Wednesday 19 December 2012

अपठित काव्यांश का सन्दर्भ, प्रसंग एवं व्याख्या




एक अपठित काव्यांश का सन्दर्भ, प्रसंग एवं व्याख्या देखिए।
‘‘राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताज़ों पर आसीन कलम,
जिसने तलवार शिवा को दी, रोशनी उधार दिवा को दी,
पतवार थमा दी लहरों को, खंजर की धार हवा को दी,
अग-जग के उसी विधाता ने कर दी मेरे आधीन कलम।

तुझ-सा लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेता,
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता,
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम,
मेरा धन है स्वाधीन कलम...........।’’ - गोपाल सिंह ‘नेपाली’


सन्दर्भः- यह काव्यांश प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद के बीच के काल-खण्ड में छन्दबद्ध परम्परा को नकारे बिना जन-जागरण के विद्रोही गीत रचने वाले हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर गोपाल सिंह ‘नेपाली’ द्वारा कलमबद्ध किया गया है।

प्रसंगः- प्रस्तुत दो खण्डों में व्यक्त किये गये विचार अभिव्यक्ति के उद्देश्य के आधार पर चार टुकड़ों में विभाजित किये जा सकते हैं। प्रथम पंक्ति एक टुकड़ा बनाती है, अगली तीन पंक्तियाँ दूसरा, दूसरे खण्ड की पहली दो पंक्तियाँ तीसरा और अन्तिम दो पंक्तियाँ चौथे टुकड़े का रूप धारण कर लेती हैं।

व्याख्याः- कवि ने सिंहासन शब्द में काव्य-चमत्कार उत्पन्न कर के राजा को अपनी प्रजा का भरण-पोषण करने वाले रक्षक की अपेक्षा वनराज सिंह की तरह दमन, उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले राज-सिंह के रूप में चित्रित किया है। कवि के अनुसार राजा का आभा-मण्डल उसके रत्नमण्डित स्वर्णमुकुट में निहित है। परन्तु यह कलम है, जिसने मुकुट बदले, उछाले और उन्हें धूलि-धूसरित कर दिया। उदाहरण के लिये उर्दू के सशक्त गज़ल-गो फैज़ अहमद फैज़ की निम्न पंक्तियाँ समीचीन हैं -
‘‘ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुँचा है,
जब तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज़ उछाले जायेंगे।’’

आदिकवि वाल्मीकि से प्रथम जन-कवि तुलसी तक ने कलम का ही कमाल किया और त्रेता के राम को आज तक जन-जन का महानायक बनाये हुए हैं। जहाँ कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान की लेखनी हमें महारानी लक्ष्मी बाई की शौर्य-गाथा सुना कर रोमांचित कर देती है, वहीं चारण भूषण की कलम छत्रपति शिवाजी की वीरता के कारनामों को जन-जन तक सम्प्रेषित कर ले जाती है। युग-पुरुष चाणक्य चन्द्रगुप्त को सम्राट तो बनाते ही हैं, साथ ही ‘चाणक्य नीति’ तथा ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ की रचना करके मानवता के इतिहास में प्रेरणा के अमर स्रोत बन जाते हैं। फिरदौसी का ‘शाहनामा’ कुटिल बादशाह द्वारा कवि के अपमान के प्रतिशोध में लिखा गया विश्व-साहित्य का इतिहास-प्रसिद्ध अद्वितीय ग्रन्थ है।
जीवन और विज्ञान जब एक साथ मिलते हैं, तो जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आविर्भाव होता है। प्रस्तुत कविता की अगली तीन पंक्तियाँ अपनी व्याख्या हेतु हमसे इसी दृष्टिकोण की कसौटी पर कसे जाने की अपेक्षा करती हैं। छत्रपति शिवाजी की भवानी तलवार के विषय में जन-श्रुति है कि स्वयं माँ भवानी ने साक्षात् प्रकट होकर अपनी तलवार उनको प्रदान की थी। परन्तु जीवन का विज्ञान हमें बताता है कि अपने पिता से दूर अपनी माँ के साथ उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य बालक जैसे-जैसे सचेत होता गया, वह अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न और अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये अपने हमजोली मित्रों के समुदाय को एकजुट करके तलवार उठाने का संकल्प कर बैठा और अन्ततः मराठा साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ। परम्परा सूर्य को जीवन का मूल स्रोत मानती है। विज्ञान सूर्य में अनवरत जारी संलयन की प्रक्रिया को सूर्य के प्रकाश का आधार कहता है। संलयन की प्रक्रिया में भागीदार परमाणु के प्रोटियम नामक खण्ड प्रकाश, ऊष्मा, ऊर्जा, जल-चक्र, ऋतु-चक्र, जीवन-चक्र - सभी के लिये ज़िम्मेदार हैं। नाविक को जब प्रगति करनी होती है, तो ‘क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया’ के नियम के अनुसार वह अपनी पतवार को अगाध जल-राशि में डुबाकर उससे जल के भीतर प्रतिगति उत्पन्न करता है। किसी कलमकार द्वारा यह कहा भी गया है -
‘‘नाविक की धैर्य-परीक्षा क्या, जब धाराएँ प्रतिकूल न हों!’’
कवि खंजर की धार की बात करता है और धारदार हवा की बात भी करता है। दुश्मन के किले पर धावा बोलने को आतुर शस्त्र-सन्नद्ध घुड़़सवार सैनिकों के दल का नेतृत्व करने वाला सेनानायक तूफ़ानी पहाड़ी हवा के थपेड़ों के बीच फड़फड़ाते हुए अपने ध्वज को ले कर आगे-आगे चलने वाले पुरोधा सैनिक को कूच का संकेत करता है और तूफ़ान के सनसनाते थपेड़े भी घुड़सवारों के सधे हुए घोड़ों की टापों को पहाड़ी की चोटी पर निर्मित दुर्ग के परकोटे तक आ धमकने से नहीं रोक पाते। जीवन का यह उत्साह ही तो है कि मनुष्य ने प्रकृति की गति में हस्तक्षेप करके अपना विजय-अभियान अभी तक सतत जारी रखा है। इस छन्द की अन्तिम पंक्ति की व्याख्या में निम्न उद्धरण सहायक सिद्ध होंगे -
‘‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।’’
तथा
‘‘अस्मिन् काव्य-संसारे कविरेव स्वयं प्रजापतिः।’’
उक्त दोनों उद्धरणों की सहायता से हम इस पंक्ति में आये विधाता शब्द की व्याख्या कर सकते हैं। विद्यारम्भ भारतीय षोडश संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में गुरु अपने शिष्य के हाथों में अपनी विरासत के प्रतीक के तौर पर अपना कलम हस्तान्तरित कर उसकी बौद्धिक विकास-यात्रा को सुनिश्चित करने के लिये वचनबद्ध होता है। द्वितीय छन्द की प्रथम दो पंक्तियाँ कवि के प्रतिवाद को स्वर देती हैं। इनमें वह उन गर्हित साहित्यकारों को सम्बोधित कर रहा है, जिन्हें मुक्तिबोध ‘साहित्य के हम्माल’ की संज्ञा देते हैं, जो अपने आत्मा को कुचल कर सुविधाओं को जुटाने का जुगाड़ भिड़ाने की जुगत लगाने के लिये शासन की चाटुकारिता की सीढ़ियाँ चढ़ने के चक्कर में अपना कलम धन की देवी के पुजारियों के हाथों बेच बैठते हैं। ऐसे साहित्यकार वाग्मिता पर कलंक के अतिरिक्त और क्या हैं! कवि इनकी तुलना में स्वयं को अधिक सम्पन्न समझता है, क्योंकि उसकी लेखनी पराधीन नहीं है। यहाँ हमें बरबस तुलसी याद आते हैं -
‘‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’’
कवि अपना पक्ष चुन चुका है और वह है जन का पक्ष। इस चयन पर उसे अफ़सोस नहीं, अपितु गर्व है क्योंकि जन-सामान्य की यन्त्रणा, व्यथा, पीड़ा तथा क्षोभजन्य आह को जल-तरंग की भाँति स्वरित करने वाली उसकी लेखनी साधारण स्याही से नहीं, बल्कि आँसुओं के लावण्य से परिचालित होती है। जन को जगाना उसका कार्य है, जन-गीत रचना उसकी फ़ितरत और विद्रोह तो उसका स्वभाव ही बन चुका है।


Tuesday 18 December 2012

खट्टर काका - हरि मोहन झा

अन्धविश्वास और कूपमंडूकता के विरुद्ध क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिये ज़बरदस्त हथियार बन चुकी हरि मोहन झा की बहुचर्चित कृति "खट्टर काका" के पृष्ठ 164 तक इस लिंक पर उपलब्ध हैं. अगर आपने अभी तक यह कृति नहीं पढ़ी है, तो मेरा निवेदन है कि इसे अवश्य पढ़ें.http://books.google.co.in/books?id=psrNs-9NVvsC&pg=PA161&lpg=PA161&dq=%E0%A4%96%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0+%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE+%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95&source=bl&ots=NkHK2j1kG_&sig=wymxVqBCq2kIdAXyUu9NUs2rKDQ&hl=en&sa=X&ei=ld7JUJPICMXyrQeqmIC4Dg&sqi=2&ved=0CCsQ6AEwAA#v=onepage&q=%E0%A4%96%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95&f=false
"कबीर दास की तरह खट्टर काका भी उलटी गंगा बहा देते हैं। उनकी बातें एक-से-एक अनूठी, निराली और चौंकानेवाली होती हैं।....
खट्टर काका हँसी-हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं, उसे प्रमाणित किये बिना नहीं छोड़ते। श्रोता को अपने तर्क-जाल में उलझाकर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौतुक है। वह तसवीर का रुख यों पलट देते हैं कि सारे परिप्रेक्ष्य ही बदल जाते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, वेदांत, वेद, पुराण, सभी उलट जाते हैं। बड़े-बड़े दिग्गज चरित्र बौने –विद्रूप बन जाते हैं। सिद्धांतवादी सनकी सिद्ध होते हैं, और जीवन्मुक्त मि्ट्टी के लोंदे ! देवतागण गोबर-गणेश प्रतीत होते हैं। धर्मराज अधर्मराज, और सत्यनारायण असत्यनारायण भासित होते हैं ! आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं। वह ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उलटी नजर आती है ! वह अपनी बातों के जादू से बुद्धि को सम्मोहित कर उसे शीर्षासन करा देते हैं।

कट्टर पंडितों को खंडित करने में खट्टर काका बेजोड़ हैं। पाखंड-खंडन में वह प्रमाणों और व्यंग्य-बाणों की ऐसी झड़ियाँ लगा देते हैं, जिनका जवाब नहीं। कः समः करिवर्यस्य मालती-पुष्प-मर्दने ! उनके लिए सभी शास्त्र पुराण हस्तामलकवत् हैं। वह शास्त्रों को गेंद की तरह उछालकर खेलते हैं। और, खेल-ही-खेल में फलित ज्योतिष, मुहूर्त-विद्या को धूर्त-विद्या, तंत्र-मंत्र को षड्यंत्र और धर्मशास्त्र को स्वार्थशास्त्र प्रमाणित कर देते हैं। इसी तरह वह आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, मोक्ष और ब्रह्म की धज्जियाँ उड़ाकर रख देते हैं।

खट्टर काका को कोई ‘चार्वाक’ (नास्तिक) कहते हैं, कोई ‘पक्षधर’ (तार्किक), कोई ‘गोनू झा’ (विदूषक) ! कोई उनके विनोद को तर्कपूर्ण मानते हैं, कोई उनके तर्क को विनोदपूर्ण मानते हैं। खट्टर काका वस्तुतः क्या हैं, यह एक पहेली है। पर वह जो भी हों, वह शुद्ध विनोद-भाव से मनोरंजन का प्रसाद वितरण करते हैं, इसलिए लोगों के प्रिय पात्र हैं। उनकी बातों में कुछ ऐसा रस है, जो प्रतिपक्षियों को भी आकृष्ट कर लेता है।

आज से लगभग पचीस वर्ष पहले खट्टर काका मैथिली भाषा में प्रकट हुए। जन्म लेते ही वह प्रसिद्ध हो उठे। मिथिला के घर-घर में उनका नाम खिर गया। जब उनकी कुछ विनोद-वार्त्ताएँ ‘कहानी’, ‘धर्मयुग’ आदि में छपीं तो हिंदी पाठकों को भी एक नया स्वाद मिला। गुजराती पाठकों ने भी उनकी चाशनी चखी। उन्हें कई भाषाओं ने अपनाया। वह इतने बहुचर्चित और लोकप्रिय हुए कि दूर-दूर से चिट्ठियाँ आने लगीं—‘‘यह खट्टर काका कौन हैं, कहाँ रहते हैं, उनकी और-और वार्ताएँ कहाँ मिलेंगी ?’’
http://pustak.org/home.php?bookid=6863

Sunday 16 December 2012

वसन्त का पतझड़ - गिरिजेश


ठण्डक ने फिर आज पलट कर वार कर दिया;
दुविधाओं ने जीवन ही दुश्वार कर दिया।

नहीं किसी से मिलने की इच्छा ही होती;
रोज़ सुबह से शाम ज़िन्दगी केवल रोती।

अविरल पछतावों की लहरों पर उतराता;
नहीं घूमने ही मैं कभी कहीं भी जाता।

दर्द और बीमारी की लहरों पर लहरें;
सम्भावना नहीं कुछ उतरूँ फिर से गहरे।

क्यों ऐसे जीते जाने पर आमादा हूँ?
बार-बार निस्सार हो चुकी परिभाषा हूँ।

सहज विकास-प्रवाह प्रभावित क्यों हो बैठा?
टूटी अकड़ मगर बैठा मैं अब भी ऐंठा!

किसकी ख़ातिर अब भी कुछ भी कर पाऊँगा?
या बोझा बन बैठ महज जीता जाऊँगा?

रोना, हँसना, बातें करना भूल चुका हूँ।
सूखी डाली हूँ, एकाकी झूल चुका हूँ।

कई थपेड़े तूफ़ानों के झेल चुका हूँ।
ख़ूनी संघर्षों में खुल कर खेल चुका हूँ।

अपनी छवि पर अपने मुँह से थूक चुका हूँ।
मैं वसन्त का पतझड़ हूँ, मैं चूक चुका हूँ।

मैं अतीत का गीत बन चुका हूँ जीते-जी।
क्या फिर से आ पायेगी जीवन में तेजी?

टूट चुके संकल्पों की बातें क्या करना?
छूट चुके सम्बन्धों के पचड़े में मरना!

यह अवसाद, प्रमाद, मोह, यन्त्रणा कठिन है।
क्या अवसान कथानक का अब यहीं कहीं है?

Saturday 15 December 2012

सच तो सच है! - गिरिजेश

प्रिय मित्र, अपने विद्रोही तेवर के चलते अपनी पूरी जिन्दगी मैंने शून्य से शुरू करके बार-बार नया प्रयोग खड़ा करने की कोशिश की है और इस जद्दोजहद में सफलता और विफलता दोनों का स्वाद चखा है. 
मेरी तरह जब भी हम में से कुछ लोग कुछ भी लीक से हट कर नया करने की कोशिश करते हैं, तो वर्तमान की विसंगति से तीखी नफ़रत और उस नफ़रत के प्रतिकार के प्रयास के पीछे प्रेरक घटक के रूप में एक ओर जहाँ कुछ बेहतर कर गुजरने की अकुलाहट होती है. वहीँ असफल हो जाने के अतीत के ढेरों और 
और भी कड़वे अनुभवों से जन्मी आशंकाएँ भी हमारे फैसले की मजबूती को डगमगाती रहती हैं.
फिर भी हम खुद को पिछली हर बार की तरह ही एक बार फिर से हिम्मत बटोर कर अनजान भवितव्य के अंधे कुएँ में झोंक देते हैं और पूरी कूबत से एक बार फिर एक और नया प्रयोग करते ही हैं. 
हर बार की तरह इस बार भी समाज के गिने-चुने लोग ही हमारी सम्वेदना को महसूस करते हैं और हर तरह से हमारा साथ देते हैं. ढेरों लोग हमारी ईमानदारी और समर्पण से प्रभावित होते हैं और हमारा समर्थन करते हैं. इनके अलावा बहुत से दूसरे लोग हमारे अतीत के सारे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं से परिचित होते हैं और हमारे प्रति शुभकामना व्यक्त करते हैं. 
कई चालाक लोग हमारी गतिविधियों को अपने लिये परेशानी की वजह मानते हैं और हमको सनकी समझते हैं और हम से सतर्क दूरी बना कर रखना पसन्द करते हैं, ताकि उनके अपने ताम-झाम और तथाकथित सुरक्षित दिनचर्या में हमारी वजह से कोई अनचाहा व्यवधान न पैदा हो. 
इन सबसे अलग कुछ मुट्ठी भर मक्कार लोग हमारे सामने चापलूसी करते हैं मगर पीठ पीछे हमेशा हमारा मज़ाक उड़ाते हैं या विरोध करते हैं और दिल से चाहते हैं और हर तरह से साज़िश करते रहते हैं कि हम किसी भी तरह फिर से असफल हो कर पिछली हर बार की तरह ही उपहास के पात्र बन जायें. ताकि वे अपनी टुच्ची दुनियादारी भरी सूझ-बूझ की एक बार फिर अपने चमचों के सामने डींग हांक सकें. 
मैंने ऐसे सभी अलग-अलग तरह के लोगों को इस चित्र में एक साथ पिरोने की कोशिश की है. अपने जीवन में छलाँग लेने के लिये आतुर एक और निर्णय की ऐसी ही परिस्थिति से जूझ रहे अपने युवा दोस्तों को सचेत करने की इच्छा से आज मैं खुद को रोक नही पा रहा हूँ और उनके सामने यह चित्र पेश करते हुए उनको एक बार आगाह करने की ज़ुर्रत कर रहा हूँ. 
मेरी कामना है कि वे अपने सपनों को साकार करने के लिये हर मुमकिन खतरा बेधड़क उठायें. अन्जाम चाहे जो भी हो. कम से कम वर्तमान की घुटन से तो मुक्ति ही होगी. हर हाल में हर तरह से हर स्तर पर मैं अपनी समूची कूबत भर उनके साथ उनके पीछे चट्टान की तरह हर कदम पर ताज़िन्दगी डटा मिलूँगा. 

जो मुझको बेवकूफ़ समझते हैं, कितने क़ाबिल हैं!
मैं जानता हूँ कि क्यों करते हैं उलटी करनी।
कई तरह के हैं ये लोग मेरे चारों तरफ़,
कई तरह की हैं सीमाएँ इनके जे़हन की।

कोई तो दिल से चाहता है, मानता है मुझे,
मुझे बचाने को ख़तरे हज़ार सहता है।
पर अपनी ज़िन्दगी के बोझ से ख़ुद बोझिल है,
इसी के चलते है रफ़्तार उसकी धीमी तो,
तुम्हीं बताओ कि उसका कुसूर इसमें कहाँ?

अगर तुरन्त कोई काम नहीं हो पाया,
अगर हुआ भी तो फिर देर से या आधा ही,
अगर खिलौने के लिये मचल रहा बच्चा
इन्तेज़ार करते-करते ही हो गया बूढ़ा!
व’ कौन है कि जो सपनों का कत्ल करता है?

कोई चमचागिरी में जीता है,ज़ुबान शहद से भी मीठी है, 
शहद लपेट कर गोली चलाता रहता है।
मग़र करतूत उसकी, उसके दिल-सी काली है।
व’ भी इन्सान है या इन्सानियत प’ गाली है?

सीखते-सीखते बुढ़ा गया कोई फिर भी
किसी भी काम को अन्ज़ाम तक पहुँचा न सका।
पलट क’ वक़्त को गुज़ार लिया तब बोला,
‘‘फलाँ वज़ह से मैं ये काम नहीं कर पाया।’’

य’ बात एक बार, कई बार, सौ-सौ बार,
जो बोलता है, उसका दिमाग़ कैसा है!
उम्र के इस मुकाम प’ खड़े हैं हम दोनों,
हक़ीकत की समझ अभी भी है मुश्किल क्या?

किसी ने ज़िन्दगी में कभी भी ‘नो सर’ न कहा,
मग़र दोहरी ज़ुबान, दोहरा मग़ज़, दोहरी समझ,
बनी-बनाई आस्तीन में घुस कर डँसता,
व’ समझता ही नहीं है कि उसे भी समझ रहा हूँ मैं।

कोई चालाक है मक्कार लोमड़ी की तरह,
लगा-बझा क’ तरह-तरह से मज़ा लेता है।
चिढ़ा-चिढ़ा क’ कुढ़ाता रहा है मुझको जो,
वही तो है जो मेरे काम को, सेहत को तोड़ता आया।

कोई शरीफ़ है मेहनत ही करना जानता है,
किसी भी दन्द-फन्द में कभी नहीं फँसता,
मुकाम जो भी मिला टीम को पसीने से,
अग़र ईमान रहेगा, तो मिलेगा ही मुकाम। - गिरिजेश

Sunday 9 December 2012

WHAT A MAN HAS DONE, A MAN CAN DO!



प्रिय मित्र, आजमगढ़ में 9 दिसम्बर (रविवार) को तरुणों के सर्वांगीण विकास के लिये चल रहे शुल्कमुक्त सेवा-प्रकल्प 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की छठवीं मासिक गोष्ठी में परियोजना द्वारा आयोजित प्रथम मासिक प्रतियोगिता ‘अधिकतम दैनिक अध्ययन के घण्टे’ में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करके मानदण्ड स्थापित करने पर गवर्नमेण्ट गर्ल्स इण्टर कालेज, आज़मगढ़ की कक्षा 12 की छात्रा नीतू यादव को प्रथम पुरस्कार स्वरूप फादर कामिल बुल्के का ‘अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोष’ प्रदान किया गया।
नीतू यादव ने 12 नवम्बर से 8 दिसम्बर तक के कुल 27 दिनों के पूरे प्रतियोगिता-काल में से 20 दिनों तक 10 घण्टे से अधिक और 5 दिनों तक 15 घण्टों से अधिक समय तक अध्ययन किया. उनका अधिकतम अध्ययन-काल 15 घण्टे 55 मिनट का रहा. 


पुरस्कार जनपद के लब्ध-प्रतिष्ठ कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट 'एन.आई.एस.टी.' के डाइरेक्टर इंजीनियर अमित गुप्त के हाथों से प्रदान किया गया.


प्रिय मित्र, 

"ज़िद ने अगर हर बार ही इतिहास बनाया;
फिर से नया इतिहास बनाने की ही ज़िद है!"
आजमगढ़ जनपद के सभी विद्यालय पिछले चार दिनों से शीतावकाश के चलते बन्द हैं. इस समय मैं यहाँ 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' में ग्यारहवीं और बारहवीं के लगभग पच्चीस छात्रों और छात्राओं को प्रतिदिन प्रातः नौ बजे से सायं चार बजे तक सात घण्टे लगातार अंग्रेज़ी की यू.पी. बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करवा रहा हूँ. 
उनको मात्र पिछले तीन दिनों में हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद के सभी टेंस सिखा कर आज समाप्त कर दिया. कल से इण्टरमीडिएट की पोएट्री पढ़ाना चाहता हूँ.
शिक्षण-प्रशिक्षण की साधना के इस कठोर परिश्रम के बीच में दस-दस मिनट के दो टुकड़ों में उनको पैर सीधा करने भर को अवकाश मिल रहा है और लगभग दो बजे थोड़ा-सा गरम-गरम नाश्ता. सभी के सभी खूब खुश हैं. पूरी तल्लीनता से सीख रहे हैं. उन सबके बीच एक दूसरे से बढ़ कर पढ़ने की होड़ लगी है.
'चौबीस घण्टों में अध्ययन के अधिकतम घण्टों' का नीतू यादव का 'पन्द्रह घण्टे पचपन मिनट' का अब तक का रिकार्ड उसी के विद्यालय की ग्यारहवीं की एक दूसरी छात्रा प्रतीक्षा पाण्डेय ने आज तोड़ दिया. आज का प्रतीक्षा का अध्ययन का रिकार्ड था 'सत्रह घण्टे पच्चीस मिनटों' का. 
मैं इन सभी छात्रों और छात्राओं के व्यक्तित्वान्तरण की इस आवेगमयी परिघटना का साक्षी और सहभागी होकर अपने अब तक बच गये जीवन की इस रूप में सार्थकता की अनुभूति और मानसिक सन्तुष्टि से अतिशय आह्लादित हूँ.
इस सन्दर्भ में अपने सभी युवा मित्रों से मैं विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहता हूँ कि वे भी कुछ ऐसा करें कि वे, मैं और हम सब उनके शानदार कृतित्व से गौरवान्वित हो सकें.
"हमें पता है कि मुश्किल है रास्ता अपना;
हमारी ज़िद को तोड़ना भी तो आसान नहीं."

ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारे प्यार के साथ - आपका अपना गिरिजेश




समय-प्रबन्धन की वैज्ञानिक पद्धति - गिरिजेश

प्रिय मित्र, और अब अचानक प्रतीक्षा पाण्डेय के 'सत्रह घण्टे पच्चीस मिनट' के इस रिकार्ड को भी कल मेरे खूब समझाने और कड़ाई से मना करने के बावज़ूद चुपचाप मेरी बात सुन रहे दसवीं के जनार्दन यादव और बारहवीं के ऋषभ श्रीवास्तव नामक दो छात्रों ने तीन दिनों से बिजली न रहने पर भी लालटेन की रोशनी में 'इक्कीस घण्टे और पन्द्रह मिनट' तक पढ़ कर तोड़ दिया.

अपनी पढ़ाई के घण्टे बढ़ाने में समय-प्रबन्धन के मकसद से डेली डायरी बनाना छात्रों-छात्राओं की मदद करता है. इसमें भागीदार सभी छात्रों-छात्राओं को उनके दैनिक अध्ययन-काल का सटीक रिकार्ड प्रतिदिन बनाने का हम निर्देश देते हैं.

किसी भी व्यक्ति को एक दिन में केवल चौबीस घण्टे मिलते हैं. यह समय तीन खंडों में विभाजित किया जा सकता है – उत्पादन-काल, तैयारी का काल और मनोरंजन का काल. हम में से ज्यादातर लोग अपने जीवन के लक्ष्य के बारे में गंभीरता से विचार किये बिना अथवा अपने कार्य-दायित्व पर अच्छी तरह ध्यान दिये बिना अपने महत्वपूर्ण समय को निरर्थक कामों में ही बर्बाद करते रहते हैं.

समय-प्रबन्धन की इस पद्धति में जब भी कोई व्यक्ति व्यवस्थित तरीके से अध्ययन आरम्भ करता है, तो अपनी डेली डायरी में एक सेंटीमीटर चौड़े चार खाने और पाँचवां खूब चौड़ा खाना खींच कर पहले खाने में ‘दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.)’ लिख देता है, दूसरे खाने में ‘बजे से’, तीसरे में ‘बजे तक’ और चौथे में ‘घंटा-मिनट’ लिख कर अंतिम सबसे चौड़े खाने में ‘किये गये कार्य का विस्तृत विवरण’ लिखता है. 

अब वह पहले खाने में प्रतिदिन दिनांक और पूर्वाह्न या अपराह्न (am./p.m.) अंकित करके ‘बजे से’ नामक दूसरे खाने में पढ़ाई शुरू करने का सही-सही समय और ‘बजे तक’ वाले तीसरे खाने में पढ़ाई खत्म करके अपनी पढ़ाई की मेज छोड़ने का सही-सही समय तुरन्त-तुरन्त लिखता है. क्योंकि इन दोनों प्रविष्टियों को बाद में लिख लेने के आलस्य के चक्कर में सही समय दिमाग से उतर जाता है और अनुमान से लिखा गया समय गलत हो सकता है. चौथे ‘घंटा-मिनट’ वाले खाने में उस एक बार के बैठने में किये गये काम का अध्ययन-काल घंटा-मिनट में तीसरे खाने की प्रविष्टि में से दूसरे खाने की प्रविष्टि को घटा कर लिख देता है. और सबसे चौड़े खाने में पढ़े गये विषय और पाठ का नाम, किस प्रश्न से किस प्रश्न तक हल किया या पढ़ा गया या याद किया, उनका क्रमांक और हल किये गये कुल प्रश्नों की पूरी संख्या अच्छी तरह विस्तार में लिखी जाती है.

इस तरह दिन भर का रिकार्ड बना कर अन्त में पूरे अध्ययन-काल के योग को जोड़ने के बाद अगले दिन सभी छात्र-छात्राएँ अपनी डायरी अपने अभिभावक से हस्ताक्षर करवा कर मुझसे चेक करवाने और मेरे हस्ताक्षर के लिये मेरे सामने प्रस्तुत करते हैं और अपने उपस्थिति-रजिस्टर में P/A की जगह अपने पढ़ने का समय लिखते हैं.

इस प्रकार समय-प्रबंधन की प्रतिदिन की डायरी उनकी इच्छा-शक्ति को बढ़ा देती है और उनके तैयारी और मनोरंजन में लगने वाले समय को नियंत्रित कर के उनके उत्पादन-काल में भरपूर वृद्धि करती जाती है. इस पद्धति से प्रत्येक छात्र-छात्रा केवल दो या तीन घंटे के अध्ययन के साथ अपनी दैनिक डायरी बनाने की शुरुवात करता है और देखते-देखते धीरे-धीरे आसानी से दस या उससे अधिक घंटे तक जा पहुँचता है और अपने अध्ययन के उस स्तर को बनाये रखने के लिये और उसके रिकॉर्ड में पिछले दिन की तुलना में और भी अधिक वृद्धि करने की कोशिश करता चला जाता है.

अब वह अपने प्रदर्शन पर स्वयं तो गर्व महसूस करता ही है, अपने दोस्तों को भी इस प्रणाली का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है. उसके परिजन भी उसके व्यक्तित्वान्तरण से गौरवान्वित होकर उसे प्रोत्साहित करते हैं. समय की सटीकता के प्रति उनकी दृष्टि में सुधार के लिये हम उन के बीच सच्चाई के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की कोशिश करते हैं और उनमें से ज्यादातर गलत प्रविष्टियों से बचते हैं. मेरे बच्चे मुझसे झूठ नहीं बोलते, क्योंकि मैं भी उनसे झूठ नहीं बोलता. हम परस्पर एक दूसरे का विश्वास करते हैं.

मैं अपने सभी युवा मित्रों से समय-प्रबंधन की इस प्रणाली का अनुसरण करने के लिये और इसके ज़रिये उनकी अपनी मनोदशा में होने वाले सकरात्मक परिवर्तन को खुद ही महसूस करने का अनुरोध करता हूँ. यह चिंता, अवसाद और अलगाव की भावना की सबसे अच्छी दवा है, जो आज के अनिश्चय, आपाधापी और भागमभाग के पूँजीवादी दौर में व्यापक रूप से पूरी दुनिया में अधिक से अधिक युवाओं का बुरी तरह पीछा करते हुए उन्हें हर-हमेशा व्यथित और बीमार बना रही है.

इस सिलसिले में अपने सभी ‘अतिवादी’ अति उत्साही युवा मित्रों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि हर हालत में प्रतिदिन कम से कम छः घण्टे अवश्य सोयें. और सत्रह घंटों से अधिक किसी भी परिस्थिति में न पढ़ें. पूरी नींद दिमाग को ताजगी देगी और इससे कम सोने पर आपके स्वास्थ्य और स्वाध्याय दोनों पर बुरा असर पड़ेगा.

अब हम आजमगढ़ की टोली के युवाओं की पढ़ाई के घण्टे इससे अधिक बढ़ाने के बजाय प्रतिदिन पिछले वर्षों के बोर्ड के एक विषय के चारों सेट के परचे हल करने और उसके बाद उनके द्वारा लिखे गये उत्तरों को याद करके दो-दो की टोली में छात्रों-छात्राओं को तोड़ कर एक दूसरे से पूछने की योजना पर काम करने जा रहे हैं.



A SYSTEM FOR TIME MANAGEMENT - girijesh

the individualistic mentality and feeling of personal property and getting success by hook or crook is dominating in the society even now. 


the sense of collective working is yet to be developed among the masses of our people. of course it is our own task and we have been trying and failing again and again in most of our experiments to promote the sense of team-work of collective responsibility since decades. i myself am completely destroyed in this struggle, but have never surrendered, nor going to change my style of action both in the fields of creation and struggle. in this experiment of personality cultivation project the work here is in its very initial phase. 

the competition of this month was based on a system of daily diary maintenance. it is a system for time management. we provide the guidelines to the students to maintain exact record of his or her study period. 

any person has got only twenty four hours in a day. this time is divided in three parts - time of preparation, time of entertainment and time of production. most of us waste our time without taking care of our assignments or thinking seriously about the goal of our life. 

in this system when a person starts his or her study, he or she records the exact initial time in hours and minutes in one column and again records the time in the next column when he finishes one work. the total time period of the work done is maintained in a third column by subtracting the entry of the first column from that of the second column. and in one more large column the detailed description of the work done is written. at the end of the day they add the whole period of their study and bring their diaries to me to check and sign. 

thus daily recording of time of production boosts their will-power to increase their time of production by controlling the time of preparation and entertainment. in this way each and every student, who starts maintaining his diary with only two or three hours of study daily, slowly reaches easily up to ten hours or more and tries to maintain and increase his record even more than the previous day. 

now he feels proud of his performance and encourages his or her friends to follow the system. to improve the sense of accuracy we try to develop among them the sense of respect for the truth and most of them don't pen down false entries. 

i request all my young friends to follow this system of time management and feel the change in their own mentality. it is the best medicine of anxiety, depression and alienation, which is widely chasing the youth all over the world today.

Friday 7 December 2012

मक्कार और ग़द्दार - गिरिजेश


कफ़न खसोट कर लाशों को बेच देते हैं,
बडे़ ज़हीन हो चले हैं मेरे देश के लोग।
रहे महान तो अंग्रेज को भगा डाला,
पर अब महीन हो चले हैं मेरे देश के लोग।


किसे पड़ी है वतन पर सितम की जो सोचे, 
मज़े से ज़िन्दगी कटने की फ़िक्र क्या कम है?
विदेशी पूँजी रहे, लूट रहे, ऐश रहे,
वतन ग़ुलाम अगर होता है, तो क्या गम है?

जो बातें मुल्क-ओ-इंकलाब की, इन्सान की हैं,
हकूक-ओ-अम्न की, एखलाक-ओ-ईमान की हैं।
महज सुनते हैं, सुना करते हैं, सुन लेते हैं,
बड़े करीने से अपने को बचा लेते हैं।

क्या बेवकूफ हैं - टकरायें और मिट जायें?
ये ‘होशियार’ हैं, झुक जाते और जीते हैं,
इन्हें तमीज़ कहाँ, फर्क करे, देख सकें?
बुतों को दूध पिलाते हैं, लहू पीते हैं।

Tuesday 4 December 2012

संक्रमण - गिरिजेश


देखिए, बदल गया!
टकसाली सिक्के-सा पूँजी के साँचे में
पिघल कर फिसल गया।
काल के प्रवाह में अटल कहाँ? 
बदल गया! 
हाँ, समाज ढल गया।


भालू की तरह छमा-छम जो करती आयीं, 
लम्बे घूँघट वाली नारियाँ कहाँ गयीं?
तेली का कोल्हू, धुनिया की लम्बी धुनकी,
भाथी लोहार की क्यों अपना ही सिर धुनती?
टाटा बनाता है नमक से कुदाल तक,
बनिया तो बेच रहा सील-बन्द दाल तक!


कपड़ों के थान कबीरों के करघों से
अब क्यों नहीं उतरते हैं?
राम-नाम छोड़-छाड़ पण्डित जी क्यों आप
रात-ओ-दिन नोट गिना करते हैं?

तलवार-लाठी-तीर-चाकू कहाँ गये?
उनकी जगह गोली और गोले आ गये!

गली-गली घूम-घूम, गा-गा कर झूम-झूम
बच्चे बहलाते थे, बाइस्कोप लाते थे।
रोज शाम आते थे, वे कहाँ चले गये?
गलियों के बच्चे उन्हें भूलते चले गये!

चरर-मरर, चर-मर, चूँ-चूँ करती जाती थी,
बैलों की गाड़ी तो झुनझुना बजाती थी।
दूर-दूर तक कहीं नहीं दर्शन देती है,
इंजन की गरज, धुआँ, धूल प्राण लेती है।

उषा के धुँधलके से रात के अन्धेरे तक 
बाबू के खेतों पर जो खटते रहते थे,
मार-पीट सहते थे, कुछ भी नहीं कहते थे,
गाँवों से बाहर जो हलवाहे रहते थे,
वे भी तो आस-पास कहीं नहीं दिखते हैं,
जादू क्या हो गया कि अब घण्टे बिकते हैं?

गुस्से से पगला कर घोड़े पर हो सवार 
खेतों के बेटों को दौड़ा-दौड़ा कर के जो पीटा करता था,
वह मुच्छड़ जमींदार, कहो, कहाँ चला गया?
क्रूर काल के कराल गाल में समा गया!

पूत की करतूत देख माँ-बाप हारे हैं, 
सुबह-शाम बिकते हैं, गुरु जी बेचारे हैं।
झिल्ली चढ़ा कर के अपनी बेकारी का लाचार गुस्सा क्यों 
बीवी के मत्थे पतिदेव जी उतारे हैं? 

बुढ़ापे की पगड़ी जो पाली थी सहेज कर 
बेटी तो जला दी गयी कहीं दहेज पर।

दमकती दूकान में सामानों की बाढ़ है,
सुविधा और सम्पदा की मित्रता प्रगाढ़ है।
घर-घर में टी.वी. का आज राज छाया है, 
साइन्स पर सवार देवी ‘पूँजी’ की माया है।

पण्डित जी, खुली पोल आप के खुदा की भी,
फिर भी हठधर्मी क्यों आप बने रहते हैं ?

आप कैसे कहते हैं ?
‘‘कुछ भी नहीं बदला है, कुछ भी नहीं बदलेगा।
ढाँचा लुटेरा सदा-सर्वदा ही टहला है, 
धरती की छाती पर लूट-लूट टहलेगा।’’

राजा जी जहाँ गये, 
उसी कूड़ेदान में इतिहास फेंक आयेगा,
आपको भी, उनको भी

श्रम का उपहास-अट्टहास जो करते हैं, 
तनिक नहीं डरते हैं -
लौह भुज-दण्डों की तनी हुई मुट्ठी से,
चट्टानी छाती, इस्पाती इरादों से;
भोले-भाले जन को धोखा दे जाते हैं,
जो हरदम वादों से। 


श्रमिकों के प्रतिशोध का ज्वालामुखी तप्त होने दो, फूटेगा! 
जोंकों का राज आज है, सच है!
मगर कल भी था टूटा, आगे भी टूटेगा!...