Monday 30 June 2014

– : धर्म का सवाल और मार्क्स का कथन :–

















प्रिय मित्र, धर्म और सम्प्रदाय तथा धार्मिक उत्सवों और आयोजनों के बारे में मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की अवस्थिति पर विभिन्न धर्मो और सम्प्रदायों के अनुयायिओं द्वारा लगातार हमले होते रहे हैं. इन हमलावरों को धर्म के बारे में मार्क्स के कथन को अंशतः उद्धरित करते हुए भी देखा जाता है. यह भी एक त्रासदी ही है कि सन्दर्भ से काट कर दिया जाने वाला आधा-अधूरा उद्धरण अनर्थ कर देता है. और फिर एक विचित्र भ्रम उत्त्पन्न हो जाता है. उस भ्रम को ही सत्य मानने वाले स्वयं तो हास्यास्पद होते ही हैं, साथ ही अपने प्रतिवादी को भी अपने तर्कों की विसंगति के सहारे अपने जैसी ही हास्यास्पद परिस्थिति में फँसा देते हैं. ऐसा करना अनुचित है. पूरी जानकारी के बिना किया जाने वाला तर्क कुतर्क में ही रूपान्तरित होने को विवश होता है. 

धर्म के बारे में मार्क्स कहते हैं –
“Religion is, indeed, the self-consciousness and self-esteem of man who has either not yet won through to himself, or has already lost himself again. But man is no abstract being squatting outside the world. Man is the world of man—state, society. This state and this society produce religion, which is an inverted consciousness of the world, because they are an inverted world. Religion is the general theory of this world, its encyclopedic compendium, its logic in popular form, its spiritual point d'honneur, its enthusiasm, its moral sanction, its solemn complement, and its universal basis of consolation and justification. It is the fantastic realization of the human essence since the human essence has not acquired any true reality. The struggle against religion is, therefore, indirectly the struggle against that world whose spiritual aroma is religion.

Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.

The abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo.”
( from the introduction of Contribution to Critique of Hegel's Philosophy of Right)

“धर्म, वास्तव में, मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्मसम्मान है, जिसने या तो अभी तक स्वयं को स्वयं ही नहीं जीता है, या अभी भी स्वयं को दुबारा हार चुका है. परन्तु मनुष्य संसार से परे पड़ी हुई कोई अमूर्त अन्तर्वस्तु नहीं है. मनुष्य मनुष्य का संसार है - राज्यसत्ता, समाज. यह राज्यसत्ता और यह समाज ही धर्म को उत्पन्न करता है, जो कि संसार की उल्टी चेतना है क्योंकि वे एक उल्टा संसार हैं. धर्म इस संसार का सामान्य सिद्धान्त, इसका विश्वकोशीय संग्रह, लोकप्रिय रूप में इसका तर्क, इसके आध्यात्मिक सम्मान का मुद्दा, इसका उत्साह, इसकी नैतिक स्वीकृति, इसका पवित्र पूरक, और इसकी सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक आधार है. यह मानवीय अन्तर्वस्तु की अद्भुत अनुभूति है क्योंकि मानवीय अन्तर्वस्तु ने किसी भी वास्तविक सत्य को आत्मसात नहीं किया है. इसलिये धर्म के विरुद्ध संघर्ष परोक्ष रूप से उस संसार के विरुद्ध संघर्ष है, जिसकी आध्यात्मिक सुगन्धि धर्म है.

वास्तविक पीड़ा और वास्तविक पीड़ा के विरुद्ध प्रतिवाद की एक ही साथ और एक ही समय में अभिव्यक्ति ही धार्मिक पीड़ा है. धर्म पीड़ित मनुष्य की आह है, एक हृदयहीन संसार का ह्रदय है और आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा है. यह जन-गण की अफीम है.

जन-गण की भ्रामक प्रसन्नता के रूप में धर्म का उन्मूलन उनकी वास्तविक प्रसन्नता के लिये माँग है. उनका अपनी परिस्थितियों के बारे में अपने भ्रमों को त्याग देने का आह्वान उनसे उन परिस्थितियों को त्याग देने का आह्वान है, जिनको भ्रमों की आवश्यकता होती है. इसलिये धर्म की आलोचना भ्रूण रूप में आँसुओं का त्याग है, जिनका धर्म ही आभा-मण्डल है.”
(the introduction of Contribution to Critique of Hegel's Philosophy of Right से)

मार्क्स की पूरी बात आपने पढ़ी. क्या अभी भी आप इससे असहमत हैं ? यदि नहीं, तो विचार करें कि एक मार्क्सवादी को किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और उसके उत्सवों, आयोजनों तथा अनुष्ठानों के सम्बन्ध में कैसा आचरण करना चाहिए.

मानव-जाति अभी भी मुख्यतः अपनी आस्थाओं के अनुरूप ही आचरण कर रही है. मनुष्य का चिन्तन ही उसके आचरण का आधार बनाता है. धर्म और विज्ञान दोनों के बीच दार्शनिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सभी स्तरों पर शताब्दियों से सतत शास्त्रार्थ जारी है. यह एक सम्वेदनशील मुद्दा है क्योंकि बीच-बीच में मुट्ठी भर सत्ता-लोलुपों के निहित स्वार्थों के चलते यह शास्त्रार्थ ‘शस्त्रार्थ’ में रूपान्तरित होता रहता है. साम्प्रदायिक सौहार्द और साम्प्रदायिक नफ़रत दोनों एक ही आधार-शिला पर स्थापित हैं. दंगाई इसी नफ़रत के सहारे अफ़वाह फैलाते रहे हैं और दंगे करते रहे हैं. जबकि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह से आज तक सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी लगातार यह प्रयास करते रहे हैं कि अलग-अलग सम्प्रदायों और धर्मों के अनुयायिओं के बीच परस्पर शान्ति, स्नेह और भाई-चारा बना रहे. इस प्रयास को मूर्तमान करने में हमसे चूकें भी होती हैं.

यदि आप किसी भी एक धर्म या सम्प्रदाय के उत्सवों, आयोजनों तथा अनुष्ठानों का मुखर या मौन समर्थन करते हैं और दूसरे का मुखर या मौन विरोध या बहिष्कार करते हैं, तो क्या आप स्वयं को मार्क्सवादी कहने के योग्य हैं !

Samar Anarya - "नवरात्रि की शुभकामना न देने वाले नास्तिक मित्रों को रमजान मुबारक कहते देखना निराश करता है, बेतरह निराश. प्रगतिशीलता का यही छद्म एक बड़े हिस्से का आपसे विश्वास छीन उन्हें कट्टरपंथियों की गोद में डाल देता है.

[जेएनयू में वो पूरे महीने हॉस्टल-हॉस्टल भटक कर न्यौते निभाना, या इलाहाबाद में सुबह स्कूटर से निकल शाम होते होते खड़े तक न हो पाने की हालत में पंहुच जाना, रमजान की शामों की अफ्तारियां जिंदगी की सबसे खूबसूरत यादों में शुमार हैं. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अकीदे वालों में बदल जाएँ, और बदलें तो बाकियों के लिए क्यों न बदलें? रमजान की सामूहिकता दिल खुश करती है पर फिर मैं सिर्फ उत्सवधर्मिता की बधाई दे सकता हूँ, किसी उपवास की नहीं. होली और ईद, दोनों झमक के मनाता रहा हूँ, बधाई भी बस इन्हीं दोनों की दे पाता हूँ, इनकी सामूहिकता और साझेदारी के चलते.]"

"साईंबाबा के मुसलमान होने न होने के विवाद के पीछे चढ़ावे से लेकर हजार मसलों के बावजूद मुझे जाने क्यों कबीर याद आते रहे. हिन्दू धर्म में नए नए पैदा हुए फतवेबाज कहीं उन्हें भी न धकिया दें!
कबीर याद आये तो Purushottam Agrawal सर याद आये, और उनका लिखा वह सब जिसने जिए हुए कबीर को समझाया. बॉर्डर के दोनों तरफ, और अन्दर भी तेज हो रही मजहबी आँधियों के बीच बहुत जरुरी थाती ही नहीं हमारा हथियार भी हैं कबीर, फिर से पढ़ लीजिये. इन नफरतों के दौर में अकथ कहानी प्रेम की ही दरकार है."

सन्दर्भ के लिये कृपया इन लिंक्स तक जाने का कष्ट करें.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2014/03/blog-post_1.html
YOUNG AZAMGARH: 'नास्तिक' शब्द की व्याख्या

http://young-azamgarh.blogspot.in/2013/06/blog-post_3.html

YOUNG AZAMGARH: आस्तिक और नास्तिक

http://young-azamgarh.blogspot.in/2013/04/blog-post.html
YOUNG AZAMGARH: साम्प्रदायिक किसे कहते हैं?

http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/10/blog-post_18.html

YOUNG AZAMGARH: 'जातिवाद'

ढेर सारे प्यार के साथ आपका - गिरिजेश

Saturday 28 June 2014

मयंक-शुभी !


यह मैं ही तो हूँ ! 
मैं ही हूँ अतीत से भविष्य तक का काल-यात्री ! 
मेरे बच्चो, यह तुम हो ! 
तुम ही तो हो मेरा मैं ! मेरी अस्मिता ! मेरा परिचय ! मेरा स्वप्न ! 
मेरी साधना के सुरभित पुष्प ! 
मेरे मानस का विस्तार तुम ही तो हो ! 

छायांकन-कला के चरम सौन्दर्य को व्यक्त करने वाला तुम्हारा यह ‘युगल-चित्र’ अपने आप में सजीव कविता ही तो है। स्नेहसिक्त मन निःशब्द वार्तालाप में लीन हैं। इस मौन वार्तालाप से प्रादुर्भूत आनन्द का नाद स्वयमेव ध्वनित हो रहा है। इस नाद से सहज ही प्रसारित हो रही प्रेरक ऊष्मा की उत्ताल तरंगों की अनुगूँज मुझ तक भी प्रतिध्वनित हो रही है तथा मेरे आहत जुझारू तेवर में जिजीविषा की नूतन ऊर्जा का पुनः संचार कर रही है। – तुम्हारा गिरिजेश — with Shubhi Dubey.

उनकी कब्रें तैयार करो! - गिरिजेश


हम सत्तू खाकर जी लेंगे, हम गन्दा पानी पी लेंगे;
सो लेंगे हम फुटपाथों पर, पर नहीं स्वयं को बेचेंगे
पैसे वालों के हाथों पर।

हम बिना दवा के रह लेंगे, हम शीत-घाम सब सह लेंगे;
करते हैं भरोसा हाथों पर, पर नहीं थूक कर चाटेंगे,
अपने ज़मीर के ख़्वाबों को टुकड़ों में कभी न बाँटेंगे।

अपनी ख़ातिर सूखी रोटी, उनकी ख़ातिर तर माल सभी;
अपनी ख़ातिर खंखड़ गमछा, उनकी तौलिया-रुमाल सभी।
अपनी ख़ातिर पद-यात्रा है, उनकी ख़ातिर है वायुयान;
अपनी ख़ातिर टुटही खटिया, उनकी ख़ातिर ए.सी. वितान।
अपनी मँड़ई भी चूती है, बरसातों के दिन-रातों में;
उनके ऊँचे महलों में तो रहती दीवाली रातों में।
ढिबरी से काम चलाना ही अपने लोगों को पड़ता है;
हरदम बिजली की जगमग से उनका आवास दमकता है।

अपना जीवन, उनका जीवन, दोनों जीवन जीवन ही हैं;
बस फ़र्क यही हम पशुवत हैं, पर वे तो केवल धन-पशु हैं।
विपरीत परिस्थिति में पल कर तन-मन को सबल बनाया है;
है तभी, आज फिर इस तन पर धन-पशु को लालच आया है।
वे सदा लार टपकाते हैं, आँखें भी ख़ूब दिखाते हैं;
पर नहीं समझते हैं सच को, खुद को हरदम भरमाते हैं।
दौलत मेहनत ने पैदा की, मेहनत ने बदली है दुनिया;
दौलत वालों की सुख-सुविधा मेहनतकश की ही बदौलत है।

सब कुछ पर कब्ज़ा करना ही उनका अब तक का सपना है;
पर सब कुछ जग का है किसका - यह सत्य हमीं को कहना है।
हम अपने जैसों में खुश हैं, हम बिना दवा सो लेते हैं;
खटते हैं हम जब दिन भर तो सपने भी नहीं खटकते हैं।
वे हर पल शक में जीते हैं, हरदम खतरे में रहते हैं;
कब कौन दग़ा देगा उनको, अनुमान लगाया करते हैं।
उनकी तनाव की बीमारी, हर दिन बढ़ती ही जाती है;
फिर ऐसा भी दिन आता है, जब नींद ही नहीं आती है।

खोजा करते, पोसा करते, पाला करते ग़द्दारों को;
साँपों को दूध पिलाते हैं, हम सब को दंश पिलाने को।
मजबूरन ही घिर जाने पर वे पीछे कदम हटाते हैं;
गुर्राना छोड़ रिरिकते हैं, अपना ड्रामा फैलाते हैं।
है न्याय सत्य के साथ अड़ा, कब तक साज़िश है पल सकती?
उनकी टुच्ची तदबीरों से आसन्न मुसीबत टल सकती!
पुरखों ने आन निभायी है, हर बार जब भी बन आयी है;
पीछे न हटाया कदमों को, अपनी ललकार गुँजायी है।

औकात न अपनी भूलेंगे, आँधी के झूले झूलेंगे;
प्रतिशोध-स्वप्न की रचना में उत्कर्ष-शीर्ष तक छू लेंगे।
दौलत वाले हैं मुट्ठी-भर, मेहनतकश अरब-करोड़ों में;
बस जंग शुरू हो जाने दो, कितना दम होगा रोड़ों में?
उनकी कब्रें तैयार करो, संसार हमारा अपना है;
गद्दार अगर है कोई तो, उससे भी तुरत निपटना है।
________x_________
117 हजार करोड़ के घर में रहते हैं मुकेश अम्बानी को हर माह 70 लाख से ऊपर बिजली का बिल आता हैं ,यह बिल लगभग उतना ही है, जितना कि 7000 घरों का महीने भर का बिजली बिल होता है। बिजली बिल और रख-रखाव में जो खर्च होता हैं उससे एक पूरी शहर का खर्च उठाया जा सकता हैं !

मुकेश अंबानी का मुंबई स्थित 27 मंजिला घर 'एंटीलिया' धरती पर सबसे महंगा घर है। इसे बनाने पर करीब एक से दो अरब डॉलर (10 हजार 855 करोड़ रुपए) का खर्च आया है।' एंटीलिया की छह मंजिलों पर सिर्फ पार्किंंग और गैरेज हैं। इस गगनचुंबी इमारत में रहने के लिए चार लाख वर्ग फीट जगह है, जिसमें एक बॉलरूम है। छत क्रिस्टल से सजी है। एक सिनेमा थिएटर, बार, तीन हेलिपैड हैं। करीब 600 कर्मचारियों का स्टाफ एंटीलिया का रख-रखाव करता हैं। घर में रहने वाले केवल 5 ..नीता अम्बानी -3 बच्चे और मुकेश अम्बानी !
इस देश के संसाधनों का फिजूल खर्च किस बेरहमी से किया जाता हैं सुनकर भी तकलीफ होती हैं |


____सपनों के पंख — गिरिजेश____

पंख उग गये हैं सपनों को, उड़ता जाता हूँ.
गीत सुनाता हूँ मैं साथी, गीत सुनाता हूँ....

सारी दुनिया दमक रही है, भीतर मेरे भरा अँधेरा;
कोने में है कोटर मेरा, उसमें करता रहा बसेरा.
खाना-पानी और चबेना भी पा जाता हूँ.
मैं भी पा जाता हूँ साथी, मैं पा जाता हूँ....

धीरे-धीरे, चुपके-चुपके, धरती के कोने में छुप के,
हर छोटे-छोटे दीपक में लौ धधकाता हूँ.
आग जलाता हूँ मैं साथी, आग जलाता हूँ...

तुमने थे जो सपने बोये, मुझमें सारे अपने बोये;
काट-कूट कर जंगल-झाड़ी, खेत बनाता हूँ.
खेत बनाता हूँ मैं साथी, खेत बनाता हूँ...

नगर-गाँव, कस्बे-बस्ती में, इन्सानों जैसी हस्ती में,
असली इन्सानों की मैं भी फसल उगाता हूँ,
फसल उगाता हूँ मैं साथी, फसल उगाता हूँ...

तुमको तूफ़ानों में उड़ते-गाते देखा है,
तुमको आग-बबूला बन उड़ जाते देखा है,
तुमको उड़ते देख-देख कर उड़ना सीखा है.
उड़ना सीखा है तुमसे ही, उड़ना सीखा है...

ऊपर-ऊँचे उड़ते हो तुम,
आगे-आगे बढ़ते हो तुम,
तनिक भी नहीं डरते हो तुम,
इनसे-उनसे टक्कर लेते, भिड़ते देखा है.
मैं भी आता हूँ अब साथी, मैं भी आता हूँ...

धरती से है गहरा नाता,
फिर भी मन ऊपर ही जाता;
पंख तोलने की अपने में चाहत पाता हूँ.
चाहत पाता हूँ मैं साथी, चाहत पाता हूँ....

जीवन ख़ुद ही बना चुनौती, उसे चिढ़ाता हूँ...
चुनौती मैं ले पाता हूँ, क्षितिज को छूने जाता हूँ.
छूने जाता हूँ, क्षितिज को छूने जाता हूँ....

(28.6.14. 11.51 p.m.)

Friday 20 June 2014

"LET UPS AND DOWNS COME, FACE WITH SPORTSMEN SPIRIT !"


My dear friend, while fighting in the life-struggle and being defeated again and again so many times throughout my life, I could conclude the lesson for myself in this way. 

Our life is not static. It changes continuously. There are examinations for us at each and every step in form of every decision we take. Change is the basic and characteristic feature of the life itself. Man is mortal due to this continuous change. Humanity is immortal due to this change only. Let the ups and downs of life come in any form and at any place, we must face both happily and enjoy both with the same spirit - the sportsmen spirit. 

We have neither to think of the painful past, nor remain involved in only attractions of multicoloured day-dreaming of future. As we can neither change our past and nor can know about what is there for us to come in future. Both can't help us. They only waste our valuable time and destroy our capability to perform at present. 

The present is the only span, when we can try our best. At every step we are bound to take decisions. We can decide to follow only one option out of many. Taking one path we are bound to leave all the remaining options. In every attempt we may either be defeated or get success. If as the result of our attempt there is possibility of our failure, there is also the same possibility of our success. There are fifty-fifty chances of both. 

Only by trial and error method we can achieve command over any specialization. We must be prepared to face the losses and disturbances created by defeat, if we want to taste the pleasure of success. After every failure we must get up again to attempt once more. We can fail only till the attempt, when at last we succeed. I always remember "HE, WHO FIGHTS, WINS CERTAINLY".

{“उत्थान एवं पतन को आने दें – खिलाड़ी-भावना से सामना करें !”
मेरे प्रिय मित्र, आजीवन जीवन-संघर्ष में जूझने तथा बारम्बार पराजित होने के दौरान इस सबक का मैं अपने लिये इस रूप में सार-संकलन कर सका हूँ.

हमारा जीवन स्थिर नहीं है. वह सतत परिवर्तित होता रहता है. हमारे द्वारा लिये जाने वाले प्रत्येक निर्णय के रूप में प्रत्येक कदम पर हमारे लिये परीक्षाएँ होती हैं. स्वयं जीवन की मूलभूत तथा अभिलाक्षणिक विशेषता परिवर्तन ही है. इस अनवरत परिवर्तन के कारण ही मनुष्य मर्त्य है. मात्र इस परिवर्तन के ही कारण मानवता अमर है. जीवन के उत्थान एवं पतन को किसी भी रूप में और किसी भी स्थान पर आने दीजिए, हम अवश्य ही एक ही भावना – खिलाड़ी-भावना के साथ प्रसन्नतापूर्वक दोनों का सामना करेंगे तथा दोनों का आनन्द लेंगे. 

हमें न तो दुःखद अतीत के बारे में सोचना है और न केवल भविष्य के बहुरंगी दिवास्वप्नों के आकर्षण में ही लीन रहना है. क्योंकि हम न तो अतीत को परिवर्तित कर सकते हैं और न यह ही जान सकते हैं कि भविष्य में हमारे लिये क्या आने वाला है. दोनों ही हमारी सहायता नहीं कर सकते. वे केवल हमारे मूल्यवान समय को बर्बाद कर देते हैं तथा वर्तमान में कुछ भी कर सकने की हमारी क्षमता को नष्ट कर देते हैं.

वर्तमान ही एकमात्र वह काल-खण्ड है, जब हम अपना सर्वोत्तम प्रयास कर सकते हैं. हम प्रत्येक क़दम पर निर्णय लेने के लिये बाध्य हैं. अनेक विकल्पों में से केवल एक विकल्प का अनुसरण करने का ही हम निर्णय ले सकते हैं. एक पथ चुनते ही हम शेष सभी विकल्पों को त्याग देने के लिये बाध्य हो जाते हैं. प्रत्येक प्रयास में हम या तो परास्त ही हो सकते हैं या सफल ही. यदि हमारे प्रयास के परिणाम के तौर पर हमारी विफलता की सम्भावना है, तो हमारी सफलता की भी उतनी ही सम्भावना है. दोनों के लिये ही आधी-आधी सम्भावना रहती है. 

केवल ‘प्रयास-त्रुटि-परिष्कार पद्धति’ द्वारा ही हम किसी भी विशेषज्ञता पर प्राधिकार प्राप्त कर सकते हैं. यदि हम सफलता का आनन्द चाहते हैं, तो हमें विफलता जनित व्यवधानों एवं क्षति का सामना करने के लिये भी अवश्य ही कटिबद्ध रहना चाहिए. प्रत्येक विफलता के पश्चात् हमें अवश्य ही एक बार पुनः उठ खड़ा होना चाहिए. हम केवल उसी प्रयास तक विफल हो सकते हैं, जिसके बाद अन्ततोगत्वा सफल हो ही जाते हैं. मुझे सदैव ही यह स्मरण रहता है कि “जो लड़ता है, वही निश्चय ही जीतता है.”}

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभो जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।2.38।।

(जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।।38।।

Treating alike victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain, get ready for the fight; then, fighting thus you will not incur sin.(38)

सुखदु:खे = सुख दु:ख ; लाभालाभो = लाभ हानि (और) ; जयाजयौ = जय पराजयको ; समे = समान ; कृत्वा = समझकर ; तत: = उसके उपरान्त ; युद्धाय = युद्धके लिये ; युज्यस्व = तैयार हो ; एवम् = इस प्रकार ; (युद्ध करनेसे) ; (तूं) ; पापम् = पापको ; न = नहीं ; अवाप्स्यसि = प्राप्त होगा)

_____सूअर का बाल !_____

क्रान्तिवीरों को प्रतिभा उपाध्याय की शाबासी : Somnath Chakraborti की वाल से....

Upadhyaya Pratibha - "शाबाश क्रांतिवीरों! आपस में ही लड़ो, कटो. अभी तो एक ही कामरेड की जान ली है, एक जान से क्रांति कैसे आयेगी? वैसे अपने ये बहुआयामी रूप किसे दिखाने हैं? जनता तो क्रांतिवीरों के मुनाफाखोर, लम्पट, गुंडई इन सबसे परिचित है, इसीलिए सालों में 67 % तो दूर 6% वोट नहीं मिले. 30 साल तक जिस पश्चिम बंगाल में एकछत्र राज्य था, वहाँ से एक भी सीट नहीं मिली. जनता ने औकात दिखा दी है. मार्क्स बाबा लिख गए हैं क्रान्ति ज़रूर आयेगी. लगे रहो असली नकली की खोज में एक दूसरे पर आक्षेप लगाते हुए. इन्कलाब जिंदाबाद!"

Girijesh Tiwari - "Upadhyaya Pratibha, बेटी तुमने सही जगह सही चोट की है. यही यन्त्रणा है इस त्रासदी के पीछे कि पड़ोसी तो क्रांति और प्रतिक्रान्ति दोनों कर चुके. हम अभी 'कीचड-उछाल' खेल रहे हैं. मैं तुम्हारी सम्वेदना को पूरे मन से सैलूट करता हूँ. और दशकों पहले लिखी अपनी यह कविता तुमको ही सम्मान के साथ समर्पित कर रहा हूँ.

_____सूअर का बाल !_____

तुम भी मुँह में ज़ुबान रखते हो, लब हिलाना मुहाल है फिर भी।
पाक़-दामन बचेगा कैसे कोई, दोस्त ‘कीचड़-उछाल है फिर भी?

बख़्श मासूम को नहीं सकते, बोले - ‘‘हमको मलाल है’’ फिर भी।
उनकी आँखें कमाल कर बैठीं, उनमें सूअर का बाल है फिर भी।।

उनसे इन्साफ़ माँगते क्यों हो, घूस जिनको हलाल है फिर भी?
छेद कश्ती में वे करते ही गये, तुमको उनका ख़याल है फिर भी।

तुम ने चाहा सुकून से जीना, ज़िन्दगी का ये हाल है फिर भी?
प्यार के गीत - वाह, क्या कहने? नफ़रतों का सवाल है फिर भी।

घेर अन्धेर क्यों रहा फिर-फिर, जलती जाती मशाल है फिर भी ?
शान इन्सानियत की देखो ज़रा, बाँधे दौलत का जाल है फिर भी।।

— गिरिजेश (18.9.2002.)

______"सुनो ! सुनो ! सुनो !"_______


सुनो मेरे साथी,
सुनो मेरे दोस्त,
सुनो मेरे लोगो !

सुनो, वक्त की पुकार सुनो !
यही तो वक्त है !
वक्त इससे बेहतर कब था !
यह उनका वक्त है !
यही हमारा भी वक्त है !

सोचो मेरे साथी, शान्त मत रहो !
बोलो मेरे दोस्त, चुप मत रहो !
करो मेरे लोगो, कुछ तो करो !
मेरे अपनो, सोचो, बोलो, करो !

अभी मैं भी ज़िन्दा हूँ !
अभी तुम भी ज़िन्दा हो !
अभी वे भी ज़िन्दा हैं !
अभी हम सब ही ज़िन्दा हैं !

जो बोलता नहीं,
जो सोचता नहीं,
जो करता नहीं,
वह ज़िन्दा नहीं रह पाता है !
सोचना, बोलना और करना ही ज़िन्दा रहने की शर्त है.

क्या तुम अभी भी सुकून की साँस ले पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम्हारा मन क्षोभ से बेचैन नहीं है !
क्या अभी भी तुमको मानवता से अधिक सिक्के से लगाव है !

क्या अभी भी तुमको फ़ुटबाल और क्रिकेट की ख़बरों में दिलचस्पी है !
क्या अभी भी तुम बिलबिलाती मानवता की छटपटाहट महसूस नहीं कर पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम गर्व से सिर उठा कर ख़ुद को मनुष्य कह पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम अपने मासूम बच्चे से आँख मिला पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम अपने लाचार बुजुर्गों के पैर छू पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम अपनी पत्नी को सान्त्वना दे पा रहे हो !
क्या अभी भी तुम अपने दोस्तों के साथ ठहाके लगा पा रहे हो !

नहीं न !
तो फिर वक्त की पुकार सुनो !
वक्त की पुकार इतिहास की पुकार होती है !
इतिहास की पुकार को अनसुनी मत करो !
संघर्ष की वेला में चुप लगाने वाले इतिहास के अपराधी होते हैं !

क्या तुम भी इतिहास के अपराधी ही हो !
नहीं न !
इसीलिये मेरे दोस्तो, मेरे साथियो, मेरे अपनो !
अपनी कूबत भर सोचो, बोलो, करो !

ढेर सारे प्यार के साथ - तुम्हारा ही गिरिजेश (15.6.14. 8.30 p.m.)

युगान्तकारी – गिरिजेश





युगान्तकारी होने के भ्रम ने बहुतों को भ्रमित किया,
भ्रमितों ने औरों में, औरों ने औरों में, अपनों में-गैरों में
फैलाया अपना-अपना भ्रम !
और फिर
भ्रम को ही सत्य समझने-समझाने वालों की भारी-भरकम भीड़ ने
‘सच के सूरज’ को हथेलियों की ओट
ढकने की कीं बचकानी हरकतें.
और की बार-बार ख़ुद को उनके सहारे तृप्त-तुष्ट करने की कोशिशें.

युगान्तकारी गुलाबी नहीं होता,
युगान्तकारी सफ़ेद नहीं होता,
युगान्तकारी गुलाबी और सफ़ेद हो ही नहीं सकता.
जो गुलाबी होता है,
जो सफ़ेद होता है,
वह युगान्तकारी नहीं होता,
वह केवल आत्म-मुग्ध बड़बोला बौना होता है.
वह आसमान की ओर सिर उठाता है.
वह आसमान के विस्तार का उपहास करता है.
मगर उस पर हँसता है सारा आसमान,
मुस्कुराता है आसमान में दमकता सूरज,
सूरज के अगणित बिरादर भी हँसते ही हैं उसे देख-देख.
धरती पर खड़ा माटी का बेटा भी
धीरे-धीरे ही सही
समझ ही जाता है उसकी हकीक़त
और फिर धीरे-से उसके 'बायें' से निकल
ज़िन्दगी को करता है सलाम
लग जाता है अपने काम में.

युगान्तकारी रोज़ नहीं आता धरती पर,
धरती को तपना होता है,
हवा को गरम होना होता है,
फिजाँ को गूँजना होता है,
अगणित अत्याचारों की तपिश में
जलना, जूझना और दमकना होता है,
अपमान, अवसाद, कुण्ठा, हताशा की त्रासदी के
हिलोरें लेते समुद्र के ज्वार-भाटा में
बार-बार डूबना-उतराना होता है
दरिद्र-नारायण को.

और तब होता है युगान्तकारी का धरती पर आगमन,
बता चुका है युगपुरुष कृष्ण –
“सम्भवामि युगे-युगे !”
उसके रंग-ढंग से,
उसके चिन्तन-आचरण से,
उसकी गति की धमक से,
उसके तेवर की धार से,
उसके वार की मार से
थरथराता है शोषक शासक ज़ालिम !

उसके साथ होते हैं उसके जैसे ही अगणित,
जैसे हैं सूरज के साथ अगणित सूरज.
होती है टक्कर,
होते हैं घात-प्रतिघात,
चले जाते हैं दाँव-पेंच,
तेज़ होती जाती है कबीर की चाकी की चाल
और फिर अचानक अकल्पनीय, अभूतपूर्व, अघटित
घटित हो जाता है
एक और ऐतिहासिक ‘बिग-बैंग’.

अब ‘परिमाण’ ही नहीं ‘गुण’ भी बदल जाते हैं.
जीवन ही नहीं जन भी बदल जाते हैं,
पुराने खण्डहर ध्वस्त हो बिखर जाते हैं धरती पर,
नये युग का लाल सूर्य चढ़ आता है पूर्व के क्षितिज पर.
अब जब युगान्तकारी एक युग का अन्त कर चुकता है,
एक युग का आगमन ही होना होता है अब
पुरातन का अन्त और नूतन का आगमन ही
है अगली गति, अगली नियति.

गर्भिणी की वेदना के असह्य हो जाने के बाद ही
होता है प्रसव, गूँजती है किलकारी.
गर्भिणी का अभिनय करने वाले अभिनेताओं को
तालियाँ भले ही मयस्सर हो जायें.
सिक्के की झंकार भले ही झनझना उठे उनको ख़रीदने की मंशा से,
शिशु की किलकारी से तो वंचित ही रहते हैं अभिनेता.

हाँ, होती ही है भ्रम की भी एक उम्र !
और फिर टूटता ही है आख़िरकार
अभिनेता के आभा-मण्डल का देदीप्यमान भ्रम
तब जब सच का सूरज चमक जाता है,
चकाचौंध कर देता है
अपनी ओर घूरने का दुस्साहस करने वाली आँखों को !

युगान्तकारी लाल ही होता है,
युगान्तकारी लाल ही हो सकता है.
युगान्तकारी युगान्त के ठीक पहले ही आता है,
युगान्तकारी ही करता है पुरातन को ध्वस्त और नूतन का सृजन
युगान्तकारी ही करता है एक और नये युग का सूत्रपात !
युगान्तकारी ही कंगाली और पस्ती से उबारता है
दरिद्र-नारायण को.
युगान्तकारी ही ‘ताज’ उछालने ले जाता है
जन को.
युगान्तकारी के ही निर्देशन में गिराये जाते हैं ‘तख़्त’ !

युगान्तकारी मुक्ति-दूत नहीं होता.
“कोई भी मुक्ति-दूत हो ही नहीं सकता.”
क्रान्ति-दूत चे ने बताया था.
युगान्तकारी केवल मुक्तिपथ प्रशस्त करने वाला पुरोधा होता है.
युगान्तकारी ऋग्वेद की ऋचा का द्रष्टा और गायक होता है.
युगान्तकारी के लिये ही है “वसुधैव कुटुम्बकम्”
युगान्तकारी ही उच्च-स्वर में उद्घोष करता है.
“वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः !”
20.6.14. (10.40 A.M.)
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(अश्विनी आदम की इस सशक्त कविता को पढ़ने के बाद)
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Ashwini Aadam -
आवाजें लिखी नहीं जाती /गीत गूंगे नहीं होते

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जाने क्यों लाल नहीं होता युगांतकारी
काव्य में प्रगतिशील बन जाता है
लिखता है सिक्कों का क्रूर अभाव
भूख का परत दर परत जमाव
कीचड़ से झांकती पीली पनीली आखें
बचपन का नन्हा मासूम बिखराव,
शब्दों के पुष्प से अलंकृत करता
कागज़ की कविता का पार्थिव शरीर
गूँज ले चाहे जितना भी साहित्य के सम्मेलनों में
कवि को बेचनी हैं कविताएं वह आवाज़ नहीं लिखता है।
कागजों में बहता द्रवीभूत उदगार कागजों में गुम कागज़ सिसकता है।
भटक रही हैं अनेकों कोनो में
क्रांति को गोद लिए अनगिनत कवितायें
सभी को मिलती रहे बस भूख से एक कम रोटी
आराम से घंटा भर कम रात
भगवानों का भ्रामक आश्रय और धर्म की अफीम
संसद की चप्पड़ छोड़ती दीवारों पर लगती रहे चुनावों की पैबंद,
किसी को क्या पड़ी कि जाने
कि बाकी है अभी कहीं न कहीं मुट्ठी भर आस
सहज मुस्कान का सहज एहसास,
गुमनाम कविताओं जैसा हर आदमी है चुपचाप ...
बेआवाज़,
गूँजती रहें कराहें मवाद छिटकती रहे
हर कमनीय काया फोड़े लपकते रहें
हम तो यूँ ही रहेंगे जैसे रहे हैं हम
झंडे में गर्व देख बस उंगली रहे हैं हम
पञ्चवर्षीय अधिकार है नाखून पर स्याही
बदलाव के मधुरतम गीत इसी से लिखेंगे हम ,
हा हा हा हा हा .....
मेरे बेवकूफ़ कवियों! काश कि तुम्हे पता होता
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आवाजें लिखी नहीं जातीं और गीत गूंगे नहीं होते ।
- स्वप्नद्रष्टा आदम

Monday 2 June 2014

आसन्न जन-ज्वार की तैयारी की गुहार !


हौसला बनाये रखिए, साथियो !
अभी जीवन के समुद्र में भाटा आया है.
ज्वार उसी के पीछे आने ही वाला है.
वक्त ठहरता नहीं है.
इतिहास आगे को ही बढ़ता है.
उसकी प्रतिगति होती ही नहीं.
उसकी केवल प्रगति ही होती है.

देखते-देखते अक्सर वह हो जाता है, जिसकी हमको कल्पना भी नहीं होती.
एक दिन लेनिन को रूसी क्रान्ति के हो जाने की कल्पना भी नहीं थी.
एक दिन नेहरू को देश के आज़ाद हो जाने की कल्पना भी नहीं थी.
जो अभी 16 मई को हुआ, वह भी 15 मई तक सबकी कल्पना से परे था.
ख़ुद शासक दल को भी ख़ुद पर भरोसा नहीं था.
दुनिया भर के चुनाव-विशेषज्ञों-विश्लेषकों को भी कल्पना नहीं थी.
सबके आकलन को धता बता कर भा.ज.पा. को पूर्ण बहुमत मिल गया.

भारत का 'पूँजीवादी जनतन्त्र' 16 मई को 'फ़ासिस्ट सत्ता' में बदल चुका.
वह भारत के समकालीन इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण काला शुक्रवार था.
पूँजीवादी संसद में पक्ष-विपक्ष दो होते हैं.

कल तक इस तन्त्र के सदन में विपक्ष था.
अभी विपक्ष पोलियो-ग्रस्त है.
यह तन्त्र विकलांग हो चुका.
सत्ता मनमानी करने की कूबत में है.
उसकी मनमानी के अनिवार्यतः जनविरोधी-राष्ट्रविरोधी परिणाम भी आयेंगे ही.

शोषण बढ़ेगा, उत्पीड़न बढ़ेगा, तो जनचेतना विकसित होगी ही.
जन का प्रतिवाद जन-प्रतिरोध में बदलेगा ही.
और तब जन-आन्दोलनों की कल्पनातीत लहरें एक के बाद एक लगातार लहराती हुई आती जायेंगी.
तब वह होगा, जिसके लिये पीढ़ियाँ धीरज से कुर्बानी देती हैं.
तब वह होगा, जिसकी प्रतीक्षा जनता दशकों तक करती है.
तब भारतीय इतिहास का अगला पन्ना मेहनतकश के खून-पसीने से लिखा जायेगा.
तब हमारे देश में वह इन्कलाब होगा, जैसा अभी तक कभी भी कहीं भी नहीं हुआ.

इतिहास की इस करवट में भविष्य की धमक सुनिए.
असली जनतन्त्र लाने की लड़ाई कल भी जारी थी, आज भी जारी है.
केवल इतिहास का रथ-चक्र अब और तेज़ी से घूमना शुरू कर चुका है.
हर बार हमने ही इतिहास बनाया है.
इस बार भी हम ही इतिहास बनाने जा रहे हैं.
हर बार हिटलर हारा है.
इस बार भी हिटलर हारने वाला है.
हमको पूरा भरोसा है ख़ुद पर, आप पर, जन-समुदाय पर.
लेख वालेसा ने कहा था : "सर्दियाँ तुम्हारी थीं. वसन्त हमारा होगा."
आइए, एक बार फिर "शुरू से शुरू करें !".
शुरू करेंगे, तो अन्त भी करेंगे ही.

केवल हौसला रखिए.
अपने मतभेदों को भूल जाइए.
और अपनी रफ़्तार तेज़ कीजिए.
सारे दोस्तों के हाथ कस कर मजबूती के साथ पकड़िए.
एकजुटता के एक मंच पर पूरे देश की जनपक्षधर ताक़तों को एक साथ जोड़ने की पहल लीजिए.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !
फासिज़्म मुर्दाबाद !!
- आपका गिरिजेश (2.6.14. 11.30.am)