Tuesday 7 January 2014

'भगत सिंह' बनाने का सवाल : गिरिजेश


प्रिय मित्र, मेरे एक मित्र ने अचानक कहा कि मेरा सारा काम बेहूदा है. उस मित्र की स्पष्टवादिता और साहस मुझे बहुत ही अच्छा लगा. मैंने उस मित्र से विनम्रतापूर्वक कहा कि अभी तो मुझे जो और जैसे करने का तरीका आ रहा है, वैसे ही कर पा रहा हूँ. मगर जब आप मुझे सही काम और सही तरीका सिखा दीजिएगा, तो वैसे ही करने लगूँगा. 

मगर मुझे अनेक ऐसे 'मित्र' ज़िन्दगी भर मिलते रहे और अभी भी मिलते ही जा रहे हैं, जो सामने या तो चुप रहते हैं या फिर केवल अच्छा-अच्छा, मीठा-मीठा कहते हैं और मेरे पीठ पीछे मेरे नये उभर रहे साथियों को मेरे अभियान में उनकी भागीदारी को लेकर दुनियादारी की बारीकियाँ समझाते-भड़काते रहते हैं.

उनकी पृष्ठभूमि, उनकी मनोदशा और उनके दंश के बारे में सोच-सोच कर मेरा मन बार-बार विषादग्रस्त हो जाया करता है. मुझे उनसे रंच-मात्र भी 'डर' तो नहीं लगता. मगर उनके दोहरेपन को देख कर उनके प्रति करुणा उपजती है. उनके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है - "साफ़ छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं." !

मैंने अपने पूरे जीवन में (केवल दो व्यक्तियों को छोड़ कर उनकी भी विशिष्ट परिस्थिति के चलते) किसी को भी 'भगत सिंह' बनने के लिये नहीं 'उकसाया'. हाँ, अनेक अन्य आक्षेपों के साथ ही इसका भी आक्षेप अनवरत आजीवन झेलता ही रहा कि मेरी बातों और मेरी किताबों के चलते युवा 'विपथगामी' और 'बर्बाद' हो गये. मगर मुझे तो कोई ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिल सका, जो अपने इर्द-गिर्द के अन्य युवाओं की अपेक्षा अपनी क्षमता के विकास में और आगे बढ़ने के बजाय 'बर्बाद' हुआ हो. 

मैंने तो केवल हर किशोर-किशोरी और तरुण-तरुणी को बेहतर इन्सान बनने और बेहतर तरीके से हर उस चीज़ को सीखने के लिये ही उत्साहित किया, जो भी वह सीखना चाहता रहा. मैंने उसे बताया कि यह विशेषज्ञता का दौर है. इस दौर में इस दुनिया में अपने लिये सम्मानजनक स्थान बनाने के लिये ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-शिल्प की जो भी विधा सीखो, उसके चरम उत्कर्ष तक अपने को ले जाओ. मैंने उसे झूठ से नफ़रत करने, सच को सम्मान देने और मानवता की सेवा में जो भी उससे बन पड़े, उतना भर ही करने के लिये ही प्रेरित किया और अभी भी करता रहता हूँ.

आज धरती पर पसरे धनतन्त्र के चलते हम में से प्रत्येक का अमानुषीकरण करने वाले इस जटिल और संश्लिष्ट दौर में हम अगर स्वयं अपने और मानवता के प्रति मात्र ईमानदार 'इन्सान' भी बने रह सके, तो भी यह कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं होगी. 

क्योंकि सच यही है कि इस जन-विरोधी तन्त्र के पास अधिकतर युवाओं को तरह-तरह से कदम-कदम पर ललचाने और भरमाने के बावज़ूद देने के लिये मर्मान्तक अलगाव, अपमान, अवसाद और त्रासद यन्त्रणा के अलावा और कोई उपहार है ही नहीं और अब यह 'उपहार' उनको बर्दाश्त नहीं हो पा रहा.

मैं ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ कि कोई भी किसी को भी 'ब्रेन-वाश' करके न तो ज़बरदस्ती 'भगत सिंह' बना सकता है और अगर कोई जब अपनी ज़िन्दगी का सार-संकलन करके बनना चाहेगा, तो उसे किसी भी तरह से जकड़ कर कोई भी रोक भी नहीं सकता. क्योंकि मुझे भी मेरे रास्ते को चुनने और उस पर चलने से कोई भी रोक नहीं सका था.

और फिर शायद इसी बुनियादी ईमानदारी के बने रहने के सहारे आने वाले दिनों में अगणित समर्थ, प्रतिबद्ध और युगद्रष्टा 'भगत सिंह' अपने देश में ही नहीं समूची दुनिया में जल्दी ही जन-दिशा में जन-सम्पर्क, जन-संगठन, जन-आन्दोलन और जन-क्रान्ति करने के लिये सक्रिय दिखाई देने लगेंगे. क्योंकि यह संक्रमण का दौर है और ऐसे दौर में युगान्तरकारी प्रयास बार-बार जल्दी-जल्दी ज्वार की तरह उमड़ते ही हैं. अभी तो समूची धरती पर ही हम सभी 'ऑकुपायी आन्दोलन' के दूसरे ज्वार की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

आप का क्या मत है ? ढेर सारी उम्मीद के साथ - आपका ही गिरिजेश


Vikram Tosamar sir jab b aisi koi baat samne aati h,to sochne ko majboor kr deti h k mahan sukrat k smay se lekar aaj tk logo ki soch m kuch anter aaya?aaya to kitna.?aur nahi aaya to kyo nahi.?

Ajay Pandey - "respected sir , is cheez ko main bhi samjhna chah raha hu lakin mujhe aap ke tarike se koi aapatti nahi hai lakin mera ek sawal hai?? ki aap ye sb jis ke liye kr rahe hai wo aap ko dhokkha nahi dega."

Girijesh Tiwari - मेरे कहने का आशय यह है -
1. 'भगत सिंह' बनना यानि कि क्रान्ति के काम में अपनी पूरी ज़िन्दगी को लगा देने का संकल्प लेना.
2. अगर कोई इन्सान बन सका और बना रह सका, तो आने वाले दिनों में होने वाले क्रान्तिकारी संघर्ष में स्वयं ही अपनी जगह अपनी चेतना के सहारे निर्धारित कर सकेगा. इसके लिये किसी को भी 'ब्रेन-वाश' नहीं करना होता.
3. धोखा वही देता रहा है, जो अपने ईमान से फिसल जाता है और अमानुषीकरण का शिकार होकर लालच में फँस जाता है. उसी के लिये शेक्सपीयर ने कहा था - "ब्रूटस, यू टू..!" 
4. मानवता के समूचे इतिहास में युगपरिवर्तन के इस काम में लगे सभी लोगों को ऐसे तत्वों से बार-बार धोखा तो खाना ही पड़ा है - क्या मैं और क्या मुझसे पहले वाले अनेक मुझसे कई गुना अधिक समझदार 'महापुरुष'. कोई भी इसका अपवाद नहीं रह सका.

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