Wednesday 9 April 2014

भारतीय लोकतन्त्र : चुनौतियाँ और समाधान - गिरिजेश (राहुल-दिवस 9.4.14.)





प्रिय मित्र, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आज़मगढ़ में जन्म लेने वाले हमारे विश्व-विख्यात क्रान्तिकारी पुरखे थे|
उनके बहुआयामीय जीवन का हर पक्ष - चिन्तन, आचरण और लेखन सदा की तरह ही आज भी युवा क्रान्तिकारियों के लिये पथ-प्रदर्शक और प्रेरक है|
कल उनका 121 वाँ जन्म-दिन था|
उनके वंशज मेरे मित्र Madan Mohan Pandey जी ने उनके गाँव कनैला, चक्रपानपुर में उनके नाम पर अपने खेत में बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बनाया है|
कल उस विद्यालय में एक विचार-गोष्ठी थी|
गोष्ठी का विषय था – “भारतीय लोकतन्त्र : चुनौतियाँ और समाधान”
मुझे इस गोष्ठी की अध्यक्षता करने का अवसर प्रदान किया गया|
मेरा यह व्याख्यान वैश्विक लोकतन्त्र की विकास-यात्रा की चर्चा करता है|
साथ ही वर्तमान भारतीय लोक-तन्त्र की विशिष्ट ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण करता है|
इसके बाद पूँजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए उसके परिवर्तन के लिये किये जाने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन पर बात करता है|
और अन्त में बाज़ार पर निर्भर वर्तमान व्यवस्था का विकल्प देने वाले जन-दिशा में रचनात्मक मॉडल खड़ा करने के प्रयास पर प्रकाश डालता है| 
आशा है कि मेरे इस व्याखान से नये वक्ताओं को वक्तृता-कला की बारीकियाँ सीखने में सहायता मिलेगी|
साथ ही सभी युवा मित्रों को अपने दृष्टिकोण और अपनी विश्लेषण-क्षमता का विकास करने में भी सहायता मिल सकेगी|
मेरा यह व्याख्यान 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की ओर से अपलोड होने वाली इस श्रृंखला का इकतीसवाँ व्याख्यान है|
यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है|
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें|
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश

Monday 7 April 2014

शार्टकट का सवाल :


Voip Provider - bhaiya thoda shortcut me likha karo itna time kiske pas hai fb pe....
उत्तर : Voip Provider ji, जीवन, प्रकृति और विज्ञान तीनों में कोई शार्ट कट नहीं होता. इस शार्ट कट की सोच ने ही हमें कमज़ोर और धूर्त बनाया है. यह शार्ट कट पद्धति कितनी हानि कर चुकी है, इसका केवल एक उदहारण से ही पता चल जाता है.

पढ़ाई शार्ट कट होने लगी, तो छात्र मेहनत से किताबें - टेक्स्ट बुक और रिफरेन्स बुक - पढ़ने और विस्तार में नोट्स बनाने की जगह श्योर शॉट सीरीज़ से परीक्षा देने लगे. शार्ट कट में कॉपी जाँच दी जाने लगी, तो पास तो सभी हो गये. हर छात्र के हाथ में पास होने का सर्टिफिकेट देने वाली और सबको पास कर देने वाली इस शिक्षा-पद्धति की चालाक व्यवस्था के चलते कोई भी परीक्षा पास करने पर भी किसी भी छात्र को कुछ भी आया ही नहीं. हर जगह प्रवेश परीक्षा करवानी पड़ी. यहाँ तक कि अगर आप उसी विद्यालय के छात्र हैं और पिछली परीक्षा पास कर चुके हैं, तो भी अगली कक्षा में प्रवेश के लिये प्रवेश परीक्षा देने की परिस्थिति बन गयी.

शार्ट मेमोरी वाले फेसबुक पर भी शार्ट कट में ही लिखा जाये - यह चलन भी अनुचित है. शॉर्टकट में लिखने से कोई भी बात गहराई से पूरी तरह समझना असम्भव ही है. क्योंकि कोई भी टिप्पणी तो शार्ट हो सकती है. परन्तु कोई लेख शार्ट कट में नहीं लिखा जा सकता. लेख विश्लेषण की माँग करता है और विश्लेषण के लिये लेखक और पाठक दोनों को पूरा समय देने के अलावा किसी भी मुद्दे को पूरी तरह समझने-समझाने का कोई शार्ट कट है ही नहीं.

बात जब भी होती है पूरी ही होती है. अन्यथा पूरा समय देने के बाद भी आपका दिमाग पूरी तरह से खाली रह जाना एक हास्यास्पद विसंगति ही है.

लकड़ी की तलवार और जीवन का संघर्ष : - गिरिजेश

प्रिय मित्र, हम सभी अपने आस-पास की दुनिया से प्रभावित होते हैं. हम सभी इस दुनिया की विसंगतियों से क्षुब्ध होते हैं. हम सभी इन विसंगतियों को सहन नहीं कर सकते. और इसी कारण इनको दूर करना चाहते हैं. इनको दूर करने की हमारी चाहत असली चाहत है. हम अपने किसी भी मित्र की चाहत और उसके प्रयास पर सन्देह नहीं करते हैं. हम सब की सामूहिक ताकत ही इस चाहत को फैसलाकून ऐक्शन में बदलने में सफल हो सकती है.

महान माओ कहते हैं कि "दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है और दोस्त का दुश्मन दुश्मन होता है". आचार्य चाणक्य मगध जीतने के लिये काशिराज के साथ संयुक्त मोर्चा बनाते हैं. संयुक्त मोर्चे में केवल इक्का-दुक्का मुद्दों पर सहमति होती है. शेष मुद्दों पर आलोचना की स्वतन्त्रता रहती है. जापान के विरुद्ध माओ ने कुओ-मिन्तांग के साथ संयुक्त मोर्चा भी बनाया और उसकी जनविरोधी नीतियों और अवस्थितियों की आलोचना भी जारी रखी. चाणक्य ने भी अन्ततः काशिराज का वध 'विषकन्या' के हाथों करवा दिया. जबकि उसी रात काशिराज का भेजा वधिक चन्द्रगुप्त की हत्या नहीं कर सका.

हम अपने पुरखों से लड़ाई के दाँव-पेच सीखते हैं. अगर हम सही तरीके से सीख सके हैं, तो उसे अपनी परिस्थितियों में उनका सही तरीके से विश्लेषण करके सफलतापूर्वक लागू भी कर सकेंगे. मगर अगर हम उनकी शिक्षाओं को केवल किताबों के पन्नों के काले अक्षरों के रूप में सीख सके हैं, तो हम असली जीवन में उसके विपरीत ही लागू करने को बाध्य होंगे. कदम-कदम पर अनुभव संगत चूक करते जायेंगे और फिर निश्चय ही हमारे फैसले और हमारे कदम हमको नुकसान ही पहुँचायेंगे और इस तरह केवल जन-शत्रुओं को लाभान्वित करेंगे.

अब यह फैसला हमको ही करना है कि क्या हम आँख बन्द करके दोनों हाथों से तलवार भाँजेंगे, या फिर आँख खोल कर सूझ-बूझ से काम लेंगे. सवाल यह भी है कि क्या हम एक दूसरे पर सन्देह करके अपनी एकजुटता को कमज़ोर कर देंगे या परस्पर के विश्वास को बनाये रखेंगे. सवाल यह भी है कि क्या हम दुश्मन के हथियार से उसके स्तर पर उतर कर लड़ेंगे या फिर उसके खिलाफ़ अपनी लड़ाई को अपनी गरिमा और अपने स्तर के अनुरूप आगे बढायेंगे. सवाल यह भी है कि क्या हम दुश्मन के साथ केवल कीचड़ में लोट-पोट करेंगे या दुश्मन को चकमा देंगे, उसे अपने पाले में उतरने के लिये बाध्य कर देंगे और तब उसे आसानी से परास्त कर देंगे.

और आख़िरी और सबसे महत्वपूर्ण सवाल अभी-अभी एक मित्र ने पूछा कि क्या हम केवल ''लकड़ी की तलवार'' ही भाँजते रहेंगे और हर तरह के दर्शकों से खचाखच भरी रंगशाला के रंगमंच पर घनघोर युद्ध के अभिनय का स्वाँग ही भरते रहेंगे या हम असली तलवार से ही मुमकिन हो सकने वाली जीवन की असली लड़ाई की लम्बी तैयारी के लिये धीरज से काम लेंगे.

उम्मीद है आप मेरे अनुरोध को सम्मान के साथ सकारात्मक रूप में लेंगे. इसे अन्यथा नहीं महसूस करेंगे. मेरा मकसद किसी भी तरह से आपको आहत करना नहीं है. मेरा मकसद केवल आप से धीरज से काम लेने और लम्बे संघर्ष की रचनात्मक कार्य-योजना बनाने की उम्मीद के साथ विनम्रतापूर्वक निवेदन करना ही है.

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश
                                                  29.3.14. (9.25 p.m.)

चुनाववाद-मुर्दाबाद !


“जातिवाद का नारा है, अपना नेता प्यारा है;
दुर्गा हो या रमाकान्त हो, गुण्डा है हत्यारा है!
उसे वोट दे आना है, या हत्या करवाना है?
नेता का घर कोठी है, चमड़ी उसकी मोटी है।
बन्दूकों की छाया है, सब चुनाव की माया है;
लूट रहे हैं, लूटेंगे, जो बोलेगा पीटेंगे”!

क्या जनता का फ़र्ज़ महज़ वोट डाल कर आना है?
और लूटते जाने का हरदम, वोट बहाना है!

महँगी शिक्षा-महँगा तेल, देख रहे नेता का खेल!
नहीं हाथ को मिलता काम, कैसे लें हम वोट का नाम?

घूस, दलाली, गुणडागर्दी, चोरबाजा़री जारी है।
अरबों जनता क्यों हल्की है? कैसे नेता भारी है?

कौन पार्टी जनता के दुःख दर्दों को दूर करे?
सारे नेता चोर हुए, सब अपनी ही जेब भरें।

नेता जी कितने चाईं हैं, बात बड़ी-बड़ी करते हैं।
जनता की सेवा करने को, मुहँ से ही जीते-मरते हैं।

दब्बू देते वोट हैं, गुण्डे करते राज।
दुर्गति जनता झेलती, देश बिक रहा आज।

कैसे दें हम वोट? हमारी सड़क खराब बनायी क्यों?
किसको दें हम वोट? भला अब चिन्ता किसे हमारी है?

वोट माँगने आता नेता, तनिक नहीं शरमाता नेता।
पाँच साल तक लूट चुका है, फिर भी लूट मचाता नेता।

सच्ची बात सुनो सभी, डंकल छाया आज।
ऐसे में गद्दार को, कैसे दें फिर ताज?

देश बेच कर खाने वाले, तनिक नहीं शरमाते हैं।
डंकल-ज़िन्दाबाद बोल कर वोट माँगने आते हैं।

क्या इनको ही चुनना हैं? खुद ही फन्दा बुनना है? 

इन्कलाब ज़िन्दाबाद !! – गिरिजेश

मेहनत जारी रहे....!


प्रिय मित्र, ज़िन्दगी बार-बार हमारी परीक्षा लेती रहती है. इन सभी परीक्षाओं में हमारे सामने दो ही संभावनाएँ रहती हैं. या तो हम मेहनत और लगन से अपना काम करते हैं और सफल हो जाते हैं या फिर इसके विपरीत करने से असफल. अपने काम में सफलता पाने के लिये हमको सतत श्रम करना होता है. धीरे-धीरे और लगातार किया गया हमारा श्रम हमारी कार्य-क्षमता को बढ़ाता जाता है. और उसी का नतीज़ा होता है कि हम अपने प्रतिद्वन्द्वियों से कहीं आगे निकल जाते हैं. और फिर अन्तत: परिणाम हमारे अनुकूल आ जाता है. हम सफल हो जाते हैं. 

परन्तु यह सफलता अक्सर हमारे अन्दर के दम्भ को बढ़ा देती है. दम्भ के बढ़ते चले जाने के कारण हमको अपनी प्रशंसा करने वाले प्रिय लगने लगते हैं और आलोचना करने वाले अप्रिय. इन प्रशंसकों के बीच कुछ स्वार्थी चाटुकार भी होते हैं. ये चाटुकार हमारी सफलता की प्रशंसा करके अपने स्वार्थों को हमारे ज़रिये साधने के चक्कर में रहते हैं. उनसे हमको सजग रहना होगा. वरना ये अपना काम निकाल कर धीरे-से दूरी बनाने लगते हैं. और हम अचानक उत्पन्न हुई इस दूरी का वास्तविक कारण न जान पाने के कारण अत्यन्त ही व्याकुल हो जाते हैं. हम यह सोचने लगते हैं कि हमसे कहाँ और क्या गलती हो गयी कि इतना अधिक प्यार करने वाला यह इन्सान हमसे अचानक इतना अधिक दूर हो गया. 

अधिकतर मामलों में हम अपनी प्रशंसा सुन कर आत्म-मुग्ध हो जाते हैं. और इस भ्रम के द्वारा सफलता अक्सर हमारे लिये दिवा-स्वप्नों को जन्म देती है. हम दिवा-स्वप्नों में खोये रहने के कारण आगे और अधिक श्रम करने से कतराने लगते हैं. इस तरह सफलता से पैदा हुए दम्भ का हमारे भविष्य की कार्य-क्षमता पर बहुत ही बुरा असर होता है. सफलता हमें जहाँ अनन्य बनाती है, वहीं हमें अकेलेपन का शिकार भी बना देती है. इससे अपने साथ के लोगों के बीच हमारे लिये कोई जगह नहीं बच पाती है और जो अलगाव पैदा होता है, उसकी वजह से हम और भी अधिक भ्रम में जीना शुरू कर देते हैं. 

कुल मिला कर सफलता का एक बुरा परिणाम यह भी होता है कि एक ही बार सफलता मिलते ही हम अपने अगले अभियान के लिये पहले जितनी अधिक मेहनत से आगे अब अपनी तैयारी नहीं कर पाते हैं. इस प्रकार सफलता हमारी श्रम-सामर्थ्य को बढ़ाने की जगह घटा देती है. कई बार यह देखा गया है कि अर्धवार्षिक परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने वाले अपने दम्भ, मोह और आलस्य का शिकार हो जाते हैं और वार्षिक परीक्षा में अपने से पीछे रहने वाले अन्य छात्रों की तुलना में बदतर परिणाम पा जाते हैं.

सफलता की कामना करने वाले प्रत्येक युवा को इस बात पर ध्यान देना होगा. अगर आपको सतत सफलता का सुख चाहिए तो आपको अपनी कड़ी आलोचना करने वाले अपने उस्ताद और अन्य शुभचिन्तकों की बातों को ध्यान से सुनना-गुनना-धुनना होगा. आपको आत्म-प्रवंचना से बचने के लिये आत्म-मंथन, आत्म-मूल्यांकन, आत्म-विश्लेषण और आत्म-आलोचना करते हुए सतत अपने अन्दर और अधिक आत्मविश्वास विकसित करने का प्रयास करना होगा. और इसके लिये आलस्य छोड़ कर और अधिक श्रम करते रहना होगा. मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों रूपों में और अधिक मेहनत के साथ विकास करने का सतत प्रयास करते रहने से ही हम अगली सफलता का सुख प्राप्त कर सकते हैं. 

महाकवि तुलसी दास का यह कथन याद रखिए :
"गुरु के बचन प्रतीति न जेहीं, सपनेहुँ सुगम न सिधि-सुख तेहीं."
और एक यह बात भी 
"आलस्यं हि मनुष्याणाम् शरीरस्थो महान रिपु:"

मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया अपने आप को अन्दर से खोखला कर देने वाले अपने इस प्रबल शत्रु से इस पक्ष पर भी सतत सजग रहिएगा.....
आज बस इतना ही...
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश (3.4.14. 11a.m.)

"भगत सिंह को याद करने का अर्थ"


अवश्य पढ़िए !
"भगत सिंह को याद करने का अर्थ"
नौजवान भारत सभा की इस प्रेरक किताब का लिंक यहाँ है.
शहीदे-आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव के 84वें बलिदान दिवस पर उन्हें याद करते हुए हमारे मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस सपने को लेकर हमारे क्रान्तिकारी पुरखों ने हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया था, उसका क्या हुआ? जो लोग इन शहीदों की याद में जलसे करने और उत्सव मनाने पर बेहिसाब पैसा फूँकते हैं, क्या उन लोगों को पता भी है कि हमारे शहीदों के विचार क्या थे, वे किस तरह का समाज बनाना चाहते थे और देश को किस दिशा में ले जाना चाहते थे? उनके सपनों और विचारों को दरकिनार करके, उनके बलिदान दिवस का उत्सवधर्मी, खोखला और पाखण्डी आयोजन करना उन शहीदों का कैसा सम्मान है?

सच तो यह है कि अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों के शरीर को ही फाँसी चढ़ायी थी, उनके विचारों को वे खत्म नहीं कर सकते थे और कर भी नहीं पाये।
भगत सिंह ने कहा था कि-
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फानी रहे, रहे न रहे।

आजादी के बाद देशी शासक भी भगत सिंह के विचारों से उतना ही भयभीत थे जितना अंग्रेज। उन्होंने इन विचारों को जनता से दूर रखने की भरपूर कोशिश की। लेकिन देश की जनता अपने गौरवशाली पुरखों को भला कैसे भूल सकती है। आज भी जन-जन के मन-मस्तिष्क में उन बलिदानियों की यादें जिन्दा हैं।

दूसरी ओर जो काम अंग्रेज और उनके वारिस देशी शासक नहीं कर पाये, वही काम आज तरह-तरह के दकियानूस और जनविरोधी विचारों के वाहक करने की कोशिश में लगे हैं। जाति और धर्म के तंग दायरे से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भगत सिंह को आज उन्हीं सीमाओं में बन्द करने की साजिश हो रही है। कोई उन्हें पगड़ी पहना कर सिख बनाने का प्रयास कर रहा है तो कोई उन्हें जाट जाति का गौरव बनाने पर तुला है। कोई उन्हें आर्य समाजी बता रहा है, तो कोई हिन्दू।

उनके क्रान्तिकारी विचारों पर पर्दा डालते हुए उन्हें एक ऐसे बलिदानी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे शमा पर जलने वाला देशभक्त परवाना, जिसे यह बोध न हो कि वह क्यों अपने प्राण दे रहा है और जिसमें बस मरने का जज्बा और साहस भर हो। ये सभी प्रयास सामाजिक जड़ता को बनाये रखने वाले, प्रगति और परिवर्तन के विरोधियों की साजिश नहीं, तो भला क्या है? यह भगत सिंह के विचारों को दूषित करके लोगों को भरमाने और उनके क्रान्तिकारी विचारों को फाँसी देने का घिनौना प्रयास नहीं, तो भला और क्या है?

अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब संसद भवन में भगत सिंह की प्रतिमा लगायी गयी। जिसमें उन्हें पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है। जिन काले अंग्रेजों ने मेहनतकश जनता के जीवन में न्याय, समता और खुशहाली लाने का भगत सिंह का सपना पूरी तरह त्याग कर मुट्ठी भर लोगों के लिए विकास का रास्ता अपना लिया है, उनके द्वारा उनकी प्रतिमा लगाने का ढोंग-पाखण्ड भगत सिंह का घोर अपमान है।…

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(आवेग से साभार)
http://aaweg.blogspot.in/2014/04/blog-post.html

– : सह-अस्तित्व की विवशता और ऐडजस्ट-अवॉयड-टालरेट करने की आवश्यकता : –


प्रश्न : गिरिजेश जी, आपके लिस्ट में भाजपाई बहुत हैं. जब भी आप इनपे कुछ पोस्ट करते हैं. इनके पहले से तैयार मेसेज कमेंट में आने लगते हैं. आपमें बहुत सहनशीलता है जो इनको बर्दाश्त करते हैं. (ऐसा क्यों?)

उत्तर : मेरे प्यारे दोस्त, मैंने बहुत से लोगों को वैचारिक असहमति के चलते ब्लॉक किया था. मगर फिर मुझे यह लगा कि ब्लॉक करना जनवाद के विरुद्ध है. इसलिये जैसा अभी तक जीवन में अपने आचरण में करने का प्रयास करता रहा हूँ, वैसा ही फेसबुक पर भी करने उद्देश्य से उन सब को उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए पिछले दिनों अनब्लॉक कर दिया. 

मैं अपने प्रत्यक्ष जीवन में भी अलग-अलग अवसर पर अलग-अलग लोगों से तरह-तरह के आक्षेप, भद्दी गालियाँ और अपमानजनक टिप्पणियाँ सुनता रहा हूँ, अभी भी सुन ही रहा हूँ. और फेसबुक पर भी ऐसा करने वाले हैं ही. साथ ही मेरे सम्मानित मित्र, शुभचिन्तक, प्रशंसक और हर तरह से सहयोग करने वाले भी कम नहीं हैं. 

अब केवल सकारात्मक कामों में ऊर्जा लगाने और लक्ष्यबद्ध जीवन जीने के लिये उन सभी तत्वों को मैं ऐडजस्ट, अवॉयड और टालरेट करना सीख रहा हूँ, जिनसे जीवन-भर उलझता रहा करता था. क्योंकि उनसे हर तरह से और हर स्तर पर उलझते रहने पर भी उनके चिन्तन और आचरण को रत्ती-भर भी नहीं बदल सका. सभी की अपनी ही प्राथमिकता रही. और कोई भी उससे सूत भर भी विचलन स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हुआ. 

हाँ, मैंने ख़ुद को ही ऐसे द्वंद्व में हर तरह से सतत जूझने में और पराजित होने में कुढ़-कुढ़ कर हर तरह से मिटा डाला. अब जा कर अपनी जीवन भर की पराजय का सार-संकलन कर पा रहा हूँ. ऐसे तत्वों के अत्याचार को सहन करने के इस प्रयास में वेदना तो बहुत अधिक है. मगर इस वेदना के सालते रहने के बावज़ूद भी अभी भी कुछ और सकारात्मक करने की ज़िद मेरे अन्दर लगातार बढ़ती जा रही है. क्योंकि अतिशय क्षीण ही सही अभी भी मेरे अपने प्रयोग को आगे करते रहने के लिये सम्भावना भी है ही.

सहज होकर जीना इस मुखौटे वाले समाज में दुरूह तो है ही. और बिना सहजता के मानव व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयास भी छलावा बन कर रह जाता है. इसलिये इनके-उनके-सबके दम्भपूर्ण वक्तव्य और मूर्खतापूर्ण आचरण के अत्याचार और उससे हो रही अपूरणीय क्षति को धीरज से सहन करना ही श्रेयस्कर लग रहा है.

ख़ूब-ख़ूब आत्म-मन्थन करने पर मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि उनको सहन करना मेरी वैचारिक विकृति या मानसिक कमज़ोरी या कायरतापूर्ण समझौतेबाज़ अवसरवाद नहीं है. अपितु इस निर्णय के पीछे उनके साथ इसी समाज में सह-अस्तित्व की विवशता और अपने जीवन के बचे हुए समय और बची हुई ऊर्जा का पूरी विनम्रता के साथ शोषित, पीड़ित और अपमानित मानवता की सेवा में सदुपयोग कर सकने के प्रयास का प्रस्थान-बिन्दु है. 

हो सकता है कि मेरा अपने जीवन का यह सार-संकलन गलत हो, हो सकता है कि मैं आत्मग्रस्त होऊँ, हो सकता है कि लोगों को मैं पलायनवादी लगूँ, हो सकता है कि मेरा यह अन्तिम प्रयोग भी अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण हो, हो सकता है कि अपने प्रयोग के बारे में मेरा आत्मविश्वास मेरा बड़बोलापन हो. 

परन्तु फिर भी शायद मेरी मंशा ग़लत नहीं होगी. दुनिया बदलती रही है और परिवर्तन ही एकमात्र शाश्वत सत्य है. इसी विश्वास के सहारे दुनिया के आज के असहनीय और कटु सच को बदलने और आने वाले कल के लिये इस दुनिया को और बेहतर बनाने के काम में रात-दिन लगा हूँ और इसी लक्ष्य से ऊर्जावान युवाओं के चिन्तन और आचरण की दिशा और धारा को बदलने की अभी भी कोशिश करता जा रहा हूँ. 

हाँ, अन्तिम बात यह कि परिस्थिति इतनी विपरीत है, परन्तु मैं अभी भी हताश नहीं हूँ. क्योंकि जीतता वही है, जो लड़ता है. और मैं लड़ता रहा हूँ, लड़ रहा हूँ और आगे भी लडूँगा ही. क्योंकि मेरे पास भी जीने के लिये लड़ने के अलावा और कोई मकसद नहीं है. भले ही लड़ाई का मंच और दाँव-पेच कितना ही बदलता चला जाये और एक से एक शानदार दोस्त चाहे कितनी ही दूर क्यों न चले जायें. वे सभी जो आज साथ नहीं हैं और जिनके साथ होने की यादें अभी भी बेचैन करती रह रही हैं क्योंकि मैंने उन सभी को इस बुरी तरह बेतहाशा टूट-बिखर जाने पर भी ख़ूब-ख़ूब प्यार किया है.

इसका भी बेहतर फैसला विशेषज्ञ साथी-दोस्त करेंगे और बेहतर मूल्यांकन जन-सामान्य करेंगे कि मैं कितना गलत कर गया और सही क्या है और उसे कैसे किया जाना चाहिए. आप की स्नेहसिक्त सलाह और कठोर आलोचना मेरे लिये प्रेरक पाथेय ही है. जिससे वंचित रहने के लिये एकलव्य की तरह मैं जीवन भर सतत अभिशप्त रहा हूँ. 

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 

इसी बात को इस कविता में भी मैंने कहने का प्रयास किया है :

मैं हूँ ! जिन्दा तुम हो !!
जिन्दा वे भी हैं, जो कल तक सौ बार प्रशंसा करते थे, 
जो दिखा-दिखा कर रोते थे, जो दिखा-दिखा कर हँसते थे,
पर उनका वह सब नकली था, था ढोंग-धतूरा, फर्ज़ी था. 
सच देख चुके हो तुम भी अब, उन सब का जो गद्दार रहे, 

तुम कहते हो, मैं सहता हूँ. 
बेहतर होगा कुछ न कहना, सहते रहना, चुप भी रहना, 
कह देने पर हम हलके हैं, सह लेने पर ताकतवर हैं.
है दर्द बहुत हो रहा तुम्हें, गुस्सा मुझको भी आता है,
इस दर्द और इस गुस्से को, पीकर आगे बढ़ते जाओ! 

चुपचाप सहो, बर्दाश्त करो, करते जाओ, सहते जाओ,
देखो तो फिर क्या होता है; बर्बाद कौन, आबाद कौन,
अनुमान लगाने दो उनको, फिर-फिर डर जाने दो उनको, 
देखो वे थर-थर काँप रहे, 
हर बार हुआ जो, वही सुनो - इस बार क्यों नहीं होना है!
कल किसका है - सब जान रहे! 
सच जीता है, सच जीत रहा, सच जीतेगा - सब मान रहे.