Saturday 22 February 2014

व्यवस्था-परिवर्तन : विकल्प का सवाल अर्थात् ‘क्रान्ति’ क्या है ! - गिरिजेश



प्रिय मित्र, मैं आज एक बार फिर वर्तमान व्यवस्था के संकट और उसके समाधान के प्रश्न पर चर्चा करना चाहता हूँ. सारी दुनिया में आज केवल अपने मुनाफ़े के लिये सक्रिय पूँजी के लूट-तन्त्र का ही शासन है. सारी दुनिया में जन-सामान्य के लिये जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सकने से अधिक जुटा पाना किसी भी तरह से नामुमकिन है. पिछली शताब्दी में रूस और चीन सहित अनेक देशों में पूँजी की गुलामी के विरुद्ध सफल क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए और समाजवादी समाज-व्यवस्था की रचना की गयी. आज की पीढ़ी के लिये वे सभी क्रान्तिकारी प्रयोग इतिहास की कहानी बन कर रह गये हैं. अपने देश में अनेक धाराओं और उपधाराओं में बिखरा क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी तक किसी निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँच सका है. 

ऐसे में हमारे सामने एक तो यह प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह है, जिसके चलते इस देश में अनेक जन-उभारों का प्रेरक और साक्षी होने पर भी अभी तक हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन को निर्णायक परिवर्तनकारी सफलता नहीं मिल सकी और दूसरा यह भी प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह थी जिसके चलते सफल क्रान्तियों वाले देशों में भी एक बार फिर से पूँजीवाद की पुनर्स्थापना तो सफलतापूर्वक हो गयी, परन्तु क्यों अभी तक उन देशों में पूँजीवादी समाज-व्यवस्था और शासन-सत्ता बनी हुई है; और आज उन सभी देशों के जन-गण के सामने किन परिवर्तनकामी प्रयोगों की सम्भावना है.

मानवता के इतिहास में अपने उद्भव से आज तक अकेला मार्क्सवाद ही परिवर्तन के विज्ञान के तौर पर स्थापित है. इसकी विश्लेषक दृष्टि अचूक है. फिर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के औजार को लागू करने में चूक कहाँ हो रही है ! इसे लागू करने वाले समाज-वैज्ञानिक आज ऐतिहासिक तौर पर असफल क्यों हैं ! दुनिया में वर्ग-संघर्ष तो सतत जारी है, परन्तु वर्गीय शोषण क्यों जैसे का तैसा चलता चला जा रहा है ! हम इसे आज तक छू भी नहीं सके, इसे ध्वस्त कर ले जाना तो बहुत दूर की कल्पना है. हमारी समझ और तौर-तरीके में कौन-सी खामी है ! आइए, एक बार ठहर कर सोचें कि वास्तव में क्रान्ति क्या है और आज की जटिल और संश्लिष्ट समाज-व्यवस्था के ताने-बाने में कौन-सी कमियाँ हैं, जो असह्य हो चुकने के बाद भी अभी भी बनी हुई हैं ! वह दौर कैसा था जब सफल क्रांतियाँ हो रही थीं ! और आज के दौर में क्रान्तिकारी व्यवस्था-परिवर्तन सम्भव भी है क्या ! यदि हाँ, तो कैसे !!

हमारे अनेक मित्र क्रान्ति की सम्भावना को ही सिरे से खारिज़ करते हैं. उनका मानना है कि अब कोई क्रान्ति सम्भव है ही नहीं. उनके अनुसार चूँकि कोई क्रान्ति नहीं हो सकती, इसलिये इसी व्यवस्था को ही थोड़ा-बहुत ठोक-पीट कर बेहतर और जीने के काबिल बनाया जाना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है. क्या उनका ऐसा सोचना तर्क-संगत है ! नहीं. क्योंकि वे हमारे जर्जर हो चुके फटे कुरते में केवल जगह-जगह नये-नये पैबन्द भर लगा सकते हैं. वे अपनी सारी शुभकामनाओं के बावज़ूद अपनी अवस्थिति के चलते अन्ततः केवल सुधारवाद की भूल-भुलैया में उलझ कर चकराते रह जाने के लिये विवश हैं. 

उसी सुधारवाद के नारे लगाते सामने आते हैं अन्ना-रामदेव-अरविन्द केजरीवाल और विकल्प देने की घोषणा करते हैं. अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विकल्प देने की बातें करने वाले अन्ना-रामदेव-अरविन्द सफल विकल्प दे सकते हैं ! गेंद अब ‘आप’ के पाले में है, जिसे देखिए मुँह उठाये ‘आप’ बनने को आमादा है. सब को अब तो यही लग रहा है कि ‘आप’ ही विकल्प है. जब ‘आप’ की सरकार बनी, तो दिल्ली में यह हो गया, और जब ‘आप’ की सरकार गिरी, तो देश में वह हो गया. क्या हो गया, मेरे दोस्त ! क्या व्यवस्था बदल गयी ! या ‘आप’ की सरकार अगर पूरे देश में भी बन जाये, तो क्या व्यवस्था बदल जायेगी ! नहीं न ! क्या सुधारवाद ही व्यवस्था का विकल्प है ! तो उत्तर मिलता है कि ‘ईमानदार पूँजीपति’ जैसा कुछ होना नामुमकिन है. और सुधारवाद पूँजीवाद का विकल्प नहीं हो सकता है.

कुछ मित्रों का मानना है कि क्रान्ति होनी तो है, मगर कब और कैसे होगी यह तो मालूम ही नहीं है. तब फिर जब तक क्रान्ति नहीं हो जाये, तब तक क्या किया जाना चाहिए – इस सवाल का उत्तर देने के नाम पर भी तरह-तरह के नुस्खे आजमाये जा रहे हैं. क्योंकि जब तक क्रान्ति हो, तब तक शोषित-पीड़ित मानवता की ‘सेवा’ तो की ही जानी चाहिए. और सेवा करने के लिये धन-जन-मन-तन-गन सबकी ज़रूरत पड़ती ही है. तो यह सब जुटाने के लिये थोड़ा-बहुत झपसटई तो करनी पड़ेगी ही. और ऐसा कुछ भी गोरखधन्धा करने में जो भी ख़ुद को सक्षम मानते हैं, वे एक एन.जी.ओ. बना लेते हैं और फिर शुरू हो जाता है ग़रीबों की सेवा के नाम पर ‘ब्रीफकेस दो और ब्रीफ़केस लो’ का खुला खेल फ़रुक्खाबादी ! चूँकि सारी की सारी योजनाएँ ग़रीबों की सेवा करने के नाम पर ही बनायी जाती हैं मगर मूलतः सेवा अमीरों की ही करती हैं. इसलिये ‘एन.जी.ओ.-एन.जी.ओ.’ खेलते-खेलते उनकी अपनी ग़रीबी तो दूर हो जाती है क्योंकि इस खेल में लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा होता है. और चलते-चलाते नाम-मात्र को ही सही, ले-दे कर ग़रीबों का भी कुछ न कुछ भला भी हो ही जाता है. मगर मेहनत की लूट की मुनाफ़ाखोर चक्की उसी रफ़्तार से चलती रहती है.

ऐसे में हर युवक के सामने यह ज्वलन्त प्रश्न है कि कोई भी युवक करे तो क्या करे ! और फिर जब हम अपने चारों ओर नज़र दौड़ाते हैं, तो पाते हैं कि अधिकतम युवक किसी न किसी तरीके से कोई न कोई नौकरी तलाशने के चक्कर में छोटे-बड़े शहरों से लेकर महानगरों तक किराये के कमरों में खाना बनाते-खाते प्रतियोगिताओं की तैयारी में रात-दिन एक किये हुए हैं. ‘बेरोज़गार’ पैदा करने वाली इस व्यवस्था से अपने लिये नौकरी माँगने वालों की सभी कतारों में बहुत भीड़ है. कन्धे से कन्धे छिले जा रहे हैं. भारी-भरकम घूस और किसी न किसी नेता या अधिकारी की पहुँच की बैसाखियाँ जुटाने की हर तरह की जो भी मुमकिन कोशिशें हो सकती हैं, वैसी सभी तरह की कोशिशें जारी हैं. चपरासी की नौकरी का भी रेट सात लाख के घूस तक पहुँच चुका है. और नौकरी है कि सबको मयस्सर है ही नहीं. केवल एक प्रतिशत को सरकारी और केवल दस प्रतिशत को प्राइवेट नौकरी मिल सकती है. शेष नब्बे प्रतिशत युवा नौकरी की दौड़ से असफल करार दिये जाने के बाद छाँट कर वापस लौटा दिये जाते हैं. 

असफलता का कलंक अपने माथे पर लिये महानगरों से वापस घर लौटने वाले या फिर उसी महानगर में किसी तरह से जीने का जुगाड़ भिड़ाने के चक्कर में जूझने वाले युवाओं के सामने हरदम अर्धबेरोज़गारी की परिस्थिति बनी रहती है. तब वे कोई न कोई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करके या फिर ट्यूशन करते हुए या प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर पढ़ाते हुए या कोचिंग चलाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था किसी भी तरह चलाते रहने को विवश हो जाते हैं. एक तरफ़ उनकी उम्र अधिक हो चुकी होती है, तो दूसरी तरफ़ उनको अब और फाइनेंस करने के लिये परिवार के लोग तैयार नहीं हो पाते. उनकी अपनी ख़ुद की पारिवारिक ज़िम्मेदारी भी बढ़ चुकी होती है. 

एक ओर तो ऐसे युवकों का या तो समूची व्यवस्था से मोहभंग हो चुका होता है, या अभी भी उनके अधूरे सपने उनका पीछा करते रहते हैं. कई बार वे अपनी असफलता के लिये अपने आप को ही अक्षम मान लेते हैं, ख़ुद को ही कोसने लगते हैं और ख़ुद को ही अपराधी मान बैठते हैं. उनको अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं सूझता है. क्या ऐसे हताश अवसादग्रस्त युवकों को आपने नहीं देखा है ! अगर हममें से किसी को उनको यह समझाना है कि क्रान्ति क्या है, तो क्या केवल मोटी-मोटी पोथी पढ़ने से या लम्बी-लम्बी लन्तरानियाँ हाँकने से ही हमारी बात उनको इस तरह समझ में आ जायेगी कि वे क्रान्ति करने को ही अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लें. उनके सामने तो रोटी का संकट है. तो फिर उनको क्रान्ति के बारे में समझाने का सही तरीका क्या है !

और दूसरी ओर वे युवक हैं, जो प्रतियोगिता की तैयारी में हर तरह से हलकान हो रहे हैं, जिनके दिमाग में अभी भी सतरंगे सपने ठूँस-ठूँस कर भरे हुए हैं और जो यह मानते हैं कि बस एक अदद नौकरी मिलने भर की देर है कि ज़िन्दगी की सारी परेशानियाँ दूर हो जायेंगी और ज़िन्दगी हर तरह से सुरक्षित हो जायेगी ! वे भला क्यों और कैसे क्रान्ति के सपने देखने तक पहुँच सकते हैं !

अच्छा चलिए, मान लिया कि ये और वे सभी के सभी आपकी ‘बात’ समझ गये और क्रान्ति करने के लिये तैयार भी हो गये, तो उनको आप क्या करने के लिये कहेंगे ! यह कहेंगे कि घर छोड़ दो ! झोला उठा लो ! देखो, हम लगातार क्रान्तिकारी किताबें छाप रहे हैं, तुम घूम-घूम कर हमारे द्वारा छापी गयी क्रान्तिकारी किताबें बेचो ! लोगों के बीच जाकर क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार करो ! संगठन बनाओ ! जब वे पूछेंगे कि जियेंगे कैसे, खायेंगे क्या और खर्च करने के लिये पैसे कहाँ से पायेंगे, तो आप क्या कहेंगे ! समाज में जो लोग किसी तरह से अपनी रोटी जुटा रहे हैं, उनके ही मत्थे यह भी खर्च मढ़ने के अलावा कोई और रास्ता है क्या आपके पास ! फिर तो सारे ही बेरोजगारों के लिये ‘क्रान्ति का रोज़गार’ सुनहरा विकल्प बन जाना चाहिए और सारे बेरोजगारों को क्रान्तिकारी ही बन जाना चाहिए. मगर ऐसा भी नहीं हो पा रहा है. क्यों ! क्योंकि साफ़ है कि क्रान्ति बेरोजगारों की बेरोज़गारी दूर करने वाला विकल्प नहीं बन सकती है.

फिर भी चलिए, यह भी मान लेते हैं कि यह समस्या भी आपने किसी तरह हल कर ली और आपका क्रान्तिकारी संगठन बन गया. बना ही है. तरह-तरह के संगठन बहुत पहले से ही बने हुए हैं. अभी तक पूरे देश की एक क्रान्तिकारी पार्टी नहीं बन सकी, तो क्या हुआ ! अनेक लोगों द्वारा स्वघोषित अनेक क्रान्तिकारी ‘पार्टी’ भी बनी-बनायी है. चलिए, क्रान्तिकारी संगठन और क्रान्तिकारी पार्टी बन गयी, तो अब क्या करना होगा ! अब भी दो रास्ते हैं. पहला रास्ता है बन्दूक का रास्ता क्योंकि महान माओ ने कहा था कि “राज-सत्ता का जन्म बन्दूक की नली से होता है” ! इसलिये बन्दूक का रास्ता चुनने वाली माओवादी पार्टी के लोगों के रास्ते पर अगर जाना है, तो कम से कम एक बन्दूक तो उठाना ही होगा. और जब बन्दूक उठाने तक बात पहुँच ही गयी, तो गोली भी चलेगी ही और हत्याएँ भी होंगी ही. तो क्या ताबड़तोड़ गोली चलाना और दनादन हत्याएँ करना ‘क्रान्ति’ है ! नहीं न ! 

तो फिर क्या रास्ता है ! है, अभी एक और भी रास्ता बचा है और वह दूसरा रास्ता है चुनाव लड़ना और संसद और विधानसभा में पहुँच जाना और ‘क्रान्तिकारी’ सरकार बना लेना और सत्ता चलाना. तो क्या सी.पी.आई. और सी.पी.एम. चुनाव लड़ कर संसद में जा कर सरकार चला कर ‘क्रान्ति’ नहीं कर चुकीं ! क्या ‘माले’ भी चुनाव के मैदान में अपने को हर तरह से नहीं आजमा चुकी ! अरे आख़िर इस रास्ते से भी क्या हुआ ! ‘सरकार’ तो बन भी गयी और टूट भी गयी मगर यह आदमखोर ‘व्यवस्था’ फिर भी क्यों नहीं बदल सकी ! 

तो फिर सोचना तो पड़ेगा ही कि ऐसी विकट परिस्थिति में वास्तव में ‘क्रान्ति’ क्या है ! क्या किया जाये कि यह व्यवस्था बदल सके ! यह प्रश्न ही आज का सबसे विकट प्रश्न है और इसका उत्तर देना ही हम सब क्रान्तिकारियों का युगजन्य दायित्व. क्रान्ति को अनेक क्रान्तिकारियों ने परिभाषित किया है. उनमें से माओ की परिभाषा सबसे अधिक लोकप्रिय है. माओ का कहना है – “क्रान्ति कोई प्रीतिभोज नहीं है और न ही निबन्ध-लेखन या चित्रकारी, कढ़ाई, बुनाई. यह इतनी परिष्कृत, आरामदेह, भली, सहनशील, दयालु, संयत, उदार, विनम्र और कोमल नहीं हो सकती. क्रान्ति एक विद्रोह है, एक हिंसक कार्यवाही है, जिसके द्वारा एक वर्ग दूसरे वर्ग की सत्ता को समाप्त कर देता है.” (“हुनान में किसान आन्दोलन की जाँच पर रिपोर्ट” मार्च 1927, संकलित रचनाएँ, खण्ड-एक, पृष्ठ - 28)

तो अब तो माओ के शब्दों में रट्टू तोते की तरह आपने यह भी बता दिया कि क्रान्ति क्या है. मगर इसे करने के लिये करना क्या है ! क्या वही जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में किया था ! क्या लेनिन के समय के रूस और माओ के समय के चीन जैसी ही आज भी दुनिया बनी हुई है ! नहीं न ! 2014 की दुनिया अब वैसी ही तो बिलकुल भी नहीं है, जैसी तब की यानि कि 1917 या 1949 की दुनिया हुआ करती थी. तब से अब तक दुनिया बहुत अधिक बदल चुकी है. 

इस बदली हुई दुनिया में क्रान्ति करने के लिये केवल रूस या चीन की क्रान्ति का अन्धानुकरण करना ही पर्याप्त नहीं हो सकता है. इसके लिये हमें कुछ और सोचना होगा, कुछ और करना होगा. तो वह ‘और’ क्या है ! यह हम तभी बता सकेंगे, जब पहले ख़ुद सटीक रूप से यह समझ सकें कि क्रान्ति का मतलब क्या है. परन्तु हमने तो ‘क्रान्ति’ का मतलब पूरी तरह से अभी तक समझा ही नहीं है. हमने तो अभी तक केवल पिछली पीढ़ियों के सफल-विफल क्रान्तिकारियों का अन्धानुकरण करना और उनके बड़े-बड़े नाम लेकर और उनकी किताबों से कठिन-कठिन उद्धरण रट कर और उनको दोहरा कर अबोध लोगों पर अपना रुआब ग़ालिब करना ही सीखा है. हम केवल इतना भर ही समझ सके हैं कि किताबें और पत्रिकाएँ छापना और उनको बेचना क्रान्ति है, छोटी-बड़ी मीटिंगें और जन-सभाएँ करना क्रान्ति है, नाटक करना और गीत गाना क्रान्ति है, नारे लगाना और जुलूस निकालना क्रान्ति है, चुनाव लड़ना और सरकार बनाना क्रान्ति है, बन्दूक उठाना और गोली चलाना क्रान्ति है ! 

हम समझते हैं कि जब क्रान्ति हो जायेगी, तो हमारी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. मगर क्रान्ति कब और कैसे हो जायेगी – इसके बारे में बताने के लिये हमारे पास कोई स्पष्ट समझ और ठोस दृष्टि नहीं है. तो लोगों का यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि चलिए ठीक है, जब क्रान्ति हो जायेगी, तो बहुत अच्छा हो जायेगा. परन्तु जब तक क्रान्ति नहीं हो रही है, तब तक क्या कोई राहत देने वाला मरहम नहीं है ! और फिर ‘क्रान्ति’ हो जायेगी यानी कि क्या हो जायेगा ! 

हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था ने दुनिया में सामन्तवादी व्यवस्था को परास्त करके अपना शासन आरम्भ किया. ऐसा इसीलिये मुमकिन हो सका क्योंकि उसने सामन्तवाद से बेहतर विकल्प गढ़ा और लोगों ने उसे अपने लिये उपयोगी पा कर स्वीकार किया. हम जिस व्यवस्था में जीने के लिये विवश हैं, उसकी सारी सीमाओं को पूरी तरह जानने-समझने के बावज़ूद हम क्यों उसी को झेलते चले जा रहे हैं. केवल इसलिये ही हम इस व्यवस्था की सारी विसंगतियों को झेल रहे हैं क्योंकि हमारे पास इसका कोई विकल्प नहीं है. 

तो अन्ततोगत्वा प्रश्न मूलतः विकल्प का ही है. विकल्प जो आसानी से सबकी समझ में आ जाये, विकल्प जो हमारे लिये उपयोगी हो, विकल्प जो हमारी ज़िन्दगी को बेहतर बना सके, विकल्प जो अभी तक रूपायित नहीं हुआ हो, विकल्प जिसे लागू करने के लिये कोई हमें बाध्य न करे, विकल्प जिसे आत्मसात करने के लिये लोग ख़ुद ही लालायित हो जायें, वह विकल्प क्या हो सकता है !

हमें क्या किसी ने बिजली और मोटर-साइकिल, ट्रैक्टर और खाद, मोबाइल फोन और कम्प्यूटर, बैंक और ए.टी.एम. का इस्तेमाल करने के लिये बाध्य किया ! क्या हमारे ऊपर टी.वी. और इन्टरनेट का इस्तेमाल करने के लिये किसी के द्वारा दबाव बनाया गया ! नहीं न ! विज्ञान ने इन वस्तुओं का आविष्कार किया, बाज़ार ने इनको उपलब्ध कराया और हम सभी लोगों ने इनको अपने लिये उपयोगी पाया, तो ही जाकर हमने ख़ुद-ब-ख़ुद इनको अपने लिये जुटा लिया और इनका प्रयोग करना सीखने की कोशिश की और अब सफलतापूर्वक इन सब का प्रयोग सभी लोग कर रहे हैं. सार-संकलन करने पर इससे हमारी यही समझ बनती है कि जिस भी वैकल्पिक चीज़ को लोग अपने लिये उपयोगी पाते हैं और पहले से उपलब्ध चीज़ से बेहतर समझते हैं, उसे स्वयमेव ही स्वीकार कर लेते हैं.

अपनी समस्याओं के समाधान के लिये बेहतर विकल्प के बारे में सोचना आरम्भ करते ही हमें यह सोचना पड़ता है कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं. हमारी ख़ुद अपनी और दूसरे सब लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिये हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं - सबके लिये सुलभ बेहतर रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन. इसका मतलब यह है कि हमें जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा सफल विकल्प खोजना होगा, जो वर्तमान पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में उपलब्ध रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन के साधनों में निहित विसंगतियों का समाधान दे सके और सबके लिये सहज-सुलभ हो. और हाँ, ध्यान रहे कि यह सारी खोज केवल और केवल रचनात्मक प्रयोगों के माध्यम से ही मुमकिन है. 

प्रयोग तो प्रयोग है. वह विफल हो सकता है, तो सफल भी हो ही सकता है. और जैसे ही हममें से किसी ने भी जनदिशा लागू करने की कोशिश में ‘मॉडल’ खड़ा करने का कोई भी रचनात्मक प्रयोग सफलतापूर्वक कर लिया, वैसे ही निश्चित तौर पर दूसरे सभी लोग भी उस मॉडल को अपनाने के लिये पहलकदमी करेंगे ही. इसके लिये पूरे धैर्य के साथ हमें सोचना और प्रयास करना ही होगा. क्योंकि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने कहा था – “क्रान्ति केवल बम और पिस्तौल का नाम नहीं है. क्रान्ति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है.” जन-सामान्य के सभी जनविरोधी परम्परागत तथा यथास्थितिवादी विचारों को बदलने और उनकी जगह नये जनपक्षधर विचारों को मूर्तमान करने के लिये हमें अतीत के सभी क्रान्तिकारी प्रयोगों से अपने प्रयोग के लिये केवल और केवल प्रेरणा भर ही मिल सकती है क्योंकि शास्त्रीय क्रान्तिकारी साहित्य में हर जगह केवल इतना-सा ही मार्गदर्शन मयस्सर है – “ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करो, ठोस तरीके से सोच कर ठोस लाइन लागू करो !”. 

इस रूप में क्रान्ति मानवता को मुक्त करने का नाम है, सारी समस्याओं को दूर करने का नाम है, जीवन को बेहतर और आरामदेह बनाने का नाम है, पुरानी सड़ी-गली दुनिया को ध्वस्त करने का नाम है, एक नयी दुनिया का निर्माण करने का नाम है, एक नया ज़माना लाने का नाम है, एक नया इन्सान गढ़ने का नाम है, एक नया प्रयोग करने का नाम है, एक नूतन रचना करने का नाम है, एक सर्वस्वीकार्य विकल्प को रूपायित कर देने का नाम है ! क्रान्ति सृजन का नाम है ! और यह सृजन कदापि असम्भव नहीं है. यह निश्चित तौर पर सम्भव है और अवश्यम्भावी भी !! 

इन्कलाब – ज़िन्दाबाद !!!
ढेर सारे प्यार के साथ – आपका गिरिजेश 
(22.2.14.)

8 comments:

  1. Bhuvan Joshi - a communist is communist not because he favours workers/working class. he is communist because he is social scientist & sees that future of human society is communism & working class is its changing force. unfortunately this thing has been forgotten.
    February 22

    Raju Chauhan - Inklab Jindabad...

    Ashok Kumar Sharma - A wonderful post. Makes one think seriously.

    Girijesh Tiwari - comrade Ashok Kumar Sharma ji, thank you very much. while drafting it, i was afraid that it is going to irritate many of my friends.

    Awadhesh Dubey - युवा क्या करे...?
    यह ज्वलन्त प्रश्न है कि कोई भी युवक करे तो क्या करे ! और फिर जब हम अपने चारों ओर नज़र दौड़ाते हैं, तो पाते हैं कि अधिकतम युवक किसी न किसी तरीके से कोई न कोई नौकरी तलाशने के चक्कर में छोटे-बड़े शहरों से लेकर महानगरों तक किराये के कमरों में खाना बनाते-खाते प्रतियोगिताओं की तैयारी में रात-दिन एक किये हुए हैं.

    Ugra Nath - क्षमा याचना सहित कहना चाहूँगा कि मैं किसी क्रांति का प्रत्यक्ष दर्शी नहीं रहा , न क्रांति के उद्धरणों का कोई जखीरा है मेरे पास । लेकिन मैं एक बात जानता हूँ कि क्रांति तो वही होगी जिसमें सर्वजन शामिल हों । इस आधार पर मैं भी उसमे शामिल ही हूँगा । और तब क्रांति अनुपस्थिति अथवा असफलता का कारण मैं यह समझता हूँ कि इसमें क्रन्तिकारी स्वयं शामिल / संलग्न नहीं करता । वह नेता बनता / ( भारत में ) बनना चाहता है और परिवर्तन के सारे काम दूसरों डालता / आरोपित करता है । अब बिना स्वयं को बदले तो कुछ होने वाला नहीं है । और लोग इसी अपने को छोड़ देते हैं । कहा भी गया है न - हर बदलाव अपने आप से शुरू होता है । इस हिसाब से मैं पाता हूँ कि मैं एक क्रन्तिकारी हूँ । सतत अपने आप में । और मैं कभी निराश नहीं होता । न किसी " आप " के पीछे भागता । मेरे आईने में मुझेकोई क्रन्तिकारी दिखता ही नहीं । धन्यवाद कि आपने मुझे पोस्ट पढ़ाने काबिल समझा.

    Shamshad Elahee Shams - will come back soon, Comrade..

    Misir Arun - सर्वहारा वर्ग को शामिल किये बगैर किसी भी क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकती | मध्य वर्ग की भूमिका है कि वह सर्वहारा वर्ग को वैचारिक रूप से तैयार करे ,उसे अपनी चौतरफा लूट के प्रति जागरूक करे | इसके लिए मध्यवर्ग से बुद्धजीवियों को संगठित करने और उनको सर्वहारा वर्ग से जुड़ने के लिए तैयार करना होगा ताकि वे अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन कर सकें | यहाँ यह भी कहना अपना औचित्य रखता है कि मौजूदा कम्युनिस्ट पार्टियों के ढुलमुल रवैये के बावजूद हम उनकी पूरी तरह से उपेक्षा नहीं कर सकते,और हमें उन्हें भी पूरी शक्ति से सक्रिय करने में अपनी भूमिका का दखल तय करना होगा |

    Mrityunjay Singh - atulaniy ...

    Hanumant Sharma - क्रान्ति केवल बम और पिस्तौल का नाम नहीं है. क्रान्ति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है..... बहुत सी धुंध साफ़ करती हुई पोस्ट ...गिरजेश जी

    Rahul Chauhan - "यह लेख हर बुद्धिजीवी को अवश्य ही पढ़ना चाहिए.....
    गिरिजेशजी बहुत आभारी हु आपके इस लेख का....मै सदा अपने वामपंथी मित्रो से कहता रहा हु....की आज जरुरत है एक ऐसी क्रांति-व्यवस्था की जो पूर्णतः सम -सामयिक हो ....आज के ज़माने से ताल-मेल बैठाये....जिसमे पूंजीवाद,समाजवाद,मार्क्सवाद का बेहद सटीक संतुलन के साथ नव ठोस विचार हो....रास्ता हो....आपने आज तक के सभी 'वादो' पर सटीकतम और कई लोगो के दिल की बात को आवाज दी है......पुनः धन्यवाद... "

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  2. Manoj Kumar - KHICHADI BANA NE KI SOCH RHE HO KYA RAHUL G
    GIRISH G mao ke ek quetation se aapne mao ko samajh liya man gaye aap ko , aap mahan ho mao ka baki sahitya padho phir mao ka crotic rakhna
    girish g aap ki krantikari gattividhi kya h ?

    Girijesh Tiwari - Manoj Kumar जी, आपकी टिप्पड़ी से लगता है कि आपके अलावा माओ का साहित्य किसी और तक पहुँचा ही नहीं. आपकी सूचना के लिये इतना बताना अनुचित नहीं होगा कि खाकसार ने माओ को पूरा पढ़ा भी है, उनके बारे में लिखा भी है और उनको छापा भी है. बेचने के लिये नहीं बाँटने के लिये. यह लिंक देखें, इसे पढ़ें और अपनी भी समझ माओ के बारे में बनायें. मैं भी आपके प्रति आभारी ही होऊँगा.
    http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/09/blog-post_7.html

    YOUNG AZAMGARH: "माओ त्से तुंग महान थे क्योंकि..." -गिरिजेश
    young-azamgarh.blogspot.com

    Manoj Kumar - to aapne mao ko ek line me define kiya ?

    Girijesh Tiwari - और रही मेरी गतिविधि की बात, तो अभी शायद आप इसके बताने के लिये सुपात्र नहीं प्रतीत हो रहे हैं. फिर भी जान लें कि एक प्रचारकर्ता की जो भी गतिविधि मुमकिन है, वह सब मेरी गतिविधियों में शामिल रहा है.

    Manoj Kumar - dusri baat ki maine aapse yah bhi poochha tha ki aapki krantikaari gattividhi kya h ?

    Girijesh Tiwari - कृपया पढ़ने से पहले टिप्पड़ी करने की आतुरता से बचिए. पढ़े बिना केवल बडबडाना अनुचित है.

    Manoj Kumar - aapne koi jawab nhi diya ....
    janab maine poora padha h aapne mao ki ek line jis par har koi burgois attack karta h wahi aap kar rhe ho
    aapki kranti kari gattiwidhi kya h ?

    Girijesh Tiwari - हे विद्वान्, अभी तो मैंने आपको इस लेख का लिंक दिया और आप कह रहे हैं कि पूरा पढ़ चुके. अब ऐसे में मैं क्या बताऊँ ! आप मेरे सार-संकलन को पुष्ट करते जा रहे हैं कि आप मेरी गतिविधियों की विविधता को समझ पाने के लिये सुपात्र नहीं है, फिर भी मेरे बताने के बाद दोहरा-तेहरा कर पूछेंगे, तो मैं आपको क्या बता सकूँगा ! .

    Manoj Kumar - janab maine aapka post padha tha na ki jo link diya tha uppar post me aapne mao ko ek line me define kiya h jo burjawa log karte h
    supatrata kya h ? chalo ye bhi bta do baki logo ko to patta chalna chahiye ki aap itne mahan krantikari h aur aapki ye krantikari gattividhiyan h

    Jp Narela - डा. तुमने तो पूरा पोथा ही लिख दिया .

    Girijesh Tiwari - मित्र j.p., 'पोथी पाँड़े' छाप ढपोरशंखी 'क्रान्तिकारियों' को समझाने के लिये शायद मेरा यह 'पोथा' भी असफल ही होगा. वैसे चुपचाप काम करने वाले सभी लोगों को बड़ी आसानी से पूरी तरह समझ में आ चुका है.

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  3. Satya Narayan - गिरिजेशजी तिवारी ने बहुत धांसु लेख लिखा है, क्रान्ति क्या होती है, कौन क्रान्तिकारी होता है आदि आदि समझाया है। ये भी बताया है कि क्यास किया जाना चाहिए। पर थोड़ी सी दिक्कात यही है कि इस क्रान्ति को आगे बढाने के लिए जो परियोजना वे खुद चला रहे हैं वो क्रान्ति के लिए सिर्फ और सिर्फ नुकसानदायक ही है। इनकी उस क्रान्तिकारी परियोजना का नाम है 'व्येक्तित्वह विकास परियोजना'। इस परियोजना में वो क्या करते हैं वो इस परियोजना के परिचय से ही स्पयष्टक हो जाता है। इस योजना का ध्ये य वाक्य है ' आज़मगढ़ के तरुणों को विभिन्न व्यावसायिक संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं तथा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली तैयारी में सहयोग देने के लिये यह परियोजना चलायी जा रही है।'
    अब समझा जा सकता है उनके इस सबसे महत्व्पूर्ण राजनीतिक प्रक्रम से कैसे ''क्रान्तिकारी'' निकलते हैं। थोड़ा और तफसील से समझने के लिए नीचे लिंक में दिया गया लेख पढिये और सोचिये एक घनघोर प्रतिक्रान्तिकारी परियोजना चलाने वाला व्यओक्त्िाी आखिर क्यों लोगों को ये बता रहा है ''व्यवस्था-परिवर्तन : विकल्प का सवाल अर्थात् ‘क्रान्ति’ क्या है ! ''
    (https://www.facebook.com/notes/kavita-krishnapallavi/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B2-%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9B%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82/615704685151743)
    'व्य9क्तित्व%-विकास का गुरुकुल' यानी 'अच्छेE कम्युतनिस्टक कैसे बनें!'
    --कविता कृष्णBपल्लEवी इन दिनों ब्लॉ8गों और फेसबुकों से बहुत सारी नयी-नयी सूचना...See More
    By: Kavita Krishnapallavi

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  4. Girijesh Tiwari वर्षों पहले मैनहोल में मैं ख़ुद अपने साथी शिक्षकों और अपने बच्चों के साथ घुसा था. वह हमारे 'राहुल सांकृत्यायन जन इण्टर कालेज' की लैट्रिन की टंकी थी. तेरह फुट- दस फुट की. उसे भर जाने के बाद खाली करना था. जब सफाई-कर्मियों ने पूरी तरह से तल्लीझार सफाई करने से इन्कार कर दिया था, तब मुझे अपना हाथ लगाना पड़ा था. उसके अन्दर भरी गैस के निकलते रहने के चलते होने वाले सफोकेशन और सिरदर्द की वजह से और चक्कर आने पर बाँस के सहारे बारी-बारी से थोड़ी-थोड़ी देर के बाद एक-एक करके सभी लोग उसमें घुसते-निकलते रहे और बाल्टी में रस्सी से भर-भर कर मैला निकालते रहे. अन्त में जब तल्लीझार सफाई हो गयी, तो सब लोगों को नहा कर घर जाने को मिला...

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  5. Yash Sharma - "दोस्तों मेरा ये लेख मेरे प्रिय मित्र गिरजेश जी के लेख 'विकल्प का सवाल ;अर्थात क्रांति क्या है ' मैं उनके द्वारा उठाये गए कुछ मूल प्रश्नो से सम्बंधित है जिनके सम्बन्ध मैं मेरी दृष्टि थोड़ी भिन्न है ! साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा की यह लेख केवल मेरी परिकल्पना पर आधारित है यह मेरा कोई अनुभव नहीं है अतः यदि मैं भविष्य में इस नतीजे पर पहुंचा या मुझे अनुभव हुआ की मेरी परिकल्पना सत्य थी तो मैं आपको जरूर बताऊंगा पर मेरा अनुरोध है की इसे अनुभूतिक सत्य न मानकर केवल परिकल्पना के तौर पर स्वीकार करें जब तक की सत्य का आपको आत्म अनुभव न हो !
    अगर मैं सही समझा हूँ तो मेरे प्रिय मित्र गिरजेश ने इस लेख मैं मार्क्सवाद को स्वीकार तो किया है और मार्क्स की क्रांति की परिभाषा के आधार पर रूस और चीन मैं हुई हिंसात्मक क्रांति को समस्या के समाधान के तौर पर नाकारा नहीं है अपितु वर्तमान परिपेक्ष में विश्व मैं वही पुराने ढर्रे पर क्रांति लाने के प्रयासों को सार्थक नहीं माना है !गिरिजेश जी के अनुसार सामंतवादी व्यवस्था को लोगों ने इसलिए नकार दिया क्यूंकि पूंजीवादी व्यवस्था ने एक नया विकल्प गढा और लोगों ने उसे अपने लिए उपयोगी पाकर स्वीकार कर लिया और अब हमे पूँजीवादी व्यवस्था का एक और विकल्प देना होगा जो ज्यादा रचनात्मक हो और लोग जिसे अपने लिए उपयोगी मानकर स्वीकार करे ! उनके अनुसार यह विकल्प का सवाल ही असल में क्रांति का सही तरीका है !
    यहाँ पर मेरा एक बुनियादी सवाल है ! क्या पूंजीवादी व्यवस्था सामंतवादी व्यवस्था की तुलना में अधिक रचनात्मक सुविधापूर्ण और नवीन नहीं थी ?जवाव है हाँ थी ! पर क्या पूंजीवादी व्यवस्था के द्वारा हम हमारी सारी समस्याओं से मुक्त हो सके , क्या पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में क्रांति के द्वारा मानवता मुक्त हो सकी , पुरानी सडी-गली दुनिया नष्ट हो सकी , क्या नया जमाना आया , क्या नया इंसान गढ़ा गया ? शायद नहीं ! पर क्यों नहीं! हमने नयी व्यवस्था को तो गढ़ा था ऐसा क्या हो गया की वही पुरानी समस्यांएं फिर हमारे सामने हैं पहले भी कहीं अधिक विकराल , भयानक , और डरावनी !अब इस बात की क्या गारंटी है की नई वैकल्पिक व्यवस्था स्वीकार कर लेने के बाद से सारी समस्याएँ वापस और अधिक विकराल रूप मैं नहीं आएँगी ! पहले हमने क्या गलती के थी ये सोचने का विषय है !
    अब थोड़ा मार्क्सवाद के बारे मैं चिंत्तन करते हैं ! मार्क्स के अनुसार क्रांति का कारण गैर बराबरी है ! मार्क्स की परिभाषा के अनुसार जब समाज मैं गैर बराबरी हो जाती है तो दबे कुचले लोगों का अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जरुरत से अधिक संसाधनो से सम्पंन लोगों से संघर्ष ही क्रांति है ! जैसे की चीन मैं माओ की क्रांति और रूस मैं लेनिन और स्टालिन के नेतृत्व में संघर्ष ! पर मार्क्स की परिभाषा के अनुसार क्रांति घटित होने के बाद भी क्या रूस और चीन अनंत काल के लिए सुखी हो सके ?क्या अनंतकाल के लिए समाजवाद आ गया ?शायद नहीं ! पर क्यों नहीं ? ये गहरे चिंतन का विषय है !

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  6. 2 Yash Sharma - शेषांश
    अब वर्तमान परिपेक्ष में ही देखे !ऐसा नहीं है की मार्क्स की परिभाषा के अनुसार क्रांति के प्रयोग आज नहीं हो रहे १ नक्सलवादी , माओवादी , जेहादी आंदोलन सभी मार्क्स की क्रांति की परिभाषा की ही उपज हैं ! अच्छा अब माओ को ही ले ! माओ कहता था की सत्ता तो बन्दूक की गोली से निकलती है और हिंसा के बिना सत्ता प्राप्त नहीं हो सकती!पर क्या ऐसा वाकई है ?क्यूंकि अगर ये बात सही है तो जंगलों में आज भी नक्सलवादी, माओवादी जिन्दा कैसे हैं और सरकार का उन क्षैत्रों पर अधिकार अभी तक क्यों नहीं है क्यूंकि गोली और बन्दूक तो सरकारी तंत्र के पास इन तथाकथित क्रांतिकारिओं से कहीं ज्यादा हैं !ये सोचने का विषय है ! मेरे विचार में वो अभी तक जिन्दा हैं तो उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के कारण जो सरकार पर हिंसात्मक कारवाही न करने और सेना को वह न भेजने का दवाव लगातार बनाये रख रहे है साथ ही उनकी बातों मैं कुछ सच भी है जिसके कारण लोगों की उनके प्रति सहानभूति है !
    मेरे विचार मैं सता सत्य से निकलती है न की बन्दूक की गोली से !हिंसा किसी भी मायने मैं सही नहीं और हिंसा कोई हल नहीं मार्क्स, माओ ,लेनिन ,स्टालिन चाहे कुछ भी कहे !
    तो फिर से वही सवाल वही प्रश्न उठता है क्रांति क्या है क्यूंकि मार्क्स की परिभाषा तो हिंसा को भी स्वीकरोति प्रदान करती है और हिंसा किसी मायने में सही नहीं है और रचनात्मक नहीं हो सकती ! और कभी भी इतिहास के किसी भी काल खंड में विकल्प नहीं दे सकती !

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  7. 3 Yash Sharma - शेषांश :
    साथ ही ये प्रश्न भी उठता है जो की मेरे मित्र गिरिजेश ने अपने लेख में लिखा की 'वह कोंन सी वजह है , जिसके चलते इस देश में अनेक जन उभारों का प्रेरक और साक्षी होने पर भी अभी तक हमारे क्रन्तिकारी आंदोलन को निर्णायक परिवर्तन कारी सफलता नहीं मिल सकी !'उत्तर कही प्राचीन भारत के इतिहास मैं छिपा है !
    जब सम्राट अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया पूरी सेना को मारने के बाद भी वहाँ बगावत नहीं थमी !अशोक ने पाया की वहाँ की जनता उसे राजा नहीं मानती और अगर वो सारी प्रजा को मार देता है तो भी भी वो राजा नहीं बन सकता क्यूंकि प्रजा के मर जाने के बाद फिर वो राज किसपर करेगा !इतिहासविद कहते हैं की ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि कलिंग में लोकतंत्र था ! एक राजा की सत्ता को छोड़कर दूसरे राजा को स्वीकार कर लेना कोई नयी बात नहीं है पर अपनी आजादी को छोड़कर गुलामी स्वीकारने की अपेक्षा लोग मर जाना पसंद करते है ! परन्तु कहने को तो लोकतंत्र आज भी है पर आज क्या हम गुलामी में नहीं जी रहे फिर हम संघर्ष क्यों नहीं करते हमने गुलामी क्यों स्वीकार कर रखी है !कलिंग के लोकतंत्र और आज के लोकतंत्र में क्या अंतर था ! जवाव है "स्वराज "!
    कलिंग में उस समय बुद्ध का प्रभाव था ' बुद्ध कहते थे ' आत्म दीपो भव ' अर्थात अपने दिए खुद बनो !किसी मार्क्स की ,किसी लेनिन की ,किसी माओ की क्रांति की परिभाषा को रटो मत !अपने अंदर झांक के देखो तुम क्यों गरीब हो ,तुम क्यों अमीर हो !क्या कमी है तुम में ! तुम क्यों पीड़ित हो ,क्यों प्रताड़ित हो !कहि अपने कस्टो का कारण तुम खुद ही तो नहीं !क्यों तुमने बार बार स्वार्थवश अपने अंदर परिवर्तन करने की अपेक्षा एक नयी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया ! हर बार नई व्यवस्था को स्वीकार कर लेने का कारण समाज सुधार नहीं समाज का निहित स्वार्थ था !तुम्हारी कोई समस्या नहीं तुम खुद ही एक समस्या हो ! तुमने अपने क्रोध को नहीं जीता ,तुमने अपने काम को नहीं जीता तुम्हारा अभी स्वयं पर राज नहीं है तुम्हे अभी 'स्वराज' प्राप्त नहीं है !व्यवस्था का दोष नहीं है दोष तुम्हारा है ! व्यवस्था भाषा ,काल ,विज्ञान और भौतिक परिस्थिति के आधार पर बदलती रहती है और सुविधानुसार बदलनी भी चाहिए ! परन्तु हल व्यवस्था के बदलने में नहीं इंसान के बदलने में छिपा है !
    स्वराज के इसी नारे को आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी ने फिर बुलंद किया ! गांधी का जोर कभी भी व्यवस्था परिवर्तन पर नहीं रहा ! गांधी ने हमेशा अपने अंदर अहिंसा , अपरिग्रह ,सदाचार; ब्रह्मचरिये ,आदि गुणों को अपनाकर खुद में बदलाव करने की अपील की क्यूंकि उनके अनुसार अग्रेजों ने हमे गुलाम नहीं बनाया बल्कि हमने भी लालच और लोभवश अंग्रेजीयत को स्वीकार किया ! बुद्ध और गांधी के अनुसार स्वराज का अर्थ यहाँ नहीं की "स्वयं का राज " उनके अनुसार स्वराज का अर्थ है "स्वयं पर राज "! असहयोग आंदोलन में गांधी की अपील' गुलामी छोड़ो और आजाद हो जाओ' इस बात का प्रमाण है !
    अब रही बात गिरिजेश जी द्वारा उठाए गए प्रश्न कि क्या कारण है कि अनेक जन उभारो के बाद भी भारत में क्रांतियाँ सफल नहीं हो सकी का जवाव भारत के इतिहास में ही कही छुपा है दरअसल भारत के लोग हिंसा को कभी पूर्णतया स्वीकार नहीं कर सके जिसका कारण यहाँ पर बहुत सी आधात्मिक क्रांतियों का सूत्रपात होना है तथा समय समय पर महवीर ,बुद्ध,गांधी जैसे महापुरुषों का उदय होना है !
    इसी कारण आज के परिपेक्ष में मैं अन्ना आंदोलन को सफल देखता हूँ क्यूंकि व्यवस्था परिवर्तन में शायद नहीं परन्तु व्यक्ति परिवर्तन में यह आंदोलन सफल रहा कई लोगों ने भ्रस्टाचार न करने व भ्रस्टाचार के खिलाफ लड़ने का प्रण जीवन में लिया व अपने जीवन को परिवर्तित किया !अन्ना आंदोलन में भी स्वराज कि खुशबु थी !
    अब फिर से अपने मूल सवाल पर आते हैं! क्रांति क्या है ?गिरिजेश जी कि दृष्टि अनुसार विकल्प का सवाल है, जिसके द्वारा व्यवस्था परिवर्तन ही क्रांति है या फिर कुछ और !
    मेरी द्रष्टि में विकल्प देकर व्यवस्था परिवर्तित कर देना क्रांति नहीं है !क्रांति तो स्वयं के अंदर घटित होने वाली घटना है जिससे आपके जीवन में परिवर्तन आये ! व्यवस्था बदले न बदले आप बदल जाये ! क्रांति का सवाल व्यवस्था का नहीं व्यक्तिगत का है ! मेरे लिए क्रांति का मतलब है "स्वराज"!"
    https://www.facebook.com/groups/yashsharma5feb/permalink/576559249126182/

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  8. Ajay Pundir असहमत..., यश जी आपकी समीक्षा से ..., आप क्रांति को अपनी नज़र से समझ रहे है .., परन्तु वो एक विज्ञान है जो इतिहास ने साबित किया हैं। 19 May 2014

    Yash Sharma अभी विज्ञान पदार्थ तक ही सीमित है .. .इतिहास का सिर्फ विश्लेषण हो सकता है . . .विज्ञान के द्वारा इतिहास में क्या गलत था क्या सही था उसको साबित नहीं किया जा सकता . . .विश्लेषण का अपना अपना दृस्टिकोण हो सकता है 20 May 2014

    Ajay Pundir यश जी सहमत आपसे की विश्लेषण का अपना अपना दृस्टिकोण हो सकता है,, मेरा यह मानना हैं कि भारत के लोग हमेशा शांति प्रिय नहीं रहे हैं , समय और परिस्थिति के अनुसार उन्होंने विकराल रूप भी धारण किया हैं , 1857 का विद्रोह इसी बात को प्रमाणित करता हैं, बात अन्याय की हैं नाकि हिंसा और अहिंसा की और वैसे भी अपनी रक्षा के लिए की गई हिंसा आत्मरक्षा होती हैं क्रांति भी बस यही हैं । 20 May 2014

    Yash Sharma मैंने ये माना की भारत में हिसनात्मक आंदोलन हुए है इस बात से कोई इंकार नहीं!पर भारत के लोग हिंसा को कभी पूर्णतया स्वीकार नहीं कर पाये इसका प्रमाण ये है की 1857 के बाद तथा कांग्रेस में गरम दल के लोकमान्य तिलक , विपिन चन्द्रपाल , लाला लाजपत राय जैसे नेताओं जो की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के तर्ज पर आंदोलन के पक्ष में थे , के होते हुए भी महात्मा गांधी का उदय होना है जिनका तरीका अहिंसा और सत्याग्रह था जिस प्रयोग उन्होंने साउथ अफ्रीका में सफलता पूर्वक किया था और भारत की जनता ने उनमे अपना विश्वास दिखाया!
    प्रथम स्वाधीनता संग्राम मेरी दृस्टि में न्याय की लड़ाई कम अपितु अंग्रेजो पर भारतियों के क्रोध का परिणाम अधिक थी ! क्रोध में मनुष्य अँधा हो जाता है इसका परिणाम है 1857 के स्वाधीनता संग्राम के अंतर्गत मेरठ में हुई हिंसा जिसमे मेरठ छावनी के सैनिकों ने चर्च जला दिया जिसमे सिर्फ अंग्रेज अफसर ही नहीं औरतो और बच्चो को भी नहीं बक्शा गया !मैं नहीं सोचता की औरतो और बच्चो से किसी प्रकार के अन्याय की लड़ाई लड़ी गई !
    क्यूंकि क्रोध क्षणिक होता है इसलिए अंग्रेजो को एक बार हराने के बाद बदला पूरा हो गया और प्रतिशोध की ज्वाला ठंडी हो गई !उसके बाद किसी ने गुलामी के कारण को जानने की कोशिश नहीं की ! किसी ने आत्मविश्लेषण करने की कोशिश नहीं की ! क्योंकि वो विद्रोह आत्म परिवर्तन के लिए नहीं अपितु प्रतिशोध के लिए था !उसके बाद अंग्रेज तो वापस आने ही थे क्यूंकि परिस्थिति जरूर बदल गई थी पर भारतवासी नहीं बदले ! उसके बाद अंग्रेजों ने भी परिस्थिति के अनूसार शासन के तरीके में बदलाव किया और पहले से भी अधिक शोषण किया !

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