Tuesday 18 June 2013

क्या 'कट्टा' बेरोज़गारी से बेहतर है?



प्रश्न : क्या 'कट्टा' बनाना, बेचना और चलाना बेरोज़गारी से बेहतर है?

उत्तर : मित्र, 'बेरोज़गारी' तो केवल एक लक्षण है| हमारे समाज में फैली गरीबी, महँगाई, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, बेरोज़गारी, अलगाव और अवसाद - सभी एक ही बीमारी के ऊपर-ऊपर दिखने वाले लक्षण भर हैं| और वह असली बीमारी है जिन्दा आदमी का खून पीने वाली "निजी मालिकाने और सामाजिक श्रम के पीड़ादायी अन्तर्विरोध" पर टिकी यह जनविरोधी पूँजीवादी व्यवस्था| हमारी सारी समस्याएँ इस अमानवीय व्यवस्था की ही देन हैं| 

इस व्यवस्था में 'गरीबी हटाओ' के नारे लगा कर 'अमीरी बढ़ाओ' का गोरखधन्धा दशकों से जारी है| क्या अभी तक 'गरीबी' हटी? मेरा प्रश्न है कि जब तक 'अमीरी हटाओ' का नारा नहीं लगाया जायेगा, तब तक गरीबी कैसे हटेगी? और फिर कैसे जीवन के उत्साह से लबरेज़ युवकों को आख़िरकार पूरी तरह से हताश करने वाली भीषण बेरोज़गारी का इलाज होगा? 

यह एक सीधा-सा तर्क है कि कहीं भी 'गड़हा' तभी बनता है, जब लगातार उसकी 'माटी' को काट-काट कर 'ढूहे' पर पाटा जाता है| आज नहीं तो कल, जब डॉ. लोहिया का दिया हुआ "ढूहा काटो, गड़हा पाटो" का नारा लगा कर करोड़ों बेरोज़गार युवा इस देश की सड़कों पर सैलाब बन कर उमड़ेंगे, तो सारे धन्धेबाज़ मटियामेट कर दिये जायेंगे| 

और फिर जब कार्यसक्षम हाथों को बेरोज़गार बनाने वाली यह व्यवस्था ही नेस्तनाबूत हो जायेगी, तब कोई युवा बेरोज़गार नहीं रहेगा| तब हर हाथ को काम और हर पेट को भोजन मयस्सर होगा| तब ज़िन्दगी ज़हर से बदतर नहीं लगेगी| तब मौत ज़िन्दगी से बेहतर नहीं लगेगी| तब लाखों की संख्या में 'अन्नदाता' आत्महत्या नहीं करेंगे| तब कोई 'छोटू' चाय की दूकान पर अपना बचपन नहीं बेचेगा| तब कोई बुज़ुर्ग ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानेगा| तब कोई नारी अपमानित नहीं होगी|

और फिर तब कोई भी तर्क करते समय बेरोज़गारी से 'कट्टा-उद्योग' को बेहतर नहीं कहेगा| जब भी कोई गोली चलती है, तो एक इन्सान मरता है| याद रखिए कि 'रचना और संघर्ष' के पुरोधा योद्धा शंकर गुहा नियोगी बम्हौर के इसी कट्टे से निकली गोली से शहीद हुए थे| इन्सान की जान का धन्धा करने वाले ये सारे ही लोग समाज और मानवता के अक्षम्य अपराधी हैं| ये लोग ही आज़मगढ़ को 'आतंकगढ़' के नाम से बदनाम करने के लिये ज़िम्मेदार हैं| ये लोग खुद तो दुर्दान्त अपराधी हैं ही, साथ ही आज़मगढ़ के मासूम युवकों को अपराध की दलदल में ढकेलने के भी अपराधी हैं| ये लोग इस उद्योग के सहारे आज़मगढ़ के बेरोज़गार युवकों को 'असलहा' की सनसनी में फँसा देते हैं| और फिर ये ही उनको अंडरवर्ल्ड के माफ़ियाओं और रंग-बिरंगे झण्डों वाले सफ़ेदपोश नेताओं की 'शार्प शूटरों' के तौर पर सेवा करने के लिये तैयार करते हैं| ये नितान्त मनबढ़ और समाजविरोधी लोग हैं| 

इस पतित व्यवस्था की भ्रष्ट पुलिस भी इनकी ही काली कमाई खाती रहती है| उसे भी केवल अपना सरकारी 'कोटा' पूरा करने के लिये कभी-कभार ऐसी गिरफ़्तारी का दिखावटी नाटक करते रहना पड़ता है| इन गिरफ्तारियों से इस अवैध उद्योग के फलने-फूलने पर कोई प्रतिकूल प्रभाव कभी भी नहीं पड़ता| 

इस तरह के तर्क देते समय कृपया यह बात अवश्य याद रखिए कि युवाओं की इसी बेरोज़गारी और बम्हौर के इसी कट्टा के चलते आज़मगढ़ का नाम पिछले दशकों में बेतहाशा बदनाम हुआ है| हमें 'असलहे' के इस ग्लैमर का हर तरह से हर स्तर पर विरोध ही करना होगा| हमें आज़मगढ़ के युवाओं को उनकी शिक्षा की गिरावट और बेरोज़गारी की वर्तमान असहनीय परिस्थिति को बदलने के लिये लगातार प्रेरित करना होगा| उनको नकारात्मक सोच से उबारना होगा और सकारात्मक और रचनात्मक दिशा में विकसित करने के लिये सतत जद्दोजहद करना होगा| हमें हर क्षेत्र में, हर तरह का और हर स्तर पर एक नया विकल्प देने का प्रयास करना होगा| हमें आज़मगढ़ के किशोरों, तरुणों और युवाओं के कोमल मन में उम्मीद का एक दिया जलाना होगा|

तभी हम सभी अपने ज़िद्दी पुरखों के ज़माने से चले आ रहे आज़मगढ़ के परम्परागत सम्मान की एक बार फिर से पुनर्स्थापना कर सकेंगे| और तभी जा कर हम सभी इकबाल सुहैल का यह शेर गर्व के साथ दोहराने के काबिल बन सकेंगे -
"यह खित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ; 
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है|"

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