Thursday 6 June 2013

एक क्रान्तिकारी की अन्तिम इच्छा




(कृपया इसे स्वयं भी पढ़ें और अपने मित्रों को भी पढ़वायें)

मेरी अन्तिम इच्छा” 

मैं, महादेव खेतान - उम्र लगभग 76 वर्ष, पुत्र स्व० श्री मदनलाल खेतान, अपने पूरे सामान्य होशो–हवास में अपनी अन्तिम इच्छा निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त कर रहा हूँ|

मैं अपनी किशोरावस्था (सन 1938-39) में ही मार्क्सवादी दर्शन (द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद) के मार्गदर्शन में उस समय देश, नगर तथा शिक्षण-संस्थाओं में चल रहे ब्रिटिश गुलामी के विरोध में ज़ुल्म और शोषण के विरोध में स्वाधीनता संग्राम, क्रान्तिकारी संघर्ष, मज़दूर-आन्दोलन और किसी न किसी संघर्ष से जुड़ गया था| उसी पृष्ठभूमि में मुझे अध्ययन और आन्दोलन को एक साथ समायोजित करते हुए सृष्टि और मानव तथा समाज की विकास-प्रक्रिया को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने, उसको देखने और समझने का अवसर मिला|

मेरी यह पुष्ट धारणा बनी कि आज भी प्रकृति के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और मानव-विकास की प्रक्रिया में उसको समझने के प्रयास तथा उससे या उनसे संघर्ष करते हुए उनको अपने लिये अधिक से अधिक उपयोगी बनाने में हज़ारों बरस के मानव प्रयास ही सृष्टि, मानव और समाज का असली और सही इतिहास है| यहाँ मैं मानव के ऊपर किसी दिव्य शक्ति या ईश्वर को नहीं मानता हूँ| यह प्रक्रिया अनवरत चल रही है, जिसके फलस्वरूप आज के मानव का विकास हमारे सामने है| यह प्रक्रिया आगे भी तेजी से चलती जायेगी, चलती जायेगी| 

अस्तु, मेरी मृत्यु पर ईश्वर और उसके दर्शन पर आधारित कोई भी, किसी भी प्रकार का, किसी भी रूप में, धार्मिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड, पाठ, यज्ञ, ब्राह्मण-भोजन अथवा दान आदि, पिण्डदान तथा पुत्र का केश-दान (सिर मुड़ाना या बाल देना) आदि-आदि कुछ नहीं होगा तथा दुनिया के सब से बड़े झूठ (राम-नाम) को मेरा शव दिखा कर (सत्य) घोषित और प्रचारित करने का भी कोई प्रयास नहीं होगा| मेरे शव को सर्वहारा के लाल झण्डे में लपेट कर “दुनिया के मज़दूरो, एक हो!” “कम्युनिस्ट आन्दोलन तथा पार्टी विजयी हो!” आदि-आदि नारों के साथ मेरे जीवन भर के परिश्रम से विकसित करेन्ट बुक डिपो से उठा कर बड़े चौराहे स्थित मेरे भाई तथा साथी कामरेड रामआसरे की मूर्ति के नीचे ले जाकर मेरे शव को अपने साथी को अन्तिम लाल सलाम करने का अवसर प्रदान करें तथा वहीं पर लखनऊ स्थित संजय गाँधी पो० ग्रे० इन्स्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइन्स के अधिकारियों को बुलाकर मेरा शव उनको दे दें, ताकि न सिर्फ़ ज़रूरतमन्द लोगों को मेरे शरीर के अंगों से पुनर्जीवन मिल सके, बल्कि आने वाली डॉक्टरों की पीढ़ी के अध्ययन को और अधिक से अधिक उपयोगी बनाने में मेरे शरीर का योगदान हो सके|

इसके बाद समय हो और मित्रों की राय पड़े, तो वहीं रामआसरे पार्क में सभा करके अगर मेरे जीवन के प्रेरणादायक हिस्सों के संस्मरण से आगे आने वाली संघर्षशील पीढ़ी को कोई प्रेरणा मिल सके, तो उसका ज़िक्र कर लें| वरना मित्रों की राय से सबके लिये जो सुविधाजनक समय हो उस समय यहीं रामआसरे पार्क में लोगों को बुला कर संघर्षशील नयी पीढ़ी को प्रेरणादायक संस्मरण दे कर ख़त्म कर दें| यही बस मेरी मृत्यु का आखिरी अनुष्ठान होगा| इसके बाद या भविष्य में भी कभी कोई दसवाँ, तेरही, कोई श्राद्ध, कोई पिण्डदान आदि कुछ नहीं होगा और मैं यह ख़ास तौर पर कहना चाहता हूँ कि किसी भी हालत में, किसी भी जगह और किसी भी बहाने से कोई मेरा मृत्युभोज (तेरही) नहीं होने देगा| अपने परिवार के बुज़ुर्गों से मेरा अनुरोध है कि मेरी मृत्यु पर अपने जीवन-दर्शन या आस्थाओं, अन्धविश्वासों और अपने जीवन-मूल्यों को थोपने की कोशिश न करें, मुझ पर बड़ी कृपा होगी| घर पर लौट कर सामान्य जीवन की तरह सामान्य भोजन बने| “चूल्हा न जलने” की परम्परा के नाम पर न मेरी ससुराल, न मेरे पुत्र की ससुराल से और न ही किसी अन्य नातेदार-रिश्तेदार की ससुराल से खाना आयेगा|

उसके दूसरे दिन से बिलकुल सामान्य जीवन और सामान्य दिनचर्या, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो, घर व दूकान की दिनचर्या बिना किसी अनुष्ठान के शुरू हो जाये तथा मेरी मृत्यु पर मेरी यह अन्तिम इच्छा काफ़ी बड़े पैमाने पर छपवा कर न सिर्फ़ नगर में वृहत तरीके से मय अखबारों के व सभी तरह के राजनैतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं को बँटवा दें तथा करेन्ट बुक डिपो व मार्क्सवादी आन्दोलन व साहित्य से सम्बन्धित सभी लोगों को डाक से भेजें, ताकि इससे प्रेरणा लेकर अगर एक प्रतिशत लोगों ने भी इसका अनुसरण करने की कोशिश की, तो मैं अपने जीवन को सफल मानूँगा|

मेरे जीवन में होल-टाइमरी के बाद सन् 1951 से अभी तक जो कुछ भी मैंने बनाया है, वह करेन्ट बुक डिपो है, जो किसी भी तरह से कोई भी व्यापारिक संस्थान नहीं है, बल्कि किसी उद्देश्य विशेष से मिशन के मातहत एक संस्था के रूप में विकसित करने का प्रयत्न किया था| मेरे पास न एक इंच जमीन है और न कोई बैंक-बैलेन्स है| मेरे जीवन का एक ही मिशन रहा है कि देश और विदेशों में तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय, जो न सिर्फ़ अपने जीवन के स्तर को सम्मानजनक बनाने के लिये, बल्कि उत्पीड़न और शोषण की शक्तियों के विरोध में उनको नष्ट करने के लिये जीवन-मरण के संघर्ष करते रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे - उनको हर तरह से तन, मन और धन से जो कुछ भी मेरे पास है, उससे मदद करूँ, उनको प्रेरणा दूँ और अपनी यथा-शक्ति दिशा दूँ| इसी उद्देश्य से मैंने करेन्ट बुक डिपो खोला, इसी उद्देश्य के लिये इसे विकसित किया| कहाँ तक मैं सफल हुआ - इसका आकलन तो इन संघर्षों की परिणित ही बतायेगी| जितना, जो कुछ मुझे इस समय आभास है, उससे मुझे कोई असन्तोष नहीं है|

मेरी मृत्यु के बाद मेरा ये जो कुछ भी है, उसके सारे Assets (परिसम्पत्ति) और Liability (उत्तरदायित्व) के साथ इस सबका एकमात्र उत्तराधिकारी मेरा पुत्र अनिल खेतान होगा| मैंने कोशिश की है कि मेरी मृत्यु तक इस दुकान में कोई ऐसी liability नहीं रहे, जिसके लिये मेरे पुत्र अनिल को कोई दिक्कत उठानी पड़े| मेरी यह इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा पुत्र अनिल खेतान भी मेरे जीवन के इस मिशन को, जिसके लिये मैंने करेन्ट बुक डिपो खोली व विकसित की है – उसको अपना सब कुछ निछावर करके भी आगे बढ़ाता रहेगा, उसी तरह से विकसित करता रहेगा और प्रयत्न करेगा कि उसके भी आगे की पीढ़ियाँ यदि इस संस्थान से जुड़ती हैं, तो वे भी इस मिशन को अपनी यथाशक्ति आगे बढ़ाते हुए विकसित करेंगी|

मैं यह आशा करता हूँ कि मेरी ही तरह मेरा पुत्र भी किन्हीं भी विपरीत राजनैतिक परिस्थितयों में डिगेगा नहीं और बड़े साहस व आत्मविश्वास के साथ झेल जायेगा और यह नौबत नहीं आने देगा कि पीढ़ियों के लिये प्रेरणा और दिशा स्रोत करेन्ट बुक डिपो बन्द हो जाये| 

मैं यह चाहूँगा कि जैसे मैंने अपने और अपने पुत्र के जीवन को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित करने का प्रयत्न किया और किसी भी धर्म या अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड से दूर रखा, उसी प्रकार मेरा पुत्र अपने जीवन को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी ईश्वर व धर्म व उस पर आधारित दर्शन, अन्धविश्वास और कर्मकाण्डों से दूर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित करेगा तथा जीवन को न्यूनतम ज़रूरतों में बाँधेगा| ताकि अपनी फ़िज़ूल की बढ़ी हुई ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अपने मूल्यों से समझौता न करना पड़े, क्योंकि वही फिसलन की शुरुआत है, जिसका कोई अन्त नहीं है| दुनिया में रोटी सभी खाते हैं, सोना कोई नहीं खाता है| लेकिन सम्मानजनक रोटी की कमी नहीं है और सोने की कोई सीमा नहीं है| और दुनिया के बड़े से बड़े धर्माचार्य विद्वान और बड़े से बड़े धनवान कोई विद्वान नहीं हैं| उसके लिये कोई बुध्दि की आवश्यकता नहीं है, और मानव की ज़रूरतों को पूरा करने में हज़ारों वर्षों से असमर्थ रहे हैं और आगे भी मानवता को देने के लिये इनके पास कुछ नहीं है|

दुनिया में सारे तनावों की जड़ केवल दो हैं - एक धन और दूसरा धर्म| अगर हम अपने को इससे मुक्त कर लें, तो न सिर्फ़ अपना जीवन बल्कि अपने आने वाली पीढ़ियों का पूरा जीवन तनाव-रहित और सुखी बितायेंगे| इन बातों का अगर थोड़ा भी ख़याल रखा और जीवन को इन पर ढालने की थोड़ी भी कोशिश की तो हमेशा सुखी रहेंगे|

इसकी एक बुनियादी गुर की बात और ध्यान रखें कि आप जो जीवन-मूल्य, जीवन-पद्धति और दर्शन को प्रतिपादित करें और यह आशा करें कि आपकी आने वाली पीढ़ी भी उस पर चले, तो यह सबसे ज़्यादा आवश्यक है कि आपका ख़ुद का आचरण और जीवन आपके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों पर आधारित हो, आपका ख़ुद का जीवन एक उदाहरण हो| अन्त में कुछ शब्द करेन्ट बुक डिपो के बारे में कहना चाहूँगा| जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि यह एक मिशन विशेष के लिये संस्थापित व संचालित संस्था, जिसमें दिवंगत कामरेड रामआसरे, मेरे सहयोध्दा आनन्द माधव त्रिवेदी, मेरी पत्नी रूप कुमारी खेतान, मेरे पुत्र अनिल खेतान, अरविन्द कुमार और सैकड़ों क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं व प्रिय पाठकों का योगदान रहा है| मैं इन सब का ऋणी हूँ और आशा करता हूँ कि ये सब भविष्य में भी वैसा ही करते रहेंगे| उद्देश्य यह है कि इसके द्वारा प्रकाशित व वितरित साहित्य से देश के हज़ारों पाठकों को मार्क्सवादी दर्शन पर आधारित व प्रेरित श्रेष्ठ सामग्री उपलब्ध होती रहे| इसके संचालन से सम्बन्धित विस्तृत बातें या तकनीकी मुद्दों का निर्णय उपरोक्त व्यक्ति आपस में विचार–विमर्श के ज़रिये तय करते रहें|
- एम. खेतान
4 अक्टूबर 1999 
(मृत्यु : 6 अक्टूबर, 1999, रात्रि नौ बजे)

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