Friday 28 June 2013

शिक्षक - गिरिजेश

प्रिय मित्र, एक ईमानदार शिक्षक सीढ़ी और पुल की तरह होता है. उसके पास उस पार जाने वाले ही अधिक संख्या में आते हैं. वैचारिक स्तर पर एक और मज़बूत स्तम्भ बन कर आजीवन उसका साथ देने वाले मुट्ठी भर ही निकल पाते हैं. दुर्दिन में साथ देना कम ही लोगों का दायित्व बन पाता है. 

अगर उस पार जाकर ज़िन्दगी की आपाधापी में गुम हो जाने वाला कोई इक्का-दुक्का छात्र जीवन के किसी अगले मोड़ पर सम्मानपूर्वक अपने पूर्व शिक्षक से मिलता है, तो शिक्षक को उसकी सफलता अपनी ही महसूस होती है और वह अपने श्रम और दक्षता पर गौरवान्वित होता है. 

और अगर वह अपनी किसी समस्या के समाधान में मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है, तो शिक्षक ख़ुद को अपनी उस परिस्थिति में भी समाज के लिये उपयोगी महसूस करके सार्थकताबोध से जिजीविषा की नयी ऊर्जा से एक बार फिर से भर उठता है. 
ऐसे कई अवसर मुझे भी बार-बार मयस्सर होते रहते हैं. 

आज बाज़ार के अधीन शिक्षा अलग-अलग दामों पर बिक रही है. सरकारी विद्यालय संस्था के तौर पर ध्वस्त होते जा रहे हैं. अर्धबेरोज़गार युवक ट्यूशन की भाग-दौड़ के सहारे चरम ग़रीबी में जीते हुए हर अगली प्रतियोगिता का फॉर्म भरने और उसकी तैयारी करने में जुटे हैं. कोचिंग के छोटे-बड़े दूकानदार तरह-तरह का माल बेच कर मुनाफ़ा बटोरने में जुटे हैं. प्राइवेट विद्यालयों की नज़र केवल ग्राहक की जेब पर होती है. वहाँ शिक्षक ह्वाइट कालर मज़दूर बनने को अभिशप्त है. बाज़ार की मार के सामने ऐसा ग़रीब शिक्षक पूरी तरह से बेचारा हो चुका है. 

किसी तरह अपने और अपने बाल-बच्चों के लिये जीवन-यापन भर को जुटा पाने के दबाव में अपनी भरी जवानी से लाचार बुढ़ापे तक जीवन भर प्रतिदिन जल्दी सुबह से देर शाम तक एक घर से दूसरे घर तक घूम-घूम कर दूसरों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाला प्राइवेट विद्यालय का कम वेतन पाने वाला शिक्षक जब अपने ख़ुद के बच्चों को पढ़ाने के लिये समय नहीं निकाल पाता, तो और भी पस्त हो जाता है. 

परन्तु रिटायर होने के बाद भी अपना श्रम बेचने को बाध्य ऐसा गरीब शिक्षक अगर पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए जीवन भर जिया है, तो उसकी आत्मसंतुष्टि और आत्मगौरव अतुलनीय होती है. शिक्षा ही 'बाइलाजिकल ऐनिमल' को संस्कार देकर मानवीय गरिमा से लैस करती है. परन्तु आज की अत्यन्त दारुण विडम्बना है कि समाज के मानवीय घटक को तैयार करने की इस विधा का शिल्पी ही सबसे बुरी ज़िन्दगी जीने और सबसे अपमानित मौत मरने को इस लुटेरी व्यवस्था में बाध्य है. 

क्रान्ति के बाद ही हमें जनपक्षधर और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करने वाली शिक्षा और शिक्षक का सम्मान एक बार फिर से करने का अवसर मिल सकेगा. उस सुन्दर सुखद सुबह को जल्दी और जल्दी देखने के लिये और उस दिन को नज़दीक और नज़दीक लाने के लिये परस्पर वैमनस्य और दम्भ से ऊपर उठ कर आपस में मिल-जुल कर युवा जागरण के लिये अनवरत अथक श्रम करना ही हम सब के सामने आज का ऐतिहासिक कार्य-भार है. मुझे इस अभियान में आप सब से हर तरह के सहयोग की अपेक्षा है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! बाज़ारवाद मुर्दाबाद !!
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

Wednesday 26 June 2013

_________सवाल नाम का !________


मेरे प्यारे दोस्त, 
आज मुझे Ashwini Aadam की यह पोस्ट पढ़ने को मिली, तो सोचा आपसे कुछ कहा-सुनी इसी बहाने हो जाये._______

Ashwini Aadam - "यारों!
मैं इस "आदम" से बेहतर सरनेम चाहता हूँ अपने लिए....
आदमियत का कोई गुण न हो तो ऐसा सरनेम रखने में शर्म भी आती है....
मेरे और भी कई मित्र हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध नाम पाया है जैसे-
प्रशांत विप्लवी- बड़े ही शरीफ और भोले हैं लेकिन विप्लवी के साथ ही उपस्थित होते हैं....
Babu Shandilya - इनको जब भी पढता हूँ तो मुझे अपनी मूढमति पर शर्म आने लगती है कई जीवन एक साथ जी लेने के अनुभव को व्यक्त करने वाली शख्शियत का नाम "बाबू" कही से भी उचित नहीं लगता मुझे.....
सीमा संगसार- इतना कोमल और स्नेहमयी व्यक्तित्व का नाम ज़ख्मों से शुरू होता है....
Samar Anarya - ई तो बहुते विशेष हैं समर तक तो ठीक है लेकिन अनार्य होना भी तो आर्य होने जैसा ही अपनी वास्तविक पहचान का संकुचन ही है.......
Sanjay Kumar Avinash - अविनाश ,तो शब्द ही निरर्थक है, जो विनाश से परे हो उसके अस्तित्व की ही क्या विशेषता.....
और भी बहुत से मित्र हैं जो अंगार, बरफ, विद्रोही, तटस्थ, तरह तरह के वादी और भी न जाने क्या क्या हैं लेकिन उनपर कुछ कहा तो इनबॉक्स में पैर पकड़ कर माफ़ी माँगने की सहूलियत नहीं मिलेगी ,इसीलिए संकेतों में काम चला ले रहा हूँ......
आप सभी मित्र हैं एक मित्र के रूप में जाति वर्ग से परे मेरे व्यक्तित्व के अनुसार एगो नाम सुझाएँ हमको.........
वैसे हमारा फेवर "मंदबुद्धि" को जाता है।"
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तो यह तो रही आदम की पीड़ा और अब शुरू होने जा रही है आपके साथ कहा-सुनी....
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एक बार एक गाँव में एक श्री ठंठपाल जी रहते थे. अपने नाम के बदनाम हो जाने की इसी समस्या से बेतहाशा परेशान हो गये थे श्री ठंठपाल जी, उनको अपना नाम बदल देने की सलाह बिना माँगे इतने लोगों ने दे दी थी कि तंग आकर अपने लिये एक अदद नये नाम की तलाश में उन्होंने एक दिन सतुआ, लोटा और डोरी लेकर अपनी लाठी उठाया और सवेरे-सवेरे अपने घर से निकल पड़े. जैसे ही आगे बढ़े, महात्मा बुद्ध की तरह उनको भी एक शवयात्रा दिखाई दी. खैर उनको शव से तो कुछ भी लेना-देना नहीं था. उनका मकसद तो केवल नाम जानना भर था. सो लोगों से पूछते भये - "भैया, यह कौन सज्जन हैं जिनकी मौत हो गयी है ?" 

शवयात्रा जुलूस की तरह लम्बी थी. चलते-चलाते एक ने 'राम-नाम-सत्त' करते-करते उनको उत्तर दे ही दिया - "अरे इनको नहीं जानते ? ये स्वनामधन्य श्री अमरनाथ जी हैं.”

श्री ठंठपाल शव का नाम सुनकर अवाक रह गये और कुछ भी न बोल कर और आगे बढ़े, तो उनको एक बुढ़िया भीख माँगते दिखाई दी. उसके उनसे कुछ माँगने के पहले ही उन्होंने झट से पहल ले ली और उसका नाम पूछने का अपना काम पूरा कर लिया. उसने धीरे-से कहा - "बेटवा, मेरा नाम है लछिमिनिया." 

अब तक श्री ठंठपाल जी का जोश ठण्डा पड़ने लगा था. फिर भी बची-खुची उम्मीद के सहारे और आगे चले. आगे देखते क्या हैं कि चकरोट के बगल में एक खेत है और उस खेत में एक हरवाह हर जोत रहा है. श्री ठंठपाल जल्दी-जल्दी कदम फेंकते उसके खेत की मेंड़ पर खड़े हो गये और उससे भी तड़ाक से पूछ ही तो लिया - "दादा, आपका नाम क्या है ?" हरवाह ने सिर उठा कर उनसे कहा - "भाई मेरा नाम है धनपाल !" 

इतने लोगों के नाम जान कर अब तो श्री ठंठपाल के ज्ञान-चक्षु खुल गये और उनको बुद्ध की तरह ही सत्य का बोध हो गया. आगे और जाने की ज़रूरत ही नहीं रही. वापस घर की ओर चल पड़े. और घर लौटते समय उन्होंने जो गीत गाया, वह मुझे मेरे हिन्दी के गुरुजी दिवंगत श्री मुखराम सिंह जी ने तब सुनाया था, जब वह मुझे इन्टर में हिन्दी पढ़ाया करते थे. उनके जैसा हिन्दी पढ़ाने वाला कोई शिक्षक मुझे उनके बाद मिल नहीं सका. अब आज इस मौके पर वह गीत दोस्तों-साथियों की ख़िदमत में पेश है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये.

"अमरनाथ के मूवल देखलीं, 
खेत जोतत धनपाल;
भीख माँगत लछिमिनिया के देखलीं, 
सबसे नीक ठंठपाल रे भइया, 
सबसे नीक ठंठपाल... "
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तो यह तो रही कहानी श्री ठंठपाल की. 
अब तक जैसे आप धीरज के साथ बाँचते गये वैसे ही आगे नाम बदलने के काम पर ही लिखी गयी यह कविता भी हिम्मत जुटा कर बाँच ही लीजिए, ताकि आपके पूरे दिमाग की सारी बत्ती एक साथ भक से जल जाये. पक्का-पक्का गारन्टी वाली कविता है. इसी तरह से अपना नाम बदलने के सवाल पर कभी-कभार मिल जाने वाले ऐसे ही अतिशय दुर्लभ मौके पर सुनाने-पढ़ाने के लिये ही यह लिखी गयी थी.
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"जाति बुरी है, सभी कह रहे, नाम बदल दो सभी कह रहे;
मेरा भी अब नाम बदल दो, मेरा भी अब काम बदल दो !

बहुत ही बुरा ‘जातिवाद’ है सभी कह रहे, 
मगर जाति में ‘रोटी-बेटी’ सभी कर रहे !
सभी जाति के ही नेता को वोट दे रहे, 
सभी वोट के बदले में हैं नोट ले रहे !

जाति पूछने पर शरमाते, लाभ रिज़र्वेशन का पाते;
जातिवाद का दंश झेलते इस समाज में सभी सह रहे |

इसने नाम बदल कर देखा, उसने जाति उठा कर फेंका;
इसने-उसने अपना-अपना रंग बदल कर जो भी देखा,
इसने-उसने अपना-अपना ढंग बदल कर जो भी देखा;
मैंने, तुमने, सब ने इसको-उसको ऐसा करते देखा |

कपड़े रोज़ बदलते हैं हम, कभी शकल भी बदल सके हो !
शकल अगर बदली भी है, तो कहाँ अकल को बदल सके हो ?
अगर कहीं जो यही अकल है, बनी रह गयी - तो क्या होगा ?
जातिवाद के चलते झगड़ा फिर-फिर होगा,
नाम मगर उस झगड़े का भी रगड़ा होगा;
काम सुनो इस अकल-शकल का और भी कहीं तगड़ा होगा |

मुझे सभी के सभी हर तरफ़ तुम भी देखो धकियाते हैं,
काम नहीं पूछा करते हैं, जाति पूछ कर रह जाते हैं;
जाति जान कर गाली देते, जाति पूछ कर पानी देते,
जातिवाद की बातें करते, जातिवाद का ही विष भरते |

अभी बचा मैं भी हूँ ज़िन्दा, अभी बचे हो तुम भी ज़िन्दा !
ज़िन्दा लोगों को तो छोड़ो, ये मुर्दे भी बाँटा करते !

कोई तिलक-तराजू तोले, कोई अपना पटेल बोले;
कोई गाँधी को आँधी-सा अपनी जाति बताता डोले,
कोई शास्त्री जी को तारे, कोई फिर सुभाष को मारे;
भगत सिंह-आज़ाद सरीखे जातिवाद में जाते घोले !

अभी धरा पर साफ़ दिख रहा, दो ही नस्लों की बस्ती है,
एक और कंगाल बिलखते, चारों ओर बहुत पस्ती है;
इक्का-दुक्का ही अमीर हैं, मुट्ठी भर में ही मस्ती है,
दुनिया भर में राज कर रही अभी विषमता की हस्ती है |

इनका जन्म कहीं भी होता, इनका धर्म एक ही रहता,
इनका रंग अलग चाहे है, इनका ढंग एक ही रहता;
इनके जीने का ढर्रा भी एक सरीखा ही है रहता,
अभी धरा पर कहाँ बस सकी सबकी समता की बस्ती है ?

तुम अमीर हो, जाति तुम्हारी धनपशुओं वाली ही तो है !
हम ग़रीब हैं, जीवन अपना तो पशुओं से भी बदतर है !
कब तक तुम अपनी छीनी-झपटी खुशियों में मस्त रहोगे ?
कब तक हम अपनी पीड़ा से जीवन भर ही त्रस्त रहेंगे ?

इनको अलग-अलग पहिचानो, अपनी असली जाति जना लो,
जाति एक है अगर हमारी, तो फिर तो एकता बना लो;
क्या हम केवल जातिवाद के टुकड़ों में ही बंटे रहेंगे ?
असली जाति हमारी मानव, कब हम सब उसको समझेंगे ?

अगर हमारी जाति कमेरों की जग जाये,
अगर हमारी सारी ताकत मिल कर आये;
अगर स्वर्ग पर धावा करने निकल पड़े माटी का बेटा,
‘महाबली’ कहलाने वालो, तब फिर सोचो कहाँ बचोगे ?"
______बकलम ख़ुद

ढेर सारे प्यार के साथ आपका - गिरिजेश______ (9.6.14. 9p.m.)





Tuesday 18 June 2013

क्या 'कट्टा' बेरोज़गारी से बेहतर है?



प्रश्न : क्या 'कट्टा' बनाना, बेचना और चलाना बेरोज़गारी से बेहतर है?

उत्तर : मित्र, 'बेरोज़गारी' तो केवल एक लक्षण है| हमारे समाज में फैली गरीबी, महँगाई, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, बेरोज़गारी, अलगाव और अवसाद - सभी एक ही बीमारी के ऊपर-ऊपर दिखने वाले लक्षण भर हैं| और वह असली बीमारी है जिन्दा आदमी का खून पीने वाली "निजी मालिकाने और सामाजिक श्रम के पीड़ादायी अन्तर्विरोध" पर टिकी यह जनविरोधी पूँजीवादी व्यवस्था| हमारी सारी समस्याएँ इस अमानवीय व्यवस्था की ही देन हैं| 

इस व्यवस्था में 'गरीबी हटाओ' के नारे लगा कर 'अमीरी बढ़ाओ' का गोरखधन्धा दशकों से जारी है| क्या अभी तक 'गरीबी' हटी? मेरा प्रश्न है कि जब तक 'अमीरी हटाओ' का नारा नहीं लगाया जायेगा, तब तक गरीबी कैसे हटेगी? और फिर कैसे जीवन के उत्साह से लबरेज़ युवकों को आख़िरकार पूरी तरह से हताश करने वाली भीषण बेरोज़गारी का इलाज होगा? 

यह एक सीधा-सा तर्क है कि कहीं भी 'गड़हा' तभी बनता है, जब लगातार उसकी 'माटी' को काट-काट कर 'ढूहे' पर पाटा जाता है| आज नहीं तो कल, जब डॉ. लोहिया का दिया हुआ "ढूहा काटो, गड़हा पाटो" का नारा लगा कर करोड़ों बेरोज़गार युवा इस देश की सड़कों पर सैलाब बन कर उमड़ेंगे, तो सारे धन्धेबाज़ मटियामेट कर दिये जायेंगे| 

और फिर जब कार्यसक्षम हाथों को बेरोज़गार बनाने वाली यह व्यवस्था ही नेस्तनाबूत हो जायेगी, तब कोई युवा बेरोज़गार नहीं रहेगा| तब हर हाथ को काम और हर पेट को भोजन मयस्सर होगा| तब ज़िन्दगी ज़हर से बदतर नहीं लगेगी| तब मौत ज़िन्दगी से बेहतर नहीं लगेगी| तब लाखों की संख्या में 'अन्नदाता' आत्महत्या नहीं करेंगे| तब कोई 'छोटू' चाय की दूकान पर अपना बचपन नहीं बेचेगा| तब कोई बुज़ुर्ग ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानेगा| तब कोई नारी अपमानित नहीं होगी|

और फिर तब कोई भी तर्क करते समय बेरोज़गारी से 'कट्टा-उद्योग' को बेहतर नहीं कहेगा| जब भी कोई गोली चलती है, तो एक इन्सान मरता है| याद रखिए कि 'रचना और संघर्ष' के पुरोधा योद्धा शंकर गुहा नियोगी बम्हौर के इसी कट्टे से निकली गोली से शहीद हुए थे| इन्सान की जान का धन्धा करने वाले ये सारे ही लोग समाज और मानवता के अक्षम्य अपराधी हैं| ये लोग ही आज़मगढ़ को 'आतंकगढ़' के नाम से बदनाम करने के लिये ज़िम्मेदार हैं| ये लोग खुद तो दुर्दान्त अपराधी हैं ही, साथ ही आज़मगढ़ के मासूम युवकों को अपराध की दलदल में ढकेलने के भी अपराधी हैं| ये लोग इस उद्योग के सहारे आज़मगढ़ के बेरोज़गार युवकों को 'असलहा' की सनसनी में फँसा देते हैं| और फिर ये ही उनको अंडरवर्ल्ड के माफ़ियाओं और रंग-बिरंगे झण्डों वाले सफ़ेदपोश नेताओं की 'शार्प शूटरों' के तौर पर सेवा करने के लिये तैयार करते हैं| ये नितान्त मनबढ़ और समाजविरोधी लोग हैं| 

इस पतित व्यवस्था की भ्रष्ट पुलिस भी इनकी ही काली कमाई खाती रहती है| उसे भी केवल अपना सरकारी 'कोटा' पूरा करने के लिये कभी-कभार ऐसी गिरफ़्तारी का दिखावटी नाटक करते रहना पड़ता है| इन गिरफ्तारियों से इस अवैध उद्योग के फलने-फूलने पर कोई प्रतिकूल प्रभाव कभी भी नहीं पड़ता| 

इस तरह के तर्क देते समय कृपया यह बात अवश्य याद रखिए कि युवाओं की इसी बेरोज़गारी और बम्हौर के इसी कट्टा के चलते आज़मगढ़ का नाम पिछले दशकों में बेतहाशा बदनाम हुआ है| हमें 'असलहे' के इस ग्लैमर का हर तरह से हर स्तर पर विरोध ही करना होगा| हमें आज़मगढ़ के युवाओं को उनकी शिक्षा की गिरावट और बेरोज़गारी की वर्तमान असहनीय परिस्थिति को बदलने के लिये लगातार प्रेरित करना होगा| उनको नकारात्मक सोच से उबारना होगा और सकारात्मक और रचनात्मक दिशा में विकसित करने के लिये सतत जद्दोजहद करना होगा| हमें हर क्षेत्र में, हर तरह का और हर स्तर पर एक नया विकल्प देने का प्रयास करना होगा| हमें आज़मगढ़ के किशोरों, तरुणों और युवाओं के कोमल मन में उम्मीद का एक दिया जलाना होगा|

तभी हम सभी अपने ज़िद्दी पुरखों के ज़माने से चले आ रहे आज़मगढ़ के परम्परागत सम्मान की एक बार फिर से पुनर्स्थापना कर सकेंगे| और तभी जा कर हम सभी इकबाल सुहैल का यह शेर गर्व के साथ दोहराने के काबिल बन सकेंगे -
"यह खित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ; 
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है|"

महापुरुष - गिरिजेश



रोज सवेरे चार बजे उठना कितना कड़वा लगता है?
सात बजे तक सोते जाना किसे नहीं अच्छा लगता है?

मीठी नींद, सुहाने सपने, गरम रजाई, नर्म बिछौने;
जिनको भी हैं अच्छे लगते, रह जाते जीवन में बौने।

मगर भला क्या सोते-सोते कोई कुछ भी है कर पाया?
‘जो सोयेगा - वह खोयेगा’ - इसी बात को है सच पाया।

जितने महापुरुष थे, उनमें से क्या कोई भी था ऐसा?
‘फों-फों’ कर सोता रहता था पेट फुलाये भोगी भैंसा। 

नहीं-नहीं, सब सुबह उठे थे, ब्रह्म-काल में जाग लिये थे;
जब तक लद्धड़ सोते रहते, अपना आधा काम किये थे।

अधिक दूसरों की तुलना में उनके घण्टे इसीलिये थे;
इसीलिये उनकी करनी के जग ने भी गुणगान किये थे।

मेरा अपना फ़र्ज़ - गिरिजेश





रोज सवेरे कसरत करने में भी क्या कुछ कठिनाई है? 
“कसरत नहीं किया” - कह देने पर क्या लाज नहीं आयी है?

हरदम दुनिया में शरीर ही तो सब कुछ करता आया है; 
मरियल-सा, कमजोर, आलसी, रोगी मित्र किसे भाया है?

जितने रोग, डॉक्टर उतने, उनसे भी हैं अधिक दवाएँ;
बेच-बेच कर, लूट मुनाफा, पूँजी दुनिया में इतराये। 

खाना नहीं जहाँ मिल पाता, कैसे महँगी मिलें दवाएँ?
पूँजीवादी क्रूर व्यवस्था! क्या अब तक हम जान न पाये?

तो क्या हम भी रोगी बन बिस्तर में पड़ सड़ कर मर जायें?
और हमारे भी सिरहाने, झोला भर कर रहें दवाएँ !

कसरत करना, स्वास्थ्य बनाना, चन्द मिनट में कर दिखलाना।
सबसे कठिन काम में भी, अपने बल का लोहा मनवाना। 

छोड़-छाड़ कर सबको पीछे, हर टक्कर में आगे आना।
किसे नहीं अच्छा लगता है - अच्छा कर ताली बजवाना?

और क्रान्तिकारी जितने थे, क्या टुटहे, मरियल टट्टू थे?
थे वे सबल पेशियों वाले, उन पर तो सब ही लट्टू थे।

मैं भी सबल शरीर बना कर सबकी सेवा खूब करूँगा।
हर सच को इज़्ज़त बख्शूँगा, सदा झूठ को नफ़रत दूँगा।

गद्दारों से टक्कर लूँगा, और फ़र्ज़ से प्यार करूँगा;
घृणित गुलामी से पूँजी की, भारत का उद्धार करूँगा।

नेता जी – गिरिजेश




नेता जी कितने चाईं हैं, बातें बड़ी-बड़ी करते हैं; 
जनता की सेवा करने को मुँह से ही जीते-मरते हैं। 

दुबली-पतली सड़क बनी थी, जिसमें गड्ढे बड़े-बड़े थे;
आते-जाते गाड़ी में भी हिचकोले लगते तगड़े थे।

नेता जी ने प्लान बनाया, विश्व-बैंक से कर्जा लाया; 
बिना किसी के सिखलाये ही पहली किश्त दलाली खाया।

सड़कें गड्ढा-मुक्त कराया, विज्ञापन दे कर दिखलाया;
फ़ाइल पास कराने ख़ातिर दस परसेन्ट कमीशन खाया।

मगर हुई बरसात अभागी, सड़कों ने सुन्दरता त्यागी;
बरसाती मेढक का साथी, एक-एक गड्ढा फिर उग आया।

सड़क किनारे की मिट्टी भी नेता जी ने खुदवा डाली;
और सड़क की दोनो पटरी पर भी दलदल बनवा डाली।

कीचड़-काँदो, धक्का-मुक्की, गड्ढे भरे हुए पानी से;
रामभरोसे चले जा रहे, सबसे लड़ते आसानी से।

तभी बगल से नेता जी की टाटा-सूमो गाड़ी आयी;
दुबली-पतली सड़क टक्करों की खातिर अनुकूल बुझाई। 

भाग न पाये रामभरोसे, उनकी अब तो शामत आयी;
उनके इकलौते कुर्ते ने बेमौसम होली खेलवायी।

टाटा-सूमो का चक्का भी गड्ढे में घुस कर गुर्राया;
मगर नहीं वह पूरी ताकत लगा-लगा कर भी बढ़ पाया।

तड़ से उसकी मजबूती की असली कथा सामने आयी;
नीचे वाली बड़ी कमानी टुकड़े चार हुई, चर्रायी।

रामभरोसे गुर्राते थे, नेता जी भी खिसियाते थे;
रामभरोसे तो नेता जी को ही दोषी ठहराते थे।

मित्र, आज़मगढ़ में ऐसे तो सभी की सभी सड़कों की दुर्गति है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो और बुरा हाल है. मगर नगर में इस मामले में एक सबसे बदनाम मोड़ है. उसका नाम है बिलरिया की चुंगी. उसके आगे एक किमी. तक लछिरामपुर तक आज़मगढ़ के सबसे बड़े-बड़े डाक्टरों की मंडी है. और इस सड़क का आलम अक्षरशः वही रहता है, जो मैंने बयान किया है. बिलरिया की चुंगी के मोड़ के पूरबी कोने पर वह मनहूस गड्ढा भी दशकों से वैसे ही बार-बार दुर्घटना होने पर भी बरकरार बना हुआ है. इस सड़क पर मैंने खुद दो दशकों तक हर बरसात में अपनी साइकिल से आते-जाते बेतहाशा दुर्गति झेली है.

अगर सभी डॉक्टर ही चाह लेते, तो आपस में चन्दा करके भी इस सड़क को सुधार सकते थे. मगर मजबूरी में बीमार पड़ने पर और इनके फन्दे में फँस जाने पर तरह-तरह से आज़मगढ़ के ग़रीब इन्सानों की ज़ेब काट कर केवल अपनी कोठी, कार और सम्पत्ति बढ़ाते रहने तक ही इन सभी का सामाजिक सरोकार है.

इस खड़बड़हे रास्ते से अगर स्वस्थ आदमी भी गुज़र जाये, तो निश्चित तौर पर उसका कोई न कोई जोड़ करक जायेगा. और बीमार का क्या हाल होता है - इसकी कल्पना बड़ी ही आसानी से की जा सकती है. मगर केवल बार-बार निवेदन और धरना-प्रदर्शन करने से इस लूट-तन्त्र में किसी भी लुटेरे के कान पर तब तक जूँ नहीं रेंगेगी, जब तक कस कर कान उमेठने के लिये ज़िद्दी आज़मगढ़िये बज़िद नहीं हो जाते.

सवाल मैत्री का - गिरिजेश


प्रिय मित्र, मुझे इस बीच मैत्री के सवाल पर आप सब के सौजन्य से काफ़ी कुछ पढ़ने-सीखने का मौका मिला है. मुझे महसूस हो रहा है कि मैत्री पवित्रतम मानवीय सम्बन्धों में से एक ऐसी कोमलतम भाव-भूमि है, जिस पर रीढ़ सीधी करके गर्व के साथ केवल परस्पर पूरे विश्वास सम्बल के सहारे ही खड़ा रहा जा सकता है. किसी से भी मैत्री न तो उसके मित्रों की संख्या की पूरी जानकारी जुटा कर की जाती है और न ही उसके दुश्मनों की गिनती करके. मैत्री तो हमारे विचारों और भावनाओं की समानता को परस्पर स्नेह और सम्मान के ज़रिये जोड़ने वाला सम्बन्ध है. इसका निर्वाह करने का सतत सायास प्रयास करना ही होता है.

परन्तु एक बार किसी बहाने मन को छू लेने पर सन्देह का नन्हा-सा दीमक आहिस्ता-आहिस्ता इस उर्वर ज़मीन को चाट डालता है और तब जीवन भर अनवरत श्रम और निश्छल त्याग करके बोया और विकसित किया गया इसका विराट वृक्ष छोटे-मोटे विवाद का तनिक-सा भी धक्का लगते ही देखते-देखते धराशायी हो जाता है. 

निश्चित तौर पर विश्वास की हत्या ही मनुष्य को सबसे दारुण दुःख देती है. मगर अपने तात्कालिक स्वार्थ में फँस कर ही ब्रूटस बार-बार पीठ में छुरा मारता रहा है. और फिर जब वह जीवन भर के निःस्वार्थ रिश्ते की समूची ऊर्जा को अपने निहित स्वार्थों के लिये एक बार ‘टॉयलेट पेपर’ की तरह जल्दी-जल्दी इस्तेमाल करके माचिस की खाली डिबिया की तरह समाज के कूड़ेदान में फेंक चुकता है, तो उसे यह भ्रम हो जाता है कि वह उसकी ऊर्जा का पूरी तरह दोहन कर चुका. 

मगर जल्दी ही जब उसे कूड़ेदान में फेंके जाने और पूरी तरह से सड़ चुकने के बाद एक बार फिर से धरती की छाती पर उग आये महाकवि ‘निराला’ के ‘कुकुरमुत्ता’ की जिजीविषा दुबारा मानवता की सेवा में ‘प्रोटीन’ से लबरेज़ दिखाई देती है, तो उसे अपनी खुद की सारी करनी-करतूत, अपनी लोभ की आतुरता की चूक और ‘जीवन-रस’ चूस कर फेंक देने की हड़बड़ी और रिश्ता तोड़ लेने की जल्दीबाज़ी पर खूब कोफ़्त होता है. और तब वह एक बार फिर से लालच का शिकार हो जाता है. 

अब उसकी बेकरारी बढ़ती चली जाती है. और वह एक बार फिर से अपनी शहद लिपटी दोहरी ज़ुबान लपलपाता, मासूमियत का अपना वही फटा पुराना मुखौटा लगाकर सामने आता है और दुबारा अपनी जंग लगी भोथरी छुरी चमकाने लगता है. ऐसे में निश्चय ही वह खुद को धरती का सबसे बड़ा अक्लमन्द और सामने वाले को दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ़ भी समझने की चूक एक बार फिर कर बैठता है. अभी भी उसकी मीठी ज़ुबान के पीछे से उसका वीभत्स स्वार्थ और उसके फटे मुखौटे में से उसकी धूर्त आँखें झाँकती ही रहती हैं. इनको लाख कोशिश करने पर भी वह किसी भी तरह से छिपा नहीं पाता. 

स्वाभाविक है कि एक बार किसी क्षणिक आवेश में आकर नहीं, वरन खूब अच्छी तरह से सोच-समझ कर बार-बार कही गयी बात और इन्सान का इन्सान के साथ रिश्ता कच्चे सूत के बहुत ही बारीक मगर बहुत ही मजबूत तागे की तरह है. पहले तो वह इतनी आसानी से टूटता भी नहीं, फिर उसे हर तरह से बचाने की पूरी कोशिश की जाती है. मगर जब झटके पर झटके खाते रहने के बाद आख़िरकार अगर वह टूट ही जाता है, तो जहाँ से टूटता है, वहीं से उसे दुबारा जोड़ना पड़ता है. 

जिसने भी जब भी उसे तोड़ा है और वह भी मेरी किसी के साथ मैत्री के सवाल पर, तो उसे जोड़े जाने के लिये तब तक तो मुझे धीरज के साथ इन्तेज़ार करना ही पड़ता है, जब तक दुबारा वह इस रिश्ते को और भी मजबूती से जोड़ने की ईमानदार पहल नहीं लेता. केवल इतना ही नहीं. इसके साथ ही वह निष्कपट शब्दों में इसकी वजह भी स्पष्ट तौर पर नहीं बताता कि मुझमें ऐसा कौन-सा सुरखाब का पर लगा है कि माइनस साथी ‘एक्स’ मैं पवित्र हूँ और साथी ‘एक्स’ के साथ अछूत! ऐसे में मुझे केवल इतना ही याद आ रहा है – “कनवा बिना रहू न जाये, कनवा के देखि के अँखियो पिराय...”

वरना मुझे अपनी ज़िन्दगी से माइनस करके वह सुकून के साथ जी सकता है क्योंकि उसे जानना चाहिए कि यह मेरी फ़ितरत रही है कि एक बार जिसे मित्र कह दिया, उससे बार-बार चोट खाने के बाद भी मैं उस पर कभी वार नहीं करता. हाँ, अपने टूटे हुए दिल के एक अँधेरे कोने में अपने खोये हुए सम्मान को दुबारा पा लेने के यकीन का टिमटिमाता हुआ छोटा-सा दिया हरदम जलाये रखता हूँ. पुरखों की कही एक और कीमती कहावत है - “घूरे का भी दिन फिरता है,” तो फिर मेरा ही क्यों नहीं? मुझे अपने सभी मित्रों द्वारा मेरे लिये जीवन के किसी भी मोड़ पर किये गये सारे ही एहसानों का पूरा-पूरा एहसास है. आपके इस क़र्ज़ को इस ज़िन्दगी में अपने सिर से उतार पाना मेरे लिये असम्भव है.

आप सब के प्रति अन्तर्मन से विनम्रतापूर्वक कृतज्ञता-ज्ञापन के साथ – आपका गिरिजेश

राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद - गिरिजेश



मेरे कट्टर हिन्दुत्ववादी मित्रगण, 
मुझे स्पष्ट कहने के लिये क्षमा कीजियेगा. मगर बहुत ही संकुचित दृष्टि है आपकी. अतीत में आप की धारा के दिग्गजों की राष्ट्रद्रोही करतूतों के अकाट्य तथ्यों द्वारा बार-बार आपको आइना दिखाने के बाद भी आप स्वयं अपने ही मुँह से स्वयं को ही एकमात्र राष्ट्रवादी और अपने अतिरिक्त अन्य सभी असली राष्ट्रवादियों को राष्ट्रद्रोही घोषित करने वाला प्रमाण-पत्र देने का दुस्साहस बार-बार करते ही रहते हैं.

'राष्ट्र' देश-विशेष में रहने वाले नागरिकों को कहते हैं और 'देश' एक राज-सत्ता के अधीन भूखण्ड को. 'राष्ट्र-राज्य' की परिकल्पना बाज़ार के विकास और विस्तार के साथ-साथ ही उभरी और बढ़ी है. सामंतवाद के हज़ारों वर्ष लम्बे पूरे काल-खण्ड में इसके उद्भव से १८५७ के प्रथम स्वाधीनता समर के योद्धाओं तक की प्रतिबद्धता अपने-अपने राज्य तक ही सीमित थी. भारतीय उपमहाद्वीप के भूखण्ड को संस्कृत साहित्य भी ‘राष्ट्र’ कहता है. वैदिक ऋषि गर्वपूर्वक घोषणा करता है – “वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः” परन्तु वह इस रूप में एक राज-सत्ता के अधीन अंग्रेजों का उपनिवेश बनने के पहले कभी भी नहीं था.

राष्ट्रभक्ति और अंतर्राष्ट्रीयतावाद दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं. विश्व के इतिहास में जब भी साम्राज्यवादी शक्तियों ने किसी भी देश की क्रांति पर हमला किया, तब-तब उस देश के क्रान्तिकारियों ने अपने देश के अन्य वर्गों की प्रतिनिधि राजनीतिक शक्तियों के साथ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बना कर उसका ज़बरदस्त प्रतिरोध किया है. माओ का कथन है कि जो राष्ट्रवादी नहीं है, वह साम्यवादी भी नहीं हो सकता. द्वितीय विश्वयुद्ध में स्टालिन के नारे को और वियतनाम की क्रांति में हो ची मिन्ह की भूमिका को इसी रूप में देखा जाता है. 

किसी भी देश की क्रान्ति में आत्म-बलिदान देने के लिये दुनिया के दूसरे सभी देशों से क्रान्तिकारी वहाँ जाते रहे हैं. ऐसे ही एक भारतीय क्रान्तिकारी थे डॉ. कोटनीस, जो चीनी क्रान्ति के समय चीन गये थे. चीनी क्रान्ति में कनाडा से चल कर शहीद होने वाले ऐसे ही एक दूसरे क्रान्तिकारी थे डॉ. नार्मन बैथ्यून. इसी सन्दर्भ में पूरी धरती के हम सब क्रान्तिकारी अतीव गर्व के साथ चे के तेवर और शहादत को याद करते हैं. चे महान क्रांतिकारी थे. वह सच्चे अर्थ में अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रतिनिधि चरित्र थे. चार देशों में क्रान्तियों में भाग लेने वाले दुनिया भर के युवा क्रान्तिकारियों के आदर्श चे वस्तुतः विश्व-मानव थे.

जब कभी भी हम विश्व-क्रान्ति के किसी भी महानायक को अपना सलाम पेश करते हैं, तो इसका स्पष्ट आशय बिरादराना सम्बन्ध व्यक्त करना होता है. उनको अपना क्रान्तिकारी अभिवादन प्रेषित कर के हम विदेशियों के तलवे नहीं चाटते. तलवे चाटने का काम तो पालतू कुत्ते किया करते हैं, जिनको मालिक से अपने लिए एक टुकड़ा हड्डी की लालच होती है. जनमुक्ति के लिये जूझने वाले इन्कलाबी लालची नहीं होते, शोषक पूंजीपति वर्ग के सत्ताधारी चाकर लालची होते हैं.

1947 से आज तक अपने विदेशी आकाओं के तलवे चाटने के आलावा इन्होंने कभी भी भारतीय राष्ट्र की गरिमा के प्रश्नों पर उनके हस्तक्षेप का जम कर विरोध नहीं किया. 1990 के बाद तो ‘ग्लोबल विलेज’ बन जाने के बाद से आज तक भारतीय शासक वर्ग और उसके सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि खुल्लमखुल्ला अमेरिका के तलवे ही चाट रहे हैं और देश के जल, जंगल, जमीन और आसमान को कौड़ियों के मोल उनको ही अपने कमीशन की लालच में एक के बाद एक लगातार बेच रहे हैं. अपने इस राष्ट्रद्रोही कुकर्म के लिये वे भारतीय सेना का दुरुयोग करने से भी नहीं हिचक रहे हैं. 

आज देशी विदेशी पूँजी का गंठजोड़ ही भारतीय राष्ट्र का सबसे भीषण शत्रु है. भारतीय जनगण का कल्याण इनकी जनविरोधी सत्ता को बल पूर्वक उखाड़ फेंक कर ही संभव है. इसके अलावा भारत राष्ट्र के पास अपनी अस्मिता को बचाने और बनाये रखने के लिये कोई विकल्प बचा नहीं है.

और अब तो क्रांति भी एक देश में शुरू भले ही हो जाये, उसे दुनिया भर में फैलते देर नहीं लगेगी. अरब-वसंत और आकुपाई आन्दोलन की पहली लहर का विस्तार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. अब ही जाकर वास्तविक अर्थ में “वसुधैव कुटुम्बकं” का युग आया है. यही वजह है कि आने वाली क्रान्ति का स्वरूप भी मूलतः वैश्विक ही होने जा रहा है.

आप सभी भगवा ब्रिगेड के दम्भी साम्प्रदायिकतावादियों की दृष्टि की सीमा देख कर आज एक बार फिर मुझे दुःख हुआ. मुझे आप जैसे आत्मलीन और संकीर्ण दृष्टि वाले बड़बोले लोगों को ही याद दिलाने के लिये बहुत ही खेद के साथ आज एक बार फिर से लिखना पड़ रहा है कि हमारे-आपके ही पूर्वजों ने कभी इन पंक्तियों को भी लिखा था -
''अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम,
उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम|"

खेद-प्रकाश के साथ - आपका गिरिजेश 'इंकलाबी'

Saturday 15 June 2013

डॉ. मयंक त्रिपाठी : अद्वितीय व्यक्तित्व - गिरिजेश



प्रिय मित्र, डॉ. मयंक त्रिपाठी ने अपनी एम.एस. की परीक्षा में अपने बैच में सर्वोच्च अंक प्राप्त करके मेरे जैसे सड़क के अदना-से आदमी के लिये जो गौरव और सम्मान प्रदान किया है, वह मुझे अपने विद्रोही तेवर के चलते जीवन भर मिलती चली आ रही यंत्रणा की वेदना से राहत पहुँचाने वाली अद्वितीय क्षतिपूर्ति है.

आज इस समाचार को सुन कर निस्सन्देह मैं अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ. मेरा शुरू से ही मूल्यांकन रहा है कि मयंक का व्यक्तित्व अद्वितीय है. इस सफलता ने एक बार फिर उस मूल्यांकन को सही सिद्ध किया है.

आगे अभी और भी विकसित होते हुए जब वह अपने उत्कर्ष के चरम पर पहुँचेंगे, तभी जाकर मुझे अपनी जीवन भर की चुपचाप जारी साधना की सार्थकता का सच्चा सन्तोष पूरी तरह से मयस्सर होगा. मैं अन्तर्मन से कामना करता हूँ कि हर आने वाला कल मयंक को ऐसी ही अगणित सफलताएँ देता रहे. - आपका गिरिजेश 

आवेग - डॉ. मयंक त्रिपाठी



आती है आवाज़ जब कभी, दुःख से मानव के रोने की;
होती है मन में उथल-पुथल, बलिदान देश पर होने की|

आवेग हृदय में उठता है, सहना मुश्किल हो जाता है;
सुख-सुविधाओं में पल-भर भी रहना मुश्किल हो जाता है|

जब क्रान्ति-मार्ग पर चलने को, कोई व्याकुल हो जाता है;
उसका तन-मन-धन-जीवन सब, जन को अर्पित हो जाता है| 

साधना-समर्पित जब कोई, इतिहास बदलने आता है; 
उसके पीछे चल कर जन-बल, तूफ़ान उठाता जाता है|

Thursday 13 June 2013

दिल्ली की गरमी में भा.ज.पा. - गिरिजेश




मेरे प्यारे दोस्तो और साथियो, 
न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि हमारा प्यारा विश्वगुरु भारत राष्ट्र आज संकट के भीषण दौर से गुज़र रहा है!
भारतीय धनतन्त्र की संसदीय नौटंकी के नागनाथ बनाम साँपनाथ वाले खुले खेल के प्रमुख विपक्षी दल भा.ज.पा. पर इस बार की गर्मी का असर कुछ अधिक ही हुआ लग रहा है! 
ऐसे भी दिल्ली की गर्मी जानलेवा कही जाती रही है! 
मगर क्या इस बार दिल्ली की यह बदनाम गर्मी माननीय आडवानी जी के दिमाग़ पर मारक असर कर रही है? 
या फिर वह बूढ़े घोड़े की तरह बेचारगी के शिकार हो कर सठिया गये हैं और सटक गये हैं? 
या फिर माननीय मोदी जी महात्मा गाँधी जी वाले गुज़रात के माहौल को गरमाने के बाद दिल्ली के दिलेर 'दिल वालों' का दिल दहलाने पर बज़िद हो गये हैं? 
आप में से जिस किसी के पास विश्वस्त सूत्रों से कोई भी विश्वसनीय ख़बर जैसे ही पहुँचे, उसका परम पुनीत कर्तव्य बनता है कि हर आम और ख़ास को ख़बरदार करे! 
क्योंकि यह तो तय है कि खल्क ख़ुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म शहर कोतवाल का ही है! मगर अब विकट प्रश्न है कि विश्व भर के हिन्दुओं की एक मात्र राष्ट्रीय पार्टी भा.ज.पा. किसकी है ? यह तो ज्ञानगुफा में साधना लीन आर.एस.एस. के त्रिकालदर्शी विशेषग्य ही अब शायद बता सकते हैं कि उनकी रिमोट-चालित भा.ज.पा. परम कट्टरवादी माननीय आडवानी जी की है या फिर हिन्दू-ह्रदय-सम्राट माननीय मोदी जी के 'मोदी गिरोह' वाले खूँखार भेड़ियों की....
यह सवाल क्या इतना मुश्किल है कि इतनी बुरी तरह से फँस गया है? 
अभी फाइनल नतीज़ा तय हो ही नहीं पा रहा है! 
आपकी भविष्यवाणी क्या है? 
परन्तु कृपा करके कम से कम भगवान श्री राम के नाम पर पानी पी-पी कर कोसिए तो मत! 
अरे इहलोक बिगड़ने से तो डरिए ही और परलोक जाने से भी तो डरना ही पड़ेगा न!
है कि नहीं? 
आप सब के उत्तर का बेकरारी से इन्तेज़ार रहेगा मुझे! 
लौटती डाक से उत्तर भेजना मत भूलियेगा!
ढेर सारे प्यार के साथ - आप का ही गिरिजेश

हमारी आवाज़ ग्रुप से -
Nilakshi Singh - एक उलझन है. भारत विश्वगुरु कब था?
Pradeep Kumar - हा हा हा ...बहुत सही गिरिजेश जी
Girijesh Tiwari - मुझे भी समझ में नहीं आता कि अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यों यही बात विश्व-विजय पर आमादा हिन्दू-ह्रदय-सम्राट माननीय मोदी जी के अश्वमेध के घोडे के पीछे दौड़ते पैदल फेचकुर फेंकते रहने पर भी पूरा दम लगा कर लगातार चोकरते रहते हैं कि अखण्ड भारतवर्ष बार-बार खण्डित भले होता रहा है मगर वही विश्वगुरु था, है और रहेगा - चाहे उनके आका अति महाबली अमेरिका की कृपा से खुद विश्व ही रहे या न रहे!
Shail Tyagi Bezaar - sir ab to sukhad din aane wale hain, raam raajya qaayam hone wala hai hai , sab kuchh modimay aur raam'may ho jayega:D
Girijesh Tiwari - अरे भैया, कहीं राम-राज्य लाते-लाते लाने वालों का ही राम-नाम सत्य न हो जाये! इस कलमुँही राजनीति का कभी कोई भरोसा रहा है क्या? इसके खेल में दीखता कुछ है और होता है कुछ और ही! सो असली मामला तो परदे के पीछे बैठे इन सभी कठपुतलियों को नचाने वाली अंगुलियों को घुमाने वाला चुप्पा जोकर ही जानेगा न! हम-आप तो केवल दर्शक ही ठहरे! जो भी दिखाया जायेगा खेल के नाम पर देखना ही पडेगा हम सब को! कल तक मोदी जी राम-राज्य ला रहे थे, आज आडवानी जी राम-राम करते रूठे हैं, कल का खेल कुछ और ही होगा! अब एक ही खिलाड़ी कब तक खेल सकता है? टी.आर.पी. का भी तो सवाल है!
Shail Tyagi Bezaar - mujhe to is 'raam' naam me hee kuchh gadbad maaloom hoti hai
Girijesh Tiwari - गड़बड़ ज़रूर होगी, नहीं तो बहुतै पुरानी कहावत है भैया जिसको हमारे चतुर पुरखे ऐसे ही थोड़े कह गये हैं - "मुँह में राम, बगल में छूड़ी, आयल बघवा ले गयल मूड़ी" !

Friday 7 June 2013

कहानी : बेघर का घर - गिरिजेश



प्रिय मित्र, यह कहानी एक ऐसे इन्सान की कहानी है, जो दुनिया बदलने के काम में लगता है| उसे अपने अभियान में आगे बढ़ने के लिये अपना घर-परिवार छोड़ कर ‘सड़क का आदमी’ बनना पड़ता है| हर कदम पर उसे तरह-तरह के लोगों से मिलने और जुड़ने का मौका मिलता जाता है| उनमें से भी बहुत-से लोग अलग-अलग कारणों से पीछे छूटते रहते हैं और नये-नये सम्पर्क-सम्बन्ध बनते चले जाते हैं| और इस तरह उसका अभियान नित नूतन ऊर्जा के साथ आगे बढ़ता रहता है|

'व्यक्तित्व विकास परियोजना' आरम्भ करने से वर्षों पहले आजमगढ़ के राहुल सांकृत्यायन जन इण्टर कॉलेज में बच्चों को यह सुनायी गयी थी|.

मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का यह सोलहवाँ व्याख्यान है| यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है|

कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें| 

इसका लिंक यह है - http://youtu.be/YA0OqBgYUYE

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

Thursday 6 June 2013

एक क्रान्तिकारी की अन्तिम इच्छा




(कृपया इसे स्वयं भी पढ़ें और अपने मित्रों को भी पढ़वायें)

मेरी अन्तिम इच्छा” 

मैं, महादेव खेतान - उम्र लगभग 76 वर्ष, पुत्र स्व० श्री मदनलाल खेतान, अपने पूरे सामान्य होशो–हवास में अपनी अन्तिम इच्छा निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त कर रहा हूँ|

मैं अपनी किशोरावस्था (सन 1938-39) में ही मार्क्सवादी दर्शन (द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद) के मार्गदर्शन में उस समय देश, नगर तथा शिक्षण-संस्थाओं में चल रहे ब्रिटिश गुलामी के विरोध में ज़ुल्म और शोषण के विरोध में स्वाधीनता संग्राम, क्रान्तिकारी संघर्ष, मज़दूर-आन्दोलन और किसी न किसी संघर्ष से जुड़ गया था| उसी पृष्ठभूमि में मुझे अध्ययन और आन्दोलन को एक साथ समायोजित करते हुए सृष्टि और मानव तथा समाज की विकास-प्रक्रिया को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने, उसको देखने और समझने का अवसर मिला|

मेरी यह पुष्ट धारणा बनी कि आज भी प्रकृति के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और मानव-विकास की प्रक्रिया में उसको समझने के प्रयास तथा उससे या उनसे संघर्ष करते हुए उनको अपने लिये अधिक से अधिक उपयोगी बनाने में हज़ारों बरस के मानव प्रयास ही सृष्टि, मानव और समाज का असली और सही इतिहास है| यहाँ मैं मानव के ऊपर किसी दिव्य शक्ति या ईश्वर को नहीं मानता हूँ| यह प्रक्रिया अनवरत चल रही है, जिसके फलस्वरूप आज के मानव का विकास हमारे सामने है| यह प्रक्रिया आगे भी तेजी से चलती जायेगी, चलती जायेगी| 

अस्तु, मेरी मृत्यु पर ईश्वर और उसके दर्शन पर आधारित कोई भी, किसी भी प्रकार का, किसी भी रूप में, धार्मिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड, पाठ, यज्ञ, ब्राह्मण-भोजन अथवा दान आदि, पिण्डदान तथा पुत्र का केश-दान (सिर मुड़ाना या बाल देना) आदि-आदि कुछ नहीं होगा तथा दुनिया के सब से बड़े झूठ (राम-नाम) को मेरा शव दिखा कर (सत्य) घोषित और प्रचारित करने का भी कोई प्रयास नहीं होगा| मेरे शव को सर्वहारा के लाल झण्डे में लपेट कर “दुनिया के मज़दूरो, एक हो!” “कम्युनिस्ट आन्दोलन तथा पार्टी विजयी हो!” आदि-आदि नारों के साथ मेरे जीवन भर के परिश्रम से विकसित करेन्ट बुक डिपो से उठा कर बड़े चौराहे स्थित मेरे भाई तथा साथी कामरेड रामआसरे की मूर्ति के नीचे ले जाकर मेरे शव को अपने साथी को अन्तिम लाल सलाम करने का अवसर प्रदान करें तथा वहीं पर लखनऊ स्थित संजय गाँधी पो० ग्रे० इन्स्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइन्स के अधिकारियों को बुलाकर मेरा शव उनको दे दें, ताकि न सिर्फ़ ज़रूरतमन्द लोगों को मेरे शरीर के अंगों से पुनर्जीवन मिल सके, बल्कि आने वाली डॉक्टरों की पीढ़ी के अध्ययन को और अधिक से अधिक उपयोगी बनाने में मेरे शरीर का योगदान हो सके|

इसके बाद समय हो और मित्रों की राय पड़े, तो वहीं रामआसरे पार्क में सभा करके अगर मेरे जीवन के प्रेरणादायक हिस्सों के संस्मरण से आगे आने वाली संघर्षशील पीढ़ी को कोई प्रेरणा मिल सके, तो उसका ज़िक्र कर लें| वरना मित्रों की राय से सबके लिये जो सुविधाजनक समय हो उस समय यहीं रामआसरे पार्क में लोगों को बुला कर संघर्षशील नयी पीढ़ी को प्रेरणादायक संस्मरण दे कर ख़त्म कर दें| यही बस मेरी मृत्यु का आखिरी अनुष्ठान होगा| इसके बाद या भविष्य में भी कभी कोई दसवाँ, तेरही, कोई श्राद्ध, कोई पिण्डदान आदि कुछ नहीं होगा और मैं यह ख़ास तौर पर कहना चाहता हूँ कि किसी भी हालत में, किसी भी जगह और किसी भी बहाने से कोई मेरा मृत्युभोज (तेरही) नहीं होने देगा| अपने परिवार के बुज़ुर्गों से मेरा अनुरोध है कि मेरी मृत्यु पर अपने जीवन-दर्शन या आस्थाओं, अन्धविश्वासों और अपने जीवन-मूल्यों को थोपने की कोशिश न करें, मुझ पर बड़ी कृपा होगी| घर पर लौट कर सामान्य जीवन की तरह सामान्य भोजन बने| “चूल्हा न जलने” की परम्परा के नाम पर न मेरी ससुराल, न मेरे पुत्र की ससुराल से और न ही किसी अन्य नातेदार-रिश्तेदार की ससुराल से खाना आयेगा|

उसके दूसरे दिन से बिलकुल सामान्य जीवन और सामान्य दिनचर्या, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो, घर व दूकान की दिनचर्या बिना किसी अनुष्ठान के शुरू हो जाये तथा मेरी मृत्यु पर मेरी यह अन्तिम इच्छा काफ़ी बड़े पैमाने पर छपवा कर न सिर्फ़ नगर में वृहत तरीके से मय अखबारों के व सभी तरह के राजनैतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं को बँटवा दें तथा करेन्ट बुक डिपो व मार्क्सवादी आन्दोलन व साहित्य से सम्बन्धित सभी लोगों को डाक से भेजें, ताकि इससे प्रेरणा लेकर अगर एक प्रतिशत लोगों ने भी इसका अनुसरण करने की कोशिश की, तो मैं अपने जीवन को सफल मानूँगा|

मेरे जीवन में होल-टाइमरी के बाद सन् 1951 से अभी तक जो कुछ भी मैंने बनाया है, वह करेन्ट बुक डिपो है, जो किसी भी तरह से कोई भी व्यापारिक संस्थान नहीं है, बल्कि किसी उद्देश्य विशेष से मिशन के मातहत एक संस्था के रूप में विकसित करने का प्रयत्न किया था| मेरे पास न एक इंच जमीन है और न कोई बैंक-बैलेन्स है| मेरे जीवन का एक ही मिशन रहा है कि देश और विदेशों में तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय, जो न सिर्फ़ अपने जीवन के स्तर को सम्मानजनक बनाने के लिये, बल्कि उत्पीड़न और शोषण की शक्तियों के विरोध में उनको नष्ट करने के लिये जीवन-मरण के संघर्ष करते रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे - उनको हर तरह से तन, मन और धन से जो कुछ भी मेरे पास है, उससे मदद करूँ, उनको प्रेरणा दूँ और अपनी यथा-शक्ति दिशा दूँ| इसी उद्देश्य से मैंने करेन्ट बुक डिपो खोला, इसी उद्देश्य के लिये इसे विकसित किया| कहाँ तक मैं सफल हुआ - इसका आकलन तो इन संघर्षों की परिणित ही बतायेगी| जितना, जो कुछ मुझे इस समय आभास है, उससे मुझे कोई असन्तोष नहीं है|

मेरी मृत्यु के बाद मेरा ये जो कुछ भी है, उसके सारे Assets (परिसम्पत्ति) और Liability (उत्तरदायित्व) के साथ इस सबका एकमात्र उत्तराधिकारी मेरा पुत्र अनिल खेतान होगा| मैंने कोशिश की है कि मेरी मृत्यु तक इस दुकान में कोई ऐसी liability नहीं रहे, जिसके लिये मेरे पुत्र अनिल को कोई दिक्कत उठानी पड़े| मेरी यह इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा पुत्र अनिल खेतान भी मेरे जीवन के इस मिशन को, जिसके लिये मैंने करेन्ट बुक डिपो खोली व विकसित की है – उसको अपना सब कुछ निछावर करके भी आगे बढ़ाता रहेगा, उसी तरह से विकसित करता रहेगा और प्रयत्न करेगा कि उसके भी आगे की पीढ़ियाँ यदि इस संस्थान से जुड़ती हैं, तो वे भी इस मिशन को अपनी यथाशक्ति आगे बढ़ाते हुए विकसित करेंगी|

मैं यह आशा करता हूँ कि मेरी ही तरह मेरा पुत्र भी किन्हीं भी विपरीत राजनैतिक परिस्थितयों में डिगेगा नहीं और बड़े साहस व आत्मविश्वास के साथ झेल जायेगा और यह नौबत नहीं आने देगा कि पीढ़ियों के लिये प्रेरणा और दिशा स्रोत करेन्ट बुक डिपो बन्द हो जाये| 

मैं यह चाहूँगा कि जैसे मैंने अपने और अपने पुत्र के जीवन को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित करने का प्रयत्न किया और किसी भी धर्म या अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड से दूर रखा, उसी प्रकार मेरा पुत्र अपने जीवन को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी ईश्वर व धर्म व उस पर आधारित दर्शन, अन्धविश्वास और कर्मकाण्डों से दूर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित करेगा तथा जीवन को न्यूनतम ज़रूरतों में बाँधेगा| ताकि अपनी फ़िज़ूल की बढ़ी हुई ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अपने मूल्यों से समझौता न करना पड़े, क्योंकि वही फिसलन की शुरुआत है, जिसका कोई अन्त नहीं है| दुनिया में रोटी सभी खाते हैं, सोना कोई नहीं खाता है| लेकिन सम्मानजनक रोटी की कमी नहीं है और सोने की कोई सीमा नहीं है| और दुनिया के बड़े से बड़े धर्माचार्य विद्वान और बड़े से बड़े धनवान कोई विद्वान नहीं हैं| उसके लिये कोई बुध्दि की आवश्यकता नहीं है, और मानव की ज़रूरतों को पूरा करने में हज़ारों वर्षों से असमर्थ रहे हैं और आगे भी मानवता को देने के लिये इनके पास कुछ नहीं है|

दुनिया में सारे तनावों की जड़ केवल दो हैं - एक धन और दूसरा धर्म| अगर हम अपने को इससे मुक्त कर लें, तो न सिर्फ़ अपना जीवन बल्कि अपने आने वाली पीढ़ियों का पूरा जीवन तनाव-रहित और सुखी बितायेंगे| इन बातों का अगर थोड़ा भी ख़याल रखा और जीवन को इन पर ढालने की थोड़ी भी कोशिश की तो हमेशा सुखी रहेंगे|

इसकी एक बुनियादी गुर की बात और ध्यान रखें कि आप जो जीवन-मूल्य, जीवन-पद्धति और दर्शन को प्रतिपादित करें और यह आशा करें कि आपकी आने वाली पीढ़ी भी उस पर चले, तो यह सबसे ज़्यादा आवश्यक है कि आपका ख़ुद का आचरण और जीवन आपके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों पर आधारित हो, आपका ख़ुद का जीवन एक उदाहरण हो| अन्त में कुछ शब्द करेन्ट बुक डिपो के बारे में कहना चाहूँगा| जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि यह एक मिशन विशेष के लिये संस्थापित व संचालित संस्था, जिसमें दिवंगत कामरेड रामआसरे, मेरे सहयोध्दा आनन्द माधव त्रिवेदी, मेरी पत्नी रूप कुमारी खेतान, मेरे पुत्र अनिल खेतान, अरविन्द कुमार और सैकड़ों क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं व प्रिय पाठकों का योगदान रहा है| मैं इन सब का ऋणी हूँ और आशा करता हूँ कि ये सब भविष्य में भी वैसा ही करते रहेंगे| उद्देश्य यह है कि इसके द्वारा प्रकाशित व वितरित साहित्य से देश के हज़ारों पाठकों को मार्क्सवादी दर्शन पर आधारित व प्रेरित श्रेष्ठ सामग्री उपलब्ध होती रहे| इसके संचालन से सम्बन्धित विस्तृत बातें या तकनीकी मुद्दों का निर्णय उपरोक्त व्यक्ति आपस में विचार–विमर्श के ज़रिये तय करते रहें|
- एम. खेतान
4 अक्टूबर 1999 
(मृत्यु : 6 अक्टूबर, 1999, रात्रि नौ बजे)

Monday 3 June 2013

सवाल 'कल' का : 'जवाब' आपका !


प्रिय मित्र, कल एक युवक ने मुझसे यह प्रश्न किया. "गुरु जी, दस साल के बाद आन्दोलन की हमारी धारा की क्या तस्वीर होगी?"
प्रश्न मन को विचलित करने वाला था. अपनी तरुणाई से अब तक की दशक-दर-दशक की अपनी और अपने सभी साथी-दोस्तों की सभी की सभी सकारात्मक और नकारात्मक गतिविधियों के सारे ही चित्र तड़ातड़ एक के बाद एक मानस-पटल पर नाच गये. साफ़ दिख गया कि हम सब कितने पानी में थे, हैं और रह पायेंगे. 

तब तक आज सक्रिय 'वरिष्ठ' लोगों की पीढ़ी अपनी क्षमता, अक्षमता और अपने पूर्वाग्रहों के साथ मैदान खाली कर चुकी होगी और आज जो युवा सीखने की प्रक्रिया में हैं, तब उनको ही सिखाने की भूमिका में खेलना पड़ेगा. जो युग-जन्य सवाल हमारे सामने आज हैं और हम अभी तक उनके समाधान नहीं दे सके हैं, उनसे अधिक जटिल सवाल ले कर दस साल बाद के नेतृत्वकारी दिमाग से समाधान पाने की उम्मीद करता हुआ तब का तरुण और किशोर जिज्ञासा व्यक्त करेगा. विश्लेषण की जो क्षमता वे आज हासिल कर पा रहे हैं, तब वही क्षमता ही उनको विश्लेषण करने में मदद करेगी.

हमारे साथ जो हुआ, सो हुआ. हमने जो भी जैसे भी सीखा, सीखा. जो कुछ करते बना, कर सके. मगर अगर नयी पीढ़ी के समाज-वैज्ञानिकों को हर मुमकिन क्षमता से लैस करने का अपनी पूरी कूबत भर प्रयास करने में किसी तरह की कोताही हमारे स्तर से की गयी, तो यह भावी भारत के आन्दोलनों के नेतृत्वकर्ताओं के विकास के साथ तो अक्षम्य नाइन्साफी होगी ही, उनके पीछे खड़े होने वाले अगणित अबोध मस्तिष्कों के साथ भी ऐसा ऐतिहासिक छल होगा, जिसका कोई परिष्कार तब होना मुमकिन नहीं हो सकेगा.

आने वाले कल के इंकलाबियों को तैयार करने के दायित्व का निर्वाह करने में हम सब की और भी अधिक प्रभावी भूमिका बन सके, इसके लिये भी मेरा निवेदन है कि हम सब को किसी भी तरह से परस्पर न्यूनतम एकजुटता का ढाँचा खड़ा करने की पहल जल्दी से जल्दी लेनी ही होगी. मेरी समझ है कि हमारे सामने क्रान्तिकारी, प्रगतिशील, जनपक्षधर मित्रों की एकजुटता ही इतिहास द्वारा हमारे लिये दिया गया आज का सबसे प्रमुख कार्यभार है.
आपका क्या मत है? 
- आपका ही गिरिजेश

शब्द-चित्र : मैं छोटू हूँ - गिरिजेश



मैं छोटू हूँ. 
मेरा चाहे जो भी नाम हो, मगर मुझे सभी छोटू ही कहते हैं.
सर्दी, गर्मी, बरसात - मेरी ड्यूटी डेली चलती है. 
कभी कोई छुट्टी नहीं. 
तब तक कोई छुट्टी नहीं, जब तक बेतहाशा बीमार ना पड़ जाऊँ.
मुझे आप हर शहर, हर कसबे, हर चट्टी-चौराहे की चाय की दूकान पर सुबह से शाम तक लगातार खटते देख सकते हैं. 
मेरा काम हर सुबह दूकान की भट्टी सुलगाने से शुरू होता है और सारे बर्तनों को मांजने और झाड़ू लगाने के बाद रात में खत्म होता है. 
मैं लगभग दस साल की उम्र में नौकरी करने के लिये अपना घर-बार, माँ-बाप, भाई-बहन - सबको छोड़ कर दुकान पर आ जाता हूँ. 
दिन के खाने की जगह मुझे दूकान में बेचने के लिये बनने वाले समोसे और ब्रेड-पकौड़े से काम चलाना पड़ता है. 
सबकी तरह खाना तो मुझे रात में ही मिल पाता है.
मैं बड़ा होने तक लगभग दस साल तक 'सेठ' के यहाँ नौकरी करता हूँ और जब खटते-खटते आख़िरकार किसी तरह बड़ा हो जाता हूँ, तो सड़क के किनारे किसी दूसरे नुक्कड़ पर अपनी खुद की गुमटी जुटाता हूँ. उसके सामने एक छोटा-सा छप्पर डालता हूँ. एक बेंच बनवाता हूँ. और इस तरह मैं भी अपनी खुद की चाय की दूकान खोल लेता हूँ और फिर मेरी भी दूकान पर एक नया छोटू खटने के लिये आ ही जाता है. 
तब जा कर मैं भी अपनी शादी करता हूँ और बच्चे पैदा करता हूँ. 
मैं खुद तो पढ़ नहीं सका था. 
आज भी मैं केवल हिसाब-किताब कर ले जाता हूँ. 
मगर मैं अपने बेटे का नाम पड़ोस के नर्सरी स्कूल में ही लिखवाता हूँ. 
अब हर दिन मैं अपने छोटू को खटा कर हर शाम अपने कमरे पर अपने बाल-बच्चों के साथ खाने-सोने जाने लगता हूँ. 
यह कहानी ऐसे ही चलती जा रही है. 
क्या आप इसमें कुछ फेर-बदल करने के चक्कर में हैं? 
नहीं न! 
करियेगा भी मत!
क्योंकि अगर कुछ हुआ, तो फिर आपको डेली चाय कौन पिलाएगा?
....सर जी....!!!

आस्तिक और नास्तिक - गिरिजेश


प्रश्न:- आस्तिक और नास्तिक का मतलब समझायें|

उत्तर:- जो ख़ुदा के होने और उनके पैगम्बर हज़रत मुहम्मद की चौदह सौ वर्षों पुरानी बातों पर आँख, कान, जुबान और दिमाग पूरी तरह बन्द करके मुसल्सल यकीन करे, वह आस्तिक (मुसलमान) और जो न करे, वह नास्तिक (काफ़िर) कहा जाता है. हिन्दू, ईसाई और दूसरे धर्मों और सम्प्रदायों को मानने वाले लोगों ने भी ऐसी ही मान्यता बना रखी है. 

आस्तिकता के समर्थक वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के भी आस्तिक होने का तर्क देते है. ऐसे में यह समझने की ज़रूरत है कि नास्तिक होने के लिए वैज्ञानिक भर होना काफ़ी नहीं है. उसके लिये तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी होना चाहिए. 

और दार्शनिक तो केवल तीन धाराओं में ही हैं - नास्तिक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक. मेरी समझ से सही दर्शन तो वही है, जो जीवन और जगत का केवल विश्लेषण ही करके न रह जाये, बल्कि इसकी सभी समस्याओं का समाधान भी पेश करे और वह भी असली समाधान, न कि काल्पनिक. 

और यह समाधान केवल वैज्ञानिक (द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक) भौतिकवादी दर्शन के पास है. इसके ही अनुयायियों ने ही बार-बार धरती को आस्तिकों के काल्पनिक स्वर्ग से भी अधिक खूबसूरत बनाने के लिये एक से बढ़ कर एक मॉडल बनाने के लिए पूरी कशिश के साथ खूब-खूब सफल/विफल जद्दोजहद की है. बाकी दर्शनों के अनुयायियों ने तो केवल धरती के असली नरक को ही यथावत स्वीकारने या धिक्कारने और नकारने तक ही खुद को समेट लिया है.

एक व्यंग्य : सवाल सिगरेट का - गिरिजेश


मेरे प्यारे दोस्त, ख़ुदा कसम, बेशक ख़ुद ख़ुदा ने ही अपने पाक़ हाथों से इस फानी दुनिया को बनाते समय इन्सानियत की ख़िदमत के लिये जो सबसे शानदार तोहफ़ा बनाया था, उसका नाम तम्बाकू ही है. 

बकौल रसूल हमज़ातोव के खुदा ने भी दुनिया बनाने के बाद तम्बाकूनोशी कर के ही सुकून महसूस किया था और यही वजह है कि ख़ुदा के नेक बन्दों को भी जल्दी से जल्दी ख़ुदा का 'प्यारा' होने के लिये इसी शगल का सहारा लेना ही पड़ता है. 

समूची दुनिया-जहान में यह इकलौती ऐसी नायाब शै है, जो देखते-देखते हमारे शौक से हमारी आदत तक जा पहुँचती है. इसका सोंधा-सोंधा धुँवा हमको इस कदर बेतहाशा पसन्द आता है कि नाक और मुँह के रास्ते फेफड़ों और आमाशय तक ही नहीं जाता, हौले-हौले दिल-ओ-दिमाग तक चलता चला जाता है. तब फिर तरन्नुम का आलम यह होता है कि बेहद मज़ेदार सुरूर बरपा हो जाता है हमारे ऊपर.

और फिर बार-बार और अन्दर और और भी अन्दर तक जा पहुँचने वाला और ख़रामा-ख़रामा सुकून देने और चुपके-चुपके, चोरी-चोरी पहले फ़कत सेहत और फिर आख़िरकार ज़िन्दगी भी चुरा लेने लेने वाला यह मर्ज़ राज कपूर की 'तीसरी कसम' की तरह ही लज्ज़तदार और मज़ेदार है. 

कमबख्त किसी तरह छूटता ही नहीं. सिगरेट छोड़ने के वायदे हैं कि बार-बार इस मासूम दिल की तरह टूटते रहते हैं. अब ऐसे में आप ही बताइए कि भला किया भी क्या जाये और कैसे किया जाये ! ले-दे कर यह मामला दिल का है और दिल है कि जानता तो है मगर मानता ही नहीं....

एक सिगरेट ही तो है, जो पढ़ते समय-लिखते समय, सोचते समय-बोलते समय, अकेले में-भीड़ में, गम में-ख़ुशी में, दिन की शुरुआत करते समय-दिन का अंत करते समय, काम शुरू करने के पहले-काम ख़त्म करने के बाद, दोस्तों के मिलने पर-दोस्तों के बिछड़ने-पिछड़ने पर, बहसों में शानदार तर्क जुटाने में-धारदार तर्कों का पूरी आन-बान-शान के साथ मुकाबला करने में, बिस्तर से सफ़र तक हर जगह हमेशा ही साथ देती रही है. 

यूँ ही तो नहीं कहा गया है कि 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते चले गये...'. और फिर इस नामाकूल ज़िन्दगी का क्या भरोसा! 'यह जान तो आनी-जानी है...' ख़ुदा की कसम दोस्त, यकीन मानिए कि चाहे यह ज़िन्दगी रहे, चाहे जाये. मगर 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, छोड़ेंगे जग मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे' वाला सिगरेट से तह-ए-दिल से किया जाने वाला हमारा परम पवित्र वायदा किसी भी कीमत पर कभी भी नहीं ही टूटने वाला है. 

इस बेदर्द ज़ालिम दुनिया में जलती सिगरेट के आख़िरी कश से अधिक लज़ीज़ और सुकूनदेह और कुछ भी है क्या भला? ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक साथ निभाने वाले ऐसे वफ़ादार साथी को भला छोड़ा भी कैसे जा सकता है! 

और फिर 'तम्बाकूनोशी' जैसे अहम और फैसलाकून मामले में फ़कत खुदा पर ख़ालिस यकीन के अलावा मेरे जैसे घोषित नास्तिक के पास क्या विकल्प है! जब मैं ही नहीं मेरे बहुत-से प्यारे दोस्त इस बेतहाशा बदनाम शगल की गिरफ़्त में हैं, तो ऐसे में महज़ "ख़ुदा-ख़ुदा" करने के अलावा मैं भला और क्या कर सकता हूँ! 

इस वजह से ही मेरे पास उन सब की ओर से ख़ुदा के नाम पर पैरवी करने के अलावा और कोई ज़रिया बचा ही नहीं है. और मेरा तो ख़याल यही है कि इस नामाकूल पैरवी में दूसरे किसी की औकात ही क्या है! ख़ुद ख़ुदा भी इस मामले में न तो मेरी कोई मदद कर सकता है और न ही मेरे दोस्तों की किसी भी तरह से मदद करना उसे पसन्द आयेगा... 

मगर कत्तई ज़रूरी नहीं है कि आप भी इस बात से सहमत हों. आपकी मर्ज़ी जो चाहें, पूरी आज़ादी से करें.

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

Har Fikr Ko Dhue Mein... Dev Anand, an inspirationwww.youtube.com
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