Tuesday 4 December 2012

संक्रमण - गिरिजेश


देखिए, बदल गया!
टकसाली सिक्के-सा पूँजी के साँचे में
पिघल कर फिसल गया।
काल के प्रवाह में अटल कहाँ? 
बदल गया! 
हाँ, समाज ढल गया।


भालू की तरह छमा-छम जो करती आयीं, 
लम्बे घूँघट वाली नारियाँ कहाँ गयीं?
तेली का कोल्हू, धुनिया की लम्बी धुनकी,
भाथी लोहार की क्यों अपना ही सिर धुनती?
टाटा बनाता है नमक से कुदाल तक,
बनिया तो बेच रहा सील-बन्द दाल तक!


कपड़ों के थान कबीरों के करघों से
अब क्यों नहीं उतरते हैं?
राम-नाम छोड़-छाड़ पण्डित जी क्यों आप
रात-ओ-दिन नोट गिना करते हैं?

तलवार-लाठी-तीर-चाकू कहाँ गये?
उनकी जगह गोली और गोले आ गये!

गली-गली घूम-घूम, गा-गा कर झूम-झूम
बच्चे बहलाते थे, बाइस्कोप लाते थे।
रोज शाम आते थे, वे कहाँ चले गये?
गलियों के बच्चे उन्हें भूलते चले गये!

चरर-मरर, चर-मर, चूँ-चूँ करती जाती थी,
बैलों की गाड़ी तो झुनझुना बजाती थी।
दूर-दूर तक कहीं नहीं दर्शन देती है,
इंजन की गरज, धुआँ, धूल प्राण लेती है।

उषा के धुँधलके से रात के अन्धेरे तक 
बाबू के खेतों पर जो खटते रहते थे,
मार-पीट सहते थे, कुछ भी नहीं कहते थे,
गाँवों से बाहर जो हलवाहे रहते थे,
वे भी तो आस-पास कहीं नहीं दिखते हैं,
जादू क्या हो गया कि अब घण्टे बिकते हैं?

गुस्से से पगला कर घोड़े पर हो सवार 
खेतों के बेटों को दौड़ा-दौड़ा कर के जो पीटा करता था,
वह मुच्छड़ जमींदार, कहो, कहाँ चला गया?
क्रूर काल के कराल गाल में समा गया!

पूत की करतूत देख माँ-बाप हारे हैं, 
सुबह-शाम बिकते हैं, गुरु जी बेचारे हैं।
झिल्ली चढ़ा कर के अपनी बेकारी का लाचार गुस्सा क्यों 
बीवी के मत्थे पतिदेव जी उतारे हैं? 

बुढ़ापे की पगड़ी जो पाली थी सहेज कर 
बेटी तो जला दी गयी कहीं दहेज पर।

दमकती दूकान में सामानों की बाढ़ है,
सुविधा और सम्पदा की मित्रता प्रगाढ़ है।
घर-घर में टी.वी. का आज राज छाया है, 
साइन्स पर सवार देवी ‘पूँजी’ की माया है।

पण्डित जी, खुली पोल आप के खुदा की भी,
फिर भी हठधर्मी क्यों आप बने रहते हैं ?

आप कैसे कहते हैं ?
‘‘कुछ भी नहीं बदला है, कुछ भी नहीं बदलेगा।
ढाँचा लुटेरा सदा-सर्वदा ही टहला है, 
धरती की छाती पर लूट-लूट टहलेगा।’’

राजा जी जहाँ गये, 
उसी कूड़ेदान में इतिहास फेंक आयेगा,
आपको भी, उनको भी

श्रम का उपहास-अट्टहास जो करते हैं, 
तनिक नहीं डरते हैं -
लौह भुज-दण्डों की तनी हुई मुट्ठी से,
चट्टानी छाती, इस्पाती इरादों से;
भोले-भाले जन को धोखा दे जाते हैं,
जो हरदम वादों से। 


श्रमिकों के प्रतिशोध का ज्वालामुखी तप्त होने दो, फूटेगा! 
जोंकों का राज आज है, सच है!
मगर कल भी था टूटा, आगे भी टूटेगा!...




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