Tuesday 18 June 2013

राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद - गिरिजेश



मेरे कट्टर हिन्दुत्ववादी मित्रगण, 
मुझे स्पष्ट कहने के लिये क्षमा कीजियेगा. मगर बहुत ही संकुचित दृष्टि है आपकी. अतीत में आप की धारा के दिग्गजों की राष्ट्रद्रोही करतूतों के अकाट्य तथ्यों द्वारा बार-बार आपको आइना दिखाने के बाद भी आप स्वयं अपने ही मुँह से स्वयं को ही एकमात्र राष्ट्रवादी और अपने अतिरिक्त अन्य सभी असली राष्ट्रवादियों को राष्ट्रद्रोही घोषित करने वाला प्रमाण-पत्र देने का दुस्साहस बार-बार करते ही रहते हैं.

'राष्ट्र' देश-विशेष में रहने वाले नागरिकों को कहते हैं और 'देश' एक राज-सत्ता के अधीन भूखण्ड को. 'राष्ट्र-राज्य' की परिकल्पना बाज़ार के विकास और विस्तार के साथ-साथ ही उभरी और बढ़ी है. सामंतवाद के हज़ारों वर्ष लम्बे पूरे काल-खण्ड में इसके उद्भव से १८५७ के प्रथम स्वाधीनता समर के योद्धाओं तक की प्रतिबद्धता अपने-अपने राज्य तक ही सीमित थी. भारतीय उपमहाद्वीप के भूखण्ड को संस्कृत साहित्य भी ‘राष्ट्र’ कहता है. वैदिक ऋषि गर्वपूर्वक घोषणा करता है – “वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः” परन्तु वह इस रूप में एक राज-सत्ता के अधीन अंग्रेजों का उपनिवेश बनने के पहले कभी भी नहीं था.

राष्ट्रभक्ति और अंतर्राष्ट्रीयतावाद दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं. विश्व के इतिहास में जब भी साम्राज्यवादी शक्तियों ने किसी भी देश की क्रांति पर हमला किया, तब-तब उस देश के क्रान्तिकारियों ने अपने देश के अन्य वर्गों की प्रतिनिधि राजनीतिक शक्तियों के साथ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बना कर उसका ज़बरदस्त प्रतिरोध किया है. माओ का कथन है कि जो राष्ट्रवादी नहीं है, वह साम्यवादी भी नहीं हो सकता. द्वितीय विश्वयुद्ध में स्टालिन के नारे को और वियतनाम की क्रांति में हो ची मिन्ह की भूमिका को इसी रूप में देखा जाता है. 

किसी भी देश की क्रान्ति में आत्म-बलिदान देने के लिये दुनिया के दूसरे सभी देशों से क्रान्तिकारी वहाँ जाते रहे हैं. ऐसे ही एक भारतीय क्रान्तिकारी थे डॉ. कोटनीस, जो चीनी क्रान्ति के समय चीन गये थे. चीनी क्रान्ति में कनाडा से चल कर शहीद होने वाले ऐसे ही एक दूसरे क्रान्तिकारी थे डॉ. नार्मन बैथ्यून. इसी सन्दर्भ में पूरी धरती के हम सब क्रान्तिकारी अतीव गर्व के साथ चे के तेवर और शहादत को याद करते हैं. चे महान क्रांतिकारी थे. वह सच्चे अर्थ में अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रतिनिधि चरित्र थे. चार देशों में क्रान्तियों में भाग लेने वाले दुनिया भर के युवा क्रान्तिकारियों के आदर्श चे वस्तुतः विश्व-मानव थे.

जब कभी भी हम विश्व-क्रान्ति के किसी भी महानायक को अपना सलाम पेश करते हैं, तो इसका स्पष्ट आशय बिरादराना सम्बन्ध व्यक्त करना होता है. उनको अपना क्रान्तिकारी अभिवादन प्रेषित कर के हम विदेशियों के तलवे नहीं चाटते. तलवे चाटने का काम तो पालतू कुत्ते किया करते हैं, जिनको मालिक से अपने लिए एक टुकड़ा हड्डी की लालच होती है. जनमुक्ति के लिये जूझने वाले इन्कलाबी लालची नहीं होते, शोषक पूंजीपति वर्ग के सत्ताधारी चाकर लालची होते हैं.

1947 से आज तक अपने विदेशी आकाओं के तलवे चाटने के आलावा इन्होंने कभी भी भारतीय राष्ट्र की गरिमा के प्रश्नों पर उनके हस्तक्षेप का जम कर विरोध नहीं किया. 1990 के बाद तो ‘ग्लोबल विलेज’ बन जाने के बाद से आज तक भारतीय शासक वर्ग और उसके सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि खुल्लमखुल्ला अमेरिका के तलवे ही चाट रहे हैं और देश के जल, जंगल, जमीन और आसमान को कौड़ियों के मोल उनको ही अपने कमीशन की लालच में एक के बाद एक लगातार बेच रहे हैं. अपने इस राष्ट्रद्रोही कुकर्म के लिये वे भारतीय सेना का दुरुयोग करने से भी नहीं हिचक रहे हैं. 

आज देशी विदेशी पूँजी का गंठजोड़ ही भारतीय राष्ट्र का सबसे भीषण शत्रु है. भारतीय जनगण का कल्याण इनकी जनविरोधी सत्ता को बल पूर्वक उखाड़ फेंक कर ही संभव है. इसके अलावा भारत राष्ट्र के पास अपनी अस्मिता को बचाने और बनाये रखने के लिये कोई विकल्प बचा नहीं है.

और अब तो क्रांति भी एक देश में शुरू भले ही हो जाये, उसे दुनिया भर में फैलते देर नहीं लगेगी. अरब-वसंत और आकुपाई आन्दोलन की पहली लहर का विस्तार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. अब ही जाकर वास्तविक अर्थ में “वसुधैव कुटुम्बकं” का युग आया है. यही वजह है कि आने वाली क्रान्ति का स्वरूप भी मूलतः वैश्विक ही होने जा रहा है.

आप सभी भगवा ब्रिगेड के दम्भी साम्प्रदायिकतावादियों की दृष्टि की सीमा देख कर आज एक बार फिर मुझे दुःख हुआ. मुझे आप जैसे आत्मलीन और संकीर्ण दृष्टि वाले बड़बोले लोगों को ही याद दिलाने के लिये बहुत ही खेद के साथ आज एक बार फिर से लिखना पड़ रहा है कि हमारे-आपके ही पूर्वजों ने कभी इन पंक्तियों को भी लिखा था -
''अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम,
उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम|"

खेद-प्रकाश के साथ - आपका गिरिजेश 'इंकलाबी'

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