Monday 7 April 2014

– : सह-अस्तित्व की विवशता और ऐडजस्ट-अवॉयड-टालरेट करने की आवश्यकता : –


प्रश्न : गिरिजेश जी, आपके लिस्ट में भाजपाई बहुत हैं. जब भी आप इनपे कुछ पोस्ट करते हैं. इनके पहले से तैयार मेसेज कमेंट में आने लगते हैं. आपमें बहुत सहनशीलता है जो इनको बर्दाश्त करते हैं. (ऐसा क्यों?)

उत्तर : मेरे प्यारे दोस्त, मैंने बहुत से लोगों को वैचारिक असहमति के चलते ब्लॉक किया था. मगर फिर मुझे यह लगा कि ब्लॉक करना जनवाद के विरुद्ध है. इसलिये जैसा अभी तक जीवन में अपने आचरण में करने का प्रयास करता रहा हूँ, वैसा ही फेसबुक पर भी करने उद्देश्य से उन सब को उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए पिछले दिनों अनब्लॉक कर दिया. 

मैं अपने प्रत्यक्ष जीवन में भी अलग-अलग अवसर पर अलग-अलग लोगों से तरह-तरह के आक्षेप, भद्दी गालियाँ और अपमानजनक टिप्पणियाँ सुनता रहा हूँ, अभी भी सुन ही रहा हूँ. और फेसबुक पर भी ऐसा करने वाले हैं ही. साथ ही मेरे सम्मानित मित्र, शुभचिन्तक, प्रशंसक और हर तरह से सहयोग करने वाले भी कम नहीं हैं. 

अब केवल सकारात्मक कामों में ऊर्जा लगाने और लक्ष्यबद्ध जीवन जीने के लिये उन सभी तत्वों को मैं ऐडजस्ट, अवॉयड और टालरेट करना सीख रहा हूँ, जिनसे जीवन-भर उलझता रहा करता था. क्योंकि उनसे हर तरह से और हर स्तर पर उलझते रहने पर भी उनके चिन्तन और आचरण को रत्ती-भर भी नहीं बदल सका. सभी की अपनी ही प्राथमिकता रही. और कोई भी उससे सूत भर भी विचलन स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हुआ. 

हाँ, मैंने ख़ुद को ही ऐसे द्वंद्व में हर तरह से सतत जूझने में और पराजित होने में कुढ़-कुढ़ कर हर तरह से मिटा डाला. अब जा कर अपनी जीवन भर की पराजय का सार-संकलन कर पा रहा हूँ. ऐसे तत्वों के अत्याचार को सहन करने के इस प्रयास में वेदना तो बहुत अधिक है. मगर इस वेदना के सालते रहने के बावज़ूद भी अभी भी कुछ और सकारात्मक करने की ज़िद मेरे अन्दर लगातार बढ़ती जा रही है. क्योंकि अतिशय क्षीण ही सही अभी भी मेरे अपने प्रयोग को आगे करते रहने के लिये सम्भावना भी है ही.

सहज होकर जीना इस मुखौटे वाले समाज में दुरूह तो है ही. और बिना सहजता के मानव व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयास भी छलावा बन कर रह जाता है. इसलिये इनके-उनके-सबके दम्भपूर्ण वक्तव्य और मूर्खतापूर्ण आचरण के अत्याचार और उससे हो रही अपूरणीय क्षति को धीरज से सहन करना ही श्रेयस्कर लग रहा है.

ख़ूब-ख़ूब आत्म-मन्थन करने पर मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि उनको सहन करना मेरी वैचारिक विकृति या मानसिक कमज़ोरी या कायरतापूर्ण समझौतेबाज़ अवसरवाद नहीं है. अपितु इस निर्णय के पीछे उनके साथ इसी समाज में सह-अस्तित्व की विवशता और अपने जीवन के बचे हुए समय और बची हुई ऊर्जा का पूरी विनम्रता के साथ शोषित, पीड़ित और अपमानित मानवता की सेवा में सदुपयोग कर सकने के प्रयास का प्रस्थान-बिन्दु है. 

हो सकता है कि मेरा अपने जीवन का यह सार-संकलन गलत हो, हो सकता है कि मैं आत्मग्रस्त होऊँ, हो सकता है कि लोगों को मैं पलायनवादी लगूँ, हो सकता है कि मेरा यह अन्तिम प्रयोग भी अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण हो, हो सकता है कि अपने प्रयोग के बारे में मेरा आत्मविश्वास मेरा बड़बोलापन हो. 

परन्तु फिर भी शायद मेरी मंशा ग़लत नहीं होगी. दुनिया बदलती रही है और परिवर्तन ही एकमात्र शाश्वत सत्य है. इसी विश्वास के सहारे दुनिया के आज के असहनीय और कटु सच को बदलने और आने वाले कल के लिये इस दुनिया को और बेहतर बनाने के काम में रात-दिन लगा हूँ और इसी लक्ष्य से ऊर्जावान युवाओं के चिन्तन और आचरण की दिशा और धारा को बदलने की अभी भी कोशिश करता जा रहा हूँ. 

हाँ, अन्तिम बात यह कि परिस्थिति इतनी विपरीत है, परन्तु मैं अभी भी हताश नहीं हूँ. क्योंकि जीतता वही है, जो लड़ता है. और मैं लड़ता रहा हूँ, लड़ रहा हूँ और आगे भी लडूँगा ही. क्योंकि मेरे पास भी जीने के लिये लड़ने के अलावा और कोई मकसद नहीं है. भले ही लड़ाई का मंच और दाँव-पेच कितना ही बदलता चला जाये और एक से एक शानदार दोस्त चाहे कितनी ही दूर क्यों न चले जायें. वे सभी जो आज साथ नहीं हैं और जिनके साथ होने की यादें अभी भी बेचैन करती रह रही हैं क्योंकि मैंने उन सभी को इस बुरी तरह बेतहाशा टूट-बिखर जाने पर भी ख़ूब-ख़ूब प्यार किया है.

इसका भी बेहतर फैसला विशेषज्ञ साथी-दोस्त करेंगे और बेहतर मूल्यांकन जन-सामान्य करेंगे कि मैं कितना गलत कर गया और सही क्या है और उसे कैसे किया जाना चाहिए. आप की स्नेहसिक्त सलाह और कठोर आलोचना मेरे लिये प्रेरक पाथेय ही है. जिससे वंचित रहने के लिये एकलव्य की तरह मैं जीवन भर सतत अभिशप्त रहा हूँ. 

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 

इसी बात को इस कविता में भी मैंने कहने का प्रयास किया है :

मैं हूँ ! जिन्दा तुम हो !!
जिन्दा वे भी हैं, जो कल तक सौ बार प्रशंसा करते थे, 
जो दिखा-दिखा कर रोते थे, जो दिखा-दिखा कर हँसते थे,
पर उनका वह सब नकली था, था ढोंग-धतूरा, फर्ज़ी था. 
सच देख चुके हो तुम भी अब, उन सब का जो गद्दार रहे, 

तुम कहते हो, मैं सहता हूँ. 
बेहतर होगा कुछ न कहना, सहते रहना, चुप भी रहना, 
कह देने पर हम हलके हैं, सह लेने पर ताकतवर हैं.
है दर्द बहुत हो रहा तुम्हें, गुस्सा मुझको भी आता है,
इस दर्द और इस गुस्से को, पीकर आगे बढ़ते जाओ! 

चुपचाप सहो, बर्दाश्त करो, करते जाओ, सहते जाओ,
देखो तो फिर क्या होता है; बर्बाद कौन, आबाद कौन,
अनुमान लगाने दो उनको, फिर-फिर डर जाने दो उनको, 
देखो वे थर-थर काँप रहे, 
हर बार हुआ जो, वही सुनो - इस बार क्यों नहीं होना है!
कल किसका है - सब जान रहे! 
सच जीता है, सच जीत रहा, सच जीतेगा - सब मान रहे.

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