Friday 31 January 2014

•••• सामन्तवाद (feudalism) क्या है ? ••••


समाज-व्यवस्था के बारे में बहस :― 
भारतीय समाज-व्यवस्था के स्वरूप के विषय में हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन में विगत तीन दशकों से अधिक समय से एक लम्बी बहस जारी है. आन्दोलन के अधिकतर संगठन, विचारक और कार्यकर्ता इसे अर्ध-सामन्ती अर्ध-औपनिवेशिक व्यवस्था (semifeudal-semicolonial system) बताते रहे हैं. उनके अनुसार भारतीय क्रान्ति का स्वरूप नवजनवादी क्रान्ति (new democratic revolution) का है. इस मूल्यांकन का आशय है कि वर्गीय हितों के आधार पर क्रान्ति में साम्राज्यवादी विदेशी पूँजी और उसके भारतीय दलालों (imperialism and comprador indial capitalist class) के विरुद्ध राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग (national capitalist class) क्रान्ति का सहयोगी और संयुक्त मोर्चे का घटक है, क्योंकि उसका विकास वर्तमान व्यवस्था में बाधित है. और कृषि-क्षेत्र में ग्रामीण सर्वहारा (rural working class) के नेतृत्व में सामन्त वर्ग (feudal class) के विरुद्ध धनी किसानों (rich peasantry) सहित चार वर्गों का संयुक्त मोर्चा बनाया जाना है. 

1977 में इस बहस में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. तब जो कई बुनियादी प्रश्न उठे, उन्होंने भारतीय समाज की रचना तथा भारतीय क्रान्ति के मित्रों और शत्रुओं के बीच के संयुक्त मोर्चे के घटकों के वर्गीय हितों के आधार पर परम्परागत सोच पर सवाल खड़े कर दिये. उन सवालों का जवाब वर्षों के अध्ययन के बाद 1983 में सूत्रबद्ध होकर विस्तृत विश्लेषण के साथ सामने आया. और फिर भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में भारतीय समाज को पूँजीवादी समाज (capitalist society) और भारतीय क्रान्ति की मंज़िल को समाजवादी क्रान्ति (socialist revolution) घोषित करने वाले घटक का उदय हुआ.

अट्ठारहवीं शताब्दी में दुनिया भर में सामन्तवाद से लड़ कर स्थापित होने वाले पूँजीवाद का युग (era of capitalism) आरम्भ हुआ था. उसके सत्तासीन होने के साथ ही बाज़ार और भी फैलता गया था. और इस फैलते हुए बाज़ार की मंडी में पैदा हुआ ‘पूँजी का राष्ट्रवाद’ (capitalist nationalism) उभरा था. भारत सहित दुनिया के कई उपनिवेशों में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बदली हुई परिस्थिति में उस राष्ट्रवाद ने ही उपनिवेशवाद की गुलामी (colonial slavery) से मुक्ति के संग्राम (freedom struggle) लड़ कर जीते थे. 

वित्तीय नव-उपनिवेशवाद : ― 
1990 में वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के नारों के साथ डंकल का युग आरम्भ होने के बाद से समूची दुनिया के साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था में भी एक नयी मंज़िल का उद्भव हुआ. उसके बाद से अब तक धीरे-धीरे करके आकार लेने वाले ग्लोबल विलेज में वित्तीय पूँजी (finance capital) का प्रवाह और भी अबाध गति से बढ़ चला. उस राष्ट्रवाद के बचे-खुचे स्वाभिमान ने वैश्वीकरण के आज के दौर में वित्तीय पूँजी के वैश्विक प्रवाह में जहाँ कहीं भी बाधा खड़ा करने का प्रयास किया, साम्राज्यवादी लुटेरों ने उस पर घोषित स्थानीय युद्ध थोप दिया और उसकी राष्ट्रवादी सरकार का सत्ता-पलट करके उसकी जगह अपनी कठपुतली सरकार बैठा कर उसका निर्मम दमन किया है. उसके राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिये साम्राज्यवाद द्वारा ये सभी युद्ध ‘जनतन्त्र की स्थापना’ (for democracy) के नारे के साथ एक के बाद एक लगातार लड़े जा रहे हैं. इस तरह आज की दुनिया ‘वित्तीय नव-उपनिवेशवादी युग’ (neo-colonial era of finance capital) की दुनिया है.

ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता (british colonial state) के विरुद्ध लड़े जाने वाले स्वतन्त्रता-आन्दोलन (freedom movement) के दौरान और उसके बाद के द्विध्रुवीय विश्व (bi-polar world) के काल-खण्ड में दशकों से चली आ रही साम्राज्यवादी पूँजी से सौदेबाज़ी करने की अपनी आज़ादी (freedom to bargain) को बरकार रखने के बजाय इस ग्लोबल विलेज में भारतीय पूँजीपति वर्ग ने अपनी बढ़ती जा रही सम्पत्ति के आधार पर उसके साथ समझौता करना और उसके सामने घुटनाटेकू रवैया (surrenderist and compromising attitude) अख्तियार करना बेहतर समझा और अब देशी-विदेशी पूँजी के बीच का गठबन्धन इस देश को सफलतापूर्वक लूटने में लगा है. 

यक्ष-प्रश्न : ― 
ऐसे में प्रश्न हैं कि वह कौन-सा राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग है, जो दलाल पूँजी के विरुद्ध अपने किन हितों के लिये क्रान्ति के साथ संयुक्त मोर्चे का घटक बनेगा? और वह कौन-सा धनी किसान वर्ग है, जो अपने किन हितों के लिये सामन्त वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा के नेतृत्व में क्रान्ति का युद्ध लड़ेगा? 

इस देश में नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल की घोषणा करने वाले अधिकतर क्रान्तिकारी संगठनों के पास इन प्रश्नों के उत्तर हैं ही नहीं. वे स्पष्ट शब्दों में यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि अर्ध-उपनिवेशवाद में कितना ‘अर्ध’ है और अर्ध-सामन्तवाद में कितना ‘अर्ध’ ! वस्तुतः विश्व आर्ष क्रान्तिकारी साहित्य (world classical revolutionary literature) में नवजनवादी क्रान्ति (new democratic revolution) का ‘पारिभाषिक शब्द’ (term) केवल चीनी क्रान्ति की मंज़िल के लिये घोषित किया गया था. अन्धानुकरण की विडम्बना रही कि भारतीय क्रान्ति के पुरोधाओं ने अपने देश-काल-परिस्थिति पर बिना अच्छी तरह सोचे-विचारे उसे यथावत अपने देश पर आरोपित कर दिया. इसका त्रासद परिणाम यह हुआ कि बहस के दौरान शब्दों में तो वे इन बातों को लगातार दोहराते रहते हैं, परन्तु उनके पास इनको तर्कसंगत साबित करने के लिये वस्तुगत तथ्य (objective facts) होते ही नहीं. वे जो भी तथ्य प्रस्तुत करते हैं, वह ‘अर्ध’ नहीं अपितु पूर्ण पूँजीवादी समाज व्यवस्था के तथ्य होते हैं. वे सामन्तवादी अर्थव्यवस्था के भी तथ्य नहीं होते. 

विभ्रम की त्रासदी : ― 
ऐसे में यह वैचारिक मतभेद विगत कई दशकों से भारतीय क्रान्ति की मंज़िल के मूल्यांकन को लेकर क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच विभ्रम बनाये हुए है और यह भी भारतीय क्रान्ति की अलग-अलग धाराओं और संगठनों के बीच एकता के पथ के सबसे विकट अवरोधों में से एक बना हुआ है. यह जड़सूत्रता समय बीतने के साथ बढ़ती हुई अब तो अलग-अलग संगठनों के नेतृत्व के दम्भ को तुष्ट करने के स्तर तक जा पहुँची है और हालत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अगणित युवा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता अपने-अपने संगठनों के नेतृत्वकारी साथियों से क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के लिये किसी सकारात्मक पहल की उम्मीद को लेकर निराश हो चुके हैं. अब ये सभी जनपक्षधर शक्तियों (pro-people forces) के साथ संयुक्त मोर्चे के रूप में विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष के दौरान स्थानीय स्तर पर अपनी प्रतिवाद की गतिविधियाँ जारी रख रहे हैं और एक राष्ट्रव्यापी जनपक्षधर, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी एकजुटता के मंच के निर्माण की और बढ़ना चाहते हैं.

युगजन्य दायित्व : ―
विगत दशकों के लम्बे काल-खण्ड के दौरान वर्तमान पीढ़ी के क्रान्तिकारी नेतृत्व की सृजनात्मकता के षण्ढ और वैचारिक क्षमता के दीवालिया साबित हो जाने के बाद भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन को अपने अगले उभार के लिये अब केवल इन युवा क्रान्तिकारियों की पहलकदमी से ही उम्मीद है. इनकी नेतृत्व की क्षमता बढ़ाने और उसे निर्णायक प्रहारकारिणी शक्ति में रूपान्तरित कर देने के लिये इनके बोध, दृष्टि और अभिव्यक्ति को और भी उन्नत बनाना आवश्यक है. इनकी जुझारू चेतना को और विकसित करना और इनकी विविध जिज्ञासाओं को संतोषजनक उत्तर देना ही आज का युगजन्य गुरुतर ऐतिहासिक दायित्व है. इसके लिये हम सब को जगह-जगह अध्ययन-चक्रों (study circles) का जाल बिछाना होगा और इनको शास्त्रीय क्रान्तिकारी साहित्य (classical revolutionary literature) के ज्ञान से लैस करना होगा. तभी इनकी परस्पर एकजुटता (solidarity) को मजबूत विचारधारात्मक आधार (ideological base) उपलब्ध हो सकेगा. इसीलिये एक बार फिर यह ज़रूरत महसूस हो रही है कि यह समझने का प्रयास किया जाये कि सामन्तवाद क्या है.

अवरचना और अधिरचना : ― 
किसी भी समाज-व्यवस्था के गठन के दो स्तर होते हैं ― मूलाधार और अधिरचना (infrastructure and superstructure). मूलाधार या अवरचना (infrastructure) उस व्यवस्था के उत्पादन के साधनों के विकास के स्तर और उत्पादक शक्तियों के सम्बन्ध के स्तर (level of development of means of production forces and relation of productive forces) पर निर्भर करती है. अधिरचना (superstructure) उत्पादन के अतिरिक्त व्यवस्था की अन्य गतिविधियों को समेकित रूप से कहते हैं. इसमें दर्शन, विचारधारा, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, न्याय, संचार, यातायात, मुद्रा, विनिमय, व्यापार, मनोरंजन, कला, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, सेवा, प्रबन्धन आदि मानव-जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये सभी आवश्यक पक्ष समाहित होते हैं. 

किसी इमारत की नींव की तरह जैसी अवरचना होती है, उसी के अनुरूप इमारत की मंज़िलों की तरह अधिरचना भी होती है. जहाँ अवरचना के साथ-साथ ही उसके पीछे-पीछे और उसके अनुरूप ही अधिरचना का विकास होता है, वहीं अवरचना को विकसित करने के लिये अधिरचना को विकसित करना होता है. परिमाणात्मक रूप में सतत विकसित हो रही अधिरचना ही अवरचना के गुणात्मक विकास के लिये पृष्ठभूमि बनाती जाती है. स्पष्ट है कि दोनों के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है. उदहारण के लिये अतीत और वर्तमान का परिवर्तनकामी साहित्य आगामी क्रान्ति का पथ आलोकित करने वाली मशाल होती है और क्रान्तिकारी गतिविधियों के उभार के दौरान प्रेरक साहित्य का सृजन होता है. 

सामन्तवाद की अभिलाक्षणिक विशेषताएँ : ―
1. इस व्यवस्था में उत्पादन का मुख्य स्रोत कृषि तथा पशुपालन था. शिल्प का स्थान गौण था.
2. उत्पादन के साधनों का स्वरूप परम्परागत था. कई-कई पीढ़ियों तक उनका विकास बाधित रहता था. शताब्दियों में कभी-कभार कोई आविष्कार हो जाता और उत्पादन के साधन थोड़ा-सा विकसित हो जाते.
3. कृषि मुख्यतः प्रकृति आधारित थी. सिंचाई, जुताई, बुवाई, निराई, कटाई, दँवरी आदि प्रत्येक कृषि-कर्म में मनुष्य और पशुओं की पेशियों की भूमिका मुख्य थी. औजार सरल तथा गौण भूमिका में होते हैं.
4. समाज-व्यवस्था का गठन करने वाले प्रमुख वर्ग ये थे : क. सामन्त, ख. पुरोहित, ग. धनी किसान, घ. मध्यम किसान, ड. ग़रीब किसान, च. भू-दास, छ. व्यापारी, ज. शिल्पी, और झ. सैनिक. 
इन वर्गों के अतिरिक्त समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समुदाय ये थे : क. अन्त्यज, ख. चाण्डाल, ग. लठैत, घ. गोपालक, ड. मछेरे, च. गणिका, छ. साधु, ज. सेवक, झ. वैद्य. 
5. शेष विश्व के सामन्ती समाज से पृथक भारतीय सामन्ती समाज की संरचना की एक विशिष्टता रही है. यहाँ वर्गों का पहले वर्णों के नाम से और फिर कालान्तर में उनके रूढ़ हो जाने पर जातियों के रूप में घुलमिल जाने से ख़ास तरह की सामन्ती व्यवस्था के ताने-बाने का विकास होता चला गया. विभिन्न जातियाँ एवं उपजातियाँ अस्तित्व में थीं. उनके पेशे जन्मना निर्धारित होते थे.
6. सामन्त प्रत्यक्ष उत्पादन में भाग नहीं लेता था. वह अन्य चारों वर्गों से कर वसूलता था. यह कर ही उसकी अपनी और इसी कर का एक अंश उसके ऊपर वाले सामन्त की आय का मुख्य स्रोत बनाता था.
7. दक्खिन टोले में बसाया गया भू-दास सामन्त द्वारा दी गयी ज़मीन पर अपनी झोंपड़ी बना कर अपने परिवार के साथ रहता था और उसके द्वारा दिये गये पशुओं और औजारों से पहले उसकी विशाल भूमि पर और फिर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये उसके द्वारा दिए गये खेत के अपने छोटे टुकड़े पर खेती करता था.
8. उसे सूर्योदय से सूर्यास्त तक खटना पड़ता. काम के घन्टे निर्धारित नहीं होते थे.
9. विभिन्न अवसरों पर होने वाले समारोह में उसे बेगारी करनी पड़ती थी. 
10. भूदास को बेगारी के लिये कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता था.
11. भूदास को कोई भी गुस्ताखी करने पर सामन्त के लठैतों द्वारा रस्से से पेड़ या खम्भे में बाँध कर लाठी-लाठी पीटा जाता था. उस के साथ लगातार मार-पीट और ज़ोर-ज़बरदस्ती जारी रहती थी. उसे कभी भी सामन्त द्वारा उजाड़ा जा सकता था.
12. विवाह के बाद उसकी नव-विवाहिता पत्नी का डोला पहले सामन्त की हवेली में उतरवा लिया जाता है. उसके बाद अगले दिन ही वह अपनी ससुराल की झोंपड़ी में जा पाती थी.
13. बाद में भी सामन्त जब चाहता, भूदास की झोंपड़ी में ही उसकी पत्नी के साथ रात बिताता रहता था.
14. अपनी ग़रीबी के चलते भूदास को मरे हुए पशु का मांस (डाँगर) और दँवरी के दौरान बैलों द्वारा खा लिये गये अनाज को उनके गोबर को सुखा और पछोर कर उसमें से अनाज (गोबरहा) निकाल कर खाना पड़ता था.
15. उसकी झोंपड़ी की छान पर से लौकी-कोंहड़ा तक सामन्त के लठैत ज़बरिया उतरवा लेते थे.
16. न्याय के लिये उसकी किसी भी शिकायत पर सुनवाई या तो सामन्त की हवेली की ड्योढ़ी पर होती थी या फिर बिरादरी की पंचायत में.
17. दूध, दही, गोबर और खेती के लिये पशुपालन किया जाता था. इसमें मुख्य तौर पर सम्पत्तिशाली वर्गों के घरों पर गाय और बैल थे. भैंस, बकरी, मुर्गी, सुअर भी अलग-अलग श्रमिक जातियों के किसानों और भूदासों द्वारा पाले जाते थे. मछली के लिये मछेरे ज़िम्मेदार होते थे. बरसात में या शौकिया नदी से कंटिया लगा कर दूसरे लोग भी मछली पकड़ते थे.
18. लकड़ी, ईंधन, फल-फूल और पत्तियों के लिये धनिकों के बगीचे और दूसरों के लिये जंगल दोनों ही उपलब्ध थे.
19. पानी नदी, पोखरे, तालाब, कुवें से लिया जाता था.
20. चिकित्सा आयुर्वेद के विद्वान वैद्यों द्वारा या जंगली जड़ी-बूटियों के परम्परागत ज्ञान के सहारे की जाती थी.
21. संस्कृत, पालि, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी में श्रुति और लिपि की शिक्षा बस्ती से दूर जंगलों में बसे गुरुकुलों, मठों, मन्दिरों या मदरसों में केवल कुलीन जन के छात्रों को प्रदान की जाती थी. छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था. शिक्षा समाप्त करके वापस लौटने वाले छात्र गुरु-दक्षिणा दिया करते थे. 
22. पुरोहितों, ज्योतिषियों, वैद्यों, विद्वानों, शिक्षकों, साहित्यकारों, कवियों, गायकों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, नर्तकों-नृत्यांगनाओं, विदूषकों, चारणों आदि कलाकारों को राज्य एवं सम्पन्न वर्गों द्वारा नियमित भरण-पोषण, उपहार, सम्मान और पुरस्कार प्रदान किया जाता था. 
23. शेष सारा समाज औपचारिक शिक्षा से वंचित और निरक्षर था. 
24. विभिन्न शिल्पियों द्वारा अपने बच्चों को केवल अपने कुल के शिल्प का प्रशिक्षण ही दिया जाता था.
25. अधिकतर लोगों के निरक्षर होने और तत्कालीन शिक्षा-पद्धति की सीमाओं के चलते समाज में तरह-तरह के अन्धविश्वासों का बोलबाला था. ज्योतिष-कर्मकाण्ड, मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोना, ओझा-सोखा, भूत-प्रेत, झाड़-फूँक, स्वर्ग-नरक, आत्मा और पुनर्जन्म पर व्यापक जन की आस्था थी. वैरागियों-सन्यासियों-पण्डों-पुजारियों-साधुओं-सन्तों-महन्तों-पीरों-फकीरों का समाज में सम्मान था. निष्ठा के साथ आयोजित होने वाले यज्ञ-अनुष्ठान एवं पूजा-पाठ का व्यापक चलन था. 
26. मुख्य रूप से आध्यात्मिक दर्शन का प्रभाव शासक और शासित दोनों ही वर्गों पर था. परन्तु बौद्ध, जैन और चार्वाक के नास्तिक दर्शन भी बीच-बीच में उभरते रहे.
27. अल्पसंख्यक समुदायों के धर्मों और सम्प्रदायों के साथ ही समाज में मुख्य रूप से हिन्दू धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे. जिनके बीच मत-मतान्तर और सह-अस्तित्व भी था और झगड़े और ख़ूनी संघर्ष भी थे.
28. छोटे-बड़े सभी सामन्त अपने राज्य-क्षेत्र, राजस्व और शक्ति के विस्तार के लिये निरन्तर परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध-अभियान छेड़ा करते थे. 
29. युद्ध चतुरंगिणी सेना के वेतनभोगी पेशेवर सैनिकों द्वारा परम्परागत अस्त्र-शस्त्रों से लड़े जाते थे. युद्ध में विष और अग्नि का भी प्रयोग किया जाता था. 
30. सत्ता-संघर्ष में गणिकाओं, विषकन्याओं तथा गुप्तचरों के प्रशिक्षण और प्रयोग की गोपनीय, सशक्त, महत्वपूर्ण और विश्वसनीय व्यवस्था थी. 
31. स्वयं शासक या उसका सेनापति भी युद्ध के मैदान में अपने सैनिकों के साथ लड़ता था. 
32. तोप और बन्दूक के गोले-गोलियों के रूप में बारूद के आरम्भिक आविष्कार का सामन्तवाद के आखिरी चरण के युद्धों में आंशिक तौर पर प्रयोग होने लगा था.
33. सामन्तवाद के युग के शासक का उत्तराधिकारी युवराज प्रमुखतः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही होता था. सामन्त के निःसन्तान रहने पर नियोग से उत्पन्न पुत्र को सत्ता दी जाती थी. ऐसा भी न हो पाने पर कभी-कभी राजकुल से इतर नये शासक का चयन भी किया जाता था. उसे गोद लेने की प्रथा थी. कुछ स्थानों पर गण-व्यवस्था भी थी. जिनमें मताधिकार केवल सम्पन्न वर्गों को ही था. कभी-कभार सेनापति, मन्त्री या पुरोहित भी षड्यन्त्र के ज़रिये अपने शासक का वध करके उसकी सत्ता हथिया लेते थे.
34. पकड़े जाने पर अपराधियों, षड्यन्त्रकारियों और विद्रोहियों को सार्वजनिक तौर पर समारोह आयोजित करके क्रूरतापूर्वक मृत्युदण्ड, कठोर कारावास, अंग-भंग या कशाघात का दण्ड दिया जाता था. 
35. युद्ध में पराजित होने पर या बिना युद्ध के ही अधीनता स्वीकारने वाले सामन्त विजेता को कर, सेना की टुकड़ियाँ, दास-दासियाँ, विविध उपहार देते थे. साथ ही अपनी बेटियों का उनके साथ विवाह कर दिया करते थे. बदले में विजेता उनको उनके राज्य के अतिरिक्त क्षेत्र पर शासन करने और कर वसूलने का अधिकार देकर पुरस्कृत करता था.
36. छोटे-बड़े सभी सामन्तों के रनिवास और हरम में कुट्टनियों द्वारा बरगला कर लायी गयी, सैनिकों और चरों द्वारा ज़बरन उठा ली गयी, व्यापारियों से ख़रीदी गयी, पराजितों द्वारा उपहार में मिली या विवाह कर के लायी गयी और युद्ध में बन्दी बनायी गयी नारियाँ बड़ी संख्या में रानियों, रखेलियों, परिचारिकाओं, रक्षिकाओं और दासियों के रूप में भरी रहती थीं. 
बीच-बीच में सामन्त द्वारा धार्मिक तीर्थों, उत्सवों, यज्ञों में पुरोहित ब्राह्मणों को उनका भारी संख्या में दान करके पुण्य-लाभ या पुरस्कार के तौर पर दे कर यश-लाभ भी लिया जाता था. उनके ऊपर हरदम औरतों, हिजड़ों और सैनिकों की तीन हथियारबन्द कतारों का कड़ा पहरा रहता था. कठोर दण्ड का प्राविधान होने पर भी उन तक सामन्त के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का प्रवेश वर्जित होने के चलते किसी भी तरह से अवसर मिलते ही व्यभिचार होते ही रहते थे. 
सामन्तवाद के चरम उत्कर्ष और पतन के काल में बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा और सती-प्रथा का चलन था. कुलीन नारी से पतिव्रता, असूर्यपश्या तथा अवगुंठनवती बने रहने की अपेक्षा की जाती थी.
37. गण-व्यवस्था में सबसे सुन्दर लड़की को वैयक्तिक गृहस्थ जीवन जीने का अधिकार नहीं था. उसे नगरवधू बन कर पूरे जनपद के सभी सम्पत्तिशाली पुरुषों का मनोरंजन करना पड़ता था.
38. लगभग समूचे सामन्तवादी युग में दास-व्यवस्था भी भूदासता के साथ-साथ प्रचलन में बनी रही थी.
39. विकेन्द्रित सत्ता के केन्द्र दूर-दूर स्थित नगर थे. नगरों के सिंहद्वार सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही खोले जाते थे.
40. अधिकतर उत्पादन उपभोग के लिये होता था.
41. अधिकतर वस्तु-विनिमय और उपभोग स्थानीय था.
42. सुदूर विदेशों तक व्यापारियों के सार्थवाह रथों, घोड़ों और बैलगाड़ियों में सवार होकर सशस्त्र सैनिकों की टोलियों के पहरे में स्थल और जल मार्गों से लम्बी यात्राएँ और व्यापार किया करते थे.
43. इन लम्बी और दुष्कर यात्राओं के दौरान रास्ते में पड़ने वाले जंगलों में सार्थवाहों पर बार-बार दस्युओं के हमले होते थे. जिनमें यात्रियों के साथ युद्ध और लूट-पाट होती रहती थी.
44. शासित जन से अतिशय क्रूरतापूर्वक निचोड़े गये राजस्व से भरे राजकोष का उपयोग सामन्त के वैभव-विलास, दान-पुण्य, युद्ध-सामग्रियों के संग्रह, सैनिकों और गैर सैनिकों के वेतन, भव्य महलों-अट्टालिकाओं और दिव्य मन्दिरों-मठों के निर्माण, छायादार पेड़ों से शोभित तथा स्थान-स्थान पर रात्रि-विश्राम, भोजन, मनोरंजन और वाहन बदलने की सुविधा देने वाली सरायों वाले राजपथों, वीथियों, सरोवरों और रमणीक उपवनों के निर्माण के लिये मुक्त-हस्त से होता था.
45. जन सामान्य का जीवन दारुण था. उसकी वेदना असह्य थी. भीषण गरीबी में किसी तरह अतिशय अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति और प्रचलित अन्धविश्वासी परम्पराओं के निर्वाह के लिये उसे किसी तरह जुटाये गये अपने इक्का-दुक्का आभूषण, अन्य छोटे-बड़े सामान और अक्सर अपने खेत गिरवी रख कर सूदखोरों से क़र्ज़ लेते रहना पड़ता था. सूद की दर अक्सर 25% मासिक तक थी और क़र्ज़ चक्रवृद्धि दर से बढ़ता जाता था. एक बार निष्ठुर सूदखोर के जाल में फँस जाने पर कर्ज़दार के लिये कई बार पीढ़ियों तक मूल धन लौटाना तो दूर, उसके सूद पर भी लगातार बढ़ता जाने वाला सूद भरना भी असम्भव था. अपने बही-खातों के कोरे कागजों पर निरक्षर किसानों के अंगूठे लगवा कर सूदखोर उस पर मनमानी रकम लिखते रहते थे. इन सूदखोरों से पूरा समाज घृणा करता था. फिर भी बाध्य हो कर उनके दरवाज़े मदद की उम्मीद लेकर जाता ही था.
46. भूमि पूरे गाँव की सामूहिक सम्पत्ति मानी जाती थी और उसका क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता था.
47. परिवार संयुक्त था. परिवार का बुज़ुर्ग सम्मानित था. उसका निर्णय अन्तिम और सबको स्वीकार्य था. संयुक्त परिवार की सत्ता से परे किसी व्यक्ति की वैयक्तिक और स्वतन्त्र पहिचान नहीं थी.
48. उस व्यवस्था में परिवार में किसी सदस्य का व्यक्तिवाद, बेरोज़गारी, अवसाद असम्भव था.
49. मुद्रा स्वर्ण, रजत, ताम्र धातुओं के सिक्कों या रत्नों के रूप में थी. फिर भी मुद्रा का चलन कम था. विनिमय में माल-मुद्रा-माल का सूत्र ही चलता था. अक्सर वस्तु-विनिमय भी भरपूर प्रचलन में था.
50. वस्तु-विनिमय, मुद्रा द्वारा क्रय-विक्रय और मनोरंजन के लिये नगरों में स्थापित व्यापारियों की दूकानों से सज्जित व्यवस्थित बाज़ार थे.
51. ग्रामीण क्षेत्रों में साप्ताहिक हाट में दूकानें लगायी जाती थीं, जो प्रतिदिन नये गाँव में लगाने के लिये वहाँ तक ले जायी जाती थीं.
52. छोटे-बड़े मेलों, तरह-तरह के त्योहारों एवं राजकीय, सामाजिक और पारिवारिक उत्सवों तथा आयोजनों में कथावाचन, अभिनय, नृत्य, गीत, संगीत, कठपुतलियों तथा विदूषकों के प्रदर्शन, कुश्ती-दंगल, शस्त्राभ्यास, शास्त्रार्थ तथा अन्य प्रतियोगिताओं आदि द्वारा मनोरंजन और प्रबोधन की परम्परा थी.
53. राज्य द्वारा जगह-जगह चारों तरफ़ से चौड़े और जल-पूरित नालों से घिरे किलों में शपथबद्ध एवं विश्वसनीय क्षत्रपों के अधीन सशस्त्र सैनिकों को रख कर विभिन्न क्षेत्रों की सुरक्षा की व्यवस्था की जाती थी.
54. दूरस्थ तीर्थ-यात्राओं के अतिरिक्त जन-सामान्य अपने रक्त-सम्बन्धियों से मिलने-जुलने के लिये ही यात्राएँ करते थे.
55. बिरादरी की सत्ता का राज्य की सत्ता के साथ ही स्वतन्त्र प्रभुत्व था. उनके भी नियम कठोर थे. जाति-बहिष्कार का दण्ड प्रचलित था. बाद के दिनों में इक्का-दुक्का विदेश-यात्राओं पर जाने वालों को भी बिरादरी के द्वारा दण्डित किया जाता था और उनसे शुद्धीकरण के लिये प्रायश्चित करवाया जाता था.
56. यात्रियों, विदेशियों तथा अतिथियों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करने की स्वस्थ परम्परा थी और उसका मर्यादापूर्वक निर्वाह किया जाता था.
57. सत्य एवं न्याय के प्रति धर्मभीरु जन-सामान्य के मन में अतिशय प्रतिष्ठा थी. झूठ बोलना, चोरी करना, कपट करना, विश्वास तोड़ना, धोखा देना, शपथ से मुकरना, वचन-भंग करना निन्दनीय था.
58.
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•••• यह लेख अभी अधूरा है....
प्रिय मित्र, कई महीनों तक चाहने और टालने के बाद कल से यह लेख लिखने का प्रयास कर रहा हूँ. इसके आगे दिमाग काम नहीं कर रहा. परन्तु यह लेख अभी अधूरा है. इसके लिये मुझे ख़ुद भी नये सिरे से और पढ़ना और सीखना है. प्रयास कर रहा हूँ कि मैं यह सार्थक अध्ययन कर सकूं. 

छात्रों-छात्राओं की सेवा की अपनी दैनन्दिन व्यस्तता और विगत वर्षों से जारी तीख़े तनाव के चलते मेरा अध्ययन इधर कई वर्षों से बाधित रहा है. आशा है कि शास्त्रीय विषयों पर केवल दिमाग के भरोसे कलम चलाने की मेरी ज़ुर्रत को आप सभी क्षमा करेंगे. मेरी ऐसी आतुरता अनुचित है. और मैं इसके लिये सार्वजानिक तौर पर आप सभी विज्ञ मित्रों से क्षमा-याचना कर रहा हूँ. 

यह युवाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिये सामूहिक प्रयास की एक पहल है.इसमें अभी बहुत कुछ जोड़े जाने की ज़रूरत है. इसे आप के पास इस उम्मीद से भेज रहा हूँ कि इसे जाँच कर इसकी चूक सुधार दें. इसे हर तरह से परिपूर्ण करने पर ही यह उपयोगी हो सकेगा. सभी समर्थ मित्रों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसे और बेहतर बनाने और समृद्ध करने में मेरी सहायता करें. और साथ ही यदि इन बिन्दुओं में और भी महत्वपूर्ण बिन्दु जोड़ दें, तो यह युवा क्रान्तिकारियों के लिये उपयोगी हो सकता है. 

यदि आपके द्वारा इस लेख को और बेहतर बनाने में मुझे आपकी यह सहायता मिल सकी, तो ऐसे में इसे पोस्ट करने के बाद भी इसके लेखक के तौर पर मैं अपने नाम के आगे ससम्मान आपका नाम भी जोड़ दूँगा. 
कष्ट के लिये क्षमा-याचना के साथ ― आपका गिरिजेश

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