Friday 20 June 2014

युगान्तकारी – गिरिजेश





युगान्तकारी होने के भ्रम ने बहुतों को भ्रमित किया,
भ्रमितों ने औरों में, औरों ने औरों में, अपनों में-गैरों में
फैलाया अपना-अपना भ्रम !
और फिर
भ्रम को ही सत्य समझने-समझाने वालों की भारी-भरकम भीड़ ने
‘सच के सूरज’ को हथेलियों की ओट
ढकने की कीं बचकानी हरकतें.
और की बार-बार ख़ुद को उनके सहारे तृप्त-तुष्ट करने की कोशिशें.

युगान्तकारी गुलाबी नहीं होता,
युगान्तकारी सफ़ेद नहीं होता,
युगान्तकारी गुलाबी और सफ़ेद हो ही नहीं सकता.
जो गुलाबी होता है,
जो सफ़ेद होता है,
वह युगान्तकारी नहीं होता,
वह केवल आत्म-मुग्ध बड़बोला बौना होता है.
वह आसमान की ओर सिर उठाता है.
वह आसमान के विस्तार का उपहास करता है.
मगर उस पर हँसता है सारा आसमान,
मुस्कुराता है आसमान में दमकता सूरज,
सूरज के अगणित बिरादर भी हँसते ही हैं उसे देख-देख.
धरती पर खड़ा माटी का बेटा भी
धीरे-धीरे ही सही
समझ ही जाता है उसकी हकीक़त
और फिर धीरे-से उसके 'बायें' से निकल
ज़िन्दगी को करता है सलाम
लग जाता है अपने काम में.

युगान्तकारी रोज़ नहीं आता धरती पर,
धरती को तपना होता है,
हवा को गरम होना होता है,
फिजाँ को गूँजना होता है,
अगणित अत्याचारों की तपिश में
जलना, जूझना और दमकना होता है,
अपमान, अवसाद, कुण्ठा, हताशा की त्रासदी के
हिलोरें लेते समुद्र के ज्वार-भाटा में
बार-बार डूबना-उतराना होता है
दरिद्र-नारायण को.

और तब होता है युगान्तकारी का धरती पर आगमन,
बता चुका है युगपुरुष कृष्ण –
“सम्भवामि युगे-युगे !”
उसके रंग-ढंग से,
उसके चिन्तन-आचरण से,
उसकी गति की धमक से,
उसके तेवर की धार से,
उसके वार की मार से
थरथराता है शोषक शासक ज़ालिम !

उसके साथ होते हैं उसके जैसे ही अगणित,
जैसे हैं सूरज के साथ अगणित सूरज.
होती है टक्कर,
होते हैं घात-प्रतिघात,
चले जाते हैं दाँव-पेंच,
तेज़ होती जाती है कबीर की चाकी की चाल
और फिर अचानक अकल्पनीय, अभूतपूर्व, अघटित
घटित हो जाता है
एक और ऐतिहासिक ‘बिग-बैंग’.

अब ‘परिमाण’ ही नहीं ‘गुण’ भी बदल जाते हैं.
जीवन ही नहीं जन भी बदल जाते हैं,
पुराने खण्डहर ध्वस्त हो बिखर जाते हैं धरती पर,
नये युग का लाल सूर्य चढ़ आता है पूर्व के क्षितिज पर.
अब जब युगान्तकारी एक युग का अन्त कर चुकता है,
एक युग का आगमन ही होना होता है अब
पुरातन का अन्त और नूतन का आगमन ही
है अगली गति, अगली नियति.

गर्भिणी की वेदना के असह्य हो जाने के बाद ही
होता है प्रसव, गूँजती है किलकारी.
गर्भिणी का अभिनय करने वाले अभिनेताओं को
तालियाँ भले ही मयस्सर हो जायें.
सिक्के की झंकार भले ही झनझना उठे उनको ख़रीदने की मंशा से,
शिशु की किलकारी से तो वंचित ही रहते हैं अभिनेता.

हाँ, होती ही है भ्रम की भी एक उम्र !
और फिर टूटता ही है आख़िरकार
अभिनेता के आभा-मण्डल का देदीप्यमान भ्रम
तब जब सच का सूरज चमक जाता है,
चकाचौंध कर देता है
अपनी ओर घूरने का दुस्साहस करने वाली आँखों को !

युगान्तकारी लाल ही होता है,
युगान्तकारी लाल ही हो सकता है.
युगान्तकारी युगान्त के ठीक पहले ही आता है,
युगान्तकारी ही करता है पुरातन को ध्वस्त और नूतन का सृजन
युगान्तकारी ही करता है एक और नये युग का सूत्रपात !
युगान्तकारी ही कंगाली और पस्ती से उबारता है
दरिद्र-नारायण को.
युगान्तकारी ही ‘ताज’ उछालने ले जाता है
जन को.
युगान्तकारी के ही निर्देशन में गिराये जाते हैं ‘तख़्त’ !

युगान्तकारी मुक्ति-दूत नहीं होता.
“कोई भी मुक्ति-दूत हो ही नहीं सकता.”
क्रान्ति-दूत चे ने बताया था.
युगान्तकारी केवल मुक्तिपथ प्रशस्त करने वाला पुरोधा होता है.
युगान्तकारी ऋग्वेद की ऋचा का द्रष्टा और गायक होता है.
युगान्तकारी के लिये ही है “वसुधैव कुटुम्बकम्”
युगान्तकारी ही उच्च-स्वर में उद्घोष करता है.
“वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः !”
20.6.14. (10.40 A.M.)
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(अश्विनी आदम की इस सशक्त कविता को पढ़ने के बाद)
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Ashwini Aadam -
आवाजें लिखी नहीं जाती /गीत गूंगे नहीं होते

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जाने क्यों लाल नहीं होता युगांतकारी
काव्य में प्रगतिशील बन जाता है
लिखता है सिक्कों का क्रूर अभाव
भूख का परत दर परत जमाव
कीचड़ से झांकती पीली पनीली आखें
बचपन का नन्हा मासूम बिखराव,
शब्दों के पुष्प से अलंकृत करता
कागज़ की कविता का पार्थिव शरीर
गूँज ले चाहे जितना भी साहित्य के सम्मेलनों में
कवि को बेचनी हैं कविताएं वह आवाज़ नहीं लिखता है।
कागजों में बहता द्रवीभूत उदगार कागजों में गुम कागज़ सिसकता है।
भटक रही हैं अनेकों कोनो में
क्रांति को गोद लिए अनगिनत कवितायें
सभी को मिलती रहे बस भूख से एक कम रोटी
आराम से घंटा भर कम रात
भगवानों का भ्रामक आश्रय और धर्म की अफीम
संसद की चप्पड़ छोड़ती दीवारों पर लगती रहे चुनावों की पैबंद,
किसी को क्या पड़ी कि जाने
कि बाकी है अभी कहीं न कहीं मुट्ठी भर आस
सहज मुस्कान का सहज एहसास,
गुमनाम कविताओं जैसा हर आदमी है चुपचाप ...
बेआवाज़,
गूँजती रहें कराहें मवाद छिटकती रहे
हर कमनीय काया फोड़े लपकते रहें
हम तो यूँ ही रहेंगे जैसे रहे हैं हम
झंडे में गर्व देख बस उंगली रहे हैं हम
पञ्चवर्षीय अधिकार है नाखून पर स्याही
बदलाव के मधुरतम गीत इसी से लिखेंगे हम ,
हा हा हा हा हा .....
मेरे बेवकूफ़ कवियों! काश कि तुम्हे पता होता
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आवाजें लिखी नहीं जातीं और गीत गूंगे नहीं होते ।
- स्वप्नद्रष्टा आदम

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