Tuesday 7 January 2014

विद्रोही और विवाह : आत्म-निर्णय का सवाल ! - गिरिजेश


प्रिय मित्र, मेरे बारे में मेरे मित्रों और परिचितों के अनेक आक्षेपों में से एक आक्षेप यह भी है कि मैं अपने सभी युवा मित्रों को विवाह न करने या केवल अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह करने के लिये प्रेरित करता रहा हूँ. हाँ, यह तो सच ही है कि परम्परागत विवाह का ताम-झाम कभी भी मेरे गले से नीचे नहीं उतर सका. परम्परागत विवाहोत्सव के आयोजनों में किया जाने वाला सम्पत्ति का भोंड़ा प्रदर्शन मुझे केवल 'स्व' की तुष्टि का विद्रूप और वीभत्स प्रयास ही लगता रहा है. उसकी तुलना में मैं सादगी से की जाने वाली कोर्ट-मैरिज को बेहतर मानता हूँ.

परन्तु मेरे बार-बार स्पष्टीकरण देने पर भी मेरा कोई भी मित्र मेरी बात सुनने और मानने को तैयार नहीं हो पाता. सब के सब एक ही बात एक साथ ही बोलते हैं कि चूँकि मैं स्वयं आजीवन अविवाहित रहा, इसलिये उन सब मित्रों के भी बेटे-बेटी को उन सब मित्रों की मर्ज़ी से विवाह न करने को उकसाता रहता हूँ. 

मैंने जीवन में अपने किसी भी मानस-पुत्र या मानस-पुत्री को अपनी किसी भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा या छोटी-बड़ी व्यक्तिगत कामना-पूर्ति के लिये कभी भी 'इस्तेमाल' नहीं किया. उनमें से प्रत्येक को अपना प्रत्येक निर्णय स्वयं ही करने के लिये हर-हमेशा प्रेरित करता रहा. क्योंकि मेरी समझ है कि चूँकि ज़िन्दगी उनकी अपनी है. इसलिये निर्णय भी उनका अपना ही होना चाहिए. और फिर उनका जो भी निर्णय मेरे सामने आया, मैं अपनी कूबत भर हमेशा ही उनके साथ खड़ा रहा. और अभी भी उनमें से प्रत्येक के साथ और उनके प्रत्येक निर्णय के साथ पूरी निष्ठा से खड़ा हूँ.

मेरी मान्यता है कि विवाह के बारे में निर्णय हर युवा के जीवन का नितान्त वैयक्तिक निर्णय है. वह करना चाहे, करे और न करना चाहे तो न करे और अगर करे भी तो कैसे और किसके साथ करे - इसमें केवल उन दो व्यक्तियों का ही निर्णय अन्तिम और सबको ही मान्य होना चाहिए. किसी भी तीसरे व्यक्ति के द्वारा किन्ही भी दो 'वयस्क' व्यक्तियों के अन्तरंगतम सम्बन्ध के इस निर्णय के विषय में उनके अपने आत्म-निर्णय में हस्तक्षेप को मैं अनुचित मानता रहा हूँ और अभी भी मैं अपने इस मत पर ही अडिग हूँ. 

अपनी ख़ुद की ज़िन्दगी के सारे निर्णय भी मैंने स्वयं ही लिये हैं. यह अलग बात है कि अलग-अलग मंशा, समझ के स्तर के अन्तर, प्रस्थान-बिन्दु और अवस्थिति से परिचालित होने वाले अलग-अलग मित्रों और साथियों के साथ 'जनवाद' लागू करने की अधिकतम कोशिश भी मैंने ईमानदारी से की. और उसके चलते अगर मुझे अपने जीवन और अभियान में अनेक लाभ मिले, तो उससे होने वाली तमाम तरह की छोटी-बड़ी क्षति का शिकार भी मैं और मेरा रचना-संघर्ष ही होता रहा. फिर भी मैं किसी भी व्यक्ति के ऊपर किसी दूसरे व्यक्ति के कैसे भी निर्णयों को ज़बरन थोपने का धुर विरोधी हूँ. 

'अलग होने तक का आत्म-निर्णय का अधिकार' देने की कॉमरेड स्टालिन की थीसिस को मैं पूरा सम्मान देता हूँ और उसी को लागू करने की कोशिश भी करता रहा हूँ. हाँ, यह जानता भी हूँ ही कि कम समझदार साथी या गलत मंशा वाले लोग गलत निर्णय भी कर सकते हैं और करते भी रहे हैं. और विश्व-क्रान्ति का इतिहास इस तथ्य का साक्षी भी है. फ्रांसीसी क्रान्ति में दोनों दल एक दूसरे को गिलोटिन के घाट उतार देते हैं. रूसी क्रान्ति में ख्रुश्चोव केवल एक बेरिया की हत्या करके सफल हो लेता है. चीनी क्रान्ति में तो 'टू-लाइन स्ट्रगल' स्वयं माओ के जीवन भर चलती ही रहती है. और उनके निधन के साथ ही ल्यू शाओ ची के अनुगामी देंग सियाओ पिंग को पूँजीवादी दिशा में पूरी कहानी को मोड़ देने का अवसर मिल जाता है. 

मेरा अनुरोध है कि हम सब के लिये ही इन सभी त्रासद घटनाओं की रोशनी में जनवाद का समर्थन करते समय हमें यह भी विचार करना चाहिए कि वह क्या था जिसने विश्व-क्रान्ति की प्रत्येक उपलब्धि को मूल नेतृत्वकारी व्यक्तित्व के पटल से हटते ही विपथगामियों के कब्ज़े में चले जाने दिया. अभी तक सफल प्रतिक्रान्तियों की भविष्य में पुनरावृत्ति को हम तभी रोक सकेंगे. फिर भी मैं यह मानता हूँ कि किसी के भी व्यक्तिवाद से समूह के अधीन व्यक्ति को कर देने का जनवाद का सिद्धान्त बेहतर और अधिक विकसित सिद्दान्त है.

इस सन्दर्भ में यह पोस्ट भी पठनीय और विचारणीय है.

Ashwini Aadam - "आजकल हमरे घर वाले बियाह खातिर डंडा कर रहे हैं अउर हम हैं की अपने आवारापन से एह जीवन में कउनो मुरौव्वत नहीं करना चाहते...
अभिये अपनी शादीशुदा दीदी से इहे बतिया कर रहे थे तो ऊ बोलीं की "अरे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हे किसी के अधीन नहीं रहना है वो तो खुद तुम्हारे अधीन रहेगी"
सुन के कृत कृत्य हो गए हम तो.....
साला बियाह की इ फिलासफी तो एक स्त्री की है पढ़ी लिखी कार्पोरेट सेक्टर में काम करने वाली स्त्री की....
हमही साला चूतिया रह गए जो ई मानते थे कि-
बियाह ऐसी संस्था है जिसमे दो जने एक दूसरे के प्रति पूर्ण उत्तरदायी होते हैं...

जिसमें दो जने एकदूसरे के प्रति इतने स्वतंत्र होते हैं जितना कि वे खुद के प्रति..
जिसमे कि निश्छल प्रेम अपने सम्पूर्ण परिपक्व रूप में पल्लवित होता है..

जिसमे की हमारे समाज के आधारभूत इकाई के रूप में सकारात्मक संतुलन निहित होता है........

जिसमें कि किसी की स्नेहमयी अधीनता को खुद आत्मसात किया जाता है....

अबे यारों आज बियाह के साथ साथ इंसानी दिमाग और समाज की विकृति का भी गयान होइये गया अउर खुद पर गर्व भी की हम साला आवारा हैं अव्वल दर्जे के आवारा... कम से कम किसी को आधीन बनाने के पाप से तो बचे रहेंगे इस जीवन में..."

No comments:

Post a Comment