Sunday 16 December 2012

वसन्त का पतझड़ - गिरिजेश


ठण्डक ने फिर आज पलट कर वार कर दिया;
दुविधाओं ने जीवन ही दुश्वार कर दिया।

नहीं किसी से मिलने की इच्छा ही होती;
रोज़ सुबह से शाम ज़िन्दगी केवल रोती।

अविरल पछतावों की लहरों पर उतराता;
नहीं घूमने ही मैं कभी कहीं भी जाता।

दर्द और बीमारी की लहरों पर लहरें;
सम्भावना नहीं कुछ उतरूँ फिर से गहरे।

क्यों ऐसे जीते जाने पर आमादा हूँ?
बार-बार निस्सार हो चुकी परिभाषा हूँ।

सहज विकास-प्रवाह प्रभावित क्यों हो बैठा?
टूटी अकड़ मगर बैठा मैं अब भी ऐंठा!

किसकी ख़ातिर अब भी कुछ भी कर पाऊँगा?
या बोझा बन बैठ महज जीता जाऊँगा?

रोना, हँसना, बातें करना भूल चुका हूँ।
सूखी डाली हूँ, एकाकी झूल चुका हूँ।

कई थपेड़े तूफ़ानों के झेल चुका हूँ।
ख़ूनी संघर्षों में खुल कर खेल चुका हूँ।

अपनी छवि पर अपने मुँह से थूक चुका हूँ।
मैं वसन्त का पतझड़ हूँ, मैं चूक चुका हूँ।

मैं अतीत का गीत बन चुका हूँ जीते-जी।
क्या फिर से आ पायेगी जीवन में तेजी?

टूट चुके संकल्पों की बातें क्या करना?
छूट चुके सम्बन्धों के पचड़े में मरना!

यह अवसाद, प्रमाद, मोह, यन्त्रणा कठिन है।
क्या अवसान कथानक का अब यहीं कहीं है?

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