Tuesday 7 January 2014

'आँख के अन्धे, नाम नयनसुख' - "वाह भाई हम ! वाह-वाह !!"

प्रिय मित्र, आज जब दिल्ली के दिल वाले 'आप' की सफलता के पीछे पागल हो रहे हैं. देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में एक ऐसा अध्याय लिखा जा रहा है. जिसे आम लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर इस देश का संसदीय वाम भी लिख सकने में अभी तक बुरी तरह से विफल ही रहा है. जनता का दिल जीतने में अपनी इस विफलता के बारे में न केवल संसदीय वाम को अपितु समूचे ही वाम को विनम्रता के साथ आत्मालोचना और आत्ममूल्यांकन भी करना ही होगा. वरना सबसे विकसित विज्ञानं की दृष्टि रखने के बाद भी आगे भी हम पहले जैसे ही 'आँख के अन्धे, नाम नयनसुख' ही बने रहेंगे. हम जिनको लोगों की सेवा करनी थी, लोगों से सेवा करवाते चले गये. हम लोगों के सेवक नहीं, उपदेशक बने रह गये. हम तो लोगों को केवल दूसरों के लिखे jorgans के रटे-रटाये उपदेशों की उन मुश्किल-मुश्किल दवाओं के नुस्खे लिखने वाले नक़ल-नवीस बने रहने में गाफ़िल बने रहे, जिनको हम ख़ुद भी पूरी तरह नहीं समझ सक पा रहे थे. अपने इन बौद्धिक विमर्शों में हम इतने मशगूल रहे कि और तो और आम लोगों की मजबूरियों और उनकी रोज़मर्रा ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों को समझने और महसूस करने तक से इन्कार करते रहे. ईमानदारी की बात यह है कि हमें अपने ख़ुद के चिन्तन और आचरण के स्तर पर शर्म आनी चाहिए कि आज जब आम लोगों की आँखें भर रही हैं आज के टी.वी. को देख कर. ऐसा भी तो हमारे जानकार नेताओं और शानदार इतिहास के बावज़ूद भी हमारे चलते इस देश में कभी भी क्यों नहीं हो सका.
क्षोभ के साथ - आपका ही गिरिजेश

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