Sunday 4 August 2013

सच कहा, हे मित्र, तुमने...- गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज मैत्री-दिवस है.
यह धरती का एकमात्र निःस्वार्थ सम्बन्ध है.
इस अवसर पर एक मित्र को सम्बोधित मेरी यह कविता देखिए -

-:सच कहा, हे मित्र, तुमने... :-
"क्या कहा?
हे मित्र, सच ही कहा तुमने आज फिर से;
हाँ, मुझे हँसना नहीं आया।
किन्तु पत्थर-बँधे पैरों दौड़ने की कोशिशों ने
जो मेरा छक्का छुड़ाया,
डगमगाया, लड़खड़ा कर गिरा, तो जग हँसा!
तभी जा कर मैं ठठा कर हँसा, हँसता गया...
फिर तो
शान्ति को झंझोड़ता, स्तब्धकारी, लोमहर्षक, उच्च स्वर का अट्टहास -
हर ओर मैंने गुँजा डाला, तब कहीं जग दहल पाया।

हाँ, मुझे चलना नहीं आया!
किन्तु पथ की विकटता ने जब मेरे उद्दाम साहस को बताया धता,
फिर तो,
चुनौती का हाथ थामे
लक्ष्य तक मैं भागता सरपट चला आया;
और चलना जगत को मैंने सिखाया।

सच कहा तुमने, मुझे रोना नहीं आया!
किन्तु जग की क्रूरता ने
जब मेरे भीतर भरे स्नेहिल स्वरों को काट खाया,
तो व्यथा बोझिल बना बैठी विवशता ने
तुम्हें भी बिलबिलाया और मुझको भी रुलाया;
रुदन बन अभिशाप आया।

मानता हूँ मुझे सच कहना नहीं आया।
किन्तु अत्याचार, शोषण, विषमता, अन्याय का वीभत्स ताण्डव
तो कचोटे जा रहा है सतत इस मासूम दिल को,
क्या करूँ?
कुछ अटपटे, कुछ-कुछ कड़े स्वर
कल्पना के पंख पहने
बुदबुदा कर उभर उठते हैं अँधेरी रात में,
नींद से बोझिल मनो-मस्तिष्क कड़ुआती पलक को खोल देते हैं,
थमा देते हैं कलम के साथ बूँदें हृदय की संवेदना को रिसा कर के;
तभी तो, कुछ कभी, कुछ का कुछ कभी, कहता चला आया।
लिखा, काटा, मिटाया; फिर लिखा, काटा, मिटाया;
धैर्य रक्खा, और मैं यह अन्ततः स्पष्ट लिख पाया ।"

आज मुझे मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन-स्टालिन, माओ त्से तुंग-चू तेह, फिदेल-चे, राणा प्रताप-भामाशाह, हैदर अली-पुन्नैया पण्डित, आज़ाद-भगत सिंह, अकबर-बीरबल जैसे अनेक लोगों की मैत्री की याद आ रही है.
मुझे अपने अतीत और वर्तमान के सभी मित्रों के साथ और उनसे दूर हो जाने के बाद गुज़ारे गये वक्त के मीठे और कडुए संस्मरणों की याद आ रही है.
आज मैं अपने सभी मित्रों के प्रति अन्तर्मन से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने मेरे व्यक्तित्व की ढेरों सीमाओं को नज़रअंदाज़ कर के भी मेरे साथ इस पवित्रतम सम्बन्ध का निर्वाह किया है.
आज तक मैं जो कुछ भी मानवता की सेवा करने के प्रयास में जो भी सफलता या विफलता हासिल कर सका हूँ, उस सब का श्रेय जीवन के अलग-अलग मोड़ों पर केवल और केवल मेरे सभी मित्रों द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिका को है.
इस अवसर पर मैं अपने सभी मित्रों के लिये और भी सुखद और सार्थक जीवन की कामना करता हूँ.
आज मुझे अचानक यह गीत याद आ रहा है. आप भी सुनिए और सोचिए कि क्या इस गीत का कथ्य मेरे जीवन का मूल स्वर नहीं है.
अगर हाँ, तो क्यों !
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
https://www.youtube.com/watch?v=aPX8_b_NqmM

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