Tuesday 18 June 2013

मेरा अपना फ़र्ज़ - गिरिजेश





रोज सवेरे कसरत करने में भी क्या कुछ कठिनाई है? 
“कसरत नहीं किया” - कह देने पर क्या लाज नहीं आयी है?

हरदम दुनिया में शरीर ही तो सब कुछ करता आया है; 
मरियल-सा, कमजोर, आलसी, रोगी मित्र किसे भाया है?

जितने रोग, डॉक्टर उतने, उनसे भी हैं अधिक दवाएँ;
बेच-बेच कर, लूट मुनाफा, पूँजी दुनिया में इतराये। 

खाना नहीं जहाँ मिल पाता, कैसे महँगी मिलें दवाएँ?
पूँजीवादी क्रूर व्यवस्था! क्या अब तक हम जान न पाये?

तो क्या हम भी रोगी बन बिस्तर में पड़ सड़ कर मर जायें?
और हमारे भी सिरहाने, झोला भर कर रहें दवाएँ !

कसरत करना, स्वास्थ्य बनाना, चन्द मिनट में कर दिखलाना।
सबसे कठिन काम में भी, अपने बल का लोहा मनवाना। 

छोड़-छाड़ कर सबको पीछे, हर टक्कर में आगे आना।
किसे नहीं अच्छा लगता है - अच्छा कर ताली बजवाना?

और क्रान्तिकारी जितने थे, क्या टुटहे, मरियल टट्टू थे?
थे वे सबल पेशियों वाले, उन पर तो सब ही लट्टू थे।

मैं भी सबल शरीर बना कर सबकी सेवा खूब करूँगा।
हर सच को इज़्ज़त बख्शूँगा, सदा झूठ को नफ़रत दूँगा।

गद्दारों से टक्कर लूँगा, और फ़र्ज़ से प्यार करूँगा;
घृणित गुलामी से पूँजी की, भारत का उद्धार करूँगा।

No comments:

Post a Comment