Monday 17 August 2015

अटल बिहारी वाजपेयी का अदालत में बयान : इतिहास झुठलाने की राजनीति - शाहनवाज आलम



गद्दार वाजपेयी "भारत रत्न" कैसे?



नरेंद्र मोदी ने दो ब्राह्म्णों को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित मदन मोहन मालवीय को "भारत रत्न" का सम्मान दिया है। पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस में "हिन्दू विश्वविद्यालय" की स्थापना की थी। उन्हें इसका इनाम अब जाकर हिन्दू शासकों ने दिया है। वहीं अटल बिहारी वाजपेयी को संभवतः यह इनाम इसलिए दिया गया है क्योंकि उनके कारण भाजपा संसद में अस्तित्व में आयी। सबसे दिलचस्प यह है कि ये वही अटल बिहारी वाजपेयी हैं जिन्होंने स्वयं इस बात को कबूला है कि उन्होंने वर्ष 1942 में अंग्रेजों की मुखबिरी की। मुखबिरी यानी देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे देशभक्तों के साथ गद्दारी।
वाजपेयी के गद्दार होने की बात वर्ष 1998 में एक अंग्रेजी पत्रिका "फ़्रंटलाइन" ने प्रमाण के साथ प्रकाशित किया था। इस पत्रिका के मुताबिक 1 सितंबर 1942 को वाजपेयी ने एक दंडाधिकारी के समक्ष एक बयान दिया था। इस बयान में वाजपेयी का बयान उर्दू और हस्ताक्षर अंग्रेजी में था। इसके अलावा मजिस्ट्रेट ने अपनी टिप्प्णी अंग्रेजी में लिखा था। उस समय वाजपेयी 16 साल के थे और आरएसएस के सक्रिय सदस्य थे। यह उल्लेखनीय है कि आरएसएस का स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना नहीं था। वह केवल देश में हिन्दूओं को प्रधानता मिले, इसका पक्षधर थी। यहां तक कि वाजपेयी ने भी स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया। फ़्रंटलाइन के संपादक को दिये साक्षात्कार में वाजपेयी ने स्वीकार किया कि 27 अगस्त 1942 को आगरा मे अपने गांव बटेश्वर में एक प्रदर्शन के दौरान वे एक दर्शक की भूमिका में थे।

1 सितंबर 1942 को अटल बिहारी वाजपेयी ने क्लास-2 मजिस्ट्रेट एस हसन के समक्ष अपना बयान दिया था। उनके इसी बयान पर उनके मित्र लीलाधर वाजपेयी को सजा मिली थी। वाजपेयी के जैसे उनके बड़े भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी ने भी देश के साथ गद्दारी की थी। उन्होंने भी समान बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष दिया था। मजिस्ट्रेट ने अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि क्या तुमने किसी हिंसक गतिविधि में भाग लिया है? अपने बयान में तब वाजपेयी ने कहा था कि
मेरा नाम : अटल बिहारी, पित का नाम : गौरी शंकर, मेरी जाति : ब्राह्म्ण, उम्र : 20 वर्ष, पेशा : छात्र, ग्वालियर कालेज, मेरा पता : बटेश्वर, थाना : बाह, जिला , आगरा है।
27 अगस्त 1942 को प्रदर्शनकारी बटेश्वर बाजार में एकजुट हुए थे। तब 2 बजे के करीब ककुआ ऊर्फ़ लीलाधर और महुआन वहां आये और भाषण दिया। भाषण देने के क्रम में इन दोनों ने लोगों को कानून तोड़ने को प्रेरित किया। करीब 200 लोगों ने बटेश्वर में वन विभाग के कार्यालय को घेर लिया। मैं और मेरे भाई दोनों अलग थे। सभी लोग कार्यालय का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस गये। मैं केवल ककुआ और महुआन दो लोगों का नाम जानता हूं और किसी का नहीं। मुझे लगा कि ईंटें गिरने लगी हैं। मैं नहीं जानता कि ईंटें कौन फ़ेंक रहा था लेकिन ईंटें जरुर गिर रही थीं।
यह देखकर मैं और मेरे भाई वहां से निकल मयपुरा की ओर जाने लगे। हमारे पीछे भीड़ थी। उस समय फ़ारेस्ट आफ़िसर के कार्यालय को लोग तोड़ रहे थे। इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी। मैं 100 गज दूर खड़ा था।
अटल बिहारी वाजपेयी के इस बयान को मजिस्ट्रेट एस हसन के समक्ष रिकार्ड किया था। मजिस्ट्रेट ने उनके बयान में अपनी ओर से यह टिप्पणी अंग्रेजी में दर्ज की।

I have explained to Atal Behari son of Gauri Shankar that he is not bound to make a confession and that if he does so, any confession he may make may be used as evidence against him. I believe that this confession was voluntarily made. It was taken in my presence and hearing and was read over to Atal Behari who made it; it was admitted by him to be correct and it contains a full and true account of the statement made by him.

Signed: S. Hassan
Magistrate II Class
1.9.1942.

बहरहाल, इस स्वीकारोक्ति के बावजूद वाजपेयी को महान देशभक्त बताया जा रहा है और उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न" दिया जा रहा है तो यह देश की जनता पर निर्भर करता है कि वह इसे किस रुप में देखती है। एक ब्राह्म्ण गद्दार का सम्मान या फ़िर एक देश की आजादी के लिए अपना जान दांव पर लगाने वाले सेनानियों का अपमान?
http://apnabharat.in/article/131-%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%80-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-.html



लीलाधर वाजपेयी जिनको सज़ा होने का कारण अटल जी का बयान था._________________________

भारत रत्न की मांग और वाजपेयी का 1942 का इकरारनामा
Monday, November 18, 2013, 17:40

तेंडुलकर को भारत रत्न देने के बाद कुछ लोग अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भी यह मांग उठा रहे हैं. पर सोशल मीडिया में वाजपेयी के 1942 के इकरारनामे को शेयर करके उनकी देशभक्ति पर प्रश्न खड़े किये जाने लगे हैं.a href=”http://naukarshahi.in/wp-content/uploads/2013/11/vajpayee.jpg”>

अंग्रेजी हुकूमत की गिरफ्तारी से बचने के लिए वाजपेयी द्वारा दिये गये इकरारनामे को फेसबुक पर शेयर करके उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाया जा रहा है. और पूछा जा रहा है कि वाजपेयी ने जेल से बचने के लिए जो झूठा इकरारनामा दिया, ऐसे में क्या वह भारत रत्न के हकदार हैं? वाजपेयी द्वारा अदालत में पेश उस इकरारनामे का हिंदी अनुवाद पेश है.यह इकरारनामा उर्दू में लिखा गया था.

मेरा नाम:अटल बिहारी
पिता का नाम: गौरी शंकर
आयु: 20 वर्ष
व्यवसाय: छात्र, ग्वालियर कॉलेज
मेरा पता: बटेश्वर, पीएस- बाह,
जिला: आगरा

अदालत द्वारा यह पूछे जाने पर कि, “क्या आप आगजनी की घटना में संलिप्त थे और सरकारी इमारत को क्षति पहुंचायी? आपका इस संबंध में क्या कहना है”? श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस संबंध में अदालत को निम्नलिखित बयान दर्ज कराये.

“27 अगस्त 1942 को बटेश्वर बाजार में आल्हा का कार्यक्रम चल रहा था. लगभग दोपहर 2 बजे काकू उर्फ लीलाधर और माहुअन आल्हा के कार्यक्रम में पहुंचे और इसमें भाषण दिये और लोगों को फॉरेस्ट लॉ तोडने के लिए उकसाया. उसके बाद सैकड़ों लोग फारेस्ट ऑफिस की तरफ बढ़े. मैं भी अपने भाई के साथ भीड़ के पीछे पीछे बटेश्वर स्थित फारेस्ट ऑफिस गया. मैं और मेरा भाई नीचे रह गये और बाकी लोग ऊपर चले गये. काकू और माहुअन के अलावा मैं किसी और आदमी का नाम नहीं जानता, जो वहां थे”.

“मुझे महसूस हुआ कि वहां ईंटें गिर रही हैं. मुझे नहीं पता कि दीवार कौन लोग गिरा रहे थे पर मैं यह निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि दीवार की ईंटे गिर रही थीं”.

“मैं अपने भाई के साथ मियापुर की तरफ जाने लगा और भीड़ हमारे पीछे थी. ऊपर वर्णित लोग जोर जबरदस्ती बकरियों को वहां से भगा दिया और भीड़ बिचकोली की ओर जाने लगी. उस समय फॉरेस्ट ऑफिस में 10-12 लोग थे. मैं 100 गज की दूरी पर था. सरकारी इमारत गिराने में उनकी कोई मदद नहीं की. उसके बाद हम अपने घर चले गये”.

हस्ताक्षर- एस, हसन
हस्ताक्षर- अटल बिहारी वाजपेयी
तिथि- 1.9. 1942
http://naukarshahi.in/archives/9919


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लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत काम करने वाले संगठनों की एक विशेषता यह भी होती है कि वे अपने इतिहास के बलबूते अपने जनाधार और सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने की कोशिश करते हैं। इस दृष्टि से लोकतंत्र में संगठनों का इतिहास उनकी स्वीकार्यता और प्रासंगिकता को तय करने वाला एक बडा कारक होता है। इसीलिये हम देखते हैं कि कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम के अपने गौरवशाली इतिहास से, कम्यूनिष्ट संगठन भगत सिंह और उस आंदोलन के क्रांतिकारी विरासत और समाजवादी संगठन जेपी आंदोलन के इतिहास से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश करते हैं। अगर संगठनों के इस कार्यपध्दति को लोकतांत्रिक व्यवस्था का मानक मान लिया जाये तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसका चुनावी मोर्चा भाजपा कई मायनों में एक लोकतंत्र विरोधी संगठन साबित होते हैं। ऐसा इसलिये कि यह एक मात्र ऐसा अनोखा संगठन है जो लगातार अपने इतिहास को झुठलाने और छुपाने की कोशिश करता है। जिसका ताजा उदाहरण पिछले दिनों लखनउ में संघ प्रमुखमोहन भागवत द्वारा दिया गया बयान है जिसमें उन्होंने लोगों से 6 दिसम्बर की घटना को भूलने की अपील की है। यहां गौरतलब है कि संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का एक बडा हिस्सा सार्वजनिक तौर पर 6 दिसम्बर यानि इस संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद के विध्वंस को भूलने की अपील पहले भी करते रहे हैं।

सवाल उठता है कि जिस बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने संघ और भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति और सत्ता के केंद्र में ला दिया, आखिर वह लोगों से उसे भूल जाने की अपील क्यूं करते हैं? इसका एक सामान्य जवाब तो यह हो सकता है कि चूंकि वह मामला कोर्ट में विचाराधीन था इसलिये बाबरी मस्ज्दि का विध्वंस एक लोकतंत्रविरोधी और आपराधिक कृत्य था। दूसरा चूंकि उस घटना के बाद हुये दंगों में काफी लोग मारे गये और देश की जनता ने इसके लिये संघ और भाजपा को जिम्मेदार माना इसलिये वह उसे भुलाने की अपील कर के जनता की निगाह में स्वयं को भी उस आरोप से मुक्त करना चाहती है। लेकिन चूंकि संघ और भाजपा का अपने इतिहास के किसी महत्वपूण्र तथ्य को जनता से भुला देने की यह कोई पहली अपील नहीं है इसलिये यह सामान्य जवाब संघ परिवार के विशिष्ट चरित्र से जुडे सवालों का जवाब नहीं हो सकता।

मसलन बाबरी मस्जिद की तरह ही संघ परिवार और भाजपा गुजरात 2002 की राज्य सरकार प्रायोजित मुस्लिम विरोधी हिंसा को भी जनता से भूलने की अपील करते रहे हैं। जबकि इस घटना के बाद उत्पन्न हुये साम्प्रदायिक माहौल के बदौलत ही नरेंद्र मोदी आज तक गुजरात के मुख्यमंत्री बने हुये हैं।

जाहिर है जिन आपराधिक कृत्यों से संघ और भाजपा व्यक्तिगत तौर पर फायदे में रहते हों उन्हें सार्वजनिक तौर पर जनता से भूल जाने की अपील करना उसकी रणनीतिक कार्यपध्दति का एक अहम हिस्सा है। लेकिन ऐसा क्यों है?

दरअसल एक विचारधारा के बतौर संघ परिवार दो स्तरों पर काम करता है। पहला, आंतरिक और दूसरा, बाह्य। आंतरिक तौर पर वह एक सामंती और पिछडी चेतना का वाहक संगठन है जिसका उद्येश्य इस आधुनिक दौर में भारत को एक मध्ययुगीन नस्लवादी और अंधधार्मिक राष्ट बनाना है। लेकिन चूंकि उसे एक आधुनिक समय जहां लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक व्यवस्था के मूल आधार हैं, में काम करना पडता है, उसके लिये इस आधुनिक व्यवस्था को सूट करने वाला एक मुखौटा ओढना भी मजबूरी हो जाता है। इसीलिये वो अपनी शाखाओं में 6 दिसम्बर को गौरव दिवस के बतौर मनाता है लेकिन सार्वजनिक तौर पर कभी लाल कृष्ण आडवाणी उसे अपने जीवन का सबसे दुखद दिन बताते हैं तो कभी सरसंघचालक उसे जनता से भूल जाने की अपील करते हैं।

संघ और भाजपा के इस अंतर्विरोधी कार्यपध्दति को समझने की इच्छा रखने वाले किसी भी छात्र के लिए सबसे अच्छा उदाहरण भाजपा नीत राजग सरकार का कार्यकाल हो सकता है। मसलन, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदिपुरूष गोलवलकर की जीवनी प्रकाशित की तो उस पर संसद में काफी सवाल उठे। विपक्ष ने जब गोलवलकर की पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन'के उन हिस्सों पर सरकार का स्टैंड जानना चाहा जिसमें उन्होंने मुसलमानों समेत गैर हिंदुओं से मताधिकार छीन लेने की बात कही थी या हिंदुओं को हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाए से सबक सीख कर भारत के मुसलमानों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करने का आह्वान किया था, तब वाजपेयी सरकार ने जो प्रतिक्रियाएं दीं वह उसके इस कार्यपध्दति का उत्कृष्ट नमूना है। मसलन, पहले सरकार ने सफाइ दी कि यह विचार गोलवलकर के हैं ही नहीं। लेकिन जब विपक्ष ने गोलवलकर की मूल पुस्तक को ही संसद में उध्दृ्त कर दिया तब सरकार ने पैंतरा मारा कि गोलवलकर के नाम से उस पुस्तक को किसी और ने लिखा है। लेकिन जब उसका यह पैंतरा भी पिट गया तब उसने सफाइ दी कि यह गोलवलकर के निजी विचार हैं और भाजपा और राजग सरकार उससे सहमति नहीं रखते। सरकार और भाजपा की यही स्थिति अटल बिहारी वाजपेयी के स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गयी भूमिका के सवाल पर भी देखने को मिली। गौरतलब है कि संघ परिवार,जिसकी स्वतंत्रता आंदोलन में कुल भूमिका द्वितीय विश्व युध्द में अंग्रेजों के लिये चंदा इकठ्ठा करना, साम्प्रदायिक माहौल बना कर आजादी की लडाई को कमजोर करना और मुस्लिम लीग के साथ बंगाल मी साझी सरकार चलाना भर था,ने अटल बिहारी वाजपेयी को अचानक 1942के भारत छोडो आंदोलन से सम्बध्द बता कर स्वतंत्रता सेनानी साबित करने की कोशिश की थी। संघ की तरफ से प्रचारित किया गया कि वे आगरा के बटेश्वर तहसील में हुये ब्रिटिश सरकार विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन के नेता थे। लेकिन जब वरिष्ठ पत्रकार मानिनी चटर्जी ने प्रमाणिक दस्तावेजों के साथ अंग्रेजी पत्रिका फ्रंटलाइन में साबित कर दिया कि सच्चाई ठीक इसके उलट है तो भाजपा अपने घोषित स्टैंड से बैकफुट पर आ गयी। दरअसल हुआ यह कि उक्त पत्रकार ने उन लीलाधर बाजपेयी को ढूंढ निकाला जो उस आंदोलन के नेता थे और जिन्हें अटल बिहारी वाजपेयी और उनके भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी के बयान के चलते तीन साल की सजा हुयी थी। पत्रिका द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों जिसमें वाजपेयी बंधुओं की गवाही और हस्ताक्षर भी थे,पर अटल बिहारी वाजपेयी ने सफाई दी थी कि उस समय वे नाबालिग थे और उन्हें राजनीति की समझ नहीं थी। लेकिन यहां गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी 1939 तक संघ के समर्तित कार्यकर्ता बन चुके थे। और उन्हीं द्वारा संघ के अंग्रेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' में 7 मई 1995 को लिखे एक लेख के मुताबिक वे 1940,1941 और 1942 में संघ कार्यकर्ताओं के सबसे महत्वपूर्ण टेनिंग कैम्प ओटीसी कर चुके थे। जाहिर है अटल बिहारी वाजपेयी ने बचकानेपन के बजाए संघ के उसी सिध्दांत के अनूरूप लीलाधर बाजपेयी के खिलाफ गवाही दी थी जिसके तहत संघ आजादी की लडाई को न सिर्फ कमजोर करने में लगा रहा बल्कि अंग्रेजों की 'बांटो और राज करो'की रणनीति का अलमबरदार भी बना रहा।

जाहिर है, आज अगर संघ परिवार 6 दिसम्बर को भूलने की अपील करता है तो ऐसा किसी अपराधबोध या हृदय परिवर्तन के चलते नहीं बल्कि अपनी रणनीतिक जरूरत के चलते कर रहा है।

शाहनवाज आलम

2 comments:

  1. http://beyondheadlines.in/2014/12/bharat-ratna/

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  2. http://www.frontline.in/static/html/fl1503/15031150.htm

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