Friday 31 January 2014

•••• सामन्तवाद (feudalism) क्या है ? ••••


समाज-व्यवस्था के बारे में बहस :― 
भारतीय समाज-व्यवस्था के स्वरूप के विषय में हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन में विगत तीन दशकों से अधिक समय से एक लम्बी बहस जारी है. आन्दोलन के अधिकतर संगठन, विचारक और कार्यकर्ता इसे अर्ध-सामन्ती अर्ध-औपनिवेशिक व्यवस्था (semifeudal-semicolonial system) बताते रहे हैं. उनके अनुसार भारतीय क्रान्ति का स्वरूप नवजनवादी क्रान्ति (new democratic revolution) का है. इस मूल्यांकन का आशय है कि वर्गीय हितों के आधार पर क्रान्ति में साम्राज्यवादी विदेशी पूँजी और उसके भारतीय दलालों (imperialism and comprador indial capitalist class) के विरुद्ध राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग (national capitalist class) क्रान्ति का सहयोगी और संयुक्त मोर्चे का घटक है, क्योंकि उसका विकास वर्तमान व्यवस्था में बाधित है. और कृषि-क्षेत्र में ग्रामीण सर्वहारा (rural working class) के नेतृत्व में सामन्त वर्ग (feudal class) के विरुद्ध धनी किसानों (rich peasantry) सहित चार वर्गों का संयुक्त मोर्चा बनाया जाना है. 

1977 में इस बहस में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. तब जो कई बुनियादी प्रश्न उठे, उन्होंने भारतीय समाज की रचना तथा भारतीय क्रान्ति के मित्रों और शत्रुओं के बीच के संयुक्त मोर्चे के घटकों के वर्गीय हितों के आधार पर परम्परागत सोच पर सवाल खड़े कर दिये. उन सवालों का जवाब वर्षों के अध्ययन के बाद 1983 में सूत्रबद्ध होकर विस्तृत विश्लेषण के साथ सामने आया. और फिर भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में भारतीय समाज को पूँजीवादी समाज (capitalist society) और भारतीय क्रान्ति की मंज़िल को समाजवादी क्रान्ति (socialist revolution) घोषित करने वाले घटक का उदय हुआ.

अट्ठारहवीं शताब्दी में दुनिया भर में सामन्तवाद से लड़ कर स्थापित होने वाले पूँजीवाद का युग (era of capitalism) आरम्भ हुआ था. उसके सत्तासीन होने के साथ ही बाज़ार और भी फैलता गया था. और इस फैलते हुए बाज़ार की मंडी में पैदा हुआ ‘पूँजी का राष्ट्रवाद’ (capitalist nationalism) उभरा था. भारत सहित दुनिया के कई उपनिवेशों में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बदली हुई परिस्थिति में उस राष्ट्रवाद ने ही उपनिवेशवाद की गुलामी (colonial slavery) से मुक्ति के संग्राम (freedom struggle) लड़ कर जीते थे. 

वित्तीय नव-उपनिवेशवाद : ― 
1990 में वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के नारों के साथ डंकल का युग आरम्भ होने के बाद से समूची दुनिया के साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था में भी एक नयी मंज़िल का उद्भव हुआ. उसके बाद से अब तक धीरे-धीरे करके आकार लेने वाले ग्लोबल विलेज में वित्तीय पूँजी (finance capital) का प्रवाह और भी अबाध गति से बढ़ चला. उस राष्ट्रवाद के बचे-खुचे स्वाभिमान ने वैश्वीकरण के आज के दौर में वित्तीय पूँजी के वैश्विक प्रवाह में जहाँ कहीं भी बाधा खड़ा करने का प्रयास किया, साम्राज्यवादी लुटेरों ने उस पर घोषित स्थानीय युद्ध थोप दिया और उसकी राष्ट्रवादी सरकार का सत्ता-पलट करके उसकी जगह अपनी कठपुतली सरकार बैठा कर उसका निर्मम दमन किया है. उसके राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिये साम्राज्यवाद द्वारा ये सभी युद्ध ‘जनतन्त्र की स्थापना’ (for democracy) के नारे के साथ एक के बाद एक लगातार लड़े जा रहे हैं. इस तरह आज की दुनिया ‘वित्तीय नव-उपनिवेशवादी युग’ (neo-colonial era of finance capital) की दुनिया है.

ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता (british colonial state) के विरुद्ध लड़े जाने वाले स्वतन्त्रता-आन्दोलन (freedom movement) के दौरान और उसके बाद के द्विध्रुवीय विश्व (bi-polar world) के काल-खण्ड में दशकों से चली आ रही साम्राज्यवादी पूँजी से सौदेबाज़ी करने की अपनी आज़ादी (freedom to bargain) को बरकार रखने के बजाय इस ग्लोबल विलेज में भारतीय पूँजीपति वर्ग ने अपनी बढ़ती जा रही सम्पत्ति के आधार पर उसके साथ समझौता करना और उसके सामने घुटनाटेकू रवैया (surrenderist and compromising attitude) अख्तियार करना बेहतर समझा और अब देशी-विदेशी पूँजी के बीच का गठबन्धन इस देश को सफलतापूर्वक लूटने में लगा है. 

यक्ष-प्रश्न : ― 
ऐसे में प्रश्न हैं कि वह कौन-सा राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग है, जो दलाल पूँजी के विरुद्ध अपने किन हितों के लिये क्रान्ति के साथ संयुक्त मोर्चे का घटक बनेगा? और वह कौन-सा धनी किसान वर्ग है, जो अपने किन हितों के लिये सामन्त वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा के नेतृत्व में क्रान्ति का युद्ध लड़ेगा? 

इस देश में नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल की घोषणा करने वाले अधिकतर क्रान्तिकारी संगठनों के पास इन प्रश्नों के उत्तर हैं ही नहीं. वे स्पष्ट शब्दों में यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि अर्ध-उपनिवेशवाद में कितना ‘अर्ध’ है और अर्ध-सामन्तवाद में कितना ‘अर्ध’ ! वस्तुतः विश्व आर्ष क्रान्तिकारी साहित्य (world classical revolutionary literature) में नवजनवादी क्रान्ति (new democratic revolution) का ‘पारिभाषिक शब्द’ (term) केवल चीनी क्रान्ति की मंज़िल के लिये घोषित किया गया था. अन्धानुकरण की विडम्बना रही कि भारतीय क्रान्ति के पुरोधाओं ने अपने देश-काल-परिस्थिति पर बिना अच्छी तरह सोचे-विचारे उसे यथावत अपने देश पर आरोपित कर दिया. इसका त्रासद परिणाम यह हुआ कि बहस के दौरान शब्दों में तो वे इन बातों को लगातार दोहराते रहते हैं, परन्तु उनके पास इनको तर्कसंगत साबित करने के लिये वस्तुगत तथ्य (objective facts) होते ही नहीं. वे जो भी तथ्य प्रस्तुत करते हैं, वह ‘अर्ध’ नहीं अपितु पूर्ण पूँजीवादी समाज व्यवस्था के तथ्य होते हैं. वे सामन्तवादी अर्थव्यवस्था के भी तथ्य नहीं होते. 

विभ्रम की त्रासदी : ― 
ऐसे में यह वैचारिक मतभेद विगत कई दशकों से भारतीय क्रान्ति की मंज़िल के मूल्यांकन को लेकर क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच विभ्रम बनाये हुए है और यह भी भारतीय क्रान्ति की अलग-अलग धाराओं और संगठनों के बीच एकता के पथ के सबसे विकट अवरोधों में से एक बना हुआ है. यह जड़सूत्रता समय बीतने के साथ बढ़ती हुई अब तो अलग-अलग संगठनों के नेतृत्व के दम्भ को तुष्ट करने के स्तर तक जा पहुँची है और हालत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अगणित युवा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता अपने-अपने संगठनों के नेतृत्वकारी साथियों से क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के लिये किसी सकारात्मक पहल की उम्मीद को लेकर निराश हो चुके हैं. अब ये सभी जनपक्षधर शक्तियों (pro-people forces) के साथ संयुक्त मोर्चे के रूप में विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष के दौरान स्थानीय स्तर पर अपनी प्रतिवाद की गतिविधियाँ जारी रख रहे हैं और एक राष्ट्रव्यापी जनपक्षधर, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी एकजुटता के मंच के निर्माण की और बढ़ना चाहते हैं.

युगजन्य दायित्व : ―
विगत दशकों के लम्बे काल-खण्ड के दौरान वर्तमान पीढ़ी के क्रान्तिकारी नेतृत्व की सृजनात्मकता के षण्ढ और वैचारिक क्षमता के दीवालिया साबित हो जाने के बाद भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन को अपने अगले उभार के लिये अब केवल इन युवा क्रान्तिकारियों की पहलकदमी से ही उम्मीद है. इनकी नेतृत्व की क्षमता बढ़ाने और उसे निर्णायक प्रहारकारिणी शक्ति में रूपान्तरित कर देने के लिये इनके बोध, दृष्टि और अभिव्यक्ति को और भी उन्नत बनाना आवश्यक है. इनकी जुझारू चेतना को और विकसित करना और इनकी विविध जिज्ञासाओं को संतोषजनक उत्तर देना ही आज का युगजन्य गुरुतर ऐतिहासिक दायित्व है. इसके लिये हम सब को जगह-जगह अध्ययन-चक्रों (study circles) का जाल बिछाना होगा और इनको शास्त्रीय क्रान्तिकारी साहित्य (classical revolutionary literature) के ज्ञान से लैस करना होगा. तभी इनकी परस्पर एकजुटता (solidarity) को मजबूत विचारधारात्मक आधार (ideological base) उपलब्ध हो सकेगा. इसीलिये एक बार फिर यह ज़रूरत महसूस हो रही है कि यह समझने का प्रयास किया जाये कि सामन्तवाद क्या है.

अवरचना और अधिरचना : ― 
किसी भी समाज-व्यवस्था के गठन के दो स्तर होते हैं ― मूलाधार और अधिरचना (infrastructure and superstructure). मूलाधार या अवरचना (infrastructure) उस व्यवस्था के उत्पादन के साधनों के विकास के स्तर और उत्पादक शक्तियों के सम्बन्ध के स्तर (level of development of means of production forces and relation of productive forces) पर निर्भर करती है. अधिरचना (superstructure) उत्पादन के अतिरिक्त व्यवस्था की अन्य गतिविधियों को समेकित रूप से कहते हैं. इसमें दर्शन, विचारधारा, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, न्याय, संचार, यातायात, मुद्रा, विनिमय, व्यापार, मनोरंजन, कला, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, सेवा, प्रबन्धन आदि मानव-जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये सभी आवश्यक पक्ष समाहित होते हैं. 

किसी इमारत की नींव की तरह जैसी अवरचना होती है, उसी के अनुरूप इमारत की मंज़िलों की तरह अधिरचना भी होती है. जहाँ अवरचना के साथ-साथ ही उसके पीछे-पीछे और उसके अनुरूप ही अधिरचना का विकास होता है, वहीं अवरचना को विकसित करने के लिये अधिरचना को विकसित करना होता है. परिमाणात्मक रूप में सतत विकसित हो रही अधिरचना ही अवरचना के गुणात्मक विकास के लिये पृष्ठभूमि बनाती जाती है. स्पष्ट है कि दोनों के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है. उदहारण के लिये अतीत और वर्तमान का परिवर्तनकामी साहित्य आगामी क्रान्ति का पथ आलोकित करने वाली मशाल होती है और क्रान्तिकारी गतिविधियों के उभार के दौरान प्रेरक साहित्य का सृजन होता है. 

सामन्तवाद की अभिलाक्षणिक विशेषताएँ : ―
1. इस व्यवस्था में उत्पादन का मुख्य स्रोत कृषि तथा पशुपालन था. शिल्प का स्थान गौण था.
2. उत्पादन के साधनों का स्वरूप परम्परागत था. कई-कई पीढ़ियों तक उनका विकास बाधित रहता था. शताब्दियों में कभी-कभार कोई आविष्कार हो जाता और उत्पादन के साधन थोड़ा-सा विकसित हो जाते.
3. कृषि मुख्यतः प्रकृति आधारित थी. सिंचाई, जुताई, बुवाई, निराई, कटाई, दँवरी आदि प्रत्येक कृषि-कर्म में मनुष्य और पशुओं की पेशियों की भूमिका मुख्य थी. औजार सरल तथा गौण भूमिका में होते हैं.
4. समाज-व्यवस्था का गठन करने वाले प्रमुख वर्ग ये थे : क. सामन्त, ख. पुरोहित, ग. धनी किसान, घ. मध्यम किसान, ड. ग़रीब किसान, च. भू-दास, छ. व्यापारी, ज. शिल्पी, और झ. सैनिक. 
इन वर्गों के अतिरिक्त समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समुदाय ये थे : क. अन्त्यज, ख. चाण्डाल, ग. लठैत, घ. गोपालक, ड. मछेरे, च. गणिका, छ. साधु, ज. सेवक, झ. वैद्य. 
5. शेष विश्व के सामन्ती समाज से पृथक भारतीय सामन्ती समाज की संरचना की एक विशिष्टता रही है. यहाँ वर्गों का पहले वर्णों के नाम से और फिर कालान्तर में उनके रूढ़ हो जाने पर जातियों के रूप में घुलमिल जाने से ख़ास तरह की सामन्ती व्यवस्था के ताने-बाने का विकास होता चला गया. विभिन्न जातियाँ एवं उपजातियाँ अस्तित्व में थीं. उनके पेशे जन्मना निर्धारित होते थे.
6. सामन्त प्रत्यक्ष उत्पादन में भाग नहीं लेता था. वह अन्य चारों वर्गों से कर वसूलता था. यह कर ही उसकी अपनी और इसी कर का एक अंश उसके ऊपर वाले सामन्त की आय का मुख्य स्रोत बनाता था.
7. दक्खिन टोले में बसाया गया भू-दास सामन्त द्वारा दी गयी ज़मीन पर अपनी झोंपड़ी बना कर अपने परिवार के साथ रहता था और उसके द्वारा दिये गये पशुओं और औजारों से पहले उसकी विशाल भूमि पर और फिर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये उसके द्वारा दिए गये खेत के अपने छोटे टुकड़े पर खेती करता था.
8. उसे सूर्योदय से सूर्यास्त तक खटना पड़ता. काम के घन्टे निर्धारित नहीं होते थे.
9. विभिन्न अवसरों पर होने वाले समारोह में उसे बेगारी करनी पड़ती थी. 
10. भूदास को बेगारी के लिये कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता था.
11. भूदास को कोई भी गुस्ताखी करने पर सामन्त के लठैतों द्वारा रस्से से पेड़ या खम्भे में बाँध कर लाठी-लाठी पीटा जाता था. उस के साथ लगातार मार-पीट और ज़ोर-ज़बरदस्ती जारी रहती थी. उसे कभी भी सामन्त द्वारा उजाड़ा जा सकता था.
12. विवाह के बाद उसकी नव-विवाहिता पत्नी का डोला पहले सामन्त की हवेली में उतरवा लिया जाता है. उसके बाद अगले दिन ही वह अपनी ससुराल की झोंपड़ी में जा पाती थी.
13. बाद में भी सामन्त जब चाहता, भूदास की झोंपड़ी में ही उसकी पत्नी के साथ रात बिताता रहता था.
14. अपनी ग़रीबी के चलते भूदास को मरे हुए पशु का मांस (डाँगर) और दँवरी के दौरान बैलों द्वारा खा लिये गये अनाज को उनके गोबर को सुखा और पछोर कर उसमें से अनाज (गोबरहा) निकाल कर खाना पड़ता था.
15. उसकी झोंपड़ी की छान पर से लौकी-कोंहड़ा तक सामन्त के लठैत ज़बरिया उतरवा लेते थे.
16. न्याय के लिये उसकी किसी भी शिकायत पर सुनवाई या तो सामन्त की हवेली की ड्योढ़ी पर होती थी या फिर बिरादरी की पंचायत में.
17. दूध, दही, गोबर और खेती के लिये पशुपालन किया जाता था. इसमें मुख्य तौर पर सम्पत्तिशाली वर्गों के घरों पर गाय और बैल थे. भैंस, बकरी, मुर्गी, सुअर भी अलग-अलग श्रमिक जातियों के किसानों और भूदासों द्वारा पाले जाते थे. मछली के लिये मछेरे ज़िम्मेदार होते थे. बरसात में या शौकिया नदी से कंटिया लगा कर दूसरे लोग भी मछली पकड़ते थे.
18. लकड़ी, ईंधन, फल-फूल और पत्तियों के लिये धनिकों के बगीचे और दूसरों के लिये जंगल दोनों ही उपलब्ध थे.
19. पानी नदी, पोखरे, तालाब, कुवें से लिया जाता था.
20. चिकित्सा आयुर्वेद के विद्वान वैद्यों द्वारा या जंगली जड़ी-बूटियों के परम्परागत ज्ञान के सहारे की जाती थी.
21. संस्कृत, पालि, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी में श्रुति और लिपि की शिक्षा बस्ती से दूर जंगलों में बसे गुरुकुलों, मठों, मन्दिरों या मदरसों में केवल कुलीन जन के छात्रों को प्रदान की जाती थी. छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था. शिक्षा समाप्त करके वापस लौटने वाले छात्र गुरु-दक्षिणा दिया करते थे. 
22. पुरोहितों, ज्योतिषियों, वैद्यों, विद्वानों, शिक्षकों, साहित्यकारों, कवियों, गायकों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, नर्तकों-नृत्यांगनाओं, विदूषकों, चारणों आदि कलाकारों को राज्य एवं सम्पन्न वर्गों द्वारा नियमित भरण-पोषण, उपहार, सम्मान और पुरस्कार प्रदान किया जाता था. 
23. शेष सारा समाज औपचारिक शिक्षा से वंचित और निरक्षर था. 
24. विभिन्न शिल्पियों द्वारा अपने बच्चों को केवल अपने कुल के शिल्प का प्रशिक्षण ही दिया जाता था.
25. अधिकतर लोगों के निरक्षर होने और तत्कालीन शिक्षा-पद्धति की सीमाओं के चलते समाज में तरह-तरह के अन्धविश्वासों का बोलबाला था. ज्योतिष-कर्मकाण्ड, मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोना, ओझा-सोखा, भूत-प्रेत, झाड़-फूँक, स्वर्ग-नरक, आत्मा और पुनर्जन्म पर व्यापक जन की आस्था थी. वैरागियों-सन्यासियों-पण्डों-पुजारियों-साधुओं-सन्तों-महन्तों-पीरों-फकीरों का समाज में सम्मान था. निष्ठा के साथ आयोजित होने वाले यज्ञ-अनुष्ठान एवं पूजा-पाठ का व्यापक चलन था. 
26. मुख्य रूप से आध्यात्मिक दर्शन का प्रभाव शासक और शासित दोनों ही वर्गों पर था. परन्तु बौद्ध, जैन और चार्वाक के नास्तिक दर्शन भी बीच-बीच में उभरते रहे.
27. अल्पसंख्यक समुदायों के धर्मों और सम्प्रदायों के साथ ही समाज में मुख्य रूप से हिन्दू धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे. जिनके बीच मत-मतान्तर और सह-अस्तित्व भी था और झगड़े और ख़ूनी संघर्ष भी थे.
28. छोटे-बड़े सभी सामन्त अपने राज्य-क्षेत्र, राजस्व और शक्ति के विस्तार के लिये निरन्तर परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध-अभियान छेड़ा करते थे. 
29. युद्ध चतुरंगिणी सेना के वेतनभोगी पेशेवर सैनिकों द्वारा परम्परागत अस्त्र-शस्त्रों से लड़े जाते थे. युद्ध में विष और अग्नि का भी प्रयोग किया जाता था. 
30. सत्ता-संघर्ष में गणिकाओं, विषकन्याओं तथा गुप्तचरों के प्रशिक्षण और प्रयोग की गोपनीय, सशक्त, महत्वपूर्ण और विश्वसनीय व्यवस्था थी. 
31. स्वयं शासक या उसका सेनापति भी युद्ध के मैदान में अपने सैनिकों के साथ लड़ता था. 
32. तोप और बन्दूक के गोले-गोलियों के रूप में बारूद के आरम्भिक आविष्कार का सामन्तवाद के आखिरी चरण के युद्धों में आंशिक तौर पर प्रयोग होने लगा था.
33. सामन्तवाद के युग के शासक का उत्तराधिकारी युवराज प्रमुखतः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही होता था. सामन्त के निःसन्तान रहने पर नियोग से उत्पन्न पुत्र को सत्ता दी जाती थी. ऐसा भी न हो पाने पर कभी-कभी राजकुल से इतर नये शासक का चयन भी किया जाता था. उसे गोद लेने की प्रथा थी. कुछ स्थानों पर गण-व्यवस्था भी थी. जिनमें मताधिकार केवल सम्पन्न वर्गों को ही था. कभी-कभार सेनापति, मन्त्री या पुरोहित भी षड्यन्त्र के ज़रिये अपने शासक का वध करके उसकी सत्ता हथिया लेते थे.
34. पकड़े जाने पर अपराधियों, षड्यन्त्रकारियों और विद्रोहियों को सार्वजनिक तौर पर समारोह आयोजित करके क्रूरतापूर्वक मृत्युदण्ड, कठोर कारावास, अंग-भंग या कशाघात का दण्ड दिया जाता था. 
35. युद्ध में पराजित होने पर या बिना युद्ध के ही अधीनता स्वीकारने वाले सामन्त विजेता को कर, सेना की टुकड़ियाँ, दास-दासियाँ, विविध उपहार देते थे. साथ ही अपनी बेटियों का उनके साथ विवाह कर दिया करते थे. बदले में विजेता उनको उनके राज्य के अतिरिक्त क्षेत्र पर शासन करने और कर वसूलने का अधिकार देकर पुरस्कृत करता था.
36. छोटे-बड़े सभी सामन्तों के रनिवास और हरम में कुट्टनियों द्वारा बरगला कर लायी गयी, सैनिकों और चरों द्वारा ज़बरन उठा ली गयी, व्यापारियों से ख़रीदी गयी, पराजितों द्वारा उपहार में मिली या विवाह कर के लायी गयी और युद्ध में बन्दी बनायी गयी नारियाँ बड़ी संख्या में रानियों, रखेलियों, परिचारिकाओं, रक्षिकाओं और दासियों के रूप में भरी रहती थीं. 
बीच-बीच में सामन्त द्वारा धार्मिक तीर्थों, उत्सवों, यज्ञों में पुरोहित ब्राह्मणों को उनका भारी संख्या में दान करके पुण्य-लाभ या पुरस्कार के तौर पर दे कर यश-लाभ भी लिया जाता था. उनके ऊपर हरदम औरतों, हिजड़ों और सैनिकों की तीन हथियारबन्द कतारों का कड़ा पहरा रहता था. कठोर दण्ड का प्राविधान होने पर भी उन तक सामन्त के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का प्रवेश वर्जित होने के चलते किसी भी तरह से अवसर मिलते ही व्यभिचार होते ही रहते थे. 
सामन्तवाद के चरम उत्कर्ष और पतन के काल में बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा और सती-प्रथा का चलन था. कुलीन नारी से पतिव्रता, असूर्यपश्या तथा अवगुंठनवती बने रहने की अपेक्षा की जाती थी.
37. गण-व्यवस्था में सबसे सुन्दर लड़की को वैयक्तिक गृहस्थ जीवन जीने का अधिकार नहीं था. उसे नगरवधू बन कर पूरे जनपद के सभी सम्पत्तिशाली पुरुषों का मनोरंजन करना पड़ता था.
38. लगभग समूचे सामन्तवादी युग में दास-व्यवस्था भी भूदासता के साथ-साथ प्रचलन में बनी रही थी.
39. विकेन्द्रित सत्ता के केन्द्र दूर-दूर स्थित नगर थे. नगरों के सिंहद्वार सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही खोले जाते थे.
40. अधिकतर उत्पादन उपभोग के लिये होता था.
41. अधिकतर वस्तु-विनिमय और उपभोग स्थानीय था.
42. सुदूर विदेशों तक व्यापारियों के सार्थवाह रथों, घोड़ों और बैलगाड़ियों में सवार होकर सशस्त्र सैनिकों की टोलियों के पहरे में स्थल और जल मार्गों से लम्बी यात्राएँ और व्यापार किया करते थे.
43. इन लम्बी और दुष्कर यात्राओं के दौरान रास्ते में पड़ने वाले जंगलों में सार्थवाहों पर बार-बार दस्युओं के हमले होते थे. जिनमें यात्रियों के साथ युद्ध और लूट-पाट होती रहती थी.
44. शासित जन से अतिशय क्रूरतापूर्वक निचोड़े गये राजस्व से भरे राजकोष का उपयोग सामन्त के वैभव-विलास, दान-पुण्य, युद्ध-सामग्रियों के संग्रह, सैनिकों और गैर सैनिकों के वेतन, भव्य महलों-अट्टालिकाओं और दिव्य मन्दिरों-मठों के निर्माण, छायादार पेड़ों से शोभित तथा स्थान-स्थान पर रात्रि-विश्राम, भोजन, मनोरंजन और वाहन बदलने की सुविधा देने वाली सरायों वाले राजपथों, वीथियों, सरोवरों और रमणीक उपवनों के निर्माण के लिये मुक्त-हस्त से होता था.
45. जन सामान्य का जीवन दारुण था. उसकी वेदना असह्य थी. भीषण गरीबी में किसी तरह अतिशय अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति और प्रचलित अन्धविश्वासी परम्पराओं के निर्वाह के लिये उसे किसी तरह जुटाये गये अपने इक्का-दुक्का आभूषण, अन्य छोटे-बड़े सामान और अक्सर अपने खेत गिरवी रख कर सूदखोरों से क़र्ज़ लेते रहना पड़ता था. सूद की दर अक्सर 25% मासिक तक थी और क़र्ज़ चक्रवृद्धि दर से बढ़ता जाता था. एक बार निष्ठुर सूदखोर के जाल में फँस जाने पर कर्ज़दार के लिये कई बार पीढ़ियों तक मूल धन लौटाना तो दूर, उसके सूद पर भी लगातार बढ़ता जाने वाला सूद भरना भी असम्भव था. अपने बही-खातों के कोरे कागजों पर निरक्षर किसानों के अंगूठे लगवा कर सूदखोर उस पर मनमानी रकम लिखते रहते थे. इन सूदखोरों से पूरा समाज घृणा करता था. फिर भी बाध्य हो कर उनके दरवाज़े मदद की उम्मीद लेकर जाता ही था.
46. भूमि पूरे गाँव की सामूहिक सम्पत्ति मानी जाती थी और उसका क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता था.
47. परिवार संयुक्त था. परिवार का बुज़ुर्ग सम्मानित था. उसका निर्णय अन्तिम और सबको स्वीकार्य था. संयुक्त परिवार की सत्ता से परे किसी व्यक्ति की वैयक्तिक और स्वतन्त्र पहिचान नहीं थी.
48. उस व्यवस्था में परिवार में किसी सदस्य का व्यक्तिवाद, बेरोज़गारी, अवसाद असम्भव था.
49. मुद्रा स्वर्ण, रजत, ताम्र धातुओं के सिक्कों या रत्नों के रूप में थी. फिर भी मुद्रा का चलन कम था. विनिमय में माल-मुद्रा-माल का सूत्र ही चलता था. अक्सर वस्तु-विनिमय भी भरपूर प्रचलन में था.
50. वस्तु-विनिमय, मुद्रा द्वारा क्रय-विक्रय और मनोरंजन के लिये नगरों में स्थापित व्यापारियों की दूकानों से सज्जित व्यवस्थित बाज़ार थे.
51. ग्रामीण क्षेत्रों में साप्ताहिक हाट में दूकानें लगायी जाती थीं, जो प्रतिदिन नये गाँव में लगाने के लिये वहाँ तक ले जायी जाती थीं.
52. छोटे-बड़े मेलों, तरह-तरह के त्योहारों एवं राजकीय, सामाजिक और पारिवारिक उत्सवों तथा आयोजनों में कथावाचन, अभिनय, नृत्य, गीत, संगीत, कठपुतलियों तथा विदूषकों के प्रदर्शन, कुश्ती-दंगल, शस्त्राभ्यास, शास्त्रार्थ तथा अन्य प्रतियोगिताओं आदि द्वारा मनोरंजन और प्रबोधन की परम्परा थी.
53. राज्य द्वारा जगह-जगह चारों तरफ़ से चौड़े और जल-पूरित नालों से घिरे किलों में शपथबद्ध एवं विश्वसनीय क्षत्रपों के अधीन सशस्त्र सैनिकों को रख कर विभिन्न क्षेत्रों की सुरक्षा की व्यवस्था की जाती थी.
54. दूरस्थ तीर्थ-यात्राओं के अतिरिक्त जन-सामान्य अपने रक्त-सम्बन्धियों से मिलने-जुलने के लिये ही यात्राएँ करते थे.
55. बिरादरी की सत्ता का राज्य की सत्ता के साथ ही स्वतन्त्र प्रभुत्व था. उनके भी नियम कठोर थे. जाति-बहिष्कार का दण्ड प्रचलित था. बाद के दिनों में इक्का-दुक्का विदेश-यात्राओं पर जाने वालों को भी बिरादरी के द्वारा दण्डित किया जाता था और उनसे शुद्धीकरण के लिये प्रायश्चित करवाया जाता था.
56. यात्रियों, विदेशियों तथा अतिथियों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करने की स्वस्थ परम्परा थी और उसका मर्यादापूर्वक निर्वाह किया जाता था.
57. सत्य एवं न्याय के प्रति धर्मभीरु जन-सामान्य के मन में अतिशय प्रतिष्ठा थी. झूठ बोलना, चोरी करना, कपट करना, विश्वास तोड़ना, धोखा देना, शपथ से मुकरना, वचन-भंग करना निन्दनीय था.
58.
-------------------------------------------------------
•••• यह लेख अभी अधूरा है....
प्रिय मित्र, कई महीनों तक चाहने और टालने के बाद कल से यह लेख लिखने का प्रयास कर रहा हूँ. इसके आगे दिमाग काम नहीं कर रहा. परन्तु यह लेख अभी अधूरा है. इसके लिये मुझे ख़ुद भी नये सिरे से और पढ़ना और सीखना है. प्रयास कर रहा हूँ कि मैं यह सार्थक अध्ययन कर सकूं. 

छात्रों-छात्राओं की सेवा की अपनी दैनन्दिन व्यस्तता और विगत वर्षों से जारी तीख़े तनाव के चलते मेरा अध्ययन इधर कई वर्षों से बाधित रहा है. आशा है कि शास्त्रीय विषयों पर केवल दिमाग के भरोसे कलम चलाने की मेरी ज़ुर्रत को आप सभी क्षमा करेंगे. मेरी ऐसी आतुरता अनुचित है. और मैं इसके लिये सार्वजानिक तौर पर आप सभी विज्ञ मित्रों से क्षमा-याचना कर रहा हूँ. 

यह युवाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिये सामूहिक प्रयास की एक पहल है.इसमें अभी बहुत कुछ जोड़े जाने की ज़रूरत है. इसे आप के पास इस उम्मीद से भेज रहा हूँ कि इसे जाँच कर इसकी चूक सुधार दें. इसे हर तरह से परिपूर्ण करने पर ही यह उपयोगी हो सकेगा. सभी समर्थ मित्रों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसे और बेहतर बनाने और समृद्ध करने में मेरी सहायता करें. और साथ ही यदि इन बिन्दुओं में और भी महत्वपूर्ण बिन्दु जोड़ दें, तो यह युवा क्रान्तिकारियों के लिये उपयोगी हो सकता है. 

यदि आपके द्वारा इस लेख को और बेहतर बनाने में मुझे आपकी यह सहायता मिल सकी, तो ऐसे में इसे पोस्ट करने के बाद भी इसके लेखक के तौर पर मैं अपने नाम के आगे ससम्मान आपका नाम भी जोड़ दूँगा. 
कष्ट के लिये क्षमा-याचना के साथ ― आपका गिरिजेश

Sunday 12 January 2014

स्वामी विवेकानन्द — गिरिजेश 12.1.14




प्रिय मित्र, स्वामी विवेकानन्द भारतीय पुनर्जागरण काल के प्रतीक पुरुष थे| 
आगे के सम्पूर्ण स्वाधीनता संग्राम के सभी योद्धाओं के लिये उनका व्यक्तित्व और कृतित्व प्रेरक रहा|
आज भी युवा उनको याद करके प्रेरणा पाते हैं|
आज उनका 150 वाँ जन्म-दिवस है| 
उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन उनके देश-काल-परिस्थिति के सापेक्ष करने का और आज के हमारे इस संक्रमण के दौर में उनकी उपयोगिता के बारे में मुझे मित्र राजेश राय शर्मा द्वारा आयोजित गोष्ठी में बोलने का अवसर मिला|
यह व्याख्यान आप तक पहुँचाने का मकसद आपकी न केवल इस व्याख्यान पर प्रतिक्रिया जानना है|
बल्कि आगे आने वाले संघर्ष में उनकी उपयोगिता के बारे में आपके मत के विषय में जानना भी है|
आशा है कि युवा मित्रों को विश्लेषण की अपनी क्षमता का विकास करने में इस व्याख्यान से सहायता मिल सकेगी|
मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का अट्ठाइसवाँ व्याख्यान है|
यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है|
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें|
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 



स्वामी विवेकानन्द (विकिपीडिया)
कथन "उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये"[1]
स्वामी विवेकानन्द (जन्म: १२ जनवरी,१८६३ - मृत्यु: ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों" के साथ करने के लिये जाना जाता है।[2] उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।
जीवनवृत्त :
स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् १९२०)[3] को कलकत्ता में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। परन्तु उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गये परन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिये महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।
दैवयोग से विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त दरिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। वे स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।
स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।
विवेकानन्द बड़े स्वशप्नदृंष्टा थे। उन्होंुने एक ऐसे समाज की कल्प ना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्ये-मनुष्यं में कोई भेद न रहे। उन्हों्ने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यासत्म वाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द् ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्दध को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी सन्याासी का जीवन एक आदर्श है। उनके नाना जी का नाम श्री नंदलाल बसु था ।
बचपन :
बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।
निष्ठा :
एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा।
सम्मलेन भाषण (सम्पादित) :
मेरे अमरीकी भाइयो और बहनों!
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं :
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
यात्राएँ : 
२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिbb थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। [4] "अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वे कहीं जाते थे तो लोग उनसे मिलकर बहुत खुश होते थे।
विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व : 
मुम्बई में गेटवे ऑफ़ इन्डिया के निकट स्थित स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमूर्ति
उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।"
रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"
वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"
उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला।
उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।
उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है।
उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।
यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी।
मृत्यु : 
वेलूर मठ स्थित स्वामी विवेकानन्द मन्दिर
विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकीअंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।[6]
उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।
महत्त्वपूर्ण तिथियाँ : 12 जनवरी, 1863 -- कलकत्ता में जन्म, 1879 -- प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश, 1880 -- जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश, नवंबर 1881 -- रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट, 1882-86 -- रामकृष्ण परमहंस से सम्बद्ध, 1884 -- स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास, 1885 -- रामकृष्ण परमहंस की अन्तिम बीमारी, 16 अगस्त, 1886 -- रामकृष्ण परमहंस का निधन, 1886 -- वराहनगर मठ की स्थापना, जनवरी 1887 -- वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा, 1890-93 -- परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण, 25 दिसंबर, 1892 -- कन्याकुमारी में, 13 फरवरी, 1893 -- प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकन्दराबाद में, 31 मई, 1893 -- बम्बई से अमरीका रवाना, 25 जुलाई, 1893 -- वैंकूवर, कनाडा पहुँचे, 30 जुलाई, 1893 -- शिकागो आगमन, अगस्त 1893 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो० जॉन राइट से भेंट, 11 सितम्बर, 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान, 27 सितम्बर, 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम व्याख्यान, 16 मई, 1894 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण, नवंबर 1894 -- न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना, जनवरी 1895 -- न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरम्भ, अगस्त 1895 -- पेरिस में, अक्तूबर 1895 -- लन्दन में व्याख्यान, 6 दिसंबर, 1895 -- वापस न्यूयॉर्क, 22-25 मार्च, 1896 -- फिर लन्दन, मई-जुलाई 1896 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान, 15 अप्रैल, 1896 -- वापस लन्दन, मई-जुलाई 1896 -- लंदन में धार्मिक कक्षाएँ, 28 मई, 1896 -- ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट, 30 दिसम्बर, 1896 -- नेपल्स से भारत की ओर रवाना, 15 जनवरी, 1897 -- कोलम्बो, श्रीलंका आगमन, 6-15 फरवरी, 1897 -- मद्रास में, 19 फरवरी, 1897 -- कलकत्ता आगमन, 1 मई, 1897 -- रामकृष्ण मिशन की स्थापना, मई-दिसम्बर 1897 -- उत्तर भारत की यात्रा, जनवरी 1898 -- कलकत्ता वापसी, 19 मार्च, 1899 -- मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना, 20 जून, 1899 -- पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा, 31 जुलाई, 1899 -- न्यूयॉर्क आगमन, 22 फरवरी, 1900 -- सैन फ्रांसिस्को में वेदान्त समिति की स्थापना, जून 1900 -- न्यूयॉर्क में अन्तिम कक्षा, 26 जुलाई, 1900 -- योरोप रवाना, 24 अक्तूबर, 1900 -- विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा, 26 नवम्बर, 1900 -- भारत रवाना, 9 दिसम्बर, 1900 -- बेलूर मठ आगमन, 10 जनवरी 1901 -- मायावती की यात्रा, मार्च-मई 1901 -- पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा, जनवरी-फरवरी 1902 -- बोध गया और वाराणसी की यात्रा, मार्च 1902 -- बेलूर मठ में वापसी, 4 जुलाई, 1902 -- महासमाधि…
सन्दर्भ : 1. Aspects of the Vedanta, p.150, 2. Dutt, Harshavardhan (2005), Immortal Speeches, New Delhi: Unicorn Books, p. 121, ISBN 978-81-7806-093-4, 3. क्रान्त (2006) (Hindi में). / स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 2. नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. प॰ 390. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4., 4. The Cyclonic Swami - Vivekananda in the West, 5. VIVEKANANDA-A Biography in Pictures, Edition: 2005, Publishers: Advaita Ashrama (Publication Department) 5, Dehi Entally Road, Kolkata 700014, Page: 118, ISBN: 81-7505-080-02, 6. "Towards the end". www.ramakrishnavivekananda.info. अभिगमन तिथि: 4 July 2013.
इन्हें भी देखें - राष्ट्रीय युवा दिवस, विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी, विवेकानन्द नीडम्, ग्वालियर, विश्व धर्म महासभा, रामकृष्ण मिशन, 
बाह्य सूत्र- स्वामी विवेकानन्द के सुविचार (हिन्दी विकीक्वोट पर), , स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान (हिन्दी विकीस्रोत पर), स्वामी विवेकानंद का शिकागो में धर्मं सम्मलेन भाषण – ११ सितम्बर १८९३, The Life and Teachings of Swami Vivekananda स्वामी विवेकानन्द का जीवन और शिक्षाएँ, विद्रोही वेदांती का विवेक, सम्पूर्ण शिकागो धर्म सम्मलेन वक्तृता

Tuesday 7 January 2014

'भगत सिंह' बनाने का सवाल : गिरिजेश


प्रिय मित्र, मेरे एक मित्र ने अचानक कहा कि मेरा सारा काम बेहूदा है. उस मित्र की स्पष्टवादिता और साहस मुझे बहुत ही अच्छा लगा. मैंने उस मित्र से विनम्रतापूर्वक कहा कि अभी तो मुझे जो और जैसे करने का तरीका आ रहा है, वैसे ही कर पा रहा हूँ. मगर जब आप मुझे सही काम और सही तरीका सिखा दीजिएगा, तो वैसे ही करने लगूँगा. 

मगर मुझे अनेक ऐसे 'मित्र' ज़िन्दगी भर मिलते रहे और अभी भी मिलते ही जा रहे हैं, जो सामने या तो चुप रहते हैं या फिर केवल अच्छा-अच्छा, मीठा-मीठा कहते हैं और मेरे पीठ पीछे मेरे नये उभर रहे साथियों को मेरे अभियान में उनकी भागीदारी को लेकर दुनियादारी की बारीकियाँ समझाते-भड़काते रहते हैं.

उनकी पृष्ठभूमि, उनकी मनोदशा और उनके दंश के बारे में सोच-सोच कर मेरा मन बार-बार विषादग्रस्त हो जाया करता है. मुझे उनसे रंच-मात्र भी 'डर' तो नहीं लगता. मगर उनके दोहरेपन को देख कर उनके प्रति करुणा उपजती है. उनके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है - "साफ़ छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं." !

मैंने अपने पूरे जीवन में (केवल दो व्यक्तियों को छोड़ कर उनकी भी विशिष्ट परिस्थिति के चलते) किसी को भी 'भगत सिंह' बनने के लिये नहीं 'उकसाया'. हाँ, अनेक अन्य आक्षेपों के साथ ही इसका भी आक्षेप अनवरत आजीवन झेलता ही रहा कि मेरी बातों और मेरी किताबों के चलते युवा 'विपथगामी' और 'बर्बाद' हो गये. मगर मुझे तो कोई ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिल सका, जो अपने इर्द-गिर्द के अन्य युवाओं की अपेक्षा अपनी क्षमता के विकास में और आगे बढ़ने के बजाय 'बर्बाद' हुआ हो. 

मैंने तो केवल हर किशोर-किशोरी और तरुण-तरुणी को बेहतर इन्सान बनने और बेहतर तरीके से हर उस चीज़ को सीखने के लिये ही उत्साहित किया, जो भी वह सीखना चाहता रहा. मैंने उसे बताया कि यह विशेषज्ञता का दौर है. इस दौर में इस दुनिया में अपने लिये सम्मानजनक स्थान बनाने के लिये ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-शिल्प की जो भी विधा सीखो, उसके चरम उत्कर्ष तक अपने को ले जाओ. मैंने उसे झूठ से नफ़रत करने, सच को सम्मान देने और मानवता की सेवा में जो भी उससे बन पड़े, उतना भर ही करने के लिये ही प्रेरित किया और अभी भी करता रहता हूँ.

आज धरती पर पसरे धनतन्त्र के चलते हम में से प्रत्येक का अमानुषीकरण करने वाले इस जटिल और संश्लिष्ट दौर में हम अगर स्वयं अपने और मानवता के प्रति मात्र ईमानदार 'इन्सान' भी बने रह सके, तो भी यह कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं होगी. 

क्योंकि सच यही है कि इस जन-विरोधी तन्त्र के पास अधिकतर युवाओं को तरह-तरह से कदम-कदम पर ललचाने और भरमाने के बावज़ूद देने के लिये मर्मान्तक अलगाव, अपमान, अवसाद और त्रासद यन्त्रणा के अलावा और कोई उपहार है ही नहीं और अब यह 'उपहार' उनको बर्दाश्त नहीं हो पा रहा.

मैं ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ कि कोई भी किसी को भी 'ब्रेन-वाश' करके न तो ज़बरदस्ती 'भगत सिंह' बना सकता है और अगर कोई जब अपनी ज़िन्दगी का सार-संकलन करके बनना चाहेगा, तो उसे किसी भी तरह से जकड़ कर कोई भी रोक भी नहीं सकता. क्योंकि मुझे भी मेरे रास्ते को चुनने और उस पर चलने से कोई भी रोक नहीं सका था.

और फिर शायद इसी बुनियादी ईमानदारी के बने रहने के सहारे आने वाले दिनों में अगणित समर्थ, प्रतिबद्ध और युगद्रष्टा 'भगत सिंह' अपने देश में ही नहीं समूची दुनिया में जल्दी ही जन-दिशा में जन-सम्पर्क, जन-संगठन, जन-आन्दोलन और जन-क्रान्ति करने के लिये सक्रिय दिखाई देने लगेंगे. क्योंकि यह संक्रमण का दौर है और ऐसे दौर में युगान्तरकारी प्रयास बार-बार जल्दी-जल्दी ज्वार की तरह उमड़ते ही हैं. अभी तो समूची धरती पर ही हम सभी 'ऑकुपायी आन्दोलन' के दूसरे ज्वार की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

आप का क्या मत है ? ढेर सारी उम्मीद के साथ - आपका ही गिरिजेश


Vikram Tosamar sir jab b aisi koi baat samne aati h,to sochne ko majboor kr deti h k mahan sukrat k smay se lekar aaj tk logo ki soch m kuch anter aaya?aaya to kitna.?aur nahi aaya to kyo nahi.?

Ajay Pandey - "respected sir , is cheez ko main bhi samjhna chah raha hu lakin mujhe aap ke tarike se koi aapatti nahi hai lakin mera ek sawal hai?? ki aap ye sb jis ke liye kr rahe hai wo aap ko dhokkha nahi dega."

Girijesh Tiwari - मेरे कहने का आशय यह है -
1. 'भगत सिंह' बनना यानि कि क्रान्ति के काम में अपनी पूरी ज़िन्दगी को लगा देने का संकल्प लेना.
2. अगर कोई इन्सान बन सका और बना रह सका, तो आने वाले दिनों में होने वाले क्रान्तिकारी संघर्ष में स्वयं ही अपनी जगह अपनी चेतना के सहारे निर्धारित कर सकेगा. इसके लिये किसी को भी 'ब्रेन-वाश' नहीं करना होता.
3. धोखा वही देता रहा है, जो अपने ईमान से फिसल जाता है और अमानुषीकरण का शिकार होकर लालच में फँस जाता है. उसी के लिये शेक्सपीयर ने कहा था - "ब्रूटस, यू टू..!" 
4. मानवता के समूचे इतिहास में युगपरिवर्तन के इस काम में लगे सभी लोगों को ऐसे तत्वों से बार-बार धोखा तो खाना ही पड़ा है - क्या मैं और क्या मुझसे पहले वाले अनेक मुझसे कई गुना अधिक समझदार 'महापुरुष'. कोई भी इसका अपवाद नहीं रह सका.

व्यायाम और 'व्यक्तित्व विकास परियोजना'



प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के सदस्य ये दो युवक व्यायाम करने के बाद मस्ती में एक दूसरे के साथ दिख रहे हैं. इनके नाम हैं जनार्दन और बिट्टू सिंह. दोनों ही ग्यारहवीं के छात्र हैं. 

मैं कल्पना करता हूँ कि किसी दिन आज़मगढ़ के अनेक युवक इसी तरह व्यायाम कर के अपने स्वस्थ शरीर से मानवता की सेवा करने को प्रतिबद्ध होंगे. 
इस चित्र को देखने के बाद मेरी यह कविता भी पढ़िए और सोचिए कि क्या आप भी इनकी तरह स्वयं के शरीर को बनाना पसन्द करेंगे. 
अगर हाँ, तो देर मत कीजिए. 
नये वर्ष के आगमन के अवसर पर आज ही निर्णय कीजिए और कल से लागू कर दीजिए. 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 
मेरा अपना फ़र्ज़ - गिरिजेश
रोज सवेरे कसरत करने में भी क्या कुछ कठिनाई है? 
“कसरत नहीं किया” - कह देने पर क्या लाज नहीं आयी है?

हरदम दुनिया में शरीर ही तो सब कुछ करता आया है; 
मरियल-सा, कमजोर, आलसी, रोगी मित्र किसे भाया है?

जितने रोग, डॉक्टर उतने, उनसे भी हैं अधिक दवाएँ;
बेच-बेच कर, लूट मुनाफा, पूँजी दुनिया में इतराये। 

खाना नहीं जहाँ मिल पाता, कैसे महँगी मिलें दवाएँ?
पूँजीवादी क्रूर व्यवस्था! क्या अब तक हम जान न पाये?

तो क्या हम भी रोगी बन बिस्तर में पड़ सड़ कर मर जायें?
और हमारे भी सिरहाने, झोला भर कर रहें दवाएँ !

कसरत करना, स्वास्थ्य बनाना, चन्द मिनट में कर दिखलाना।
सबसे कठिन काम में भी, अपने बल का लोहा मनवाना। 

छोड़-छाड़ कर सबको पीछे, हर टक्कर में आगे आना।
किसे नहीं अच्छा लगता है - अच्छा कर ताली बजवाना?

और क्रान्तिकारी जितने थे, क्या टुटहे, मरियल टट्टू थे?
थे वे सबल पेशियों वाले, उन पर तो सब ही लट्टू थे।

मैं भी सबल शरीर बना कर सबकी सेवा खूब करूँगा।
हर सच को इज़्ज़त बख्शूँगा, सदा झूठ को नफ़रत दूँगा।

गद्दारों से टक्कर लूँगा, और फ़र्ज़ से प्यार करूँगा;
घृणित गुलामी से पूँजी की, भारत का उद्धार करूँगा।

राहुल सांकृत्यायन जन इण्टर कॉलेज : एक विनम्र अनुरोध – गिरिजेश



एक विनम्र अनुरोध – गिरिजेश 
राहुल सांकृत्यायन जन इण्टर कॉलेज, लछिरामपुर, आज़मगढ़ के सभी छात्र-छात्राओं से : 
प्रिय मित्र, आज़मगढ़ में राहुल सांकृत्यायन जन इण्टर कॉलेज, लछिरामपुर की स्थापना का उद्देश्य छात्र-छात्राओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करके उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना था. उसकी स्थापना केवल तीस छात्रों और चार शिक्षकों के साथ 1992 में की गयी थी. तब से अट्ठारह वर्षों के काल-खण्ड तक अनवरत इस संस्था में आज़मगढ़ के बच्चों का स्वस्थ विकास होता रहा. बीच-बीच में तरह-तरह के व्यवधान और अवरोध-विरोध आते रहे. मगर शिक्षा-जगत में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप का यह प्रयोग फिर भी चलता रहा. 

2009 में मुझे ‘टू-लाइन स्ट्रगल’ में परास्त होकर पीछे हटना पड़ा. किन्तु संस्था अभी भी चल रही है. केवल अब उसका तेवर, उसकी धार और दशा-दिशा पूरी तरह से बदल चुकी है. फिर भी अभी तक भी उसके कोष से नियमित रूप से मुझे प्रतिमाह रु.5000/- मिल रहे हैं. इस राशि का उपयोग अब ‘व्यक्तित्व विकास परियोजना’ को आगे बढ़ाने में किया जा रहा है. यह परियोजना भी उसी लक्ष्य से चलायी जा रही है. उसमें और इसमें केवल एक अन्तर है. और वह यह कि वह 'शुल्क आधारित' प्रयोग था और यह पूरी तरह से 'निःशुल्क' प्रयोग है. 

राहुल विद्यालय से दशकों तक कड़ी साधना करके निखर कर निकलने वाले अनेक छात्र-छात्राओं ने देश की अलग-अलग संस्थाओं में अपनी और आगे की पढ़ाई की है और स्वयं को समाज के लिये उपयोगी नागरिक के रूप में स्थापित किया है. उनमें से अनेक अभी भी अपनी पढ़ाई अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग विषयों और विद्यालयों में अलग-अलग नगरों में कर रहे हैं. ये सभी छात्र आज एक बार फिर से अपनी चेतना के नये स्तर और अपनी नयी ज़मीन पर खड़े होकर अपने विद्यालय और अपने बचपन के उन शानदार दिनों को याद करते रहते हैं. इनमें से कुछ मेरे जीवन्त सम्पर्क में हैं और इस देश में क्रान्तिकारी परिवर्तन में अपनी अलग-अलग भूमिका का निर्वाह भी सफलतापूर्वक कर रहे हैं. इनमें से अनेक के सपने हैं कि अपने पैरों पर खड़े होते ही वे भी अवश्य ही इस अभियान में सक्रिय भागीदारी करेंगे. 

परन्तु अभी भी बहुत से ऐसे हैं, जो हम सब के सम्पर्क में नहीं आ सके हैं. हम सब को अलग-थलग पड़े और छूटे-छटके ऐसे सभी छात्र-छात्राओं से दुबारा सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास अवश्य करना होगा. ताकि हम सभी एक साथ मिल-जुल कर अपने उन परिवर्तनकामी सपनों को साकार करने में उनकी भी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें, जिनको देखते हुए और जिनके लिये अपनी क्षमता के विकास का प्रयास करते हुए हमने साथ-साथ अपनी ज़िन्दगी के सबसे सुनहरे दिन व्यतीत किये हैं. 

राहुल विद्यालय के छात्रों ने राहुल विद्यालय के नाम से ये कई ग्रुप्स बनाये हैं. मेरा अनुरोध है कि यदि हम इन सभी ग्रुप्स को एक में मिला दें, तो सभी ग्रुप्स के सदस्य एक मंच पर ही अपने विचार व्यक्त कर सकेंगे और अपने बचपन के सभी मित्रों के विचारों से भी लगातार अवगत होते रहेंगे. इस निर्णय से परस्पर विचार-विनिमय करने में भी हम सब को भरपूर सहायता मिलेगी. अगर इस प्रयास में कोई तकनीकी या मतभेद की समस्या आती है, तो उसे आपस में मिल-जुल कर और बात-चीत करके आसानी से हल किया जा सकता है.
1. प्राउड टू बी आज़मगढ़िया
https://www.facebook.com/groups/476483965703796/
2. राहुल स्कूल https://www.facebook.com/groups/singhalok232/
3. ज़िन्दगी रिलैक्स प्लीज़
https://www.facebook.com/groups/JINDAGIRELAX/
4. स्टूडेंट्स https://www.facebook.com/Is2dent?ref=stream
11. RAHUL SANKRITYAYAN JAN INTER COLLEGE LACHHIRAMPUR AZAMGARH

हम सभी इस रूप में एक वृहत्तर परिवार - ‘राहुल-परिवार’ के सदस्य हैं. मेरा यकीन है कि आने वाले दिन आज़मगढ़ के युवाओं की समाज के विविध क्षेत्रों में अतुलनीय सफलता के साक्षी होंगे. मेरा यह भी यकीन है कि उन सभी सफलताओं में ‘राहुल-परिवार’ के सदस्यों द्वारा बनाये गये कीर्तिमानों की अनन्य भूमिका होनी ही है. मेरा फोन नम्बर है – 09450735496. आपमें से जो भी चाहे, जब भी चाहे, बेझिझक मुझसे सम्पर्क कर सकता है. मैं सदा की तरह ही आज भी आपके साथ ही हूँ.

इसी कामना के साथ आपका अपना – ‘तिवारी सर’ 30.12.13.
{मेरा विशेष अनुरोध है कि इस पोस्ट को आप सभी अपनी-अपनी वाल पर भी शेयर करें और अपने मित्रों से भी ऐसा ही करने का निवेदन करें, ताकि यह सन्देश हमारे अधिकतम मित्रों तक पहुँचाया जा सके.}

विद्रोही और विवाह : आत्म-निर्णय का सवाल ! - गिरिजेश


प्रिय मित्र, मेरे बारे में मेरे मित्रों और परिचितों के अनेक आक्षेपों में से एक आक्षेप यह भी है कि मैं अपने सभी युवा मित्रों को विवाह न करने या केवल अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह करने के लिये प्रेरित करता रहा हूँ. हाँ, यह तो सच ही है कि परम्परागत विवाह का ताम-झाम कभी भी मेरे गले से नीचे नहीं उतर सका. परम्परागत विवाहोत्सव के आयोजनों में किया जाने वाला सम्पत्ति का भोंड़ा प्रदर्शन मुझे केवल 'स्व' की तुष्टि का विद्रूप और वीभत्स प्रयास ही लगता रहा है. उसकी तुलना में मैं सादगी से की जाने वाली कोर्ट-मैरिज को बेहतर मानता हूँ.

परन्तु मेरे बार-बार स्पष्टीकरण देने पर भी मेरा कोई भी मित्र मेरी बात सुनने और मानने को तैयार नहीं हो पाता. सब के सब एक ही बात एक साथ ही बोलते हैं कि चूँकि मैं स्वयं आजीवन अविवाहित रहा, इसलिये उन सब मित्रों के भी बेटे-बेटी को उन सब मित्रों की मर्ज़ी से विवाह न करने को उकसाता रहता हूँ. 

मैंने जीवन में अपने किसी भी मानस-पुत्र या मानस-पुत्री को अपनी किसी भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा या छोटी-बड़ी व्यक्तिगत कामना-पूर्ति के लिये कभी भी 'इस्तेमाल' नहीं किया. उनमें से प्रत्येक को अपना प्रत्येक निर्णय स्वयं ही करने के लिये हर-हमेशा प्रेरित करता रहा. क्योंकि मेरी समझ है कि चूँकि ज़िन्दगी उनकी अपनी है. इसलिये निर्णय भी उनका अपना ही होना चाहिए. और फिर उनका जो भी निर्णय मेरे सामने आया, मैं अपनी कूबत भर हमेशा ही उनके साथ खड़ा रहा. और अभी भी उनमें से प्रत्येक के साथ और उनके प्रत्येक निर्णय के साथ पूरी निष्ठा से खड़ा हूँ.

मेरी मान्यता है कि विवाह के बारे में निर्णय हर युवा के जीवन का नितान्त वैयक्तिक निर्णय है. वह करना चाहे, करे और न करना चाहे तो न करे और अगर करे भी तो कैसे और किसके साथ करे - इसमें केवल उन दो व्यक्तियों का ही निर्णय अन्तिम और सबको ही मान्य होना चाहिए. किसी भी तीसरे व्यक्ति के द्वारा किन्ही भी दो 'वयस्क' व्यक्तियों के अन्तरंगतम सम्बन्ध के इस निर्णय के विषय में उनके अपने आत्म-निर्णय में हस्तक्षेप को मैं अनुचित मानता रहा हूँ और अभी भी मैं अपने इस मत पर ही अडिग हूँ. 

अपनी ख़ुद की ज़िन्दगी के सारे निर्णय भी मैंने स्वयं ही लिये हैं. यह अलग बात है कि अलग-अलग मंशा, समझ के स्तर के अन्तर, प्रस्थान-बिन्दु और अवस्थिति से परिचालित होने वाले अलग-अलग मित्रों और साथियों के साथ 'जनवाद' लागू करने की अधिकतम कोशिश भी मैंने ईमानदारी से की. और उसके चलते अगर मुझे अपने जीवन और अभियान में अनेक लाभ मिले, तो उससे होने वाली तमाम तरह की छोटी-बड़ी क्षति का शिकार भी मैं और मेरा रचना-संघर्ष ही होता रहा. फिर भी मैं किसी भी व्यक्ति के ऊपर किसी दूसरे व्यक्ति के कैसे भी निर्णयों को ज़बरन थोपने का धुर विरोधी हूँ. 

'अलग होने तक का आत्म-निर्णय का अधिकार' देने की कॉमरेड स्टालिन की थीसिस को मैं पूरा सम्मान देता हूँ और उसी को लागू करने की कोशिश भी करता रहा हूँ. हाँ, यह जानता भी हूँ ही कि कम समझदार साथी या गलत मंशा वाले लोग गलत निर्णय भी कर सकते हैं और करते भी रहे हैं. और विश्व-क्रान्ति का इतिहास इस तथ्य का साक्षी भी है. फ्रांसीसी क्रान्ति में दोनों दल एक दूसरे को गिलोटिन के घाट उतार देते हैं. रूसी क्रान्ति में ख्रुश्चोव केवल एक बेरिया की हत्या करके सफल हो लेता है. चीनी क्रान्ति में तो 'टू-लाइन स्ट्रगल' स्वयं माओ के जीवन भर चलती ही रहती है. और उनके निधन के साथ ही ल्यू शाओ ची के अनुगामी देंग सियाओ पिंग को पूँजीवादी दिशा में पूरी कहानी को मोड़ देने का अवसर मिल जाता है. 

मेरा अनुरोध है कि हम सब के लिये ही इन सभी त्रासद घटनाओं की रोशनी में जनवाद का समर्थन करते समय हमें यह भी विचार करना चाहिए कि वह क्या था जिसने विश्व-क्रान्ति की प्रत्येक उपलब्धि को मूल नेतृत्वकारी व्यक्तित्व के पटल से हटते ही विपथगामियों के कब्ज़े में चले जाने दिया. अभी तक सफल प्रतिक्रान्तियों की भविष्य में पुनरावृत्ति को हम तभी रोक सकेंगे. फिर भी मैं यह मानता हूँ कि किसी के भी व्यक्तिवाद से समूह के अधीन व्यक्ति को कर देने का जनवाद का सिद्धान्त बेहतर और अधिक विकसित सिद्दान्त है.

इस सन्दर्भ में यह पोस्ट भी पठनीय और विचारणीय है.

Ashwini Aadam - "आजकल हमरे घर वाले बियाह खातिर डंडा कर रहे हैं अउर हम हैं की अपने आवारापन से एह जीवन में कउनो मुरौव्वत नहीं करना चाहते...
अभिये अपनी शादीशुदा दीदी से इहे बतिया कर रहे थे तो ऊ बोलीं की "अरे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हे किसी के अधीन नहीं रहना है वो तो खुद तुम्हारे अधीन रहेगी"
सुन के कृत कृत्य हो गए हम तो.....
साला बियाह की इ फिलासफी तो एक स्त्री की है पढ़ी लिखी कार्पोरेट सेक्टर में काम करने वाली स्त्री की....
हमही साला चूतिया रह गए जो ई मानते थे कि-
बियाह ऐसी संस्था है जिसमे दो जने एक दूसरे के प्रति पूर्ण उत्तरदायी होते हैं...

जिसमें दो जने एकदूसरे के प्रति इतने स्वतंत्र होते हैं जितना कि वे खुद के प्रति..
जिसमे कि निश्छल प्रेम अपने सम्पूर्ण परिपक्व रूप में पल्लवित होता है..

जिसमे की हमारे समाज के आधारभूत इकाई के रूप में सकारात्मक संतुलन निहित होता है........

जिसमें कि किसी की स्नेहमयी अधीनता को खुद आत्मसात किया जाता है....

अबे यारों आज बियाह के साथ साथ इंसानी दिमाग और समाज की विकृति का भी गयान होइये गया अउर खुद पर गर्व भी की हम साला आवारा हैं अव्वल दर्जे के आवारा... कम से कम किसी को आधीन बनाने के पाप से तो बचे रहेंगे इस जीवन में..."

'आँख के अन्धे, नाम नयनसुख' - "वाह भाई हम ! वाह-वाह !!"

प्रिय मित्र, आज जब दिल्ली के दिल वाले 'आप' की सफलता के पीछे पागल हो रहे हैं. देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में एक ऐसा अध्याय लिखा जा रहा है. जिसे आम लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर इस देश का संसदीय वाम भी लिख सकने में अभी तक बुरी तरह से विफल ही रहा है. जनता का दिल जीतने में अपनी इस विफलता के बारे में न केवल संसदीय वाम को अपितु समूचे ही वाम को विनम्रता के साथ आत्मालोचना और आत्ममूल्यांकन भी करना ही होगा. वरना सबसे विकसित विज्ञानं की दृष्टि रखने के बाद भी आगे भी हम पहले जैसे ही 'आँख के अन्धे, नाम नयनसुख' ही बने रहेंगे. हम जिनको लोगों की सेवा करनी थी, लोगों से सेवा करवाते चले गये. हम लोगों के सेवक नहीं, उपदेशक बने रह गये. हम तो लोगों को केवल दूसरों के लिखे jorgans के रटे-रटाये उपदेशों की उन मुश्किल-मुश्किल दवाओं के नुस्खे लिखने वाले नक़ल-नवीस बने रहने में गाफ़िल बने रहे, जिनको हम ख़ुद भी पूरी तरह नहीं समझ सक पा रहे थे. अपने इन बौद्धिक विमर्शों में हम इतने मशगूल रहे कि और तो और आम लोगों की मजबूरियों और उनकी रोज़मर्रा ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों को समझने और महसूस करने तक से इन्कार करते रहे. ईमानदारी की बात यह है कि हमें अपने ख़ुद के चिन्तन और आचरण के स्तर पर शर्म आनी चाहिए कि आज जब आम लोगों की आँखें भर रही हैं आज के टी.वी. को देख कर. ऐसा भी तो हमारे जानकार नेताओं और शानदार इतिहास के बावज़ूद भी हमारे चलते इस देश में कभी भी क्यों नहीं हो सका.
क्षोभ के साथ - आपका ही गिरिजेश

सूप और चलनी ! नाना रूपधर का नूतन अवतार - गिरिजेश



हमारे पुरखे भी क्या खूब थे....एक से बढ़ कर एक कहावतें कह गये...पीढ़ियों से हम सब के लिये मौके-ब-मौके दोहराने के काम आती रही हैं... आज एक ऐसी ही कहावत दिमाग में शाम से नाच रही है... मन बेचैन है... किसी का बयान देखा... हँसी भी नहीं आयी... तरस भी नहीं आया... इतने दोहरे चेहरे वाले लोग.... काफ़िर हूँ... सो, यह भी नहीं कह सकता.... "या ख़ुदा, इन्हें माफ़ कर दे, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं".... ये तो 180 डिग्री पर पलटा खाने वाले निकले.... ये अच्छी तरह जानते हैं कि क्या कह चुके हैं और क्या कह रहे हैं.... मेरा तो कोई ख़ुदा भी नहीं है.... जो इनको मेरे दुआ करने के बाद भी माफ़ कर सके... अरे मैं आप को वह कहावत बताना तो भूल ही गया... वह कहावत है....

"सूप हँसे तो हँसे, चलनियो हँसे जिसमें बहत्तर छेद" !


अभी तक तो सुना भर था... मगर आज तो मैंने भी ख़ुद अपनी आँखों से एक चलनी को भी हँसते देखा... वाह, क्या बात है.... बात के धनी अपने सभी 'दोस्तों' से तो मैं फिर भी माफ़ी भी माँग सकता हूँ... मगर 'द्विजिह्वाधारियों' से तो निभाना नामुमकिन ही है मेरे लिये... तौबा, तौबा.... इसमें भी अगर मेरा ही कुसूर है, तो मेरी बला से होता रहे.... मेरी बात अगर मेरे किसी 'शुभचिन्तक' को चुभ गयी हो, तो वह ख़ुशी से मेरा 'अशुभ' करने का प्रयास शुरू कर सकता है... मगर बात है, तो है... बात तो बात ही है, अगर निकलेगी, तो फिर दूर तलक जायेगी ही....
__________________________


नाना रूपधर का नूतन अवतार - गिरिजेश 
"अन्तः शाक्ताः, बहिः शैवाः, सभा मध्ये च वैष्णवाः ;
नाना रूप धराः कौलाः, विचरन्ति मही तले |"
धन्य हैं ! धन्य हैं !!
आज फ़ेसबुक ने ऐसा फ़ेस दिखा दिया कि मुझे किसी पुरखे का लिखा यह श्लोक याद आ गया. 
क्या कहा.... संस्कृत नहीं समझते.
चलिए, कोई बात नहीं. हिन्दी तो समझ लेते हैं न...
हिन्दी ही समझिए....
अर्थात् 
"अन्दर से शक्ति के उपासक, बाहर से शिव के पुजारी, लोगों के सामने 'शुद्ध शाकाहारी' वैष्णव जैसे दिखाई देने वाले, काली की पूजा करने वाले लोग धरती पर तरह-तरह के रूप बदल-बदल कर टहलते रहते हैं." 
ये आत्म-रूपान्तरण में समर्थ बहुरूपधारी हैं. 
जहाँ जैसा मौका देखा, वैसा ही दिखाई दे सकते हैं. 
इन बहुरुपियों के रूप बदलने की कला कमाल की है.
इनके नूतन अवतार के दर्शन से मैं तो कृतार्थ हो चुका. 
अगर आप भी हो सके, तो इहलोक और परलोक दोनों सुधर जायेगा.
सुना नहीं है क्या आपने अभी तक....
आस्था में ही शक्ति है और वही असली भक्ति है.
भक्ति से ही बहुतों को मिल रही मुक्ति है.
तर्क नर्क का द्वार है.
मुँह फाड़ कर बकर-बकर क्या देख रहे हैं जी...
बेहतर होगा कि अपना अदना-सा मुँह बन्द ही रखिए. 
केवल यकीन कीजिए और हाँ...
ख़बरदार, किसी से भी कोई भी सवाल पूछिएगा मत....
वरना आपका भी अन्जाम....
समझ गये न !

एक 'समझदार' दोस्त से एक बार फिर अकेले में मुलाकात - गिरिजेश



प्रिय मित्र, आज शाम अपने एक 'समझदार' दोस्त से एक बार फिर अकेले में मुलाकात करने का मौका मिला. इस मुलाकात के लिये अनेक बार की कोशिशों के नाकाम होने पर भी नाउम्मीद हुए बिना मैंने एक बार और आज सुबह समय लेने की कोशिश की. यह मुलाकात लगभग एक वर्ष के लम्बे अन्तराल तक पूरे धैर्य के साथ चुपचाप की गयी प्रतीक्षा के बाद आज जाकर हो सकी. तब हो सकी, जब परिस्थिति पूरी तरह बदल चुकी है. 

मुलाकात की इज़ाज़त मिल पाने पर सही वक्त पर शाम को मैं उनके घर गया. और फिर जब साथ बैठे, तो लगभग तीन घन्टे लगातार दिल खोल कर हर तरह की अन्तरंग बातें होती रहीं. दोनों ही की नज़रें एक दूसरे को तौलती रहीं, एक दूसरे से मिलती रहीं, कई बार टकराती रहीं और कई बार बचने की भी कोशिश करती रहीं. दोनों ही एक दूसरे को पूरा जान रहे थे. दोनों ही अच्छी तरह समझ रहे थे कि अब तो साफ़-साफ़ बात हो ही जानी चाहिए. वरना शायद देर हो जाये. और दो-टूक बातें हुईं भी.

इस दोस्ती के शुरू होने के वक्त से ही मुझ पर पूरा भरोसा न करने और फिर पूरी तरह से मुझ पर से भरोसा टूट जाने से नुकसान तो बहुत हुआ. इस नुकसान को रोकने और अपने दूसरे सभी रिश्तों की ही तरह इस रिश्ते को भी बचाने के लिये मैं जो कुछ भी कर सकता था, वर्षों तक लगातार मैंने किया. मगर केवल कोशिश ही करना तो हमारे बस में है. पूरी शिद्दत से कोशिश करने पर भी नतीज़ा हमारे हाथ में नहीं भी हुआ करता ही है. सब की तरह ही मेरे भी पास तो एक ही ज़िन्दगी रही. और उसे मैंने अभी तक तो पूरी आन-बान-शान के साथ अपने इन्कलाब के लाल झण्डे के नीचे सच और इन्साफ़ के लिये जूझते हुए ही गुज़ारा है. अव्यावहारिकता और अनमनीयता मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण है. दो दूना पाँच पढ़ाने वाले मुझे कभी बर्दाश्त नहीं हुए.

अभी भी दौर तो सिक्के की हुकूमत का ही है. सिक्का इन्सान ने अपनी ख़िदमत के लिये विनिमय में सहूलियत के लिये गढ़ा था. मगर सिक्के ने भी इन्सान से अपनी गणेश-परिक्रमा करवा कर उसे उसकी औकात बता ही दी. वह लगातार इन्सान का अमानुषीकरण करता गया. आज सिक्का भी बखूबी समझ चुका है कि अब वह इन्सान को और गफ़लत में नहीं रख सकता. अब हुक्काम और अपने रूप नहीं बदल सकते. अब की बार तो आर-पार ही होना है. मेरे बाद भी निन्यानबे बनाम एक प्रतिशत की जंग जारी ही रहेगी. और हुक्काम भी जानते ही हैं कि अब की बार सिक्का हारेगा ही और इन्सान जीतेगा ही. 

सिक्के की हुकूमत के इस शातिर दौर में शरीफ़ लोग सीढ़ी चढ़ने के चक्कर में चकराते ही रहे हैं. हर एक पर शक करना समझदार होने की पहली शर्त है. शक रिश्ते को दरकाता चला जाता है. शक रिश्ते को तोड़ देता है. हमेशा से ही जोड़ता तो भरोसा ही रहा है. शक ने मेरे भी रचना-संघर्ष को बेतहाशा तोड़ा ही है. भरोसे ने ही मुझे अपने सभी दोस्तों की तरह ही इस दोस्त से भी जोड़ा था. भरोसा करना मासूमियत भले ही हो. कम से कम चालाकी तो नहीं ही हो सकती. ऐसे में आज एक बार फिर मैंने पूरी शिद्दत से इस बेतहाशा दरक चुके भरोसे के बीच पैदा हुई दरार को पाटने की कोशिश की है. और मैं अपनी इस कोशिश से पूरी तरह से संतुष्ट भी हूँ.

सत्य कल्पना से भी अधिक विचित्र होता है. यह तथ्य मुझे मेरे एक युवा मित्र ने गत जुलाई में पढ़ाया था. संभावनाएँ अगणित होती हैं. इसलिये ऐसे में अभी भी यह मुमकिन हो सकता है कि कम से कम एक ही इन्सान सही अभी भी मेरी ईमानदारी का यकीन कर ले. कहा तो उसने यही है कि मेरी विश्वसनीयता असंदिग्ध है. मगर जब तक कहानी अगले मोड़ तक न पहुँच जाये, तब तक कम से कम मुझे कथनी और करनी में इतने तरह के फ़र्क इतनी बार जीने पड़े हैं कि अभी भी मन पूरी तरह यकीन करने को तैयार नहीं है. 

और तो और यह भी सम्भावना प्रबल ही है कि कहानी पूरी होने के पहले ही वह ख़ूबसूरत मोड़ आ जाये, जब महा-प्रयाण के लिये रवाना होने का वक्त आ जाये. मेरे ऊपर मेरे एक-एक दोस्त के असंख्य एहसानात का क़र्ज़ है. और केवल शुक्रिया कह कर उस क़र्ज़ से बच निकलना मेरे लिये तो नामुमकिन ही है. फिर भी आज मैं तह-ए-दिल से अपने सभी दोस्तों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ. अपनी ज़िन्दगी की टेढ़ी-मेढ़ी विकास-यात्रा के दौरान मुझसे होने वाली अपनी सारी गलतियों के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ. मैं पूरी विनम्रता के साथ अपनी एक से बढ़ कर एक की गयी बेवकूफियों के चलते अपने सभी दोस्तों और उनके भी सभी दोस्तों को हुई तकलीफ़ के लिये ईमानदारी से आप सब से माफ़ी माँगता हूँ. 

आपको अलविदा कहने से पहले केवल एक निवेदन करना चाहता हूँ कि बाद मेरी आँख बन्द होने के मेरे शरीर को चिकित्सा-विज्ञानं के छात्रों को सीखने के लिये दे दिया जाये और किसी भी तरीके का कोई भी परम्परागत 'तमाशा' न किया जाये. इसके लिये जिन भी ज़रूरी कागजों पर मेरे हस्ताक्षर करवाने हों, वक्त रहते करवा लिया जाये.
मेरी इस कहानी का नाम है - 
"ब्रूटस यू टू !" 
क्षमा-याचना के साथ - आपका अपना गिरिजेश 
24.12.13. (1.34 A.M.)

दुआ और आह – गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज़मगढ़ में ‘सूत्रधार’ के संस्थापक प्रतिबद्ध रंगकर्मी दम्पती - अभिषेक पण्डित और ममता पण्डित तथा उनके समर्पित साथियों की विगत दस वर्षों से अनवरत जारी साधना के साक्षी हरिऔध कलाभवन के खण्डहर के उजड़े प्रांगण में ‘आरंगम’ (आज़मगढ़ रंग महोत्सव) का वार्षिक अभिनय-कर्म का चार दिवसीय आयोजन इस वर्ष भी पूर्ववत जारी है. आज इस आयोजन के दूसरे दिन भीष्म साहनी की कथा ‘साग-मीट’ पर ‘नटमण्डप’ पटना की पटु कलाकार मोना झा जी ने एकल अभिनय प्रस्तुत किया. 

प्रस्तुति के उपरान्त मैंने उनको सफल प्रस्तुति पर बधाई दी और कहा कि मैं आपकी साधना के उत्कर्ष के लिये दुआ करता हूँ. तत्क्षण वहीं उपस्थित मित्र अभिषेक नन्दन ने जिज्ञासा व्यक्त की – “क्या कॉमरेड, किससे दुआ करेंगे !” 

मैं जानता हूँ कि 'दुआ' और 'शाप' दोनों ही मान्यताएँ अवैज्ञानिक हैं. परन्तु मेरी समझ है कि यह मुल्क अभी भी ‘दुआ’ का मतलब ‘कामना’ समझता है. मुझे इस ज़ालिम व्यवस्था की क्रूरता और कपट जब-जब दिखाई दे जाता है, तो ये पंक्तियाँ दिमाग़ में नाच उठती हैं -
“निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय;
मुई खाल की साँस सों, लौह भसम होइ जाय.”
इसी सन्दर्भ में उनकी प्रेरणा से अचानक याद आयी मेरी यह कविता आपकी सेवा में प्रस्तुत है.


दुआ और आह – गिरिजेश 

नहीं मैं मानता हूँ, फिर भी सारे लोग कहते हैं,
फ़कीरों की दुआ लगती है, जादू कर गुज़रती है.

ज़माना जानता है यह हकीक़त है मगर फिर भी,
हर इक पर ज़ुल्म करना जालिमों की भी हिमाक़त है.

गुरूर उनके हिकारत से समाँ बर्बाद करते हैं,
कहर ढाते नहीं थकते, तबाही बरपा करते हैं.

वे बच्चों को रुलाते हैं, वे माँओं को सताते हैं,
बुजुर्गों को पकड़ कर पीटते हैं, काट देते हैं.

कोई लाचार ग़र उनकी नज़र के सामने आया,
नहीं वे बख्शते, उसको भी गोली मार देते हैं.

वे फसलों को जलाते हैं, घरों को फूँक देते हैं,
ग़रीबों की ग़रीबी पर भी डाका डाल देते हैं.

वे मासूमों को सड़कों पर पकड़ कर मार देते हैं,
वे ख़ूनी खेल करते हैं, ठहाके भी लगाते हैं.

हर इक ज़ालिम का ख़ूनी दौर छोटा ही रहा अब तक,
सभी का हस्र भी तो एक जैसा ही रहा अब तक.

फ़कीरों से तभी इन्साँ सभी फ़रियाद करते हैं,
लिहाज़ा आह भी उनकी कभी बायें नहीं जाती !
(30.9.2009 2.00 A.M.)

कमेंट्स से :
Prashant Rai दिल को छूलेने वाली रचना !

Girijesh Tiwari सन्दर्भ के लिये देखने का अनुरोध करूंगा - 
Khurshid Anwar - "फरीद मैं नास्तिक हूँ पर दुआ खुदा या इश्वर से नहीं है."
वहीँ पर फैज़ की यह कविता भी है.
दुआ - फैज़

आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें

जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें

जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले

इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए

Prashant Rai 'खुर्शीद अनवर' के सारे मामलों में मैं आप से इत्तेफाक़ रखता हूँ गुरु जी ! और खासकर उनको शहीद घोषित करने के मामले पर !

Girijesh Tiwari - "सार्वजनिक तौर पर तुम्हारा आभार व्यक्त कर रहा हूँ, Prashant Rai. वरना मैं तो तुम सब लोगों के छोड़ देने के बाद से बेतहाशा टूट-बिखर रहा था. ऊपर से यह लड़ाई और इसकी ज़िम्मेदारी का एहसास. रात-दिन लगातार केवल खूब परेशान रहता हूँ और वजह भी बता नहीं सकता. यहाँ भी सभी लोग मेरी बीमारी को लेकर परेशान हैं. मगर साथ दे रहे हैं. ये सभी युवा वह कर रहे हैं, जो अब तक नहीं किया जा सका था. यहाँ की प्रगति का विस्तार में कल रिपोर्ट करूंगा. मेरे लिये केवल मार्क्सिज्म का टूल है, जिससे मैं दुनिया को समझने की कोशिश करता हूँ. और शायद अभी तक असफल नहीं हुआ है मेरे गुरु जी का सिखाया यह एकडग्गा पहलवान का दाँव. आगे भी निश्चित तौर पर सफल होगा ही क्योंकि मेरे गुरु जी का आशीर्वाद मेरे साथ है. उन्होंने जिसको जो भी सिखाया हो, एकडग्गा को तो एक ही दाँव सिखाया. और मैं उसकी कहानी तुमको सुना ही चुका हूँ. कभी और दोस्तों को भी सुना दूंगा.
Prashant Rai Girijesh Tiwari बिकुल गुरु जी !
मैं आज़मगढ़ के बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने, आत्मनिर्भर बनाने और उनको साक्षर बनाने के आप के इस पहल में तन-मन-धन से प्रतिपल साथ हूँ और जल्द ही इस मिशन में गुप्त योगदान देने के लिये समर्पित भी रहूँगा !
मेरे और आप के बीच में केवल एक मामले को लेकर वैचारिक मतभेद है, और मुझे लगता है वो रहेगा !
मतभेद होना भी चाहिए और यही जनवादी पद्दति को दूसरी किसी भी पद्धति से विकसित और स्वस्थ सिद्ध करता है. मुसीबत तो तब हो जाती है जब मतभेद की जगह मनभेद हो जाता है. और कोई सुनवाई नहीं हो पाती. ऐसे में मुझे तो बहुत ही दर्द होता है. कई बार खुर्शीद भाई के रास्ते जाने की सोचता रहता हूँ. कृपया इसे सहानुभूति बटोरने के नाटक के रूप में मत लेना. मेरी पंकज से जो बात हुई है, उसका पंकज के पास रिकॉर्ड होगा. उनसे माँग कर देख सकते हैं या मैं भी दे दे सकता हूँ. 
मैं केवल सत्य और न्याय के साथ हूँ. किसी के भी खिलाफ़ नहीं हूँ. और अब जब अपनी ही परवाह नहीं रही, तो किसी की भी शायद नहीं रही. फ़र्ज़, केवल ज़िन्दा रहने का फ़र्ज़ है, जो तीन तीन बजे रात तक जगा कर खटाता रहता है. फिर भी मन बेचैन ही रहता है रात-दिन, सोते-जागते. 'सच' मैं जानता हूँ, प्यार करना मेरी फितरत है. और इस अकेलेपन के सारे साथियों के एहसान मेरा पाथेय हैं, जो कहानी अभी भी चल रही है. वरना... तुम तो मुझे और मेरी ज़िद से खूब अच्छी तरह परिचित ही हो.
अगला कदम भी जानते ही हो. शेष फिर कभी. एक बार फिर मेरा कसमसाता हुआ दिल सबकुछ याद कर रहा है. अभी इस चर्चा को यहीं रोकने की शारीरिक और मानसिक विवशता है.
Prashant Rai Girijesh Tiwari मैं जानता हूँ गुरुजी, और आप की मुश्किलों का बखूबी एहसास भी है ! मन कितना विचलित हो सकता है उस जघन्य अपराध को करने के लिये, ये भी मैं समझ सकता हूँ !
लेकिन ...... आखिर है तो ये कायरता का ही काम ! और मुझे नहीं लगता कि आप जैसा कामरेड जो लोगों को, ज़िंदगी भर अपने सही फैसलों के सामने सिर झुकाने के लिये मजबूर करता रहा, आज वो ही एक गलत फैसले के बारे में सोच भी सकता है ...!
अपने उसूलों के बारे में सोचिये !
अपने लक्ष्य को याद करिये !
आप को वो रास्ता बनाना है जिसपे हम चल सकें !
इंक़लाब-ज़िंदाबाद कामरेड Girijesh Tiwari

Girijesh Tiwari मेरा नाम इस आत्महत्या करने वाले कामरेड्स की लिस्ट में तीसरा होना चाहिए था. गोरख पाण्डेय और कानू सान्याल के बाद. मगर बीच में खुर्शीद के आ जाने से मैं तो पिछड़ ही गया हूँ अभी तो.. और न आये तो बेहतर है... वरना लोगों के पास एक और कहानी होगी उदय प्रकाश जैसे लेखकों को मालामाल करने के लिये और चटकारे लेने के लिये. इसी लिये धीमी मौत का रास्ता अधिक बेहतर है. है न !

Prashant Rai Girijesh Tiwari आत्महत्या ना करना लेकिन अपनी मौत को दावत देना वो भी जानबूझकर, ये दोनो गलत बाते हैं ! मैं जानता हूँ की इंसान कितना मजबूर हो सकता है लेकिन कामरेड जरा एक बार अपने सपनों के बारे में तो सोचिये, एक बार अपने उसूलों के बारे में तो सोचिये फिर आप को एहसास होगा की आप को करना क्या है ?

Girijesh Tiwari अब मैं बच्चा तो नहीं हूँ. भले ही लोग कहते हैं -."गुरु जी, आप बच्चे हैं." जब तक ज़िन्दगी फ़र्ज़ है, ज़िन्दा हूँ. जब मौत फ़र्ज़ हो जायेगी, धीरे-धीरे घुट-घुट कर कलप-कलप कर मर लूँगा. मुझे न तो जीने में मज़ा है, और न मरने में अफ़सोस. अपने सपनों के लिये जितना कर सका...और जो पा लिया दोनों से पूरी तरह मन संतुष्ट है. केवल वह कविता याद आती रहती है -
"जिस दिन सपनों के मोल-भाव पर उतरूंगा,
जिस दिन संघर्षों पर जाली चढ़ जायेगी;
जिस दिन लाचारी मुझ पर तरस दिखायेगी,
उस दिन जीवन से मौत कहीं बढ़ जायेगी."
मर तो मैं कभी का चुका होता, कोई हाथ बढ़ा और रोक दिया. अब पूरी मस्ती है. आल्हा का वह नायक याद आता रहता है "बड़े लड़ैया आल्हा-ऊदल, दोनों हाथ लडें तरवारि.." ढाल फेंक कर लड़ने में ही मज़ा है. कबीर की तरह आग में नाचने का ही मज़ा है. उस मज़े के आगे सब मज़े ले कर देख चूका, फीके हैं. बिलकुल फीके. पूरी मस्ती से जूझ रहा हूँ और किसी की सर्टिफिकेट की परवाह रत्ती भर भी नहीं रही. अब केवल अनहद का नाद सुनाई देता रहता है. अलविदा...

Shrikesh Pandey ·God bless

अभिषेक नंदन कॉमरेड आपकी बातों से पूर्ण सहमत हूँ। वहां पर जिज्ञासा प्रकट करना 'गौसिप' भर था।