Saturday 22 February 2014

व्यवस्था-परिवर्तन : विकल्प का सवाल अर्थात् ‘क्रान्ति’ क्या है ! - गिरिजेश



प्रिय मित्र, मैं आज एक बार फिर वर्तमान व्यवस्था के संकट और उसके समाधान के प्रश्न पर चर्चा करना चाहता हूँ. सारी दुनिया में आज केवल अपने मुनाफ़े के लिये सक्रिय पूँजी के लूट-तन्त्र का ही शासन है. सारी दुनिया में जन-सामान्य के लिये जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सकने से अधिक जुटा पाना किसी भी तरह से नामुमकिन है. पिछली शताब्दी में रूस और चीन सहित अनेक देशों में पूँजी की गुलामी के विरुद्ध सफल क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए और समाजवादी समाज-व्यवस्था की रचना की गयी. आज की पीढ़ी के लिये वे सभी क्रान्तिकारी प्रयोग इतिहास की कहानी बन कर रह गये हैं. अपने देश में अनेक धाराओं और उपधाराओं में बिखरा क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी तक किसी निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँच सका है. 

ऐसे में हमारे सामने एक तो यह प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह है, जिसके चलते इस देश में अनेक जन-उभारों का प्रेरक और साक्षी होने पर भी अभी तक हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन को निर्णायक परिवर्तनकारी सफलता नहीं मिल सकी और दूसरा यह भी प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह थी जिसके चलते सफल क्रान्तियों वाले देशों में भी एक बार फिर से पूँजीवाद की पुनर्स्थापना तो सफलतापूर्वक हो गयी, परन्तु क्यों अभी तक उन देशों में पूँजीवादी समाज-व्यवस्था और शासन-सत्ता बनी हुई है; और आज उन सभी देशों के जन-गण के सामने किन परिवर्तनकामी प्रयोगों की सम्भावना है.

मानवता के इतिहास में अपने उद्भव से आज तक अकेला मार्क्सवाद ही परिवर्तन के विज्ञान के तौर पर स्थापित है. इसकी विश्लेषक दृष्टि अचूक है. फिर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के औजार को लागू करने में चूक कहाँ हो रही है ! इसे लागू करने वाले समाज-वैज्ञानिक आज ऐतिहासिक तौर पर असफल क्यों हैं ! दुनिया में वर्ग-संघर्ष तो सतत जारी है, परन्तु वर्गीय शोषण क्यों जैसे का तैसा चलता चला जा रहा है ! हम इसे आज तक छू भी नहीं सके, इसे ध्वस्त कर ले जाना तो बहुत दूर की कल्पना है. हमारी समझ और तौर-तरीके में कौन-सी खामी है ! आइए, एक बार ठहर कर सोचें कि वास्तव में क्रान्ति क्या है और आज की जटिल और संश्लिष्ट समाज-व्यवस्था के ताने-बाने में कौन-सी कमियाँ हैं, जो असह्य हो चुकने के बाद भी अभी भी बनी हुई हैं ! वह दौर कैसा था जब सफल क्रांतियाँ हो रही थीं ! और आज के दौर में क्रान्तिकारी व्यवस्था-परिवर्तन सम्भव भी है क्या ! यदि हाँ, तो कैसे !!

हमारे अनेक मित्र क्रान्ति की सम्भावना को ही सिरे से खारिज़ करते हैं. उनका मानना है कि अब कोई क्रान्ति सम्भव है ही नहीं. उनके अनुसार चूँकि कोई क्रान्ति नहीं हो सकती, इसलिये इसी व्यवस्था को ही थोड़ा-बहुत ठोक-पीट कर बेहतर और जीने के काबिल बनाया जाना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है. क्या उनका ऐसा सोचना तर्क-संगत है ! नहीं. क्योंकि वे हमारे जर्जर हो चुके फटे कुरते में केवल जगह-जगह नये-नये पैबन्द भर लगा सकते हैं. वे अपनी सारी शुभकामनाओं के बावज़ूद अपनी अवस्थिति के चलते अन्ततः केवल सुधारवाद की भूल-भुलैया में उलझ कर चकराते रह जाने के लिये विवश हैं. 

उसी सुधारवाद के नारे लगाते सामने आते हैं अन्ना-रामदेव-अरविन्द केजरीवाल और विकल्प देने की घोषणा करते हैं. अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विकल्प देने की बातें करने वाले अन्ना-रामदेव-अरविन्द सफल विकल्प दे सकते हैं ! गेंद अब ‘आप’ के पाले में है, जिसे देखिए मुँह उठाये ‘आप’ बनने को आमादा है. सब को अब तो यही लग रहा है कि ‘आप’ ही विकल्प है. जब ‘आप’ की सरकार बनी, तो दिल्ली में यह हो गया, और जब ‘आप’ की सरकार गिरी, तो देश में वह हो गया. क्या हो गया, मेरे दोस्त ! क्या व्यवस्था बदल गयी ! या ‘आप’ की सरकार अगर पूरे देश में भी बन जाये, तो क्या व्यवस्था बदल जायेगी ! नहीं न ! क्या सुधारवाद ही व्यवस्था का विकल्प है ! तो उत्तर मिलता है कि ‘ईमानदार पूँजीपति’ जैसा कुछ होना नामुमकिन है. और सुधारवाद पूँजीवाद का विकल्प नहीं हो सकता है.

कुछ मित्रों का मानना है कि क्रान्ति होनी तो है, मगर कब और कैसे होगी यह तो मालूम ही नहीं है. तब फिर जब तक क्रान्ति नहीं हो जाये, तब तक क्या किया जाना चाहिए – इस सवाल का उत्तर देने के नाम पर भी तरह-तरह के नुस्खे आजमाये जा रहे हैं. क्योंकि जब तक क्रान्ति हो, तब तक शोषित-पीड़ित मानवता की ‘सेवा’ तो की ही जानी चाहिए. और सेवा करने के लिये धन-जन-मन-तन-गन सबकी ज़रूरत पड़ती ही है. तो यह सब जुटाने के लिये थोड़ा-बहुत झपसटई तो करनी पड़ेगी ही. और ऐसा कुछ भी गोरखधन्धा करने में जो भी ख़ुद को सक्षम मानते हैं, वे एक एन.जी.ओ. बना लेते हैं और फिर शुरू हो जाता है ग़रीबों की सेवा के नाम पर ‘ब्रीफकेस दो और ब्रीफ़केस लो’ का खुला खेल फ़रुक्खाबादी ! चूँकि सारी की सारी योजनाएँ ग़रीबों की सेवा करने के नाम पर ही बनायी जाती हैं मगर मूलतः सेवा अमीरों की ही करती हैं. इसलिये ‘एन.जी.ओ.-एन.जी.ओ.’ खेलते-खेलते उनकी अपनी ग़रीबी तो दूर हो जाती है क्योंकि इस खेल में लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा होता है. और चलते-चलाते नाम-मात्र को ही सही, ले-दे कर ग़रीबों का भी कुछ न कुछ भला भी हो ही जाता है. मगर मेहनत की लूट की मुनाफ़ाखोर चक्की उसी रफ़्तार से चलती रहती है.

ऐसे में हर युवक के सामने यह ज्वलन्त प्रश्न है कि कोई भी युवक करे तो क्या करे ! और फिर जब हम अपने चारों ओर नज़र दौड़ाते हैं, तो पाते हैं कि अधिकतम युवक किसी न किसी तरीके से कोई न कोई नौकरी तलाशने के चक्कर में छोटे-बड़े शहरों से लेकर महानगरों तक किराये के कमरों में खाना बनाते-खाते प्रतियोगिताओं की तैयारी में रात-दिन एक किये हुए हैं. ‘बेरोज़गार’ पैदा करने वाली इस व्यवस्था से अपने लिये नौकरी माँगने वालों की सभी कतारों में बहुत भीड़ है. कन्धे से कन्धे छिले जा रहे हैं. भारी-भरकम घूस और किसी न किसी नेता या अधिकारी की पहुँच की बैसाखियाँ जुटाने की हर तरह की जो भी मुमकिन कोशिशें हो सकती हैं, वैसी सभी तरह की कोशिशें जारी हैं. चपरासी की नौकरी का भी रेट सात लाख के घूस तक पहुँच चुका है. और नौकरी है कि सबको मयस्सर है ही नहीं. केवल एक प्रतिशत को सरकारी और केवल दस प्रतिशत को प्राइवेट नौकरी मिल सकती है. शेष नब्बे प्रतिशत युवा नौकरी की दौड़ से असफल करार दिये जाने के बाद छाँट कर वापस लौटा दिये जाते हैं. 

असफलता का कलंक अपने माथे पर लिये महानगरों से वापस घर लौटने वाले या फिर उसी महानगर में किसी तरह से जीने का जुगाड़ भिड़ाने के चक्कर में जूझने वाले युवाओं के सामने हरदम अर्धबेरोज़गारी की परिस्थिति बनी रहती है. तब वे कोई न कोई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करके या फिर ट्यूशन करते हुए या प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर पढ़ाते हुए या कोचिंग चलाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था किसी भी तरह चलाते रहने को विवश हो जाते हैं. एक तरफ़ उनकी उम्र अधिक हो चुकी होती है, तो दूसरी तरफ़ उनको अब और फाइनेंस करने के लिये परिवार के लोग तैयार नहीं हो पाते. उनकी अपनी ख़ुद की पारिवारिक ज़िम्मेदारी भी बढ़ चुकी होती है. 

एक ओर तो ऐसे युवकों का या तो समूची व्यवस्था से मोहभंग हो चुका होता है, या अभी भी उनके अधूरे सपने उनका पीछा करते रहते हैं. कई बार वे अपनी असफलता के लिये अपने आप को ही अक्षम मान लेते हैं, ख़ुद को ही कोसने लगते हैं और ख़ुद को ही अपराधी मान बैठते हैं. उनको अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं सूझता है. क्या ऐसे हताश अवसादग्रस्त युवकों को आपने नहीं देखा है ! अगर हममें से किसी को उनको यह समझाना है कि क्रान्ति क्या है, तो क्या केवल मोटी-मोटी पोथी पढ़ने से या लम्बी-लम्बी लन्तरानियाँ हाँकने से ही हमारी बात उनको इस तरह समझ में आ जायेगी कि वे क्रान्ति करने को ही अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लें. उनके सामने तो रोटी का संकट है. तो फिर उनको क्रान्ति के बारे में समझाने का सही तरीका क्या है !

और दूसरी ओर वे युवक हैं, जो प्रतियोगिता की तैयारी में हर तरह से हलकान हो रहे हैं, जिनके दिमाग में अभी भी सतरंगे सपने ठूँस-ठूँस कर भरे हुए हैं और जो यह मानते हैं कि बस एक अदद नौकरी मिलने भर की देर है कि ज़िन्दगी की सारी परेशानियाँ दूर हो जायेंगी और ज़िन्दगी हर तरह से सुरक्षित हो जायेगी ! वे भला क्यों और कैसे क्रान्ति के सपने देखने तक पहुँच सकते हैं !

अच्छा चलिए, मान लिया कि ये और वे सभी के सभी आपकी ‘बात’ समझ गये और क्रान्ति करने के लिये तैयार भी हो गये, तो उनको आप क्या करने के लिये कहेंगे ! यह कहेंगे कि घर छोड़ दो ! झोला उठा लो ! देखो, हम लगातार क्रान्तिकारी किताबें छाप रहे हैं, तुम घूम-घूम कर हमारे द्वारा छापी गयी क्रान्तिकारी किताबें बेचो ! लोगों के बीच जाकर क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार करो ! संगठन बनाओ ! जब वे पूछेंगे कि जियेंगे कैसे, खायेंगे क्या और खर्च करने के लिये पैसे कहाँ से पायेंगे, तो आप क्या कहेंगे ! समाज में जो लोग किसी तरह से अपनी रोटी जुटा रहे हैं, उनके ही मत्थे यह भी खर्च मढ़ने के अलावा कोई और रास्ता है क्या आपके पास ! फिर तो सारे ही बेरोजगारों के लिये ‘क्रान्ति का रोज़गार’ सुनहरा विकल्प बन जाना चाहिए और सारे बेरोजगारों को क्रान्तिकारी ही बन जाना चाहिए. मगर ऐसा भी नहीं हो पा रहा है. क्यों ! क्योंकि साफ़ है कि क्रान्ति बेरोजगारों की बेरोज़गारी दूर करने वाला विकल्प नहीं बन सकती है.

फिर भी चलिए, यह भी मान लेते हैं कि यह समस्या भी आपने किसी तरह हल कर ली और आपका क्रान्तिकारी संगठन बन गया. बना ही है. तरह-तरह के संगठन बहुत पहले से ही बने हुए हैं. अभी तक पूरे देश की एक क्रान्तिकारी पार्टी नहीं बन सकी, तो क्या हुआ ! अनेक लोगों द्वारा स्वघोषित अनेक क्रान्तिकारी ‘पार्टी’ भी बनी-बनायी है. चलिए, क्रान्तिकारी संगठन और क्रान्तिकारी पार्टी बन गयी, तो अब क्या करना होगा ! अब भी दो रास्ते हैं. पहला रास्ता है बन्दूक का रास्ता क्योंकि महान माओ ने कहा था कि “राज-सत्ता का जन्म बन्दूक की नली से होता है” ! इसलिये बन्दूक का रास्ता चुनने वाली माओवादी पार्टी के लोगों के रास्ते पर अगर जाना है, तो कम से कम एक बन्दूक तो उठाना ही होगा. और जब बन्दूक उठाने तक बात पहुँच ही गयी, तो गोली भी चलेगी ही और हत्याएँ भी होंगी ही. तो क्या ताबड़तोड़ गोली चलाना और दनादन हत्याएँ करना ‘क्रान्ति’ है ! नहीं न ! 

तो फिर क्या रास्ता है ! है, अभी एक और भी रास्ता बचा है और वह दूसरा रास्ता है चुनाव लड़ना और संसद और विधानसभा में पहुँच जाना और ‘क्रान्तिकारी’ सरकार बना लेना और सत्ता चलाना. तो क्या सी.पी.आई. और सी.पी.एम. चुनाव लड़ कर संसद में जा कर सरकार चला कर ‘क्रान्ति’ नहीं कर चुकीं ! क्या ‘माले’ भी चुनाव के मैदान में अपने को हर तरह से नहीं आजमा चुकी ! अरे आख़िर इस रास्ते से भी क्या हुआ ! ‘सरकार’ तो बन भी गयी और टूट भी गयी मगर यह आदमखोर ‘व्यवस्था’ फिर भी क्यों नहीं बदल सकी ! 

तो फिर सोचना तो पड़ेगा ही कि ऐसी विकट परिस्थिति में वास्तव में ‘क्रान्ति’ क्या है ! क्या किया जाये कि यह व्यवस्था बदल सके ! यह प्रश्न ही आज का सबसे विकट प्रश्न है और इसका उत्तर देना ही हम सब क्रान्तिकारियों का युगजन्य दायित्व. क्रान्ति को अनेक क्रान्तिकारियों ने परिभाषित किया है. उनमें से माओ की परिभाषा सबसे अधिक लोकप्रिय है. माओ का कहना है – “क्रान्ति कोई प्रीतिभोज नहीं है और न ही निबन्ध-लेखन या चित्रकारी, कढ़ाई, बुनाई. यह इतनी परिष्कृत, आरामदेह, भली, सहनशील, दयालु, संयत, उदार, विनम्र और कोमल नहीं हो सकती. क्रान्ति एक विद्रोह है, एक हिंसक कार्यवाही है, जिसके द्वारा एक वर्ग दूसरे वर्ग की सत्ता को समाप्त कर देता है.” (“हुनान में किसान आन्दोलन की जाँच पर रिपोर्ट” मार्च 1927, संकलित रचनाएँ, खण्ड-एक, पृष्ठ - 28)

तो अब तो माओ के शब्दों में रट्टू तोते की तरह आपने यह भी बता दिया कि क्रान्ति क्या है. मगर इसे करने के लिये करना क्या है ! क्या वही जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में किया था ! क्या लेनिन के समय के रूस और माओ के समय के चीन जैसी ही आज भी दुनिया बनी हुई है ! नहीं न ! 2014 की दुनिया अब वैसी ही तो बिलकुल भी नहीं है, जैसी तब की यानि कि 1917 या 1949 की दुनिया हुआ करती थी. तब से अब तक दुनिया बहुत अधिक बदल चुकी है. 

इस बदली हुई दुनिया में क्रान्ति करने के लिये केवल रूस या चीन की क्रान्ति का अन्धानुकरण करना ही पर्याप्त नहीं हो सकता है. इसके लिये हमें कुछ और सोचना होगा, कुछ और करना होगा. तो वह ‘और’ क्या है ! यह हम तभी बता सकेंगे, जब पहले ख़ुद सटीक रूप से यह समझ सकें कि क्रान्ति का मतलब क्या है. परन्तु हमने तो ‘क्रान्ति’ का मतलब पूरी तरह से अभी तक समझा ही नहीं है. हमने तो अभी तक केवल पिछली पीढ़ियों के सफल-विफल क्रान्तिकारियों का अन्धानुकरण करना और उनके बड़े-बड़े नाम लेकर और उनकी किताबों से कठिन-कठिन उद्धरण रट कर और उनको दोहरा कर अबोध लोगों पर अपना रुआब ग़ालिब करना ही सीखा है. हम केवल इतना भर ही समझ सके हैं कि किताबें और पत्रिकाएँ छापना और उनको बेचना क्रान्ति है, छोटी-बड़ी मीटिंगें और जन-सभाएँ करना क्रान्ति है, नाटक करना और गीत गाना क्रान्ति है, नारे लगाना और जुलूस निकालना क्रान्ति है, चुनाव लड़ना और सरकार बनाना क्रान्ति है, बन्दूक उठाना और गोली चलाना क्रान्ति है ! 

हम समझते हैं कि जब क्रान्ति हो जायेगी, तो हमारी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. मगर क्रान्ति कब और कैसे हो जायेगी – इसके बारे में बताने के लिये हमारे पास कोई स्पष्ट समझ और ठोस दृष्टि नहीं है. तो लोगों का यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि चलिए ठीक है, जब क्रान्ति हो जायेगी, तो बहुत अच्छा हो जायेगा. परन्तु जब तक क्रान्ति नहीं हो रही है, तब तक क्या कोई राहत देने वाला मरहम नहीं है ! और फिर ‘क्रान्ति’ हो जायेगी यानी कि क्या हो जायेगा ! 

हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था ने दुनिया में सामन्तवादी व्यवस्था को परास्त करके अपना शासन आरम्भ किया. ऐसा इसीलिये मुमकिन हो सका क्योंकि उसने सामन्तवाद से बेहतर विकल्प गढ़ा और लोगों ने उसे अपने लिये उपयोगी पा कर स्वीकार किया. हम जिस व्यवस्था में जीने के लिये विवश हैं, उसकी सारी सीमाओं को पूरी तरह जानने-समझने के बावज़ूद हम क्यों उसी को झेलते चले जा रहे हैं. केवल इसलिये ही हम इस व्यवस्था की सारी विसंगतियों को झेल रहे हैं क्योंकि हमारे पास इसका कोई विकल्प नहीं है. 

तो अन्ततोगत्वा प्रश्न मूलतः विकल्प का ही है. विकल्प जो आसानी से सबकी समझ में आ जाये, विकल्प जो हमारे लिये उपयोगी हो, विकल्प जो हमारी ज़िन्दगी को बेहतर बना सके, विकल्प जो अभी तक रूपायित नहीं हुआ हो, विकल्प जिसे लागू करने के लिये कोई हमें बाध्य न करे, विकल्प जिसे आत्मसात करने के लिये लोग ख़ुद ही लालायित हो जायें, वह विकल्प क्या हो सकता है !

हमें क्या किसी ने बिजली और मोटर-साइकिल, ट्रैक्टर और खाद, मोबाइल फोन और कम्प्यूटर, बैंक और ए.टी.एम. का इस्तेमाल करने के लिये बाध्य किया ! क्या हमारे ऊपर टी.वी. और इन्टरनेट का इस्तेमाल करने के लिये किसी के द्वारा दबाव बनाया गया ! नहीं न ! विज्ञान ने इन वस्तुओं का आविष्कार किया, बाज़ार ने इनको उपलब्ध कराया और हम सभी लोगों ने इनको अपने लिये उपयोगी पाया, तो ही जाकर हमने ख़ुद-ब-ख़ुद इनको अपने लिये जुटा लिया और इनका प्रयोग करना सीखने की कोशिश की और अब सफलतापूर्वक इन सब का प्रयोग सभी लोग कर रहे हैं. सार-संकलन करने पर इससे हमारी यही समझ बनती है कि जिस भी वैकल्पिक चीज़ को लोग अपने लिये उपयोगी पाते हैं और पहले से उपलब्ध चीज़ से बेहतर समझते हैं, उसे स्वयमेव ही स्वीकार कर लेते हैं.

अपनी समस्याओं के समाधान के लिये बेहतर विकल्प के बारे में सोचना आरम्भ करते ही हमें यह सोचना पड़ता है कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं. हमारी ख़ुद अपनी और दूसरे सब लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिये हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं - सबके लिये सुलभ बेहतर रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन. इसका मतलब यह है कि हमें जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा सफल विकल्प खोजना होगा, जो वर्तमान पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में उपलब्ध रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन के साधनों में निहित विसंगतियों का समाधान दे सके और सबके लिये सहज-सुलभ हो. और हाँ, ध्यान रहे कि यह सारी खोज केवल और केवल रचनात्मक प्रयोगों के माध्यम से ही मुमकिन है. 

प्रयोग तो प्रयोग है. वह विफल हो सकता है, तो सफल भी हो ही सकता है. और जैसे ही हममें से किसी ने भी जनदिशा लागू करने की कोशिश में ‘मॉडल’ खड़ा करने का कोई भी रचनात्मक प्रयोग सफलतापूर्वक कर लिया, वैसे ही निश्चित तौर पर दूसरे सभी लोग भी उस मॉडल को अपनाने के लिये पहलकदमी करेंगे ही. इसके लिये पूरे धैर्य के साथ हमें सोचना और प्रयास करना ही होगा. क्योंकि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने कहा था – “क्रान्ति केवल बम और पिस्तौल का नाम नहीं है. क्रान्ति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है.” जन-सामान्य के सभी जनविरोधी परम्परागत तथा यथास्थितिवादी विचारों को बदलने और उनकी जगह नये जनपक्षधर विचारों को मूर्तमान करने के लिये हमें अतीत के सभी क्रान्तिकारी प्रयोगों से अपने प्रयोग के लिये केवल और केवल प्रेरणा भर ही मिल सकती है क्योंकि शास्त्रीय क्रान्तिकारी साहित्य में हर जगह केवल इतना-सा ही मार्गदर्शन मयस्सर है – “ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करो, ठोस तरीके से सोच कर ठोस लाइन लागू करो !”. 

इस रूप में क्रान्ति मानवता को मुक्त करने का नाम है, सारी समस्याओं को दूर करने का नाम है, जीवन को बेहतर और आरामदेह बनाने का नाम है, पुरानी सड़ी-गली दुनिया को ध्वस्त करने का नाम है, एक नयी दुनिया का निर्माण करने का नाम है, एक नया ज़माना लाने का नाम है, एक नया इन्सान गढ़ने का नाम है, एक नया प्रयोग करने का नाम है, एक नूतन रचना करने का नाम है, एक सर्वस्वीकार्य विकल्प को रूपायित कर देने का नाम है ! क्रान्ति सृजन का नाम है ! और यह सृजन कदापि असम्भव नहीं है. यह निश्चित तौर पर सम्भव है और अवश्यम्भावी भी !! 

इन्कलाब – ज़िन्दाबाद !!!
ढेर सारे प्यार के साथ – आपका गिरिजेश 
(22.2.14.)

Saturday 1 February 2014

याद करने का वैज्ञानिक तरीका — गिरिजेश (1.2.14.)






प्रिय मित्र, याद करने की समस्या प्रत्येक छात्र को परेशान करती है| 
परीक्षाओं के ठीक पहले इस समस्या के समाधान के तौर पर यह व्याख्यान प्रस्तुत है|
अधिकतर छात्र/छात्राएँ रटने के तरीके से याद करने के चक्कर में रहते हैं| वे अपने उत्तर को रटना चाहते हैं| 
रटने में एक वाक्यांश को कई बार दोहराने के बाद वे अगले वाक्यांश को छूते हैं| यह याद करने का अवैज्ञानिक तरीका है|
याद करने का वैज्ञानिक तरीका पढ़ाई को खेल की तरह मनोरंजक बना देता है| इस तरीके से तैयारी करने वालों को परीक्षा परेशान नहीं करती|
इस व्याख्यान को ध्यान से सुनिए और लागू करने का प्रयास कीजिए| 
वैज्ञानिक तरीके से अपनी तैयारी करने पर आप अधिक आत्मविश्वास के साथ परीक्षा देंगे और बेहतर परिणाम भी प्राप्त कर सकेंगे|
आशा है कि युवा मित्रों को याद करने की अपनी क्षमता का विकास करने में इस व्याख्यान से सहायता मिल सकेगी|
मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का उनतीसवाँ व्याख्यान है|
यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है|
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें|
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश 
इसका लिंक है — https://www.youtube.com/watch?v=8TXURM8pdcU&feature=youtu.be
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इस विषय में ये तीन लेख भी आपकी सहायता करेंगे. मेरा अनुरोध है कि इनको भी एक बार फिर से पढ़िए.
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1. याद करने का वैज्ञानिक तरीका: — गिरिजेश
परीक्षा और प्रतियोगिता में सफलता के जानलेवा दबाव के चलते सभी छात्रों के सामने याद करने और याद रखने की यह भीषण समस्या आती ही है. अधिकतर छात्र अक्सर यह शिकायत करते हैं कि मुझे याद नहीं होता या मैं याद तो कर ले जाता हूँ, मगर लिखते समय भूल जाता हूँ या घर पर तो सही लिख ले जाता हूँ, मगर परीक्षा में गलती हो जाती है या मैं यह नहीं जान पाता कि जो मैं जानता हूँ उसे कैसे बताऊँ या कहाँ से लिखना या बोलना शुरू करूँ.
विज्ञान हमें हमारी सभी समस्याओं का विश्लेषण करना और उनका समाधान खोजना सिखाता है. अगर आपको यह पता चल गया कि आपकी समस्या क्या है, तो समाधान की तलाश का पहला चरण पूरा हो गया. याद न होना भी एक समस्या है और इसका भी विज्ञान के पास समाधान है. आइए इस अनुभवसिद्ध पद्धति को समझने और सीखने का प्रयास करें. इस पद्धति से कठिन से कठिन और लम्बे से लम्बे उत्तर को आप याद भी कर ले जायेंगे और लिख भी ले जायेंगे.
१- जब भी कोई उत्तर याद करना हो, तो एकान्त में किसी शान्त जगह पर बैठना चाहिए.
२- याद करते समय हमारा दिमाग पूरी तरह से ठण्डा होना चाहिए. उस समय किसी तरह की हड़बड़ी, परेशानी, उथल-पुथल, तनाव, चिन्ता, दु:ख, क्षोभ या क्रोध नहीं होना चाहिए.
३- जिस उत्तर को याद करना है, उसे रटना नहीं चाहिए. रटने का मतलब है बिना सोचे-समझे उत्तर के केवल कुछ शब्दों या एक-दो वाक्यों को ही जल्दी-जल्दी बार-बार दोहराना. रटने से उत्तर दिमाग में गहराई से बैठ नहीं पाता और जल्दी ही भूल जाता है. याद करने की यह परम्परागत पद्धति गलत और अवैज्ञानिक है.
४- वैज्ञानिक पद्धति से याद करने के लिये अपने उत्तर को धीरे-धीरे, रुक-रुक कर, समझ-समझ कर एक बार में शुरू से अन्त तक पूरा एक साथ ही पढ़िए.
५- उसके बाद अपनी उत्तर-पुस्तिका (NOTE-BOOK) को बन्द कर के ऊपर आसमान में देखते हुए पूरे उत्तर को एक सिरे से दूसरे सिरे तक अपने दिमाग में घुमाइए. इससे पूरे उत्तर की मोटी-मोटी रूप-रेखा पर दिमाग की पकड़ बन जायेगी.
६- इन दोनों क्रियाओं को कुल पाँच बार एक साथ ही दोहराइए. अर्थात पाँच बार पूरे उत्तर को धीरे-धीरे समझ-समझ कर पढ़िए और फिर उत्तर-पुस्तिका को बन्द कर के दिमाग में पूरे उत्तर को घुमाइए.
७- अब अपनी उत्तर-पुस्तिका को बन्द करके एक तरफ रख दीजिए. और अपनी रफ़ की कॉपी खोल लीजिए. उस पर ऊपर दिनांक और समय लिख लीजिए.
८- अब पूरे उत्तर को बिना नक़ल मारे जल्दी-जल्दी तेज रफ़्तार से लिखिए.
९- लिखने के दौरान उत्तर के बीच-बीच में कोई-कोई चीज़ भूल जायेगी. उसके लिये खाली जगह छोड़ते चले जाइए.
१०- इस तरह से पूरा उत्तर लिख डालिए और तब घड़ी देखिए और उत्तर लिखने में लगा समय नोट कर लीजिए.
११- अब अपनी उत्तर-पुस्तिका खोलिए और लिखते समय जितने शब्द या वाक्यांश याद न आने के कारण छूट गये थे, उनकी खाली जगहों को उत्तर-पुस्तिका से देख कर दूसरे रंग की स्याही से भर दीजिए.
१२- अब एक बार और अपने पूरे उत्तर को दिमाग में घुमा कर नये पन्ने पर समय नोट कर के लिख डालिए.
१३- इस तरह आप अपने प्रयोग के अन्त में देखेंगे कि आपको न केवल उत्तर याद हो गया, बल्कि आपका आत्मविश्वास भी बढ़ गया और जब एक बार आत्मविश्वास पैदा हो गया, तो फिर तो कोई भी उत्तर आपके लिये बड़ा या कठिन लगेगा ही नहीं.
१४- यदि आप इस प्रयोग से सन्तुष्ट और प्रसन्न होते हैं, तो मेरा निवेदन है कि अपने आस-पास के लोगों को भी इसे सीखने के लिये प्रोत्साहित कीजिए.
१५- अधिक से अधिक छात्रों और विद्यालयों तक इसे पहुँचाने के काम में मेरी सहायता कीजिए.
१६- इसको सीखने में अगर आप कोई दिक्कत महसूस करते हैं, तो आपकी सहायता करने के लिये मैं विनम्रतापूर्वक उपलब्ध हूँ. मुझसे 09450735496 पर सम्पर्क कीजिए.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/09/blog-post_20.html
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2. समय-प्रबन्धन की वैज्ञानिक पद्धति — गिरिजेश

प्रिय मित्र, अपनी पढ़ाई के घण्टे बढ़ाने में समय-प्रबन्धन के मकसद से डेली डायरी बनाना छात्रों-छात्राओं की मदद करता है. इसमें भागीदार सभी छात्रों-छात्राओं को उनके दैनिक अध्ययन-काल का सटीक रिकार्ड प्रतिदिन बनाने का हम निर्देश देते हैं.

किसी भी व्यक्ति को एक दिन में केवल चौबीस घण्टे मिलते हैं. यह समय तीन खंडों में विभाजित किया जा सकता है — उत्पादन-काल, तैयारी का काल और मनोरंजन का काल. हम में से ज्यादातर लोग अपने जीवन के लक्ष्य के बारे में गंभीरता से विचार किये बिना अथवा अपने कार्य-दायित्व पर अच्छी तरह ध्यान दिये बिना अपने महत्वपूर्ण समय को निरर्थक कामों में ही बर्बाद करते रहते हैं.

समय-प्रबन्धन की इस पद्धति में जब भी कोई व्यक्ति व्यवस्थित तरीके से अध्ययन आरम्भ करता है, तो अपनी डेली डायरी में एक सेंटीमीटर चौड़े चार खाने और पाँचवां खूब चौड़ा खाना खींच कर पहले खाने में ‘दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.)’ लिख देता है, दूसरे खाने में ‘बजे से, तीसरे में ‘बजे तक और चौथे में ‘घंटा-मिनट’ लिख कर अंतिम सबसे चौड़े खाने में ‘किये गये कार्य का विस्तृत विवरण’ लिखता है. 

अब वह पहले खाने में प्रतिदिन दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.) अंकित करके ‘बजे से’ नामक दूसरे खाने में पढ़ाई शुरू करने का सही-सही समय और ‘बजे तक’वाले तीसरे खाने में पढ़ाई खत्म करके अपनी पढ़ाई की मेज छोड़ने का सही-सही समय तुरन्त-तुरन्त लिखता है. क्योंकि इन दोनों प्रविष्टियों को बाद में लिख लेने के आलस्य के चक्कर में सही समय दिमाग से उतर जाता है और अनुमान से लिखा गया समय गलत हो सकता है. चौथे ‘घंटा-मिनट’ वाले खाने में उस एक बार के बैठने में किये गये काम का अध्ययन-काल घंटा-मिनट में तीसरे खाने की प्रविष्टि में से दूसरे खाने की प्रविष्टि को घटा कर लिख देता है. और सबसे चौड़े खाने में पढ़े गये विषय और पाठ का नाम, किस प्रश्न से किस प्रश्न तक हल किया या पढ़ा गया या याद किया, उनका क्रमांक और हल किये गये कुल प्रश्नों की पूरी संख्या अच्छी तरह विस्तार में लिखी जाती है.

इस तरह दिन भर का रिकार्ड बना कर अन्त में पूरे अध्ययन-काल के योग को जोड़ने के बाद अगले दिन सभी छात्र-छात्राएँ अपनी डायरी अपने अभिभावक से हस्ताक्षर करवा कर मुझसे चेक करवाने और मेरे हस्ताक्षर के लिये मेरे सामने प्रस्तुत करते हैं और अपने उपस्थिति-रजिस्टर में P/A की जगह अपने पढ़ने का समय लिखते हैं.

इस प्रकार समय-प्रबंधन की प्रतिदिन की डायरी उनकी इच्छा-शक्ति को बढ़ा देती है और उनके तैयारी और मनोरंजन में लगने वाले समय को नियंत्रित कर के उनके उत्पादन-काल में भरपूर वृद्धि करती जाती है. इस पद्धति से प्रत्येक छात्र-छात्रा केवल दो या तीन घंटे के अध्ययन के साथ अपनी दैनिक डायरी बनाने की शुरुवात करता है और देखते-देखते धीरे-धीरे आसानी से दस या उससे अधिक घंटे तक जा पहुँचता है और अपने अध्ययन के उस स्तर को बनाये रखने के लिये और उसके रिकॉर्ड में पिछले दिन की तुलना में और भी अधिक वृद्धि करने की कोशिश करता चला जाता है.

अब वह अपने प्रदर्शन पर स्वयं तो गर्व महसूस करता ही है, अपने दोस्तों को भी इस प्रणाली का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है. उसके परिजन भी उसके व्यक्तित्वान्तरण से गौरवान्वित होकर उसे प्रोत्साहित करते हैं. समय की सटीकता के प्रति उनकी दृष्टि में सुधार के लिये हम उन के बीच सच्चाई के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की कोशिश करते हैं और उनमें से ज्यादातर गलत प्रविष्टियों से बचते हैं. मेरे बच्चे मुझसे झूठ नहीं बोलते, क्योंकि मैं भी उनसे झूठ नहीं बोलता. हम परस्पर एक दूसरे का विश्वास करते हैं.

मैं अपने सभी युवा मित्रों से समय-प्रबंधन की इस प्रणाली का अनुसरण करने के लिये और इसके ज़रिये उनकी अपनी मनोदशा में होने वाले सकरात्मक परिवर्तन को खुद ही महसूस करने का अनुरोध करता हूँ. यह चिंता, अवसाद और अलगाव की भावना की सबसे अच्छी दवा है, जो आज के अनिश्चय, आपाधापी और भागमभाग के पूँजीवादी दौर में व्यापक रूप से पूरी दुनिया में अधिक से अधिक युवाओं का बुरी तरह पीछा करते हुए उन्हें हर-हमेशा व्यथित और बीमार बना रही है.

इस सिलसिले में अपने सभी ‘अतिवादी’ अति उत्साही युवा मित्रों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि हर हालत में प्रतिदिन कम से कम छः घण्टे अवश्य सोयें. और सत्रह घंटों से अधिक किसी भी परिस्थिति में न पढ़ें. पूरी नींद दिमाग को ताजगी देगी और इससे कम सोने पर आपके स्वास्थ्य और स्वाध्याय दोनों पर बुरा असर पड़ेगा.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/12/what-man-has-done-man-can-do.html
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3. सुन्दर लिखने का वैज्ञानिक तरीका: — गिरिजेश 

सुन्दर लिखना कौन नहीं चाहता! लिखने के लिये टाइप राइटर और फिर कम्प्यूटर के इस्तेमाल से पहले तो हाथ से ही लिखने का चलन था. अभी भी कहा जाता है - "पेन इज़ द बेस्ट मशीन". अभी भी आपको अक्सर हाथ से लिखने की ज़रूरत तो पड़ती ही है. और अगर आपने सुन्दर लिखा है, तो पढ़ने वाले को भी अच्छा लगता है. खास कर लिखित परीक्षा में परीक्षक पर आपकी राइटिंग का बहुत ही सकारात्मक असर पड़ता है. वही उत्तर अगर गन्दी राइटिंग में लिखा हो और वही उत्तर अगर सुन्दर राइटिंग में लिखा हो, तो मिलने वाले अंकों में फ़र्क पड़ जाता है. आपको मिलने वाले अंकों को बढ़ाने में आपकी राइटिंग एक महत्वपूर्ण और लाभकारी घटक है. 

अक्सर लोगों को कहते सुना जाता रहा है कि सुन्दर हैण्ड-राइटिंग तो "गॉड गिफ़्टेड" होती है. या कि बचपन में जिसकी राइटिंग नहीं सुधरी, उसकी फिर जिन्दगी भर नहीं सुधर सकती है. परन्तु मेरा मानना है कि अगर आपमें इतनी अक्ल है कि आप अपने जूते के फीते बाँध सकते हैं, तो आप अपनी राइटिंग भी सुधार सकते हैं. इस लेख में सुन्दर लिखने का वैज्ञानिक तरीका बताया गया है. इस तरीके का परिणाम अद्भुत होता रहा है. पिछले दो दशकों में अभी तक दसियों हज़ार लोगों ने इस तरीके से अपनी राइटिंग सुधारी है.

क्या आप भी अपनी राइटिंग से असंतुष्ट हैं? क्या आप उसे सुधारना चाहते हैं? यदि हाँ, तो इस लेख में दिये गये सुझावों को ध्यान से पढ़िए. और यदि आप चाहें, तो इन सुझावों को लागू कीजिए. इसका कल्पनातीत परिणाम स्वयं ही आपके सामने कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद आ जायेगा.

१- आपकी कॉपी में खींची गयी लाइनों को ध्यान से देखिए. दो लाइनों के बीच 8 मिमी. की दूरी होती है.
२- एक ही लाइन पर हिन्दी को कपड़े की तरह लटकाया जाता है और अंग्रेज़ी को मोमबत्ती की तरह खड़ा किया जाता है. अर्थात हिन्दी के शब्दों के ऊपर 'शिरोरेखा' खींची जाती है और अंग्रेज़ी के शब्द 'अधोरेखा' पर लिखे जाते हैं.
३- हिन्दी के शब्दों के ऊपर शब्द के आरम्भ से एक मिमी पहले से शुरू कर के शब्द के अन्त के एक मिमी बाद तक एक ही शिरोरेखा खींची जाती है. बिना शिरोरेखा के लिखना या टूटी हुई शिरोरेखा बनाना सही नहीं है.
४- हिन्दी के अक्षर चार मिमी. लम्बाई के बनाने चाहिए. अर्थात दो लाइनों के ठीक बीचोबीच तक ही अक्षरों की लम्बाई होनी चाहिए. नीचे का आधा हिस्सा मात्राएँ देने के लिये प्रयोग किया जाता है.
५- सभी दो अक्षरों के बीच दो मिमी. और दो शब्दों के बीच छः मिमी. की समान दूरी रखनी चाहिए. एकरूपता सौन्दर्य का महत्वपूर्ण अंग है.
६- सभी सीधे अक्षरों को 90 अंश और घुमावदार अक्षरों को 45 अंश के कोणों पर बनाना चाहिए. 
७- सभी टेढ़ी मात्राओं को 45 अंश के कोण पर बनाना चाहिए.
८- अंग्रेज़ी के बड़े अक्षर छः मिमी और छोटे अक्षर तीन मिमी की ऊँचाई के लिखने चाहिए.
९- लिखते समय पूरे पन्ने पर बायीं ओर एक इंच और दाहिनी ओर आधा इंच जगह खाली रखनी चाहिए. इसी तरह ऊपर की ओर एक इंच और नीचे की ओर भी आधा इंच जगह छोड़ देनी चाहिए.
१०- प्रत्येक नया पैराग्राफ शुरू करते समय बायीं ओर से तीन लाइनों के बीच की दूरी के बराबर अर्थात 16 मिमी जगह छोड़ कर लिखना शुरू करना चाहिए.
११- लिखने में केवल नीली या काली कलम का प्रयोग करना चाहिए. लाल कलम कॉपी जाँचने के लिये और हरी कलम जाँची गयी कॉपी को दुबारा जाँचने के लिये होती है. लिखने वाले को लाल या हरी कलम का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
१२- शीर्षक के नीचे दो अधोरेखा और उपशीर्षक के नीचे एक अधोरेखा खींच कर शीर्षक के सामने (:—) तथा उपशीर्षक के सामने (—) चिह्न लगाना चाहिए.
१३- महत्वपूर्ण अंशों पर पाठक का ध्यान आकर्षित करने के लिये स्याही का रंग बदल दें, उसके नीचे अधोरेखा खींच दें, बोल्ड कर दें, या टेढ़े अक्षरों में (इटैलिक) लिख दें. और अगर महत्वपूर्ण अंश अधिक लम्बा है, तो उसके दाहिनी ओर किनारे की खाली जगह पर ऊपर से नीचे की ओर सीधी रेखा खींच दें.
१४- इस तरीके से अभ्यास करते समय शुरू में आपकी लिखने की रफ़्तार निश्चय ही धीमी होगी. मगर इससे बिलकुल घबराइए मत. 
१५- धीरे-धीरे कर के सुन्दर लिखने का अभ्यास करने के साथ ही अपनी रफ़्तार भी बढ़ाते जाइए. आप देखेंगे कि आपकी लिखावट भी सुन्दर हो गयी और आपके लिखने की रफ़्तार भी बढ़ती जा रही है. 
१६- बाद में अभ्यास बढ़ाने के साथ घड़ी देख कर तेज लिखना शुरू कर दें. ताकि परीक्षा में समय से सभी उत्तरों को हल कर ले जायें.
१७- यदि आप इस प्रयोग से सन्तुष्ट और प्रसन्न होते हैं, तो मेरा निवेदन है कि अपने आस-पास के लोगों को भी इसे सीखने के लिये प्रोत्साहित कीजिए.
१८- अधिक से अधिक छात्रों और विद्यालयों तक इसे पहुँचाने के काम में मेरी सहायता कीजिए.
१९- इसको सीखने में अगर आप कोई दिक्कत महसूस करते हैं, तो आपकी सहायता करने के लिये मैं विनम्रतापूर्वक उपलब्ध हूँ. मुझसे 09450735496 पर सम्पर्क कीजिए.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/09/blog-post_18.html