Monday 26 January 2015

___हिन्दू-मुसलमान या मज़दूर-किसान___

"हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-मुसलमान"
सुनते-पढ़ते कान पक गया और दिमाग भन्ना गया.
क्या इस देश में हिन्दू-मुसलमान ही रहते हैं !
कोई मज़दूर, कोई किसान नहीं रहता !
कोई अमीर, कोई ग़रीब नहीं रहता !
कोई पूँजीपति, कोई शैतान और कोई इन्सान नहीं रहता !

क्यों अब इन्सान को केवल उसके धर्म और जाति से ही पहिचाना जा रहा है !
क्यों इन्सान का रोज़गार, उसका वर्ग, उसकी सोच और उसका आचरण -
सब मिल कर भी अब इन्सान को पहिचान नहीं दे पा रहे !

हिन्दू-मुसलमान के नाम पर इन्सान की पहिचान को बदल देने वाले लोग कौन हैं !
उनकी ख़ुद की पहिचान क्या है !
क्या वे ख़ुद भी हिन्दू-मुसलमान हैं या केवल शैतान हैं -
इसे सोचने की ज़रूरत है, समझने और समझाने की ज़रूरत है.
वरना शैतान जीतते रहेंगे और इन्सान हारता रहेगा !

शैतान जीतेगा तो दंगा करायेगा !
इन्सान जीतेगा तो अमन-चैन और भाई-चारा बढ़ेगा !
शैतान की एक-एक साज़िश का पर्दाफ़ाश करना पड़ेगा !
सुकून और सम्मान की ज़िन्दगी जीने के लिये इन्सान को एकजुट होना पड़ेगा !
वरना इन्सानियत ज़लील होती रहेगी और शैतान ठहाका लगाता रहेगा !
इन्सान ज़िन्दाबाद ! देशी-विदेशी लुटेरे मुर्दाबाद !

___अनुरोध पहल का - उम्मीद आप से___


प्रिय मित्र, आज नेताजी सुभाष दिवस है. आज पूरे दिन मैं भारत रक्षा दल के आयोजन में बैठा रहा. चुपचाप सोचता रहा, सोचता रहा और क्षुब्ध होता रहा.

मैं सोचता रहा देश और समाज के बारे में, अपने कर्तव्यों और दायित्वों के बारे में, अपने दोस्तों और साथियों के बारे में, अपने सपनों और सीमाओं के बारे में, अपने बच्चों और उनके भविष्य के बारे में, अपने लोगों और उनकी यन्त्रणा के बारे में, ज़िन्दगी और उसकी जंग के बारे में, अतीत और वर्तमान के बारे में, अपने प्रयासों और उनकी विफलता के बारे में.

और मैं दुःखी होता रहा अपनी कूबत के बौनेपन पर, अपने लोगों की मासूमियत पर, अपने साथियों की हठधर्मिता पर, अपने दोस्तों के व्यक्तिगत स्वार्थों और सामूहिक हितों के द्वंद्व पर, अपने बच्चों के अभी इतना अधिक छोटे होने पर और देश-काल-परिवेश की गतिकी की दिशा पर, अपने क्रान्तिकारी आन्दोलन की दुर्दशा पर और कुल मिला कर अपने इतना अकेला और कमज़ोर होने पर.

मगर अभी तक भी मेरे सोचने और लिखने से, मेरे कहने और करने से, मेरे खुश और दुःखी होने से, मेरे क्षोभ और आक्रोश से, मेरी झल्लाहट और झुँझलाहट से, मेरे प्यार और मेरी नफ़रत से, मेरे ईमानदार और सच्चाई-पसन्द होने से, मेरी साधना और मेरी कूबत से कोई भी रंच-मात्र भी हिल तो नहीं सका.

अभी तक तो हम में से कोई भी सामूहिक शक्ति के रूप में आगे बढ़ने और कुछ कर गुज़रने की पहल तक भी नहीं ले सका, सभी दोस्तों और साथियों को जोड़ने और जन-सामान्य से जुड़ जाने के अभियान में कोई सफलता तो नहीं मिल सकी, तिनका-तिनका, तीली-तीली बिखरी जन-शक्ति को एकजुट करने का सपना साकार करने के नाम पर कुछ भी तो नहीं हो सका.

यही हालत कल थी, तब भी थी जब फासिज़्म की केवल धमक सुनी जा रही थी और यही हालत अभी भी है जब फासिज़्म के कब्ज़े में देश जा चुका है.

क्या कल भी हमारी निष्क्रियता, हमारे दम्भ, हमारे छोटे-बड़े रगड़ों-झगड़ों और हमारे बर्दाश्त की यही हालत बनी रहेगी ! और परसों भी !!
और आगे आने वाले बरसों-बरसों तक भी !!!

क्या आप मानवता के दुश्मनों के अट्टहास नहीं सुन पा रहे हैं !
क्या आप बाज़ार के निर्मम मुनाफाखोरों के कब्ज़े में हमारी रोज़मर्रा की मामूली ज़रूरतों तक को दम तोड़ते नहीं देख पा रहे हैं !
क्या आप नहीं समझ पा रहे हैं कि दुश्मन अपनी तैयारी में रात-दिन एक किये हुए है !
क्या आप दुनिया भर में दादागिरी चलाने वाले साम्राज्यवाद के चरित्र को नहीं पहिचान पा रहे हैं !
क्या आप मेहनतकशों के पसीने को सिक्कों में ढाल कर तिजोरियों में ठूँस-ठूँस कर भरने की साज़िश को नहीं समझ पा रहे हैं !

क्या आप अभी और भी बुरे दिनों के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं !
क्या आप कुछ भी सोचने और करने से इनकार करने की स्थिति में हैं !
क्या आप सोच रहे हैं कि कुछ भी न सोचने, कुछ भी न कहने और कोई पहल न लेने से आप सुरक्षित बचे रह जायेंगे !

तो फिर वह सुबह कैसे आयेगी !
तो फिर वह सुबह कौन लायेगा !!
तो फिर उस सुबह के गीत लिखने-पढ़ने और गाने-गुनगुनाने का क्या मतलब है !!!

सोचिए मेरे दोस्त, सोचिए !
पहल लीजिए मेरे दोस्त, जनपक्षधर शक्तियों की एकजुटता के लिये पहल लीजिए !!
करिए मेरे दोस्त, कुछ तो करिए !!
अब वक्त चिल्ला-चिल्ला कर ललकार रहा है...
और इतिहास की इस ललकार का उत्तर दिये बिना
हमारे-आपके अस्तित्व तक का भी बचे रह पाना नामुमकिन है !
आने वाले कल के सपने के साकार होने की उम्मीद के साथ
 — आपका गिरिजेश (21.1.15)

Friday 9 January 2015

____उत्सवधर्मिता और हमारे जीवन-मूल्य___



नव-वर्ष पर विशेष !
____उत्सवधर्मिता और हमारे जीवन-मूल्य___
प्रिय मित्र, मुझे आज दो जगहों पर भावी भारत के नागरिकों से बात करने का मौका मिला. उनसे मैंने दो सवाल किये. एक कि हम नया साल क्यों मनाते हैं और दूसरा कि नये साल से आप अपने लिये और अपनों के लिये क्या चाहते हैं.

नया साल उत्सवधर्मी लोगों के मनोरंजन का एक अवसर है. वैसे ही जैसे दशहरा, दीवाली, ईद, बड़ा दिन या जन्मदिन. इसके माध्यम से लोगों को अपने दैनिक जीवन-क्रम की एकरसता को तोड़ने का एक बहाना और एक मौका मिल जाता है. मनोरंजन से मन में जमा हुआ कूड़ा-कचड़ा उसी तरह साफ़ हो जाता है, जैसे गन्दे कपड़े को साबुन लगा कर साफ़ कर लेने से वह दुबारा पहनने लायक बन जाता है. उत्सव और मनोरंजन के बाद हमारा मन दुबारा नये सिरे से दैनन्दिन के अपने कामों में और उत्साह से लगने को खुद को तैयार करता है.

मगर इसका मुख्य पक्ष एक और भी है. यह तो स्पष्ट और सामने दिखाई देने वाला कारक है. मुख्य पक्ष है आत्मावलोकन और आत्म-मूल्यांकन का. नये साल में हर आदमी पिछले साल की अपनी उपलब्धियों और विफलताओं की समीक्षा करता है. वह सोचता है कि जो भी सफलता या विफलता उसे गत वर्ष तक मिली, वह क्यों, कैसे, कब और किसके चलते मिली. वह अपने तात्कालिक और समग्र अतीत का सार-संकलन करता है.

नव-वर्ष के अवसर पर हर व्यक्ति अगले साल के लिये अपने लिये लक्ष्य निर्धारित करता है. उस लक्ष्य तक पहुँचने के प्रयास में सहायक पक्षों के विषय में वह विचार करता है. और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वह अपनी कार्य-योजना बनाता है.

हम कुछ निश्चित जीवन-मूल्यों के मानदण्ड के साथ जीवन जीना पसन्द करते हैं. इन मूल्यों और मान्यताओं में से एक है — सच बोलने और नुकसान उठाने की हिम्मत या झूठ और झपसटई का सहारा लेने की विवशता. मैंने जिन बच्चों से बात की. उन्होंने स्पष्टतः स्वीकार किया कि वे झूठ बोलते हैं. वे यह जानते हैं कि सच बोलना अच्छी बात है. मगर फिर भी झूठ बोलते है. आगे सच बोलने के सवाल पर भी उन्होंने ईमानदारी से अपना मत दिया कि वे आगे भी झूठ बोलना जारी रखेंगे.

कुछ मुट्ठी भर अपवादों को छोड़ दें, तो हमारे समाज में बच्चों को आम तौर पर सामान्य माता-पिता, शिक्षकों और दोस्तों द्वारा सचेत या अचेत तौर पर झूठ बोलने के लिये ही प्रशिक्षित किया जाता है. कामना भले ही इसके विपरीत की जाये. परन्तु केवल कामना करने से कोई कैसे किसी जीवन-मूल्य का अनुकरण कर सकता है.उसके लिये प्रेरक तत्व भी होने चाहिए होते हैं. और हमारे समाज में प्रेरक तत्व सत्यवादिता के सद्गुण के विपरीत झूठ बोलने के दुर्गुण के लिये कदम-कदम पर व्यापक रूप से उपलब्ध हैं.

यदि हम ख़ुद अपनेआप से यह सवाल करें कि क्या हम झूठ बोलते हैं, और यदि हाँ में उत्तर आता है, तो अगला सवाल करें कि हम झूठ क्यों बोलते हैं. और फिर और अगला सवाल कि क्या हम नववर्ष के अवसर पर यह फैसला कर सकते हैं कि आगे से जीवन में सच ही बोलेंगे, चाहे जो भी हो जाये या झूठ बोल कर लाभ लेने के चक्कर में अपनी लालच को रोक नहीं सकेंगे, तो हम अपने आप को अपना उत्तर ईमानदारी से दे सकते हैं.

आइए, नववर्ष के अवसर पर यह याद करने की कोशिश करें कि हमने पिछले साल या उसके भी पहले कब और क्यों झूठ बोला था और कब और क्यों सच बोला था और उससे हमें क्या लाभ या हानि मिली थी, तो हमें अपना निर्णय करने में सुविधा होगी.

आइए, नववर्ष के अवसर पर ख़ुद ही अपने आप को और बेहतर जीवन की शुभकामना दें और अपने से अपनेआप के नाम अत्यन्त व्यक्तिगत और गोपनीय ही सही मगर पूरी ईमानदारी से एक लम्बा पत्र लिखें.

आइए, संक्रमण से गुज़रती दुनिया और मोदिवादियों की सरकार वाले अपने देश में अपने और अपने प्रियजनों — अपने परिजनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी के बारे में गम्भीरता से विचार करें और अपने लिये और अपने साथी-दोस्तों के लिये कुछ लक्ष्य निर्धारित करें.

आज एक बच्चे ने यह गीत सुनाया —
" गाँधी बाबा जात रहलैं पूजा के करनवाँ, 
रहिया में छिपल रहलैं पापी दुसमनवाँ, 
पहिली गोली फायर कइलें, दुसरी निसनवाँ,
तिसरी में मारि दिहलैं गाँधी जी क जनवाँ,
रेडियो में ख़बर भइल पूरे हिन्दुस्तनवाँ.
कौन पापी मारि दिहलें गाँधी जी क जनवाँ..."

और मुझे इस परम्परागत गीत को गाने वाले उस बच्चे के साथ ही उपस्थित सभी बच्चों को बताना पड़ा कि आज गाँधी के देश में ही गाँधी के हत्यारे की पाँच मूर्तियाँ बन कर तैयार हैं. आज देश में उसके समर्थकों की सरकार है और जल्दी ही हम को देखने को या सुनने को मिलेगा कि हमारे देश में कोई एक ऐसा भी चौराहा है जिस पर गाँधी जी और उनके हत्यारे दोनों की मूर्तियाँ आमने-सामने लगी हैं.

मुझे सहज भाव से यह कटु सत्य — यह सर्वविदित तथ्य आपसे भी ज़ोर देकर बताना पड़ रहा है कि हमारा देश आज अन्धहिन्दुत्ववादी भगवा-गिरोह की खुली साज़िश के चलते साम्प्रदायिकता के उन्माद और अन्धदेशभक्ति के उबाल के कभी भी और कहीं भी हो सकने वाले विस्फोट की सम्भावना के जिस भीषण फ़ासिस्ट दौर से गुज़र रहा है उसमें यह बिलकुल मुमकिन है कि दुबारा कभी भी कहीं भी कोई और गाँधी मारा जा सकता है.

आज का दौर वह विलक्षण दौर है जब हमें गाँधी, मार्क्स और अम्बेदकर के बीच के विवादों को एक ओर छोड़ कर अपने समाज में अपने बलिदानी पुरखों की शानदार परम्परा से मिले सभी जनपक्षधर और गौरवशाली जीवन-मूल्यों की विरासत की रक्षा के लिये ख़ुद अपनी हत्या करवाने के लिये मन बनाने और तैयार रहने की सम्भावना से रू-ब-रू होना पड़ रहा है.

तभी हम यह निर्णय भी कर सकते हैं कि "चाहे कुछ भी हो जाये, झूठ नहीं बोलूँगा."
सोचिए, समझिए और वह करने का मन बनाइए जो आपको सही और उचित लगे.
मैं तो अपना फैसला कर चुका हूँ —
"चाँप के खाओ, जम के लड़ो; 
सड़ के नहीं, लड़ के मरो."

नया वर्ष अगले वैश्विक जन-ज्वार की कामना के नाम 
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! 
साम्प्रदायिक नफ़रत मुर्दाबाद !!
ढेर सारा प्यार और ढेर सारी उम्मीद के साथ 
— आपका गिरिजेश (1.1.15. शाम 7.30)

Thursday 8 January 2015

वाल्तेयर : अनूठा और निर्भीक कलमकार


(आखर माला से साभार)
[वाल्तेयर कद-काठी में छोटा, देखने में बेहद कमजोर और दुबला-पतला था, लेकिन उसमें कमाल की फुर्ती थी. तेज दिमाग और प्रखर मेधा के बल पर उसका व्यक्तित्व पूरी जिंदगी चमचमाता रहा. अपने जीवन में उसने हर बौद्धिक चुनौती का साहसपूर्वक ढंग से सामना किया. यह सही है कि जीवन में उसको कई बार समझौते भी करने पड़े. जो उसके प्रशंसकों को बहुत नागवार गुजरते है. वे चाहते हैं कि वाल्तेयर भी ब्रूनो (Bruno) और सर्वेतिस(Servetus) की भांति, जिन्हें कट्टरपंथियों ने आग में जीवित जला दिया गया था, अपने विचारों पर अटल रहता. लेकिन महान व्यक्तित्वों का आकलन इस प्रकार नहीं किया जाता. अपने-अपने स्थान पर सभी महत्त्वपूर्ण एवं महान हैं…वाल्तेयर भावुक और दयालु था. उसके दिल में दूसरों के लिए प्यार समाया हुआ था. तन से वह दूसरों के लिए समर्पित था. इतिहास के उन महानायकों में जिन्होंने पश्चिमी समाज से कट्टरता और निर्दयता को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई, कोई भी वाल्तेयर की बराबरी नहीं कर सकता. — क्लेरेंस डैरो ]

वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। तेज और धारदार शब्दों का उपयोग वह इतनी कुशलता से करता कि वाक्य नश्तर का काम करने लगते। वह सबसे अलग, एकदम विशिष्ट, अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभाशाली था। किंतु किसी भी प्रकार के विशिष्टता-प्रदर्शन से उसको नफरत थी। हमेशा वह आम आदमी की तरह रहा। पूरी जिंदगी उसी के अधिकारॊं के लिए संघर्ष करता रहा। राजनीतिक भ्रष्टाचार, झूठ, धार्मिक पाखंड, आडंबरवाद का वह प्रबल विरोधी था, और अपनी कलम के माध्यम से लगातार उनके विरुद्ध लिखता रहा। इसके लिए उसको कड़े सामाजिक विरोध एवं आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। उसने सहे। जनसरोकारों के प्रति अपने तीव्र समर्पण एवं प्रबल आग्रहशीलता के कारण वह हर प्रतिवाद का सामना करता गया। हालांकि इसके लिए उसको अनेक कष्ट उठाने पड़े। वह अपने समय का सबसे बड़ा प्रगतिशील, जनसरोकारों के प्रति पूर्णतः समर्पित इंसान था। वह फ्रांसिसी पुनर्जागरणकाल का जाना-माना लेखक, निबंधकार, आस्थावादी दार्शनिक, कवि और उपन्यासकार था। उसकी लेखन-शैली व्यंग्यात्मक और इतनी मारक थी कि केवल इसी के कारण उसे अपने समय का सबसे प्रतिभाशाली साहित्यकार कहा गया। 

जनसाधारण के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं व्यापक सरोकारों के कारण उसको मनुष्यता का कलमकार माना जाता रहा है। बयासी वर्ष के लंबे जीवनकाल में उसने कलम से तलवार का काम लिया, जिससे उसको बेशुमार ख्याति मिली। अपनी मौलिकता, जनप्रतिबद्धता एवं जूझारूपन के कारण वह अपने समय का सबसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार और विचारक बना। हजारॊं लेखकॊं, साहित्यकारों कॊ उसने प्रभावित किया। विगत तीन शताब्दियों से वह वुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, साहित्यकारों और मानवतावादियों का प्रेरक बना हुआ है।

बड़े जनसरोकारों वाले उस विलक्षण प्रतिभाशाली, महान साहित्यकार का पूरा नाम था — फ्रांकोइस मेरी ऐरोएट(François-Marie Arouet)। मगर पूरी दुनिया में उसे प्रसिद्धि मिली वाल्तेयर के नाम से। प्रसिद्धि भी ऐसी-वैसी नहीं…अपनी रचनाओं और मुखर विचारों के कारण वह अपने जीवनकाल में ही किवदंती बन चुका था।

वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखा। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद वह किसी भी प्रकार के दुराग्रहों से काफी दूर था। इसी कारण उसको उन लोगों की भी वौद्धिक स्वीकृति मिली, जो स्वयं को वैचारिक आधार पर उसका विरोधी बताते थे। अपनी मान्यताओं को विमर्श के लिए खुला छोड़कर उसने साहित्य में वैचारिक अभिव्यक्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा। विद्वानों के बीच वैचारिक असहमति संभव है। किंतु वाल्तेयर को प्रायः सभी विद्वानों ने बेहद प्रतिभाशाली लेखक, विचारक, दार्शनिक, कवि, नाटककार और निबंधकार माना है। अपने समय के परिवर्तनवादियों में वह सर्वाधिक प्रतिभावान, मुखर और प्रखर बुद्धिजीवी था; जिसने निर्भीकतापूर्वक अपने विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की। जो उसे सत्य लगा उसके लिए वह निरंतर संघर्ष करता रहा। इसके लिए उसको सरकार और समाज, दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा। मगर वह किसी भी दबाव के आगे झुका नहीं।

वाल्तेयर का जन्म 21 नवबर, 1694 को पेरिस में हुआ था। माता का नाम था मेरी एरोएट डी’ ओमर्द (Marie Marguerite D’Aumard) और पिता थे फ्रांकोइस एरोएट डी’ ओमर्द (François- Arouet D’Aumard)। पिता सामान्य नोटरी का काम करते थे। मामूली-सी जायदाद उनके पास थी; यानी जन्म के समय वाल्तेयर के पास ऐसा कुछ भी नहीं था जो उसको विशिष्ट बनाता या फिर विशिष्ट बनने के लिए प्रेरणा देता। ऊपर से फ्रांस की तात्कालिक राजनीतिक-सामाजिक स्थिति। वह इतनी शोचनीय, इतनी बदहाल थी कि लोग मानो नरकवास कर रहे थे। उस समय फ्रांस पर सोलहवें लुई का शासन था। शासकों के विलासी और भोग-विलास और अंतहीन लिप्साओं से भरे जीवन के कारण फ्रांस अपनी पुरानी प्रतिष्ठा खो चुका था। चारों ओर भीषण गरीबी का साम्राज्य था और उससे भी अधिक था वैचारिकता का अभाव। मानसिक जड़ता, अज्ञानता से समझौता कर लेना। लॊग मानॊ मानसिक दिवालियेपन का शिकार थे। पढ़े-लिखे लोग भी जादू-टोने तथा चमत्कारों पर विश्वास करते, पाखंडों में जीते थे। समाज के सूझ-बूझ वाले लोग बहुत कम संख्या में थे; जो थे उनपर अशिक्षा के मारे लोग विश्वास ही नहीं करते थे। वे प्रायः उनका मजाक उड़ाते और उनपर हंसते। दूसरी ओर पाखंडियों और आडंबरवादियॊं का नाम पूरे सम्मान के साथ लिया जाता। शासक वर्ग ऐसे लोगों को अपने विश्वास में रखता था। क्योंकि वे ही लोग सत्ता को विलासिता का जीवन जीने के संसाधन उपलब्ध कराते थे। इसके परिणामस्वरूप वे लोग राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाते थे।

फ्रांस की तात्कालिक दयनीय अवस्था पर टिप्पणी करते हुए एक जगह लिखा गया है —
‘सभी मानो किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए हुए थे। डा॓क्टर मरीज की जेब पर नजर रखते तथा मौका मिलते ही उसकी खाल उतारने से तैयार रहते थे। वकील अपने आसामियों को फंसाकर रखते थे। गरीबों से उनकी दोस्ती उन्हें अपना आसामी बनाने तक थी। कानूनी कार्रवाही बेहद जटिल, खर्चीली तथा लंबी थी। केवल पुजारी, डा॓क्टर, वकीलों के मजे थे, उनकी अमीरी निरंतर बढ़ती जा रही थी। गरीबों के लिए न्याय कठिन और खर्चीला था। जबकि अपराधियों को आसानी से कानूनी शरण मिल जाती थी।’

इसी तथ्य को जोसफ लुईस अपने एक आलेख में कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि—‘फ्रांस में जिन दिनों वाल्तेयर का जन्म हुआ, वहां की स्थिति बहुत ही खराब और दयनीय थी। और ऐसा कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। मालूम होता था कि वहां पर दयनीय परिस्थितियों के साथ गरीबी, चमत्कारप्रियता लापरवाही, अन्याय, शोषण आदि की बहार आई हुई थी।’

जन्म के साथ ही वाल्तेयर ने दर्शा दिया था कि वह दूसरों से कुछ अलग है। एकदम खास। नवजात वाल्तेयर जन्म के समय बहुत ही दुबला-पतला, कमजोर और रक्ताल्पता का शिकार था। उसका वजन इतना कम था कि किसी को भी उसके बचने की आस नहीं थी। यहां तक कि उसकी देखभाल कर रहे डाक्टर और नर्स भी उम्मीद छोड़ चुके थे। पादरियों ने शिशु वाल्तेयर की हालत देखकर उसका तत्काल बप्तसिमा करा देने का निर्देश दिया था, ताकि ईसाई मान्यताओं के अनुरूप उसकी आत्मा की रक्षा संभव हो सके। उपचार चलता रहा और नर्स समेत वाल्तेयर के माता-पिता उसको बचाने के प्रयास करते रहे। बालक अपनी कमजोरी से जूझता रहा।

धीरे-धीरे वाल्तेयर बड़ा होने लगा। बावजूद इसके रहा वह दुबला-पतला कमजोर और पीतवर्ण ही। बचपन की इस कमजोरी ने वाल्तेयर के दिलो-दिमाग पर आजीवन अधिकार बनाए रखा। मृत्यु की सन्निकटता की अनुभूति उसको हमेशा डराती रही। जन्म के समय दुर्बल होने का कारण संभवतः यह था कि उस रूप में प्रकृति वाल्तेयर को संभवतः विषम परिस्थितियों में रहने, कष्ट सहने और जूझते रहने का अभ्यास कराना चाहती थी या फिर नियति ने वाल्तेयर को गढ़ते समय दिमाग तो दिया, जिससे वह अपने समय का महानतम मूर्धन्य तो बना, लेकिन देह से वह कभी स्वस्थ नहीं रह सका।

वाल्तेयर की बौद्धिक प्रखरता विद्यार्थी जीवन से ही उसके सामने आने लगी थी। स्कूल में वह सबसे अलग-थलग रहता। अपने आप में मग्न, सोच में डूबा हुआ, अधिकांश समय अकेला। किशोर वाल्तेयर की आंखें शूण्य में कुछ खोजती रहतीं। उसकी प्रश्नाकुलता गजब की थी। चलता-चलता वह स्वयं से ही प्रश्न करता और खुद ही जवाब खोजने का प्रयत्न करता। दूसरे विद्यार्थी खेलकूद में हिस्सा लेते, एक-दूसरे के साथ शरारत, हंसी-मजाक छीना-झपटी से दिल बहलाते। किंतु इन बातों में वाल्तेयर की जरा भी रुचि नहीं थी। उस समय वह या तो एकांत में बैठा कुछ सोच रहा होता अथवा अपने अध्यापकों से किसी समस्या के निदान के लिए बातचीत कर रहा होता। उसकी स्मृति बहुत तेज थी। एक बार जो बात उसके मस्तिष्क में समा जाती, वह हमेशा उसका हिस्सा बनी रहती थी। वाल्तेयर की दुबली काया को देखकर उसके अध्यापक चाहते थे कि वह भी खेल-कूद में हिस्सा ले, ताकि उसकी सेहत में कुछ सुधार आए। एक बार एक अध्यापक ने वाल्तेयर से कहा भी कि पढ़ने के साथ वह खेलकूद और मनोरंजन पर भी ध्यान दे। उस समय वाल्तेयर ने जो उत्तर दिया वह वाल्तेयर के भीड़ से अलग होने को दर्शाती है। जबकि वाल्तेयर तो भीड़ से बहुत-बहुत अलग था। प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा था — ‘इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही तरीके से छलांग लगानी चाहिए।’

और सचमुच वाल्तेयर हर मामले मौलिक बना रहना चाहता था। इसमें उसको कामयाबी भी मिली। कुछ ही वर्षों में अपनी प्रतिभा के दम पर वाल्तेयर ने समस्त अध्यापकों को अपने बस में कर लिया था। उसकी प्रश्नाकुलता जो कभी उसकी आलोचना का कारण बनी थी, वही उसकी ख्याति का कारण बनी। वाल्तेयर की विलक्षण मेधा से चमत्कृत एक अध्यापक ने टिप्पणी की थी कि क्या गजब है — ‘अदभुत, यह लड़का छोटी-सी अवस्था में ही बड़े-बड़े सवाल हल कर लेना चाहता है।’

जीवन के प्रारंभिक वर्ष वाल्तेयर ने पेरिस में ही बिताए। पेरिस हालांकि फ्रांस का बड़ा और प्रसिद्ध नगर था, किंतु वहां का आकादमिक जीवन उसकी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था। का॓लिज में शिक्षा के नाम पर केवल रूढ़ परंपराओं का पोषण होता था। नया करने या सीखने की गुंजाइश वहां बहुत ही कम थी। इसलिए अपने समय के प्रबलतम जिज्ञासु और जन्मजात प्रतिभा के धनी वाल्तेयर को अपने का॓लिज जीवन से निराशा ही हाथ लगी। फ्रांस के प्रसिद्ध ‘लाओसे ला॓ ग्रांड का॓लिज’ में आठ वर्ष से अधिक अध्ययन करने के बाद भी वाल्तेयर की सहज प्रतिक्रिया थी -
‘वहां मुझे सिर्फ दो ही चीजें सीखने को मिलीं। एक लैटिन और दूसरी मूर्खता!’

वाल्तेयर बचपन से ही अत्यंत स्वाभिमानी और हाजिरजवाब था। जिन दिनों की यह घटना है उन दिनों वह रोजगार के लिए संघर्ष से गुजर रहा था। यह वाल्तेयर की निर्विवाद जनपक्षधरता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होगी। दिसंबर 1725 की एक शाम को नगर की प्रसिद्ध नाट्यशाला में वाल्तेयर न जाने किस बात पर उत्तेजित होकर जोर-जोर से बोलने लगा। यह देख फ्रांसिसी राजनयिक केवेलियर दि’ रोहन कबोट ने टोक दिया। उन दिनों फ्रांस में नाम के पीछे ‘दि’ लगा होना सामाजिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था। इस बात का रोहन महोदय को बहुत गुमान था। इसलिए वे गुस्से में वाल्तेयर के पास पहुंचे और उससे नाराजगी भरा सवाल किया —  ‘श्रीमान्! मोंन्सायर दि वाल्तेयर, आपका पूरा नाम क्या है?’

वाल्तेयर ने भी वैसा ही जला-कटा-सा जबाव दिया — ‘मात्र ऐसा आदमी जो अपने महान नाम के पीछे किसी भी प्रकार की पूंछ लगाने की आवश्यकता स्वीकारने को कभी तैयार नहीं रहा। लेकिन अच्छी तरह जानता है कि जिन नामों के साथ ‘दि’ जुड़ा है, उनको किस प्रकार सम्मानित किया जाता है।’

वाल्तेयर के शब्दों में गहरा कटाक्ष था। मि. कबोट नाराज होकर वहां से चले गए। वाल्तेयर के इस जवाब को फ्रांस के अमीरों ने अपने ऊपर हमला माना। वे उसके विरोध पर उतर आए। पूरे फ्रांस में बाबेला मच गया। इसी मुखरता के कारण वाल्तेयर को देश-निकाले की सजा मिली। निष्कासन का दंड वाल्तेयर के लिए नया नहीं था। वह इससे भी पहले भी कई बार निष्कासन की सजा झेल चुका था। कह सकते हैं कि इस सजा का वह अभ्यस्त हो चुका था। एक बार धर्म और धार्मिक प्रवृत्ति की आलोचना के कारण तथा दूसरी बार युवा राजा के प्रति व्यंग्यात्मक टिप्पणियों की वजह से।

वाल्तेयर मनुष्यता को सर्वोपरि मानता था। धर्म में उसकी अनास्था थी। इसीलिए उसने धर्म की पारंपरिक अवधारणा पर अनेक स्थानों पर कटाक्ष किया है। धार्मिक कट्टरपंथियों के लगातार विरोध तथा तज्जनित निष्कासनों के कारण वाल्तेयर को अनेक कष्टों का सामना करता रहा। धर्म के प्रति अनास्था एवं विद्रोही स्वभाव के बावजूद वाल्तेयर की लेखन ऊर्जा बराबर बनी रही। धर्म और ईश्वर के प्रति वाल्तेयर की भावना को इन टिप्पणियों से समझा जा सकता है — ‘ईश्वर एक ऐसा पहिया है, जिसकी धुरी हर जगह है, परंतु उसका घेरा (विस्तार) नदारद है।’

वाल्तेयर का कहना था कि धर्म का उपयोग प्रायः वही लोग करते हैं, जो किसी न किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान एवं आधुनिकताबोध से कटे रहना चाहते हैं, जिन्हें अपना हित परंपरा के पोषण में ही नजर आता है। इसलिए बदलाव की संभावना-मात्र से उन्हें डर लगने लगता है। यथास्थिति की राह में कोई बाधा न आए इसके लिए उन्होंने परमात्मा नामक मिथक की सर्जना की है। उसी के नाम पर वे रात-दिन अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं।

एक अन्य स्थान पर ईश्वर पर कटाक्ष करते हुए वाल्तेयर ने लिखा है —
‘परमात्मा सदैव ताकतवर के समर्थन में खड़ा होता है।

अपनी दो टूक अभिव्यक्तियों के कारण वाल्तेयर ने खूब बदनामी मोल ली। जाहिर है कि इससे उसको लाभ भी पहुंचा। उन उक्तियों के कारण वह कुछ ही वर्षों में धार्मिक-सामाजिक स्वतंत्रता का सबसे बड़े समर्थक के रूप में जाना गया। वाल्तेयर की बातों में तार्किकता थी, इसलिए उसके समर्थकों की संख्या भी बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। धीरे-धीरे उसे अपनी आलोचना सहने का अभ्यास होता चला गया, यहां तक कि उसको मजा भी आने लगा। वालतेयर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करता था। अपने सिद्धांतों में उसकी दृढ़ आस्था थी। इसीलिए एक टिप्पणी में उसने व्यक्त किया है  —  ‘अपनी पूरी जिंदगी में मैने ईश्वर से एक ही चीज की कामना की है, यह कि वह लोगों को मेरे दुश्मनों पर हंसना सिखाए।’

वाल्तेयर की प्रखर बौद्धिकता की धमक उसके छात्र जीवन से ही सुनाई देने लगी थी, जिसका प्रभाव उसके अध्यापकों पर भी पड़ा। उनमें से कई उसके प्रशंसक थे तो कई आलोचक भी। वाल्तेयर के एक अध्यापक जो उसे नापसंद करते थे, एक दिन उसकी हाजिरजवाबी से चिढ़कर उन्होंने कहा था —  ‘शैतान, तुम एक दिन फ्रांस में अव्वल दर्जे की बहसबाजी का नमूना लेकर आओगे।’

जो हो, वाल्तेयर की प्रतिभा अपना रंग दिखाने में लगी थी, किंतु उसके पिता का सपना तो पुत्र को लेकर कुछ ओर ही था। वे वाल्तेयर को वकील बनाना चाहते थे; जिसकी ओर उसका रुझान ही नहीं था। वह अपने साथियों के साथ या तो नाटकों की रिहर्सल करने में लीन रहता अथवा ऐसे ही किसी और काम में, जो नकद आमदनी की संभावना न्यूनतम होने के कारण उसके पिता की नजरों में व्यर्थ थे। तब तक वाल्तेयर के पिता को उसकी अद्वितीय प्रतिभा का अंदाजा हो चुका था, लेकिन वाल्तेयर अपनी प्रतिभा को यूं बेकार करे, यह उनको स्वीकार न था। एक बार वाल्तेयर के एक मित्र के जरिये उन्होंने कहवाया था कि वह जल्दी से घर वापस लौट आए। आने के साथ ही वह उसके लिए एक अच्छे से सरकारी पद का इंतजाम कर देंगे। इसपर बाल्तेयर ने उसी मित्र के माध्यम से पिता से कहलवाया —  ‘‘मेरे पिता से कहना, ‘मैं ऐसा पद नहीं चाहता जो खरीदा-बेचा जा सके। मैं अपने लिए ऐसी जगह बनाऊंगा जो अमूल्य होगी।’

उस समय वाल्तेयर ने अनजाने या आवेश में पिता से जो कहलवाया था, वह कालांतर में सच सिद्ध हुआ। साहित्य के प्रति वाल्तेयर का रुझान लगातार गहराता जा रहा था। उसकी नाटकों में उसकी विशेष रुचि थी। स्नात्तक करने के बाद वाल्तेयर को अपने करियर की चिंता हुई। उस जैसे निर्भीक और सच कहने वाले कलमकार को कौन भला नौकरी देता। वैसे भी वाल्तेयर जैसे स्वतंत्र प्रवृत्ति वाले जीव को नौकरी या व्यवसाय निभने वाले नहीं थे। इसलिए उसने करियर के रूप में लेखन को ही महत्ता दी। उससे आय की संभावना कम थी। उतनी तो बिलकुल नहीं, जितनी की कामना वाल्तेयर के माता-पिता अपने प्रतिभाशाली पुत्र के लिए करते आ रहे थे। स्वतंत्र लेखन से जीविका चला पाना उस युग में आसान भी नहीं था। अतएव वाल्तेयर द्वारा करियर के रूप में लेखन को प्राथमिकता देने के निर्णय से उसके माता-पिता, विशेषकर उसके पिता को निराशा ही हाथ लगी थी। वाल्तेयर की मां पुत्र की इच्छा का सम्मान करने वाली थीं। वे वाल्तेयर को लेखन के लिए निरंतर उत्साहित करती रहीं। वाल्तेयर की अपनी मां के प्रति आजीवन अटूट ऋद्धा रही और पिता के प्रति किंचित नफरत भी। मां के प्रति गहन अनुराग का वर्णन उसकी अनेक पुस्तकों में आया है।

भावुकता वाल्तेयर के व्यक्तित्व का प्रमुख हिस्सा थी। कविता लिखने में उसके संवेदनशील मन को खूब आनंद आता। बाकी बचे समय में वह नाटक देखना पसंद करता। उसकी रचनाओं की सराहना होने लगी थी। लेकिन जब उसने देखा कि लोगों पर सीधी तथा कलात्मक ढंग से कही गई बात का असर कम पड़ता है, तो वह व्यंजनात्मक शैली में लिखने लगा। कविता और नाटक के साथ उसने साहित्य की दूसरी विधाओं पर भी साधिकार लिखना प्रारंभ कर दिया। दूसरी ओर उसके पिता अभी तक इसी प्रयास में थे कि उनका बेटा साहित्य को छोड़ वकालत की दुनिया में जाए। इसलिए उन्होंने वाल्तेयर को समझा-बुझाकर दुबारा वकालत पढ़ने के लिए भेज दिया। तब तक व्यंजनामूलक शैली तथा यथार्थपरक रचनाओं के कारण उसकी ख्याति दूर-दराज तक फैल चुकी थी। कविता के अलावा उसने निबंध, उपन्यास, गल्प आदि खूब मात्र में लिखे, जिनमें समाज के प्रति उसका मानववादी दृष्टिकोण साफ झलकता है। लेकिन सचाई और सपाटबयानी शासकों को क्यों सहन होती। सो वाल्तेयर को उसका दंड भी सहना पड़ा।

वाल्तेयर को दंडित करने के लिए राजनीति को माध्यम बनाया गया। उसने पंद्रहवें लुई और फिलिप द्वितीय के बारे में एक आलेख लिखा था, जिसमें दोनों की राजनीतिक कार्यशैली पर आलोचनात्मक टिप्पणियां की गई थीं। उसी को विवादास्पद मानकर वाल्तेयर को सजा सुना दी गई। बेसटाइल नामक स्थान पर जेल में रहते हुए उसने पिता द्वारा दिए गए नाम ऐरोएट(François-Marie Arouet) के स्थान पर वाल्तेयर उपनाम को अपनाया। फिर यह सोचते हुए कि शायद नया नाम अपनाने के बाद दुर्भाग्य उसका पीछा छोड़ दे, उसने ‘ओडिपि’ नामक महान नाटक की रचना की। फ्रांस के बुद्धिजीवियों के बीच उस नाटक का खूब स्वागत हुआ। लोग प्रतिभाशाली वाल्तेयर को जेल में रखने के लिए सरकार की आलोचना करने लगे। अपनी आलोचनाओं से विचलित शासक-वर्ग ने वाल्तेयर से कहा कि यदि वह समझदारी दिखाए तो उसको रिहा किया जा सकता है। इसपर वाल्तेयर ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘मुझे बेहद प्रसन्नता होगी, अगर आप मुझे आजाद कर मेरा सम्मान वापस दिलाने का आदेश देते हैं। मैं उम्मीद ही करूंगा कि भविष्य में आपको मुझे दुबारा जेल न भिजवाना पड़े।’

इससे सरकार चिढ़ गई। तब तक वाल्तेयर भी खुद को मानसिक रूप से आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार कर चुका था। इसलिए उसकी कलम आगे भी अबाध और निडर बनी रही। सचाई की ताकत, प्रतिबद्धता और जीवनमूल्यों के प्रति ईमानदारी-भरा समर्पण, उसकी कलम को निरंतर ऊर्जावान बनाने में कारगर रहा। जेल से छूटने के कुछ ही दिन बाद सफाई का अवसर दिए बिना ही, एक गोपनीय आदेश के माध्यम से वाल्तेयर को फ्रांस से निष्कासित कर दिया गया। इस घटना के बाद वाल्तेयर को फ्रांस की न्याय व्यवस्था की कमजोरियों का पता चला। उसे एहसास हुआ कि फ्रांस की सरकार भी इंग्लैंड की भांति घोर परंपरावादी है। न्याय और व्यवस्था के नाम पर कमजोरों का वहां भी शोषण होता है। वहां भी न्यायाधीशगण सत्ता के दबाव के आगे अपने फैसले बदलते रहे हैं। इसी दौरान उसको राजनीतिक एवं धार्मिक सत्ता के गठजोड़ की जानकारी मिली। इससे उसके मन में समाज के गरीब एवं वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी।

निष्कासन के पश्चात वाल्तेयर इंग्लेंड चला गया। यह उसके जीवन का क्रांतिकारी मोड़ था। इंग्लैंड का खुला बौद्धिक वातावरण उसको खूब पसंद आया। उसे लगा कि वह वहां रहकर अपने विचारों को ईमानदारी से अभिव्यक्त कर सकता है। उत्साह से भरे अगले कुछ महीने उसने अंग्रेजी सीखने में लगाए। प्रतिभाशाली तो वह था ही। मात्र छह महीने में वह धाराप्रवाह अंग्रेजी लिखने-पढ़ने लगा। इससे उसको अंग्रेजी में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिल सका। वाल्तेयर वहां शेक्सपियर समेत तत्कालीन अनेक बड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों से मिला। शेक्सपियर से तो वह शुरू से ही बेहद प्रभावित था और फ्रांस में रहकर उसके जैसा बनने का सपना देखता था। इसलिए उससे मिलते समय उसका खुश होना स्वाभाविक ही था। हालांकि आगे चलकर वाल्तेयर ने स्वयं को शेक्सपियर से बड़ा लेखक दर्शाने की कोशिश भी की।

वाल्तेयर वैज्ञानिक नहीं था, किंतु वैज्ञानिक ज्ञान में उसकी रुचि थी। सर आइजक न्यूटन की प्रकाश-संबंधी खोजों को जानने के बाद वाल्तेयर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। न्यूटन द्वारा किए गए वैज्ञानिक आविष्कारों से परिचय के पश्चात उसकी विज्ञान में रुचि का और भी विस्तार हुआ। यही नहीं इंग्लैंड में रहते हुए वह उस समय के एक और महान वैज्ञानिक, दार्शनिक लाइबिनित्ज के संपर्क में भी आया, जो उन दिनों अपने परमाणु सिद्धांत के कारण चर्चा के शिखर पर थे। लाइबिनित्ज का परमाणु सिद्धांत दार्शनिकता से भरपूर था। वाल्तेयर पर उनके विचारों का प्रभाव भी पड़ा, उसके भीतर वैज्ञानिक सोच का उदय हुआ।

तीन वर्ष के निष्कासन के पश्चात वाल्तेयर पेरिस लौट आया तथा लंदन के अनुभवों के आधार पर ‘फिला॓स्फीकल लेटरर्स आ॓न दि इंग्लिश’ शीर्षक से एक पुस्तक तैयार की। जिसमें फ्रांस तथा इंग्लेंड के सामाजिक परिवेश, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक मूल्यों, विशेषकर धार्मिक सहिष्णुता का तुलनात्मक अध्ययन किया गया था। उस पुस्तक के माध्यम से वाल्तेयर ने फ्रांसिसी समाज की आलोचना की थी, जिससे उसके विरोधियों को तत्कालीन शासकों को भड़काने का एक ओर अवसर मिल गया। पुस्तक ने छपते ही बवंडर का काम किया। वहां के धर्माधिकारियों, शासकों को वह बहुत नागवार गुजरी। उसे लेकर जगह-जगह विरोध प्रदर्शन किए जाने लगे। अनेक स्थानों पर उस पुस्तक को आग में झोंक दिया गया। मामला यहीं शांत नहीं हुआ। धार्मिक शक्तियों के दबाव ने वाल्तेयर को एक बार पुनः पेरिस छोड़ने को विवश कर दिया गया। वहां से वह ‘दि कायरे’ चला गया।

लगातार भागदौड़ करने से वह उकता गया था। उसका स्वास्थ्य भी गिरने लगा था। अब वह कुछ दिनों तक एक ही स्थान पर जमे रहकर काम करना चाहता था। दि कायरे का वातावरण उसको अपने अनुकूल जान पडा। वहां रहते हुए वाल्तेयर ने शीर्षस्थ बुद्धिजीवियों से संबंध स्थापित किए। इसी क्रम में मारक्वाइज़ के संपर्क में आया। उसके साथ कार्य करते हुए उसने पंद्रह वर्षों के दौरान इकीस हजार से भी दुर्लभ पुस्तक और पांडुलिपियां जमा कीं। उनपर काम करते हुए वाल्तेयर तथा मारक्वाइज़ कई नए प्रयोग किए।

वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखा। साहित्य एवं विज्ञान के अतिरिक्त वाल्तेयर की इतिहास में भी रुचि थी। उसने फ्रांस के समाज का ऐतिहासिक दृष्टि से भी अध्ययन किया तथा कायरे में रहते हुए एक विशिष्ट पुस्तक की रचना की— जिसका नाम है: दि ऐस्से अपा॓न दि सिविल वार इन फ्रांस। इस पुस्तक में वाल्तेयर ने एक बार फिर धार्मिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया। उसने धर्म को चर्च के दायरे से बाहर लाने पर जोर दिया। इन्हीं महीनों के दौरान उसने एक और महत्त्वपूर्ण निबंधात्मक पुस्तक लिखी—किंग चार्ल्स बारह! इस पुस्तक ने वाल्तेयर की प्रसिद्धि को आगे ले जाने में काफी मदद की। इस पुस्तक तक आते-आते वाल्तेयर धर्म का कटु आलोचक बन चुका था। हालांकि उसकी आलोचनात्मक कटुता केवल धर्म के सांस्थानिकीकरण, राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा समाज के उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार एवं लूट-खसोट को लेकर थी। ईश्वरवादियों का उपहास करते हुए उसने कहा था— ‘ईश्वर एक जोकर या मजाकिया है। जो उन लोगों के लिए तमाशा दिखाता है, जिन्हें हंसने से भी डर लगता है।’

यही नहीं बाईबिल में व्यक्त धार्मिक अवधारणाओं के प्रति अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते उसने इस पुस्तक में उन्हें तर्क पर कसने का प्रयास भी किया।

1733 ई. में वाल्तेयर मादाम चैटली के संपर्क में आया, ‘वह (मादाम चैटली) एक सुशिक्षित एवं प्रतिभाशाली महिला थी तथा आनंदमय जीवन को प्राथमिकता देती थी। उसके लिए भरपूर परिश्रम करने से भी उसको परहेज नहीं था। चैटली को अनेक विषयों का ज्ञान था। संभवतः ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी जिसको वह पढ़ और समझ न सके। गणित, ज्योतिष और दर्शनशास्त्र का तो उसने गहन अध्ययन किया था। वाल्तेयर तथा मादाम चैटली के स्वभाव में भी काफी अंतर था। वाल्तेयर संवेदनशील, बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाने वाला, कोमल दिल वाला इंसान था, जबकि मादाम चैटली एक जटिल तथा अपनी बात पर अड़ी रहने वाली, एक तुनकमिजाज महिला थी। कभी-कभी उनके बीच झगड़ा भी हो जाता था। फिर भी दोनों एक-दूसरे के प्रति समर्पित थे। वे साथ-साथ गणित, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, धर्म का अध्ययन करते थे। संभवतः वे अपने समय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली दंपति थे।’

वाल्तेयर तथा उसके दोस्त मारक्वाइज़ की रुचि मेटाफिजिक्स नामक विज्ञान में थी। इसमें जीवन और मृत्यु, ईश्वर की सत्ता के बारे में अनेक सवाल उठाए गए हैं। अपने मित्र मारक्वाइज़ की मौत के बाद वह बर्लिन चला गया। वहां उसके अच्छे दिनों की शुरुआत हुई जब राजा ने उसे बुलाकर अच्छे वेतन पर नौकरी पर रखने का प्रस्ताव किया। वाल्तेयर ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। मगर उसकी परेशानियां सदाबहार थीं। उनका अंत संभव भी नहीं था। बर्लिन में रहते हुए वाल्तेयर को फिर एक मुकदमे का सामना करना पड़ा। उसने एक पुस्तक लिखी थी- Diatribe du docteur Akakia। वाल्तेयर की इस पुस्तक में भी शासकों के ऊपर करारा व्यंग्य किया गया था; जिसपर खूब हंगामा हुआ था। यहां तक कि वाल्तेयर का मित्र फ्रेडरिक ही उस पुस्तक से इतना चिढ़ गया कि उसने उस पुस्तक की सारी प्रतियां खरीदकर उन्हें आग के हवाले कर दिया।

वाल्तेयर वहां से एक बार फिर पेरिस की ओर प्रस्थान कर गया। लेकिन पेरिस में उसके प्रवेश पर लुई पंद्रहवें द्वारा पहले से ही रोक लगाई जा चुकी थी। इसलिए वाल्तेयर को वहां से जिनेवा जाना पड़ा, जहां उसने कुछ जमीन खरीदी हुई थी। जिनेवा में उसको प्रवेश की सशर्त अनुमति ही मिल पाई। बावजूद इसके वह प्रसन्न था। अब वह कुछ दिन एक स्थान पर ठहरकर एकांत में पढ़ना-लिखना चाहता था। किंतु परेशनियां अब भी उसका पीछा कर रही थीं। जिनेवा में यह आफत एक अलग रूप धरकर आई, जब जिनेवा प्रशासन ने वाल्तेयर के नाटकों के मंचन पर रोक लगा दी। उसके लिए यह सचमुच का आघात था, तो भी उसकी सृजनात्मकता अपना कार्य करती रही।

भारी तनाव और संकट से भरे समय में 1759 में वाल्तेयर ने अपने विश्वचर्चित उपन्यास ‘कांदीद’ की रचना की। इस उपन्यास में लाइबिन्त्जि के दार्शनिक सिद्धांत पर कटाक्ष किया गया है। उपन्यास ने उसको विश्वव्यापी ख्याति प्रदान की। इस पुस्तक का दुनिया की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। मगर इससे भी अधिक यह एक व्यंग्य रचना है। जिसमें धर्मरहित समाज की कल्पना की गई है। न्यूटन से प्रभावित होकर भी वाल्तेयर ने एक पुस्तक की रचना कि, जिसमें उसको भरपूर सराहना मिली। ‘आइरनी’ वाल्तेयर की सुप्रसिद्ध नाट्य कृति है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः हर विधा पर काम किया और अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी। उसकी रचनाओं में निबंध, उपन्यास, नाटक, बीस हजार से अधिक पत्र, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आलेख आदि शामिल हैं। वाल्तेयर को लेकर जा॓न इवरसन की टिप्पणी उसके व्यक्तित्व को समझने में हमारी और भी मदद कर सकती है—

‘वाल्तेयर, जो सतरहवीं और अठारहवीं शताब्दी के बीच उभरा और शताब्दियों तक पूरी दुनिया पर छाया रहा, न तो कोई अजूबा इंसान था, न ही महान योद्धा। इनके स्थान पर वह एक अग्रणी चिंतक और प्रतिभाशाली रचनाकार था, जिसने अपने समय और साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया। और जो पूरी दुनिया को लेकर अपने समय और समाज के साथ सतत संवाद करता रहा।’

वाल्तेयर की मृत्यु लंबी बीमारी के कारण मई 1778 को उसकी मृत्यु हुई। उस समय भी उसका मस्तिष्क पूरी तरह सक्रिय था। उसकी शवयात्रा बड़ी धूमधाम से निकाली गई। मृत्यु के आभास पर वाल्तेयर ने लिखा कि—

‘मैं ईश्वर की प्रार्थना करते हुए मृत्यु का वरण कर रहा हूं। मेरे मन में किसी के भी प्रति लेशमात्र घृणा-भाव नहीं है। मुझे सिर्फ अंधविश्वासों से नफरत है।’

अठारहवीं शताब्दी का मानवता का सबसे महान समर्थक वह जब मरा तो फ्रांस और यूरोप के लाखों लोगों की आंखें नम थीं। हजारों ने यह महसूस किया कि वाल्तेयर के रूप में उन्होंने अपना सबसे बड़ा हितैषी, विद्वान और महान साहित्यकार खो दिया है। वाल्तेयर का संघर्ष अकारथ नहीं गया। उसकी मृत्यु के बाद उसके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग दुनिया-भर में पैदा हुआ, जिसने आम आदमी के हितों के संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम किया।

विचारधारा
वाल्तेयर के समय फ्रांस में धर्म और राजसत्ता का स्वार्थ-प्रेरित तालमेल अपने चरम पर था। लोगों का अपने ऊपर से विश्वास टूट चुका था। अपने हालात से वे परेशान तो निश्चय ही थे, मगर बदलाव के लिए किसी बाहरी शक्ति से चामत्कारिक सहायता की उम्मीद लगाए रहते थे। प्रशासनिक स्तर पर चाटुकारिता को नैतिकता मान लिया गया था। सारे सामाजिक निर्णय धर्मसत्ता के दबाव में लिए जाते थे। आम जनजीवन जहां अभावों से भरा पड़ा था, वहीं पुजारी और सामंतवर्ग विलासिता भरा जीवन जीते थे। नागरिकों को त्याग, तपश्चर्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह की सीख देनेवाले मठाधीशों का जीवन अपने ही विचारों की खिल्ली उड़ाता था। वे वाचाल अपने ही स्वार्थ में डूबे मूढ़ और घोर परंपरावादी लोग थे, जो अपने सुख के लिए सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे। फ्रांस की आर्थिक स्थिति जर्जर थी। भ्रष्टाचार और राजनीतिक अवसरवाद वहां अपने चरम पर था। इसके कारण देश दिवालियेपन के कगार पर था। समाज में अन्याय और अनाचार अपनी सीमाएं पार करता जा रहा था। सच कहना और न्यायपूर्ण ढंग से आचरण करना अपने सिर पर आफत को निमंत्रण देना था।

अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान वाल्तेयर वहां के समाज का वैचारिक खुलापन देखकर बहुत प्रभावित हुआ था। उसने अनुभव किया था कि सबके विकास के लिए वैचारिक स्वतंत्रता अनिवार्य है। चूंकि वैचारिक स्वतंत्रता के आड़े सबसे पहले धर्म ही आता था, क्योंकि धर्म की सत्ता परंपराओं पर टिकी हुई थी और पादरीवर्ग जिसपर धर्म की रक्षा तथा उसके प्रचार-प्रसार का दायित्व था, उन परंपराओं में किसी भी प्रकार का संशोधन करने को तैयार नहीं था। अतः इंग्लैंड से लौटने के बाद वाल्तेयर ने स्वयं को वैचारिक लेखन के लिए समर्पित कर दिया। हालांकि इसके लिए उसने साहित्य की प्रचलित विधाओं का सहारा भी लिया, किंतु उसका लक्ष्य एकदम साफ और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित था। उसने सामाजिक मूल्यों की स्थापना को अपने चिंतन के केंद्र में रखा और बिना किसी भय के अपनी अभिव्यक्ति को विस्तार दिया।

अपनी रचनाओं के माध्यम से वाल्तेयर ने ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दी। धर्म के सत्तावाद पर भी उसने कसकर निशाना साधा। इसके लिए उसे समाज की यथास्थिति की समर्थक, प्रतिगामी शक्तियों के भारी विरोध का सामना भी करना पड़ा। वह जेल गया, निष्कासन के दंड को भोगा। मगर उसने हार नहीं मानी और आजीवन अपने विचारों पर डटा रहा। उसने कलम की ताकत का भरपूर उपयोग किया। सतत और उद्देश्यपूर्ण लेखन के द्वारा वह अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल भी हुआ।

वाल्तेयर ने विपुल साहित्य की रचना की। किंतु उसकी महानता का यही एक कारण नहीं है। उसकी महानता इसमें है कि उसने जनसाधारण को अपने चिंतन के केंद्र में रखा। जनकल्याण के लिए जैसा उसको उपयुक्त लगा उसी तरह उसको अभिव्यक्ति दी। पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ। वह स्वतंत्रता को विकास की प्रारंभिक शर्त मानता था। अपने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति के लिए वह कभी झुका नहीं। वह इस तथ्य से आहत था कि दुनिया का प्रत्येक धर्म स्वयं को नैतिक मानते हुए स्वतंत्रता का समर्थन तो करता है, किंतु व्यवहार में उसका आचरण एकदम तानाशाही भरा होता है।

वाल्तेयर मनुष्य की सर्वांगीण स्वतंत्रता का समर्थक था। आजादी को उसने विकासमान जीवन की अनिवार्यता के रूप में स्वीकार किया है। उसके लिए वह हर संघर्ष को जायज मानता था और गुलामी से मुक्ति के लिए वह किसी भी प्रकार के प्रयास का समर्थन करने को तैयार था। उसका अपना लेखन राजनीतिक भ्रष्टाचार और वर्चस्ववाद के विरुद्ध एक सार्थक अभियान है। आततायी सत्ता के विरोध द्वारा राजनीति की पवित्रता बनाए रखने के लिए वह आमजन को विद्रोह का अधिकार भी देने को तैयार था, जिसे राजनीतिक गुलामी के जोर पर वर्षों से दबाकर रखा गया है। उसने आवाह्न किया था  —
‘यदि मनुष्य आजाद जन्मा है, तो उचित सही है कि वह सदैव आजाद रहे…और यदि कहीं निष्ठुरता अथवा तानाशाही है तो उसेे उखाड़ फेंकने का अधिकार भी उसको होना चाहिए।’

वाल्तेयर ने यह भी अनुभव किया था कि स्वार्थी धर्मसत्ता एवं राजसत्ता के बीच धर्मसत्ता कहीं अधिक व्यापक एवं असरकारी है। शायद इसलिए कि धर्म जीवन के साथ अधिक गहराई एवं व्यापक संदर्भों में जुड़ा होता है। मनुष्य को जन्म के साथ ही धर्म की अपरिहार्यता की शिक्षा दी जाती है, और चाहे-अनचाहे उसके नियमों का पालन करने का निर्देश भी दिया जाता है। राजसत्ता का विरोध संभव और सभ्य समाजों में मान्य भी रहा है। मगर धर्मसत्ता मनुष्य से उसका विरोध करने का अधिकार ही छीन लेती है। वह केवल अंध-अनुसरण की अपेक्षा रखती है। ऐसा न कर पाने पर वह सामाजिक रूप से दंड का प्रावधान रखती है। धर्म का यही तानाशाही भरा रवैया उसको यथास्थितिवादी बनाए रखकर, विकास के अवरोधक के रूप में खड़ा कर देता है। धर्म की इसी कमजोरी के कारण वाल्तेयर ने उसको अपनी आलोचना का विषय बनाया और उसके नाम पर होने वाले अन्याय, अनाचार एवं अन्य दुरभिसंधियों का विरोध करते हुए, तर्कपूर्ण ढंग से जीवन में धर्म की आवश्यकता का निषेध किया है।

‘डा॓क्टरीन आ॓फ फला॓सफी’ में उसके विचार खुलकर सामने आए हैं। इस पुस्तक में वाल्तेयर ने फ्रांस की तत्कालीन राजनीतिक-धार्मिक अराजकता और सर्वसत्तावाद की आलोचना करते हुए समाज में मनुष्य की आजादी का पक्ष लिया है। अपनी पैनी व्यंग्यात्मक शैली मे उसने धर्मसत्ता और उसपर नियंत्रण रखने वाले लोगों की विकट आलोचना की है। इसके लिए उसने बाईबिल को भी नहीं छोड़ा था। वह स्वयं को नास्तिक मानता था। ईश्वरीय सत्ता के बारे में उसका मानना था कि ईश्वर की कल्पना, स्वार्थी और परजीवी किस्म के लोगों ने अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए की है। धर्म उनके पाप-कर्म के लिए आड़ का काम करता है और उनके द्वारा गढ़ा गया ईश्वर उनके अनाचारों को पोषण-संरक्षण प्रदान करता है।

जनसाधारण की ईश्वर-संबंधी अवधारणा का उपहास करते हुए उसने लिखा है — ‘ईश्वर एक ऐसे वृत के समान है, जिसका केंद्र अनंत है और विस्तार शून्य।

वाल्तेयर आजीवन लेखन के प्रति समर्पित रहा था। उसने अनेक पुस्तकें, विपुल मात्र में लेख आदि लिखे। लेकिन यह सब ना होकर केवल कांदीद ही उसकी एकमात्र पुस्तक होती तो भी वाल्तेयर की महानता एवं प्रतिष्ठा इतनी ही होती। जीवन के अंतिम दिनों में लिखा गया वाल्तेयर का यह उपन्यास तत्कालीन समाज के बौद्धिक दिवालियेपन पर गहरा कटाक्ष करता है। इसमें राजनीति की स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता को व्यंजनात्मक शैली में बहुत ही खूबसूरती एवं कलात्मकता के साथ अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। यही नहीं धर्मसत्ता पर विराजमान पंडे-पादरियों पर भी वाल्तेयर ने खूब कटाक्ष किया है।

हालांकि धर्म पर लगातार प्रहार के कारण वाल्तेयर ने अपने अनेक दुश्मन भी बना लिए थे। धार्मिक और सामाजिक मामलों को लेकर वह जो सोचता, वही लिखता था। जो उसको अच्छा लगता था उसका वह सम्मान करता था। उसने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में काम करते हुए दुनिया-भर में प्रसिद्धि बटोरी और अपने असंख्य समर्थक पैदा किए। वाल्तेयर के विचारों से प्रगतिशील आंदोलन को और अधिक गति मिली। उसने भले ही बड़े-बड़े वैचारिक ग्रंथ न लिखे हों, मगर उसके विचार एवं मौलिक अवधारणाएं, उसकी रचनाओं में इतने प्रभावी ढंग से पिरोयी होती थीं कि वे जनमानस पर सीधे असर करती थीं। वाल्तेयर के नाटकों और लेखों ने तत्कालीन फ्रांस में जनचेतना लाने का कार्य किया। वह उन विद्वानों में से था, जिसने अठारवीं शताब्दी को सर्वाधिक प्रभावित किया। वाल्तेयर का मानना था कि जब —
‘सरकार जब गलत रास्ते पर हो तो और सुधरने की कोई संभावना ही शेष न हो, तो सभ्य बने रहना बहुत खतरनाक सिद्ध होता है।’

जिनेवा प्रवास के दौरान वाल्तेयर ने एक बड़े आश्रम (Ferney) की स्थापना की थी, जो जिनेवा से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर था। उन दिनों जिनेवा एक स्वतंत्र राज्य था। उस आश्रम में किसी भी धर्म या विश्वास को मानने वाला, अमीर-गरीब कोई भी आ-जा सकता था। जब तक मन हो वहां ठहर सकता था। इसलिए उस आश्रम में मेहमानों का आगमन होता ही रहता था। आश्रम में भोजनादि की सेवाएं निःशुल्क प्रदान की जाती थीं। करीब साठ सेवक उनके भोजन के लिए तैनात रहते थे। आश्रम का जीवन अनुशासित था। समय का वहां विशेष ध्यान रखा जाता था। प्रत्येक रविवार को वाल्तेयर आश्रम के लोगों को संबोधित करता था, उस समय वह अपनी गोद में एक बच्चे को रखता था, जिसे उसने गोद लिया हुआ था। इस प्रकार वाल्तेयर समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता था। आगे चलकर आश्रम में एक चर्च की स्थापना भी की गई। जिसमें सहजीवन को प्राथमिकता दी जाती थी।

वाल्तेयर के आश्रम की तुलना हम ओवेन द्वारा स्थापित आश्रमों से कर सकते हैं। ओवेन के समय तक आते-आते समाजवादी चेतना परिपक्व होने लगी थी। इसीलिए उसके द्वारा स्थापित आश्रमों में सहजीवन का अधिक परिष्कृत एवं सफल रूप देखने को मिलता है। बावजूद इसके वाल्तेयर ने जिस नैतिकता आधारित जीवन पद्धति का आरंभ अपने आश्रम के माध्यम से किया, तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
वाल्तेयर को प्रकृति से कोई मोह नहीं था। उसका बस एक ही काम था। लिखना, लिखना और लिखना, मनुष्यता की स्थापना के लिए लगातार लिखना। इसलिए अपने जीवनकाल में उसने विपुल साहित्य की रचना की है। मन से उदार प्रवृत्ति का था। यहां तक कि खुद को नुकसान पहुंचाने वालों के प्रति भी वह नर्म और मेहरबान था। क्लेरेंस डेरो ने अपने आलेख में आश्रम की एक घटना का उल्लेख किया है, जो वाल्तेयर की उदारता को दर्शाती है। घटना कुछ इस प्रकार है —

एक बार आश्रम के दो नौकरों को चोरी के इल्जाम में पकड़ लिया गया। पुलिस की सख्त पूछताछ के दौरान उन्होंने अपना अपराध भी स्वीकार कर लिया। वाल्तेयर को यह सूचना मिली तो वह उद्धिग्न हो गया। उसने फौरन आश्रम के प्रबंधक बुलाया और कहा कि वह नौकरों से कहे कि वे किसी भी प्रकार भाग जाएं। यही नहीं उसने उन दोनों को भागकर किसी सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था भी की। इसके लिए वाल्तेयर का कहना था  —
‘यदि गिरफ्तार करने के पश्चात पुलिस उनपर मुकदमा चलाती है तो उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सजा से बचा सके।’

वाल्तेयर और शेक्सपियर एक-दूसरे के समकालीन और परस्पर आलोचक थे। शेक्सपियर को नाटक लिखने में अद्वितीय ख्याति मिली। एक कांदीद नामक उपन्यास को छोड़कर वाल्तेयर की कोई भी अन्य पुस्तक लोकप्रियता के मामले में शेक्सपियर की पुस्तकों की बराबरी नहीं कर सकी। किंतु मनुष्यता, स्वाधीनता एवं जीवन में नैतिकता के समर्थक के रूप में वाल्तेयर की प्रतिष्ठा शेक्सपियर से कहीं आगे है। शेक्सपियर का लेखन जनरुचि विशेषकर औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप तेजी से उभरते जा रहे मध्यवर्ग के मनोरंजन की शर्तों को पूरा करता था। इसी वर्ग ने शेक्यपियर को विश्व के साहित्यकारों में अमर बनाने का काम किया। उसके सापेक्ष वाल्तेयर कर लेखन मनुष्यमात्र के सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध लेखन था। शेक्सपियर के लिए कला प्रमुख थी, जबकि वाल्तेयर के लिए जीवनमूल्य। इतिहास में वाल्तेयर की भूमिका एक शाश्वत जिद्दी किस्म के इंसान की है। उसने सत्ता, चाहे वह धर्म की हो अथवा राज्य की, सभी के विरुद्ध अपनी कलम का इस्तेमाल किया।

वाल्तेयर के एक बेहद चर्चित नाटक के गीत का आशय है —
‘उठो…उठो! और अपनी शृंखलाएं तोड़ डालो!’

वाल्तेयर की महानता इसमें भी है कि उसने जीवन-भर जो भी लिखा, उसको पहले अपने तर्क की कसौटी पर कसा, फिर उपयुक्त पाए जाने पर उसको जनता तक पहुंचाने का ईमानदार प्रयास भी किया। इसके लिए उसने कविता और नाटक जैसी लोकरुचि की विधाओं को अपनाया। अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसने परचों का सहारा लिया। उसने जनहित से संबंधित मुद्दों पर अनगिनत परचे छपवाकर जनता में प्रचारित किए। अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए वाल्तेयर ने सहज-सरल भाषा का सहारा लिया, जिससे उसको बेशुमार ख्याति मिली। राजनीति और धर्मसत्ता के प्रबल अंतर्विरोधों को स्पष्ट करने के लिए उसने व्यंजना का सहारा लिया, जिससे उसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। वाल्तेयर के सरोकार पूरी तरह मानवीय थे। उसके लंबे जीवन में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है, जब उसने अपने सिद्धांतों के प्रति समझौतावादी रुख अपनाया हो या अपनी आलोचना से घबराकर वह किसी भी प्रकार के समर्पण को तैयार हो गया हो। वह एक उदार, प्रतिभाशाली, सरल और विवेकवान इंसान था।

वाल्तेयर की सबसे बड़ी विशेषता थी उसकी सचाई, सच कहने का स्वाभाव। हालांकि अपनी स्पष्टोक्तियों के कारण उसको अनेक बार परेशानियों का सामना करना पड़ा था। एक बार एक परिहास के दौरान वाल्तेयर के सचिव ने उससे पूछा था — ‘सर क्या होता यदि आपका जन्म स्पेन में हुआ होता?’

इसपर वाल्तेयर ने जवाब दिया — ‘तब मैं प्रतिदिन प्रतिदिन चर्च जाया करता। एक दिन वहां पादरी के चोगे को चूमता और उसके सारे शिक्षण संस्थानों को आग के हवाले कर देता।’

मानवीय आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करने वालों में वाल्तेयर का नाम सर्वोपरि है। उसके योगदान को लेकर क्लेरेंस डेरो ने एक बड़ी भावपूर्ण टिप्पणी की है —  ‘पश्चिमी जगत से हिंसा और कटुता को दूर कर उसको उदार एवं मानवीय बनाने वाले महानायकों में दूसरा कोई महानायक नहीं है, जिसका नाम और काम वाल्तेयर की बराबरी कर सकें।’

वाल्तेयर की मेधा निःसंदेह अनुपम थी। मनुष्यता के इतिहास में उसका योगदान महानतम और अविस्मरणीय की श्रेणी में आता है। रूसो भी वाल्तेयर का समकालीन था। दोनों में परस्पर संपर्क था। दोनों ही अपनी किस्म के विशिष्ट विद्वान, मानवीयता के समर्थक और आलोचक थे। रूसो की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ‘दि सोशल कांट्रेक्ट’ की वाल्तेयर ने जमकर आलोचना की थी। वाल्तेयर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर क्लेरेंस डेरो ने बहुत सटीक टिप्पणी की है —
वाल्तेयर कद-काठी में छोटा, देखने में बेहद कमजोर और दुबला-पतला था, लेकिन उसमें कमाल की फुर्ती थी. तेज दिमाग और प्रखर मेधा के बल पर उसका व्यक्तित्व पूरी जिंदगी चमचमाता रहा. अपने जीवन में उसने हर बौद्धिक चुनौती का साहसपूर्वक ढंग से सामना किया. यह सही है कि जीवन में उसको कई बार समझौते भी करने पड़े. जो उसके प्रशंसकों को बहुत नागवार गुजरते है. वे चाहते हैं कि वाल्तेयर भी ब्रूनो (Bruno) और सर्वेतिस(Servetus) की भांति, जिन्हें कट्टरपंथियों ने आग में जीवित जला दिया गया था, अपने विचारों पर अटल रहता. लेकिन महान व्यक्तित्वों का आकलन इस प्रकार नहीं किया जाता. अपने-अपने स्थान पर सभी महत्त्वपूर्ण एवं महान हैं…वाल्तेयर भावुक और दयालु था. उसके दिल में दूसरों के लिए प्यार समाया हुआ था. तन से वह दूसरों के लिए समर्पित था. इतिहास के उन महानायकों में जिन्होंने पश्चिमी समाज से कट्टरता और निर्दयता को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई, कोई भी वाल्तेयर की बराबरी नहीं कर सकता.

Ⓒ ओमप्रकाश कश्यप.
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