पर प्रबन्धक की फटकार सुनने से बचने के लिये छात्रों के ऊपर एहसान करता है. अधिकतर शिक्षकों का कोर्स कभी पूरा होता ही नहीं. ईमानदारी से पढ़ाने पर भी वह हो ही नहीं सकता. और अधिकतर शिक्षक केवल उतना ही काम करते हैं, जिसमें उनकी नौकरी बची रह जाये. वे केवल तीस प्रतिशत काम करते हैं और सत्तर प्रतिशत कामचोरी करते हैं. यह मूलतः बोझिल पाठ्यक्रम और कामचोर शिक्षक के बीच का अन्तर्विरोध है.

अब देखते हैं कि शिक्षा देने के नाम पर शिक्षक क्या देता है और शिक्षा लेने के नाम पर छात्र क्या पाता है ! शिक्षक पाठ के अन्त में दिये गये प्रश्नों के निश्चित उत्तर लिखवा देता है. छात्र उन उत्तरों को रट लेता है. रट लेने के बाद परीक्षा में वह पूछे गये प्रश्नों के उन्हीं उत्तरों को ही लिख देता है. मूल्यांकन के समय परीक्षक द्वारा उसे थोक भाव से अंक दे दिये जाते हैं. ऐसा होने का कारण है कि इस समय देश में चल रही वर्तमान मूल्यांकन-पद्धति में शासन का एक ही निर्देश ईमानदारी से लागू किया जाता है कि किसी को फेल न किया जाये. और जनरल मार्किंग की व्यवस्था में कोई फेल नहीं होता. जब छात्र और शिक्षक दोनों को पूरी गारन्टी है कि कोई फेल नहीं होगा, तो पढ़ते-पढ़ाते समय कक्षा में माहौल कितना गम्भीर रह सकता है — यह बहुत आसानी से समझ में आ जाने वाली बात है.

परिणाम यह है कि हर शहर के हर बाज़ार में छोटे-बड़े कोचिंग-सेन्टर्स ख़ूब अच्छी तरह पनप रहे हैं. वही शिक्षक अपने विद्यालय में नौकरी करने के नाम पर कामचोरी करता है, विषय-वस्तु की केवल झलक दिखा देता है और अपनी कोचिंग में पढ़ने के लिये छात्रों पर दबाव बनाता है. चूँकि उसके हाथ में प्रैक्टिकल के नम्बर होते हैं. इसलिये भी छात्र उसकी कोचिंग के ग्राहक बनने को तैयार हो जाते हैं. और अब तो हर स्तर पर ट्यूशन और कोचिंग का प्रचलन इनता बढ़ चुका है कि बड़ी बड़ी इमारतों वाले विद्यालय केवल फीस जमा करने और परीक्षा देने के ढहते हुए केन्द्र बन कर रह गये हैं. और उनकी तुलना में बहुत कम व्यवस्था दे पाने वाले शिक्षा बेचने की दूकानों के रूप में चल रहे कोचिंग सेन्टर्स में छात्रों-छात्राओं की ठसाठस भीड़ उमड़ती रहती है.

अब पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी की अन्तर्वस्तु के बारे में विचार करें. चन्द चुने हुए प्रश्न और उनके सेट उत्तर परीक्षा में वर्ष-दर-वर्ष पूछे और लिखे जाते हैं. अगर गत दस वर्षों के प्रश्न हल कर लें, तो ग्यारहवें वर्ष के प्रश्न-पत्र की तैयारी अपने आप हो जाती है.

मगर अभी तो अधिकतर छात्र इतना भी नहीं करते. वे केवल एक रफ़ नोटबुक लेकर क्लास करने आते हैं और उसी में अपने सभी विषयों के क्लास-नोट्स लिखते रहते हैं. पाठ्य-पुस्तकों को ढोने के लिये वे तैयार नहीं होते. और तय है कि वह रफ़ नोटबुक उनको परीक्षा की तैयारी के समय मिल ही नहीं सकती और अगर मिल भी गयी, तो यह छाँटना उनके लिये असम्भव होता है कि अमुक विषय के नोट्स कहाँ-कहाँ बिखरे हैं. अब वे क्वेश्चन-बैंक और श्योर शॉट सीरीज़ पर निर्भर करने को बाध्य होते हैं. जो कुछ शिक्षा के नाम पर हमें दिया जा रहा है, वास्तव में यह शिक्षा है ही नहीं. यह मात्र सूचना है.

शिक्षा का उद्देश्य है मानव-मस्तिष्क को ख़ुराक देना. मानव-मस्तिष्क को और सक्रिय बनाना. मस्तिष्क कब अधिक सक्रिय हो सकता है ! जब उसके सामने चुनी-चुनाई प्रश्नोत्तर पद्धति से सीमित और निर्धारित मात्रा में उत्तर के नाम पर कुछ सूचनाएँ उपलब्ध करा दी जायें, तो निश्चित तौर पर उस व्यक्ति के दिमाग को सन्तुष्ट कर दिया जाता है. परिणाम यह होता है कि अब वह दिमाग तृप्त और शान्त हो जाता है. क्या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के नाम पर भी हम केवल सूचनाएँ ही जुटाते नहीं रह जाते हैं ! ऐसी सूचनाओं का हमारे जीवन में आगे कोई उपयोग होता ही नहीं. क्या चन्द सूचनाओं को रट लेना शिक्षित होना है ! हमारा उत्तर निश्चय ही होगा — नहीं.

सूचना-विस्फोट के काल में अधिकतम सूचनाएँ जुटा कर हम अपने मस्तिष्क को और सक्रिय नहीं बना सकते. इसके विपरीत जितनी सूचनाएँ हमारे पास जुटती जाती हैं, हमारा दिमाग उतना ही अधिक तुष्ट, तृप्त और शान्त होता जाता है. नेट पर सूचनाओं के सहज ही उपलब्ध हो जाने के कारण हमारे दिमाग का सोचने का काम कम होता जा रहा है. याद करने और याद रखने की कोशिश करने का काम कम होता जा रहा है. हर सवाल का सामना करते ही हम केवल ‘गूगल’ गुरु पर ही निर्भर हो जाते हैं. ‘गूगलिंग’ से हमको किसी भी विषय पर ऐसी जानकारी तो मिल जाती है, जो उस विषय के बारे में सामान्य सूचना होती है, मगर दिमाग को बेतहाशा मथने और हमको पूरी तरह बेचैन कर देने के लिये ज़रूरी ज्ञान सन्तोषजनक मात्रा में नहीं उपलब्ध हो सकता. हमारा दिमाग तभी बेचैनी से सटीक प्रश्न का समाधान खोजने का प्रयास कर सकता है, जब उसके सामने निश्चित सूचनाओं की शक्ल में सेट उत्तर न हों.

सच्चा शिक्षक वही है, जो अपने छात्र को प्रश्नों और परिप्रश्नों की भूल-भुलैया में चक्कर लगवाता है. वह अपने छात्र के सामने एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न करता चला जाता है और इस पद्धति से परिप्रश्नों की झड़ी लगा कर उसके दिमाग के चारों ओर ऐसा धुआँ फैला देता है, जिसमें वह और भी दिग्भ्रमित हो जाता है. अब वह अपने भ्रम को दूर करने और सही उत्तर की तलाश के लिये बेचैन हो उठता है. अब उसकी जिज्ञासा बढ़ती चली जाती है. अब उसे शिक्षक से अपनी शंका का समाधान पूछने की आवश्यकता महसूस होने लगती है. यह आवश्यकता जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, छात्र वैसे-वैसे और भी शिद्दत से समाधान की तलाश करने पर उतारू होता जाता है. अब जाकर उसे सच्चे मार्गदर्शक गुरु की ज़रूरत महसूस होती है. वरना वह मुदर्रिस, ट्यूसनिया मास्टर और सच्चे मार्गदर्शक गुरु के बीच का अन्तर समझ ही नहीं पाता. अब वह विनम्र होना शुरू करता है.

सुकरात के बारे में दसवीं कक्षा के छात्रों के लिये अंग्रेज़ी में एक पाठ है. वह पाठ दिखाता है कि जैसे ही सुकरात सड़क पर दिखाई देता, युवा कहते — देखो वह सुकरात है. आओ चलें, उससे बात करें. सुकरात से बात करने के दौरान वे उससे प्रश्न करते. चूँकि सुकरात की पद्धति सूचना देने के बजाय प्रतिप्रश्न करने की थी. परिणामस्वरूप वे युवा अपने उस प्रश्न विशेष का उत्तर तो तत्काल नहीं ही पाते थे, बल्कि सुकरात द्वारा उसी मुद्दे पर तड़ातड़ ढेरों परिप्रश्न करने के चलते वे अनेक और भी प्रश्नों का सामना करने तक पहुँच जाते थे. अब इस तरह वे जब पूरी तरह दिग्भ्रमित हो जाते थे, तो उनके अन्दर सच्चे ज्ञान की भूख पैदा हो जाती थी. और वे धीरे-धीरे करके सुकरात के अनुयायी बन जाते थे.

तो अब हम यह कह सकते हैं कि सच्ची शिक्षा वही है, जो मुक्त करती है. “सा विद्या, या विमुक्तये”. सच्चा ज्ञान वही है, जो हमको उस विषय पर इतना सिखा दे कि हम अपनी समस्याओं के समाधान करने के लिये प्रयास करने तक पहुँच जायें. हम अब समझ सकते हैं कि सच्ची शिक्षा हमारे दिमाग को सोचने के लिये प्रेरित करती है और और अधिक सोचने तक पहुँचा देती है. सच्ची शिक्षा इस तरह हमारे दिमाग को और सक्रिय बना देती है. 
आइन्स्टीन ने कहा था — “The value of college education is not learning many facts, but training of mind to think.”
वर्तमान व्यवस्था अधिकतम लोगों को केवल 'साक्षर मूर्ख' बना रही है. यह हमें केवल सूचनाएँ दे रही है. यह हमारे दिमाग को कुन्द कर रही है. यह हमारे सोचने की क्षमता नष्ट कर रही है. गुलाम बनाने के लिये सबसे ज़रूरी होता है कि इन्सान सोचना बन्द कर दे. वह केवल वही और उतना ही समझे-जाने, जो और जितना शासक शोषक प्रभु वर्ग समझाना-जनाना चाहता है. अगर इन्सान किसी भी समस्या पर गहराई से सोचने लगेगा, तो शोषण, उत्पीड़न और नफ़रत पर टिकी इस आदमखोर व्यवस्था को चलाते रहना नामुमकिन हो जायेगा. जो सोचने लगता है, वह मुट्ठी-भर वैभवशाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिकान के लाभ के लिये चल रही इस व्यवस्था के लिये ख़तरनाक हो जाता है. वह इस व्यवस्था को बलपूर्वक उलट कर मानवोचित गरिमा वाली जनपक्षधर व्यवस्था स्थापित करने के लिये कसमसाने लगता है.

प्रिय मित्र, क्या आप इस विश्लेषण से सहमत नहीं हैं ! असहमति के लिये सहमत होने पर ही हम-आप विचार-विनिमय करते हैं. ऐसा बिलकुल हो सकता है कि मेरा विश्लेषण पूरी तरह गलत हो. ऐसे में मेरा पथ-प्रदर्शन का दायित्व आप सभी विद्वान् मित्रों का दायित्व है. क्या आप इस मुद्दे पर सदा की तरह ही मुझे सिखाना पसन्द करेंगे ! कृपया मेरा मार्ग-दर्शन करें.
विनम्र जिज्ञासा के साथ — आपका गिरिजेश (24.12.14)
( इस लेख के बाद '__कैसा हो शिक्षा का स्वरूप__' शीर्षक लेख इस लिंक पर देखें - 
http://young-azamgarh.blogspot.in/2014/12/blog-post_23.html )

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