Wednesday 5 August 2015

_____ सृजन और/या विरोध की मनोदशा और परिणति _____





पठनीय व्यंग्य ! 
- - फाँसी की राजनीति बनाम फाँसी पर राजनीति - -
{तीख़ी प्रतिक्रियाओं की उम्मीद के साथ पुनर्प्रस्तुति}

_____ सृजन और/या विरोध की मनोदशा और परिणति _____
केवल विरोध के लिये विरोध और प्रतिवाद करने वाले दिमाग केवल नकारात्मक तरीके से सोचते रहने के चलते सृजनात्मक क्षमता से वंचित होते चले जाते हैं. धीरे-धीरे करके वे सकारात्मक दृष्टि से दुनिया को देखने, समझने और बदलने के सृजनात्मक प्रयोगों में लग सकने में असमर्थ हो जाते हैं. जब तक व्यापक स्तर पर प्रगतिशील परिवर्तनकामी वाम शक्तियों द्वारा रचनात्मक और सकारात्मक प्रयास और प्रयोग नहीं शुरू होंगे, तब तक सामान्य जन तक पहुँचना और उनको अपने साथ गोलबन्द कर सकना तो बहुत दूर की बात है. आम लोगों के बीच हर मौके पर केवल अपनी उल्टी-पल्टी हरकतों और वक्तव्यों के चलते केवल हास्यास्पद ही बने रहना वाम के हिस्से की विसंगति है. यह समझना हमारे लिये सबसे ज़रूरी है कि सतत सृजन ही दुनिया के आगे बढ़ते जाने के पीछे की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का मूल कारक है, न कि प्रतिरोध, प्रतिवाद और प्रतिशोध. यह केवल गौण कारक ही हो सकता है. 'निषेध के निषेध' का यही अभिप्राय है.

"जिनसे कुछ नहीं हो पाता वे वाम की झण्डी अपने माथे पर टांग लेते हैं और इनका एक सूत्रीय एजेंडा है........... विरोध
उत्तर का भी विरोध, दक्खिन का भी विरोध, पूरब का भी विरोध, पश्चिम का भी विरोध, धरती का भी विरोध, आसमान का भी विरोध.........विरोध विरोध और विरोध।
वो तो सम्भव नहीं है नहीं तो ये अपने पैदा होने का भी विरोध दर्ज कराते।
इन्ही जैसे उल्लुओं की वजह से वाम का आज कोई नाम भी नहीं बचा लेने वाला.."

अराजक मलंग -
कामरेड याकूब अमर रहें.......

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अपने फन्ने मियाँ बड़के क्रांतिकारी हैं। रोजे में पानी बँटवाते हैं बाकी दिन बांटा हुआ पानी खुद पीते हैं। इसी तरह उनके एक दोस्त भी हैं पंडित गेरू प्रसाद, नवरात्रि में हमेशा अपनी बटलोई लेकर अलग हो जाते हैं जी भर कर मुर्गा मटन पकाते हैं और दोनों दोस्त दबा के खाते हैं। मजे से जिंदगी चल रही थी। साथ साथ "दास कैपिटल" और लेनिन माओ को नियमित बांचा करते दोनों दोस्त, दारू गाँजा और बाकी सभी क्रांतिकारी शय और असबाब पर्याप्त मात्रा में रहता है दोनों की पोटली में.........
सुबह सुबह खैनी रगड़ते हुए फन्ने मियाँ गेरू पंडित के बरामदे में आये। मुँह पर काली स्याही पोते हुए थे।

पंडित ने देखते ही चुहल से पूछा-
- का हुआ कामरेड? मुंह काहे काला किये फिर रहे हो......
फन्ने मियाँ ने खैनी आगे बढ़ाते हुए कहा- कुछ नहीं, आज हम दिन भर ऐसे ही रहेंगे। हम पूँजीवादी व्यवस्था की दोगली नीतियों के शिकार अपने कामरेड याकूब की शहादत पर शोक प्रकट करेंगे।
अभी पंडित कुछ बोले तब तक फन्ने मियाँ खैनी का बीड़ा मुंह में दाबते हुए फिर बोल पड़े,
- जानत हौ पंडित......अगला(मेनन) बहुत शांतिप्रिय रहा। फांसी के फंदे पर भी बुदबुदा रहा था कि अल्लाह उसे फांसियाने वालों को माफ़ कर दे।

पंडित ने उदासी से मियाँ के कंधे पर हाथ रखा और बोले- 
देखो मियाँ, अगला भले ही आस्तिक रहा हो लेकिन काम तो उसने क्रांतिकारी ही किया। पूँजीवादी साले चाहे लालगढ़ या पिथौरागढ़ के सी.आर.पी.ऍफ़. के जवान हों, या मुम्बई में बैठे निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बाशिंदे..........
इन सालों का मरना ही जरुरी है चाहे धमाकों में या बारूदी सुरंगों से या घात लगा कर की गयी अचानक गोलीबारी से।
कामरेड याकूब तो भी नीतिज्ञ थे जो इन दू कौड़ी के पूँजीपतियों को बीस साल तक चकमा देते रहे..........

फन्ने मियाँ की आँखों में चमक आ गयी।
- यार कामरेड! ऐसे दिलेर और जांबाज क्रांतिकारी का तो शहीदोत्सव होना चाहिए।

पंडित- आदर्शों के आधार पर तो तुम्हारी बात सही है कामरेड, लेकिन एक बात ध्यान में रखो.....
कई बार क्रांतिकारी गतिविधियाँ भूमिगत होकर जारी रखनी पड़ती हैं, नहीं तो हमको तुमको भी कामरेड दाऊद की तरह निर्वासित होना पड़ सकता है या कामरेड लादेन की तरह कुत्ते की मौत मार दिया जा सकता है।

बात फन्ने मियां की समझ में आ गयी लेकिन फिर भी क्रांति की लहर ऐसे ही थोड़े ठण्डी होती है।
सोचनीय मुद्रा में फन्ने मियाँ- वो तो ठीक है पंडित..... लेकिन इस अमानवीय ह्त्या के विरोध में हमे कुछ तो करना चाहिए।

- अरे तो मियाँ लाओ थोड़ी सियाही, हम भी अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए मुंह काला कर लेते हैं।
फन्ने मियां ने पंडित को ऐसे देखा मानो अगले ही क्षण दोनों शहीद होने जा रहे हों........
हाथों में थामा हाथ कुछ और मजबूती से पकड़ लिया।
जोरदार नारा लगाया- 
कामरेड याकूब अमर रहें.........
कुछ ही दूर पर लोगों का झुण्ड दोनों की बात सुन कर खींसे निपोर रहा था। 
लोग कह रहे थे - "ऐसे चूतिये साले हर गाँव क्षेत्र में मौजूद हैं, जिनसे कुछ नहीं हो पाता, वे वाम की झण्डी अपने माथे पर टांग लेते हैं और इनका एक सूत्रीय एजेंडा है........... विरोध !
उत्तर का भी विरोध, दक्खिन का भी विरोध, पूरब का भी विरोध, पश्चिम का भी विरोध, धरती का भी विरोध, आसमान का भी विरोध.........विरोध, विरोध और विरोध।
वो तो सम्भव नहीं है, नहीं तो ये अपने पैदा होने का भी विरोध दर्ज कराते।
इन्ही जैसे उल्लुओं की वजह से वाम का आज कोई नाम भी नहीं बचा लेने वाला........."
- मलंग

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