Thursday 27 August 2015

युवा मन - समस्याएँ और समाधान : शिष्य-गुरु सम्वाद



अराजक मलंग - गुरुवा के नाम एक पाती
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सुनो गुरुवा!!
आज एक लड़का आया हमरे पास, परेशान था बहुत। छब्बीस साल का वह लड़का अपनी जिन समस्याओं को लगभग एक घण्टे तक बताता रहा मुझे, ऐसा लगा कि अपना ही बचपन फिर से जीते हुए देख रहा हूँ मैं। यह अलग बात है की यह समस्याएं मेरे जीवन में बहुत जल्दी ही उग आई थीं और निश्चित तौर पर अनजाने ही सही लेकिन इनसे उभर पाने में तुम्हारा योगदान मेरे माँ पिता दोस्त या किसी भी अज़ीज़ से कही ज्यादा था। बहरहाल उस लड़के की समस्या और मेरा समाधान दोनों सुन कर अपनी राय जरूर दो............

काहे कि मेरा मार्गदर्शन कर सके ऐसी सामर्थ्य और जिद तुम्हारे अलावा किसी और में नहीं है।
चलो पहले समस्याएं सुनते हैं-----

वह लड़का ज़हीन है लेकिन उसकी ज़ेहनियत ही उसके अवसाद का कारण भी है। निम्न मध्यम वर्ग के ग्रामीण परिवेश से उभर कर वह कस्बाई माहौल में आया जब उसकी मुलाक़ात एक ईमानदार वामपंथी से हुई और अपने ग्रेजुएशन का पूरा समय उसने मार्क्स, लेनिन, फिदेल और गोर्की से लेकर भगत सिंह और यशपाल को पढ़ते हुए बिताया। उसके मन के कमजोर तट पर सामाजिक परिवर्तन की लहरें अपने भरपूर वेग से टकराने लगीं, वर्गरहित समाज की परिकल्पना से अभिभूत लड़का फांसी पाने, गोली खाने या एक स्थिर समाज की रचना में अपनी अभिन्न भूमिका को लेकर अतिशय जागरूक हुआ।

विभिन्न दलों और संगठनो से जुड़ा। पढ़ाई बाधित हुई। और सब जगह से घूम-घाम के वापस आने पर उसे लगा कि वह तो कुछ कर ही नहीं पाया। उसके पास अपने बूढ़े माँ बाप की जिम्मेदारी भी है और एक बेहतर समाज की रचना के क्रम में अपनी भूमिका निर्वाह की इच्छा भी। देश भर के चौदह विश्वविद्यालयों से नकार दिए जाने के बाद, किसी लड़की के लिए दिल में सौम्य सम्वेदनानाएँ होने के बाद भी अपनी निम्नतम स्थिति ने उसे अवसाद के चरम पर पहुंचा दिया है........

वह मुझसे मेरी प्रसन्नता का कारण पूछ रहा था (सुन कर हंसी भी आई काहे की तुम जानते हो इस दुनिया में मुझसे ज्यादा फ्रस्टेटेड व्यक्ति बहुत कम ही हैं)

एक घंटे तक उसको भरपूर चुप्पी साधे सुनने के बाद मुझे लगा कि इस फ्रस्टेशन का कोई कारण है ही नहीं। उसकी समस्या है उसका अपने लक्ष्य के प्रति दिग्भ्रमित होना.......

मैंने उसे जो सुझाव दिए वो ये हैं-
" देखो गुरु! वास्तविकता यह है कि आज वामपंथ के नाम जंगलों में पठारों पर खदानों में मारे जा रहे हरहुवा कतवरुवा वे लोग हैं जो रंगदारी अपहरण या पैसो के आपराधिक लेन-देन का हिस्सा भर हैं, कोई वृंदा करात कभी बंदूक नहीं उठाती....... वे मजदूरों के नाम पर शाब्दिक लफ़्फ़बाजी करती हैं, स्वयंसेवी संस्थाओं के नाम पर अपने घर में दारु की बोतलें सजाती हैं, कोई भी स्थापित मठाधीश हमेशा यही चाहेगा कि उसके पास आवारा लड़कों-लड़कियों का एक ऐसा समूह हो, जो उनकी लखटकिया गोष्ठियों में पानी देने या कुर्सियां ढोने का काम बिना किसी पारिश्रमिक के करे...........

तुम समाज में परिवर्तन लाना चाहते हो, तो इसके लिये सभी साधन तुम्हे समाज से ही जुटाने होंगे......
व्यक्तियों से लेकर बंदूकों और कलमों से लेकर विचारधारा तक कुछ भी तुम अलग से पैदा नहीं कर सकते। तुम्हें चुनना होगा....... खोजना होगा......... इसी अस्थिर समाज को एक परिष्कृत रूप देना होगा।

और समाज की विडम्बना यह है कि यह उगते हुए सूरज को ही अर्ध्य देता है, खिले हुए फूलों को ही सहलाता दुलारता है, भूखे, नाक बहाते, पिछवाड़े पर गू पोते, लगातार रें-रें करते सुन्दर से सुन्दर बच्चे को भी यह खारिज करता है जब की साफ़ सुथरे मुस्कुराते बच्चे को गोद में बहुत आत्मीयता से जगह देकर बोलता है - हाऊ क्यूट

रिश्ता चाहे जो भी हो, हमेशा 'गिव & टेक' का होता है। अगर आपके पास समाज को कुछ देने की सामर्थ्य है, तभी आप समाज से कुछ पाने यहाँ तक कि अपनी बात कहने का अधिकार रखते हैं।

मैंने उसे समझाया कि विचारधारा कोई भी हो वह ऊर्जा होती है। यह तभी कारगर होगी, जब आप उस का सही तरीके से इस्तेमाल करेंगे, नहीं तो सुकून की तपिश देने वाली आग भी हाथ डालने पर जलाती ही है, मैंने उसे कहा कि मूर्तियों को लात मार कर या धर्मो को गालियाँ बक कर, खुद को नास्तिक सिद्ध करना ही किसी युगद्रष्टा का स्वप्न नहीं होता, न ही उपनाम हटा देने भर से कोई सेक्युलर हो जाता है। रंग कोई भी हो लेकिन झंडा तभी वजनी होता है, जब उसे थामे रखने वाले व्यक्तित्व में वजन हो.........

मैंने उसे कहा कि उसे एक साल समय देना चाहिए खुद को और हर तरह के विचारों से मुक्त रख कर खुद की सामर्थ्य बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए। अपनी एकेडमिक पढ़ाई पूरी करनी चाहिए, जमीन के किसी कोने में अपने खड़े होने भर एक हिस्सा तैयार करना चाहिए और तब अपने आस-पास नजर दौड़ानी चाहिए कि अब अगला चरण क्या हो.......

अभी के लिए तुम्हारा एक ही लक्ष्य है खुद को इतना तैयार करना कि जीवन की अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल पेंचीदगियों को समझ पाओ और उनका समाधान खोज पाओ।

पहली बार किसी को इस स्तर पर सलाह दे रहा था, तो खुद भी नर्वस था कि कहीं कुछ गलत न कह जाऊँ, तुम्हें ये सब बताने का भी यही कारण है।"

बाकि तो जो है सो हइये है, मैं स्वस्थ हूँ मस्त हूँ अपना ध्यान रखना......
- तुम्हारा अश्विनी
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प्रिय अश्विनी, अपने बारे में हर इन्सान की तरह तुमको भी यह 'भ्रम' है कि तुम से ज़्यादा 'फ्रस्ट्रेटेड' व्यक्ति कम हैं. मेरी नज़र में तो तुमसे अधिक समर्थ व्यक्ति कम हैं. और मेरे इस मूल्यांकन का आधार धुर बचपन से अभी तक ज़िन्दगी की आपाधापी के दौरान हर मोड़ पर छलाँग लगाने और उस पार निकल जाने वाले तुम्हारे पौरुष के प्रदर्शन में निहित तथ्य हैं.

आज ही नहीं, तभी से जब तुमने अपने दम पर ज़िन्दगी को ललकारना शुरू किया, हर बार ही ख़ूब-ख़ूब तिलमिलाने के बावज़ूद ज़िन्दगी हारती रही और तुम अगली चुनौती के अवसर तलाशने में जुटते चले गये. "युद्धं देहि, युद्धं देहि.." के आह्वान के अलावा तुमने कभी भी किसी से भी कुछ भी नहीं माँगा. और मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि तुम ही हो, जो मेरे न रहने पर भी इसी तेवर में हर अवरोध से आर-पार जूझने का मन बना कर टकराते रहने को बज़िद रहोगे. इसी वजह से मैं तुम्हारे ऊपर गर्व करता हूँ.

"प्रो. लालबहादुर वर्मा ने पिछली बार आज़मगढ़ आने पर कहा था - "ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद!" तुम्हारे यहाँ से मेरे युवक मित्र को वही सलाह मिली और सही सलाह मिली कि जगत की सेवा करने के लिये ही नहीं बल्कि ख़ुद अपने को और अपने परिजनों को भी न्यूनतम सम्मान सहित जीवित रहने भर को अधिकतम सम्भव 'सामर्थ्य' जुटाने को ही प्रत्येक युवा के लिये पहला लक्ष्य और कार्य-भार बनाना उचित होगा.

व्यक्ति के कुछ सहज गुण होते हैं और कुछ अर्जित. अर्जित गुणों में से एक उसका दृष्टिकोण भी है. सामर्थ्य से मेरा अभिप्राय निश्चित तौर पर केवल आर्थिक ही नहीं है. उससे कहीं बढ़ कर यथासम्भव अधिकतम सबल और कार्य-सक्षम शरीर और व्यापक स्वाध्याय के ज़रिये कार्य-क्षमता और दृष्टि-पटल को और अधिक बढ़ाना भी है. लक्ष्य-बद्ध अध्ययन हर ग़रीब युवा के लिये शास्त्र और शस्त्र दोनों बनता रहा है.

इसके अतिरिक्त क्रान्ति के नाम पर इस डाल से उस डाल तक उछलने-कूदने और हड़बड़ी में ताबड़-तोड़ की जाने वाली हर तथाकथित 'क्रान्तिकारी' गतिविधि को कम से कम मैं केवल आतुरता और बचपना ही कहने के लिये विवश हूँ. इसके विपरीत अधितकतर युवाओं द्वारा अपने शानदार वर्तमान का अधिकतम सुनहरा समय केवल दिवा-स्वप्नों में गुज़ारना मेरी दृष्टि में नितान्त अनुचित और भर्त्सनीय ही नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर किया जाने वाला ऐसा अपराध है. जिसका दण्ड समय तो देता ही है, परन्तु तब जब अवसर गुज़र चुकता है.

मुझे उम्मीद है कि तुम दोनों मुझे नाउम्मीद नहीं करोगे. 
ढेर सारा प्यार - तुम्हारा "गुरुवा" (27.8.15)
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1 comment:

  1. Sudarshan Goyal - Girijesh ji: आप के लेख इतने जटिल होते हैं कि मेरे को आप की बात समझ नहीं आती. मुझे आप में कहीं Loneliness, Emptiness (in the sense of incompleteness) का भस होता है. आप ने शादी नहीं करी आप ने MBBS करी पर उसका लाभ नहीं उठाया. आप Personality Cultivation Project चलाते है पर खुद फ़क़ीरों की तरह रहते हैं. सब असंगत सा लगता है.

    Girijesh Tiwari - प्रणाम सर, जीवन की इन्ही जटिलताओं को सहज भाव से और मुक्त मन से जी रहा हूँ और उस पल की और उस व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जो मुझसे अधिक समर्थ हो और देश और दुनिया की गति की दिशा पलट कर जन के पक्ष में कर सके.

    Sudarshan Goyal - मैं क्षमा चाहता हूँ, गिरिजेश जी, पर तब तो मुझे मेरी बात ही सही लगती है. जिस imaginary पल और व्यक्ति की आप प्रतीक्षा कर रहे हैं वो कभी नहीं आता. हमें ही अपना सामर्थ्य बढ़ाना होगा. आप संत है पर संत दुनिया को नहीं बदल सकते, सामर्थ्यवान ही बदल सकते हैं.

    Girijesh Tiwari - आदरणीय सर, मेरे बारे में आपका मूल्यांकन मूलतः सही है. परन्तु तथ्य से थोड़ा-सा अधिक है. मैं तो अभी तक मात्र एक 'साधक' ही हो सका हूँ. 'सन्त' तो साधना के चरम पर पहुँचने के बाद की अवस्था है.

    दूसरे मैं केवल प्रतीक्षा ही नहीं कर रहा, उस तरह के सामर्थ्यवान व्यक्तित्वों को गढ़ने की प्रक्रिया भी सतत जारी है. विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से गत तीन दशकों से किया जा रहा मेरा प्रयास प्रतीकात्मक तौर पर ही सही कुछ न कुछ तो कर सका है, सब कुछ नहीं कर पाया.

    और सब कुछ कर ले जाना किसी के लिये भी वैयक्तिक सीमाओं में सम्भव हो भी नहीं सकता. उस विराट युग-परिवर्तन के लिये व्यक्ति साधन मात्र होता है. व्यष्टि और समष्टि के अन्योन्याश्रित अन्तर्सम्बन्ध के सहारे ही जगत आगे बढ़ता है.

    उसके लिये देश-काल-परिस्थिति को उस क्रान्तिक बिन्दु (critical point) तक विकसित होना होता है, जहाँ पहुँच कर सतत जारी मात्रात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया (process of quantitative change) में एक छलाँग लगती है. बिग-बैंग जैसी परिघटना हो जाती है. रूपान्तरण (transformation) हो जाता है. इस रूपान्तरण में ही व्यक्ति और उसकी टोली की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.

    और तब वस्तु का नया रूप (form) बन जाता है क्योंकि उसकी अन्तर्वस्तु (content) में गुणात्मक परिवर्तन (qualitative change) हो जाता है. अब पुराने गुणों का निषेध (negation) होने और नये गुणों के प्रभावी (dominating features) हो जाने के कारण उसी वस्तु का नया नामकरण कर दिया जाता है.

    और अनेक व्यक्तियों और उनकी अगणित टोलियों में से कौन इस कायाकल्प का नेतृत्व कर सकेगा. इसकी पूर्वकल्पना नितान्त असम्भव होती है. काल स्वयं ही सक्षम सुपात्र का चयन करता है. शेष सभी लोग अपनी-अपनी सीमाओं के चलते उसका समर्थन और सहयोग करते हैं. सबकी सहभागिता द्वारा ही युग-परिवर्तन सम्भव होता है.

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