Saturday 28 June 2014

____सपनों के पंख — गिरिजेश____

पंख उग गये हैं सपनों को, उड़ता जाता हूँ.
गीत सुनाता हूँ मैं साथी, गीत सुनाता हूँ....

सारी दुनिया दमक रही है, भीतर मेरे भरा अँधेरा;
कोने में है कोटर मेरा, उसमें करता रहा बसेरा.
खाना-पानी और चबेना भी पा जाता हूँ.
मैं भी पा जाता हूँ साथी, मैं पा जाता हूँ....

धीरे-धीरे, चुपके-चुपके, धरती के कोने में छुप के,
हर छोटे-छोटे दीपक में लौ धधकाता हूँ.
आग जलाता हूँ मैं साथी, आग जलाता हूँ...

तुमने थे जो सपने बोये, मुझमें सारे अपने बोये;
काट-कूट कर जंगल-झाड़ी, खेत बनाता हूँ.
खेत बनाता हूँ मैं साथी, खेत बनाता हूँ...

नगर-गाँव, कस्बे-बस्ती में, इन्सानों जैसी हस्ती में,
असली इन्सानों की मैं भी फसल उगाता हूँ,
फसल उगाता हूँ मैं साथी, फसल उगाता हूँ...

तुमको तूफ़ानों में उड़ते-गाते देखा है,
तुमको आग-बबूला बन उड़ जाते देखा है,
तुमको उड़ते देख-देख कर उड़ना सीखा है.
उड़ना सीखा है तुमसे ही, उड़ना सीखा है...

ऊपर-ऊँचे उड़ते हो तुम,
आगे-आगे बढ़ते हो तुम,
तनिक भी नहीं डरते हो तुम,
इनसे-उनसे टक्कर लेते, भिड़ते देखा है.
मैं भी आता हूँ अब साथी, मैं भी आता हूँ...

धरती से है गहरा नाता,
फिर भी मन ऊपर ही जाता;
पंख तोलने की अपने में चाहत पाता हूँ.
चाहत पाता हूँ मैं साथी, चाहत पाता हूँ....

जीवन ख़ुद ही बना चुनौती, उसे चिढ़ाता हूँ...
चुनौती मैं ले पाता हूँ, क्षितिज को छूने जाता हूँ.
छूने जाता हूँ, क्षितिज को छूने जाता हूँ....

(28.6.14. 11.51 p.m.)

No comments:

Post a Comment