Tuesday 7 January 2014

दुआ और आह – गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज़मगढ़ में ‘सूत्रधार’ के संस्थापक प्रतिबद्ध रंगकर्मी दम्पती - अभिषेक पण्डित और ममता पण्डित तथा उनके समर्पित साथियों की विगत दस वर्षों से अनवरत जारी साधना के साक्षी हरिऔध कलाभवन के खण्डहर के उजड़े प्रांगण में ‘आरंगम’ (आज़मगढ़ रंग महोत्सव) का वार्षिक अभिनय-कर्म का चार दिवसीय आयोजन इस वर्ष भी पूर्ववत जारी है. आज इस आयोजन के दूसरे दिन भीष्म साहनी की कथा ‘साग-मीट’ पर ‘नटमण्डप’ पटना की पटु कलाकार मोना झा जी ने एकल अभिनय प्रस्तुत किया. 

प्रस्तुति के उपरान्त मैंने उनको सफल प्रस्तुति पर बधाई दी और कहा कि मैं आपकी साधना के उत्कर्ष के लिये दुआ करता हूँ. तत्क्षण वहीं उपस्थित मित्र अभिषेक नन्दन ने जिज्ञासा व्यक्त की – “क्या कॉमरेड, किससे दुआ करेंगे !” 

मैं जानता हूँ कि 'दुआ' और 'शाप' दोनों ही मान्यताएँ अवैज्ञानिक हैं. परन्तु मेरी समझ है कि यह मुल्क अभी भी ‘दुआ’ का मतलब ‘कामना’ समझता है. मुझे इस ज़ालिम व्यवस्था की क्रूरता और कपट जब-जब दिखाई दे जाता है, तो ये पंक्तियाँ दिमाग़ में नाच उठती हैं -
“निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय;
मुई खाल की साँस सों, लौह भसम होइ जाय.”
इसी सन्दर्भ में उनकी प्रेरणा से अचानक याद आयी मेरी यह कविता आपकी सेवा में प्रस्तुत है.


दुआ और आह – गिरिजेश 

नहीं मैं मानता हूँ, फिर भी सारे लोग कहते हैं,
फ़कीरों की दुआ लगती है, जादू कर गुज़रती है.

ज़माना जानता है यह हकीक़त है मगर फिर भी,
हर इक पर ज़ुल्म करना जालिमों की भी हिमाक़त है.

गुरूर उनके हिकारत से समाँ बर्बाद करते हैं,
कहर ढाते नहीं थकते, तबाही बरपा करते हैं.

वे बच्चों को रुलाते हैं, वे माँओं को सताते हैं,
बुजुर्गों को पकड़ कर पीटते हैं, काट देते हैं.

कोई लाचार ग़र उनकी नज़र के सामने आया,
नहीं वे बख्शते, उसको भी गोली मार देते हैं.

वे फसलों को जलाते हैं, घरों को फूँक देते हैं,
ग़रीबों की ग़रीबी पर भी डाका डाल देते हैं.

वे मासूमों को सड़कों पर पकड़ कर मार देते हैं,
वे ख़ूनी खेल करते हैं, ठहाके भी लगाते हैं.

हर इक ज़ालिम का ख़ूनी दौर छोटा ही रहा अब तक,
सभी का हस्र भी तो एक जैसा ही रहा अब तक.

फ़कीरों से तभी इन्साँ सभी फ़रियाद करते हैं,
लिहाज़ा आह भी उनकी कभी बायें नहीं जाती !
(30.9.2009 2.00 A.M.)

कमेंट्स से :
Prashant Rai दिल को छूलेने वाली रचना !

Girijesh Tiwari सन्दर्भ के लिये देखने का अनुरोध करूंगा - 
Khurshid Anwar - "फरीद मैं नास्तिक हूँ पर दुआ खुदा या इश्वर से नहीं है."
वहीँ पर फैज़ की यह कविता भी है.
दुआ - फैज़

आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें

जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें

जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले

इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए

Prashant Rai 'खुर्शीद अनवर' के सारे मामलों में मैं आप से इत्तेफाक़ रखता हूँ गुरु जी ! और खासकर उनको शहीद घोषित करने के मामले पर !

Girijesh Tiwari - "सार्वजनिक तौर पर तुम्हारा आभार व्यक्त कर रहा हूँ, Prashant Rai. वरना मैं तो तुम सब लोगों के छोड़ देने के बाद से बेतहाशा टूट-बिखर रहा था. ऊपर से यह लड़ाई और इसकी ज़िम्मेदारी का एहसास. रात-दिन लगातार केवल खूब परेशान रहता हूँ और वजह भी बता नहीं सकता. यहाँ भी सभी लोग मेरी बीमारी को लेकर परेशान हैं. मगर साथ दे रहे हैं. ये सभी युवा वह कर रहे हैं, जो अब तक नहीं किया जा सका था. यहाँ की प्रगति का विस्तार में कल रिपोर्ट करूंगा. मेरे लिये केवल मार्क्सिज्म का टूल है, जिससे मैं दुनिया को समझने की कोशिश करता हूँ. और शायद अभी तक असफल नहीं हुआ है मेरे गुरु जी का सिखाया यह एकडग्गा पहलवान का दाँव. आगे भी निश्चित तौर पर सफल होगा ही क्योंकि मेरे गुरु जी का आशीर्वाद मेरे साथ है. उन्होंने जिसको जो भी सिखाया हो, एकडग्गा को तो एक ही दाँव सिखाया. और मैं उसकी कहानी तुमको सुना ही चुका हूँ. कभी और दोस्तों को भी सुना दूंगा.
Prashant Rai Girijesh Tiwari बिकुल गुरु जी !
मैं आज़मगढ़ के बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने, आत्मनिर्भर बनाने और उनको साक्षर बनाने के आप के इस पहल में तन-मन-धन से प्रतिपल साथ हूँ और जल्द ही इस मिशन में गुप्त योगदान देने के लिये समर्पित भी रहूँगा !
मेरे और आप के बीच में केवल एक मामले को लेकर वैचारिक मतभेद है, और मुझे लगता है वो रहेगा !
मतभेद होना भी चाहिए और यही जनवादी पद्दति को दूसरी किसी भी पद्धति से विकसित और स्वस्थ सिद्ध करता है. मुसीबत तो तब हो जाती है जब मतभेद की जगह मनभेद हो जाता है. और कोई सुनवाई नहीं हो पाती. ऐसे में मुझे तो बहुत ही दर्द होता है. कई बार खुर्शीद भाई के रास्ते जाने की सोचता रहता हूँ. कृपया इसे सहानुभूति बटोरने के नाटक के रूप में मत लेना. मेरी पंकज से जो बात हुई है, उसका पंकज के पास रिकॉर्ड होगा. उनसे माँग कर देख सकते हैं या मैं भी दे दे सकता हूँ. 
मैं केवल सत्य और न्याय के साथ हूँ. किसी के भी खिलाफ़ नहीं हूँ. और अब जब अपनी ही परवाह नहीं रही, तो किसी की भी शायद नहीं रही. फ़र्ज़, केवल ज़िन्दा रहने का फ़र्ज़ है, जो तीन तीन बजे रात तक जगा कर खटाता रहता है. फिर भी मन बेचैन ही रहता है रात-दिन, सोते-जागते. 'सच' मैं जानता हूँ, प्यार करना मेरी फितरत है. और इस अकेलेपन के सारे साथियों के एहसान मेरा पाथेय हैं, जो कहानी अभी भी चल रही है. वरना... तुम तो मुझे और मेरी ज़िद से खूब अच्छी तरह परिचित ही हो.
अगला कदम भी जानते ही हो. शेष फिर कभी. एक बार फिर मेरा कसमसाता हुआ दिल सबकुछ याद कर रहा है. अभी इस चर्चा को यहीं रोकने की शारीरिक और मानसिक विवशता है.
Prashant Rai Girijesh Tiwari मैं जानता हूँ गुरुजी, और आप की मुश्किलों का बखूबी एहसास भी है ! मन कितना विचलित हो सकता है उस जघन्य अपराध को करने के लिये, ये भी मैं समझ सकता हूँ !
लेकिन ...... आखिर है तो ये कायरता का ही काम ! और मुझे नहीं लगता कि आप जैसा कामरेड जो लोगों को, ज़िंदगी भर अपने सही फैसलों के सामने सिर झुकाने के लिये मजबूर करता रहा, आज वो ही एक गलत फैसले के बारे में सोच भी सकता है ...!
अपने उसूलों के बारे में सोचिये !
अपने लक्ष्य को याद करिये !
आप को वो रास्ता बनाना है जिसपे हम चल सकें !
इंक़लाब-ज़िंदाबाद कामरेड Girijesh Tiwari

Girijesh Tiwari मेरा नाम इस आत्महत्या करने वाले कामरेड्स की लिस्ट में तीसरा होना चाहिए था. गोरख पाण्डेय और कानू सान्याल के बाद. मगर बीच में खुर्शीद के आ जाने से मैं तो पिछड़ ही गया हूँ अभी तो.. और न आये तो बेहतर है... वरना लोगों के पास एक और कहानी होगी उदय प्रकाश जैसे लेखकों को मालामाल करने के लिये और चटकारे लेने के लिये. इसी लिये धीमी मौत का रास्ता अधिक बेहतर है. है न !

Prashant Rai Girijesh Tiwari आत्महत्या ना करना लेकिन अपनी मौत को दावत देना वो भी जानबूझकर, ये दोनो गलत बाते हैं ! मैं जानता हूँ की इंसान कितना मजबूर हो सकता है लेकिन कामरेड जरा एक बार अपने सपनों के बारे में तो सोचिये, एक बार अपने उसूलों के बारे में तो सोचिये फिर आप को एहसास होगा की आप को करना क्या है ?

Girijesh Tiwari अब मैं बच्चा तो नहीं हूँ. भले ही लोग कहते हैं -."गुरु जी, आप बच्चे हैं." जब तक ज़िन्दगी फ़र्ज़ है, ज़िन्दा हूँ. जब मौत फ़र्ज़ हो जायेगी, धीरे-धीरे घुट-घुट कर कलप-कलप कर मर लूँगा. मुझे न तो जीने में मज़ा है, और न मरने में अफ़सोस. अपने सपनों के लिये जितना कर सका...और जो पा लिया दोनों से पूरी तरह मन संतुष्ट है. केवल वह कविता याद आती रहती है -
"जिस दिन सपनों के मोल-भाव पर उतरूंगा,
जिस दिन संघर्षों पर जाली चढ़ जायेगी;
जिस दिन लाचारी मुझ पर तरस दिखायेगी,
उस दिन जीवन से मौत कहीं बढ़ जायेगी."
मर तो मैं कभी का चुका होता, कोई हाथ बढ़ा और रोक दिया. अब पूरी मस्ती है. आल्हा का वह नायक याद आता रहता है "बड़े लड़ैया आल्हा-ऊदल, दोनों हाथ लडें तरवारि.." ढाल फेंक कर लड़ने में ही मज़ा है. कबीर की तरह आग में नाचने का ही मज़ा है. उस मज़े के आगे सब मज़े ले कर देख चूका, फीके हैं. बिलकुल फीके. पूरी मस्ती से जूझ रहा हूँ और किसी की सर्टिफिकेट की परवाह रत्ती भर भी नहीं रही. अब केवल अनहद का नाद सुनाई देता रहता है. अलविदा...

Shrikesh Pandey ·God bless

अभिषेक नंदन कॉमरेड आपकी बातों से पूर्ण सहमत हूँ। वहां पर जिज्ञासा प्रकट करना 'गौसिप' भर था।

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