Tuesday 18 June 2013

सवाल मैत्री का - गिरिजेश


प्रिय मित्र, मुझे इस बीच मैत्री के सवाल पर आप सब के सौजन्य से काफ़ी कुछ पढ़ने-सीखने का मौका मिला है. मुझे महसूस हो रहा है कि मैत्री पवित्रतम मानवीय सम्बन्धों में से एक ऐसी कोमलतम भाव-भूमि है, जिस पर रीढ़ सीधी करके गर्व के साथ केवल परस्पर पूरे विश्वास सम्बल के सहारे ही खड़ा रहा जा सकता है. किसी से भी मैत्री न तो उसके मित्रों की संख्या की पूरी जानकारी जुटा कर की जाती है और न ही उसके दुश्मनों की गिनती करके. मैत्री तो हमारे विचारों और भावनाओं की समानता को परस्पर स्नेह और सम्मान के ज़रिये जोड़ने वाला सम्बन्ध है. इसका निर्वाह करने का सतत सायास प्रयास करना ही होता है.

परन्तु एक बार किसी बहाने मन को छू लेने पर सन्देह का नन्हा-सा दीमक आहिस्ता-आहिस्ता इस उर्वर ज़मीन को चाट डालता है और तब जीवन भर अनवरत श्रम और निश्छल त्याग करके बोया और विकसित किया गया इसका विराट वृक्ष छोटे-मोटे विवाद का तनिक-सा भी धक्का लगते ही देखते-देखते धराशायी हो जाता है. 

निश्चित तौर पर विश्वास की हत्या ही मनुष्य को सबसे दारुण दुःख देती है. मगर अपने तात्कालिक स्वार्थ में फँस कर ही ब्रूटस बार-बार पीठ में छुरा मारता रहा है. और फिर जब वह जीवन भर के निःस्वार्थ रिश्ते की समूची ऊर्जा को अपने निहित स्वार्थों के लिये एक बार ‘टॉयलेट पेपर’ की तरह जल्दी-जल्दी इस्तेमाल करके माचिस की खाली डिबिया की तरह समाज के कूड़ेदान में फेंक चुकता है, तो उसे यह भ्रम हो जाता है कि वह उसकी ऊर्जा का पूरी तरह दोहन कर चुका. 

मगर जल्दी ही जब उसे कूड़ेदान में फेंके जाने और पूरी तरह से सड़ चुकने के बाद एक बार फिर से धरती की छाती पर उग आये महाकवि ‘निराला’ के ‘कुकुरमुत्ता’ की जिजीविषा दुबारा मानवता की सेवा में ‘प्रोटीन’ से लबरेज़ दिखाई देती है, तो उसे अपनी खुद की सारी करनी-करतूत, अपनी लोभ की आतुरता की चूक और ‘जीवन-रस’ चूस कर फेंक देने की हड़बड़ी और रिश्ता तोड़ लेने की जल्दीबाज़ी पर खूब कोफ़्त होता है. और तब वह एक बार फिर से लालच का शिकार हो जाता है. 

अब उसकी बेकरारी बढ़ती चली जाती है. और वह एक बार फिर से अपनी शहद लिपटी दोहरी ज़ुबान लपलपाता, मासूमियत का अपना वही फटा पुराना मुखौटा लगाकर सामने आता है और दुबारा अपनी जंग लगी भोथरी छुरी चमकाने लगता है. ऐसे में निश्चय ही वह खुद को धरती का सबसे बड़ा अक्लमन्द और सामने वाले को दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ़ भी समझने की चूक एक बार फिर कर बैठता है. अभी भी उसकी मीठी ज़ुबान के पीछे से उसका वीभत्स स्वार्थ और उसके फटे मुखौटे में से उसकी धूर्त आँखें झाँकती ही रहती हैं. इनको लाख कोशिश करने पर भी वह किसी भी तरह से छिपा नहीं पाता. 

स्वाभाविक है कि एक बार किसी क्षणिक आवेश में आकर नहीं, वरन खूब अच्छी तरह से सोच-समझ कर बार-बार कही गयी बात और इन्सान का इन्सान के साथ रिश्ता कच्चे सूत के बहुत ही बारीक मगर बहुत ही मजबूत तागे की तरह है. पहले तो वह इतनी आसानी से टूटता भी नहीं, फिर उसे हर तरह से बचाने की पूरी कोशिश की जाती है. मगर जब झटके पर झटके खाते रहने के बाद आख़िरकार अगर वह टूट ही जाता है, तो जहाँ से टूटता है, वहीं से उसे दुबारा जोड़ना पड़ता है. 

जिसने भी जब भी उसे तोड़ा है और वह भी मेरी किसी के साथ मैत्री के सवाल पर, तो उसे जोड़े जाने के लिये तब तक तो मुझे धीरज के साथ इन्तेज़ार करना ही पड़ता है, जब तक दुबारा वह इस रिश्ते को और भी मजबूती से जोड़ने की ईमानदार पहल नहीं लेता. केवल इतना ही नहीं. इसके साथ ही वह निष्कपट शब्दों में इसकी वजह भी स्पष्ट तौर पर नहीं बताता कि मुझमें ऐसा कौन-सा सुरखाब का पर लगा है कि माइनस साथी ‘एक्स’ मैं पवित्र हूँ और साथी ‘एक्स’ के साथ अछूत! ऐसे में मुझे केवल इतना ही याद आ रहा है – “कनवा बिना रहू न जाये, कनवा के देखि के अँखियो पिराय...”

वरना मुझे अपनी ज़िन्दगी से माइनस करके वह सुकून के साथ जी सकता है क्योंकि उसे जानना चाहिए कि यह मेरी फ़ितरत रही है कि एक बार जिसे मित्र कह दिया, उससे बार-बार चोट खाने के बाद भी मैं उस पर कभी वार नहीं करता. हाँ, अपने टूटे हुए दिल के एक अँधेरे कोने में अपने खोये हुए सम्मान को दुबारा पा लेने के यकीन का टिमटिमाता हुआ छोटा-सा दिया हरदम जलाये रखता हूँ. पुरखों की कही एक और कीमती कहावत है - “घूरे का भी दिन फिरता है,” तो फिर मेरा ही क्यों नहीं? मुझे अपने सभी मित्रों द्वारा मेरे लिये जीवन के किसी भी मोड़ पर किये गये सारे ही एहसानों का पूरा-पूरा एहसास है. आपके इस क़र्ज़ को इस ज़िन्दगी में अपने सिर से उतार पाना मेरे लिये असम्भव है.

आप सब के प्रति अन्तर्मन से विनम्रतापूर्वक कृतज्ञता-ज्ञापन के साथ – आपका गिरिजेश

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