Saturday 31 August 2013

WHO IS SHE! - girijesh

WHO IS SHE!
FACING THE OPPOSING WINDS,
SHE STANDS FIRMLY.
WHO IS SHE!
TRYING TO UNDERSTAND THE BITTER REALITY.
WHO IS SHE!
FIGHTING FOR NOT HERSELF ONLY,
BUT FOR ME TOO.

SHE IS MY DAUGHTER.
SHE IS MY DEFENDER.
SHE IS MY HOPE.
SHE IS MY FUTURE.
YES, SHE IS MY OWN!
WITHOUT HER HELP I AM HELPLESS.
AM I WRONG!

NO, SHE IS NOT MINE ONLY.
SHE IS OUR FUTURE.
SHE IS OUR VOICE.
SHE IS OUR FIGHTER.
SHE IS OUR STRENGTH.
SHE IS OURS...

Friday 30 August 2013

व्यक्तित्व-विकास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भूमिका - गिरिजेश



व्यक्तित्व-विकास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भूमिका - गिरिजेश 

(ROLE OF SCIENTIFIC OUTLOOK IN PERSONALITY DEVELOPMENT)

जीवन और जगत की विविध घटनाओं को समझाने के लिये मनुष्य जाति ने ज्ञान की जिस शाखा का विकास किया, उसे दर्शन Philosophy कहते हैं। दर्शन के दो प्रकार हैं - अध्यात्मवादी और भौतिकवादी। जो दर्शन किसी भी घटना के कारण को सीधे कार्य से न जोड़ कर किसी अज्ञात शक्ति से जोड़ने की जोड़-तोड़ करता है, उसे अध्यात्मवादी दर्शन या अन्ध-विश्वास या अवैज्ञानिक दृष्टिकोण spiritual philosophy or superstition or nonscientific outlook कहते हैं। यह आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, भूत-प्रेत, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, व्रत-उपवास, रक्षा-तिलक, दाढ़ी-चोटी, जातिवाद, ऊँच-नीच, छुआछूत, भाग्यवाद, ज्योतिष और भविष्यवाणी आदि के तरह-तरह के ढकोसलों में यकीन करता है और उसी में उलझा कर आदमी को अन्धे की तरह गुमराह करता है। इसी वजह से सभी शोषक वर्ग इसे फैलाने में मदद करते हैं, क्योंकि इसके मकड़-जाल में उलझा आदमी अपनी समस्याओं के असली कारण को समझने की कोशिश करने के बजाय एक काल्पनिक कारण के चक्कर में फँस कर रह जाता है और शोषक-सत्ता के विरुद्ध लामबन्द नहीं हो पाता। इसीलिये यह दृष्टिकोण जनविरोधी, प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिविरोधी है।

जीवन और जगत की व्याख्या करने के प्रयास की दूसरी धारा का नाम है वैज्ञानिक दृष्टिकोण या द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या मार्क्सवाद scientific outlook or dialectical materialism or marxism  क्योंकि इसके प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स थे। जब द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को मानवता के इतिहास पर आरोपित करते हैं, तो इसका नाम ऐतिहासिक भौतिकवाद historical materialism हो जाता है। और इस तरह इसका पूरा नाम बनता है - द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद। यह धारा कार्य-कारण सम्बन्ध की विज्ञान पर आधारित, तथ्यगत, तर्कपरक और असली समझ विकसित करने में हमारी मदद करती है। यह हमारी समस्याओं के असली कारण और उसके निवारण की तरकीब बताती है। इसीलिये यह जन पक्षधर, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी है। यह मानवता की मुक्ति के महाअभियान की मशाल है।

विज्ञान की परिभाषा है क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान। विज्ञान किसी भी घटना-परिघटना की क्रिया-प्रक्रिया के बारे में क्या, क्यों, कैसे, कब और कहाँ के पाँच प्रश्नों के सही-सही उत्तर या तो दे देता है या स्पष्टता और विनम्रता के साथ अपनी वर्तमान सीमा को स्वीकार करता है। विज्ञान पर आधारित होने के कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण जगत की गति को उस कोण से देखता है, जिससे पूरी बात साफ-साफ समझ में आ जाती है, भ्रम टूट जाते हैं, सच्चाई दिखाई देने लगती है और झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो जाने के बाद आदमी को कोई धोखा नहीं दे सकता और ऐसा आदमी खु़द भी किसी को धोखा नहीं देता। आइए, देखें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मूल प्रस्थापनाओं को और अपने व्यक्तित्व को उसकी रोशनी में ढालें।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार जगत की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है क्योंकि प्रत्येक वस्तु दो परस्पर विरोधी घटकों constituent factors से मिल कर बनी है। इन घटकों के बीच अन्तर्विरोध contradiction भी होता है और एकता भी। परस्पर विरोधी प्रकृति वाले इन्हीं दोनों घटकों की एकता के चलते ही वस्तु का अस्तित्व होता है और उनके विरोध के चलते ही जगत की गति का विकास होता है। जब इन घटकों के बीच एकता का पक्ष प्रबल होता है, तो रचना होती है और जब विरोध का स्वर प्रधान हो जाता है, तो ध्वन्स होता है। नूतन की रचना करने के मकसद से पुरातन के ध्वन्स का ही नाम क्रान्ति revolution है।

वस्तु में अन्तर्निहित दोनों घटकों में से एक घटक एक समय में प्रधान, प्रबल और प्रभावी dominant होता है और दूसरा घटक गौण recessive रहता है। प्रभावी घटक के अनुरूप ही वस्तु का नामकरण होता है। परिवर्तन की प्रक्रिया के द्वारा प्रभावी घटक को गौण घटक में तथा गौण घटक को प्रभावी घटक में बदला जा सकता है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया की दो सीढ़ियाँ हैं। पहली सीढ़ी पर वस्तु के भीतर मात्रा में बदलाव होता है। इसीलिए इसका नाम है परिमाणात्मक परिवर्तन quantitative change और दूसरी सीढ़ी पर वस्तु के गुण बदल जाते हैं, उसका रूपान्तरण transformation हो जाता है और उसका नया नामकरण कर दिया जाता है। इस वजह से इसका नाम है गुणात्मक परिवर्तन qualitative change । वस्तु में लगातार जारी परिमाणात्मक परिवर्तन जिस बिन्दु पर पहुँच कर उस वस्तु के गुण में, रूप में और यहाँ तक कि नाम में परिवर्तन कर देता है, उस बिन्दु को क्रान्तिक बिन्दु critical point कहते हैं। असंख्य क्रान्तिक बिन्दुओं की पुनरावृत्ति परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तनों की विकास-यात्रा में अनवरत जारी रहती है। यही मानवता की अमरता immortality of humanity का आधार है।

परिवर्तन की इस प्रक्रिया की तुलना पेंच screw की चूड़ियों से की जाती है, जिनमें से प्रत्येक चूड़ी का हर अगला छल्ला पिछले छल्ले के ठीक ऊपर, ठीक वैसा ही, किन्तु थोड़ा-सा और बड़ा होता जाता है और हर अगले छल्ले का पिछला सिरा पिछले छल्ले के आखिरी छोर से अलग नहीं किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि सतत विकास की इस शाश्वत कथा में कहीं भी न तो आरम्भ है और न कहीं कोई अन्त। मनुष्य केवल गणना में अपनी सुविधा के लिये किन्हीं दो बिन्दुओं को आदि और अन्त के बिन्दुओं के रूप में चिह्नित करने का काम बार-बार करता रहा है।

किसी भी वस्तु के दो भाग होते हैं - रूप और अन्तर्वस्तु form and content। विकास-यात्रा में वस्तु का केवल रूपान्तरण transformation होता है। उसका मूल व्यक्तित्व fundamental personality आदि से अन्त तक यथावत as it is बना रहता है। उसका केवल विस्तार और विकास expansion and development होता जाता है। इसे उसकी अन्तर्वस्तु content कहते हैं। गुणात्मक परिवर्तन के दौरान हर चरण में मूल व्यक्तित्व के चतुर्दिक कुछ अर्जित गुणों adopted qualities की थोड़ी-सी और मात्रा अभिलाक्षणिक विशेषताओं characteristic features के रूप में बढ़ती चली जाती है। नये गुणों को आत्मसात करने की इस प्रक्रिया को ग्रहण adoption कहते हैं। पतली और मोटी प्रत्येक मोमबत्ती का सूती धागा हर मोमबत्ती में वैसा ही होता है। केवल मोम की मात्रा कम या अधिक होने से प्रकाश कम या अधिक घेरे को प्रकाशित करता है। 

किसी भी नवीन अभिलाक्षणिक विशेषता को आत्मसात करने के लिये अर्जित गुणों को ग्रहण करने की प्रक्रिया तभी आगे बढ़ सकती है, जब पहले से अंगीभूत कुछ गुणों का त्याग rejection किया जाये। इस तरह किया जाने वाला गुणों की मात्रा के ग्रहण का कार्य तो सायास प्रयास का परिणाम होता है, जब कि त्याग सहज और स्वाभाविक प्रवृत्ति है। त्याग को महिमामण्डित करना व्यर्थ है। प्रशंसा तो ग्रहण के प्रयास की तड़प की की जानी चाहिए। त्याग और ग्रहण की इस प्रक्रिया में प्रत्येक क्रान्तिक बिन्दु पर कुछ पुराने अर्जित गुणों का लोप या निषेध negation हो जाता है और उनकी जगह कुछ नये अर्जित गुण प्रतिस्थापित हो जाते हैं। रूपान्तरण के इस स्वभाव को दर्शन में कहते हैं निषेध का निषेध सिद्धान्त negation of negation theory इस तरह हर समस्या का समाधान एक नयी समस्या को जन्म देता है।

समाज-व्यवस्था social-system के रूपान्तरण की इस अमर गाथा में क्रान्तिकारी ताकतें revolutionary forces बच्चे का जन्म कराने में सहायता करने वाली नर्स तो हैं। वे बच्चे की माँ नहीं हैं। माँ तो समाज की उत्पादक शक्तियाँ productive forces हैं। नर्स नहीं होगी, तो भी गर्भ किसी न किसी परिणति तक पहुँचेगा ही। नर्स की भूमिका केवल सुरक्षित, जल्दी और व्यवस्थित जन्म से जुड़ी है। समाधान की गति, दिशा और प्रभावशालिता को नियन्त्रित और निर्धारित करना ही क्रान्तिकारी कार्य revolutionary action है।

क्रान्तिकारी कार्य के दो स्तर होते हैं - रणनीति और रणकौशल strategy and tactics। रणनीति दूर तक यथावत रहती है। वह केवल उत्पादन-सम्बन्धों production relations के विकास की अगली मन्जिल के आने पर ही बदलती है। जबकि रणकौशल परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ हर कदम पर बदलता रहता है।

इस तरह हमने देखा कि प्रत्येक वस्तु को उसके विपरीत वस्तु में द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के शास्त्रीय विज्ञान classical science के हथियार की सहायता से बदला जा सकता है। क्रान्तिकारियों ने बार-बार इसी हथियार से दुनिया बदली है और सर्वहारा proletariat को सम्राट emperor बनाया है। समाजवादी समाज-व्यवस्था socialist social-system की स्थापना की है। व्यक्तित्व-विकास भी इसी की सहायता से समग्रता में सम्भव है। आशा है आप भी अपने व्यक्तित्व का विकास करने में इस हथियार का इस्तेमाल करेंगे। ताकि आप अपने-आप को शोषित-पीड़ित मानवता exploited and humiliated humanity की सेवा के लिये और भी उपयोगी बना सकें।


मरने पर शहीद और रहे ज़िन्दा तो ग़ाज़ी,
ऐ मर्द-ए-मुज़ाहिद न क़दम पीछे हटाना। 
खोने को तुझे क्या है? बज़ुज़ पाँव की बेड़ी,
पाने के लिये है सारी दुनिया का ख़ज़ाना!! 

अन्धविश्वास - मुर्दाबाद !
 वैज्ञानिक दृष्टिकोण - ज़िन्दाबाद !

girl - a boon or a curse!


A letter from my daughters : 
“Is being a girl a boon or a curse!”
I am a girl. I myself have been feeling and understanding the pain and humiliation of a female citizen since my very childhood. Even before taking birth the life of a girl is often in danger. Many mothers are forced to kill their unborn daughters in modern society. 
Is this society modern? 
If a girl is lucky enough to take birth, she is bound to face the differentiation and adversity of second grade citizenship throughout her life. With passing time like every other creature a girl also goes on growing and the danger for her safety also grows with her in the ‘forest of concrete’ day by day. Most of the males in the society don’t feel a girl as a person even. They behave with her savagely. 
Numbers of rape cases are continuously echoing from all the directions with the news of the day and they are piercing my ears. I tremble with fear and burn with anger after listening each and every of such news. I know that I cannot escape anywhere to save my dignity and life from these wolves, who are roaming all over the earth. 
That is why I think that I must be not only a lady of gravity and mercy, but also an icon of physical and intellectual strength as I know that none can save me except myself. 
Am I not correct? 
What have you to say? Can you help me?
– I am a girl

डर : 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की कार्यशाला में एक और सम्बोधन - गिरिजेश





डर : 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की कार्यशाला में धनबाद में एक और सम्बोधन - गिरिजेश 

प्रिय मित्र, 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की गत २४-२६ अगस्त, २०१३ की तीन दिवसीय कार्यशाला में धनबाद में मेरे दो व्याख्यान हुए. उनमें से एक आपने यू-ट्यूब पर सुना. दूसरा व्याख्यान यह है. इसमें वर्तमान जनविरोधी पूँजीवादी समाज-व्यवस्था की सीढ़ीदार रचना के अलग-अलग स्तर पर जीने वाले इन्सान के मनोविश्लेषण के माध्यम से शासक-शोषक धनपशुओं की विकास-यात्रा के दौरान उनके अमानुषीकरण की प्रक्रिया के बारे में विस्तार में विवेचन किया गया है. हर एक शोषक व्यक्ति हरदम खुद सबसे डर-डर कर जीता है और अपने इसी डर के चलते ही वह हमेशा सबको ही डरवाते रहने के लिये विवश होता है. 

इस तरह इस व्याख्यान में हमारे डर के व्यवस्था में निहित मूलभूत असली कारण के बारे में सरल शब्दों में समझाया गया है. क्योंकि हम सभी हर इन्सान को इस तन्त्र द्वारा अनवरत तनाव और अलगाव में फँसाने के कुचक्र को अच्छी तरह समझने के बाद ही इसकी ऑक्टोपसी जकड़न से मुक्त होने के लिये एक साथ एकजुट होकर पूरी ताकत लगा कर आर-पार फैसलाकून प्रयास कर सकते हैं. 

मेरा यह व्याख्यान यू-ट्यूब पर उपलब्ध श्रृंखला का अट्ठारहवाँ व्याख्यान है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है. 

विशेष अनुरोध:- कृपया कृपया इसे सुन कर अपनी टिपण्णी से मुझे भी अवगत करायें एवं इस प्रयास की सार्थकता के बारे में मेरी सहायता करें.

इसका लिंक यह है - http://youtu.be/py7fz0tM1nQ

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

धनबाद में 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की कार्यशाला में सम्बोधन - गिरिजेश



धनबाद में 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की कार्यशाला में सम्बोधन - गिरिजेश
प्रिय मित्र, धनबाद में 'मार्क्सवादी छात्र फेडरेशन' की गत २४-२६ अगस्त, २०१३ की तीन दिवसीय कार्यशाला में मेरे दो व्याख्यान हुए. उनमें से एक यह है. इसमें मार्क्सवाद, अन्धविश्वास और छात्रों के लिये अपने अध्ययन के दौरान समय-प्रबन्धन की तकनीक के बारे में सरल शैली में विस्तार से बताया गया है.
मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का सत्रहवाँ व्याख्यान है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
विशेष अनुरोध:- कृपया कृपया इसे सुन कर अपनी टिपण्णी से मुझे भी अवगत करायें एवं इस प्रयास की सार्थकता के बारे में मेरी सहायता करें.
इसका लिंक यह है - http://youtu.be/MIBIZkOVdAs
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

—:प्रो-पीपल सॉलिडेरिटी फोरम:—

—:प्रो-पीपल सॉलिडेरिटी फोरम:—
[अगेन्स्ट एक्स्प्लॉयटेशन, ऑप्रेसन ऐन्ड कम्यूनल हेट्रेड]

प्रिय मित्र, आज जनविरोधी तन्त्र के दबाव और धन-पद-प्रतिष्ठा के लोभ के चकाचौंध में प्रिन्ट-मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पूरी तरह बिक जाने और शासक वर्गों के प्रचार का मंच भर बन कर रह जाने की हालत में केवल ‘पैरेलल मीडिया’ ही भारतीय जन के असली प्रतिनिधि के तौर पर हमारे पास अपनी अभिव्यक्ति का और सही तथ्यों एवं सच्ची सूचनाओं को लोगों तक पहुँचा पाने का एकमात्र मंच बचा है।


जन-समस्याओं के मुद्दों को उठाने, जन-जागरण करने और अपने प्रतिवाद को परस्पर एकजुट हो कर सशक्त स्वर देने में पिछले दिनों फेसबुक पर सक्रिय मित्रों की पहल को अभूतपूर्व सफलता मिली है। निर्मल बाबा जैसे ढोंगियों के पर्दाफाश से लेकर दिल्ली रेप-काण्ड और कलमकार कँवल भारती की गिरफ़्तारी के विरोध तक के अनेक अभियानों में आप सब ने जो एकजुटता दिखायी है और उसका सत्ता-प्रतिष्ठान पर जो प्रभावकारी दबाव पड़ा है, उसने मुझे और हम सब के अनेक मित्रों को इस सार-संकलन तक पहुँचाया कि फेसबुक का प्रतिवाद के शस्त्र के रूप में और भी सशक्त तरीके से प्रयोग किया जा सकता है।


फेसबुक 'शार्ट मेमरी' का मंच है। इस पर सुबह का लिखा शाम तक बहुत पीछे छूट जाता है। कई बार तो हमें यह पता ही नहीं चल पाता कि किस मित्र ने कब कौन-सा महत्वपूर्ण लेख या कविता लिख दिया। कभी-कभी तो किसी न किसी दूसरे मित्र द्वारा शेयर किये जाने पर इक्का-दुक्का कुछ रचनाएँ ही हमारी जानकारी में आ पाती हैं। और तब हम सब के लिये केवल उन्हीं को लाइक, शेयर या कमेन्ट करना सम्भव हो पाता है।


मुझे लगता है कि इस समस्या का समाधान हो सकता है। अगर हम सब के द्वारा मिल-जुल कर "प्रो-पीपल सॉलिडेरिटी फोरम अगेन्स्ट एक्स्प्लॉयटेशन, ऑप्रेसन ऐन्ड कम्यूनल हेट्रेड" के नाम से एक ब्लॉग जैसी जगह नेट पर बनायी जाये। उसमें आपकी रचना, लेख, महत्वपूर्ण स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक समाचारों और उनके विश्लेषणों के बारे में केवल एक इन्ट्रोडक्टरी पैराग्राफ और उसके लिंक दे दिये जायें। वहाँ किसी तरह की बहस के लिये स्थान न दिया जाये। उसमें सब से ऊपर केवल इतना लिख दिया जाये कि अगर आपको इनमें से कोई भी पोस्ट पसन्द आयी है, तो कृपया उसे शेयर करें और उस लिंक पर जाकर अथवा अपनी वाल पर उस पर टिप्पणी करें।


तो इस रूप में हमारे पास सन्दर्भ-सूची के रूप में ऑन-लाइन एक ऐसी जगह बन जायेगी, जहाँ हम-आप सभी अपनी-अपनी वाल, पेज या ब्लॉग पर अपनी पोस्ट लिखने के साथ ही अपनी पोस्ट्स के लिंक्स दे सकते हैं और हममें से जब भी जिसे भी समय मिले, वहाँ जाकर सभी मित्रों की पोस्ट्स के बारे में आसानी से जानकारी ले पा सकता है। सूचना-विस्फोट के आज के दौर में हम सब की समय की सीमाओं के चलते इस तरीके के माध्यम से हम में से अधिक से अधिक लोगों तक अधिक से अधिक जानकारी पहुँचायी जा सकेगी। और भविष्य में भी वहाँ उपलब्ध लिंक्स का हममें से किसी के द्वारा सन्दर्भ के लिये प्रयोग करना सुलभ और सहज होगा।


इस ब्लॉग का किसी एक को ऐडमिन बनाने के बजाय हम इसके पासवर्ड को कई विश्वसनीय मित्रों के बीच बिखेर देंगे, ताकि अधिकतम सम्भव जनवादी तरीके से इसका सञ्चालन किया जा सके। ऐसा कर देने से जहाँ एक ओर हममें से किसी के विरुद्ध किसी के भी परस्पर पूर्वाग्रह के चलते किसी की किसी भी पोस्ट के साथ किसी तरह का अन्याय नहीं हो सकेगा, वहीं कोई भी अवांछित तत्व इस सन्दर्भ-स्थल तक पहुँच कर किसी तरह की कटुता का माहौल बना कर किसी तरह का व्यवधान पैदा नहीं कर सकेगा।


आज जब फासिज़्म एक बार फिर हमारा दरवाज़ा खटखटा रहा है, तो ऐसी भीषण परिस्थिति में देश के धूर्त शासक वर्गों के पतित सत्ता-तन्त्र की हर तरह की दुरभिसन्धि के विरुद्ध और भी धारदार प्रतिवाद और प्रतिरोध के लिये सभी जनपक्षधर मित्रों एवं अधिकतम साथियों की एकजुटता ही आज के इस कठिन दौर में हम सब के सामने इतिहास द्वारा प्रदान किया गया सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार है। मुझे पूरी आशा है कि अगणित मुद्दों पर आपस के अधिकतम मतभेदों के बावज़ूद कम से कम इन तीन बिन्दुओं पर हम सब परस्पर सशक्त एकजुटता बनाने में अवश्य सफल होंगे। और मुझे तो यह भी विश्वास है कि एकजुटता के इस चरण की सफलता के बाद एक दिन आने वाला कल इस एकजुटता को अवश्य ही हम सब की युगपरिवर्तनकारी एकता में रूपान्तरित कर ले जायेगा।


कृपया इस प्रस्ताव पर विचार करने का कष्ट करें। अगर आप इस प्रस्ताव में किसी तरह की त्रुटि महसूस करें, तो निःसंकोच अपने सुझाव एवं संशोधन इसके साथ जोड़ने का कष्ट करें। और अगर आपकी इस मुद्दे पर सहमति बनती है, तो कृपया अपने मित्रों के साथ इस पोस्ट को शेयर करें। ताकि सभी मित्रों की सहभागिता के साथ इस प्रयोग को आरम्भ किया जा सके।


मैं विनम्रतापूर्वक आपका अभिवादन करता हूँ।
आभार-प्रकाश के साथ — आपका गिरिजेश


अभी तक इन सभी 103 मित्रों ने इस प्रयोग को आरम्भ करने के लिये अपनी सहमति प्रदान किया है और अपनी सक्रिय सहभागिता का सहर्ष आश्वासन भी दिया है —
1. Misir Arun, 2. Shamim Shaikh, 3. Yadav Shambhu, 4. Ugra Nath, 5. Ram Kumar Savita, 6. Sitwat Ahmed, 7. Saghir Ahamad, 8. Surajit Dasgupta, 9. Vivekanand Tripathi, 10. Kabeer Up, 11. Awadhesh Dubey, 12. Shail Tyagi Bezaar, 13. Digamber Ashu, 14. आशीष देवराड़ी, 15. Amarnath Madhur, 16. Vimalendu Dwivedi, 17. Narendra Tomar, 18. विमलेश त्रिपाठी, 19. Aradhana Singh, 20. Surender Pal, 21. Masaud Akhtar, 22. Faqir Jay, 23. Pankaj Inquilabi, 24. Rashmi Bhardwaj, 25. Somnath Chakraborti, 26. ऋषभ दुबे बदनाम, 27. Raja Thakre, 28. Rajaram Chaudhary, 29. Ganesh Tiwari, 30. Uma Shankar Pandey, 31. Navin K. Gaur, 32. Dharmveer Yadav, 33. Ashwini Tiwari, 34. Devendra Singh, 35 दिनेशराय द्विवेदी, 36. Mohan Shrotriya, 37. Shiv Kumar Joshi, 38. Tukaram Verma, 39. Palak Tripathi, 40. Ranbir Singh Dahiya, 41. Balendu Swami, 42. Ashutosh Kumar, 43. Samar Anarya, 44. Sayeed Ayub, 45. Khurshid Anwar, 46. Unbounded Freedom, 47. Himanshu Yuva, 48. Prashant Rai, 49. Himanshu Kumar, 50. Vidya Bhushan Rawat, 51. Ravinder Goel, 52. Shamshad Elahee Shams, 53. Vijay Kumar Singh, 54. Jp Narela, 55. Mayank Tripathi, 56. अमित पाठक, 57. Rajesh Asthana, 58. Pankaj Singh, 59. Deepak Kumar, 60. शिवम् अनिकेत, 61. पुष्पा अनन्या, 62. Aseem Trivedi, 63. Prasaddoctor Kerala, 64. Ashok Kumar Sharma, 65. Surender Pal, 66. Shakil Ahmed Khan, 67. Kalpesh Dobaria, 68. Comrade Raj, 69. Pan Bohra, 70. Amit Kumar, 71. Pyarelal Bhamboo Maru, 72. Ashutosh Tiwari, 73. डॉ. मनजीत सिंह, 74. Anil Pushker, 75. Sharad Chandra Tripathi, 76. Danda Lakhnavi, 77. रवि कुमार, 78. Deependra Raja Pandey, 79. Sanjay Raj, 80. Vikash Verma, 81. Ashutosh Singh Kaushik, 82. Madan Shukla, 83. Neelam Prinja, 84. सोनिका शर्मा, 85. Satya Narayan, 86. Hari Sharan Pant, 87. Shahbaz Ali Khan, 88. Ashok Verma, 89. Bharat Sharma, 90. Bhuvan Joshi, 91. Lokmitra Gautam, 92. Ramji Tiwari, 93. Kamal Shukla, 94. Sandhya Navodita, 95. Zahreelaa Tapan, 96. Shah Alam, 97. Shiv Kumar Joshi, 98. Ashok Kumar Pandey, 99. Vks Gautam, 100. Ram Harsh Patel, 101. Pan Bohra, 102. Hanumant Sharma, 103. Arun Pradhan,

Wednesday 14 August 2013

मेरे 'बेटे' - - गिरिजेश


मेरे 'बेटे'
सारे के सारे ही
मुझसे बड़े हो गये,
मुझसे आगे सभी बढ़ गये;
मेरा सपना अब ये आँखें देख रही हैं !
इससे अधिक मुझे क्या लेना ?
किसको यह सुख लेना-देना !

मुझे ख़ुशी है;
बहुत जगा हूँ,
रात-रात भर
कलप-कलप कर
बिलख-बिलख कर
मैं रोया हूँ.
अब सोऊँगा !

दशकों बीते जाग रहा हूँ,
हरदम सरपट भाग रहा हूँ;
अब थक कर मैं चूर हो चुका,
अब सोऊँगा !

मेरे हिस्से में जो आया,
समर अभी तक मैंने झेला;
अब आगे कुछ और लड़ाई बढ़ जायेगी,
हुआ भरोसा मेरे मन को.
आज और भी हँसी-ख़ुशी से,
मस्ती से मन झूम रहा है;
पस्ती का माहौल नहीं अब पीछा करता,
अब सोऊँगा !

आज नाक का बाजा अपने,
बजा-बजा कर ज़ोर-ज़ोर से
‘ख़ुर्र-पीं, ख़ुर्र-पी’ की लय पूरे सुर में गूंजेगी ज़रूर ही.
मैं सोऊँगा !

अब तुम जगना, अब तुम लगना;
अब तुम लड़ना, आगे बढ़ना;
मैं हरदम ही साथ रहूँगा,
कदम-कदम पर
आगे-आगे मेरे चलना;
मुझको भी दिखलाना रस्ता,
इस अन्धेरे में भी तुमको सूझ रहा है;
मुझे ख़ुशी है !

हम जीतेंगे कठिन लड़ाई,
आज भले ही उनका है,
पर कल निश्चय ही अपना होगा;
पूरा जन का सपना होगा !
तुम सपने साकार करोगे,
मैं संतुष्ट हो चुका तुमसे;
अब सोऊँगा !

पूरी हुई तपस्या मेरी,
मैंने जग से जितना माँगा,
उससे भी है बढ़ कर पाया;
अब तुम सोचो,
अब तुम जानो;
कैसे होगा !
काम तुम्हारा
तुमको ही है पूरा करना.
मैं सोऊँगा !

- गिरिजेश
(1.8.13. 11p.m.)

कहानी - भड़-भड़ बाजा - गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज आइए एक कहानी सुनिए। एक होता है भड़-भड़ बाजा। गली-मुहल्ले के कोमल-किशोर बच्चे किसी सड़क के आवारा कुत्ते को या किसी धोबी के छुट्टा टहलते हुए गधे को बड़े प्यार से पकड़ लेते हैं और उसकी पूँछ में एक खाली कनस्तर एक रस्सी से बाँध कर ज़ोर से हिला देते हैं। वह कनस्तर हिलाते ही ज़ोर-ज़ोर से भड़भडाता है। उसकी आवाज़ सुन कर और उससे परेशान होकर वह कुत्ता या गधा ज़ोर से भागता है। जैसे-जैसे वह भागता जाता है, वैसे-वैसे उसके पीछे बँधा कनस्तर और भी भड़भडाता जाता है। इस बेहूदी आवाज़ के पीछा करते रहने से बेतहाशा तंग होकर बेचारा मासूम गधा पूरी ताकत लगा कर लगातार भागता चला जाता है। भागते-भागते वह बेदम होकर फेंचकुर फेंकता हुआ आख़िरकार रुक जाता है। और उसके रुकते ही कनस्तर की आवाज़ भी, जो उसे लगातार परेशान करती रही थी, थम जाती है। 

हममें से अधिकतर की यही कहानी है। हमारे परिजन और 'शुभचिंतक' भी अपने अधूरे सपनों और अपनी नाकाम कामनाओं को हमारे तरुणाई तक पहुँचते ही हमारे पीछे उसी खाली कनस्तर की तरह बाँध कर अबोध बच्चों की तरह ही लगातार बजाते रहते हैं। उनको हमारे अपने खुद के सपनों और महत्वाकांक्षाओं की रंचमात्र भी परवाह नहीं होती। वे हमसे केवल अपनी माँगों को साम-दाम-दण्ड-भेद के सहारे किसी भी कीमत पर पूरा करवाना चाहते हैं। इसके लिये वे किसी भी हद त़क उतर कर हमको तब तक हर मुमकिन तरीके से मनोवैज्ञानिक ब्लैकमेल करते रहते हैं, जब तक हम फेंचकुर फेंकने वाले गधे की तरह आखिरकार आख़िरी हद तक परेशान होकर ठहर नहीं जाते। 

उनके द्वारा इस तरह बेहूदे और शातिर तरीके से लगातार पीछा किये जाने से परेशान रहने के चक्कर में हमारी तरुणाई के शानदार और सुनहरे वर्ष एक के बाद एक लगातार बर्बाद होते चले जाते हैं। अनवरत तनावग्रस्त मनोदशा में अपने हिस्से के काम को और भी बदतर तरीके से करते हुए हम सफलता के सुख से और भी वंचित होते चले जाते हैं। ऐसी हालत में तनाव और नाकामी से परेशान होकर हम तरह-तरह की दवाओं और नशों का सहारा लेने की ओर भागते हैं। मगर डूबते को तिनके का सहारा भी राहत नहीं दे पाता। तब कुछ लोग खूब-खूब परेशान होकर आख़िरकार पागल हो जाते हैं और कुछ थक-हार कर आत्महत्या करने तक जा पहुँचते हैं। 

मगर कुछ मुट्ठी भर तरुण/तरुणी थोड़ी सूझ-बूझ और बहादुरी से काम लेते हैं और दो-टूक शब्दों में अपने चालाक 'शुभचिन्तक' परिजनों से विनम्रता किन्तु दृढ़तापूर्वक प्रतिवाद करते हैं। वे उनको स्पष्ट तौर पर बता देते हैं कि वे उनको पूरा सम्मान और स्नेह देते तो हैं। मगर वे अब बच्चे नहीं हैं और उनको उनके अपने तरीके से जीने का और अपनी ज़िन्दगी का हर फैसला ख़ुद से लेने का अधिकार है और इस अधिकार को वे किसी भी कीमत पर किसी और के हाथों में गिरवी नहीं रखेंगे। अपनी आज़ादी को वे अपने सभी स्नेह-सिक्त सम्बन्धों से बढ़ कर प्यार करते हैं। और उसके लिये कोई भी कीमत चुकाने के लिये हर-हमेशा तैयार रहते हैं। अन्जाम चाहे जो भी हो, वे किसी भी कीमत पर किसी से भी इस मामले में समझौता नहीं करते, तो नहीं करते। 

और फिर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करते रहने के बाद एक दिन वह दिन भी आता है, जब पिछली पीढ़ी के पिछड़े हुए परिजन नयी पीढी के फैसलों के सामने अपना घुटना टेक देते हैं, हार मान लेते हैं, पूरी तरह से समर्पण कर देते हैं और ठहरे हुए सम्बन्ध नयी ज़मीन पर और भी अधिक सम्मान और समानता के आधार पर और भी मज़बूत होकर निखर उठते हैं।

मेरा विनम्र अनुरोध है कि कृपया इस कहानी को पढ़ कर सोचिये कि कहीं आपके साथ भी तो ऐसा ही नहीं हो रहा है! और अगर हाँ, तो फिर आप क्या करना चाहते हैं? घुट-घुट कर जीना और हरदम परेशान रहना या फिर अपनी आज़ादी के हक़ में थोड़ा कठोर फैसला लेना और हर तरह के तनाव से मुक्त हो जाना और पूरी सहजता से पूरे सुकून से ज़िन्दगी की जंग में एक के बाद एक सफलता हासिल करते जाना ! 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

Wednesday 7 August 2013

पड़ोसी ! - गिरिजेश


हिन्दुस्तान का दुश्मन पाकिस्तान,
पाकिस्तान का दुश्मन हिन्दुस्तान,
दोनों का दोस्त अतिमहाबली अमेरिका !
अमेरिका - दुनिया का दुश्मन !
कितना शातिर है अमेरिका !
कितने मासूम हैं लोग !
लोग जो ग़रीब हैं, मजदूर हैं, मजबूर हैं.
इसकी, उसकी, सब की सुनते हैं.
मगर फिर भी कुछ नहीं गुनते हैं.
केवल महँगाई डाइन के खाते जाने पर
मज़बूरी में अपना सर धुनते हैं.
उनको जगाना है, उनको बताना है,
उनको समझाना है, उनको सिखाना है;
हिन्दुस्तान का दुश्मन पाकिस्तान नहीं है,
पाकिस्तान का दुश्मन हिन्दुस्तान नहीं है,
दोनों पड़ोसी हैं, दोनों के बीच में झगड़ा नहीं रगड़ा है.
और इस रगड़े की वजह सीमा नहीं,
अमीरी है दोनों के धनपशुओं की,
जो अवाम का खून चूसने से बढ़ती जा रही है !
सुपर प्रॉफिट कमाने वाले अतिमहाबली के ही इशारे पर होते हैं -
दंगे, सीमा-युद्ध, आतंकी हमले !
वही बेचता है हथियार लड़ाई के
हिन्दुस्तान को भी और पाकिस्तान को भी,
और देता है रिश्वत नेताओं-अधिकारियों-दलालों को
ख़रीदने के लिये मौत के औज़ार !
उसी के चलते बढ़ती है महँगाई डाइन की लपलपाती ज़ुबान !
उसी के चलते बिक रहा है देश का सारा संसाधन !
वही ख़रीद रहा है हमारा ईमान !
अगर वाकई इनको ख़त्म करना है,
अगर वाकई दोनों पड़ोसियों के बीच शान्ति और भाई-चारा बनाना है,
अगर वाकई खुशहाली के माहौल में सुकून से साँस लेनी है,
अगर वाकई बनानी है एक बेहतर दुनिया अपने बच्चों के लिये,
तो ख़त्म करना होगा
मुट्ठी भर धन-कुबेरों की भीषण और वीभत्स अमीरी को,
तोड़ना होगा दोस्ती का रिश्ता
दुनिया के दुश्मन अतिमहाबली अमेरिका से !
पकड़ना होगा कस कर पड़ोसी का हाथ
और देना होगा मुसीबत में एक दूसरे का साथ !

(8.8.13. 8.45 a.m.)

सवाल सम्बन्ध का :- गिरिजेश


सवाल सम्बन्ध का :-
प्रिय मित्र, अपने कविहृदय मित्र अशोक कुमार पाण्डेय जी के वक्तव्य में "....जहाँ वैचारिक एकता नहीं है, वहां दोस्ती का कोई सम्बन्ध सिर्फ छलावा है." इसे पढ़ कर मुझे भी हार्दिक दुःख ही हो रहा है. मार्क्स के शब्दों "आने-पाई" के सम्बन्धों पर टिकी यह अमानुषिक व्यवस्था मनुष्य और मनुष्य के बीच के सभी तरह के गरिमामय सम्बन्धों को लगातार तोड़ती जा रही है. यह हर कदम पर हमारा अमानवीयकरण करती जा रही है. 

दशकों तक हर तरह से बचाने की कोशिश करने के बावज़ूद मेरे तो सभी के सभी भावनात्मक सम्बन्ध बहुत जल्दी-जल्दी टूट चुके, रक्त-सम्बन्ध बहुत पहले ही पीछे रह गये, बचे-खुचे स्नेह-सम्बन्ध भी एक के बाद एक करके लगातार बिखरते ही जा रहे हैं, मेरे प्रति मैत्री और अविश्वास - दोनों ही तरह के विचार अनेक लोगों के मन में एक साथ पनपते रहे हैं. और तो और मैंने ही नहीं, हममें से अनेक साथियों ने वैचारिक एकता के नाम पर भी जितना ढोंग झेला है, उसके चलते मन बुरी तरह खट्टा हो चुका है. 

इस विडम्बना के चलते मेरे भीतर से जहाँ एक ओर एक स्वर उठता है - "TRUST NONE !", वहीं दूसरी ओर समझ में आता है कि ऐसा करके कहीं हम व्यवस्था के दुष्चक्र के शिकार तो नहीं हो रहे हैं, जिसकी मंशा ही हमें एक दूसरे से दूर कर के हर एक को हर तरह से अलगाव में डाल कर सतत तनावग्रस्त और अवसादग्रस्त कर देने की है. ताकि उसके भष्टाचार, अत्याचार और शोषण के विरोध का स्वर और भी कमज़ोर होता चला जाये. 

ऐसे में कम से कम मुझे तो लगता है कि व्यवस्था विरोधी संघर्ष के लिये नये-नये साथियों को जोड़ते समय हमें थोड़ी सतर्कता और थोड़े सन्देह के साथ अपने नये सम्बन्धों की शुरुवात करते हुए अपने सभी भावनात्मक सम्बन्धों को वैचारिक धरातल तक उठाने की कोशिश करनी होगी. परन्तु कम से कम एकजुटता के धरातल पर ही सही सम्बन्धों का निर्वाह करने के प्रयास में हमसे अनेक मुद्दों पर मतभेद रखने वाले मित्रों की वैचारिक प्रतिबद्धता का सम्मान भी करते रहना होगा. इस कोशिश में अपने निकट आने वाले हर 'दो-पाये' पर हमें न्यूनतम विश्वास तो करना ही होगा, कम से कम तब तक, जब तक वह अपनी कुटिल करतूत को जग-जाहिर करके पूरी तरह जनविरोधी साबित न हो जाये. 

और ऐसा होने पर पूरी तरह से निर्मम होकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद भी करना ही पड़ेगा, उसका पर्दाफाश भी करना ही पड़ेगा और किसी दूसरे नये मानवीय सम्बन्ध के लिये उसकी जगह खाली ही करनी पड़ेगी, चाहे हमें उससे कितना ही मोह क्यों न हो. क्योंकि उसका साथ तो हमें हरदम ही और भी नकारात्मक भावनाओं की हताशा में डुबाता ही रहेगा. कम से कम उसके दूर हो जाने पर पीड़ा चाहे जितनी हो, कुछ न कुछ नये लोगों से आगे और सम्पर्क और सम्बन्ध के लिये और भी रचनात्मक और सकारात्मक प्रयास करने की सम्भावना प्रबल होती जानी है.

तभी हम सभी एकजुट हो कर इस जनविरोधी व्यवस्था के विरुद्ध और भी सशक्त प्रतिवाद और प्रतिरोध का स्वर मुखरित कर सकेंगे. और "दुनिया के मेहनतकशों" को एक करने के सपने को साकार करने की दिशा में अपने स्तर पर छोटा-सा ही सही मगर सही दिशा में एक और कदम बढ़ाने का हार्दिक आनन्द हम सब को मयस्सर हो सकेगा. 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

मैं सोऊँगा ! - गिरिजेश




मेरे 'बेटे'
सारे के सारे ही
मुझसे बड़े हो गये,
मुझसे आगे सभी बढ़ गये;
मेरा सपना अब ये आँखें देख रही हैं !
इससे अधिक मुझे क्या लेना ?
किसको यह सुख लेना-देना !

मुझे ख़ुशी है;
बहुत जगा हूँ,
रात-रात भर
कलप-कलप कर
बिलख-बिलख कर
मैं रोया हूँ.
अब सोऊँगा !

दशकों बीते जाग रहा हूँ,
हरदम सरपट भाग रहा हूँ;
अब थक कर मैं चूर हो चुका,
अब सोऊँगा !

मेरे हिस्से में जो आया,
समर अभी तक मैंने झेला;
अब आगे कुछ और लड़ाई बढ़ जायेगी,
हुआ भरोसा मेरे मन को.
आज और भी हँसी-ख़ुशी से,
मस्ती से मन झूम रहा है;
पस्ती का माहौल नहीं अब पीछा करता,
अब सोऊँगा !

आज नाक का बाजा अपने,
बजा-बजा कर ज़ोर-ज़ोर से
‘ख़ुर्र-पीं, ख़ुर्र-पी’ की लय पूरे सुर में गूंजेगी ज़रूर ही.
मैं सोऊँगा !

अब तुम जगना, अब तुम लगना;
अब तुम लड़ना, आगे बढ़ना;
मैं हरदम ही साथ रहूँगा,
कदम-कदम पर
आगे-आगे मेरे चलना;
मुझको भी दिखलाना रस्ता,
इस अन्धेरे में भी तुमको सूझ रहा है;
मुझे ख़ुशी है !

हम जीतेंगे कठिन लड़ाई,
आज भले ही उनका है,
पर कल निश्चय ही अपना होगा;
पूरा जन का सपना होगा !
तुम सपने साकार करोगे,
मैं संतुष्ट हो चुका तुमसे;
अब सोऊँगा !

पूरी हुई तपस्या मेरी,
मैंने जग से जितना माँगा,
उससे भी है बढ़ कर पाया;
अब तुम सोचो,
अब तुम जानो;
कैसे होगा !
काम तुम्हारा
तुमको ही है पूरा करना.
मैं सोऊँगा !

- गिरिजेश
(1.8.13. 11p.m.)

Sunday 4 August 2013

सच कहा, हे मित्र, तुमने...- गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज मैत्री-दिवस है.
यह धरती का एकमात्र निःस्वार्थ सम्बन्ध है.
इस अवसर पर एक मित्र को सम्बोधित मेरी यह कविता देखिए -

-:सच कहा, हे मित्र, तुमने... :-
"क्या कहा?
हे मित्र, सच ही कहा तुमने आज फिर से;
हाँ, मुझे हँसना नहीं आया।
किन्तु पत्थर-बँधे पैरों दौड़ने की कोशिशों ने
जो मेरा छक्का छुड़ाया,
डगमगाया, लड़खड़ा कर गिरा, तो जग हँसा!
तभी जा कर मैं ठठा कर हँसा, हँसता गया...
फिर तो
शान्ति को झंझोड़ता, स्तब्धकारी, लोमहर्षक, उच्च स्वर का अट्टहास -
हर ओर मैंने गुँजा डाला, तब कहीं जग दहल पाया।

हाँ, मुझे चलना नहीं आया!
किन्तु पथ की विकटता ने जब मेरे उद्दाम साहस को बताया धता,
फिर तो,
चुनौती का हाथ थामे
लक्ष्य तक मैं भागता सरपट चला आया;
और चलना जगत को मैंने सिखाया।

सच कहा तुमने, मुझे रोना नहीं आया!
किन्तु जग की क्रूरता ने
जब मेरे भीतर भरे स्नेहिल स्वरों को काट खाया,
तो व्यथा बोझिल बना बैठी विवशता ने
तुम्हें भी बिलबिलाया और मुझको भी रुलाया;
रुदन बन अभिशाप आया।

मानता हूँ मुझे सच कहना नहीं आया।
किन्तु अत्याचार, शोषण, विषमता, अन्याय का वीभत्स ताण्डव
तो कचोटे जा रहा है सतत इस मासूम दिल को,
क्या करूँ?
कुछ अटपटे, कुछ-कुछ कड़े स्वर
कल्पना के पंख पहने
बुदबुदा कर उभर उठते हैं अँधेरी रात में,
नींद से बोझिल मनो-मस्तिष्क कड़ुआती पलक को खोल देते हैं,
थमा देते हैं कलम के साथ बूँदें हृदय की संवेदना को रिसा कर के;
तभी तो, कुछ कभी, कुछ का कुछ कभी, कहता चला आया।
लिखा, काटा, मिटाया; फिर लिखा, काटा, मिटाया;
धैर्य रक्खा, और मैं यह अन्ततः स्पष्ट लिख पाया ।"

आज मुझे मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन-स्टालिन, माओ त्से तुंग-चू तेह, फिदेल-चे, राणा प्रताप-भामाशाह, हैदर अली-पुन्नैया पण्डित, आज़ाद-भगत सिंह, अकबर-बीरबल जैसे अनेक लोगों की मैत्री की याद आ रही है.
मुझे अपने अतीत और वर्तमान के सभी मित्रों के साथ और उनसे दूर हो जाने के बाद गुज़ारे गये वक्त के मीठे और कडुए संस्मरणों की याद आ रही है.
आज मैं अपने सभी मित्रों के प्रति अन्तर्मन से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने मेरे व्यक्तित्व की ढेरों सीमाओं को नज़रअंदाज़ कर के भी मेरे साथ इस पवित्रतम सम्बन्ध का निर्वाह किया है.
आज तक मैं जो कुछ भी मानवता की सेवा करने के प्रयास में जो भी सफलता या विफलता हासिल कर सका हूँ, उस सब का श्रेय जीवन के अलग-अलग मोड़ों पर केवल और केवल मेरे सभी मित्रों द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिका को है.
इस अवसर पर मैं अपने सभी मित्रों के लिये और भी सुखद और सार्थक जीवन की कामना करता हूँ.
आज मुझे अचानक यह गीत याद आ रहा है. आप भी सुनिए और सोचिए कि क्या इस गीत का कथ्य मेरे जीवन का मूल स्वर नहीं है.
अगर हाँ, तो क्यों !
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
https://www.youtube.com/watch?v=aPX8_b_NqmM

Friday 2 August 2013

धनतन्त्र की समाज-व्यवस्था - गिरिजेश


विद्रोही अमन - हम जब भी मीडिया कि बात करते हैं या गरियाते हैं तो उसको लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का तमगा भी लगा देते हैं, लेकिन लोकतंत्र के पहले, दूसरे और तीसरे स्तम्भ का नाम आज तक नही सुन पाया किसी भी लेख में, जिज्ञासा है जानने की ये तीन स्तम्भ कौन से हैं?? कृपया पथ प्रदर्शित करें??
____________________________________

Akshat BaLodi - Karenge.. jald hi

Mohan Shrotriya - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों के बारे में खूब लिखा जाता है यहां भी।

विद्रोही अमन - धन्यवाद् सर.

Naresh Semwal - or panchwa istmbh ap h Aman g

Piyush Kumar - Ye chauthe shtambh ka tamga aap jaise vidhroi log lagte hain.....dhyan se dekho....ye teen shtambh humara loktantra hai...jise duniya ka sabse majboot loktantra bnata hai.....Agar aapko ye teen loktantra pta karna hai to plz...dil se ek baar Hindustan ko jaan lo........kyunki vidhroh karne wale to bahut hai...but sawrane wale kum........i will be waiting for ur reply...mr Hindustan vidhroi.... 

Aapka path pardrisht karne ke liye education ke saath development bhi padna padega.....m sry...but its reality for u Mr. Vidhrohi....

Rahul Singh - 9th or 10th me civics......nahi padhe the kya bHai.....agar padhe hote..... Ye question nahi puch rahe hote aaj.....
https://www.facebook.com/aman.badoni
https://www.facebook.com/aman.badoni/posts/960577777320862?ref=notif&notif_t=tagged_with_story
____________________

व्यवस्था - गिरिजेश
प्रिय मित्र, व्यवस्था के बारे में समझ साफ़ न होने से हम अक्सर भ्रम के शिकार बना दिये जाते हैं और इस लुटेरी व्यवस्था को थोडा-बहुत सुधारने की कोशिश को व्यवस्था बदलने की क्रान्तिकारी लड़ाई की कार्यवाही मान बैठते हैं। देश के उच्चतम न्यायलय के गत दिनों नेताओं के चुनाव लड़ने के बारे में आये निर्णयों ने एक बार फिर इस भ्रम को फैलाने में सफलता पायी है।

व्यवस्था क्या है - यह समझने की ज़रूरत है। सत्ता क्या है - इसे जानने की ज़रुरत भी है।
व्यवस्था है किसी भी समाज में चल रहे सम्बन्धों को चलते रहने देना। सत्ता है उन सम्बन्धों के चलते रहने में आने वाली रुकावटों को दूर करने वाला वह डंडा, जिसके दम पर शासक वर्ग आम जन को शोषण, उत्पीड़न और दमन की चक्की के दो पाटों के बीच पीसते समय ज़बरदस्ती कुचलता रहता है।

समाज में दो तरह के लोग एक साथ रहते हैं - अधिकतम कंगाल और मुट्ठी भर मालामाल। उनके रोजी-रोटी, आय-व्यय, रहन-सहन, जनम-मरण, सोच-समझ, आचार-विचार, शिक्षण-प्रशिक्षण - सब के सब एक जैसे स्तर के ही होने के चलते उनको एक वर्ग कहते हैं। एक वर्ग कमेरों का है, तो दूसरा वर्ग लुटेरों का है। लुटेरों के वर्ग का इन्सान के ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी सारे सामानों का उत्पादन करने वाले सभी साधनों पर आज कब्ज़ा है।

उत्पादन उस प्रक्रिया का नाम है, जिसके ज़रिये इन्सान प्रकृति प्रदत्त सभी उपहारों को अपने उपभोग योग्य स्वरूप में रूपांतरित करने के लिए श्रम करता है। श्रम करने वाले को ज़िन्दा रहने भर को 'मज़दूरी' दे कर समूचे उत्पादन पर अपना कब्ज़ा करके शोषक वर्ग अपना 'मुनाफा' का पहाड़ खडा करता रहता है। इस तरह ये दो तरह के इन्सान बन जाते हैं। एक तरफ मुट्ठी भर मालामाल हैं, तो दूसरी तरफ़ करोड़ों करोड़ कंगाल हैं।

अब आती है सत्ता - इसके तीन मुख्य स्तम्भ हैं - न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका। चौथा स्तम्भ मीडिया को कहते हैं और सत्ता के लिये देश और विदेशों में जासूसी करने वाले विभाग के कर्मियों को 'पंचमांगी' के नाम से जानते हैं। विधायिका परदे के सामने कठपुतली की तरह शासक वर्ग द्वारा चुनाव और सरकार के नाटक में पक्ष-विपक्ष के नाम दे कर लगातार नचाई जाती रहती है, ताकि आम जन के बीच वोट-तन्त्र के सहारे धन-तन्त्र ख़ुद के 'जनतन्त्र' होने का भ्रम बनाये रखे।

असल में तो सारी नीतियों को लागू करने का ही नहीं, उनको बनाने का भी काम कार्यपालिका की आइ.ए.एस. लॉबी करती है।

सत्ता किसी नेता या किसी पार्टी की होती ही नहीं। किसी भी नेता या उसकी पार्टी की तो केवल सरकार ही हो सकती है। सत्ता तो शासक वर्ग की होती है। और आज इस देश ही नहीं समूची दुनिया का शासक वर्ग देशी-विदेशी पूँजी का नापाक गठबन्धन है। केवल हमारे ही देश में ही नहीं, बल्कि आज के इस अति विकसित पूंजीवादी जगत तथाकथित 'वैश्विक गाँव' के किसी भी देश में जिस किसी भी पार्टी की सरकार हो, वह हमेशा ही हर नीति और हर निर्णय धनिक वर्ग के देशी-विदेशी उद्योगों के मालिकों के हित में ही बनाती रहती है।

आइए अब न्यायपालिका की भूमिका को समझने की कोशिश करें। न्यायपालिका मौका पाते ही विधायिका के अलोकप्रिय कुकर्मों के विरुद्ध बार-बार फैसला देती रहती है। परन्तु अगर न्यायपालिका विधायिका के ऊपर अंकुश लगाने का प्रयास करती है, तो विधायिका भी न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने के लिये बार-बार धमकाती रहती है।

न्यायपालिका द्वारा ऐसा फैसला केवल आम जन के दिमाग में इस भ्रम को बनाये रखने और व्यवस्था के चौथे स्तम्भ मीडिया द्वारा प्रचारित कराते रहने के लिये किया जाता है कि न्यायपालिका सत्ता से ऊपर और समाज से भी ऊपर संविधान की तरह एक परम पवित्र, सर्वशक्तिमान और सर्वमान्य शक्ति है। और वह तो निष्पक्ष ही होती है।

इनमें से केवल विधायिका के लोगों का चुनाव होता है. केवल वे ही इलेक्ट किये जाते हैं. ताकि शोषित शासित जन सामान्य को समझाया जा सके कि यह धनतन्त्र वास्तव में जनतन्त्र है क्योंकि उनके पास मतदान करने का अधिकार है. मगर शेष सभी स्तम्भों के लोगों का सिलेक्शन होता है. उनका काम शोषित शासित वर्गों के ऊपर शासक पूँजीपति वर्ग के द्वारा सतत जारी शोषण को बिना किसी व्यवधान के चलाते रहने की व्यवस्था देना और उसे लागू करवाना होता है. किसी भी तरह का व्यवधान आते ही शासक वर्गों की सत्ता की नौकरी करने वाली उनकी पुलिस और सेना विद्रोहियों से सख्ती से निपटती है.

मगर सोचने का मामला तो यह है कि इस लूट-तन्त्र में लूटे जा रहे कंगाल और उसे लूटने वाले मालामाल वर्ग के बीच के परस्पर विरोधी हितों के बीच शासक वर्ग की सत्ता के तरह-तरह के औजारों में से केवल एक औजार के तौर पर बनाया गया और चलाया जा रहा न्याय की अंधी देवी के मन्दिर का यह औजार क्या निष्पक्ष हो सकता है !!!

सोचने में हमारी मदद बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता कर सकती है - 
"सभी अफसर उनके… "
________________________________

यह टिप्पड़ी इस कविता पर है -

"अन्ना ने एक अँधेरे कमरे में दिया जलाया था ,
इस सड़े गले सिस्टम को बदलने के लिए ,
उम्मीद की एक किरण को पैदा किया था ,

आज कमरे में थोड़ी सी रौशनी नज़र आने लगी है ,
उम्मीद थोड़ी जागने लगी है ,

पिछले दिनों कुछ अच्छे फैंसले हुए ,
ये फैंसले संसद ने नहीं किये ,
जिनका ये काम है ,

ये फैंसले देश की अदालतों ने किये ,
जिन पर आम आदमी का विश्वास अभी जिन्दा है ,

पहला फैंसला सरकार सीबीआई को आजाद करे ,
वरना मजबूरन हमे आजाद करना पड़ेगा ,

दूसरा फैंसला लुभाने वाले चुनावी वादों पर अंकुश लगाया जाये ,

तीसरा फैंसला किसी भी अदालत से,
2 साल की सजा पाने वाले नेता की संसद और विधानसभा से छुटी ,

चोथा फैंसला जाती के आधार पर रैलिये करने पर रोक ,

पांचवा फैंसला राजनितिक पार्टी को RTI में लाने की कोशिश ,

धीरे धीरे ही सही ,
परिवर्तन का सूरज निकल रहा है ,

हर उम्मीद टूटने के बाद ,
नयी उम्मीदे जन्म ले रही हैं ,

कुछ लोग कोशिश कर रहे हैं ,
अगर कुछ और लोग कोशिश करे ,
विव्स्था परिवर्तन हो ही जायेगा , जय हिन्द " - Sandeep Garg

http://www.facebook.com/AamAadmiPartyLehragaga
http://www.facebook.com/WeWantArvindKejriwalAsIndianPm
_________

Satya Narayan
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की ये कविता इस व्‍यवस्‍था की "निष्‍पक्षता" को हमारे सामने खोलकर रख देती है।

वो सब कुछ करने को तैयार
वो सब कुछ करने को तैयार
सभी अफ़सर उनके
जेल और सुधार-घर उनके
सभी दफ़्तर उनके

क़ानूनी किताबें उनकी
कारख़ाने हथियारों के
पादरी प्रोफ़ेसर उनके
जज और जेलर तक उनके
सभी अफ़सर उनके

अख़बार, छापेख़ाने
हमें अपना बनाने के
बहाने चुप कराने के
नेता और गुण्डे तक उनके
सभी अफसर उनके

एक दिन ऐसा आयेगा
पैसा फिर काम न आयेगा
धरा हथियार रह जायेगा
और ये जल्दी ही होगा
ये ढाँचा बदल जायेगा

ये ढाँचा बदल जायेगा
ये ढाँचा बदल जायेगा
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (‘मदर’ नाटक से)


http://www.youtube.com/watch?v=Dt5GJfqCMSI

http://young-azamgarh.blogspot.in/2013/08/blog-post_2.html

— with Girijesh Tiwari.

ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है ! - गिरिजेश




ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है !
हर एक इन्सान दर्द में डूबा, हर एक दिल यहाँ इतना अधिक उदास क्यों है !
ज़िन्दगी के हर एक मोड़ पर
मेरी भलाई चाहने वाले मेरे सभी के सभी ‘शुभ-चिन्तकों’ ने
मेरी ख़ातिर ख़ूब-ख़ूब कोशिश की.
मुझे हज़ार बार, हर कदम प’, हर तरह सिखाया गया –
“बेवकूफ़, थोड़ा और समझदार बनो !”

मेरी समझ से अभी भी मेरा गुनाह महज़ इतना है –
“मैं इनको, उनको, सबको बेतहाशा प्यार करता हूँ.”
अभी भी मेरी ग़लतियाँ कोई भी मुझे बताता ही नहीं.
मेरा अपराध बताने की जगह सभी महज़ इतना ही कहते रहते हैं –
“तुम बेवकूफ़ हो, कुछ भी समझ ही नहीं सकते.”
उनकी सज़ा मेरे लिये अब तो यही मुक़र्रर है –
“जुबान बन्द रखो, कुछ भी किसी से न कहो.”

अगर मुझे पता ही न चल पाये –
“क्या है चूक मेरी या है क्या मेरी ग़लती !”
और यह मुझको बताने के लिये भी कोई भी तैयार न हो.
हर एक मुझसे महज़ बार-बार यही कहे, कहता रहे –
“तुम समझ नहीं सकते, तुम तो अव्यावहारिक हो.”
क्या महज़ इतनी बात सुन-सुन कर खुद ही सब समझ लूँगा ?
और समझदार भी बन जाऊँगा?

मुझे अभी भी नहीं लग रहा है –
मैंने आज तक किसी से भी, किसी तरह से, कभी भी, कोई भी ग़द्दारी की.
हाँ, ज़िन्दगी में जब कभी चालाक दिमागों ने मेरा पीछा किया.
मुझे किसी भी तरह से फँसाने-जकड़ने की कोशिश की.
मैं चुपचाप “दो कदम पीछे” हटा.
वे मुझको कभी भी किसी भी तरह से जकड़ नहीं पाये.
मुझे किसी का भी कैसा भी रहा हो, मगर पट्टा नहीं बर्दाश्त हुआ.
और मैं भाग चला देख कर दोहरेपन को.

“दो क़दम पीछे” हटा.
और फिर से उसी सड़क पर पहुँचा.
जिसने मुझे बार-बार गिरने पर उठाया है.
जिसने मुझे बार-बार प्यार दिया, मौका दिया, काम दिया.
फिर भी चाहे कितना भी दर्द झेलना पड़ा मुझको.
कभी पलट कर अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे न हटा.

मगर अब भी मुझे समझ में नहीं आता है –
ऐसी हालात है मेरे दिल की !
और मैं क्या कर दूँ, कैसे करूँ ?
किससे कहूँ, कैसे कहूँ, कितना कहूँ ?
सामने इतना बड़ा काम है ललकार रहा,
मेरा ईमान भी मुझको ही है धिक्कार रहा;
मगर य’ दिल है कि कुछ सुनने को तैयार नहीं,
और कुछ सोच सकूँ इसके भी आसार नहीं.
3.8.13. (8 a.m.)