Monday 17 August 2015

___ और फिर बुद्ध मुस्कुराये... ___



महात्मा बुद्ध के अनेक शिष्यों में से एक थे आनन्द. आनन्द बुद्ध के पट्ट-शिष्य थे. वह बुद्ध से जब-तब तरह-तरह के प्रश्न पूछते रहते थे. बुद्ध बड़े प्यार से उनके सभी प्रश्नों के उत्तर देते रहते थे. बुद्ध का एक और शिष्य था. वह भी उनके दूसरे सभी शिष्यों की तरह ही एकाग्र चित्त से उनके उपदेश सुना करता था. धीरे-धीरे कर के समय गुज़रने के साथ उसे भी जगत के सत्य का बोध हो गया. एक दिन संध्या काल में अचानक उसके मन में एक तरंग उठी. उसने सोचा कि मैंने स्वयं भगवान बुद्ध के मुँह से सीधे सुन कर संसार के सत्य के बारे में अब तक सब कुछ सीख लिया है. उसके मन में यह उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई कि अब वह भी जगत के अगणित व्यथित मानवों तक भगवान बुद्ध का मुक्ति-सन्देश पहुँचाये.

अगले ही दिन प्रातःकाल काल स्नान करने के पश्चात् वह महात्मा बुद्ध के सम्मुख प्रसन्न मन उपस्थित हुआ. विनम्रता के साथ प्रणाम करके उसने जगत को सिखाने की उनसे अनुमति माँगी. भगवान बुद्ध ने सहज ही उसे अपनी अनुमति दे दी. संसार की व्यथा को दूर करने की अपनी क्षमता पर पूरे भरोसे के साथ और लोगों को सिखाने के उत्साह से भरा वह शिष्य आश्रम से गाँव की ओर चल पड़ा. आतुरता में उसके पैरों ने एक पग में ही दो पगों की दूरी त्वरित गति से नाप डाली. जल्दी ही वह ग्राम्यांचल में था.

अब वह घर-घर घूम कर लोगों से कहने लगा, “लोगो, मुझसे सीखो, मेरे पास संसार का सबसे उन्नत ज्ञान है. मैंने वर्षों तक जगत के सत्य को स्वयं भगवान् बुद्ध से सीखा है. मैं तुम सब की यन्त्रणा दूर करना चाहता हूँ. आओ-आओ, मैं तुम्हारे सारे दुःख दूर करना चाहता हूँ. मैं तुमको असली सुख का आनन्द देना चाहता हूँ. लोगो, यह अवसर तुमको जीवन में पुनः सम्भवतः न मिल सके.”

देखते-देखते सुबह दोपहर में बदली, दोपहर से संध्या हो चली. वह एक घर से दूसरे घर तक, एक गाँव से दूसरे गाँव तक लगातार चलता चला गया. परन्तु किसी ने उसे भोजन तो दूर, पानी तक के लिये भी नहीं पूछा. कोई भी उससे ‘जगत का सत्य’ सीखने, उसके ‘सबसे उन्नत ज्ञान’ को समझने, अपना दुःख दूर करने और सच्चे सुख का आनन्द-लाभ लेने को तैयार नहीं हुआ. अन्ततः संध्या के झुटपुटे में हताश हो कर वह आश्रम वापस लौटा. सीधे भगवान् बुद्ध के सामने पहुँच कर उसने उनको प्रणाम किया. बुद्ध ने उसे स्नेहसिक्त दृष्टि से देखा. उससे उसका समाचार पूछने का भी अवसर उनको नहीं मिल सका.

उसने छूटते ही कहा, “भगवन, मैंने आज प्रातः से संध्या तक घर-घर खटखटाया, गाँव-गाँव घूमा. सबसे सीखने की अपील की. मगर मुझसे सीखने को एक भी इन्सान तैयार नहीं हुआ. मुझे उनकी अरुचि पर भीषण क्षोभ तो हुआ. मगर मेरे अनुरोध के प्रति उनकी अवहेलना का, जगत के सत्य को सीखने के प्रति उनकी अरुचि का और मेरी बात सुनने के प्रति उनकी अनिच्छा का कारण मैं नहीं समझ सका.”

अब अचानक बुद्ध मुस्कुराये. उन्होंने आनन्द सहित अपने सभी शिष्यों की ओर निगाह दौड़ाई. सब के सब उत्सुक थे. सभी सोच रहे थे कि इस प्रसंग में गुरुदेव आज अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण उपदेश देंगे.

बुद्ध ने अचानक कहा, “हे मूर्ख, सीखना जितना सरल है, सिखाना उतना ही कठिन. तुमने जगत के बारे में मुझसे भी केवल सुना भर है, जगत की पीड़ा को तुमने स्वयं कभी जिया नहीं. तुम्हारे पास तुम्हारा अपना ख़ुद का आनन्द देने वाला कोई भी सकारात्मक या व्यथित कर देने वाला नकारात्मक अनुभव भी नहीं है. और न ही इतने लम्बे समय से मेरे साथ रहते रहने पर भी आज तक मुझसे भी तुम किसी को कुछ भी सिखाने की कला ही सीख सके हो.

ऐसे में सबको सहज ही ‘जगत का सत्य’ सिखा देने के तुम्हारे आज के अभियान का प्रस्थान-बिन्दु ‘जगतगुरु’ बनने का दम्भ था. तुम्हारे आज के इस स्वतःस्फूर्त अभियान की विफलता तो पहले से ही सुनिश्चित थी. परन्तु आज तुमको एक महत्वपूर्ण उपलब्धि भी मिली है. आज तुमको अपने अभियान की विफलता का स्वानुभूत स्वाद मिल सका है. पराजय जगत में सबसे समर्थ शिक्षिका है. मुझे पूरी आशा है आज का पराजय-बोध अगले प्रयोगों में अवश्य ही तुम्हारा पथ-प्रशस्त करेगा.” 
                                                                – गिरिजेश (15.8.15.)

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